Monday, April 29, 2019

सैर पर खोया व्यक्ति



कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह की सैर पर मेरे पिताजी जाएं या आपके चाचाजी। क्या फर्क पड़ता है। फर्क सिर्फ उम्र का हो सकता है। वह या तो साठ के पार होंगे या फिर सत्तर अस्सी पार। जब अस्सी पार का कोई व्यक्ति सुबह की सैर पर निकलता है तो ज़रूरी नहीं कि वो सकुशल घर वापस भी आ जाए। जब सुबह का गया व्यक्ति दोपहर तलक नहीं लौटता तब चिंताएं बढ़ने लगती हैं। उसपर यदि उस व्यक्ति के पास  कोई अता पता हो, न फोन हो और न ही इतनी स्मृति की याद रह सके कि किस गली से निकले थे और किस गली में वापस आना है। कहानी तब गहराने और पेचिदा होने लगती है। तमाम तरह की आशंकाएं और अघटित दुर्घटनाओं की चिंताएं हमें परेशान करने लगती हैं।
वैसे देखा जाए तो इसमें नया क्या है। होता ही रहता है। उसपर यदि आप किसी पुलिस स्टेशन में गुम हुए व्यक्ति की सूचना देने जाते हैं तब उनके व्यवहार में साफ झलकता है। आपके लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकते हैं लेकिन उनके लिए वह एक केस भर है। केस मतलब कई तरह की व्यावहारिक और व्यावसायिक ज़रूरी कागजी कार्यवायी। आप कितना भी परेशान हों, उन्हें तो ऐसे केसेज से रोज़ रू ब रू होना होता है इसलिए कितने केसे के साथ वे संवेदनशीलता दिखाएंगे और कब तक। आप लगातार अपना धैर्य खोने लगते हैं। आप और हम उन्हें खरी खोटी भी सुनने लगते हैं कि आप ध्यान नहीं दे रहे हैं। आप दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं आदि आदि। लेकिन वह अपने तई काम कर रहा होता है। खोया हुआ व्यक्ति किस मनोदशा और किस पस्थिति से गुजर रहा है इसका महज अनुमान ही लगा सकते हैं। शायद जी नहीं सकते।
जब हम खोए हुए बाबुजी, चाचाजी आदि आदि की तस्वीर निकलवाने स्टूडियो में जाते हैं तो हमारे पास या तो पासपोर्ट साइज की फोटो होती है या फिर कई बार वो भी नहीं। ऐसे में हम अपने मोबाइल को घंघालते हैं कोई सेल्फी हो, कोई फोटो ली हो जिसे इनलाज कराई जाए। और तब महसूस होता  कि कई बार फोन की उपयोगिता और फोटो खीचे जाने की सार्थकता। इस स्टूडियो में जहां एक ओर शादी ब्याह की तस्वीरें डेवलप हो रही होती हैं वहीं दूसरी तरफ आप खोए हुए व्यक्ति की तस्वीर निकलवा रहे होते हैं। वक़्त की ही बात है कहीं शादी के जश्न मनाए जा रहे होते हैं वहीं एक खोया हुआ व्यक्ति अपने परिचितों से मिलने के लिए तड़प रहा होता है।
रास्ते तो वहीं होते हैं। सड़के भी वहीं रहती हैं। गलियां भी वहीं पड़ी रहती हैं। बस उसपर चलने वाला, टहलने वाला खो जाता है। अपना पता भूल जाता है। उसमें गली का क्या दोष? उस सड़का की भी कोई गलती नहीं जिससे होकर वो खोया हुआ व्यक्ति किसी वक़्त गुजरा हो।
कस्बा हो, गांव हो, छोटा शहर हो तो लोगों को आसानी से पहचान पाते हैं। हमें एक दूसरे का पेशा, घर मकान सब याद रहता है। कोई कहीं खोना भी चाहे तो खो नहीं सकता। कोई न कोई मिल ही जाएगा जो आपके भटके कदम को घर की ओर मोड़ दे। मगर महानगर ऐसा संजाल है गलियों का। सड़कें इतनी एक दूसरे काटती, भागती रहती हैं कि उस गाड़ियां ही भाग सकती हैं। सड़कों को क्या पता उसे किस रफ्तार में भागना है या भगाना है। बस वो व्यक्ति नहीं पहचान पाती।
शहर हो या कस्बा शायद अभी भी कुछ लोग बचे हैं जो भूले हुए या खोए हुए को घर तक छोड़ आते हैं। शायद उनके पास वक़्त है या फिर वक़्त निकाल लेते हैं अपने ज़रूरी कामों में से ऐसे कामों के लिए। हम जिस दौर और रफ्तार से गुज़र रहे हैं इसमें ठहर कर चेहरे पहचानने की गुंजाइश नहीं छोड़ता। शायद हम दफ्तर पहुंचने और पंच करने की भय में इतने डरे होते हैं कि आम और साधारण संवेदना को भी भूल चुके हैं। लेकिन ऐसे ही माहौल में ऐसे भी कुछ लोग बचे हुए हैं जिन्हें किसी खोए हुए को थाने तक पहुंचाने में सकून मिला करता है। शायद ऐसे ही लोगों के कंधे पर संवेदनाएं खत्म होने से बची हैं। जब भी जहां भी कोई सत्तर या अस्सी पार मेरे या आपके पिताजी या चाचाजी सुबह की सैर पर जाएं तो एक पता लिखा पुर्चा उनकी जे़ब में ज़रूर रख दें। कोई तो होगा जो खोए हुए की जे़ब से पुर्चा निकाल कर घर छोड़ देगा।
एक खोया हुआ व्यक्ति किन मनोदशाओं में जीता होगा? एक तो जो स्वेच्छा से खोया करते हैं और दूसरे मजबूरन खो जाते हैं। दो तरह का खोना है। मजबूरन खोए हुए के तार जुड़े होते हैं। वो अपने तार जोड़ने के लिए बेचैन और परेशान हो रहा होता है।

