Sunday, September 30, 2018

संघर्ष से पूरे होते सपनों की कहानी सूई धागा





कौशलेंद्र प्रपन्न

कोई लंबे समय तक अपनी पुश्तैनी काम को नकार नहीं सकता। लेकिन आज दौर ही ऐसा आ चुका है कि हम अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़कर बाजार में उतर चुके हैं। बेशक हमें अपनी अस्मिता को गिरवी रखकर हजार पांच हजार मिले शायद हम उसी में खुश हो जाते हैंं। लेकिन हम यानी एकल नहीं होते। बल्कि हम में मां-बाप, पत्नी, बच्चे भी होते हैं। हम अकेले तो कुत्ता बन सकते हैं। अपने बॉस या मालिक की चिरौरी कर सकते हैं। लेकिन घर वालों को यह नागवार गुजर सकता है। यही हुआ है सूई धागा फिल्म में। पति को कुत्ता बनना। मसखरे कर मालिक को दिखाना आदि उस एक व्यक्ति के लिए कोई खास मायने नहीं रखा लेकिन पत्नी और मां-बाप को यह नापसंद रहा। पत्नी से जतला भी दिया। यह एक टर्निंग प्वांइंट है। जहां एक बेइज्जत को सहने को पीछे छोड़ अपनी दुकान लगाने य कह लें सड़क पर सिलाई कटाई करने को ठानना कोई आसान निर्णन नहीं था।

दूसरी टर्निंग प्वांइंट तब आता है जब एक साधारण से व्यक्ति के आइडिया एवं कौशल का नाजायज फायदा उठाया जाता है। एक बड़ी कंपनी एवं कंपनी के घाघ लोग कमतर साबित कर दूसरे के कर्म को नकार कर सड़क पर ला देते हैं। किन्तु सपने देखना और पूरे होने के बीच एक लंबी लड़ाई है जिसे इस फिल्म में मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की गई है।

एक साधारण व्यक्ति और समष्टि के संघर्ष को बड़े मंच और प्लेटफॉम पर पहचान मिली और सम्मान भी। सो एक बार को लगता है कि महज हार मान कर बैठ जाना हमें हमारे सपनां से दूर तो ले जा सकता है लेकिन खत्म नहीं कर सकता।

अंतोत्गत्वा जीत संघर्ष की होती है। सपने भी पूरे होते हैं। रास्ते के रोड़े यूं ही बीच राह में पड़े रह जाते हैं। हम चलने वाले आगे निकल जाया करते हैं।

Friday, September 28, 2018

केयर टेकर रखिए, सब ख्ुश रहेंगे


कौशलेंद्र प्रपन्न
संयुक्त परिवार होने ही चाहिए उसके एक तर्क में यह भी शामिल कर लें कि जब घर में कोई पेट से होता था तो पूरा घर उसकी मदद के लिए हाज़िर होता था। क्या छोटे बच्चे और क्या बड़े सभी का सहयोग उस औरत को मिला करता था। एकल परिवार के सामने आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि कहने वाले तो कह कह कर बेटे बहु को तंग ओ तंग कर देंगे। इधर बहु घर में प्रवेश की नहीं कि ममिया सास, फुफुसास, ददिया सास, खुद की सास आदि सब कहने लगते हैं बस इसी दिन के लिए ज़िंदा हैं। बस एक पोता दे दे। देरी मत करना। सुनते हैं कि आज के बच्चे बच्चे करने में देर किया करते हैं। एक ओर हमें देखो! छह छह बच्चे पाल पोस कर बड़ा कर दिए और आज की छोरियां ने एक बच्चा भी पालना दुभर है। कहने वाले खूब कहेंगे। कई सारे वास्ते देंगे। और यही से शुरू होती है एक ऐसी कहानी जिसका सिरा पकड़कर आगे बढ़ें तो पूरी कहानी समझते देर नहीं लगेगी। आपने बच्चा करने की प्लानिंग नहीं की तो भी कहने वाले घर-दफ्तर, राह चलते भी मिल जाएंगे। कहेंगे अब प्लांन कर लो देरी हो रही है। कमाल की बात है कि किस बात की देरी साहब! क्या हमारे एक बच्चे के न आने से देश की अर्थ व्यवस्था ठहर तो नहीं गई। कहीं उस एक बच्चे की बजह से कोई युद्ध अनिर्णय का शिकार तो नहीं हो गया? ऐसा कुछ भी नहीं है। आप भी बच्चा कर लें। आप भी घर के चक्कर में उलझे रहें। न दिन सोएं न रात में चैन ले पाएं। यही तो दुनिया उनकी है जिनके पास करने को दूध, पोतड़े धोना, स्कूली की तलाश में दफ्तर से जल्दी आना या छुट्टियां करना आदि। इन्हीं उलझनों में ढिलमिलाते लोगों को यह ज़रा भी गवारा नहीं की फलां इतना छुट्टा कैसे है? कैसे वह साल में दो बार घूमने चला जाता है। इन्हीं आजादियों को खत्म करने की पीड़ा उन्हें सताती हैं जो कहा करते हैं अब तो कर लो। कर भी लो। उनकी बात नहीं मानेंगे तो कहा करेंगे- हम तो तुम्हारी ही भलाई की बात कर रहे हैं। लेकिन सुनता कौन है। बुढ़ापे का सहारा तो कोई होना ही चाहिए। मन में आता है कि पूछ बैठें कि फलां चाचा के तो छह छह बच्चे हैं। तीन बेटे और तीन बेटियां। दूर न जाईए, मामी को ही देख लें उनके भी तो पांच बच्चे हुए। आज मामा मामी अकेले ही घर में खाना बनाते, बाथरूम में कभी भी गिरती मामी हैं। बच्चे फोन पर पूछ लिया करते हैं देख कर रहा करो। अंधेरे में न निकला करो। दाई रख लो। खाना बनाने वाली रख देता हूं। आदि। उन्हीं बुढ़ापे के सहारे की तो आप बात नहीं कर रहे हैं। तर्कों को क्या है जितने मुंह उतने तर्क। क्यों बच्चा करना ही चाहिए।
जब संयुक्त परिवार टूटा तो दादी, चाची, चाचा, दादा भी तो पीछे छूट गए। बहुरिया पेट से है तो ख्ुद ही संभलती है, गिरती पड़ती आफिस जाती है। देर तक काम करने के बाद भी पति का पेट भरती है। खाना बनाती है। सब कुछ किया करती है। लेकिन कितनी मुश्किलें उठाती है इसका अनुमान शायद आप न लगा पाएं। क्योंकि आप तो सीधे कह बैठेंगे कामवाली क्यों नहीं रख लेते। ठीक ठाक कमाते हो। पैसे की क्या कमी है। अब उन्हें क्या मालूम कि पैसे कितने कमाते हैं और कितने खर्चें हैं। ऐसे रायबहादुरों की बातों में आ गए तो समझें आप तनाव में आएंगे ही। लेकिन वे राय देने में पीछे नहीं हटते। पिछले ही दिनों तो उन्होंने बताया था कि फलां के घर बच्चा हुआ तो जापे वाली रखी गई। अब आप मायने पूछेंगे? ऐसी औरत जो दो माह तक जच्चा बच्चा का ख़याल रखा करती है। घर का कोई और काम नहीं करती। बस और बस मां और बच्चे की सेवा करती है। दो माह बाद उसकी भूमिका बदल जाती है। घर बदल जाता है और बदलता है बच्चा और मां।
आज क्या दिल्ली और क्या बंबे हर महानगर में जापा वाली उपलब्ध हैं। न मां की चिरौरी, न सास का इंतज़ार। न भाई-भौजाई मुंह फुलाएंगे और न बहने कटने लगेंगी। जब आप जापा और घर में काम वाली पूरे दिनभर के लिए रख लेंगे। उनकी चिंता भी जायज है कि क्या हमें दफ्तर से छुट्टी लेकर अस्पताल में रूकना होगा? क्या में घर सेवा टहल करना होगा आदि। इन्हीं चिंताओं में उनके फोन आने बंद हो गए। कहीं रात बिरात बुलावा न आ जाएं। यदि उन फोनों को सुनना चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं आपसी रिश्ते बने रहें तो रख लीजिए जापे वाली और बता दीजिए सब को डरने की कोई बात नहीं। आईए और मौज कीजिए। मन भर जाए तो घर जाईए।
जापा कहें या दाई कहें, चाइर्ल्ड केयर टेकर कहें नाम पर मत जाईए। नाम में कुछ भी नहीं रखा। बल्कि काम ख़ास है। एक धनी व्यक्ति पाचस से लेकर लाख रुपए में ऐसी दाई व केयर टेकर रखते हैं जो दिन रात जब तक चाहें वह पूरे मनोयोग से बच्चे का ख़याल रखेंगी। आपके साथ विदेश से लेकर देश भ्रमण भी करेगी। नाते-रिश्तेदारों के यहां भी आपके साथ ही डोला करेंगी। गोया आपकी और आपके बच्चे की वही सच्ची रिश्तेदार है। अब देखें करीना कपूर के बच्चे का देखभाल जो स्त्री करती है उसकी माह की सैलरी डेढ लाख से ज़्यादा है। कभी कभी पौने दो लाख भी हो जाता है। परेशान न हों। जिसकी जितनी जे़ेब उसकी वैसी केयर टेकर। पूरे दिन और पूरी रात रहने वाली बच्चियां या औरतें भी मिला करती हैंं जो आपको चैन की नींद मुहैया करा सकती हैं। जेब ढीली करनी पड़ेगी। शायद बीस से तीस हज़ार माह का खर्च कर सकते हैं तो किसी भी नाते-रिश्तेदारों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। वैसे भी किसके पास वक़्त है जो तदन चार दिन आपके घर सेवा टहल या देख भाल करे। आप कौन या किसी के घर रूककर उसकी मदद करने जाते हैं। कहने वाले कह देंगे वो कौन या आए थे?

