Wednesday, January 31, 2018

लाल बत्ती की मौजू बात...




कौशलेंद्र प्रपन्न
रोज़ आप लोगों को अपनी कहानी या और की कहानी या फिर लेख पढ़ाकर तंग ही किया करता हूं। सोचा आज आपसे कहूं कि आप ही तो हैं जिनसे अपनी पूरे दिन की बात कहा करता हूं। आप भी नहीं सुनेंगे तो फिर मुझे मौन होना होगा।
सो आज एक कहानी सुनाता हूं। यह कहानी है लाल बत्ती की। हम सब रोज़ ही इस बत्ती को देखा करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। या फिर कुछ पल रूकते हैं।
एक दिन लाल बत्ती सोचने लगी रोज़ मैं यही खड़ी रहा करती हूं। मेरे आगे सभी रूकते और चले जाते हैं। मैं कहीं नहीं जाती। मैं भी घूमने जाउंगी।
और सुबह लाल बत्ती अपनी जगह से उठ कर पहले समंदर के किनारे गई। समंदर बत्ती की ख़ैरमखदम करने के बाद पूछा ‘‘ तुम यहां कैसे?’’ ‘‘तुम तो वहां सड़क पर हुआ करती हो।’’ तब लाल बत्ती ने जवाब दिया ‘‘रोज़ दिन एक ही काम करते करते और खड़े खड़े थक गई सोचा घूम कर आउं। रोज़ एक ही काम।’’
लाल बत्ती समंदर किनारे खड़े लाइट हाउस को देखा जो हमेशा वहीं खड़ा हुआ करता है। उसने भी पूछा ‘‘अरे तुम यहां?’’ लाल बत्ती का जवाब वही था। उसने समझाया ‘‘बहन अगर मैं अपना रोज़ का काम नहीं करूंगा तो जहाज अपने रास्ते भूल जाएंगे?’’ सो मैं रोज़ अपना काम करता हूं।
फिर लाल बत्ती लेटर बॉक्स को देखती है।लेटर बॉक्स ने भी वही सवाल किया।जवाब भी लाल बत्ती की वही थी। लेटर बॉक्स ने कहा ‘‘ बहन मैं रोज़ हज़ारों लोगों की ख़्वाहिशें पहुंचाया करता हूं। कल को मैं चला जाउं तो लोग चिट्ठयां कहां डालेंगे?’’ मुझे तो अपने काम में मज़ा आता है।’’
अब लाल बत्ती एक पुराने दरख़्त को देखती है।दरख़्त ने भी उससे वही सवाल किया।लाल बत्ती का जवाब भी पुराना ही था। ‘‘मैं थक चुकी हूं। रोज़ रोज़ एक काम करके।’’
बूढ़े दरख़्त ने कहा ‘‘बहन मैं तो सदियों से यहीं खडा हूं। बटोहियों, राहगिरों को छाया देता हूं। मुझे बहुत सकून मिलता है।जब कोई राही मेरी छाया में बैठकर सुस्ताता है।’’
लाल बत्ती ने सभी की कहानी सुनी। बातें सुनीं और उसे महसूस हुआ कि रोज़ अपने जिम्मेदारी और काम करने में कोई हर्ज़ नहीं। सब तो कर रहे हैं। पेड़, लेटर बॉक्स, समंदर का किनारा, लाइट हाउस सभी तो रोज़ अपना तय काम करते हैं। और लाल बत्ती लौट आई। देखती हैकि सडक पर अफरा तफरी है।चारों ओर भीड़ ही भीड़। बच्चे रोड़ नहीं पार कर पा रहे हैं।गाड़ियां टस से मस नहीं हो रही हैं। आज सुबह से शहर परेशान है।और लाल बत्ती चुपचाप जाकर अपनी जगह पर खडी हो गई।
मैं भी रोज़ लिखकर आप लोगों को पढ़ाया करता हूं। लेकिन लाल बत्ती की तरह भागूंगा नहीं। आप पढ़ें न पढ़ें। कम से कम आपके मोबाइल में दिखता तो रहूंगा रोज़ हर रोज़।

Tuesday, January 30, 2018

यमुना से एक शाम मुलाकात



कौशलेंद्र प्रपन्न
कल आफिस से लौटत वक़्त शाम हो गई। मेट्रे से गुज़रते हुए पहली बार शाम में यमुना को देखा। ऐसी यमुना शायद पहले नहीं देखी थी। शांत, धीर गंभीर अपने कालेपन के साथ लेटी थी। उसपार का नज़ारा भी दिलचस्प था। रोशनी से झिलमिलाती यमुना और यमुना पार कुदसिया किनारा। निगम बोध से उठते धुएं भी दिखाई दिए। जो लोग अब कभी शाम और सुबह से गवाह नहीं होंगे। जिन्हें अब नौकरी पर जाना नहीं होगा। पता नहीं क्यों जब जब निगम बोध घाट को यमुना के इस पार यानी शास्त्री पार्क की ओर आते वक़्त देखता हूं तो ऐ अज़ीब सी बेचैनी और सूनापन महसूस होता है। गोया कोई मुन्तज़िर है। कोई धीमी आवाज़ में पुकारने की कोशिश कर रहा है। इसी निगम बोध पर मैंने भी अपने तीन बुज़ूर्ग को सुलाया है। हमेशा हमेशा के लिए।
यमुना तो शांत थी ही मन किया हिला कर, टोटलकर पूछूं कि कैसी रही शाम और दिन कैसे कटा। कितने लोग अंतिम यात्रा में तुमसे मिलने आए। आदि लेकिन यमुना भी क्या जवाब देती सो पूछना रह गया।
व्यास और झेलम से भी मुलाकात हो चुकी है। साथ ही हिन्द नदी से भी लेह में मिल चुका हूं। जब हिन्द नदी और मिलते देखा तो वहां वो कितने तेज़ रफ्तार में थी। जहां मिल रही थी वहां हरे और मटमैले रंगों की चादर ओढ़े मिल रही थी। कि जैसे दोनों बहने न जाने कितने मुद्दत बाद मिल रही हों। आपस में बतिया रही हों कि किन किन मोड़ और मुहानों से गुज़र कर आ रही हैं।
नदीयां भी कितनी निर्वासन की जिं़दगी बसर करती हैं। अकेले जंगल,पहाड़, पत्थरों से टकराती बिन कुछ कहे बहती रहती हैं। कई बार मन में एक हूक सी उठी और पूछने को आगे झुका व्यास बोलो तो कितनी निर्लिप्त रहती हो। कैसे रह पाती हो। चुपचाप कैसे बह लेती हो। लेकिन म नही मन सुन भी लेता हूं उसके जवाब को कि यही तो नियति है।
सोन जहां मैं जन्मा। देश की ऐसी नदी नहीं बल्कि नद है। जिसकी पूजा नहीं होती। नद माने पुरुष। और ताज्जुब कि उस नद को तथाकथित अभिशाप मिला हुआ है। उसका पूजा कोई नहीं करता। अमरकंटक मध्य प्रदेश से निकल कर हमारे यहां आता है। और आगे चल कर आरा के पास मिल जाता है। यह मिलना और फिर मिलना किसी और नदी में। अपने आपको समृद्ध करना ही तो है। अपने अस्तित्व और पहचान को दूसरे में मिला लेना कोई आसान काम नहीं है।
सो कल शाम जिस यमुना से मिला वो शांत और अकेली थी। बस थीं तो किनारे। गाड़ियों की रोशनी और स्टी्रट लाइट से मुनव्वर होती यमुना थी। कल ही तो मिला। जहां अलग अलग प्रांतों से आए और यमुनावासी हो गए। शायद यहां गहरी नींद लेंगे।