Tuesday, April 23, 2019

अतीत में अटक जाना नहीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘‘मैं उन सब से मिलने जाउंगा’’। इस कविता में क्या खूब अंदाज में विनोद जी लिखते हैं कि नदी मेरे घर नहीं आ सकती मैं उससे वहीं मिलने जाउंगा। जो लोग मेरे घर नहीं आते मैं उनके उन्हीं के घर मिलने जाउंगा। जो जो नहीं मिल पाते उनसे मिलने जाउंगा। एक जरूरी काम की तरह मिलूंगा। आदि आदि। एक हम हैं जो साथ है, जिसके साथ रहते हैंं उन्हीं से नहीं मिल पाते। उन्हीं से नज़रे चुराते हैं। उन्हीं से रास्ते मिल जाने पर बचकर निकलने की कोशिश करते हैं। रिश्ते को किस मोड़ पर हम छोड़ देते हैं जहां से शायद हम लौटना ही नहीं चाहते। कहां तो कवि, शायर, लेखक आदि तमाम कोशिश करते पाए जाते हैं कि रिश्ते को कैसे बचाया जाए। कैसे बीच के फासले को कम करने की कोशिश की जाए ताकि रिश्ते के बीच की गरमाहट बची रहे।
आज की तल्ख़ हक़ीकत यही है कि नए नए ऑन लाइन और सोशल प्लेटफॉम पर दोस्त और फॉलोवर की संख्या तो बढ़ाते हैं। लेकिन जो पास है। जिससे हम कभी भी कहीं भी लड़ सकते हैं। अपनी रंजीशें साझा कर सकते हैं। अपने दुख और सुख का साथी बना सकते हैं। इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। पास बैठे हुए को पुचकारने की बजाए अन्यान्य मंचों पर आकाशीय दोस्तों पर समय लगाया करते हैं। हालांकि वह भी गलत और नाजायज नहीं है। दोस्ती तो दोस्ती होती है। हां जरूरी यह है कि क्या हम इन रिश्तों को निभाने संजीदा हैं। हमारे आस-पास इतने लोग हैं जिनमें कुछ को दोस्त मान और स्वीकार सकते हैं उन्हें भी हम कई बार बेहतर तरीके से पेश नहीं आते। वजह यही है कि पास होते हुए भी हमारी पहुंच और एरिया ऑफ कंसर्न से बाहर होते हैं। हम एक ऐसे भीड़ में तब्दील हो चुके हैं जहां कंधे से कंधा टकराते तो हैं लेकिन उनसे बात करने, मिलने जुलने का वक़्त हमारे पास नहीं है। हम नजरें चुरा कर आगे बढ़ जाते हैं या फिर उन्हें नोटिस भी नहीं करते।
दूसरे शब्दों में कहें तो हम उन्हीं से वास्ता रखना अपनी प्राथमिकता रखते हैं जिनसे कहीं न कहीं, कभी न कभी कोई ज़रूरत पड़ सकती है। इस अनुमान और येजना निर्माण में यह बात स्पष्ट होती है कि उन्हीं से रिश्ता रखना है या रखना चाहिए जिनसे भविष्य में कोई काम बनता हो आदि आदि। यही वो प्रस्थान बिंदु है जहां से रिश्तों के समीकरण तय होते हैं। किनसे किस स्तर का वास्ता रखना है या रखना भी है या नहीं। सिर्फ दोस्ती शायद आज की तारीख़ में न के बराबर सी रह गई है।
रिश्तों में गरमाहट व ऊष्मा तभी तक बची रहती है जब तक कोई हमारी आम जिंदगी में शामिल हो। व कह लें जिन्हें रोज दिन अपनी बातें साझा किया करते हैं। वो लोग कभी भूलाए नहीं भूलते जिनसे हमारा साबका रोज का होता है। व्यक्ति कटता भी तभी चला जाता है जब वह हमारी रोजमर्रे की जिंदगी से अलग हो जाता है। वैसे भी व्यक्ति कब तक पुरानी यादों और स्मृतियों के साथ जिंदा रह सकता है। बच्चन साहब ने क्या खूब लिखा है, ‘‘ जो बीत गई सो बात गई माना वह बेहद प्यार था...’’ हमारे बीच से कई सारे लोग हैं जो बहुत प्यारे थे जब थे। अब वो नहीं है। कई बार भौतिक तौर पर तो कई बार संवेदना के स्तर पर दूर जा चुके हैं। लेकिन भूपेंद्र सिंह का गया एक गाना भी याद कर सकते हैं ‘‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी, गुजरते वक़्त की हर बात याद आएगी’’। जो वर्तमान को जीने वाले होते हैं वो अतीतजीवी को पिछड़ा और अतीत में रहने वाले मान बैठते हैं। कहते हैं जो बीत गई उसपर रोना क्यों? जो पास नहीं उसके लिए पछाड़ें मार कर जीना क्यों? आगे की राह आसान हो और पुराने यादें परेशान न करें इसके लिए जरूरी है कि अतीत की स्मृतियों की पोटली बांध कर दूर किसी संदूक में बंद कर दिया जाए।
हमारा पूरा का पूरा इतिहास, साहित्य, दर्शन आदि अतीत की स्मृतियों पर ही आधारित हैं। यदि अतीत को निकाल दें तो इतिहास पूरा खाली हो जाएगा। इतिहास अधूरा होगा तो हमारी संस्कृति, सभ्यता की काफी सारी थाती हमसे दूर चली जाएगी। हम किसी भी सूरत में सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में जिंदा नहीं रह सकते। हमें कई बार अतीत का सहारा और संबल लेना ही पड़ता है। यह भी दीगर बात है कि हम अतीत की यात्रा क्यों करते हैं? क्यों हमें अतीत की कहानियों, बातों, यादों और घटनाओं में आनंद आया करता है? शायद इसलिए कि हमें अपने अतीत और स्मृतियों से एक ताकत और रोशनी भी मिलती है। हम पुरानी घटनाओं और इतिहास से एक सीख लेते हैं कि जब वह पूरी घटना गुजर गई तो यह तो बहुत छोटी है। इससे भी निपटा जा सकता है। मैंनेजमेंट के छात्रों को केस स्टडी के द्वारा किसी कंपनी के उतार-चढ़ाव के बारे में पढ़ाया जाता है कि फलां कंपनी कभी अपने प्रोडक्शन और सफलता की ऊंचाई पर क्यों था और क्यों उस कंपनी में डाउन फॉल आने शुरू हुए। इसकी समझ केस स्टडी के द्वारा समझाया जाता है। ठीक उसी प्रकार इतिहास में या फिर राजनीति में भी इसका अध्ययन किया जाता है कि फलां साल या चुनाव में क्यों फलां पार्टी की जीत हुई और क्यों दूसरी पार्टी पिछड़ गई थी इसके कार्य कारण संबंधों के विश्लेषण के लिए अतीत का मंथन और विमर्श जरूरी होता है। ऐसे में अतीत की यात्रा हमारे लिए नई दृष्टि भी प्रदान करती है। वहीं अतीत की यात्रा में एक कठिनाई यह भी महसूस की जाती है कि हम अतीत में प्रवेश तो कर जाते हैं किन्तु वहां से सकुशल और कुछ ग्रहण कर कैसे वापस आना है इसकी कला हमारी पास नहीं होती। हम अतीत में अटक जाते हैं। जबकि अतीत में अटकना ख़तरनाक माना जाता है। हमें उस अतीत और स्मृतियों से, अपने पुराने रिश्तों से वो ऊष्मा लानी होती है जिससे हम वर्तमान को बेहतर बना सकें।

Friday, April 19, 2019

यादें कैसी कैसी ऐसी वैसी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
यादों का क्या है। कोई भी घटना, कोई भी बात, कोई भी स्थान जिससे हमारी यादें जुड़ी हैं वो भूले नहीं भूल पातीं। वह चाहे अच्छी यादें हों या फिर खराब। यादें तो यादें हुआ करती हैं। हम सबके पास न जाने कैसी कैसी यादें हैं। हम शायद पूरी जिंदगी यादों को स्मृतियों में संजोया करते हैं। कई बार यादों की भी छंटनी करते हैं। जो अच्छी होती हैं उसे औरों से भी साझा किया करते हैं। साझा के दौरान कई बार चूक भी हो जाती है हम सही पहचान नहीं कर पाते कि जिसके साथ साझा कर रहे हैं कहीं वह आगे चलकर मजाक तो नहीं बनाएगा आदि। लेकिन इस सब से बेख़बर हम बस एक रवानगी में अपनी पुरानी यादें साझा किया करते हैं।
यादें तो जलियावालाबाब का भी है जिसके सौ साल पूरे हुए। यादें तो 1947 की भी है जब न केवल भौगोलिक तक़्सीम हुई थी बल्कि आंसुओं को भी हमने दो फांक किया था। उस विभाजन की याद आज भी तब की कहानियों, उपन्यासों, नाटकों में गूंजती हैं। उन्हें याद कर मन गहरे अवसाद में डूबने लगता है। वहीं यादें तो तक्षशीला, नालंद विश्वविद्यालय की भी है जिन्हें सोच सोच कर माथा दमके लगता है।
यादों का हम करते क्या हैं? कभी सोचा न होगा। बस यूं ही यादों की पोटली खोलना और उनमें से कुछ यादों को झाड़ पोछ कर देखना सुनना, सुनाना बेहद लुभाती हैं। कुछ देर उन यादों में तैरने के बाद वापस किनारे आ जाते हैं। इस किनारे पर कई बार दुखद यादें इतनी गहन हो जाती हैं कि नींद उड़ जाती है। निराशा और आत्म ग्लानि से भर उठते हैं।
उसका अचानक से चले जाना भी तो यादें ही हैं। उसके साथ बीताई बातें, मुलाकातें याद आती हैं। वह ऐसे हंसता था। वह वैसे पुकारा करता था। गले लगता तो पूरर शिद्दत से मिलता था। शहर का नहीं था। जहां से आता था वहां दिखावा न के बराबर था। वहां कुछ यदि था तो अपनापा।
हर मुलाकातें, हर किसी के साथ बातें करना हर बार सुखद नहीं होता। आप तो खुलेमन से किसी से बातें कर रहे हैं। लेकिन आपको मालूम ही नहीं होता कि आपकी कौन सी बात कौन सी गतिविधि कौन कैसे रिकॉर्ड कर रहा है। मौका आते ही वह बमन करने देगा। आपका अनुमान भी नहीं होगा कि जिस बात को आपने बेहद सहज और सरल मन से कहा था उसे किसी ने किस गहरे और ग्रंथी के साथ ग्रहण किया। आपकी बातें अभी तलक खदबदा रही थीं।
कहते हैं कि समय और परिवेश बदलते ही रिश्तों के मायने बदल जाते हैं। जो कभी इतने गहरे दोस्त हुआ करते थे वही एक दिन, एक रात या फिर अचानक बदल जाते हैं। महसूस ही नहीं होता कि कभी दोनों इतने गहरे दोस्त रहे होंगे। लेकिन मूर्ख वह व्यक्ति बनता जाता है कि जो आज की तारीख़ में भी रिश्ते को उन बीते पलों में ही देखता और स्वीकारता है। जबकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं इसका इल्म उसे होना चाहिए। हर शब्द निकष पर कस कर बोलने की ज़रूरत होती है। वरना न जाने कौन सा शब्द आपके ख़िलाफ खड़ा हो जाए।

