यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Tuesday, January 27, 2009
Monday, January 26, 2009
मंदी की गाज मीडिया के माथे
मंदी की गाज मीडिया के माथे
दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। मंदी की वजह से दूसरी तिमाही के खराब नतीजों के बाद कंपनी ने यह ऐलान किया है। दूसरी तिमाही में कंपनी के प्रॉफिट में 11 परसेंट की कमी दर्ज की गई है। कंपनी के सीईओ स्टीव वामर ने कहा है - ' हम फिलहाल ऐसी हालत में हैं जो विरले ही आती है। कैश की कमी की वजह से बिजनेस इंडस्ट्री और कंज्यूमर्स अपने खर्च कम कर रहे हैं। ऐसे में नए कंप्यूटर्स की बिक्री कम हो रही है। '
चौथे खम्भे में लगा मंदी का दीमक
दरसल मंदी का इस्तमाल कैची के रूप में किया जा रहा है। शिकार तो छोटे पत्रकार को होना पड़ रहा है। उचे पड़ पर बैठे लोग तो दुरुस्त हैं। यैसे में इंडिया के कुछ गिने हुए मीडिया हाउस लोगों को निकालने के बजाये बड़े पदों पर बैठे अधिकारीयों के तनख्वा में से कटोती कर रहे है।
Sunday, January 25, 2009
मंदी का रोना हुवा पुराना
जिसमे आप थोडी देर के लिए अपना सब कुछ भूल जायें,
वो क्या हो सकता है?
कुछ पुराने पल ,
दोस्तों के साथ चाँद देखना,
सुंदर लड़की को देख कर....
पर मन को बहलाना जरुरी है,
क्या है की आप खुदी से निराश हो गए तो,
किसे क्या फर्क पड़ने वाला,
कोण आप के गम में साझा होगा,
ख़ुद ही आसू पोछने होंगे,
गिर कर धुल झाड़ कर फिर से भागना होगा,
ताकि खुले मुह को बंद कर सकें।
इसके लिए आपको हौसला बना के रखना होगा।
गणतंत्र मंदी और आम आदमी की नौकरी
- अपनी नौकरी पर लटकती तलवार
- घर_बाहर सवाल पूछतीं नज़रें क्या मिया क्या इनदिनों घर में बैठक कर रहे हो
- बीवी भी चेहरा देख कर बार बार आखों में सपने लिए टुकुर टुकुर देखती है क्या होगा अब
- दोस्तों की बैटन में वो गर्माहट खो गई
- दफ्तर में फ़ोन करो तो बहानो की जड़ी मिलती है
- उस पर तीन दिन की छुट्टी उफ़ क्या निठल्ला समय भी भरी पड़ता है
- और भी सवाल है इस गणतंत्र पर सर उठा रहे हैं
- आतंक, बेरोजगार होते कम्पनी के लोग, बिटिया के सवाल आदि आदि
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि ये भी...
इन दिनों अखबार और न्यूज़ चैनल में जम कर मंदी को लेकर लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। मगर आपने किसे चैनल या अखबार में इस बाबत ख़बर नही पढ़ी होगी। क्यों सोचा है आने वाले दिनों में और कितने लोग रोड पर होंगे यैसे पत्रकार जो आप को हर पल की ख़बर दिया करते थे वो भी हर कीमत पर। लेकिन उनकी हर पल खबरे कहीं नज़र नही आती।
क्या पत्रकारिता का यह कला फिलहाल संकट के दौर गुजर रहा है?
Thursday, January 22, 2009
जिनके जॉब चले गए
बेचारे इसी डर से आप से खुल करबोल तक नही पते। कहना तो वो भी चाहते हैं मगर डर अनदेर निकल दिए जाने का सताता है। इन दिनों बड़े मीडिया हाउस से लोगो को बहिर का रास्ता दिकाया जा रहा है। यैसे में कोण कोई भी हो हर किसे के सर पर मंदी की तलवार लटक रही है।
कोई भी बेरोजगार नही होना चाहता पर साहिब मंदी की लाठी खूब भांजी जा रहीहै।
दीखते हैं कितने लोग इस आंधी में बर्बाद होते हैं।
Tuesday, January 20, 2009
साजिश में शामिल हूँ
यूँ तो साजिश रचना,
किसी के खिलाफ कहीं स्वीकार नही,
लेकिन मैं शामिल हूँ साजिश में उनके खिलाफ,
जो ज़हर उगल रहे हैं धर्म , कॉम के नाम पर।
हाँ मैं स्वीकार करता हूँ_
मैं षडयंत्र रच रहा हूँ,
उनके बिरुद्ध,
जो हर पल लगे हैं देश , समाज को....
Saturday, January 17, 2009
संभावना आश जगती है
आप उसे इक नै रचना करने और ज़िन्दगी से लड़ने की शक्ति देती है। इन दिनों हर सेक्टर में चटनी हो रही है।
नौकरी पर यमराज का शय है। सारे डरे और सम्हे हुए। कब किस की नौकरी चली जाए कहा नही जा सकता। मगर इन्ही हालत में हमें अपनी उर्जा और हिम्मत को बना कर रखन है।
वरना बिखरने से कोई रोक नही सकता। वैसे देखा जाए तो मंदी को औजार के रूप में इस्तमाल किया जा रह है। कम्पनी अपनी बैलेंस शीत में घटा दिखा कर एम्प्ली को हटा रहे हैं। कहा जाता है की समय ठीक होते ही पुराने लोगोको बुला लिया जाएगा। बहरहाल यह मंदी कितने लोगो का नेवला चिनेगी।
किते घरों में मातमी छायेगी पता नही ज़ार जार रोते लोगो को अभी लंबा समाये इन्ही हालत में काटन होगा।
बाज़ार के पंडितों का मानना है की यह दवार अभी दिसम्बर तक रह सकते हैं।
Wednesday, January 14, 2009
क्या आप जानते हैं
कभी सोचा है कैसा लगता होगा?
खैर रहने देन इन बैटन को अब कोई मतलब नही। जब साथ थे तो साडी बार\तें हुआ करती थी, अब तो साहिब दिख्वे की रह गई हैं।
चलिए साहिब आप भी खुश की इक हमारे साथ से गया।
मगर ज़रा सोचे की आप पर जब बात आएगी तब भी इसी तरहं सोचा करेंगे शयद न।
Sunday, January 4, 2009
क्या सड़क लाल दिखती है
सड़कें कहीं नही जाती जाते हैं हम सजीव लोग। मगर रस्ते में बिना देखे की कौन कुचल जाए। सड़क अगर बोलती तो कहती की भाई जावो जहाँ जेआना है। मगर घर जावो। बिटिया राह तक रही है। बीवी की आस में तंगी आखें आपको जोह रही हैं।
Friday, January 2, 2009
साल की सुबह
साल का अमूमन दिन सृजन में बीते।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...