Thursday, September 27, 2018

कभी कभी यूं ही चुप बैठना


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम कितना बोलते हैं। जितना बोलते हैं उस अनुपात में सुनते कम हैं। कई बार इतने बोलते हैं कि सुनने के सुख से वंचित रह जाते हैं। जो जितना ज्यादा बोलता है वह उतना ही सुनने की कला में कमजोर माना जाता है। कभी ख्ुद को अकेले में सुनने की कोशिश कीजिए हम तब अंदर की आवाज सुन पाते हैं। हालांकि सुनने के लिए खाली भी होना पड़ता है। खाली यानी पूरी तरह से बाहरी प्रभावों से अलग। किन्तु वही तो नहीं हो पाता। हम सुनने की बजाए सुनाने पर ज्यादा वक्त दिया करते हैं।
कभी किसी नदी के करीब या फिर किसी छोटी सी पुलिया पर बैठ कर शाम गुजारने का अपना ही अलग आनंद है। हालांकि अब न छोटी पुलिया रही और न महानगर में नदी। दोनों के ही स्वरूप बदल चकी हैं। नदी नाले में तब्दील हो चुकी है और पुलिया बड़े बड़े फ्लाईओवर में। जिसपर हजारों हजार गाड़ियां लगातार दिन रात गुजरा करती हैं। जिनके पास से पगडं़डी भी गायब हो चुकी हैं।
नदी के किनारे बैठ कर बस चुपचाप धार को देखना और धार के प्रवाह को महसूसना एक अलग किस्म का अनुभव है। कई बार लगता है क्या सुखद एहसास है बस मौन बिना कुछ बोले नदी को सुनना और देखना। जो हमसे पहले थी और शायद हमारे जाने के बाद भी वहीं रहा करेगी।