Monday, January 29, 2018

शिक्षा के चेहरे पर 168 तमाचा है



कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में मध्य प्रदेश के नवोदय विद्यालय में होमवर्क नहीं करने पर शिक्षक के आदेश पर सहपाठी ने बच्ची को 168 बार तमाचा मारा। यह तमाचा एक बार नहीं मारा गया। बल्कि इस अदायगी को एक सप्ताह में पूरा दिया जाना था।
कभी तमाचा कभी छड़ी, कभी उठा बैठक, कभी छड़ी से बच्चे को इतना मारना कि हाथ ही टूट जाए, बत्तख की चांच में सही रंग न भर पाने में कान क पास तमाचा इस कदर रशीद करना कि बहरा हो जाए आदि ऐसी घटनाएं हैं जो देखने में मामूली सी हों। लेकिन यह तमाचा दरअसल शिक्षा के चेहरे पर है।
आखि़र क्योंकर कोई शिक्षक ऐसे बरताव करना है? कब करता है? और किन हालात में हाथ उठाता है इस गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। क्या हमारी शिक्षक-प्रशिक्षण में कहीं कमी रह गई? क्या हमसे कहीं शिक्षक के चुनाव में चूक हो गए। आख़िर कहां हमने भूल कर रहे हैं।
यह तथ्य कई बार सामने आ चुका है। बल्कि कृष्ण कुमार ने हाल ही में आउटलुक और इंडियन एक्सप्रेस में लेख के ज़रिए अपनी बात रखी है कि शिक्षक शिक्षण को अंतिम विकल्प के तौर पर चुनते हैं। ऐसे में वो प्रतिबद्धत नहीं आ पाती जो शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है।
शिक्षक की सामाजिक स्थिति, पहचान और प्रतिष्ठा तो दांव पर लगा ही है साथ ही इन्होंने अपनी विश्वसनीयता भी खोई है। कितना अच्छा होता कि शिक्षक संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से कक्षा में बरताव करते। हालांकि इस हक़ीकत से भी नहीं भाग सकते कि इसी दिल्ली में प्राथमिक शिक्षकों को तीन तीन माह पर सैलरी मिला करती है। कैसे चलते होंगे उनके खर्चे। कभी नहीं सोचा। एक शिक्षक किन मानसिक दबावों में स्कूल में शिक्षण कर रहा है यदि इसे भी ध्यान में रखें तो शिक्षक हिंसक और खतरनाक नहीं बल्कि एक निरीह सा दिखाई देगा। हालांकि कई शिक्षक मित्रों को इस शब्द पर एतराज़ हो सकता है क्योंकि मैंने निरीह कहा। जबकि सच्चाई यही है। जब से सैलरी बेस्ट टीचर हुए हमारे शिक्षकों की पहचान कम होती चली गई।
लेकिन आज भी हम ऐसे शिक्षकों की तारीफ करते हैं। सम्मान करते हैं जो अपनी कक्षाओं में शिद्दत से पढ़ाते हैं। जो कहीं भी मिल जाएं हम उन्हें नमस्कार करते हैं। नमस्कार से ज़्यादा मन सम्मान में ठहर जाता है।

Thursday, January 25, 2018

तक़सीम, फिल्म विवाद और बच्चे



कौशलेंद्र प्रपन्न
देश के साथ तक़सीम की कहानी सत्तर साल से भी ज़्यादा पुरानी हो चुकी। लेकिन आज भी लगता है कि हम रोज़दिन एक तक़सीम, एक टीस और एक पीड़ा से गुज़र रहे हैं। हाल ही में एक फिल्म को लेकर देश भर में कई सारी महत्वपूर्ण घटनाओं को पीछे धकीया कर एक फिल्म पर सारा देश उबल रहा है या उबाला जा रहा है।
बच्चों से भरी बस को निर्ममता से तोड़ फोड़कर आग लगाई गई। बच्चों की पुकार, रूलाई साफ़ सुनाई दे रही थी। बस जिसे सुनाई नहीं दे रही थी। वही उस घटना को अंज़ाम देने में लगे थे। देश के विभिन्न कोनों, शहरां, राजधानियों से ख़बरें लगातार आ रही हैं। कमाल की बात यह है कि न्यायपालिका सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभा चुकी। किन्तु कार्यपालिका और लोकतंत्र के पहरूओं की नींद नहीं खुल रही है।
एक ओर हमारा समाज अत्याधुनिक संसाधनों से लैस हो रहा है वहीं हम उसी रफ़्तार से पीछे की ओर भी जा रहे हैं। जिस तेज़ी से अहिष्णुता हमारे बीच पसर रही है उसे देखते हुए लगता है कि हम किस समय में जी रहे हैं। विरोध और समवैचारिक बात को हमस ह नहीं पा रहे हैं। क्यों हम चाहते हैं कि सभी मेरी ही ज़बान बोलें। क्यों सभी आपकी हां में हां मिलाएं। लेकिन यही ज़िद्द है कि तमाम फ़सादों को जन्म दे रही है।
तक़सीम पर बात शुरू हुई थी। इसके पीछे मकसद यही था कि वह बेशक 1947 में घटित हुई। किन्तु रोज़दिन व्यक्ति अलग अलग नामों से तक़सीम की पीड़ा को सह रहा है। कई सारी ट्रेनें वाघा बॉडर पार कर चुकीं। कई सारी बसें हमारे बीच चलीं और रूकीं किन्तु दोनां मुल्कों के बीच की हवाएं आज भी आपसी रवादारी को भूली नहीं है। न ही उम्मीद छोड़ी है कि कभी तो ऐसा मंज़र आएगा जब दोनों के बीच सहज और सुगम आवा जाही हो सकेगी। 
विवाद किस पर और क्यों किसके द्वारा अमलीजामा पहनाया जा रहा है इसकी पहचान ज़रूरी है। तब विवाद और संवाद की संभावनाओं की तलाश की जा सकती है।

Wednesday, January 24, 2018

मैनेजमेंट से भावना निकाल दो



कौशलेंद्र प्रपन्न
एक इल्मगार ने राय दी कि मैनेजमेंट में भावना के लिए कोई जगह नहीं होती। जो व्यक्ति भावुक होता है वो एक बेहतर मैनेजर नहीं हो सकता। यदि आप मैनेजर बनना चाहते हैं तो भावना को दूर रखिए। वरना दिल,भावना, संवेदना से लोग और कंपनी मैनेज नहीं होती। इसके लिए कठोर और वस्तुपरक होना होता हैकारण यही हैकि एण्क मैनेजर को कई सारे कठोर कदम उठाने होते हैंसंभव हैउसके कदम से किसी की जिं़दगी बदल सकती है।संभव हैकि कोई सडक पर आ जाए।
तथाकथित एक सफल मैनेजर वही माना जाता है जो लोगों से ज़्यादा कंपनी की हित की सोचे। बेशक किसी की नौकरी लेनी पड़े तो भी वह उसे फायर कर देता है। जबकि मैनेजमेंट का सिद्धांत मानता है कि यदि एक व्यक्ति की वजह से दस की टीम प्रभावित हो रही है। काम नहीं कर पा रही है तो उस एक व्यक्ति को मैनेज करना चाहिए न कि पूरी टीम ही बदल दी जाए। ऐसे में कंपनी को मानव संसाधन की हानि होती है।
ऐसी स्थिति ख़ास कर जब दो कंपनियों की मर्जन हो रही होती है या फिर एक्यूजिशन चल रहा हो तो कंपनी की पॉलिशी कई बार मानव संसाधनों पर ही पहला प्रहार करती है। लोगों की छटनी और फायर शुरू हो जाती है। जबकि कंपनी को अपने बेहतर कर्मी को बचाना चाहिए। क्योंकि अंत में काम मैनेंजर की बजाए उनकी टीम किया करती है। हां यह अलग मसला है कि चालाक मैनेजर दूसरे के काम और एवार्ड को भी हाईजेक करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।
स्ांवेदनशील होना शायद मैनेजर के लिए उचित नहीं माना जाता। यदि एचआर संवेदनशील हो जाए तो किसी ऐसे व्यक्ति को फायर ही न कर पाए जो पर्फाम ही नहीं कर रहा है। कई मर्तबा एचआर को भी कठोर कदम उठाने पड़ते हैं। लेकिन सवाल यह उठ सकता है कि क्रू मैंनेजर को संवेदनशील होना चाहिए या प्रैक्टिकल? यदि कंपनी को हानि हो रही है तो व्यक्ति को फायर करते वक़्त किस तरह का रूख़ अपनाना चाहिए।
2008-09 की मंदी के दौर में हज़ारों लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं। ऐसे में एचआर और कंपनी को बड़ी मुश्किल दौर से गुजरना पड़ा। एचआर के सामने एक चुनौती यह आई होगी कि कैसे किसी पुराने व अन्य कर्मचारियों को बुलाकर कहा जाए कल से आपको नहीं आना। आप तीन माह की सैलरी ले लें और कल से आपका सिस्टम लॉग आउट हो जाएगा आदि। समझना होगा कि एक मैंनेजर ऐसे फैसले कैसे लेता होगा। 
एक बेहतर मैनेजर से उम्मीद की जाती है कि वह एक कुशल नेता भी हो। कुशल नेता के साथ ही भविष्य द्रष्टा के गुण भी उसमें हो। यदि कभी उसकी टीम पर कोई जवाबदेही आती है तो उसके लिए वह हमेशा साथ खड़ा हो। बजाए की पीछे हटने के। जो पीछे चला जाता है वह ना तो मैंनेजर हो सकता है और न नेता ही।

