Thursday, April 30, 2015

तुम्हारे समंदर को मीठा बना दूं


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तुम्हारे समंदर को मीठा बना दूं
घोल कर प्रीत की ढली
उलीच डालूं तुम्हारे खारेपन,
भर दूं आकंठ
मुहब्बत की तासीर
तुम्हारे खालीपन में बो दूं दूब संगी की
रात रात भर परेशां घूमने वाले परिंदों को
दिखा दूं राह
मुकम्मल कोई
चाहता हूं
कई बार
भर दूं तुम्हारे सूनपन में गीत प्रीत की।
पर कैसे
गा सकता हूं
कोई गीत सोहर के
या फिर मानर
कोई हल्दी के गीत
या फिर परिछन के राग।
कंठ में ही घूं घूं करते
दब जाते हैं
जब भी मुंह खोलता हूं
हजारों हजार चीखें
मक्खी की तरह भिन भिनाने लगती हैं
मुंह बंद कर कुंभक करने लगता हूं
चाहता तो हूं
तुम्हारे जिंदगी के खारेपन को मीठी डली में सान कर थाप दूं उपले।
जब सूख जाएं
लगा दूं आग
तुम्हारे खारेपन में
ताप लूं
तुम्हारी सारी नीरवता।
रात बिरात जो तुम तटों पर करवटें बदल कर परेशां होती हो
चाहता हूं,
कूल विहीन कर दूं
पर कहां संभव है
समंदर को मीठा कर पाना
लहरों को
समझाना कि इतना भी परेशां करना ठीक नहीं।
मैं लगा हूं
समंदर से बात करने में
फुसला रहा हूं उसे
कभी सीखे नदियों से कल कल बहना
मंथर गति से आगे निकल जाना
कूलों से टकराना
अंत में तुम्हीं में मिल जाना
सीखे तेरा खारा समंदर।

Thursday, April 23, 2015

teachers training on Varnmala and Poem teaching




Its a Hindi Varnmala and Poem teaching teachers training for EDMC teachers. 

तेरे शहर से


उम्मीदों भरे तेरे शहर से
नाउम्मीदों की पेाटली बांधे
निकल पड़ा उस पार
खेत यहीं रह गए
रह गई तेरी उम्मीदों के स्वर
बस मैं चलता हूं तेरे उम्मीदों के शहर से।
अगर मेरी बेटी पूछे
कहां गए बाबा
तो समय हो तो कह देना
खोजने गए हैं नई उम्मीद की खेती
जहां सूखा
बाढ़
हारी बीमारी
नहीं उजाड़ती जवान फसल
जहां कर्जदारी नहीं होती,
बस एक चीर शांति होती हो
लेकिन तेरे पिता वहां भी चलाना चाहते थे हाल
उगाना चाहते थे धान
चना,
बाजरा
बिदा करना चाहते थे
इस लगन में तुम्हें
लेकिन यह भी मौसम के मानिंद
उजड़ गया
कि ज्यों उजड़ जाती ही आंधी में मड़ैया।
उम्मीदों के तेरे शहर में
आया था लेने कुछ बीज
उम्मीदों की
घोषणाओं की
लेकर बीज क्या करता
कहां किस खेत में डालता,
यही सोच सोचकर
 तेरे साफ सफ्फाक शहरियों के बीच से जा रहा हूं
निराश नहीं हूं
किसान हूं
जेठ बैशाख हो या भादो
हमारा मन भर भरा ही रहता सदा
इस बार न सही
अगली बार उगा लूंगा
कुछ अनाज
बेच कर
कर दूंगा तेरे हाथ पीले।
देखते ही देखते
इस गगन में छा गयी काली बदराया
दूर कहीं बोलने लगे थे कौए
चील, गिद्धों को लग गई थी भनक
आज का भेजना हुआ मयस्सर
इस उजाड़ में।
तेरे शहर से उम्मीदों की पोटली लिए जा रहा हूं
तुम परेशां मत होना
वहां भी बोउंगा
गोड़ूंगा,
फसल तैयार होते ही काटूंगा,
वहां रहते हैं इंद्रा
बरसाएंगे रिमझिम बुंदकिया
तर हो जाएगा मन
उम्मीदों की फसल वहां नहीं उगती
नहीं मिलता लोन किसी भी बैंक से
न होंगे वहां तगादाकार
न होगी घोषणाओं की बौछार
जो बोउंगा वही काटूंगा।

