Saturday, February 23, 2019

सेवाकालीन शिक्षकों के राष्ट्रीय कार्यशालायी संबोधन के सूत्र



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछलों दो दिनों में दो विभिन्न राष्ट्रीय स्तर के शिक्षा-शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में सेवाकालीन शिक्षकां को संबोधित करने का अवसर मिला। वास्तव में उन शिक्षकों से मिलकर अभिभूत हूं तो कुछ चकित भी हूं। पहली मुलाकात केंद्रीय शिक्षा संस्थान, शिक्षा विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा-शिक्षक- प्रशिक्षक के व्यावसायिक दक्षता विकास कार्यशाला में बतौर विशेषज्ञ अपनी बात रखने का अवसर मिला। इस सत्र में एनजीओ, सीएसआर एवं सरकारी तंत्रों के प्रमुखों ने हिस्सा लिया। इसमें महसूस हुआ कि शिक्षक पढ़ने-लिखने से अभी दूर उतने नहीं हुए हैं जितना अन्य स्रोतों से समाज में ख़बरें नकारात्मक फैलाई जाती रही हैं। इनमें पीएचडी के छात्र भी उपस्थित थे। सबसे दिलचस्प बात यह कि अकादमिक क्षेत्र में लगे हुए शोधार्थी को बाहरी यानी सेवाकालीन शिक्षकों की भौगोलिक, कार्यस्थलों की हक़ीकतों की ख़बरें थोड़े कम मालूम हैं। अभी भी संस्थान में सिर्फ जॉन डिवी, हंटर कमिशन, कोठारी आयोग की तारीखें, सुझावों की परतें खोल रहे हैं। उन्हें उसके बाद की समितियों, वैश्विक प्रतिबद्धताओं, दबावों, जोमेटियन, डकार आदि की घोषणाएं और एसडीजी की घोषणाएं और निहितार्थ अभी परेशान नहीं करतीं। जबकि करनी चाहिए।
दूसरा अवसर सांस्कृतिक एवं स्रोत शिक्षण केंद्र में बतौर मुख्य अतिथि अपनी बात रखने का अवसर मिला। बीस दिवसीय सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला का मकसद देश के विभिन्न राज्यों के शिक्षकों को कला, संस्कृति, संगीत, ऐतिहासिक इमारतों, नाटक आदि को कैसे अपने मुख्य विषय के साथ शामिल कर शिक्षण की जाए, ऐसी समझ उनमें विकसित की जाए। इन बीस शिक्षकों में सबसे ज्यादा प्रतिभागी जम्मू और कश्मीर से थे। हिमाचल से एक और महाराष्ट्र से आठ, बंगाल, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड़, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से आए थे।
कुछ लोगों के अपने अपने अनुभव भी साझा किए। हैरानी हो सकती है कि इन बीस दिनों में अधिकांश गैर हिन्दी भाषी प्रतिभागियों ने अपनी बात हिन्दी में रखी। क्या तेलंगाना, आंध्र प्रदेश सब की जबान हिन्दी बोल रही थी। वहीं हिन्दी भाषायी राज्यों से आए प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए कि इन बीस दिनों में हमने उनकी जबाव भी सीखी। इनमें सीसीआरटी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सीसीआरटी के प्रांगण में आयोजित इस कार्यशाला में जितनी भी चीजें हुइंर् उन्हें क्या शिक्षक अपनी कक्षाओं में करेंगे या नहीं इसे देखने-समझने के लिए सीसीआरटी रिपोर्ट भी तैयार करेगी।
मैंने यहां अच्छा शिक्षक कैसे श्रेष्ठ शिक्षक बन सकता है, इसपर बल दिया। इस बात पर भी ध्यान खींचने की कोशिश की कि अपने शिक्षण, पढ़ने-पढ़ाने का मकसद और रणनीति तैयार करें ताकि आपका मकसद साकार हो सके। 