Tuesday, January 23, 2018

रवीश अकेला क्या करेगा जब कूप में ही भंग पढ़्यो हैं...



कौशलेंद्र प्रपन्न
रवीश जी की रिपोर्टिंग और स्टोरी का चुनाव सच मायने में पत्रकारिता को मानीख़ेज़ है। इन्होंने गए साल के आख़िर के दो महा तक लगातार टीचर, विश्वविद्यालय आदि की ज़मीनी हक़ीकत को उजागर किया। उस पर सरकार की नींद नहीं खुलनी थी सो नहीं खुली। पिछले दिनों रवीश जी ने सरकारी नौकरियों के मकड़जाल को साफ करते हुए स्टोरी कर रहे हैं। इन्हें ज़रूर देखा जाना चाहिए। बल्कि नागार समाज को अपनी आवाज़ भी बलंद करने की आवश्यकता है।
रवीश जी ने बिहार, झारखंड़, राजस्थान आदि राज्य कर्मचारी आयोगों की कलई खोली। कहां तो नौकरियों के विज्ञापन 2015त्र 2016 आदि में प्रकाशित हुए। परीक्षाएं हुईं। मगर पास करने वालों को अब तक नौकरी नहीं मिली।
युवाओं की आंखों में सरकारी नौकरी के सपने तो खूब भरे बल्कि ठूंसे गए लेकिन वे सपने आज तक पूरे नहीं हुए। किसी की आयु निकल गई। कोई घर के खर्च चलाने में सपनों को झोंक दिया। शादी हो गई तो वे सपने भी अधूरे ही रहे। कुछ के आंसू अब तक नहीं सूखे। बल्कि सपने संजोने वाली आंखों में एक जलन है। टीस है और ज़िंदगी में पिछड़ जाने की डभकन है।
रवीश जी अक्सर बताते हैं कि संसाधन की कमी है इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से स्टोरी नहीं ले पाते। लेकिन जितनी भी स्टोरी की हैं वो हमारी आंखें खेलने वाली हैं। इनका एक वाक्य है- जनवरी में आम खिलाउंगा। दो पूरी और खा लीजिए। आदि कितनी सहजता से व्यंग्य में बड़ी टीस की बात को कही जाए यह कौशल रवीश के पास है।
माफी चाहता हूं। यहां मैं रवीशीय गाथा गान नहीं कर रहा हूं। बल्कि वर्तमान की टीस को कोई पत्रकार कैसे और कब उठाए इसकी ओर इशारा करना मेरा मकसद है। जब तमाम मीडिया घराने उनकी बाइट्स दिखाने, और अन्य मसलों में अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। ऐसे समय में कोई तो है जो सरोकारी मुद्दे को ज़िंदा रखता है। पूरी शिद्दत से उठाने का माद्दा रखता है। 

Monday, January 22, 2018

बसंत कहां हो भाई...



कौशलेंद्र प्रपन्न
बसंत कहां हो भाई नज़र नहीं आते। तब तो तुम पीले पीले सरसों के संग खेत खलिहान में दिखाई दे दिया करते थे। अब तुम्हारे आस-पास से हाइवे निकला करती हैं। तुम तो सिमटते जा रहे हो। हां सड़कों की चौड़ाई बताती हैं कि खेत जहां तुम लहराया करते हो वह सिकुड़ती जा रही है। बल्कि एक मुट्ठी में समा गए हो।
कभी तुम्हीं पर निराला ने कविताएं लिखीं। तुम्हीं पर गीत लिखे गए। अब न खेतों में तुम हो, न मन में मयूर की तरह थिरकते हो। न लहराते हो फिर काहे का बसंत और किस बात के मौसमों के आने पर खुश हों।
जब तुम आया करते थे। जब सर्दियां हुआ करती थीं। गरमी भी। हेमंत भी। अब तो गोया सारी ऋतुएं जाने कहां किस अंतरिक्ष में बिला गई हैं। और एक ही मौसम हमेशा सवारी करता है वह है गरमी।
देखा ही है तुमने कि किस प्रकार ग्लेशियर पिघल रही हैं। कैसे जंगल कट कट कर कंक्रीटों के शहर में तब्दील हो रहे हैं। जमीन और मिट्टी तो बस शायद खेत-गांव के हिस्से ही महदूद हो गए।
हां कभी तुम आया करते थे। केदारनाथ सिंह की कविता में ठिगना चना मुरेठा बांधे आया करता था। हम अब उसे छोलिया के तौर पर ही जानते हैं।
आज बसंत पंचमी है। यानी ज्ञान-विद्या की मातृशक्ति सरस्वती का दिन। इस दिन मुझे राजेंद्र मिश्र जी ने खरी छुआई थी। यानी पहली दफ़ा स्लेट पर चॉक से लिखवाया था। तब से जो शब्द हाथों से चिपके आज तक नहीं छूटे। हां राजेंद्र बाबू जो हमारे संस्कृत के गुरु थे वो भी संसार से छूट गए। मगर उनकी वाणी और शब्द आज भी मुझे में जीया करते हैं।
शब्द शायद ऐसे ही गमन किया करते हैं। भाषा भी इसी तरह कई मोड़ मुहानों से होती हुई हमारी जिं़़दगी में घर बना लेती है।
सभी शब्द, ज्ञान श्रमिकों को बसंत पंचमी की बधाई।