Wednesday, April 17, 2019

हमारी भाषा कैसी हो...नेताओं जैसी कभी न हो


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबों में नहीं मिलेगी। किसी गं्रथ में भी नहीं मिलेगी। यदि कहीं मिलेगी तो वह है नेताओं की जुबान में। नेताओं की भाषा की छटाएं हमें चुनावी रैलियों, घोषणाओं, मंचों पर मिला करती हैं। ख़ासकर नेताओं की भाषाओं की विविध छटाएं कई बार अंदर तक खखोरती हैं। चुभन पैदा करती हैं। कई बार अफ्सोस भी होता है कि हमारे चुने हुए नेता किस प्रकार की भाषा का प्रयोग आम चुनावी रैलियों में किया करते हैं। इन भाषाओं को सुनकर मालूम नहीं उनके बच्चे, पत्नी, बहु, परपोती आदि क्या कहती होंगी? क्या और कैसा महसूस करती होंगी? यह तो पता नहीं लेकिन उनकी बच्चियां या फिर नाती पोती कभी पूछते भी हैं या नहीं कि दादा जी आपने ऐसी भाषा कहां से सीखी? किस स्कूल में या किस मास्टर जी ने ऐसी भाषा बोलना सीखाया? यदि ऐसे सवाल हमारे नेताओं से बच्चे पूछें तो शायद उन्हें कुछ शर्मिंदगी महसूस हो। शायद तब किसी भी दूसरी संस्था निर्वाचन आयोग को उनके बोलने पर पाबंदी लगाने की ज़रूरत ही न पड़े। लेकिन आत्म विश्लेषण और आत्म भाषायी बोध हमारे नेताओं की जिंदगी से दूर होती जा रही हैं।
जब कभी भी नेताओं की भाषाओं का समाज शास्त्रीय विश्लेषण व अध्ययन किया जाएगा तो लगता है बड़बोली किस्म के नेताओं को अपने ही इतिहास से मुंह छुपाने की बारी आए। लेकिन चुनाव खत्म। उधर तमाम भाषायी आरोप प्रत्यारोप पर पानी और मिट्टी डाल दी जाएगी। किसी को भी याद नहीं रहेगा कि किस नेता ने किसे क्या क्या कहा। कहां क्या बोला। किसी ने किसी की चड्डी के रंग बताए तो किसी ने किसी को चोर बताया। नचनिया बोला। बोला तो बोला मंच पर बेशर्म की तरह ख्ुद भी हंसे और जनता का भी मनोरंजन किया।
हम कैसी भाषायी माहौल में जी रहे हैं। कई बार सोच कर लगता है कि सबसे पहले हम आक्रोश में अपनी भाषायी नियंत्रण खो देते हैं। जब कभी हम क्रोध में, ईर्ष्या या फिर घृणा भाव में डूबे होते हैं तब हमारी भाषायी नियंत्रण बेहद कमजोर हो जाती हैं। गुस्से में हमें मालूम नहीं पड़ता कि हम किसे क्या बोल रहे हैं। किसपर हमारी भाषा का क्या और कितना असर पड़ सकता है इसका अनुमान तक हम नहीं लगा पाते। बस एक प्रवाह में गुस्से में बोलते चले जाते हैं। जब गुस्से का भाव शांत होता है और अपनी भाषा पर चिंतन करते हैं तब महसूस होता है हमने क्या बोल दिया। क्या इस शब्द की आवश्यकता थी? क्या इस बात को और दूसरे तरीके से भी बोली जा सकती थी? आदि आदि।
हाल ही में मैट्रो में यात्रा के दौरान ऐसी ही भाषा बोलचाल में कानों में लगातार पड़ रहे थे। सोच रहा था कैसी भाषा का प्रयोग कॉलेज जाने वाली लड़कियां कर रही हैं? जो वो बोल रही हैं उसका गहरा क्या अर्थ है इससे बेख़बर को कई बार उस शब्द का इस्तमाल कर रही थीं। शब्द था ‘‘फट गई’’
दो लड़कियों ने एक केवल एक बार बल्कि तकरीबन दस से ज्यादा बार प्रयोग कीं कि मेरी तो फट गई। क्लास में गई और देखा मैडम आ चुकी हैं देखते ही मेरी तो फट गई। पहली नजर में इस शब्द में कोई खामी नजर नहीं आएगी। लेकिन ठहर कर सोचें तो फटना यहां ख़ास अर्थ में महदूद नजर आता है। आंखें फटना कहना उनका आशय नहीं था। यह तो तय है। क्या फट गई इसका ख्ुलाया करना मेरा प्रयास नहीं है, बल्कि कॉलेज में पढ़ने वाली बच्चियों को इसके बहुअर्थी मायने से परिचय न होना होगा ऐसा नहीं है। वे बख्ूबी जानती हैं। लेकिन गैर इरादतन और लापरवाही में बोल रही थीं। इसी तरह की भाषा का प्रयोग हम न जानें कब और किसके सामने बिना विचार किए करते हैं।
हमें अपनी भाषा और भाषायी मर्यादा का ख़्याल तो रखना ही चाहिए। जब हम किसी से ख़ासकर श्क्षित व अशिक्षित भी समाज में नागर व ग्रामीण समाज के साथ बोल रहे हैं तो अपनी भाषायी तमीज़ का परिचय देना कहीं न कहीं अपनी पीढ़ी को भाषा के प्रति सजग करना भी है।

