Saturday, January 28, 2012

इक अदद दुम्म

मुझ को भी इक दुम्म दे दो,
मैं भी डोलता फिरून,
आगे पीछे,
हर उन जगह,
जहाँ उचाही मिल सके.
जिनके दुम्म सुन्दर थे,
कोमल,
लहरदार उनको मिला,
जो उन्न्ने चाहा,
उम्मीद से ज्यादा उछाल.
मेरे से नहीं हिलाय्गे दुम्म,
जब भी देखता हूँ अपने दुम्म्म,
श्रम  आती है,
हिलाना ही नहीं आता.
हे इश्वर!
मुझे भी दे न इक अदद दुम्म,
दिन भर हिलाता रहूँ    
             

Thursday, January 26, 2012

झाकी में गायब अंदमान निकोबार, लक्ष द्वीप

६३ वीं गणतंत्र पर भी हमारे ही देश के कुछ भाग गायब रहते हैं. बिहार, पंजाब, नागालैंड आदि राज्य तो दिखी. इसके साथ ही अन्य राज्य भी झाकी में शामिल हुवे. लेकिन अपने ही देश के अंदमान निकोबार, लक्ष द्वीप इक्सीरे से नदारत रहे. 
जब की जनपथ राज पथ पर देश के तमाम राज्यों को प्रदर्शन का पूरा पूरा हक़ है. यदि वो इस काबील नहीं की कदम ताल मिला सकें तो अन्यां विकसीत राज्यों को उनको तैयार करने का बीड़ा उठाना चाहिये. कम से कम वो भी भी तो देखें. 
पुरे साल ख़बरों से तो गायब रहते ही हैं कम से कम साल में इक बार राज पथ पर देश के सामने देखें. वर्ना वो हमारे आम जन जीवन से यूँ ही कटे अलग थलग पड़े रहेंगे. इस अलगावो को पाटने का जीमा हमारा होना चाहिए. पिछले             

Tuesday, January 24, 2012

बिन पढ़े ताला किताब पर

२३ जनवरी के तिमेस ऑफ़ इंडिया के एडिट पेज पर लीड स्टोरी पढने को मजबूर करता है. लेखक ने लिखा है १९८६ में सेतानिक वर्सेस को बिन पढ़े राजीव गाँधी ने फरमान जारी कर दिया. भारत पहला देश बन गया जिसने इस किताब पर पाबंदी लगादी. उसके बाद पुरे देश में फरमान की कतार लग गई. अकेले सलमान नहीं हैं जिनको लिखे की कीमत चुकानी पद रही है. दूसरी और तसलीमा जी भी हैं. इतेफाकन दोनों का रिश्ता भारत से गहरा रहा है. अपनी मिटटी की नमी देश से दूर रह कर भी भूल नहीं पाते. गाहे बगाहे कविता, कहानी, युपन्यास में आ ही जाता है. 
बड़ी दुर्भागया की बात है किसी की रचना को पढ़े बिना उस पर पढने की पाबंदी लगा देना किसी भी सभ्य समाज की सकारात्मक लक्षण नहीं कहे जा सकते. किसी लेखक ने क्या लिखा उसे पढने औ सुनने की शक्श्मता तो होनी चाहिए. आलोचना, प्र्तालोचना इक स्वत समाज के लक्षण हैं. लेकिन जब समाज में कुछ कट्टर वादी विचार के पोषक की अंगुली पर देश के नायक नाचने लगें तो उस देश और नायाक पर शक होना कोई बड़ी बात नहीं. 
मत भिन्नता रखना सब का हक़ है. किसी के सर कलम करने या उसकी अभिवक्ति की पर क़तर देना सहिष्णुता नहीं कही जा सकती. 
हमने विचार करना होगा की हमें हांकने वाले सही हैं या हम खुद खाली कनस्तर हो चुके हैं.                     

रहिमन धागा....

यूँ तो रहीम साहब ने आज से कई शताब्दी पहले कहा था, रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चित्काए टूटे तो फिर ना जुड़े जुड़े गत पद जाए.
सब दिन होवाहीं न इक समाना. '
रामिमान चुप व्ह्यें बैठिये देखि दिनन को फेर. नीके दिन जब आइहें बनत न लगिहें देर' 
       