Thursday, April 9, 2015

उनके देवता


मुर्दहिया पढ़ते वक्त देवताओं और देवालयों का विभाजित समाज आंखों के आगे नाचने लगता है। उनके देवता और हमारे देवता के वर्गीकरण को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि समाज के शक्तिशाली और सत्ताधीशों के देवता और देवालयों के चरित्र स्पष्ट होते हैं। डाॅ तुलसी राम ने चमरिया माई और डीह बाबा का जिक्र करते हैं। चमरियां माई और डीह बाबा निम्न और दलित जाति के लोगों के देवता हैं। उनके देवता और देवालय गांव से बाहर मुर्दहिया के पास निरा वीराने मंे है। उनपर चढ़ने वाले प्रसाद और भक्तजन भी अगड़े लोगों से कई मायने में अलग हैं। जहां चमरिया माई और डीह बाबा पर शराब, डांगरों के मांस आदि चढ़ाएं जाते हैं वहीं अगड़ों के यहां इन चीजों को अछूत माना गया है। मुर्दहिया एक उदाहरण भर है जिसमें उनके देवता और देवालयों के चरित्र और सामाजिक बुनिवाट की बानगी मिलती है। यदि देश के अन्य दलित देवताओं और देवालयों की ओर नजर डालें तो वर्ग चरित्र और उनके और अगड़ों के देवताओं के खान-पान, वेश भूषा आदि में काफी अंतर देखने को मिलेगा।
सन् 2008 के अगस्त माह में एक बिजनेस अखबार ने एक खबर लगाई थी कि देश के सबसे अमीर और धनाढ्य मंदिर कौन से हैं। उन मंदिरों में रोज दिन कितने चढ़ावे चढ़ा करती हैं। रिपोर्ट के अनुसार एक दिन में 80 लाख से लेकर एक करोड़ तक के जेवर, सोना, चांदी और नकद आदि शिरिडिह के साई मंदिर पहले स्थान पर था और दूसरे नंबर पर मुंबई के सिद्धी विनायक मंदिर था। देश के इन दो मंदिरों में जितने चढ़ावे और कमाई होती है उस अनुपात में उनके देवताओं और देवालयों की गिनती कहीं भी भी नहीं होती। समय समय पर मंदिरों में चढ़ाने वाले चढ़ावे और उनकी कमाई को लेकर खबरें आती रही हैं लेकिन उनके देवताओं की खोज खबर तक नहीं ली जाती। यह जानना बड़ा ही दिलचस्प और आंख खोलने वाला हो सकता है कि देश भर में उनके देवताओं पर कितने चढ़ावे चढ़ते हैं और उनके देवता कितने महंगे वस्त्राभूषण पहनते हैं। हिन्दु देवी देवताओं के घर हर गली मुहल्ले में हैं। उनके आभूषण, वस्त्रसज्जा, चढ़ावे पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि एक दिन कम से कम इनती कमाई तो मंदिर के मालिक एवं पुजारी की हो जाती है कि जिससे अपने घर परिवार को अच्छे तरीके से चला पाते हैं। लेकिन गौरतलब यह भी है कि अमूमन मंदिरों में पुजारी भी ठेके पर रखे जाते हैं। मंदिर के प्रबंधक एवं मालिक मासिक वेतन पर काम करने वाले पंडि़त जी के साथ ठीक वैसे ही बर्ताव करते हैं जैसे अन्य कर्मचारियों के साथ मालिक व्यवहार करता है। यदि चढ़ावे, दान आदि से कुछ भी छुपा लेते हैं तब उनपर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाती है। मंदिर से तो निकाला ही जाता है साथ ही उनकी मार कुटाई भी होती है।