Thursday, April 11, 2019

सात पूंछ का मैं





कौशलेंद्र प्रपन्न 
एक कहानी है सात पूंछों का वाला चूहा। इस चूहे को मां बहुत प्यार करती है। वैसे हर मां को अपना बच्चा बहुत प्यारा होता है। वह चाहे जानवर हो या मनुष्य। बच्चा चाहे दिव्यांग हो या साधारण। विशेष हो या फिर सामान्य। बच्चा बच्चा होता है। उस कहानी में चूहे को समाज यानी उसके दोस्त। खेल खेल में काफी परेशान करते हैं। सात पूंछ का चूहा सात पूंछ का चूहा आदि आदि। चूहा इन कमेंट्स से बहुत परेशान होता है। मां से बिना साझा किए पास के नाई के पास जाता है और कहता नाई नाई मेरी एक पूंछ काट दो। श्नै श्नै एक एक कर सारी पूंछें कट जाती हैं। फिर भी कहने वाले नहीं रूकते। कहने वाले फिर चिढ़ाते हैं कि बिना पूंछ का चूहा बिना पूंछ का चूहा आदि आदि। बिना पूंछ का चूहा फिर भी परेशान है। 
यह कहानी हमारी जिं़दगी के बेहद करीब बैठती नज़र आती है। हमारे भी आस-पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हमें किसी भी सूरत में सुखी और स्वीकार नहीं कर पाते। वो अपने तई हमें बदलना चाहते हैं। उनके जैसे हों तो ठीक यदि नहीं तो उन्हें परेशानी होती है। वे चाहते हैं कि यह विशेष क्यों है? क्यों इसके सात पूंछ या आस-पास फलां की ज्यादा मांग है। सभी उसे ही पूछा करते हैं। यही चीज उन्हें पसंद नहीं आती। तभी तमाम तरह की नसीहतें देने लगते हैं। बिना मांगे राय देना और अपने आप को रायबहादुर साबित करने में ज़रा भी मौका नहीं चूकते। इधर हम हैं कि उनकी बातें और आ जाते हैं। उन्हीं के जैसे बनने में अपनी स्वभावित प्रकृति भूल जाते हैं। हम अपनी पहचान और प्रकृति को ताख़ पर रखकर औरों के जैसे बनने में जुट जाते हैं। होता यह है कि जो हम थे वह तो रह नहीं पाते और जो होने के लिए अपनी पूंछ कटा बैठे उन जैसे भी न हो सके। ऐसी स्थिति में हमारी गति सांप छुछुदर की हो जाती है। 
हमारा परिवेश कुछ कुछ ऐसी भी भूमिका निभाया करता है। कई बार हम परिवेश के अनुसार ढल जाते हैं तो कई बार परिवेश को अपने अनुरूप ढालने में सफल हो जाते हैं। इस संघर्ष में काफी संभावना इस बात की भी होती है कि हम अपने अस्तित्व को परिवेश के अनुसार ओढ़ लें। बहुत कम लोग होते हैं जो परिवेश को अपने अनुसार ढाल पाएं। शायद इस किस्म के लोगों को लीडर या मैंनेजर के नाम से जानते हैं। जो अपना परिवेश स्वयं गढ़ा करता है। इस प्रकार के लोगों की संख्या दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। 
प्रेमचंद ने किसी कहानी में लिखा है कि यदि गर्दन किसी के पांव के नीचे हो तो उस पांव को सहलाने में ही गनीमत है। वरना...। और हम एक ऐसे डर और निराशा में जीने लगते हैं जिसको पार कर पाने की क्षमता पर ही विश्वास खोने लगते हैं। ठीक उसी तरह हमारी पूंछ यदि किसी के पांव के नीचे दबी हो तो बेहतर पर धीरे से अपनी पूंछ खींच लें। वरना हमारी पूंछ कट जाएगी या टूट जाएगी। 
हमारे आस-पास ऐसी कहानियां खूब हैं जो हमें जीने के लिए रोशनी देती हैं। यदि हम जग गए तो अपनी पूंछ भी बचा पाएंगे और अपने परिवेश को भी सुरक्षित कर पाएंगे। हमारे अपने बच्चे किन हालात से गुजरते होंगे ख़ासकर यदि वे विशेष हैं तो। हम बहुत कम ही ऐसे बच्चों के बारे में सोच पाते हैं कि फलां बच्चे के साथ परिवेश कैसे पेश आता है।  

Wednesday, April 10, 2019

टाइटेनिक के डूबने का मायने



कौशलेंद्र प्रपन्न
टाइटेनिक के डूबने का गहरा अर्थ है। डूबने के बाद कई तरह के विमर्श हुए। उस जहाज के डूबने के पीछे क्या वजहें थीं इसके पीछे भी ख़ास मंथन हो चुका है। जो सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है वह यही है कि कैप्टन का अति आत्मविश्वास और दूरद्रष्टा की कमी। यदि फिल्म का वह दृश्य याद करें तो उसमें साफतौर पर अतिआत्मविश्वास की ठसक सुनाई देती है। सभी का यही मानना था कि यह जहाज पूरी तरह से आधुनिक संसाधनों और औजारों, तकनीक से लैस है। यह कभी डूब नहीं सकती। आदि आदि। हुआ क्या? टाइटेनिक डूबी। डूबी क्यों? कैप्टन अपने आत्मविश्वास में दूरदृश्यता का परिचय नहीं दे पाया। वह यह भी अनुमान नहीं लगा सका कि सामने जो आईस बर्ग दिखाई दे रही है उसका वास्तविक आकार और दूरी कितनी है आदि।
मैंनेजमेंट में भी इसे गहराई से समझने और अध्ययन करने की आवश्यकता है। यदि किसी प्रोजेंक्ट का लीडर नियंता दूरदर्शी नहीं है तो संभव है ऐसे प्रोजेक्ट या संस्थान को डूबो सकता है जिसके बारे में माना जा सकता है कि यह कंपनी बलंद है और बंद नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए विश्व में बड़ी बड़ी कंपनियों की मिर्जिंग व विलयन की घटनाओं को सामने रख कर समझने की कोशिश करें तो यह बात और स्पष्ट हो सकती है। रैनबैक्शी का दाइची में विलय होना और फिर दाइची से सन फार्मा में विलयन को साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। इसके पीछे लीडर की अदूरदर्शिता और लापरवाही साफ दिखाई देती है। सिर्फ एक कंपनी का मसला भर नहीं है बल्कि रिलायंस ने कई मीडिया घरानों को अपने में विलय कर लिया। वहीं सत्यम को टेक महिन्द्रा लिमिटेड में विलय होना भी अपने आप में आंखें खोलने के लिए काफी हैं। उक्त जितनी भी विलय की बात की गई हैं सब के सब अपने समय की स्थापित और बड़ी कंपनियों में कहीं न कहीं लीडर की निर्णयात्मक क्षमता और अतिआत्मविश्वास के साथ ही निर्णय कमी साफतौर पर समझी जा सकती है।
कोई भी कंपनी या प्रोजेक्ट का सफल बनाने और उसे सही राह पर चलाने में केवल और केवल बजट ही अहम नहीं होते बल्कि उस बजट का सदुपयोग और सही वजह के लिए खर्च करने और कटौती करने जैसे निर्णय लेने पड़ते हैं। लेकिन यदि इस बिंदु पर लीडर गलत निर्णय ले ले तो उसका असर प्रोजेक्ट पर प्रकारांतर पर निश्चित ही पड़ता है। डूबते हुए प्रोजेक्ट को बचाना भी एक जोखिमभरा काम होता है। यदि किसी कंपनी से कर्मचारी छोड़कर लगातार जाने लगें तो यह एलॉर्मिंग स्थिति होती है। लीडर को इसका विश्लेषण करना चाहिए कि क्यों किसी भी कंपनी या प्रोजेक्ट से क्षमतावान कर्मी छोड़कर जा रहे हैं। कहीं निराशा और भविष्य की प्रोन्नति न दिखाई देने की स्थिति में कर्मी जा रहे हैं तो इसके लिए आत्मबल और आत्मविश्वास बढ़ाने और येजनाबद्ध तरीके से स्थिति को संभालने की आवश्यकता पड़ती है।
मैंनेजमेंट के जानकर मानते हैं कि काफी हद तक कर्मी के कंपनी छोड़जाने के पीछे कई बार मैंनेजर के व्यवहार और मैंनेजर बड़ा कारण होता है। दूसरे शब्दों में मैंनेजर व बॉस की वजह से सक्षम और दक्ष कर्मी कंपनी या प्रोजेक्ट छोड़ने पर मजबूर होते हैं। इससे हानि बॉस या मैंनेजर ये ज्यादा उस कंपनी या प्रोजक्ट को उठानी पड़ती है। तथ्य तो यह भी है कि किसी भी कर्मी के जाने व आने कंपनी या प्रोजेक्ट न तो बंद होते हैं और न कोई काम रूकता है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सक्षम और दक्ष कर्मी की तलाश में समय लग जाता है।