Sunday, January 22, 2012

बच्चे जो कह्हरा नहीं पढ़ पाते

यूँ तो कई रिपोर्ट यह सच दिखा चुकी हैं की देश के लाखों बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन जहाँ तक तालीम की गुणवत्ता की बात है वहां वो बेहद ही कमजोर हैं. ५, ६ या ८ क्लास में पढ़ते हैं लेकिन वो क्लास १,२ के पथ पर फिसल जाते हैं. 
इन्फोसिक या प्रथम की रिपोर्ट की माने तो देश के उम्दा स्कूल के बच्चे भी बेहद ही ख़राब शिक्षा पा रहे हैं. उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है इस और उस पार की झलक मिलती है की हम अपने बच्चों को की किस्म की शिक्षा दी जा रही है. 
दाखिला तो बढ़ा है लेकिन शिक्षा की गुणवता देखते ही देखते नीचे जा चुकी है. उसे बेहतर करने में कोण अपनी बुमिका पहचानेगा. शिक्षक भी इसमें शामिल है. इसके साथ ही लोकल ऑथरिटी को भी अपनी जिमीदारी निभानी पड़ेगी.         

Saturday, January 21, 2012

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद-
मालुम नहीं था,
अपने ही लोग,
नोच कर ले जायेगे,
तेरे जाने के बाद...
तेरी दी साडी,
गहने,
सब कुछ ले गए नोच कर,
जब बिस्तर पर रोऊ रही होती हूँ तो अब नहीं जागता पूरी रात कोई.
नल पर तुम्हारे संग,
           

Friday, January 20, 2012

बच्चों की सुनेगे तो वो हमरी सुनेगे

हम बच्चों की नहीं सुनते. उनकी बात को बच्चों की बात मान कर दरकिनार कर देते हैं. जबकि सुनने की आदत बच्चे हमीं से सीखते हैं सुनने की आदत. लेकिन जब वो खुद देखते हैं की हमीं सुनना नहीं बल्किन केवल बोलना चाहते हैं तो बच्चे वाही सीखते हैं. 
बोलना भी कला है तो सुनना भी कोई कम धैर्य की और कला नहीं है. सुनना दरअसल बोलने की लिए अछि पाठशाला है. जो सुनने में बैचैनियत महसूस करते हैं वो बेहतर बोलने वाले नहीं हो सकते.
बोलने की लिए पठन  और मनन बेहद जरुरी है. जो भी बेहतरीन वक्ता हुवे हैं उनसे बोलने की कला सीखी जा सकती है. किस तरह से रोचक और सारगर्भित बनाएं यह पढने और सुनने से सीखी जा सकती है.            

Sunday, January 15, 2012

विवाद उठाना भी कला

विवाद बखेड़ा जो भी नाम दें यह भी इक कला है. जो इस कला में माहिर हैं वो हमेशा दिमाग इस बात में लगाते हैं की अब किस पर विवाद उठायागे. टीवी में चेहरे देखने की आदत हो जाती है.
यदि कुछ दिनों से चर्चे में नहीं होते तो नींद नहीं आती. फिर दिमाग के घोड़े दौडाते हैं की क्या किया जाये. अब उड़ीसा के मुख्यमंत्री के नाम कितनो को याद होता है. चेहरे तो श्याद ही किसी को याद हो. यहीं लालू जी का चेहरा देश विदेश में लोग जानते हैं . उन्हें मालुम है की विवाद में कैसे रहा जाए.
टीवी में छाए रहने के कई तरकीब है. चप्पल , स्याही, तमाचा कुछ भी उछाल दो फिर देखिये कैसे नेशनल न्यूज़ में चा जाते हैं. विवाद में खड़े होना जीगर वालों की बात होती है. अखबार, न्यूज़ चानेल हर जगह लोग आलोचना करते हैं आप बिन खर्च के चा जाते हैं.
विवाद संवाद हीनता की स्थिटती में पैदा होता है. कई लोग इसी का खाते हैं. विवाद भी खड़ा karna इक कला है                 

Saturday, January 14, 2012

रुश्दी को रोक और बाबा पर श्याही

रुश्दी को डेल्ही आने पर रोक और बाबा रामदेव पर स्याही  फेका  जाना हमारे अन्दर की कातरता और खीझ ही है. यदि संवाद नहीं होता तो विवाद खड़ा होता है.
रुश्दी   इक  विचार  उत्पादक  हैं. विचार देने वाला सम्मानिनिया होना चाहिए. लेकिन जयपुर में उसे न आने के सरे इंतज़ाम किये जा रहे हैं. जबकि लेखाका  बन्धनों  से मुक्त  होता है. लेकिन समाज का हिस्सा होने के नाते कुछ मूल्या की जिम्मेदारी उस पर भी होती है. किन्तु हम कितने अशिस्नु है की  आलोचना को सह  नहीं पाते. और किसी पर स्याही फेक कर विरोध दर्ज करते है तो किसी पर चप्पल और जुटे.
सहधी की ह्त्या दरअसल गाँधी की विचारो की ह्त्या थी. यही रुश्दी के साथ हो  रहा है. बाबा रामदेव पर स्याही उछालना संवाद  हीनता   है.          