भारतीय मिथ शास्त्र पर नजर डालें तो पाएंगे कि अगड़ों और उनके देवताओं के भक्त भी अलग अलग हुआ करते थे। मंदिर में देवी देवताओं के पत्थर, वस्त्र, पहनावे सब के सब एक खास वर्ग की छवि पैदा करती है। यदि दिल्ली में ही मंदिरों के व्यापार व कहें व्यवसाय को देखें तो आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। क्षमा चाहता हूं मैं मंदिर और इससे जुड़े तमाम ताम -झाम को व्यवसाय व व्यापार कह रहा हूं लेकिन यही सच है कि जो लोग मंदिरों को व्यापारी हैं उनके लिए धर्म व आस्था नाम की कोर्ठ चीज नहीं होती। उनकी नजरों में यदि कुछ होता है तो वह है मुनाफा। क्योंकि जिस तरह से दुकानों, मालों, व मंडियों में बोली लगा करती है उसी तरह मंदिरों की भी बोली लगा करती हैं। हरिद्वार के हरकी पौड़ी पर तमाम मंदिरों की एक साल की बोली लगती है। वहां मंदिर मालिकों से बात हुई तो बताया कि एक साल की कीमत 5 करोड़ है। हमें यह पैसे भक्तों से ही तो निकालने हैं। यही वजह है कि वहां पर हर मंदिर खुद को प्राचीन, अत्यंत प्राचीन गंगा मां का मंदिर होने के दावे किया करते हैं। लेकिन ध्यान हो कि 1990 के आस पास वहां सिर्फ तीन ही मंदिर हुआ करते थे। जो अब बढ़कर पांच से भी ज्यादा हो चुके हैं।
उनके डीह बाबा, चमरिया माई और उनके भक्तों में वह शक्ति शायद नहीं है कि जो आम चलते रास्ते, चैराहों आदि पर रातों रात मंदिर पैदा कर लें। उसके लिए काफी समीकरण बैठाने पड़ते हैं। हर शहर और गांवों में किस तरह और किनके द्वारा मंदिर रातों रात बन जाते हैं उनमें कितने मंदिर उनके होते हैं और कितने अगड़ों के यह जानना भी रोचक हो सकता है। उनके देवता टूटी ढहती हुई दीवारों और छत के नीचे रहा करते हैं वहीं दूसरे देवता चमचमाती रोशनी में नहाती दीवारों और छत के नीचे विश्राम किया करते हैं। एक ओर जहां दूध के जलढार करते भक्त जन हुआ करते हैं वहीं दूसरी ओर कुत्ते जहां पनढार किया करते हैं या देसी शराब चढ़ाए जाते हैं। गोरू डांगर, ताश पत्ती खेलने वालों के अड्डे उनके देवालयों होते हैं वही दूसरों के देवालयों में छप्पन भोग लगा करता है।