Tuesday, April 9, 2019

ऐतिहासिक बोध को हटाकर कम किया गया किताबों का बोझ


कौशलेंद्र प्रपन्न
इतिहास की किताब का बोझ कम करने की दिशा में एनसीईआरटी ने दसवीं की कक्षा के इतिहास की किताब से तीन पाठ हटा दिए हैं। पहले यह पुस्तक 200 पेज की थी। अब 72 पेज हटा दिए गए हैं। पाठ्यपुस्तकों का बोझ कुछ तो कम हुआ ही होगा। गौरतलब हो कि 2017 में भी एनसीईआरटी ने तकरीबन 1,334 बदलाव किए थे। इसमें से 182 पाठ्यपुस्तकों में सुधार, डेटा अपडेट करना एवं नए तथ्य जोड़ने आदि शामिल है। यह तो अच्छी पहल है कि समय समय पर पाठ्यपुस्तकों को अधुनातन करने के लिए आंकड़ों, तथ्यों को सुधारा और अपडेट किया जा रहा है। दिलचस्प यह भी है कि वो कौन से डेटा थे या किस प्रकार के अपडेट को शामिल किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में किन विशेषज्ञों को शामिल किया गया। पाठ्यपुस्तकों से ख़ास पाठों को हटाए जाने के बाद एनसीईआरटी ने तर्क यह दिया कि पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाने और पढ़ाई का बोझ कम करने के लिए मानव संसाधन एवं विकास मंत्री के सुझावों के बाद लिया गया। पाठ्यपुस्तक एवं पाठ्यचर्या निर्माण समिति का गठन ख़्यात संस्था एनसीईआरटी किया करती है। इन समितियों में विभिन्न शिक्षा संस्थानों, विश्वविद्यालयों, विद्यालयों, स्वयं सेवी संस्थाओं, शिक्षाविद्ों आदि को शामिल किया जाता है। समिति के मेंबरान शामिल की जाने वाली सामग्री, प्रस्तुति, कथ्य की तथ्यता आदि की जांच करने के बाद लेखन प्रक्रिया में शामिल हेती है। लिखी हुई सामग्री का पुनर्पाठ एवं समीक्षा विद्वत् समिति के सदस्यों से कराई जाती है। जब इन तमाम समितियों से कथ्य और कथानक की प्रस्तुति, तथ्य आदि की जांच के उपरांत अनुमति मिल जाती है तब यह पाठ्यपुस्तक के तौर पर छापने का अधिकार एनसीईआरटी प्रयोग कर पुस्तकें छापती हैं। संभव है उक्त प्रक्रिया में फिर भी कोई चूक रह जाए जिस ओर यदि ध्यान दिलाया जाए तो उसे सुधारा जा सकता है। उक्त संदर्भ में इसे इसी रूप लिया जा सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के आधार पर तैयार पाठ्यपुस्तकों में अब गलती दिखाई दी? क्या अब तक किसी की नज़र इस ओर नहीं गई? हालांकि जब भी गलती दिखाई दी तभी सुधार लेना इसमें कोई गलत भी नहीं है। लेकिन क्या यह उस विद्वत् समिति की कार्य दक्षता और विवेक पर शक करना नहीं है? क्या समिति के विशेषज्ञों की विषयी ज्ञान और शिक्षण शास्त्र की समझ पर प्रश्न खड़ा नहीं है? आदि आदि।
गौरतलब है कि 2002 में भी पाठ्यपुस्तकों के साथ इस प्रकार की कवायद की जा चुकी है। तब सर्वोच्च न्यायालय को इस पूरे विवाद पर हस्तक्षेप करना पड़ा था। तब भी इतिहास की किताबें ही सुधार और पाठ हटाए जाने की परिधि में आई थी। इसके साथ ही यह भी बताया गया था कि फलां फलां पेज क कथ्य को शिक्षक कक्षा में चर्चा करने से बचें। उसी दौरान साहित्य को भी नहीं छोड़ा गया था और हिन्दी की किताब से प्रेमचंद की कहानी को हटा कर मृदुला सिन्हा की रचना ज्यों मेहंदी के रंग को जोड़ा गया था। तब भी इस रद्दोबदल पर अकादमिक क्षेत्र में काफी विवाद और संवाद हुए थे। किन्तु जब तक तब की सरकार रही तब तक ज्यों की त्यों परिवर्तन जारी रहे। पाठ्यपुस्तकों से ख़ास पाठ, पृष्ठ आदि को हटाने का इतिहास कोई नया नहीं है। हां चौकाने वाली बात सिर्फ इतनी सी है कि यह बस्ते का बोझ कम करने की चिंता किस समय में सता रही है। पाचं वर्ष में नींद नहीं ख्ुली। न ही पाठ्यपुस्तकों की चिंता सताई किन्तु जब चुनाव होने हैं तब किताबों के तथ्यों को सुधारे के फरमान जारी किए गए। हालांकि एनसीईआरटी सरकार की सलाहकार के तौर पर काम करती है। लेकिन सीधे सीधे मानव संसाधन मंत्रालय इस संस्था पर अपना वर्चस्व बनाए हुए है। अंतर सिर्फ यही होता है कि इस मंत्रालय के मंत्री बदल जाते हैं। जो अपनी अपनी विचार धारा के आधार पर एनसीईआरटी के मार्फत पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं में तब्दीलियां कराया करते हैं।