Friday, January 19, 2018

प्रद्युम्न के बाद...यानी मारा गया बच्चा




कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रद्युम्न के बाद एक और बच्चे की जान चली गई। स्थान भी स्कूल और हत्या करने वाला भी बच्चा। दोनां ही घटनाओं में एक साम्यता है। वो है स्कूल,शिक्षा और बच्चे। दोनों की मनोदशा को पढ़ने की आवश्कता है। क्यों आख़िर बच्चे इतने हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैं। क्यों बच्चों में भी धैर्य और सहनशक्ति की कमी होती जा रही है। वो कौन सी स्थितियां हैं जब बच्चे हिंसक हो जाते हैं। कब बच्चे अपना धैर्य खो बैठते हैं।
पिछले साल मैचेस्ट विश्वविद्यालय में एक रिसर्च पेपर पढ़ा गया जिसमें इन्हीं मसलों का ज़िक्र है। बच्चे जब स्क्रीन पर ज़्यादा वक़्त ज़ाया करते हैं तब उनके अंदर हिंसा, अकेलापन, तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारियां पैदा होने लगती हैं। इस बीमारी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गेमिंग िउस्ऑडर का नाम दिया है।
स्क्रीन एडिक्शन यानी लत। लगातार फोन, टीवी, टेबलेट्स, आई पैड आदि के स्क्रीन पर बच्चे वक़्त गुज़ारते हैं। ऐसे बच्चों में आक्रामक व्यवहार, अनिद्रा के शिकार, ध्यान की कमी, आत्मकेंद्रीकरण आदि पनपने लगती हैं। दूसरे शब्दों में इस बीमारी को इंशोमेनिया कहा गया है।
हाल की दो घटनाएं यहां साझा करूंगा। पहला एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच के दौरान एक दो साल की बच्ची को लगातार आइपैउ में आंखें गड़ाए देखा जो तकरीबन एक से डेढ घंटे का वक़्त रहा होगा। कइ्र बार लगा बच्ची सो रही है। लेकिन ऐसा नहीं था। उसकी मां ने बताया ये जगी हुई है। और यदि इससे आईपैड लेने की कोशिश करूं तो रेने लगती है। चिल्लाने लगती है। यह तो लक्षण बता रही थीं जिसका ज़िक्र मैंने उक्त पैरा में किया। दूसरी घटना एक अस्पताल में साथ बैठी महिला कही बच्ची को देखा। वो फोन में लगातार गाने, गेम्स खेल रही थी। जैसे ही कोई फोन आया उसने उसे काट दिया और अपना खेल ज़ारी रखी। उसकी मां ने बताया ये स्वयं यू ट्यूब पर गाने, कविता, कॉटून आदि देख और खोल लेती है। इस बताने में एक गर्व का दर्प उनके चेहरे पर तारी हो रहा था।
उन्हें नहीं मालूम कि ऐसे बच्चों में भाषा और गणित सीखने की क्षमता धीरे धीरे कम होने लगती है। यह भी उस रिपोर्ट में लिखा गया है जो मैनचेस्ट विश्वविद्यालय में पढ़ी गई थी।
अब तय हमें करना है कि हम बच्चोंं को खुद की आजादी के लिए उन्हें गेम्स और स्क्रीन डिजिज दे रहे हैं या उनका बचपन और आयु ख़राब करने की ठान ली है।

Thursday, January 18, 2018

जो साथ चलें...वो सपना



कौशलेंद्र प्रपन्न
जीवन में कई स्तरों और कई सीमा पर लड़ना होता है। इनमें से एक अहम सीमा है अपनी सीमाओं को पहचानना। हम अकसर अपनी सीमाओं की पहचान किए बगैर सपने देखने, बुनने लगते हैं। दूसरी सीमा हमारी इच्छाओं और क्षमता की होती है। हम सपने तो पाल लेते हैं लेकिन उसे पूरा करने के लिए जिस प्रकार की मेहनत और क्षमता की आवश्यकता पड़ती है वह हम नहीं कर पाते।
आज का सबसे बड़ा संघर्ष यही है कि हम अपनी सीमाओं और क्षमताओं का आंकलन किए बिना सपनां को संजोने लगते हैं। हालांकि सपनों को बुनने में कोई सीमा नहीं होती और न ही कोई बंधन लेकिन उन सपनों को कैसे पूरा करेंगे इसकी रणनीति अहम हो जाती है। यदि हमने सपनों के मकूल रणनीति बना कर आगे बढ़ते हैं तब हमारे सपने पूरे भी होते हैं और संतुष्टि भी होती है कि हमने अपने सपने पूरे किए।
मसलन मेरा सपना था कि मैं एक सफल और कुशल पत्रकार बनूं। लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिए समय पर सही कदम नहीं उठाया। जब समय था तब कुछ और कोर्स किया। कहीं और वक्त लगाए। लेकिन मन में कहीं न कहीं यह टीस बनी रही कि पत्रकार बनता। और यह सपना पूरा हुआ। लेकिन उसकी खुशी नहीं हुई। क्यांकि वह वक्त पर नहीं मिला।
यह तो व्यक्तिगत तज़र्बा रखा शायद ऐसे हज़ारां युवा हैं जिन्हें जाना कहीं और था लेकिन अगर मगर की वजह से ग़लत प्रोफेशन में खम गए। बल्कि उनसे पूछिए तो बताएंगे कई सारी कहानी कि क्यों वो वो नहीं बन पाए जिसकी चाह थी। मसला बस इतना ही हैकि हम समय और सपनों के अनुसार रणनीति नहीं बना पाते।
हम छोटी छोटी उपलब्धियों में खुद को खुश कर लेते हैं। उन्हें छोटी उपलब्धियों को जीवन का लक्ष्य मान बैठते हैं। दिक्कत यहीं आती हैं। कहते हैं उडान और सपने असीम होते हैं। उन्हें बांधना वास्तव में खुद को सीमित करने जैसा है।पाश की एक कविता हैकि आग खतरनाक नहीं होता, सांप भी खतरनाक नहीं, बल्कि सुबह दफतर से स्कूल जाना और शाम घर लौट कर टीवी देखना, आंखों में सपनों का मर जाना खतरनाक होता है।

Tuesday, January 16, 2018

कहने को बहुत है मगर...




कौशलेंद्र प्रपन्न
सबके पास कहने को बहुत है मगर किससे कहें और कैसे कहें यह मसला है। मसला तो यह भी है कि कब अपनी बात को कही जाए। हर व्यक्ति के पास हज़ारों दास्तां है मगर वक़्त और व्यक्ति के अनुरूप नहीं कह पाते। कहना था कि हज़ारां बातें कई बार अनकही ही रह जाती हैं। और न कहने वाली बात ज़बां पर आ जाती है।
सीधी सी बात है कि जब हम कहते हैं तो कहना क्या चाहते हैं पहले उसी को तय कर लें। और जब कहना क्या है तय हो चुका उसके बाद कैसे कहना है वह फॉम हमें चुनना पड़ता है। कहन के अनुसार फॉरमेट का चुनाव बेहद ज़रूरी हो जाता है।
कहन में शैली यानी स्टाइल काफी मानीख़ेज़ है। यदि सही तरीके से सही शब्दों के माध्यम से नहीं कहा गया तो पूरा का पूरा कंटेंट ख़राब हो जाता है। कई बार बेहतर कंटेंट की भी हम हत्या कर बैठते हैं। यदि हमने सही शब्दों और फॉम का चुनाव नहीं किया तो। इसलिए कम से कम भाषा और शब्दां से खेलने वालों को अपनी शैली और कहन पर तो काम करने ही पड़ते हैं।
हमारे सामने कई लेखक,कवि, कथाकार आदि हैं जो बेहतर कहानी, कविता लिखते हैं। वो लोग अपनी शैली और भाषा पर बड़ी ही शिद््दत से काम करते हैं। वरना दूसरी तीसरी रचना के बाद वे पाठकों की दुनिया से उतर से जाते हैं। क्योंकि कब तक कोई पुरानी फसलों पर ज़िंदा रह सकता है।
यदि भाषाकर्मियों को जिं़दा रहना है तो उन्हें अपनी भाषा, कहन और शैली पर तो ठहर कर काम करना ही होगा। जैसे हमारे समय में कई लेखक हैं जो अपनी भाषा को लेकर ख़ासा गंभीर होते हैं। उन्हें पढ़ना एक तरह से अपनी भाषा को गढ़ने जैसा होता है।