Tuesday, February 19, 2019

छुट्टी अधिकार नहीं और तनाव


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज दिल्ली पुलिस के दो अधिकारियों से बातचीत का मौका मिला। एक थे अस्टिंट इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस और सब इंस्पेक्टर। दोनों से ही ठहर कर बातचीत हुई। इन्होंने बातों ही बातों में स्वीकार किया कि हमें छुट्टी नहीं मिलती। हमारे तनाव मैनेजमेंट ऑफिसर हमें तनाव मुक्ति का सुझाव और उपाय बताते हैं। लेकिन वही हमें इतना तनाव देते हैं कि पूछिए मत। पिछले दिनों मेरे घर में रिश्ते के लिए कुछ लोग आने वाले थे। मैंने छुट्टी एप्लाई किया। लेकिन हमारे साहब ने कहा छुट्टी आपका अधिकार नहीं है। पहले काम कीजिए। सर काम का यह आलम है कि कोई भी त्योहार हो, घर में कोई काम हो, बच्चे को अस्पताल ले जाना हो लेकिन हमारे साहब कहते हैंं पहले मैं तहकीकात करूंगा कि वास्तव में ऐसा है या नहीं तभी छुट्टी दूंगा। हमारे बारे में कई तरह की ख़बरें आती हैं। हम क्रूर हैं। इससे कोई गुरेज भी नहीं लेकिन हमारे काम के घंटों को कोई नहीं देखता।
आज पुलिस के अधिकारी से बात के बाद कई सारी बातें और हक़ीकतों से रू ब रू होने का मौका मिला। उन्हें किन हालात में काम करना पड़ता है। कैसे वो लोग अपने घरों, परिवारों के काम नहीं आते। जब घर वालों को उनकी ज़रूरत होती है। इन तनावों के माहौल में वो कैसे काम और घर के बीच सामंजस्य स्थापित करते हैं इसे नागर समाज को समझने की आवश्यकता है।
छुट्टी को लेकर हम हमेशा ही उत्साह और अधिकार के प्रति सचेत होते हैं। लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति कोई ख़ास वास्ता नहीं रखते। हमेशा ही अपनी छुट्टी के अधिकार को लेकर लड़ते हैं। जबकि सरकार और कंपनियां छुट्टियों की सैलरी भी देती है। ऐसे में अधिकार की बात करना कई बार बेईमानी सी लगती है। लेकिन सच्चाई है कि जहां दुनिया भर में चार दिन के कार्य दिवस पर चर्चा हो रही है। वहीं हमारी निजी कंपनी और सरकार इन छुट्टियों को खत्म करना चाहती हैं। पांच दिन के कार्य दिवस को छह दिन करने पर आमादा हैं। पता नहीं दुनिया की ख़बरों से हमें कोई वास्ता है या नहीं? क्या हम समझना नहीं चाहते कि जो काम पांच दिनों में हो सकता है उन्हें छह दिनां के लिए बांधना कितना वाजिब होगा।
सिर्फ कार्यदिवस को बढ़ाकर हम अपनी कुर्सी की धौंस तो जता सकते हैंं लेकिन कार्य की गुणवत्ता को लेकर कोई भी दावा नहीं कर सकते। जिस शिद्दत के कर्मचारी पांच दिनों में काम करता है। वह छठे दिन तनाव और मजबूरन करेगा। यानी कहीं न कहीं दिखावे के लिए काम में लगा हुआ दिखाएगा। उसकी प्रेरणा और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता कहीं दूर चली जाएगी।
इन्हीं तनावों की वजह से सेना में कई बार गोलीबारी भी हुई है। अपने ही अधिकारी की हत्या की ख़बरें भी आती रही हैं। ऐसे तनाव के पल सिर्फ सेना में नहीं बल्कि आम जिं़दगी में भी देखी-सुनी जा सकती है। ऐसे में बॉस के प्रति किस प्रकार की घृणा और विद्वेष के भाव जगते हैं उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते।