Tuesday, September 25, 2018

कहानी कहिए ज़नाब, सुनते हैं हम



कहने सुनने को क्या कुछ नहीं है। किसके पास सुनने को कहानी नहीं है! सब के पास एक से बढ़कर एक कहानी है। जॉब से सबंधित। लाइफ से जुड़ी हुई। सोशल मीडिया के दर्द। और न जाने कितनी कहानियां से भरे हुए हैं हम सब। बस एक बार छेड़ कर तो देखिए। बलबला कर कहानियां बहने लगती हैं। याने कहानी जिं़दगी ही कहानियों से बनी है। एक के बाद कहानियां हमारी लाइफ में बनती और प्रसारित होती हैं। कहने वाले कहते हैंं यदि आपके पास कहन है। आपको मालूम है कि कैसे अपनी बात दूसरे को सुननी है, तो हर कोई सुनता है। सुनेगा कैसे नहीं। सुनाने वाला चाहिए। एक ऐसा स्टोरी टेलर जो अपनी बात कहने और सुनने में दक्ष हो। आज की तारीख़ में सुनने वालों की ज़रा सी भी कमी नहीं है। बस यदि आपके पास सुनने का कौशल है तो सुनने वाले तो तैयार बैठे हैं। सोशल मीडिया के बरक्स यदि हम कोई और विकल्प श्रोताओं को मुहैया करा सकें तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता।
हम सोशल मीडिया या फिर अन्य माध्यमों के मार्फत अपनी या फिर दूसरों की कहानियों का आनंद ही तो लिया या दिया करते हैं। कौन कहां गया? क्या खाया? कहां घूम रहा है आदि की जानकारियां लिया और दिया करते हैं। कई बार खुश होते हैं आपनी निजी पलों को और के संग बांटकर तो कई बार जानकर कि कौन क्या कर रहा है? किसकी जिंदगी में अब नए मेहमानों का आगमन हो चुका है आदि। दरअसल मनुष्य एक ऐसा ही जीव है तो खाली नहीं बैठ सकता। या तो अपने अतीत की कहानियां सुनाया करता है या फिर सुनने में दिलचस्पी रखा करता है।
आप कितनी कुशलता के साथ अपनी या औरों की कहानी सुना सकते हैं यह मायने रखता है। इन दिनों कॉर्पोरेट सेक्टर में कहानी सुनाने और कहने वालों की काफी मांग है। ऐसे स्टोरी टेलर जो छोटी छोटी घटनाओं और रेज़मर्रें की जिं़दगी से जुड़ी घटनाओं के तार को जोड़कर मैनेजमेंट के औज़ारों से रू ब रू कराया करते हैं। एक मैनेजर कैसे अपनी टीम के साथ बरताव करे, कैसे प्रोजेक्ट को सफल बनाए आदि सैद्धांतिक चीजों को स्टोरी के ज़रिए साझा किया करते हैं। एक एक सेशन के चार्ज कम से कम दस हज़ार हुआ करती हैं। उनमें क्या ख़ास बात है? यदि कुछ ख़ास है तो क्या हम स्टोरी टेलिंग के कौशल नहीं सीख सकते? एक सवाल यह भी है इन कहानियों में होता क्या है? कहानियों में हमारा जीवन दर्शन और लाइफ के उतर-चढ़ ही तो दर्ज हुआ करती हैं। फलां के जीवन में ऐसा हुआ तो उसने कैसी कैसी तरकीबें अपनाई और उस स्थिति से बाहर हो गया। हमें उन कहानियों कई बार रास्ते और उम्मींद की रोशनी मिला करती है।
दरअसल हम कहानियों से ज़्यादा समझा करते हैं बजाय कि सिद्धांत के। सिद्धांततः तो बहुत सी चीजें सुना और दूसरे कान से निकाल दिया करते हैं। लेकिन जब दादी नानी या दोस्त कहानियां सुनाया करते हैं तब हमारी दिलचस्पी बढ़ जाती है। क्योंकि यहां पर कहन पर काफी कुछ निर्भर करता है कि कौन किस स्तर का और कितनी दिलचस्पी लेकर आपबीती या दूसरों पर गुजरी बातें बता रहा है। गली मुहल्ले में ऐसी औरतें या पुरूष हुआ करते हैं जिनके पास कहने का कौशल होता है और दिन भर इधर उधर की कहानियां सुनाया करते हैं। लेकिन हमें यहां एक अंतर या रेखा खींचकर ही समझना होगा कि कहानी कहने और निंदारस लेने व देनें में बुनियादी अंतर हुआ करता है। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया कि कॉर्पोरेट सेक्टर में कहानी के ज़रिए बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी घटनाओं और बातों को लोगों तक पहुंचाई जाती हैं। मैनेजमेंट की क्लासेज में भी केस स्टडी मुहैया कराई जाती हैं। बताया जाता है कि फलां कंपनी में फलां कर्मचारी काम करते हैं। वहां पर लोग छुट्टियां ज्यादा करते हैं। ऐसे में एक मैनेजर के तौर पर आप उसे कैसे हैंडल करेंगे। दूसरा उदाहरण यह भी हो सकता है कि फलां कंपनी पिछले दो तीन सालों से घाटे में जा रही थी। प्रोडक्शन समय पर नहीं हो रहा था। लेकिन जब नए मैनेजर व लीडर को नियुक्त किया गया तो उन्होंने कंपनी को छह माह में ही कमियों से निकाल कर सारी चीजें समय पर और लक्ष्य के अनुसार चलाने में सक्षम हो सके। इस प्रकार कह कहानी जिसे हम केस स्टडी का नाम दे सकते हैं। मैनेजमेंट के नए नए छात्र इन्हें पढ़ा करते हैं। और देखा करते हैं कि कैसे व्यवहार में सिद्धांत को उतारा जाए।
सिद्धांतों को व्यवहार में कैसे ढाला जाया व कैसे एक सफल लीडर ने सिद्धांतों को व्यवहार में लाकर कंपनी व संस्था को नई ऊंचाई तक ले जाने में सफल हुआ उनकी कहानी सुन और पढ़कर हम जल्द सीखा करते हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि हमारी सोशलाइजेशन कई बार सिद्धांतों और व्याकरणों से ही हुई हैं। उसमें स्कूल, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें काफी हद तक एक रूढ़ परंपरा को ही पोषित करती हैं। जबकि मैनेजमेंट में हर चीज को टेस्ट कर और व्यवहार में कैसे इस्तमाल कर सत्यापित किया जाए आदि चीजें होती हैं। शायद इसलिए भी एक सफल लीडर व मैंनेजर की वज़ह से कंपनी व संस्था नई नई ऊंचाइयां हासिल किया करती हैं। हमें समझना यह है कि नए लीडर में यदि दृष्टि और विज़न को पूरा करने की रणनीति- निर्माण से लेकर एक्जीक्यूट करने की क्षमता एवं कौशल है तो यह किसी भी प्रोजेक्ट को विकास के राह पर दौड़ा सकता है। यह एक कहानी है। इस कहानी को कंपनियां अपने अन्य कर्मचारियों के बीच साझा किया करते हैं। यही कहानी जब एक प्रोफेशनल स्टोरी टेलर उठाता है तो उसके साथ उसका बरताव बिल्कुल अगल होता है। यहां जब हम स्टोरी व कहानी की बात कर रहे हैं तो वह एक अकादमिक कथाकार, उपन्यासकार की कहानी की एक ज़रा हट कर कहानी की बात हो रही है। ऐसी कहानी तो कई बार कथाकार की नजर से भी फिसल जाती हैं। ऐसी कहानियों को हम केस स्टडी भी कह सकते हैं।



Friday, September 21, 2018

सफाई करते मरना.... वो भी विकास के महानगर में



कौशलेंद्र प्रपन्न
वेद के मंत्रों में वर्णव्यवस्था के बारे में एक मंत्र में ‘‘ब्राह्मणस्य मुखमआश्रित, बाहु राजन्यकृत। उरूतदस्य यद वैश्वयः तद्भ्याम शुद्रो अजायत।।’’ इस में कहां  गया है कि समाज में चार वर्ण हैं जो अपने अपने कर्मों व भाग्य की वजह से विभक्त हैं। ब्राह्म्ण सिर के समान। बाजू के समान क्षत्रिय, वैश्विय उदर के समान और पांव के समान शुद्र। हालांकि इस मंख् की भी काफी आलोचनाएं हुईं। साथ ही मनु के सिद्धांतों को भी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। जो भी हो गांधी जी की नजर में जो समाज के नीचले पायदान पर हैं उन्हें भी समाज में विकास के साथ दौड़ने और कदम से कदम मिला कर चलने का अधिकार है।
हाल में दिल्ली में मेन हॉल में उतरे एक सफाई कर्मचारी की मौत हो गई। इस तरह से दिल्ली में पिछले एक सप्ताह में छह मौतें हो चुकी हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल ऐसे सफाई कर्मचारियों की मौतें तकरीबन 300 थीं। जो नाले, मेन हॉल में उतरने के बाद मौत के शिकार हुए। वजहें बताते हैं कि दम घुटने, पर्याप्त जीवन रक्षक संसाधन की कमी से कर्मचारी को अपनी जान गंवानी पड़ी।
रमन मैग्सासे सम्मान से सम्मानित बिजवॉड विल्सन से मिलने और इस मसले पर चर्चा करने का अवसर मिला। इनसे बातचीत में कई बातें स्पष्ट हुईं कि भारत में तकनीक के प्रयोग से काफी हद तक मौतों को रोका जा सकता है। पहली बात तो यही कि मानवीय स्तर पर मेन हॉल में उतरने और सफाई से बचा जा सकता है। आज तकनीक का समय है और हमें यदि ज़रूरी ही हो तो नए नए तकनीक का प्रयोग कर सकते हैं।