Monday, January 15, 2018

बिसुरते हुए रिश्तों को बचाया जाए

अन्यथा न लेंगे...साझा कर रहा हूं
कौशलेंद्र प्रपन्न
इन दिनों एक बात मुझे परेशान रही है। बल्कि समझने के लिए आपके सामने यह मसला रख रहा हूं। मसला सामान्य और पेचीदा दोनों ही है। हमने अपने बचपन से देखा है कि हम और हमारे बच्चे मामा, मामीख् नाना नानी, मौसा मौसी के घर जाना चाहते हैं। उन्हें वहीं ज़्यादा मजा आया करता है।
चाचा चाची, बुआ फुफा के घर बच्चे कम ही जाते हैं। ताउ जी भी हुआ करते थे। उनका घर भी अब सूना रहता है। कुछ से बात की कि क्या मामला है। तो जवाब दिया कि कई बार पैसे और आर्थिकी प़ा भी काम करता है। यदि मामा-मामी का पक्ष पैसे वाला है तो वहां बच्चों को गिफ्टख् मजा मस्ती ज़्यादा होती है। ख्ुल कर उन पर पैसे किए जाते हैं। यदि चाचा चाची, दादा दादीख् ताउ कमतर हुए तो बच्चे वहां जाना कम पसंद करते हैं।
इन रिश्तों का एक डोर यह भी है कि यदि पापा को लगता है कि भाइयों के पास जाने पर और भी मुश्किलें आ जाएंगी। कोई पूछ बैठेगा और कैसा चल रहा है। फलां जगह घूमने गए थे। बहुत पैसे हैं कुछ हमारी भी मदद कर दे। आदि इन सवालों से बचते हुए पापा भाइयों बहनों के पास जाने से बचते हैं।
कहीं पढ़ा था पाकिस्तान की लेखिका हैं सबूहा ख़ान उन्होंने लिखा है कि कई बार हमें अपनी कामयाबी को खुद ही छुपाना पड़ता है। कहीं कोई और उसमें हिस्सा मांगने न आ जाए। शायद यह भी डर है कि भाई लोग बहनों के यहां जाने की बजाए सालियों के यहां जाना ज़्यादा पसंद करते हैं।
मुझे अपने पिताजी याद आते हैं वो स्वयं अपनी बहनों के यहां जाया करते थे और हमें भी छुट्टियों में लेजाया करते थे। गरमियों की छुट्टियों में बुआ खुद भी कई बार हमारे घर आ जाया करती थीं। मामी भी आती थीं। मजा हमें दोनों के ही आने में आता था। मामी जब जाया करती थीं या हम जब मामी के यहां से बिदा होते थे तो पांच रुपए हाथ में पकड़ाया करती थीं। वैसे बुआ भी पांच रुपए और दस रुपए हाथ में थमा देती थीं। आज भी मामी बिदाई पर दस रुपए और पचास रुपए पड़काती हैं। मना करने पर कहती हैं रख लीजिए। मालूम है आप अब कमाने लगे हैं। ये तो मामी का प्यार है।
मामी और बुआ के बच्चे बड़े हो गए। सब के सब अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। कौन कहां हैं अब तो वर्षों मुलाकात नहीं होती। मां-पिताजी जिं़दा हैं और वे रिश्ते अभी भी सांसें ले रही हैं। लेकिन साफ दिखाई देता है कि इनके जाने के बाद हमारी पीढ़ी न तो मिलने जा रही है और न न्योता पेहानी ही होने वाला है। काश कि हम इन बिसुरते हुए रिश्तों को बचा पाएं। 

Thursday, January 11, 2018

लब पे आती है बन तमन्ना मेरी मत गाना लड्डो



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना, हमारा धर्म हो सेवा हमारा कर्म हो सेवा। वतन के वास्ते जीना, वतन के वास्ते मरना। बहा दो प्रेम की गंगा, दिलों में प्रेम का सागर। सदा ईमान हो सेवा’’ आदि। इन पंक्तियों पर कुछ लोगों का एतराज़ है कि इन पंक्तियों से ख़ास लोगों, धर्म, संप्रदाय आदि का बढ़ाया जा रहा है और नास्तिक व अन्य धर्मां की भावना आहत हो रही है इसलिए इस प्रार्थना को हटा देना चाहिए। हाल ही में मध्य प्रदेश के एक व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाख़िल की थी। इस जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने सरकार से चार हप्ते में जवाब देने को कहा गया है।इस विवाद के केंद्र में हैकेंद्रीय विद्यालय संगठन के तमाम स्कूल जहां यह प्रार्थना गाई जाती है।इस प्रार्थना को आज से नहीं बल्कि पिछले पचास वर्षों से केंद्रीय विद्यालयों के स्कूलों में सुबह की प्रार्थना सभा में शामिल की गई है।पहली नज़र में इन पंक्तियों में कोई विवाद या मतविभिन्नता नज़र नहीं आती। बल्कि पूरी प्रार्थना में ऐसी कोई पंक्ति व भावनाएं ऐसी नहीं हैंजिन्हें सुन व बोल कर किसी और धर्म व संप्रदाय की भावना आहत होती हो। देश सेवा व देश की रक्षा में हर नागरिक की जिम्मेदारी और भूमिका सुनिश्चित है।कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि देश की रक्षा करना व रक्षा करने के भावना को प्रकट करना ग़लत है।इस प्रार्थना में प्रभू व अल्ला से इसी भावना को मज़बूत करने कि इच्छा प्रकट की गई हैकि मेरे अंदर देश प्रेम और देश की रक्षा के लिए हम पीछे न हटे। अब सोचने की बात यह हो सकती हैकि यह भावना किसी भी धर्म,संप्रदाय के मानने वाले हों यदि वे भारत में रह रहे हैंतो उस देश की रक्षा हो। उसपर किसी भी प्रकार की विपदा या असुरक्षा न हो क्या यह कामना करना ग़लत नहीं है।वह चाहे किसी भी संप्रदाय व जाति, धर्म के हों यदि भारत में हैं तो उसकी रक्षा प्रथम है।देश सुरक्षित नहीं तो उसके नागरिक क्या सुरक्षित रह पाएंगे?
प्रार्थना के अंत में वेद की पंक्तियों का प्रयोग किया गया हैजो शांतिपाठ के रूप में प्रयोग किया गया है।यदि हमें वेद की ऋचाओं से गुरेज़ हैतो परमवीर चक्र में लिखित दधीच की रीढ़ की हड्डी के प्रतीक को भी निकाल बाहर करना होगा। हमें तो अशोक चक्र में उल्लिखित सत्यमेव जयते वाक्य पर भी एतराज़ जतलाना होगा। हमें एक और पीआइएल डालने होंगे कि इन पंक्तियों को हटा देना चाहिए। क्योंकि इनमें वेद व उपनिषद् से मंत्रों के अंश लिए गए हैं। क्योंकि इससे किसी और धर्म, संप्रदाय के लोगों की उपस्थिति नहीं है।दूसरा गंभीर मसला यह भी हैकि क्या हम महज विरोध और विवाद को हवा देने के लिए तर्कों का सहारा ले रहे हैं या हमारा मकसद वृहद फलक को ठीक करना है।आज न केवल यह प्रार्थना विवाद में आया हैबल्कि हाल ही में राष्ट्रगान पर भी न्यायालय ने आदेश दिए हैंकि सरकार तय करे कि नागरिक सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के वक्त खडे हों या नहीं।

Wednesday, January 10, 2018

1947-48 के बाद का मंज़र



1947-48 के बाद का मंज़र
कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1947-48 इतिहास का वह का वह कालखंड़ है जब न केवल ज़मीन का बंटवारा हुआ बल्कि कई ज़िंदगियां भी तक़्सीम हुईं। इधर और उधर के लाखों लोगों के सपने बिखरे और टूटे भी। यह ऐसी घटना थी जिसमें न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान भी तबाह हुआ। आज जब हम उन वर्षों को याद करते हैं तो आज भी आंखें नम हो जाती हैं। आंखें सूनी सूनी हो जाती हैं।
इस तक़्सीम को सामाजिकों ने अपने अपने तरीके से महसूस किया। उसे याद किया और कहानी कहने की कोशिश की कि वह कहानी नहीं थी। वह उपन्यास नहीं था। न ह ीवह नाटक था। बल्कि लोगों के ख़ून से लिखी जा रही स्मृतियां थीं जिन्हें भूलाए नहीं भूल सकते। जिन्ने लौहार नई वेख्या ते जनमिया नई, कितने पाकिस्तान, ट्रेन टू पाकिस्तान, टोबा टेक सिंह, खोल दो, आजादी की छांव में आदि कहानी, उपन्यास और नाटक लिखे गए। यह एक साहित्यकार भी अभिव्यक्ति थी। यह एक संवेदनशील नागर समाज की तड़प थी जो पन्नों पर उतरती चली गई।
हाल ही में शिवना प्रकाशन ने एक नहीं बल्कि दो किताबें ऐसी छापी हैं जिन्हें पढ़ना मतलब 1947 के मंज़र को जीना है। उन घटनाओं से रू ब रू होना है जिसे तब के परिवारों ने सहा और जीया। एक 1947 दिल्ली से कराची वाया पिंडी सबूहा ख़ान की लिखी है। यह कविता या कहानी नहीं बल्कि एक संस्मरण है। जब सबूहा को महज इतना भर याद रह जाता है कि दिल्ली में उनके घर में काले और सफेद रंग की टाइल्स लगी हुई थीं। अम्मी बड़ी ख़ानदान की बेटी थीं और पापा रोहतक के पास के गांव से आते थे। अम्मी की ज़िद्द के आगे दिल्ली बस गए थे। 1947 में तबाह और मजबूर हो कर सबूहा का परिवार कराची कूच कर जाता है। रास्ते में रेलगाड़ी में खचाखच भीड़ उसमें एक महिला प्रशव पीड़ा से परेशान होती है जिसकी हिफाज़त उसकी मां करती हैं।
पाकिस्तान में दूसरे के घर पर कबजा किया जाता है। वहीं रहती हैं। अम्मी इतनी मज़बूती से पेश आती हैं कि कलक्टर से भी लड़ पड़ती हैं और वह हवेली उनकी हो जाती है। फिर भी सबूहा को भारत और कभी कभार याद आता है। पाकिस्तान तो उनका बचपन और युवावस्था का देश रहा। इस किताब में सबूहा कहती हैं कि कहानी कई बार हमें जीवन की सच्चाई से दूर करती है। और यह कहानी नहीं बल्कि मेरा भोगा हुआ यथार्थ है।
यदि यह किताब मिले तो पढ़ें ज़रूर। 