Sunday, February 17, 2019

बोल दें जो मन है पता नहीं फिर मौका मिले न मिले


कौशलेंद्र प्रपन्न


अपनी पुस्तक भाषा, बच्चे और शिक्षा की प्रति सौंपते हुए 

बोलने में हम कितनी कंजूसी करते हैं। कई बार संकोचवश बोल नहीं पाते। सोचते ही रह जाते हैं कि बोलूं या नहीं। बोलने से कहीं कोई नाराज़ न हो जाएं। इसी अगर मगर के चक्कर में कई बार कहने से चूक जाते हैं। हमारे हाथ से कहने का अवसर निकल जाता है। निकला हुआ वक़्त शायद कहते हैं वापस नहीं आता। आता भी है तो अपनी नई चादर ओढ़े आया करता है। तब शायद बोलने का वो लाभ व असर न पड़े।
कहने वाले कहते हैं जो भी कहना है, करना है आज ही कर डालो। कल किसने देखा। लेकिन मनुष्य का स्वभाव भी तो है कि हम आज कल में कई अहम चीजें, एहसास से हाथ धो बैठते हैं। सोचा था उनसे मिलकर यह कहूंगा, वह कहूंगा आदि आदि। लेकिन जब सूचना मिली कि वो अस्पताल में हैं। अब बोल नहीं सकते। न ही सुन सकते हैं। ऐसे में कितना मन कचोटता है कि काश तब ही बोल दिया होता जो कहना चाहते थे।
मेरे दिल के बेहद करीब रहने वाले प्रो. कमलकांत बुद्धकर जी इन दिनों न बोल पाने की छटपटहाट से गुज़र रहे हैं। आज जब उनसे बात हुई तो कुछ भी समझ न सका। वो कुछ तो कहना चाहते थे। लेकिन समझ से परे था। वो जिस भाषा व ध्वनियों को प्रयोग कर रहे थे उससे मैं परिचित न था। जिन्होंने रेडियो, अख़बार में खूब लिखा और बोला आज उन्हें किस मनोदशा और पीड़ा से गुजरना पड़ रहा होगा इसका अनुमान भर लगा सकता हूं। ख़ासकर जिसके लिए बोलना और लिखना, पढ़ना और सुनना पेश रहा हो। जिसने पूरी जिंदगी पढ़ने-पढ़ाने का ही काम किया हो उसकी जबान चली जाए तो उसे कितना कष्ट होता होगा। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में इन्होंने मुझे हिन्दी पढ़ाई थी। पहले दिन इन्होंने परिचय लेते हुए कहा ‘‘ कमाल की बात है कि नेपाली, गुजराती, क्रिओल, आदि बोलने वाले को एक महाराष्ट्रीयन हिन्दी पढ़ा रहा है’’ यह वाक्य आज भी कानों में कौंध जाते हैं। सन् 1991 में बुध्कर जी ने ज्वाईन ही की थी। कहने को हज़ारों शब्द, भाव मन में आते होंगे लेकिन वह कह नहीं पाता। इन्होंने जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तार आदि अख़बारों में बतौर विशेष संवाददाता के तौर पर दो दशकों तक फीचर, ख़बरें और मुख्य पृष्ठ पर लिखा वो आज लिख नहीं पाते। बोलना चाहें भी तो बोल नहीं सकते।
हम न जाने किस गुमान और संकोच में आज के बेहतरीन वक़्त को हाथ से जाने देते हैं। सेचते हैं कल बोल देंगे। लेकिन कल आता कहां है? 