Tuesday, April 7, 2015

स्कूली शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार




शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति और सवाल को ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है। गोया होता यूं है कि आनन फानन में हम शिक्षा और गुणवत्ता जैसे अहम सवालों को बड़ी ही जल्दबाजी में देखते और निर्णायक फरमान जारी कर देते हैं। जबकि यह मुद्दा जितना देखने में सहज और सरल लगता है वह दरअसल इतना भी एक रेखीए नहीं है। शिक्षा अपने आप में काफी गहन और विमर्शकारी है। पहली बात तो यही कि हमारा आज का समाज इस शिक्षा से क्या हासिल करना चाहता है। हमारी खुद की शिक्षा से क्या उम्मीदें हैं? जब तक इन्हें स्पष्ट नहीं कर लेते तब तक शिक्षा में गुणवत्ता जैसे खासे अहम सवाल को ऐसे ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से व्याख्यायित करते रहेंगे और इसका ठिकरा सीधे सीधे शिक्षकों के मत्थे फोड़ते रहेंगे। जबकि ठहर कर विमर्श करें तो पाएंगे कि शिक्षक तो महज एक सिर है जिसका सिर बहुत आसानी से कूंचा जा सकता है। उसके बचाव में खड़े होने वाले बहुत कम लोग होंगे। शिक्षक संगठनों की अपनी चिंताएं होती हैं। जिसमें शिक्षक के मुद्दे महज नारों के लिए काम आते हैं। गौरतलब है कि नारे पूरे साल एक स्वर में नहीं लगाए जा सकते। उसके भी एक खास मौसम और वक्त हुआ करता है।
शिक्षा में गुणवत्ता का प्रश्न बार बार कई रूपों में उठते रहे हैं। सरकार से लेकर नागर समाज भी खासे गंभीर से लगते हैं। सरकार भी हर साल रस्म अदायगी की तरह अपनी रिपोर्ट जारी कर देती है कि फलां फलां कक्षा में बच्चों के दाखिले में बढ़ोत्तरी हुई। अमुक राज्यों में शौचालय, पीने का पानी, शिक्षकों के खाली पदों आदि से राहत मिल गई। आरटीई के पूरे ना सही कुछ ढ़ांचागत सुविधाएं स्कूलों में उपलब्ध करा दी गई हैं आदि। यहां सवाल उठता है कि क्या शिक्षा में महज चंदेक ढ़ांचागत सुविधाएं मुहैया करा देने से ही शिक्षा में गुणवत्ता का मसला हल हो जाता है। क्या गुणवत्ता का सरोकार सिर्फ शौचालय, पीने के पानी की सुविधाएं उपलब्ध करा देने से है? या कि शिक्षा के क्षेत्र में जब हम गुणवत्ता की बात करते हैं तो उसका अर्थ और व्यापक हो जाता है। इस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है।
हाल ही में जारी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट और नूपा की फ्लैस डैटा पर नजर डालें तो पाएंगे कि 2013 में जहां 81 लाख बच्चे स्कूल से बाहर थे 2014 में यह संख्या घट कर 60 लाख हो चुकी है। उसमें भी लड़कियों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है। गौरतलब हो कि यह संख्या 2014-15 में भी अस्सी लाख बताए गए थे। संख्याओं से जिस तरह सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं खेलती हैं उसपर गौर करें तो पाएंगे कि इनकी चिंता महज संख्याओं में गिरावट दिखाना है। शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता की क्या स्थिति है उससे ज्यादा साबका नहीं है। क्योंकि आंकड़ों का पहाड़ जितना खड़ा और गिराया जाता रहा है उसे देखकर एक छवि तो स्पष्ट हो जाती है कि हमारी ंिचंता आंकड़ों को दुरूस्त करना है न कि हकीकत को ठीक करना। इसी साल जनवरी में यूनिसेफ और यूनेस्को की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में महज 14 लाख बच्चे ही स्कूल से बाहर रह गए थे। यह आंकड़ों का खेल कैसा है? क्या यह समझना बहुत कठिन है कि एक ओर भारत सरकार 60 लाख बच्चों को स्कूल से बाहर बताती है वहीं दूसरी संस्थाएं 14 लाख किस आधार पर दावे करती हैं? आखिर सच क्या है इसे जानने के लिए विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट भी हमारी मदद करती हैं। मसलन असर, प्रथम, आरटीई फोरम या फिर नेशनल कोईलिएशन फार एजूकेशन आदि। इन संस्थानों की रिपोर्ट की बात करें तो अभी भी देश के तकरीबन 60 लाख बच्चे स्कूले से बाहर हैं। वहीं सरकारी दस्तावेजों की मानें तो यह संख्या 14 लाख है।