Tuesday, January 9, 2018

हॉल 12 के सिवा मेला और भी है





कौशलेंद्र प्रपन्न
हॉल 12 की अपनी दस्तां है। हर कोने, मोड़ पर कहानी पसरी हुई है। जिससे मिलिए वही कहानी सुनाता है। वही कवि मिलते हैं। तमाम भारतीय भाषा में साहित्य उपलब्ध हैं। न केवल साहित्य बल्कि और भी चीजें मिलेंगी। ध्यान,धर्म,नौकरी सब कुछ तो इस हॉल में है।फिर कौन जाए हॉल 13 को छोड़कर किसी और हॉल में।
जनाब मेला हॉल 12 के अलावा और हॉल में भी हैं। मगर बेचारे और हॉल दुर्भागे हैं। शायद उन्हें श्रोता, पाठक और भीड़ वैसी नहीं मिल पाता जितना 12 को मिला करता है।हॉल 7 और आठ भी इसे मेले के अंग हैंलेकिन दक्षिण भर टोले की तरह।
हॉल 7 में बच्चों को लेकर नहीं गए तो बच्चों की रोचक दुनिया से परिचय पाने से महरूम रह जाएंगे। साथ ही पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए हॉल 7 को सजाया गया है। उसे नहीं देखा तो कुछ भी नहीं देखा। हॉल आठ में साहित्य मंच है और अन्य प्रकाशक हैं। लेकिन इन्हें भी श्रोता और पाठकों की राह तकनी पड़ती है। जबकि हॉल 7 और 8 में देखने,सुनने और महसूस करने को बहुत कुछ हैं।
पर्यावरण के साथ ही पानी के संरक्षण को लेकर कुमार प्रशांत और मनोज मिश्र की बातचीत बेहद ख़ास मानी जाएगी। इसी हॉल में उपभोक्ता, र्प्यावरण और साहित्यकार भी भूमिका पर संपन्न विमर्श में सुनने वालां की निहायतज ही कमी थी। वहीं हॉल 12 में उसी वक्त हो रहे कवि सम्मेलन में भीड़ थी कि खड़ी थी। शायद यह विधा के साथ ही रूचि का भी मसला है। मगर मेला किसी एक विधा व हॉल के आधार पर नहीं आंकी जा सकती। बाकी खुद जा कर देखें।