Thursday, February 14, 2019

रोती रहीं साठ आंखें


कौशलेंद्र प्रपन्न
सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर्म नहीं था। कोई लज्जा नहीं थी किसी को भी। हर कोई जुड़ा था। जुड़ा था इसलिए रो रहा था।
सत्र नहीं पूछेंगे आप? यह नहीं जानना चाहेंगे कि सदन में क्या हो रहा था? यह अवसर क्या था? बताता हूं। बेशक आपने नहीं पूछा। लेकिन मेरा फर्ज है कि आपको मालूम हो।
‘‘बच्चों में समाजिक एवं संवेदनात्मक विकास में शिक्षक की भूमिका’’ इस विषय पर तकरीबन पचास शिक्षकों के साथ परिवर्तन संस्था की संस्थापक सोनल कपूर बात कर रही थीं। हम अपने बचपन में झांकें और देखने की कोशिश करें कि हमारे साथ बड़ों ने क्या किया? क्या किया हमारे रिश्तेदारों ने। एक अबोध बच्ची या बच्चा के साथ उस उम्र में जो घटती हैं जिन्हें वह समझ भी नहीं पाता।
...अभी बातचीत ज़ारी थी। कुछ शिक्षक सकुचाते हुए तो कुछ ने हिम्मत दिखाकर अपनी बातें औरों के अनुभव का नाम देकर सुना रहे थे। तभी एक शिक्षक फूटफूट कर रोने लगे और कक्ष से बाहर चले गए। उन्हें रोता देख मैं भी बाहर गया। और चुप कराने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने बताया कि बचपन में उनके साथ भी ऐसी घटना घटी है। बहुत पूछने पर बताया कि उस घटना की जानकारी उन्होंने मां को भी दी। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। जब वही घटना मेरे छोटे भाई के साथ भी घटी तो मैं तब असहाय महसूस कर रहा था। वह व्यक्ति आज भी है लेकिन उसके साथ कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि शुरू में तो मां ने भी विश्वास नहीं किया। और बात को वहीं अनसूनी कर दी।
यौन शोषण के शिकार बच्चियां ही होती हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है। लड़के भी हुआ करते हैं। इस वाक्य को साक्षात सामने देख और सुन पा रहा था। मॉनसून वेडिंग, हाई वे, चांदनी बार आदि फिल्मों में इन घटनाओं को बड़ी ही शिद्दत से प्रस्तुत करती हैं। वहीं मैं लक्ष्मी मैं हिजड़, आदि किताबों में भी ऐसी घटनाओं को उठाने का प्रयास किया गया है। लेकिन कई बार ये पन्नों और सिनेमा हॉल में ही सिमट कर रह जाती हैं। जो बच्चियां या बच्चे इन घटनाओं में शामिल होते हैं उनके साथ वह बरताव बतौर जारी रहता है।

Wednesday, February 13, 2019

सवाल मत करियो रज्जो



कौशलेंद्र प्रपन्न
रज्जो तुम्हें एक बात क्यों समझ में नहीं आती? क्यों तुम्हारे कानों पर जूं नहीं रेंगते? क्यां सवाल किया करती हो? क्यों हर सवाल का जवाब मिले इसकी उम्मीद करती रहती हो? इत्ता वक़्त गुज़र गया इतनी सी बात तुम्हारे भेजे में नहीं समाती कि सवाल करने से उन्हें दिक्कत होती है। उन्हें नहीं पसंद है कि तुम या कोई भी उनके कामों, सोचों और योजनाओं पर सवाल करे। लेकिन तुम्हें तो इतनी सी बात समझ नहीं आती। तुम्हें ताकीद करते करते मेरे न जाने कितने दिन और कितनी रातें गुज़र गईं। लेकिन तुम हो कि अपनी इस आदत से बाज़ नहीं आती। बस बहुत हो गया। अब आखि़री बार समझता हूं कि सवाल करना छोड़ों वरना छोड़ जाओगी इन दर ओ दीवारों को। फिर मत कहना कि समझाया न था। वैसे दफ्तर में कोई दोस्त नहीं होता। न ही हो सकते हैं। हर किसी को अपनी चिंता होती है। उसे कितना छलांग मिला। किसे कितनी बढ़ोत्तरी हुई। इसमें हर कोई अपनी रीढ़ को भी बांस दिया करता है। और एक तुम हो कि सवाल किया करती हो। सवाल सुनने वाले बचे ही कितने हैं। जो बचे हैं उन्हें सवाल नहीं बल्कि कुछ और सुनने की अपेक्षा है। लेकिन ठहरी अपने सिद्धांतों की पक्की लेकिन देखना कहीं ऐसा न हो कि तुम और तुम्हारी फिलॉस्फी ही अंत में साथ रहें। बाकी के साथी जो साथ काम किया करते थे। वो आगे निकल जाएंगे और तुम वहीं की वहीं रह जाओगी।
तुम्हें यह क्यों समझ नहीं आती। निज़ाम को विरोध और प्रतिवाद सुनना पसंद नहीं है। यदि तुमने निज़ाम के हां हां नहीं मिलाया तो तुम्हारी छुट्टी कर दी जाएगी। कलुमर्गी, दुर्गा लंकेश के बारे सुना या पढ़ा है या नहीं। अगर नहीं पढ़ा तो पढ़ने का वक़्त निकालो। वैसे जानता हूं तुम्हें पढ़ने से कोई वास्ता नहीं। तुम और पढ़ों यह कैसा विरोधाभास है?
तुमने से पढ़ना ही छोड़ दिया। बल्कि छूट गया जब से जॉब में आई हो। लेकिन फिर भी एक राय मान लो कि पढ़ो। शायद तुम्हारी सेती आंखें में कुछ खुल पाएं। खोलों अपनी आंखें और देखों कौन साथ है और कौन दूर खड़ा बस खेला देखना चाहता हैं। चलते चलते इतनी सी बात कहूंगा। सुन लो! सुन लो न सवाल मत करना। 