Thursday, September 20, 2018

मन आहत हो तो क्या कीजै



कौशलेंद्र प्रपन्न
मन न हुआ गोया खिलौना हो गया। जब मन भर जाए तो तोड़ दीजिए। फोड़ दीजिए। नया खिलौना लेकर आएंगे। आजकल हमारा दिल और दिमाग हमारे हाथ में नहीं है। बल्कि हमारा मन कहीं और किसी और से संचालित होता है। एक कहानी बचपन में सुनी थी। वह कहानी कुछ यूं है- एक राजकुमारी थी। बहुत सुंदर। लेकिन उसकी आत्मा दूर जंगल में किसी पेड़ पर रहने वाले सुग्गा में बसा करता था। उधर सुग्गा के पांव मरोड़ो तो इधर राजकुमारी के पांव में ऐठन महसूस होती थी। कहानी भी दिलचस्प है। वह राजकुमारी कैसे जिं़दा थी। उसकी आत्मा बाहर रहा करती थी।
आजकल हमारा मन और आत्मा हमारे पास नहीं रहा करता। उस राजकुमारी के तर्ज़ पर हमारी आत्मा और आत्म विश्वास, हमारी प्रतिष्ठा और नाक दूसरों के हाथों में हुआ करती हैं। वह कोई और नहीं बल्कि सोशल मीडिया है। इस सोशल मीडिया में हमारी आत्मा और आत्म सम्मान बसा करता है। उधर सोशल मीडिया पर किसी ने आपको ब्लॉक किया नहीं, कुछ ग़लत कमेंट किया नहीं, या इग्नोर किया नहीं कि इधर हमारे पेट में दर्द उठने लगता है। रातों की नींद उड़ जाती है। कैसा है न यह सोशल मीडिया भी।
हमारे ही बस में हमारा मन न रहा। कोई दूर बैठा हमारे मन को संचालित किया करता है। हमारी आत्मा और प्रतिष्ठा को तय किया करता है। हम कब कैसे और कहां आहत हो जाएं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। आज की तारीख़ में जो भी सोशल मीडिया में सक्रिय हैं उनसे कभी अकेले में पूछ लें, कैसे हैं? क्या चल रहा है? इसका जवाब आपको ठगा सा कर देगा। कहेंगे, आप फेसबुक पर नहीं हैं? देखा नहीं मेरे पोस्ट पर कितने कमेंट आए। मैंने फलां फलां को ब्लॉक कर दिया। बड़े नवाब बना करते थे। आपक वाट्सएप पर तो होंगे? होंगे न? मैं आपका अपनी ताजा कविता भेजता हूं। पढ़िएगा ज़रूर। इसपर फल्नीं ने क्या खूब कमेंट किया है। इसे मैंने वहां वहां जहां तहां हर जगह गाया और पाठ किया है। आप भी सोचेंगे क्या पूछा बैठा।
गोया कई बार लगता है कि हमारी जिंदगी इस सोशल मीडिया ने कैसे गडपनारायण कर लिया। हाल समाचार पूछो तो इनके पास कमेंट और लाइक के अलावा और कुछ कहने को बचा नहीं। जब हम सोशल मीडिया पर इतने सक्रिय होंगे तो सच में समाज के संवाद की परंपरा में पिछड़ते ही जाएंगे। कभी भी कहीं भी जाएं सबके हाथ में एक टूनटूना होता है। उसे ही बैठकर, सो कर, चलते हुए बजाते रहते हैं। कुछ भी न आया हो लेकिन मजाल है आप उसे टटोलने से बच जाएं। कभी कभी तो ऐसा भी महसूस होता है कि हम जितनी दफा अपनी सांसों को महसूस नहीं करते उससे कहीं ज़्यादा एफबी और अन्य सोशल मीडिया के कान में अंगुली किया करते हैं। गोया वहीं से हमें सांसें मिला करती हैं। शायद वह खिड़की हैं जहां से ताज़ी हवाएं आया करती हैं। कभी इस झरोखों से बाहर भी झांक आईए जनाब जहां और भी हैं। वहां आपको सच्चे मित्र मिला करेंगे।