Saturday, January 6, 2018

पुस्तक-मेला, लेखकीय झोला और हामिद



कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरे सालभर के बाद मेला आया है। मेला वो भी किताबों का। हामिद एक साल से इंतज़ार में था। उसे भी मेले में बोलने का मौका मिलेगा। उससे भी किताबों के लोकार्पण के निमंत्रण मिलेंगे। वो भी लंबा और चमकदार कुर्ता और बंडी पहन कर मेले में जाएगा। हासिद के दोस्त नए नए कपड़ां, किताबों, कवर पेज के साथ मेले में जाने के लिए हुलस रहे थे। लेकिन हामिद की किताब शाम तक उसके हाथ में नहीं आई। परेशान हामिद इधर उधर फोन करने में लगा था। प्रकाशक बार बार समझा रहे थे कोई बात नहीं। यहां कौन लोकार्पणकर्ता पढ़कर आता है। कवर पेज दिखा दीजिए बोलने वाले उसी पर बोलते रहेंगे। हामिद की अम्मी ने कहा अपने साथ झोला लेते जाना। और कुछ हो न हो कम से कम किताबें बटोरने में आसानी होगी। हामिद नहा धोकर मेले के लिए निकल गया। आखि़र उसकी भी तो किताबें आनी थीं। बड़ी मुश्किल से सिंह और वर्मा जी तैयार हुए थे।
किताबों का मेला हर साल की भांति इस वर्ष भी पाठकों को बुला रहा है। न केवल पाठक बल्कि लेखक, प्रकाशक, वितरक आदिके लिए एक ऐसा उत्सव होता है जहां ये तीनों चारों घटक एक ही छत के नीचे मिला करते हैं। लाखों किताबें मेले आती हैं। उनकी ढुलाई,बिक्री, साजो सज्जा आदि में भी लाखों रुपए खर्च होते हैं। उम्मीद इस बात की होती है कि पाठक और खरीद्दार आएंगे। कम से कम पाठक आएं न आएं संस्थाएं आएंगी तो उनकी एक मुश्त बिक्री संभ्राव हो जाएगी। पिछले साल के मेले पर नोट बंधी का असर साफ देखा और महसूसा गया था। लोगों के पास पंड़ाल में बिक रहे पिज्जा, कॉफी महंगी चीजों को खरीदने के पैसे थे किन्तु जब किताबों की बारी आती है तब हमारी जे़ब हल्की हो जाती है। वजह प्राथमिकता का है। हमारे जीवन में पढ़ना, किताबें, शिक्षा आदि की जगह धीरे धीरे नहीं बल्कि बहुत तेज़ी से सिमट रही हैं। हम किताबें भी वैसी खरीदने से नहीं हिचकते जो बताती हो कि सफल वक्ता कैसे बनें। हम कहां अपने पैसे लगाएं कि कम समय में ज़्यादा रिटर्न मिल सके। बिज़नेस, मैनेजमेंट आदि की किताबें जिस तदाद में बिक रही हैं। उस अनुपात में साहित्य की किताबें कम बिकती हैं। उसमें भी जो मनोरंजन, उमंग, हास्य प्रधान किताबों होती हैं उसको हाथों हाथ पाठक उठा लेते हैं। मसलन कोई किताब विवादास्पद मुद्दे को केंद्र में रखकर लिखी गई है।तब भी किताब की बिक्री बढ़ जाती है।समझने की आवश्यकता हैकि क्या किताबें महज विवाद पैदा करने, सनसनी फैलने व बिक्री के लिहाज़ से लिखी जाती हैं। माना जाता हैकि साहित्य की भूमिका समाज व पाठक को संवेदनशील बनाना भी होता है।प्रो. कृष्ण कुमार बड़ी शिद्दत से मानते और कई जगहों पर जिक्र भी कर चुके हैं कि साहित्य और ख़ासकर हिन्दी कविता, कहानी का शिक्षण स्कूली स्तर पर जिस लचर तरीके से हो रहा है उसे देख कर बहुत क्षोभ होता है। साथ ही एक पीड़ा भी होती है कि हिन्दी साहित्य के विभिन्न विधाओं में इतने विद्वान लेखक हुए हैं किन्तु उनके पाठों का शिक्षण उतनी ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते हैं। प्रो. कुमार मानते हैं कि यदि कहानी कविता को बेहतर तरीके से पढ़ा-पढ़ाया जाए तो काफी हद तक हम हिन्दी को बचाने में सफल हो सकेंगे।
आज की तारीख में जिस संख्या में साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखी जा रही हैं उनमें कविता,कहानी, उपन्यास ही प्रमुखता पाती हैं। वहीं दूसरी विधाएं लगभग उपेक्षित रह जाती हैं। उसमें भी ख़ासकर बाल साहित्य तो हाशिए पर ही जा चुका है। बाल साहित्य के नाम पर जिस प्रकार की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। उसे देखकर लगता है कि हिन्दी और गैर हिन्दी भाषायी साहित्य जगत् में बाल साहित्य को लेकर गंभीरता छिजती जा रही है। बाल साहित्य के साथ ही कथेत्तर साहित्य की स्थिति भी शोचनीय है। डायरी, यात्रावृतांत, रिपोतार्ज़, संस्मरणण आदि में जिस प्रकार की रचनाएं हो रही हैं या तो वे रोशनी में नहीं आतीं या फिर उन्हें समीक्षा की परिधि से ही बेदख़ल कर दिया जाता है। मेले में न केवल इस मेले में बल्कि पिछले कई मेलां का विश्लेषण करें तो पाएंगे ि कवे ही किताबें ज़्यादा बिकी जिन्हें समीक्षक मिले, जिन्हें रोशनी में लाने वाली चर्चाएं मिलीं या फिर बाज़ार में जिनके नामों को खूब बजाया गया। ऐसे में अच्छी से अच्छी किताबें बिना पढ़ी कहीं पड़ी रह जाती हैं। जिन किताबों को समीक्षक मिले, जिन्हें लोकार्पण का अवसर मिला वो कुछ देर के लिए कवर से बाहर झांक पाईं बाकी वहीं कार्टून में बंद रह गईं।
हामिद को मेले में किसिम किसिम के लोग मिलेंगे। हामिद की अम्मी ने ताकीद किया था कि बचना ऐसे वैसे लेखकों से जो सब्जबाग दिखाएंगे किन्तु मार्गदर्शन करने के नाम पर तुमसे कुछ चाह रखेंगे। कुछ मदद की मांग करेंगे। किन्तु हामिद न माना। वो उन झोला बटोरू लेखकों की गिरफ्त में आ ही गया। उसकी किताब का लोकार्पण होना था। सो समय पर कोई न आ सका। न वो लेखक जिन्होंने वायदे किए थे। थे तो वे वहीं उसी मेले में किन्तु मंच पर हामिद को साथ होने की पहचान से बचना चाहते थे। सो हामिद मंच पर प्रकाशक और घर एक एक दो सदस्यों के साथ नज़र आया। अम्मी भी नहीं आई। क्योंकि उन्हें सिलाई, बुनाई करनी थी। वो तो हामिद का मन रखने के लिए किताब छपवाने को कह दिया था। पैसे भी दे दिए थे। हामिद आज बहुत उदास था। दूसरी ओर दूसरे कुर्ताधारी लेखक,कवि महोदय दूसरे स्टॉल पर हंसते, दांत निपोरते नज़र आए। आएंगे ही क्योंकि उस प्रकाशक ने उनकी कविता की किताब जो छापी थी।
पिछले उन्नीस सौ चौरान्बे से पुस्तक मेले के आयोजन का तजर्बा रखने वाले राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संपादक का कहना है कि उन्होंने जिस तरह की लेखकीय झिझलापन, रीढ़विहीन बरताव भारतीय पुस्तक मेले में देखा है वैसी स्थिति दूसरे देशों में नहीं देखी। वो अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि अन्य देशों में लेखकों को सुनने के लिए श्रोता-पाठक डालर कर देते हैं। लेखकीय वक्तव्य को सुनने के लिए श्रोता-पाठक जब पैसे देता है तब लेखक और पाठक के संवाद कहीं न कहीं सार्थक दिशा में भी जाती है। यहां तक कि लेखक से बातचीत करने, उसकी रचनाओं और रचना प्रक्रिया पर चर्चा करने के लिए श्रोता-पाठक टिकट खरीदते हैं। वहीं भारतीय पुस्तक मेले में लेखक ऐसे जनसुलभ होते हैं जैसे शौचायलयों की दीवारों पर लगे पोस्टर। कोई भी कहीं भी पढ़ ले और आग बढ़ जाए। सच पूछा जाए तो आज की तारीख में लेखकों ने अपनी कीमत और सम्मान खु़द ही कम किया है। कई ऐसे लेखक कवि, व्यंग्यकार हैं जो मेले में सुबह से शाम और रात तक यहां वहां जहां तहां बिछते,पसरते और रिरियाते नज़र आते हैं। हो भी क्यों न साल भर कमरे में कैद लिखते-पढ़ते एकांत जीवी लेखक साल में एक बार ही सही अपना गला साफ करते हैं। कुछ लेखकों के चेहरे इतने रिकार्ड हो चुके होते हैं कि वही चेहरे तकरीबन हर एक दो दुकानें (बुक स्टॉल, मंच) पर बोलते, खखारते नज़र आएंगे। सुबह ख़ाली झोला लेकर आते हैं और शाम तक उनके पास कई झोले, किताबें हो जाती हैं।

Friday, January 5, 2018

कहानी पढ़ना-पढ़ाना और लिखना





कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी लिखना और सुनना जितना आसान है उससे ज़्यादा शायद कहानी कैसे पढ़ाएं यह समझाना है। कहानियां हम खूब लिखते-पढ़ते और सुनाते हैं लेकिन जब कहानी बच्चों को कैसे पढ़ाएं यह उतनी ही चुनौतिपूर्ण होती है।
कहानी कहना और कहानी पढ़ाना भी एक कौशल माना जाता है। इस कौशल को भी हम अभ्यास से सीख सकते हैं।
हमने डॉ विभास वर्मा, कथाकार, संपादक, आलोचक और शिक्षक को कार्यशाला में आमंत्रित किया। इन्होंने जिस शिद्दत और बारीक तरीके से कहानी की बुनावट के बारे में बात की वह सचमुच अनुकरणीय रहा। शिक्षकों को इस सत्र में काफी कुछ सीखने को मिला।
हां शुरुआत में शिक्षकों को यह सत्र थोड़ा शुष्क और एकालाप सा लगा किन्तु आगे चल कर इससे जुड़ते चले गए। बीच बीच में मुझे कहना और समझाना पडा कि हर व्यक्ति की अपनी ख़ामियतें होती हैं। हर किसी की अपनी ख़ास प्रकृति होती हैऔर उसकी शैली भी। इसलिए किसी और से तुलना करना ठीक नहीं।
धीरे धीरे व्यक्ति अपने स्तर और गांठों को खोला करता है।इसलिए थोड़ा इंतज़ार कीजिए। व्यक्ति तुरंत नहीं अपनी विशेषताएं खोला करता है।इंतज़ार करें और देखें कि सामने वाला व्यक्ति क्या और कैसे अपनी बात को रखने की कोशिश कर रहा है।जैसे जैसे हम प्रतीक्षा करते हैं वैसे वैसे और और कंटेंट आकार लेते हैं।
कुछ ने कहा बोलने में ज़रा अधिक समय ले रहे हैं। शब्दों और वाक्यों के चुनाव में इन्हें ज़्यादा समय लग रहा है। जबकि भाषा और कहानी के व्यक्ति को इतना समय तो नहीं लगना चाहिए सर।
मान कर चलें कि हर कोई वक्ता ही हो यहह ज़रूरी नहीं। हर लेखक एक बेहतर वक्ता हो संभव नहीं। उसकी विधा लेखन की है। वक्ता की विधा बोलने में है। संभव है वह लेखन उतना बेहतर न कर पाए जितना अच्छा वह बोलता है।
बहरहाल अपना तज़र्बा तो यह कहता है कि ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति बहुत अच्छा वक्ता ही हो। अच्छे अच्छे लेखक मंच पर उतनी धारदार तरीके से अपनी बात नहीं रख पाते। शायद इसमें नाटकीय कला की मांग हो, किन्तु वे औरों से बेहतर लिखते हैं।