बस्ते का बोझ कम करने के लिए प्रो. यशपाल ने सिफारिश की थी। उनकी सिफारिश को सरकारें  कितनी तवज्जो दी यह किसी से भी छुपी नहीं है। उन्होंने तो जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश भी की थी लेकिन इसपर आज तक सरकार गंभीरता नहीं दिखा पाई। लेकिन स्व और पार्टी हित को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने पाठ्यपुस्तकों को एक सशक्त हथियार के तौर पर इस्तमाल किया है। यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि पाठ्यपुस्तकों में किन पाठों को शामिल की जाए और किन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए इसके पीछे गहन शिक्षा-शिक्षण शास्त्र के तमाम विमर्शों को ताख पर रख दिया जाता है। कक्षा में दसवीं की जिस इतिहास की किताब से तीन पाठों को हटा कर बोझ कम करने की दुहाई दी जा रही है उस पर नज़र डालना गलत नहीं होगा। ‘‘ भारत-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन’’ नाम से पहला अध्याय भारत-चीन (विशेष रूप से वियतनाम) में राष्ट्रवाद के उदय पर है कि किस तरह उपनिवेशवाद और वियतनाम में साम्राज्यवादी विरोधी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को आकार दिया गया था। दिलचस्प है कि किसी भी देश के संघर्ष आंदोलन व स्वतंत्रता की लड़ाई में स्त्री पुरूष दोनों की ही भूमिका अहम रही हैं। इन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि किसी भी देश के आंदोलन में महिला की भूमिका रही तो उसे हटाकर हम किस प्रकार की ऐतिहासिक समझ विकसित कर रहे हैं। क्या हम बच्चों को वैश्विक स्तर पर राजनीति, भौगालिक, सांस्कृतिक बदलावों, संघर्षां आदि से महरूम रखना चाहते हैं। या उन्हें यथार्थ की जमीन से भी परिचित कराना हमारा मकसद है। उद्देश्य स्पष्ट रखना होगा कि हम इतिहास के जि़रए किस प्रकार की समाजो-सांस्कृतिक समझ बच्चों में विकसित करना चाह रहे हैं।
दसवीं के पुस्तक से हटाए गए पाठ में दूसरा अध्याय है ‘वर्क लाइफ एंड लेजर ’ लंदन और बॉम्बे। गौरतलब है कि जैसे जैसे वैश्विक स्तर पर महानगरों का विकास और आधुनिकीकरण हुआ वैस वैसे कई बुनियादी परिवर्तन भी दर्ज होते गए। यह पाठ ख़ासकर शहरों के विकास के इतिहास को प्रस्तुत करता हे। इसके साथ ही बेराजगार और गलियों में सामान बेचने वाले फेरीवाले की जिंदगी और उनकी जीवन की तल्ख़ हक़ीकतों को प्रस्तुत किया गया। दीगर बात है कि इसमें शहरों के तेजी से विकास से जुड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों से संबंधित जानकारी दी गई है। यह समझना ज़रा मुश्किल है कि इस पाठ को हटाने से कौन का बोझ कम हुआ? क्या हम बच्चों को अपने परिवेशीए समझ से काट कर रखना चाहते हैं। या फिर तथाकथित निम्न तबके के कामों के जुड़े कर्मियों से हम बच्चों को परिचय नहीं कराना चाह रहे हैं। ध्यान रहे कि बंगाल की वर्तमान सरकार ने शंगूर आंदोलन को बतौर वहां की पाठ्यपुस्तक में शामिल कराया था। समाज में होने वाले प्रमुख आंदोलनों की पृष्ठभूमि, उसके समाजो राजनीतिक बुनावटों को समझने के लिए यदि किताबों को शामिल की गईं तो उसके पीछे के शैक्षणिक दर्शन को भी हमें समझने की आवश्यकता है न कि पाठ्यपुस्तकों के बोझ कम करने के नाम पर गैर जिम्मेदाराना तौर पर हटा दिया जाए।
तीसरा अध्याय जिसे किताब से बेदख़ल किया गया यह भी मानिख़ेज़ है। ‘नोवल्सख् सोसाइटी एंड हिस्ट्र’ यह पाठ ख़ासकर उपन्यासों की लोकप्रियता के इतिहास के बारे में है। किस तरह से इसने पश्चिम और भारम में सोचने के आधुनिक तरीकों को प्रभावित किया। यदि हम टेल आफ टू सिट्जि पढ़ते हैं तब हमें तत्कालीन समाज की स्थिति के बारे में कहानी के मार्फत जानकारी मिलती है। वहीं मीड नाइट चिल्ड्रेन पढ़ते हैं तब हमें भारत के विभाजन और विभाजन पूर्व के इतिहास की जानकारी मिलती है। उसी तर्ज पर हम कृष्णा सोबती की कहानी ‘‘सिक्का बदल गया’’, ‘मलबे का मालिक’, ट्रेन टू पाकिस्तान आदि उपन्यास, कहानियां एक ख़ास कालखंड़ की न केवल कहानी कहती है बल्कि इन कहानियों के जि़रए बच्चों में इतिहास बोध पैदा करती है। क्या हमें इस प्रकार कह कहानियों, उपन्यासों आदि को पाठ्यपुस्तकों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। फिर तो हमें गोदान, कर्मभूमि, नमक का दारोगा आदि को भी बाहर का रास्ता दिखाना होगा। जहां तक दलित विमर्श के नाम पर एक पाठ को हटाया गया तो क्या हमें जूठन, मणिकर्णिका आदि उपन्यासों को भी अपठनीय कृतियों की सूची में डाल कर कह देना चाहिए कि इसे हटाने से बच्चों पर किताबी बोझ कम होगा यह तर्क कितना वाजिब और शैक्षणिक दर्शन और शिक्षा शास्त्र के अनुकूल है इसपर मंथन करने की आवश्यकता पड़ेगी।
पाठों को हटाने, जोड़ने का सिलसिला न रूका और न रूकेगा। याद हो कि इससे पूर्व एनसीईआरटी ने नौवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्पुस्तक से भी तीन पाठ हटा चुकी है। इसमें एक अध्याय जातीय संघर्ष को विमर्श के केंद्र में रखता था। इस पूरी तब्दीली में मानव संसाधन मंत्री ने यह सुझाव दिया था कि सभी विषयों का पाठ्यक्रम कम किया जाए, लेकिन एनसीईआरटी ने सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों के कंटेंट को लगभग 20 फीसदी कम कर दिया। वहीं गणित और विज्ञान के पाठ्यक्रम में सबसे कम कैंची चलाई है। 