Wednesday, September 19, 2018

प्रतिउत्तर न मिलने की उदासी


कौशलेंद्र प्रपन्न
अब हमें फर्क नहीं पड़ता कि कौन हमसे बात करता है या नहीं करता। हमें इस बात की भी ज़्यादा चिंता नहीं होती कि कौन हमारे घर आना-जाना छोड़ चुका है। हमें तो इसकी भी ख़बर नहीं रहती कि हमारे दोस्त, नाते रिश्तेदार कब से हमारे घर नहीं आए। हमें चिंता इस बात की ज़्यादा होती है कि कौन हमारे फेसबुक पर, ट्वीट्र पर लाइक किया कि नहीं। किसने रिट्वीट किया। किसने फेसबुक पर कमेंट किया और किसने इनोर किया। हम सोशल मीडिया के मूड से गवर्न होने लगे हैं। हम यह नहीं कहते कि हवाओं के रूख़ के संग न बहा जाए। बहना ही जीना है। और जीना ही बहना है। जो रूक गया। जो ठहर गया समझो मर गया।
हमें इसकी चिंता रोज सताती है कि किसने मुझे मेरे पोस्ट पर कमेंट किया और किसने नहीं। हमने तो उसके पोस्ट और फोटो पर खूब सारी बातें लिखी थीं। लिखी थीं कि क्या खूब लग रहे हो। कहां हो आजकल। आदि आदि।
हमें चिंता इस बात की होती है कि और रात भर नींद नहीं आती। गाहे बगाहे नींद खुल जाए तो फेसबुक के पेट में हाथ डाल कर टटोलना नहीं भूलते कि कल रात जो पोस्ट की थी उसे देखने, पसंद करने और कमेंट करने वाले कौन कौन है और कितने हैं?
हमारी आज की मनःस्थिति काफीहद तक इन्हीं सोशल मीडिया के रूख़ से तय हुआ करते हैं। जबकि जानते सभी हैं कि पोलिट्कली करेट रहने के लिए कई बार न चाहते हुए भी हम लाइक कर के आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन यह नहीं जानते कि जिसने लाइक नहीं की वह भी कहीं न कहीं आपका उतना ही पसंद करता है जितना लाइक करने वाला। बेशक उसने आपको वहां पर कमेंट न दिया हो। लेकिन आपकी सराहना हमेशा ही किया करता है।
फर्ज कीजिए आपने किसी को कोई मैसेज भेजे। वह माध्यम कोई भी हो सकता है। आज की तारीख़ में वाट्सएप है जो ज़्यादा ही चलन में है। इसने मैसेज की परंपरा को पीछे छोड़ दिया। शायद फीचर एक बड़ा कारण है। इसमें क्या नहीं भेज सकते? संदेश तो छोटी सी सेवा है। चित्र, आवाज़ और न जाने क्या क्या। यहीं पर पुरानी मैसेज की चौहद्दी शुरू होती है। बहरहाल आपने किसी को संदेश भेजा। आपको मालूम है कि पाने वाला किसी भी संदेश को अनदेखा नहीं करता। बल्कि सरका बेशक दे लेकिन देखता ज़रूर है। वह जब आपके संदेश की प्रतिक्रिया या प्रतिउत्तर न दे तब कैसा महसूस होता है? यदि ज़रा सा भी संवेदनशील हैं तो अपने आप को ठगा सा महसूस करते हैं। अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं। यहीं से संदेश भेजने वाले से हमारी एक रागात्मक उम्मीद बंध जाती है जो टूटती सी नज़र आती है। आप दो ही स्थितियों से गुजरते हैं। पहला, या तो बेशर्म होकर लगातार बिना उम्मीद किए संदेश भेजते रहते हैं और वह पाने वाला भी लगातार आपने संदेश को पीछे सरकाता रहता है। कई बार वह आपके लंबे संजीदे संदेश को अत्यंत लघु कर हम्म्मम!!!! में जवाब दे डालता है। आप उस स्थिति में कैसा महसूस करते हैं? मन तो यही करता होगा कि अब से कोई संवाद नहीं करूंगा। ख़ुद से वायदे भी करते होंगे कि अब से संदेश नहीं भेजूंगा। लेकिन फिर अगली सुबह अपने आप को रोक नहीं पाते और संदेश सरका देते हैं। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि आपने ठान ली कि अब उस व्यक्ति को संदेश ही नहीं भेजेंगे। और काफी हद तक आप उसपर अमल भी करते हैं। लेकिन पाने वाले पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। पता नहीं हालांकि एक एकल अनुमान भी हो सकता है। लेकिन अमूमन यही होता है। जिसे आप इतनी शिद्दत से संदेश भेजा करते हैं उसकी नज़र में कोई ख़ास अहम नहीं रहा हो।
बुद्ध ने ठीक ही कहा था- दुख का कारण उम्मीद और अपेक्षा ही है। जब हम किसी और से उम्मीद करते हैं और यह किसी कारण से पूरा नहीं होता तब हम दुखी हो जाते हैं। हमारा मन और दिल दुखता है। लेकिन शायद मनुष्य की यही प्रकृति है वह उम्मीद बहुत जल्द पाल लेता है। और दुखी उसी क्रम में होता रहता है। जबकि यह किसे नहीं मालूम कि एरिया ऑर कंसर्न और एरिया ऑफ इन्फ्यूलेंस दो ऐसी चीजें हैं जिससे हमारा व्यवहार और मनोदशा भी तय हुआ करती हैं। जो हमारे हाथ में नहीं है यानी जो हमारे एरिया ऑफ कंसर्न से बाहर है उसे हम कंट्रोल नहीं कर सकते। क्योंकि उसका व्यवहार किसी और तत्वों और कारणों से प्रभावित और निर्मित हो रहा है। उसमें आपका कोई नियंत्रण नहीं है। हम बस इतना ही कर सकते हैं कि हम अपने व्यवहार को संतुलित कर सकते हैं। हम अपने व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं ताकि सामने वाले का व्यवहार प्रभावित न हो। लेकिन अफ्सोसनाक स्थिति यही है कि हम अपने व्यवहार और मनोदशा को दूसरे के व्यवहार से नियंत्रित करने लगते हैं। दूसरे की इच्छा, पसंद, नापसंदगी से अपने को चलाने लगते हैं।
मैनेजमेंट का ही एक सिद्धांत है कि जो आपके प्रभाव व कार्यक्षेत्र से बाहर का है जिसपर आपका नियंत्रण नहीं है उसे स्वीकारना ही बेहतर है बजाए कि उसे सुधारने में अपनी क्षमता और ताकत झोंक देने के। क्योंकि आप किसी को प्रेम करने व घृणा करने में आज़ाद है किन्तु दूसरा भी आपसे उतना ही प्रेम करे या नापसंद करे इसका हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता बल्कि हो भी नहीं सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा एरिया ऑफ कंसर्न को यदि दुरुस्त करे लें तो काफी हद तक समस्या का हल निकाल सकते हैं।
बात महज इतनी सी है कि जवाब न मिलने पर हम उदास हो जाते हैं। यह एक मानवीय कमजोरी से ज़्यादा और कुछ नहीं है। यदि जवाब नहीं आया तो उसके कारणों को समझा जाए। क्यों ऐसा हुआ होगा? क्यों कोई आपके संदेश को नज़रअंदाज़ करता है? क्या वह संदेश प्रतिउत्तर की मांग करता है? क्या जवाब देना ज़रूरी है आदि। जब इसके कारणों की जड़ में जाएंगे तो महज ही समझ सकते हैं कि कोई तो ऐसी वज़ह नहीं होगी कि आपके संदेश को तवज्जो नहीं दिया गया। 


Tuesday, September 18, 2018

गाड़ी से बाहर कचरा फेंकते हैं हम


कौशलेंद्र प्रपन्न
स्वच्छता की जिम्मेदारी कायदे से सरकार से ज़्यादा हम नागरिकों की बनती है। सरकार कायदे कानून बना सकती है। हमें बता सकती है कि इस योजना में आपको कैसे जुड़ना है। आदि। लेकिन मूलतः स्वच्छता जैसे अभियानों को सफल बनाने में हम नागर समाज को आगे आना होगा। यूं तो वर्तमान सरकार पिछले चार वर्षों से स्वच्छता को अपना आंदोलन के तौर पर शुरू किया है। लेकिन देखा तो इससे उलट जाता है। हम एक ओर स्वच्छता अभियान में नारे लगा रहे होते हैं। वहीं दूसरी ओर गाड़ी में बैठते ही अपना खाया हुआ रैपर खिड़की खोल कर सड़क पर फेंक देते हैं। गोया सड़क न हुई चलता फिरता कूड़ादान हो।
किसे नहीं मालूम कि स्वच्छता जैसे काम को बेशक सरकार हमें जागृत करे किन्तु यह काम तो हमारा है। हमें अपनी आस-पास को साफ रखने में अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी। कोई बाहर का आकर एक या दो दिन तो कैम्पेन चला सकता है। लेकिन नियमित तौर पर हमें ही रख रखाव रखने होते हैं।
एक और दिलचस्प है कि एक ओर हम स्वच्छता का अभियान कर रहे होते हैं वहीं घर और घर के बाहर सारे कचरा उडे़ल रहे होते हैं। किसे नहीं पता कि तमाम एमसीडी अपने अपने क्षेत्र में मुफ्त में गाड़ियां चलाती हैं जो सुबह सुबह घर घर जाकर कचरे इकत्र करती हैं। लेकिन उसके बावजूद हम शाम में पार्क के आस-पास भी घर का कचरा डालने में गुरेज नहीं करते।
हाल ही में प्रधानमंत्री जी ने विभिन्न कॉर्पोरेट सेक्टर के सीएसआर को पत्र लिखा और उनसे इस अभियान में मदद मांगी। उन्होंने पत्र में लिखा है कि नागर समाज को स्वच्छ बनाने में कंपनियां आगे आएं। अब कौन कंपनी का मालिक होगा जो इस अनुरोध को मना कर सकता है। हर कोई प्रधानमंत्री जी के पत्र पर संज्ञान लेते हुए अपनी अपनी कंपनियों में अभियान में कैसे जुड़ें व कर सकते हैं इसकी एक रोड़ मैप प्रस्तुत करेंगे।
कितना अच्छा हो कि हम स्वयं बिना किसी और के जगाए स्वच्छता अभियान में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करें। आख़िरकार यह किसी और के लिए नहीं बल्कि हमारी ही जिं़दगी और स्वच्छ वातावरण के लिए है। 