Thursday, January 4, 2018

बुध्या मान कोनी



कौशलेंद्र प्रपन्न
कार्यशाला में तरह तरह के लोग होते हैं। कुछ इसी सोच से आते हैंं कि पढ़ाकर दिखाओ तो जानें। आप ही ज्ञानी हो हम क्या निरी ख़ाली हैं?
ऐसे लोगों से रू ब रू होना बड़ा ही दिलचस्प होता है। इन दिनों चल रही हिन्दी की कार्यशाला में ऐसे ही एक बुधना से मुलाकात हो रही है। हर बात पर अड़ जाते हैं। हर शब्द पर सवाल और तर्क करते हैं कि यही क्यों है? ऐसे ही क्यों लिखें। त्यौहार ही लिखते और पढ़ते आए हैं। इसमें क्या ग़लती है आदि। अपने तर्कों से सत्र को चलने नहीं देते। गोया संसद हो। अड़ गए तो अड़ गए। हम सत्र को चलने नहीं देंगे।
शब्दों के साथ तो एक पूरी कहानी और विकास यात्रा भी हुआ करती है। कभी विद्या लिखा करते थे। कभी दौर था जब शुद्व लिखा करते थे। लेकिन समय बदला और लेखन के स्तर पर विद््वानों से राय दी कि हम अब हिन्दी के लेखन स्तर पर अब कुछ इस तरह से लिखा करेंगे। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ने समिति बनाई और कुछ मानक शब्दों की लेखन रूपों को स्थाई किया। इसमें काफी पैसे और मैनपावर खर्च हुए होंगे। लेकिन बुधना मानने को तैयार नहीं कि हम क्यों मानें कि यही प्रमाणिक है।
मैंने उन्हें बताया कि आप जब भी दुविधा में हों तो कायदे से स्थापित और सर्वमान्य ग्रंथों में जवाब तलाशें। मसलन अरविंद कुमार समानांतर कोश, हरदेव बाहरी, फादर कामिल बुल्के जैसे कोशों में देखना चाहिए। इस पर जनाब ने फिर तर्क पेश किया इन्हें हम कैसे मानक मान लें। इन्हें ही क्यों मानें।
बुध््ना मान कोनी। नहीं मानें तो नहीं मानें। अपने अपने तर्क पेश करते रहे। अंत में मुझे कहना पड़ा कुतर्कों का अंत नहीं। सो यदि आपको नहीं मानना तो नहीं मानें। कम से कम बच्चों का ख़्याल करें। वे बच्चे आपको मानक मानकर चलते हैं।
ख़ुद साहब के खे गे उच्चारण कर रहे थे। जब कहा गया कि क ख ग बोलें तो फिर उन्हें अड़ना था सो अड़े। यह तो मेरी मात्री भाषा है। इससे कैसे अलग हो सकते हैं। अब ऐसे प्रतिभागियों से कई बार पूरी कक्षा परेशान तो होती ही है साथ पढ़ाने वाला बार बार उन्हें संतुष्ट करे या फिर उन्हें नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ जाए।
सेचना तो बनता है !!!

Wednesday, January 3, 2018

अतीतीय टटका रस और जोख़िम


कौशलेंद्र प्रपन्न
सामान्यतौर पर कहा जाता है कि कवि, साहित्यकार अतीतजीवी हुआ करते हैं। अपनी रचनाओं में अतीत को जीने की दुबारा कोशिश करते हैं। काफी हद तक सही भी है। लेकिन सच तो यह भी है कि कवि, साहित्यकार न केवल अतीत की यात्रा करता है बल्कि वहां से वर्तमान की रोशनी भी लेकर आते हैं। उसी रोशनी में वर्तमान को समझने और सुझाव भी प्रस्तुत करता है।
कहानियां, उपन्यास कविता आदि से अतीत को निकाल बाहर किया जाए तो शायद कहानियां थेड़ी कमजोर हो जाएं। कविताएं थोड़ी बुझी बुझी सी हो जाएं। किन्तु जब कथाकार अतीत का इस्तमाल करता है तो उन तत्वों को वर्तमान में रख कर समझता है। यही अंतर है इतिहासकार और कथाकार में। कथाकार काल-खंड़ को पुरर्सृजित करता है। जबकि इतिहासकार महज अतीत का मूल्यांकन करता है। इस मूल्यांकन की प्रक्रिया में इतिहासकार भी अतीत की यात्रा करता है।
प्रो. कृष्ण कुमार इसे अतीत में अटक जाने के ख़तरे भी मानते हैं। एक सामान्य व्यक्ति अतीत में जाता है तो इसकी भरपूर संभावनाएं होती हैं कि वह वहीं रह जाए। वहीं की संवेदना और भावजगत में अटक कर रह जाए। उसे जाना तो आता है लेकिन लौटने की विधि नहीं आती।
हमारे जीवन में भी ऐसे ऐसे अतीत हैं जहां हम कई बार जाना क्या सोचना तक नहीं चाहते। लेकिन क्या वज़ह कि फिर भी बार बार हमारा अतीत हमें याद आता है। हम अतीत की संवेदना को ज़िंदा रखना चाहते हैं। फलां ने मेरे साथ अच्छा नहीं किया। इसे कैसे भूल जाएं। कैसे कोई भूल जाए कि किसी की वज़ह से आपको अपनी ही नज़रों में गिरने की घड़ी भी सहनी पड़ी थी।
अतीत से लौटने के औज़ार सामान्यतौर पर कोई नहीं देता। हालांकि कहने वाले कहते हैं। कहते हैं कि भूल जाओ जो हुआ। नई जिं़दगी की शुरुआत करो। मगर एक मन है कि मानता ही नहीं। एक दिमाग है कि बार बार पुराने व्यवहार की मांग करता है। वह चाहता है कि फलां व्यक्ति के साथ जैसे संबंध अतीत में थे वे वैसे ही रहें। क्या यह संभव है?
नदी बहती रहती है। दुबारा उसी जलधार को हम नहीं स्पर्श कर सकते। हमें यह मानना और समझना होगा कि रिश्ते और शब्द दोनों ही संदर्भ बदलते ही मायने बदल लिया करते हैं। रिश्ते शायद हमेशा स्थाई भी तो नहीं होते। इसमें भी बाज़ार की तरह भाव चढ़ते और उतरते रहते हैं।

Monday, January 1, 2018

नए साल के काम...




कौशलेंद्र प्रपन्न

उगो हे कर्मयोगी उगो...

नए साल में हम सबने कुछ न कुछ ज़रूर सोच रखा है। सोचा नहीं तो सोचना तो होगा। हमें अपने साल की योजना तो बनानी ही चाहिए।
आज मेरी शुरुआत एक लेखन से हुई। इस साल का पहला लेख लिख कर सुखद एहसास हुआ। विषय बाल साहित्य समीक्षा से बाहर। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वयस्कों के साहित्य की चर्चा तो होती है किन्तु बाल साहित्य उपेक्षित रह जाता है।
इस साल मेरी कोशिश होगी कि एक नई किताब को पूरा कर सकूं। इतनी ताकत और आत्मबल बना रहे कि इस किताब को पिछली किताबों से बेहतर बना सकूं।
हम सब के पास सीमित समय हैं। सीमित ही क्षमताएं होती हैं। कुछ लोग हैं जो प्रयास से अपनी क्षमता और दक्षता को विकसित कर पाते हैं। यदि हम योजनाबद््ध तरीके से कार्ययोजना बनाएं और उसपर अमल करें तो क्या मजाल कोई सफल होने से रोक सके।
बच्चे परीक्षा के भय से बाहर आ सकें। अपनी क्षमता और कौशल के आधार पर जीवन की राह चुनें। इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा ही नहीं हो पाता। बच्चे वयस्कों की इच्छाएं जीया करते हैं। कई बार यह जीना इतना भारी हो जाता है कि बच्चे जीवन ही छोड़ जाते हैं।
बच्चे हैं तो शिक्षा होगी। शिक्षा होगी तो बच्चों को बेहतर जीवन की तमीज़ दे सकेंगे।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...