Monday, April 8, 2019

तनावों से लड़ने की सीख देती शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा न केवल हमारी जिं़दगी को आकार देने, मायने प्रदान करने और जीवन के मकसद निर्धारित करने में मदद करती है बल्कि जीवन मूल्यों, जीवन कौशलों को सीखने की तमीज़ भी पैदा करती है। संभव है उक्त अपेक्षाएं कोरी मूल्यपरक लगें किन्तु तमाम शिक्षाविद्, शैक्षणिक दस्तावेज़, शिक्षा दार्शनिकों की मानें तो उनपर सबकी एक ही राय शिक्षा के प्रति बनती है कि शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है। बेहतर मनुष्य से सीधा तात्पर्य यही है कि हमारे अंदर अच्छे -बुरे, करणीय अकरणीय, शिष्ट और अशिष्ट के बीच अंतर करने की बौद्धिक समझ हो। क्या स्वयं के लिए और क्या समाज के लिए बेहतर है आदि की समझ शिक्षा अपनी यात्रा में विद्यार्थियों को तालीम दिया करती है। दीगर बात है कि शिक्षा के इस प्रयास में कई अवांतर हस्तक्षेप की वजह से शिक्षा कई बार अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाती। इसमें हम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रेखांकित कर सकते हैं। इतिहास बताता है कि राजनीति ने समय समय पर शिक्षा के इस प्रयास को अपने तई बदलने और रास्ते मोड़ने से भरपूर प्रयास किए हैं। काफी हद तक इस राजनीतिक हस्तक्षेप में विभिन्न दलों को सफलता भी हासिल हुई है। यही वजह है कि शिक्षा समय समय पर अपने मूल राह से भटकी हुई भी नज़र आती है। जबकि यह भटकाव शिक्षा की मूल प्रकृति नहीं है, बल्कि इसे प्रभावित करने में कई बाह्य कारक प्रभावी होते हैं।
हमारी शिक्षा एक ओर पाठ्यपुस्तकीय समझ और कौशल प्रदान करती जिसके ज़रिए हम परीक्षा की नदी तो पार कर लेते हैं लेकिन जीवन कौशल और व्यावहारिक दक्षता हासिल करने से चूक जाते हैं। वहीं दूसरी ओर शिक्षा हमें जीवन और इससे जुड़ी बारीक समझ विकसित करने में पीछे रह जाती है। मसलन विपरीत परिस्थितियों में कैसे समायोजन स्थापित करें, यदि कार्य स्थल या निजी जीवन में संघर्षां, तनावों, दुश्चिंताएं हैं तो उन्हें कैसे प्रबंधित किया जाए इसकी समझ व्यापक न होने की स्थिति में बच्चे एवं व्यस्क जीवन से कूच कर जाते हैं। हाल ही में दसवीं की एक बच्ची ने परीक्षा परिणाम देखने के बाद आत्महत्या का राह चुना और शिक्षा-जीवन और समाज को छोड़ गई। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद आत्महत्या का सिलसिला बतौर जारी है। हर साल परीक्षा परिणाम के बाद देशभर में जो बच्चे असफल होते हैं उनमें कई बच्चे/बच्चियां जीवन की विफलता मान बैठते हैं और वह वयैक्तिक हानि, असफलता मान जीवन जीने के लायक स्वयं को न मान आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं। ऐसी घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए 2007 के आस-पास एनसीईआरटी, सीबीएससी आदि संस्थाएं मिलीं और शिक्षाविद्ों ने परीक्षा की प्रकृति पर मंथन किया। अंत में इस निर्णय पर आम सहमति बनी कि परीक्षा के प्रश्न पत्रों के स्वरूप में बदलाव किए जाएं। अंक के स्थान पर श्रेणी (ग्रेड) दी जाए। जब अराटीई अप्रैल 2010 में लागू हुई तो इसमें किसी भी बच्चे को फेल न करने के प्रावधान को तवज्जो दी गई। इससे उम्मीद थी कि बच्चों में परीक्षा संबंधी तनाव और भय को कम कर लिया जाएगा। अफ्सोसनाक हक़ीकत तो यथावत् रही। बच्चे आत्महत्याएं करते रहे। परीक्षा का भय बतौर ज़ारी रहा।
शुरू में बच्चों में शिक्षा को लेकर भय का माहौल बनता है। बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते। उन्हें स्कूल और घर के मध्य की दूरी को पाटने में हम विफल रहे। यही कारण है कि बच्चों को स्कूल परिसर लुभाने की बजाए डराते हैं। जबकि स्कूलों को बाल रूचि आधारित विकसित करने की कोशिश की जानी चाहिए थी। जो काफी हद तक इस योजना में स्कूलों को बाल सुरूचिपूर्ण रंगों, चित्रों, रेखा चित्रों का आदि का इस्तमाल भी किया गया। इससे बच्चों को स्कूल आना, पढ़ना रूचने लगा लेकिन अभी भी ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में थी जिन्हें स्कूल का विकल्प नहीं मिल सका। वे बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से आज तक कटे हुए हैं। शिक्षा से यह कटाव और भी चौड़ा होता है जब हमारी राजनीतिक शक्तियां कम करने की बजाए उसे और गहरी करते हैं। मसलन शिक्षा हासिल करने से वंचित रह गए बच्चां को कैसे शिक्षा की परिधि में लाई जाए इसको लेकर राजनीति पहलकदमियां कम ही दिखाई देती हैं।
डॉक्टर का मानना है कि एक बच्चा जब गर्भ में होता है तब भी वह तनाव में हो सकता है। बच्चे को स्ट्रेस न हो इसके लिए डॉक्टर सलाह भी देते हैं। ख़ासकर जब प्रसव काल होता है तब तो विशेषरूप से डॉक्टर की सलाह होती है कि कोशिश कीजिए बच्चा स्ट्रेस में न हो। इन्हीं तनावों को दूर करने के लिए न केवल कोठारी आयोग बल्कि बाद के तमाम आयोगों ने अपनी संस्तुतियां दीं। वहीं राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शांति के लिए शिक्षा पर जोर देते हुए शांति का पाठ को पाठ्यचर्या का मुख्य हिस्सा बनाया। दीगर बात है कि शांति के लिए शिक्षा पर अभी मजबूती से काम होना शेष है। वहीं हैप्पीनेस करिकूलम भी लांच किया गया। इसके मार्फत दावा तो यही किया गया कि बच्चों में शिक्षा और परीक्षा आदि को लेकर भय को दूर किया जा सकेगा। इस हैप्पीनेस करिकूलम का आधार यही शिक्षा की बुनियाद को बनाया गया कि बच्चा प्रसन्न और आनंदपूर्ण तरीके से सीखने-सिखाना की प्रक्रिया का हिस्सा बन सके। बच्चे स्कूल स्वेच्छा से आएं और आनंद आनंद में शिक्षा की बारीकियों से जुड़ सकें। हालांकि यह अभी एक ही राज्य में लागू है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस करिकूलम की सफलता की व कहें कितना कारगार है इसकी समीक्षा बाकी है। वहीं दूसरी ओर हाल ही में सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम के नाम से दलाई लामा ने विश्व के तकरीबन तीस से भी ज्यादा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध शिक्षाविद्यों द्वारा तैयार करिकूलम लॉच किया। इस करिकूलम के पीछे के विमर्श को समझने की कोशिश करें तो एक बात स्पष्ट होती है कि हमें विश्व में शांति  की स्थापना करनी है और युद्ध को रोकना है तो उक्त पाठ्यक्रमों से बच्चों को जोड़ना होगा। इस करिकूलम की मुख्य स्थापना यह भी है कि पूर्व के पाठ पढ़ाने यानी उपदेश के तर्ज रखने से परहेज किया गया है। इस करिकूलम के जरिए सामाजिक, संवेदनात्मक आदि मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयास किया जाएगा।
गौरतलब हो कि सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम (एसइइ) शायद पहली बार एनसीईआरटीएत्तर किसी और संस्था ने निर्माण किया है। इससे पूर्व 1975, 1985, 1988, 2000 और अंतिम 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा का निर्माण हुआ। इन तमाम रा.पा.रू में परीक्षा और शिक्षा की प्रकृति को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की गई थी। यदि 1975 की रा.पा.रू की बात करें तो इसमें जिक्र है ‘‘ जहां स्कूल में केवल शुष्क शैक्षिक अनुभव दिए जाते हैं या मूल्यांकन की विधि रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है, वहां यह सब निरर्थक हो जाता है, जिस पर हमने अभी तक विचार-विमर्श किया।’’ पेज 47। यह दस्तावेज मानता है कि मूल्यांकन का तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपने ज्ञान के उपयोगपूर्वक नई स्थितियों से जूझने एवं समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने की ओर बढ़ सकें। वहीं 1988 की पाठ्यचर्या यह मानती है कि पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीके, पाठ्यचर्या इत्यादि में कई परिवर्तन किए गए, पर परीक्षा के क्षेत्र में कोई ख़ास प्रयास नहीं हुए। यही वजह है कि शिक्षा पर परीक्षा का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। डॉ ऋतुबाला अपने शोध लेख में इस बाबत लिखती हैं कि पाठ्यचर्या 1988 न्यूनतम अधिगम स्तर की सिफारिश करती है, साथ ही साथ राष्ट्रीय टेस्टिंग सेवा की संस्तुति भी। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ही विषय राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं उसकी कार्य योजना में देखने को मिलती है। पाठ्यचर्या का मानना है कि शारीरिक, संज्ञानात्मक एवं भाविक एवं साइको-मोटर स्किल को भी परीक्षा अपने दायरे में लाए। परिप्रेक्ष्य, पेज 20, वर्ष 24, अंक 3, दिसंबर 2017 दिलचस्प तो यह भी है कि पीछे तकरीबन हर पांच या दस साल में राष्ट्रीय पाठ्यचर्याएं बनाई गई हैं। अंतिम 2005 में बनी थी। इसे बने हुए भी दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है। कायदे से तनावों, चिंताओं, जीवन के संघर्ष आदि से कैसे एक बच्चा और व्यस्क जूझे और बाहर आ सके इसकी तालीम देने की ज़रूरत है।
हालांकि कई चीजें जीवन-संघर्ष सीखा देती हैं। किन्तु शिक्षा की इसमें अहम भूमिका होती है कि हम कैसे अपनी संवेदनाओं, भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर सकें। न केवल बच्चों को बल्कि शिक्षकों को भी इसकी तालीम देने की आवश्यकता है कि वो इमोशनल मैंनेजमेंट और भावनाओं की समझ कैसे पैदा करें। बच्चों में इमोशनल साक्षरता कैसे विकसित की जाए इसकी समझ, तैयारी और प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता पड़ेगी। जब एक ओर हमारा शिक्षक स्वयं तनाव और संघर्षों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में असफल होता है तो वह कैसे बच्चों को कक्षा में भावना प्रबंधन की सीख दे पाएगा।