Monday, September 17, 2018

रिश्तों में ऊष्मा बचाएं



कौशलेंद्र प्रपन्न
रिश्ते अपने पांवों से नहीं चलते। चल तो नहीं सकते। रिश्तों को चलने के लिए उसकी स्वयं की ताकत और ऊर्जा चाहिए होता है। इसके बिना रिश्ते बीच सफ़र में ही दम तोड़ देते हैं। हालांकि रिश्तों के दरमियान कई तरह के कई किस्म के उतार चढ़ाव भी आते हैं। यदि रिश्तों में जीवट उत्कंडा हो तो वह सूखे भी प्राण वायु खींच लिया करते हैं। यही कारण है कि कुछ रिश्ते सालों साल, बरस दर बरस जिं़दा रहती हैं। कितने भी सालों के बाद मिलो तो ज़रा भी फासलों का एहसास नहीं होता। गोया कल की ही तो बात है। कल ही तो घंटों बातें की थीं। वहीं कुछ रिश्ते ऐसे भी बन या बंध जाती हैं जिसमें लगातार घुटन सी महसूस होती है। लगता है क्या ही अच्छा हो कि तुरंत मिलना खत्म हो जाए और हम इस रिश्ते से बाहर हो जाएं। जीवन में हम ऐसे लाखों न सही कम से कम सौ से ज़्यादा रिश्तों में आते हैं जहां हमें कई बार मजबूरन रहना पड़ता है। जिन्हें निभाना बोझ लगता है वहीं कुछ तो रिश्ते ऐसे होते हैं जिनमें बेशक हम सालों साल न मिलें लेकिन उस रिश्ते की गरमाहट हम दूर रह कर भी महसूसा करते हैं। इन्हीं रिश्तों के बदौलत हम कई बार सांसें लेते हैं वरना मर न जाते।
रिश्ते मायने वे तमाम लोग शामिल हैं जिन्हें हम कभी न कभी यात्रा में मिले। कहीं काम करते हुए मिले। कभी यूं ही भटकते हुए मिले लेकिन सच्चे अर्थां में मिले। उनसे बिछुड़ने की टीस सदा हमारे साथ रहती है। हम अकसर उन्हें याद किया करते हैं जब भी कोई मिलती जुलती घटना या बातें चला करती हैं। तब तब वो लोग याद आया करते हैं। जब भी हम उन्हें याद करते हैं तब पूरे संदर्भों में याद किया करते हैं। ख़ासकर जो अब हमारे बीच नहीं रहे उन्हें तो बेहद याद किया करते हैं। उनके बोलने, उठने बैठने, प्रतिक्रिया करने के ख़ास अंदाज़ में। कोई कैसे ऐसे व्यक्ति को भूल सकता है जिससे बहुत कुछ सीखने, गुनने को मिला। मुझे अकसर लाल कृष्ण राव, कमल कांत बुद्धकर, प्रो ओ पी मिश्रा याद आते हैं जिन्होंने लिखना सीखाया। एल एन राव नहीं होते तो शायद लेखन की दुनिया में मेरा होना ही मुकम्म्ल नहीं होता। वहीं प्रो. एस एस भगत नहीं होते तो वेद पाठ की तालीम अधूरी ही रह जाती। ऐसे ही हमारे जीवन को आकार देने वाले प्राध्यापक, पत्रकार, लेखक, मित्र आदि होते हैं जिनसे हम कई बार न चाहते हुए भी सीख लिया करते हैं।
जहां तक रिश्तों में आने वाले मोड़ मुंहानों की बात करें तो रोज़ ही कोई न कोई हमें मिला करते हैं। जिनसे हम करीबीयत महसूसा करते हैं। बेशक परो़क्ष ही सही हमारा एक रागात्मक रिश्ता जुड़ जाता है। कई बार हम इन्हें कोई स्थाई या स्थापित नाम कम और छोटे पड़ते हैं। लेकिन हमारे इसी जीवन में ऐसे भी रिश्तों के डोर मिला करते हैं जिन्हें बगैर किसी नाम से जुड़े होते हैंं। ज़रूरी तो नहीं कि हम रिश्ते रोज़ाना ही जीया करें, मिला करें। ज़रूरी तो यह भी नहीं कि जिनसे जुड़े हैं उनसे रोज़ाना ही मुलाकात हो। लेकिन यह ज़रूरी है कि जिनसे भी स्नेह के धागे से बंधे हैं उन्हें जब भी मिलें। जहां भी बातें हों ज़रा भी एहसास न हो कि कितने दिनों बाद मिले। मिलने के बीच एक दूरी साफ न झलके। यह तभी संभव है जब हम मिलने में शिकायातों का पुलिंदा न खोलकर बैठ जाएं। महज फोन नहीं करते, मिलते नहीं, बड़े लोग हो गए हो आदि आदि। क्योंकि हर किसी के पास कहने और शिकायते करने के अपने अपने तर्क मौजूद हुआ करते हैं। जब शिकायत से मुलाकात या बात शुरू होती है तब कहीं न कहीं स्पष्ट और साफ दिल बातचीत संभव नहीं हो पाता।
रिश्तों को टूटने से बचाने के लिए ज़रूरी है कि दोनों ही प़़़क्ष अपनी अपनी प्राथमिकताएं और लगाव को जिं़दा रखें। सिर्फ रिश्ते एक तरफे नहीं चला करते। बल्कि यदि रिश्ते में गरमाहट एक महसूस कर रहा है तो वह भी दूसरे से ऐसी या इसी किस्म की बेचैनी महसूस करे। बल्कि उसे प्रकट करने का माद्दा भी रखता हो। तब मजाल है रिश्ते घिस जाएं या रिश्तों के दरमियान ठंढापन आ जाए।