Tuesday, February 12, 2019

लोग जाते गए और कारवां सिमटता गया


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘यूं तो अकेला ही चला था जानिब ए मंजिल मगर लोग जुड़ते गए और काफला बनता गया’’ बहुत ही प्रसिद्ध पंक्ति है इसे के सहारे अपनी बात बल्कि एक कहानी सुनाने की कोशिश करूंगा।
कभी कभी हम या कि आप अकेला हुआ करते हैं लेकिन जैसे जैसे हम समाज में उठते बैठते हैं वैसे वैसे हम वतन, हम जबान, हमम न, मिलने लगते हैं और दोस्ती गहराती जाती है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक संस्था, कंपनी में भी यह सटीक बैठती है। कंपनी या संस्था में भी धीरे धीरे दक्ष और कुशल लोग आते जाते हैं और एक कुटुम्ब सा बनता जाता है। यहां हर चीज हर काम सभी के बीच हो जाया करती है। सब अपनी जिम्मदारी लेकर हर काम को किया करते हैं। ‘‘साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगे मिल के हाथ...’’ और काम यूं ही हो जाया करते हैं।
एक वक़्त ऐसा भी आता है संस्था या कंपनी में कि कुछ ख़ास या आम वजहों से इस कुटुम्ब में बिखराव आने लगते हैं। एक एक कर या तो छोड़कर जाने लगते हैं या फिर उन्हें जाने के लिए कई सारे तर्कां, वजहों के जाले बुने जाते हैं जिसमें उलझकर सदस्य परेशान होने लगता है। एक दिन सोचता है बेहतर है यहां से चला ही जाए। ... और जैसे झोला उठा कर आया था वैसे ही झोला उठा कर चला भी जाता है।
उसके जाने का असर यह पड़ता है कि दूसरे संगी साथी भी दबाव महसूस करने लगते हैं। एक भय और निराशा के माहौल में सांसें लेने लगते हैं। कई बार यह भयपूर्ण माहौल वास्वत में होता है तो कई बार ऐसा एहसास होता है। कई बार एहसास कराया जाता है कि यदि उसके साथ ऐसा कर सकते हैं व किया जा सकता है तो हम क्या चीज हैं।
चीज ही तो हो जाते हैंं। जिसे कभी भी, कैसे भी संस्था से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। वह जाने वाला सोचता है जिसे उसने अपने जीवन के ख़ास और विशेष कौशल, दक्षता और क्षण दिए आज उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं रही। और वह दूसरी दुकान के लिए चल पड़ता है।
कभी सोचें तो शायद इस कहानी की गिरहें ज़रूर खुलेंगी। उस एक के जाने से वैसे तो संस्था पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। लेकिन कई बार अवश्य ही उस एक के जाने से लगता है हमने एक बेहतर मानव संसाधन को खोया है। हालांकि इस तरह की बातों के लिए अब या तब भी कोई ख़ास मायने नहीं रह जाते।