Monday, April 1, 2019

व्यक्ति को लीलता तनाव



कौशलेंद्र प्रपन्न 

किसी के भी जाने की न तिथि तय है और न विधि। शायद इसीलिए कहा जाता है हमसब अतिथि हैं। हमारा न आना तय है और न जाना ही। दोनों ही विधि, गति, समय सब कोई और तय करता है। वही लिखकर भेजता है कि किसे कब तक इस धरा पर अपनी भूमिका निभानी हैं। दूसरे शब्दों में हमें न हमारा भविष्य के भूगोल का कुछ अता पता है और न अतीत पर कोई नियंत्रण। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो बस इतना ही कि वर्तमान को जीएं और वर्तमान को बेहतर बनाएं। जब कभी कोई हमारे बीच से असमय चला जाता है तो एक बड़ी रिक्तता अपने पीछे छोड़ जाता है। एक ऐसी क्षति जिसे शायद कोई भी भर नहीं सकता। कहने को तो कह सकते हैं कि कोई भी स्थान ख़ाली नहीं रहता। कोई न कोई उस खालीपन को भर देता है। हमारे जीवन में हमारे अत्यंत प्रिये जब जाते हैं तब हम उस क्षति की पूर्ति नहीं कर पाते। उसमें भी जब ऐसा व्यक्ति हो जिसके जाने की अभी उम्र न हो। हालांकि यह तय करना भी हमारे हिस्से या हाथ में नहीं है कि कौन कब जाएगे। कैसे जाएगा? कहां से जाएगा? आदि। किसे कहां की जमीन मयस्सर होगी यह भी आज की तारीख़ अज्ञात है। हम जिस ग्लोबल दुनिया के नागरिक हैं ऐसे में तो और भी यह कहना मुश्किल है कि कौन कहां अंतिम सांसें लेगा। कहां की मिट्टी हासिल होगी। हम जनमते कहीं हैं, पलते बढ़ते कहीं हैं, पढ़ाई लिखाई रोजगार कहीं और करते हैं। ऐसे में जहां रोटी मिलती हैं वहीं के हो कर रह जाते हैं। ताउम्र हमें हमारी मिट्टी याद आती है। हमें हमारी जन्मभूमि पुकारा करती है लेकिन बेहद कम लोग हैं जिन्हें उनकी इच्छा और चाह के अनुसार अपनी मातृभूमि मिल पाती है। 
इस दुनिया आना जितना पीड़ादायी प्रक्रिया से गुजरना होता है उससे ज़रा भी कम तनाव, चिंता, मानोविद्लन नहीं है जीने में। डॉक्टर बताते हैं कि गर्भ में पल रहा बच्चा स्ट्रेस में न हो। प्रसव के वक़्त डॉक्टर कहा करते हैं जितनी मेहनत और कष्ट, प्रयास और तनाव मां सहा करती है वहीं बच्चा भी उतनी भी भावप्रवणता के साथ तनाव में जी रहा होता है। डॉक्टर की सलाह होती है कि बच्चा तनाव में न हो आदि। अनुमान लगाना कठिन नहीं है इस दुनिया में आना भी तनावपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना होता है। जब हम आ जाते हैं फिर एक दूसरे किस्म की दुश्चिंताओं, तनावों, संघर्षां, संवेदनात्मक द्वंद्व से रोज़दिन रू ब रू होना होता है। जो लोग विभिन्न तनावों, टकराहटों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कुशल होते हैं वे लोग काम के दबाव एवं तनावों से कैसे निकला जाए इसे मैनेज कर लेते हैं। जो लोग काम और दफ्तर, बॉस और कार्य दबावों को अपनी जिं़दगी से विलगाने में सफल नहीं हो पाते उनके जीवन में दफ्तर और बॉस की छवियां रातदिन परेशान करने लगती हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि कब और कहां से एक स्पष्ट रेखा खींची जाए जिसमें दफ्तरी काम और जीवन की अन्य प्राथमिकताओं को तवज्जो दी जाए। ऐसी ही स्थिति में व्यक्ति धीरे धीरे चुप होने लगता है। वह अपने करीबी लोगों से भी कटता चला जाता है। एकाकीपन की ज़िंदगी उसे निराशा और कुंठा की ओर धकेलती चली जाती है। किससे अपनी बात कहे? किससे अपने द्वंद्व साझा करे इस चुनाव में वह और ज्यादा उलझता चला जाता है। एक क्षण ऐसा आता है जब वह या तो हथियार डाल देता है या फिर उसका स्वास्थ्य उसका साथ छोड़ देती है। 
हमारी दुनिया में कौन कौन साथी हैं। किनसे हम अपनी बात कह सकते हैं। किन्हें चुनकर कुछ पल के लिए सहज महसूस कर सकते हैं यह चुनाव करना अपने आप में बेहद कठिन काम है। उसपर दफ्तर में किसे अपनी निजी पीर बताएं। किससे अपने अंतरजगत की हलचल साझा करें यह बहुत दुविधापूर्ण होता है। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई निजी कमजोरी का लाभ तो नहीं उठा लेगा। इस तरह के डर हमें दफ्तर में संकुचित करता चला जाता है। जहां हम मानते हैं कि अपने जीवन व दिन का एक बड़ा हिस्सा जीया करते हैं। जिनके बीच रहते, खाते पीते हैं, लड़ते, मुंह फुलाया करते हैं उन्हीं के बीच यदि तनाव में जी रहे हैं तो ऐसे में हमारी कार्यशैली और काम, काम को निर्धारित करने वाला व्यक्ति हमारी निजी जीवन को भी प्रभावित करने लगता है। काम का तनाव इस कदर प्रबल हो जाता है कि हम घर पर भी काम और बॉस की भाषा, उसके व्यवहार से परेशान रहते हैं। रात में भी बड़बड़ाने लगते हैं। दफ्तर और घर के बीच के फासले को मिटा कर जी जान झांक देते हैं। टारगेट और प्रोजेक्ट हमारी जिं़दगी हो जाती है। पीछे छूटता चला जाता है हमारी खुशी, हमारी शांति। 
पैसे और आर्थिकी पक्ष मजबूत करते करते हम कब संवेदनात्मक तौर पर झिझले होते जाते हैं इसका अनुमान ही नहीं होता। काम के बाद भी काम की प्रकृति और कार्य संपन्न कराने वाले की बॉडी लैंग्वेज हमें कोचने लगती है। हम चाह कर भी उस व्यक्ति को अपने रोज़ के जीवन से बाहर नहीं कर पाते। कितना मुश्किल होता होगा उनके लिए जो बॉस और दफ्तर के दबाव तले अपनी सांसों का गला घांट दिया करते हैं। या यूं कहें नौकरी हमारी ज़िंदगी को खाने लगे तो बेहतर है नौकरी बदल ली जाए। लेकिन सच्चाई से भी मुंह नही फेर सकते कि नौकरी पाना कितना कठिन है। मैंनेजमेंट के जानकार मानते हैं कि कई बार सक्षम कर्मी सिर्फ और सिर्फ अपने बॉस या मैंनेजर की वजह से परेशान होकर नौकरी छोड़ जाता है। इससे न केवल संस्था, कंपनी की हानि होती है बल्कि हम अपने बीच से एक कुशल, दक्ष और संवेदनशील व्यक्ति को खो देते हैं।   

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...