Wednesday, September 12, 2018

बेचैन हैं मगर क्यों



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम इंसानों की भी अजीब कहानी है। हम क्षण में खुश हो जाते हैं और पल में नाखुश। शायद अंदर से निराशा से भर उठते हैं। इस निराशा के कारण कई बार काफी स्पष्ट होते हैं। हम जानते हैं कि फलां की वजह से मन खिन्न है। फलां ने ऐसा क्यों बोल दिया। फलनी ने ऐसा बरताव क्यों किया आदि। लेकिन कई बार हमारा मन यूं ही न जाने क्यों उदास हो जाता है। जगजीत सिंह का गाया गज़ल याद आता है- ‘‘शाम से आंख में नमी सी है, फिर आज किसी की कमी सी है।’’
अगर कारण पता चल सके तो अपनी उदासी को दूर करने का प्रयास किया जाए। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता। बल्कि अकसर ही हमें अपनी उदासी का सबब नहीं मालूम होता। कुछ कुछ मिला मिला सा कारण होता है। किसी के व्यवहार से उदास हो जाते हैं तो कई बार अपने ही वजहों से ।हम कई बार अपनी ही चाहतों को शायद पहचान नहीं पाते। कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपनी सीमाओं को पहचाने बगैर कुछ ऐसे ख़ाब देखा करते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए अतिरिक्त मेहनत की मांग होती है। जो हम नहीं दे पाते तो विफल होते, बिखरते सपनों की वजह से उदास हो जाया करते हैं। हमें ज़रूरत है अपनी मांगों और उम्मीदों को पहचानना और उन्हें पूरा करना। हर सपने हर किसी के पूरे न तो हुए हैं और न ही संभव ही है।
इस बात की भी पूरी संभावना है कि हमारे अंदर कई तरह की संवेदनाएं एक बार में ही बल्कि साथ साथ ही चल रही होती हैं। जिन्हें लेकर हम एक अंतर या कह लें फांक नहीं कर पाते और उदासी में डूबने लगते हैं। आज की भागम भाग वाली जिंदगी में तकरीबन हर कोई अकेला है, एकांगी है और अधूरा है। यह अधूरापन हम कई बार मॉल में जाकर भरते हैं। हंसी खिलंदड़ी कर के भूलाने की कोशिश करते हैं। मगर अंदर जो टूट रहा है उसे हम बचा नहीं पाते।
शोध बताते हैं कि आज दुनिया भर में अवसाद की गिरफ्त में हज़ारों नहीं बल्कि लाखों में लोग हैं। जिन्हें किसी न किसी किस्म का अवसाद है। अवसाद यानी एक प्रकार की निराशा, एकाकीपन, अकेलापन आदि। इन्हीं मनोदशाओं में हमें कई बार महसूस होता है हम भीड़ में भी कितने अकेले हैं। सब के होते हुए भी हमारा कोई भी नहीं।
बचाना होगा ऐसे मनोदशाओं से। हमें अपने अंदर की सृजनात्मकता को जगाने की आवश्यकता पड़ेगी। अंदर के हास्य को जगाना होगा और अपने एकाकीपन को इनसे दूर करने की कोशिश करनी होगी।

Thursday, September 6, 2018

मंच पर बैठे थे जी और बाकी इत्यादि थे



कौशलेंद्र प्रपन्न
मंच पर देखा बैठे थे सारे के सारे जी। जी की संख्या कुछ ज़्यादा ही थी। यही कोई बीस पचीस होंगे। सारे जी बिल्ला धारी थे। बिल्ले से मालूम चलता था कितने प्रसिद्ध हैं वे। सबको पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया गया। जो बच गए उसका मुंह न उतर जाए इसलिए बीच बीच में को एक प्रमुख जी थे वो उद्घोषक को याद दिला देते है कि फलां जी को भी बुके देने हैं। उन्हें भी सम्मानित किया जाना है। और इस तरह से मंच पर बिराजे सभी जी एक एक कर बुके से सम्मानित हो रहे थे। उन सभी जी के बीच में बैठे थे दो इत्यादि। जिनके लिए यह समारोह था वही मंच से एक सिरे से नदारत थे। यह कोई एक या किसी ख़ास कार्यक्रम का मंज़र न होकर किसी भी कार्यक्रम पर देख सकते हैं। इसलिए चौंकरने की बात नहीं है। भीड़ में कुछ ही जी होते हैं बाकी के इत्यादि की भूमिका होते हैं। किसी भी जी की नाक न नीची हो या सम्मान में कमी हो इसका ख़्याल रखना होता है प्रोग्राम के प्रमुख को। नहीं तो पता नहीं किस जी जी की भावना आहत हो जाए आप अनुमान तब नहीं लगा सकते। बल्कि उसका असर आगामी कार्यक्रम में देखने को मिलता है। वो बहाने बना कर आपके कार्यक्रम से दूरी बना लेते हैं। यदि स्पष्टवादी हुए तो मुंह पर बोल देने से भी गुरेज नहीं करेंगे। कि आपके यहां तो उचित सम्मान भी नहीं मिलता। सो कार्यक्रम प्रमुख की नज़र जी पर होती है न इत्यादि पर।
ख़्याल रहे कि जी हमारे प्रमुख हुआ करते हैं। उनकी भावना आहत हुई नहीं है उसका ख़ामियाजा आपको ही भुगतना होगा। वह किसी भी रूप में हो सकता है। तज़र्बा तो यही कहते है कि जी की भावना आहत न हो इसको गांठ बांध लें। एक बार के लिए इत्यादि की भावना को सहला कर मना भी सकते किन्तु जी को ठेस न पहुंचे।
एक प्रसिद्ध कवि की कविता ही है बाकी सब इत्यादि थे। भीड़ में कुछ ही लोगों के नाम लिए जाते हैं। बाकी को इत्यादि के तौर पर नाम भर गिना दिया जाता है। फलां थे फलां थे बाकी इत्यादि थे। यानी वो भी आए थे। वो भी थे इस कार्यक्रम में। बाकी की गिनती इत्यादि में कर दी जाती है। इत्यादियों की संख्या में भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती लेकिन इनकी गिनती भी जी में नहीं की जाती।
दूसरे शब्दों में कहें तो जी कई किस्म के होते हैं। साधारण शब्दों में समझें- कहीं का कोई प्रतिनिधि, किसी का मानित सदस्य, किसी के द्वारा नामित व्यक्ति, किसी राजनीतिक दल का प्रमुख आदि। इन्हें आप चाह कर भी नज़रअंदाज नहीं कर सकते। करने की सोच भी नहीं सकते। कुछ देर के लिए इत्यादियों को नज़रअंदाज कर सकते हैं। लेकिन जी को नहीं।


हर बार


हर सुबह वायदा करता हूं,
प्यार नहीं करूंगा,
चाहूंगा भी नहीं तुम्हें।
मगर हर बार ही हारा हूं,
हर बार ही जीया हूं,
तुम्हें प्यार किया है,
करता हूं
हर सुबह।
सांसों में जीया करता हूं
हर सुबह,
ख़ुद से हारा हूं,
प्यार करने में लगा हूं
हर बार हर सुबह तुम्हारे प्यार में डूबा हूं।