Saturday, February 9, 2019

लिखने की शुरुआत ही जनसत्ता से





कौशलेंद्र प्रपन्न 
यूं तो लिखने का चस्का हरिद्वार में ही लगा गया था। सन् 1991 रहा होगा। मुझे लिखने की ओर जिन्होंने प्रेरित और आकर्षित किया वो एल एन राव थे। कमाल के मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक। साथ ही पत्रकारिता में भी उनकी गति थी। उन्होंने ही मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। 
आज पुरानी फाइलों देख रहा था। दिल्ली में पहली बार जनसत्ता में छपा था। सन् 1998। लेख था ‘‘सावधान! लाल बत्ती खराब है।’’ तब जनसत्ता में रजनी नागपाल, उष्मा पाहवा, प्रियदर्शन, मंगलेश डबराल जी हुआ करते थे। इस लेख के बाद जनसत्ता से एक अटूट रिश्ता सा बन गया। जनसत्ता में बतौर बीस वर्ष से लिख रहा हूं। जनसत्ता के साथ ही साथ हिन्दुस्तान, इंडिया टूडे, कादंबनी आदि में छपने लगा। इस लेखन यात्रा में कई सारे मोड़ मुहाने आए। ख़ुद को मांजने, खंघालने और लगातार लिखने के दबाव भी बने। उन दबाओं के दरमियां गुणवत्ता से समझौता नहीं किया। एक वक़्त ऐसा भी आया जब देश के प्रतिष्ठित पांच छह अख़बारों में एक में दिन छपने भी लगा। चस्का से ज्यादा छपने और लिखने की लत सी लग गई।  
शुरू में किसी भी विषय पर लिखता जो भी संपादक कहते, मांग करते उसपर लिखता। फिर भी उस वक़्त भी बच्चे, शिक्षा, भाषा केंद्र में ही रहे। कभी कभी भटकाव भी आए। आज जब पूरे दो दशक को अपने लेखन के लिहाज से देखता और समझने की कोशिश करता हूं तो यही पाता हूं, इस लिखने ने एक पहचान दी। समझ दी और लोगों से जुड़ने का अवसर दिया। आग चल कर हंस, पाखी, हिन्दी चेतना, आधुनिक साहित्य, इंडिया टूडे, योजना आदि में छपने लगा। जैसे जैसे लेखों का पहाड़ बढ़ रहा था वैसे वैसे विषयों के चुनाव और लिखने की रणनीति में निखार आते आए। याद आता है जनसत्ता में प्रियदर्शन जी और सूर्यनाथ जी ने काफी मार्गदर्शन किया विषयों के चुनाव से लेकर उसके साथ बरताव कैसा हो आदि। 
लिखने साथ ही पढ़ना ही छूटा। किताबों पढ़ता, लेख पढ़ता और इससे शुरू हुई समीक्षा लिखने की तमन्ना। इसे साकार किया इंडिया टूटे, कुबेर टाइम्स, पाखी, हंस आदि ने। समीक्षाएं तभी लिखता जब कोई अच्छी किताब पढ़ता और महसूस होता कि इस किताब के बारे में औरों को भी जानकारी होनी चाहिए। 
लिखने दुनिया में यही कोई दो दशक गुज़ार चुका। दो किताबों को जन्म दे पाया भाषा, बच्चे और शिक्षा, कहने का कौशल और तीसरे किताब भाषायी शिक्षा से सरोकार प्रक्रिया में है। यदि लिखने की चाह हो तो पढ़ना और अभ्यास बेहद ज़रूरी है। 

Wednesday, February 6, 2019

वो चला गया पुरानी कोट पहन कर नए मकां की ओर


कौशलेंद्र प्रपन्न
वो साथ बैठ था पास ही। मगर वो वो नहीं था। जो था वो तो कब का छोड़ चुका था। साथ तो था मगर उसका मन साथ नहीं था। साथ थी तो उसकी यादें। यादों में पुरानी बातें और पीछे घटी घटनाएं। कॉपोरेट जगत में ऐसा ही होता है। होता कुछ ऐसे ही है गोया किसी को ख़बर नहीं लगती। किसी को भी, कभी भी एक पल में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। और जिसे बाहर का रास्ता दिखाते हैं उसे मालूम होता है कि उसे किस तरह से जाना है। किसी को भी पता न चले और वो चला गया।
कॉपोरेट जगत में यह बहुत आम बात है। एच.आर जिसे बुलाता है उसे दो ही विकल्प देता है- पहला, या तो आप जॉब छोड़ दो या फिर हम आपको निकाल देंगे। सामान्यतौर पर लोग पहला वाला विकल्प चुनते हैं, मैं ही इस्तीफा देता हूं। यह एक इज्ज़त वाला रास्ता है। कम से कम लोगों को वास्तविकता का नहीं इल्म होगा।
लेकिन इंसान है इंसान है तो उसकी कुछ संवेदनाएं होंगी। लेकिन कॉपोरेट संवेदनाओं से नहीं चलती बल्कि यहां सिर्फ तर्क और तर्क काम करता है। विवेक और यथार्थ काम किया करता है। जिसे निकालना है उसे बहुत ही कठोर शब्दों में कह दिया जाता है कल से आपको आने की ज़रूरत नहीं। लेकिन जो कर्मी है वह इस शब्द के ध्वन्यार्थ को समझ नहीं पाता और अपने काम पर लौट आता है। इसका ख़मियाज़ा ज़लालत से पूरा करना पड़ता है। उससे अचानक लॉपटाप मांग लिया जाता है। मांगना नहीं बल्कि छीन लिया जाता है। तब कैसा महसूस होता होगा। इसका अनुमान ही लगा सकते हैं।
कहते हैं शब्दों के बीच की रिक्तता और अर्थों को समझ सकें तो वह समझदार हैं। भावनाएं कई बार हमें मजबूर कर देती हैं। कई बार हम भावनाओं में इस कदर बह जाते हैं कि हमें इस का एहसास तक नहीं होता कि क्या चल रहा है हमारी हवाओं में।
ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता शायद कह न सकूं किन्तु विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास का शीर्षक हमने उधार ली। और कहा जा सकता है कि वो आया और पुरानी कोट पहनकर यूं चला गया कि अंत में औरों से अलविदा कहने का मौका भी न मयस्सर न हो सका।