इन संख्याओं और और आंकड़ों के पहाड़ पर चढ़कर हकीकत नहीं जान सकते। हमें कुछ बुनियादी तथ्यों पर गौर करना होगा। क्या बच्चे कक्षा में अपनी उम्र और कक्षायी स्तर के अनुसार भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषयों में दक्षता हासिल कर पा रहे हैं या नहीं। क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 हरेक उन बच्चों को जो 6 से 14 आयु वर्ग के हैं, को बुनियादी शिक्षा का संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है। लेकिन यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जो शिक्षा मिल रही है वह किस स्तर और गुणवत्ता वाली है। इस ओर यदि नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से कराए गए सर्वे की रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि उनका आकलन का औजार बच्चों में यह जांचना था कि बच्चा शब्दों को पढ़ पाता है या नहीं। उनका ध्यान इस बात पर था कि बच्चा लिख पाता है या नहीं? आकलन के चेक लिस्ट में शामिल यह होना चाहिए था कि बच्चा ध्वनियों को सुनकर पहचान और अंतर कर पाता है या नहीं। बच्चा चित्रों को देखकर उस पर कुछ वाक्य बोल पाता है या नहीं। आकलन के पैमाने पर हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे फिसलते हुए दिखाए गए। यह तो होना ही था क्योंकि इन बच्चों को जिन अध्यापकों से भाषा की तालीम मिलती है वो भी ऐसे ही स्कूलों से निकल कर आए हैं जहां भाषायी कौशल में वर्णों को पढ़ना और उन्हें लिखने के कौशल तक महदूद रखा गया।
यदि बच्चों में भाषा दक्षता की बात करते हैं तो सबसे पहले खुद में यह स्पष्ट होना चाहिए कि वर्णों की पहचान क्या पढ़ना है? या वर्णों को बोल लेना पढ़ना है? यदि गहराई से सोचें तो शायद हम इसे पढ़ना नहीं मानेंगे। यह वर्णों की पहचान व आकृतियों को देखने की आदत तो हो सकती है, लेकिन पढ़ने एवं समझने की श्रेणी में नहीं गिन सकते। अफसोस की बात है कि जब हम बच्चों की भाषायी समझ का आकलन करते हैं तब हमारा ध्यान इन्हीं कौशलों पर होता है। बच्चे किन किन शब्दों को ठीक से बोल, लिख और पढ़ लेते हैं। किन शब्दों को लिखने बोलने और पढ़ने में गलतियां कीं आदि आकलन के मुख्य बिंदु होते हैं। जबकि भाषा के कौशल व भाषायी समझ कहती है कि बच्चे की भाषायी दक्षता की परीक्षा कुछ वर्णों को रट कर सुना देने व पढ़ देने से नहीं की जा सकती। भाषा शिक्षण में बुनियादी खामियों पर नजर डालें तो यह समझना आसान हो जाएगा कि बच्चे क्यों नहीं पढ़ पाते? बच्चे इसलिए नहीं पढ़ पाते, क्योंकि उन्हें हम सबसे पहले लिखने और पढ़ने पर ज्यादा जोर देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि पहले ध्वनियों को सुनने की आदत उनमें विकसित करें। जब बच्चे ध्वनियों को सुनने में सक्षम हो जाएंगे तब वो उन ध्वनियों की नकल करना शुरू करेंगे और फिर बोलना शुरू करते हैं। लेकिन हमारी कोशिश और जोर लिखने पर ज्यादा होती है। इसलिए बच्चे सुनने से पहले लिखने के चक्कर में बाकी के भाषायी कौशल में पिछड़ते चले जाते हैं।
पढ़ना और समझना दोनों ही दो अलग अलग कौशल और अभ्यास की मांग करते हैं। बच्चों में पढ़ने के कौशल विकसित करने के लिए नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 बड़ी शिद्दत से रूपरेखा प्रस्तुत करती है। इसी के आधार पर रिमझिम किताब को तैयार किया गया। इसमें भाषा शिक्षण के तौर तरीकों पर तो काम किया ही गया है साथ ही भाषा शिक्षण को प्राथमिक स्तर पर कैसे रोचक और आनंदपूर्ण बनाया जाए इस पर भी जोर देता है। यदि रिमझिम किताब को देखें तो इसमें भाषा की कक्षा को रोचक और प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न कक्षायी गतिविधियों को शामिल किया गया। इन गतिविधियों के मार्फत शिक्षक बच्चों को बड़ी सहजता से आनंद पूर्वक भाषा शिक्षण कर सकता है। बच्चों को भी उन गतिविधियों में मजा आएगा और भाषा के विभिन्न कौशलों को हासिल भी कर सकेंगे। बच्चों में लिखे हुए शब्द और वाक्यों को पढ़ने और समझने के कौशलों को बढ़ाने के लिए जिन गतिविधियों को शामिल किया गया है यदि उनका इस्तेमाल कक्षा में किया जाए तो परिणाम सकारात्मक निकल कर आएंगे। फिर यह शिकायत जाती रहेगी कि बच्चे को पढ़ना-लिखना नहीं आता।
गौरतलब है कि शैक्षिक गुणवत्ता के दावेदारों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने पाठ्यचर्याओं और पाठ्यपुस्तकों के वाचक की भूमिका से शिक्षकों को मुक्त कर देख सकने की कोशिश की है? क्या उनकी समझ में कक्षा में मौजूद बच्चों को वर्णों की पहचान करा देने भर की जिम्मेदारी है या फिर शिक्षक एक जीवन भर साथ चलने वाली वह छवि है जिससे कभी कभार हमें रोशनी मिलती है।