Wednesday, September 5, 2018

सबै भयो टीचर...मुंछ वाली मां गिजूभाई


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज कौन टीचर नहीं है! टीवी टीचर। यू ट्यूब टीचर। गूगल टीचर। कौन टीचर नहीं है भला। अगर नज़रें दौड़कर देखें तो टीचर की भरमार है। क्या उतने बच्चे हैं? क्या हम उक्त सभी टीचर को वही सम्मान दे पाते हैं जिनके बारे में बात की गई। यूं तो हम सब के अंदर एक टीचर हुआ करते हैं जिन्हें अकसर याद किया करते हैं। किसी के लिए शारदा जी, किसी के लिए नगीना बाबू, किसी के लिए हरीश नवल तो किसी के लिए सुधा या फिर प्रज्ञा मैडम आज भी एक आइडियल टीचर हैं। जो हमें ताउम्र याद रहते हैं। पूरी जिं़दगी हम इन्हें याद रखा करते हैं। कुछ तो ख़ास बात रही होगी इन शिक्षकों में जिनकी वज़ह से उन्हें हम भूल नहीं पाते। या जब हम टीचर बनते हैं तो उन्हीं की तरह या उनसे एक कदम आगे बढ़ना और बनना चाहते हैं आदि। यदि हम टीचर नहीं भी बनते तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता हमारे जेहन में एक टीचर बसा करते हैं। टीचर यानी वह व्यक्ति जिसका चलने, बोलने, उठने-बैठने से लेकर हर चीज हमारे लिए अनुकरणीय हो जाती हैं। शायद टीचर यानी गुरु हमारे लिए जीवन के हर मोड़ पर बेशक वो सशरीर हो न हो लेकिन कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हमारा आदर्श और मार्गदर्शक के तौर पर मौजूद होते हैं।
टीचर की भूमिकाएं बहुत तेजी से बदली हैं बल्कि बदल रही हैं। टीचर भूमिका को कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। हमारे टीचर ही वो धूरी हैं जो काफी हद तक परिवर्तन को मुकम्मल कर सकते हैं। यदि हमारे टीचर प्रशिक्षित और स्वेच्छा आए हुए हां तो शिक्षा में बदलाव से कोई नहीं रोक सकता। हालांकि आंकड़े और जमीनी हक़ीकत कुछ और ही छवियां प्रस्तुत करती हैं जिन्हें देखकर लगता है शिक्षा में हम जितना और जिस शिद्दत से बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं वह नहीं हो पा रहा है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि इस प्रोफेशन को स्वेच्छा से चुनने वालों की बेहद कमी है। इस मसले पर प्रसिद्ध शिक्षाविद् कृष्ण कुमार कई बार लिख और बोल चुके हैं कि शिक्षा-शिक्षण क्षेत्र में आने वाले शिक्षकों की पहली पसंद और चुनाव नहीं होना काफी हद तक शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस प्रोफेशन में आने वालों में ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा है जिनका चुनाव पहला नहीं था, बल्कि अंतिम विकल्प के तौर पर शिक्षण को चुनना था।
शिक्षक वर्ग को भी हम कई वर्गों में बांट कर देख और समझ सकते हैं-पहला, शिक्षण कर्म जिनके लिए एक आनंदमयी और पसंदीदा काम है। जिन्हें पढ़ने-पढ़ाने और बच्चों से संवाद करना बेहद पसंद है। इसके लिए ऐसे शिक्षक को घर से भी पैसे और श्रम लगाना पड़े तो ज़रा भी हिचकते नहीं हैं। हालांकि इस वर्ग के शिक्षकों की कमी लगातार रेखांकित की जा रही है। दूसरा वर्ग ऐसे शिक्षकों का है जो निर्विकल्प होने की स्थिति में शिक्षण को चुना। उनके लिए हमेशा ही यह दूसरी कमतर प्राथमिकता वाला चुनाव रहता है। धन-सम्मान, प्रतिष्ठा तो शिक्षा से कमाते हैं लेकिन शिक्षा-शिक्षण से प्यार नही कर पाते। अनमने से शिक्षा से जुड़े ऐसे शिक्षकों को न तो कक्षा में पढ़ाने में मन लगता है और न ही अपना सौ प्रतिशत बच्चों को मुहैया ही करा पाते हैं। तीसरा वर्ग ऐसे शिक्षकों का है जिनकी पैदाइश यही कोई 1989 के आस-पास हुई और देखते ही देखते शिक्षा-शिक्षण के आकाश पर छा गए। ये कोई और नहीं बल्कि विभिन्न राज्यों में अलग अलग नामां से जाने जाते हैं। शिक्षा मित्र, शिक्षाकर्मी, तदर्थ शिक्षक, शिक्षगुरु आदि आदि। यह राजनीति और आर्थिक फलक पर उदारीकरण का दौर था। जब सरकार लगातार तर्क दे रही थी कि हमारे पास संसाधन नहीं हैं कि हम सरकारी स्कूलों और शिक्षकों को ढो पाएं। और इन्हीं तर्कां को आधार बनाकर सरकार ने शिक्षामित्रों की फसल बोई। आज वह फसल लहलहा रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस फसल की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। पंद्रह बीस सालों से इसी नाम पर ऐसे शिक्षक खट रहे हैं लेकिन उन्हें पर्याप्त सैलरी, सम्मान तक मयस्सर नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश हो या बिहार, राजस्थान हो या उत्तराखंड़ तमाम राज्यों में ऐसे शिक्षकों के साथ राज्य सरकारें भौड़ा मजाक ही कर रही हैं। इस मसले को लेकर प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपाल ने कहा था कि यह नवउदारीकरण के नाम पर सरकारी शिक्षकों और शिक्षा को वैश्विक बाजार के हवाले किया जाना था। लेकिन अफ्सोस कि उस वक़्त तमाम शिक्षा संस्थान, प्रोफेसर आदि ने इसका विरोध नहीं किया। चौथा वर्ग ऐसे शिक्षकों का है जो अपने अपने व्यवसाय में मगन हैं। किसी का प्रोपर्टी डिलर का काम चकाचक चल रहा है। तो किसी के पास स्कूल के बाद दुकाने बांट जोहा करती हैं। कोई स्कूल में भी स्टॉक एक्सचेंज पर नज़र गड़ाए होते हैं। ऐसे में उनके पास पढ़ाने के सिवा और भी काम होते हैं।
इन तमाम शिक्षकों के बीच ऐसे शिक्षक आज भी बचे हुए हैं जिन्हें पढ़ाना रूचिकर लगता है। वो अपना पूरा समय और जीवन पढ़ाने और बच्चों में लगा देते हैं। ऐसे शिक्षक पुरस्कारों की श्रेणी व दौड़ में भागते नज़र नहीं आते। ऐसे शिक्षकों के लिए बच्चों के मुंह से प्रशंसा मिलना व छात्र जीवन से निकल कर प्रोफेशनल लाइफ में आने के बाद कभी यह सुनना कि आपने जो जीवन की सीख दी वह आज भी हमें काम आते हैं आदि सुनना ही उनके लिए पुरस्कार हुआ करते हैं। ऐसे वेतनभोगी शिक्षकों की कमी लगातार हो रही है जिनके लिए शिक्षण पहली पसंद है। अमूमन तो शिक्षण कर्म लोगों के लिए दूसरी व अंतिम पसंद और चुनाव हुआ करता है। इन सब के बावजूद अभी भी शिक्षक और शिक्षिकाएं ऐसी हैं जो लगातार बिना पहचान और पुरस्कार की उम्मीद पाले अपने कर्म में जुटी हुई हैं। इनके लिए बच्चों की मुसकान और उनके चेहरे पर तैरती खुशी ही पुरस्कार हुआ करता है। हालांकि ऐसे शिक्षकों की कमी हो रही है। इसका एक वजह यह भी हो सकता है कि इस प्रोफेशन को ख़ासकर प्राथमिक कक्षाओं में महिलाओं के मकूल मान लिया गया है। जबकि शिक्षण कर्म में मुंछों वाली मां के नाम से प्रसिद्ध गिजूभाई को कौन नहीं जानता उन्हें पसंद करने वालों की कमी नहीं है।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...