Saturday, February 2, 2019

बोर्ड रूम से बेड रूम तक


कौशलेंद्र प्रपन्न
बोर्ड रूम में क्या होता है? क्या कुछ नहीं होता है। सब कुछ तो होता है। सपने बुने जाते हैं। सपनों को साकार करने की तरकीबें, रणनीति, योजनाएं आदि बनाई जाती हैं। बंधाई तो उम्मीदें भी जाती हैं। साथ ही कई उम्मीदों पर पानी भी फेरे जाते हैं। चेहरे पर मुसकान और उदासी भी फेरी जाती है। जिन्हें प्रमोशन मिला वह गदगद हो कर हंसते हुए बाहर निकलता है। जिन्हें प्रमोशन तो क्या उनके कामों की प्रशंसा भी नहीं होती वो किस मुंह से बाहर आते हैं और किस चेहरे के साथ बोर्ड रूम में बैठे रहते हैं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। तो कहानी बस इतनी भर है कि बोर्ड रूम की मीटिंग हौसला बढ़ाने वाली भी होती है और हौसला तोड़ने वाली भी। कोई टूट कर निकलता है तो वहीं कोई साश्रु कूच करता है।
बोर्ड रूम की बातें, नसीहतें, झांड़ फटकार का कुछ पर यूं भी असर पड़ता है कि या तो वह अपने काम को और बेहतर करने में लग जाता है या फिर जो काम वह कर रहा था उससे उसका मन उचट जाता है। वह फिर सिर्फ जॉब किया करता है। वह उसका करियर भी नहीं होता और आंतरिक कॉल भी नहीं होती है। बल्कि वह सिर्फ रोज़दिन आता है कुछ करता है और शाम में घर चला जाता है। इसमें वह सिर्फ काम करता है। उसकी न तो रूचि होती है और न ही रूझान और न ललक। बस वह करता है। वह क्या कर रहा है, इसका उसे इल्म भी नहीं होता। वह शायद यह जानना भी नहीं चाहता कि वह क्या और क्यों कर रहा है। बस क्योंकि किसी ने कहा है या आदेश है इसलिए किया करता है। इसमें न उस व्यक्ति का हित सधता है और न कंपनी की। दोनों ही किसी न किसी स्तर पर सफ़र करते हैं।
बोर्ड रूम की मींटंग में जहां कंपनी व संस्था की बेहतरी के लिए कार्ययोजनाएं बनाई जाती हैं। आगामी वर्षों के लिए एक्शन प्लान पर चर्चा होती है। व्यक्ति की क्षमताओं और कौशलों का मूल्यांकन भी हुआ करता है। दूसरे शब्दों में, जनवरी, फरवरी वह माह होता है कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए जब पूरे साल किसने क्या किया, कितना किया, कैसे किया और क्यों किया आदि सवालों के जवाब तलाशे जाते हैं। इन्हीं बिंदुओं पर व्यक्ति के कार्यों और योगदानों की जांच-पड़ताल होती है। इसे हम एप्रेजल के नाम से जानते हैं। कंपनी और बॉस की क्या अपेक्षा थीं और उन अपेक्षाओं के निकष पर कौन कहां है यह मूल्यांकन अगले साल के बजट और प्लानिंग को ख़ासा प्रभावित करती है।