Thursday, April 2, 2015

भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाएं



भारतीय अर्थव्यवस्था में हम महिलाओं की उपस्थिति व योगादान पर गंभीरता से विमर्श करते हैं तो स्थितियां बहुत साफ और सकारात्मक नजर नहीं आतीं। क्योंकि हमारे पितृसतात्मक समाज में स्त्रियों को शिक्षा, ज्ञान और वर्चस्व में जगह देने की प्राथमिकता हाशिए पर रही हैं। यदि भारतीय इतिहास को इस दृष्टि से देखेें तो एक दो महिलाएं ही ध्यान में आती हैं जिन्हें शिक्षा और वेद- वेदांग पठन-पाठन में देख सकते हैैं। वहीं रामायण कालीन स्त्रियों की स्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि उसी समाज में एक ओर महिलाएं अपभ्रंश और अन्य क्षेत्रिय भाषाओं का इस्तमाल करती थीं वहीं राजदरबार में पुरुष संस्कृत बोला करते थे। इससे भी एक छवि स्पष्ट होती है कि महिलाओं को हमने भाषा, राज-समाज और अर्थ में कितना और किस स्तर पर रखते थे। उत्तररामचरित संस्कृत की कृति में इसकी झलकियां खूब मिलती हैं।
भारत के अर्थव्यवस्था में महिलाओं को किस तरह से जोड़ने का प्रयास आजादी के बाद हुआ है इसपर नजर डालने की आवश्यकता है। हमने आज तक राज-सत्ता में महिलाओं को विभिन्न पदों पर तो स्थापित किया है लेकिन अर्थव्यवस्था यानी की वित्त-मंत्रालय अभी भी महिला मंत्री से वंचित रहा है। विदेश-मंत्रालाय, शिक्षा मंत्रालय एवं अन्य विभागों में तो महिलाओं को हमने मुख्यधारा में शामिल किया है लेकिन अफसोस की बात है कि हमने कभी इस अहम मंत्रालय में महिला को स्थान नहीं दिया।
जहां तक महिलाओं की अर्थ-जगत में उपस्थिति का मुद्दा है हमने अंतरराष्टीय फलक पर भी देखा है कि महिलाओं के श्रम को कमतर आंका गया है। माना जाता है कि महिलाओं को गृह कार्य बिन पेड कार्य र्है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के दिन के 8 से 9 घंटे से भी ज्यादा घर के कामों को गंभीरता से नहीं लिया जाता और न ही उनके इस कार्य की कहीं संज्ञान में ही ली जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों और पदों पर आज महिलाएं कार्यरत हैं। वे प्रकारांतर से अर्थव्यवस्था में विकास को लेकर अपना योगदान दे रही हैं। वे चाहे बैंक सेक्टर में हो या आॅटो मोबाइल क्षेत्र में, शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर लघु उद्योग हर क्षेत्र में आज महिलाएं अपनी क्षमता और कौशल के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत ही कर रही हैं। लेकिन उनके इस योगदान को वह तवज्जो नहीं मिलता जो एक पुरुष को मिलता है। यहां हम लिंगाधारित भेदभाव और भारतीय संविधान की मौलिक अधिकार एवं 19 ए की स्थापनाओं को छिन्न-भिन्न करते हैं।
सच पूछा जाए तो भारतीस जनमानस को इस तथ्य को स्वीकारने में ही बड़ी समस्या रही है कि महिलाएं ज्ञान-विज्ञान और अर्थ के क्षेत्र में कुशल घटक भी हो सकती हैं। सबसे पहले हमारे समाज को इस तरह की पूर्वग्रहों से उबरना होगा। तभी हम समाज में समतामूलक और सभी के लिए विकास के समान अवसर मुहैया करा सकते हैं। वरना यह अन्य मूल्यपरक स्थापनाओं और मान्यताओं की तरह ही महज आदर्श वचन और राम राज्य की अवधारणा बन कर रह जाएगी। स्त्रियां आज जहां हैं वहां से कुछ दूर तो जा सकती हैं, अपना देह तो तोड़ सकती हैं लेकिन फिर भी उनके काम और योगदान को मुकम्मल पहचान और मान्यता नहीं मिल पाएगी।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...