Thursday, January 12, 2012

Tuesday, January 10, 2012

आज रात वो चाहती

आज रात वो चाहती  थी-
नीद ले पूरी ,
दिन भर काम कर थक गई थी,
पिछले दो दिनों से सो नहीं पाई थी.
न नुचे-
न चुसे,
न मसोसे आज की रात,
चाहती है पूरी आँख भर नींद.
लेकिन उसकी इक्षा पूरी नहीं हुई 
नहीं बच पाई-
आधी नींद में उठाई गई आज की रात,
उठाई गई काछी रात,
सहलाई गई,
रुलाई  गई.
रुलाई गई
प्यार पर रोई पूरी रात,
समझ नहीं पाई क्या yahi प्यार है,
जिसका दंभ भरता  है पूरी रात  पुरुष.
बचावो बचावो की पुकार किस को सुनाये-
साथ में सोव्या,
देता है वचन,
वो गले में लटका जेवर है उसका,
टूट जाए तो दुनिया बेवा कहेगी,
मेरे रहने से तू है सुरक्षित,
माकूल प्यार करता हूँ.
इन्हीं वचनों का अचरा में बंधे,
देखती है सपने,
पोचती है आंसूं ,
लाख चाते हुवे भी नहीं मोड़ पाती उससे अपना मुह,
करवट फेर कर सोती तो है,
पर जाने कब,
सुभा उसी में सिमटी मिला करती है...
                
          
     

Saturday, January 7, 2012

दीवार बोल उठी

फ़र्ज़ करें अगर दीवार बोलने लगे तो क्या क्या बोल जायेगी. सब कुछ जो दीवार के पीछे होता है. पतली गली जिस को दीवार अलगाती है. उस तरफ की बात्यें भी जगजाहिर हो जायेगी. कितनो की धडकनें रुक जायेगी. कुछ तो बेवा हो फिरेंगें.
कल यूँ ही कुछ हवा. अचानक दीवार हिलने लगी. मुझे लगा भूकंप होगा. थम जाएगा. मगर भूकंप से भी ज्यादा था. दीवार जो बोलने को बेताब हो रही थी.
कहने लगी-
अबे क्या सोच रह है? तेरी पगार बढ़ेगी या उसके हिस्से में जाएगा मोटा उछाल. तुझे ठेंगा मिलेगा या उसको न्यू कार की चाबी. इस बार क्या वो फिर दो तीन ट्रिप विदेश का लगाएगी और तू देश के सड़ेले शहर में घूम आएगा.
दीवार बोहोत बोल रही थी. जरा भी सोहा नहीं रह था. मैंने कहा चुप कर बदजात. तू कब से बोलने लगी. अब तलक तो सुनना ही तेरा काम था. ये जबान कब चलाने लगी. तुझे बोलने का सहूर कहाँ है जो बोलने को बेक़रार है.
इतना सुनना था की दीवार भी आखीर हमहे बीच ही तो रहती है. गुस्सा आ गया. मुह बिचकाते हुवे कहा,
मैंने सूना है कल तुझे नीला लिफाफा मिलने वाला है...
अब मुझे काटो तो खून नहीं. मुह लिए बैठ गया.
इस पर दुबारा दीवार के जबान चल पड़े सूना तो यह भी है शैली को इस बार बॉस ने तीन बार विदेश यात्रा की पलान्न की है. उसे तो इस बार के ट्रिप में बहाद कीमती चीजें भी दी है. तू तो बस अपनी चोच मत ही खोला कर सारा किया कराया चौपट कर देता है. उसको देख, जहां जितना बोलना होता है उतना ही खुलती है. और इक तू ही शुरू हुवा नहीं की बस शताब्दी फेल करता है.
सुनते सुनते था गया. मन में आया की इक लात मर कर इस दीवार को ही बीच से गिरा दूँ. उधर जो हो रहा है वो दीखता ह्राहे. मगर पैर में मोच जो आ गया.  