व्यक्ति जो कंपनी व संस्था में अपनी पूरी क्षमता, ऊर्जा, कंसर्न एवं मकसद की स्पष्टता के साथ काम करता है। वह चाहता है कि न केवल उस व्यक्ति को लाभ मिले बल्कि कंपनी एवं संस्था को भी उसकी दक्षता का लाभ हो। वह अपनी व्यक्तिगत इच्छा और उद्देश्य को पूरी शिद्दत से निभाता है ताकि उसे तो संतुष्टि मिले ही कंपनी को भी नई ऊंचाई प्रदान कर सके। किन्तु उसके महज चाहने से मकसद पूरे नहीं होते, बल्कि बीच बीच में अन्यान्य कामों और अपेक्षाओं के साथ भी उसे तालमेल बैठना होता है। यदि इस काम में चूक हुई तो उसका प्रमुख दायित्य कहीं न कहीं प्रभावित होता है। जो महत्वपूर्ण और ज़रूरी काम थे उसे पूरा करने से रह जाता है। इन्हीं रह गए कामों का मूल्यांकन एप्रेजल के वक़्त मायने रखते हैं। आपके बेहतर कामों के लिए जो भी प्रशंसा मिलती है उससे कहीं ज़्यादा असर छोड़ती है जब आपसे जो नहीं हो सका उसका ठीकरा आपके सिर पर फोड़ा जाता है। तुर्रा यह कि तमाम असफलताओं और प्रोजेक्ट के फेल होने का जिम्मा आपको थमा दिया जाता है। और इस तरह से प्रमोट होने, नई जिम्मेदारियों का हासिल करने से पहले दरकिनार कर दिए जाते हैं।
बोर्ड रूम की चर्चाएं यदि बोर्ड रूम तक ही सीमित रह पाएं तो बेहतर होता है-कंपनी और व्यक्ति दोनों के ही लिए। लेकिन मानवीय स्वभाव है कि हम अपनी सीमाओं, कार्यक्षेत्र में दिलचस्पी रखने की बजाए दूसरे के साथ क्या हुआ? क्यों हुआ? अब क्या करेगा आदि में उलझ पुलझ कर अपने महत्वपूर्ण और ज़रूरी कामों से दूर होते चले जाते हैं। दूसरी स्थिति यह भी होती है कि यदि हम कुशल मैनेजर नहीं हैं तो बोर्ड में कही गई बातों और चर्चाओं को घर और शयन कक्ष तक लेकर चले जाते हैं। यह फांक हमें समझने की आवश्यकता है कि जब हम बोर्ड रूम और बेड रूम के बीच के अंतर को नहीं समझेंगे तो घर बोर्ड रूम से बाहर आने के बाद भी उन्हीं झंझावातों में उलझते चले जाते हैं। बेड रूम में रात रात भर सो नहीं पाते। पत्नी और बच्चों को इसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ता है। बच्चे और पत्नी तो बाद में आती हैं पहले तो हमारा स्वास्थ्य इस चपेट में आता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। भूख नहीं लगती और नींद तो कब की दूर छटक जाती है। मैनेजर को जो बोलना था एवं नसीहतें देनी थीं वो तो देकर फारिक हो गया। वह तो उसका रोज का काम है। आज आपको सुनाना था। आपको बोतल में उतारना था। कल किसी और प्रोजेक्ट में किसी की बारी आएगी। वह तो अपने टू डूज में से आपको सुनाने के बाद आपका नाम काट देता है। लेकिन हम घर जाने के बाद भी उसकी फटकारों और तीखी, चुभन वाली बातों को याद कर के अपने सेहद को ख़राब कर रहे होते हैं। इसका असर हमारे कामों पर भी पड़ता है। अगले दिन या तो आप छुट्टी ले लेते हैं। या फिर अपने को समेटने में सक्षम हो सके तो आफिस आ जाते हैं। आप दफ्तर में होते हैं लेकिन आपकी दक्षता, क्षमता, उत्साह और उम्मीद कहीं पीछे छूट जाती है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...