Friday, January 6, 2012

यूँ ही इकदा

कई दफा हम कहीं जाना नहीं चाहते लेकिन घर में बैठ कर मन भी नहीं लगता. यैसे में क्या करते हैं हम? कुछ पुरानी यादों की गठरी खोल कर झाड पोच करने लगते हैं. उन्हीं में से चाँद , धुल भरी पगडण्डी, सर्दी की शाम, समंदर की पचाद खाती लहरें सब के सब याद आने लगते हैं. उनमे से भी हम सुखद, ताज़ा यादों को गोद में ले कर सहलाने लगते हैं. उन्हीं पुराणी यादों में कुछ देर सुस्ता कर वापस आने का मन बनाते हैं. लेकिन इतनी आसानी से पुराणी यादें कहाँ पीछा चूद्तीं हैं.
बरबस साथ द्रविंग रूम में आ धमकती हैं. फिर देखिये क्या ही मंजर होता है. कल की यादें मुह बाए कड़ी अपनी और बुलाती है वहीँ वर्त्तमान ताकीद करता है खबरदार जो पीछे मुड़े ह्म्म्म. हम बेचारे अपना मुह लिए बैठ जाते हैं .सर्दी में अजान बोहोत मनमोहक लगता है. वो भी दोपहर वाली. दूर से गुजरती ट्रेन की आवाज़ और इकबारगी लम्बी ट्रेन फिसलती हवी आखों से ओझल हो जाती है. उन ट्रेनों में बैठे लोग हर किसी की आखों में किसी में मिलने, बतियाने, की चाह, किसी से बिछुड़े पल की ताज़ी आह सुबकती दिखाई देती है.
ट्रेन भी मजेदार होती है. कईयों की आखों में आसूं उपादा कर सिटी बजाती अपनी धुन में ट्रैक पर भागती रहती है. हम भी तो उसी की मानिंद भाग ही रहे हैं. पर कई बार पता नहीं चल पता की उतरना किस स्टेशन पर है. अनजाने में गलत जगह उतर जाते हैं.                       

जो लिखे सो दिखे

जो लिखा जाए वो पढ़ा भी जाए इससे लिखने वाले को उत्साह तो मिलता ही है साथ ही यह भी मालुम चलता है की जो लिखा वो संप्रेषित हुवा या नही. यह तबी पता चलता है जब पढने वाले को बिना ज्यादा दिमाग कसरत किये समझ आ जाए.
साहित्य लिखने में कुछ लोग बेहद मशगुल होते है. जो मन में आये रुचे बस वाही लिखते हैं. यह जाचे बिना की पाठक को क्या हासिल होगा. यैसे लेखक महज लिखने का काम करते हैं.  यैसे ही लेखक आरोप लगाते हैं की पाठक आज कल पाठक कम हो गए. जबकि पाठक क्यों वो पढ़े जिसमे कुछ ना मिले.
पाठक वही पढना चाहता है जिसे उससे कुछ मिले.           

Thursday, January 5, 2012

कितनी साड़ी चाहतें,
कुछ उम्मीदें,
इक टूटन,
इक ही जखम,
ता उम्र साथ रहता है.      

Monday, January 2, 2012

खबर की मंदी

खबर की मंदी हाँ सही सुना. मंदी ने न केवल अर्थ तंत्र को झकझोर कर रख दिया बल्कि मीडिया को भी नहीं बक्शा. कई नामी गिरामी पत्रकार बंधू बांधुनी पत्रकारिता में जीवन खपाने के बाद भी मंदी में बाहर अपने लिए रोटी तलाशते नज़र आये. बल्कि आ भी रहे हैं. उस पर बलिहारी यह की उन बह्दुयों के जाने की खबर कोई कहीं छापने को राजी नहीं. जिनने मंदी पर खूब स्तोटी अपने हाथों से पेज पर लगाए मगर उस खबर की तीस तब महसूस हुई जब वो इक दिन खुद बाहर हो गए.
मंदी के नाम पर अखबार घराने खूब जम कर खेल फरुखाबादी खेले. पेज कम किये, स्टाफ को नोऊ काम कहा, और भी खबरे रहीं मगर उनको पूछने वाला आज कोई नहीं. २००८ की मंदी ने बहुतों की उम्मीदों पर पानी ही नहीं फेरे बल्कि उनको मीडिया से मोह भंग किया. कोई पढाने चले गए. कुछ ने अपने पुराने काम पर लौट आये.
बड़े बड़े संपादक बंधुयों को देखा वो साहित्य सृजन, शोध करने कराने में जुट गए. वाही लोग कहीं ना काहीं जौर्नालिस्म के संसथान में हेड बन गए. नए पत्रकारों को मीडिया के  गुर सिखाने लगे.
समय रहते भूल सुधार ली वरना...                  

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...