Saturday, August 24, 2019

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी कार्यशाला में पढ़ाने वाले घंटे का तीन तीन हज़ार लेकर चुटकूलों के सहारे या फिर अपनी अपनी कहानी सुनाकर चले जाते हैं। हमारा समय भी ख़राब होता है।’’
‘‘आपने बार बार कहामेरे बच्चे, हमारे बच्चे क्या सीखेंगे? मेरे बच्चों को क्या मिल रहा है स्कूलों में?’ मुझे ये बहुत अच्छा लगा। अच्छा लगा इसलिए मैं यह शब्द और आपका संबोधन अपने साथ लेकर जा रहा हूं। मैं स्कूल का इंचार्ज भी हूं सो अपने शिक्षकों के साथ यह अनुभव साझा करूंगा।’’
ऐसी अभिव्यक्तियों की पंक्तियां और भी हैं जिन्हें लिखने लगूं तो एक अन्य लेख की ओर मुंड़ना पड़ेगा। सो इन पंक्तियों के निहितार्थां की चर्चा करना अपेक्षित होगा। जब बीस पच्चीस साल शिक्षण करने बाद कोई शिक्षक स्वीकारे कि आज तो उसे पढ़ाने या कार्यशाला में मज़ा नहीं आया तो यह सवाल हमारी शिक्षण-प्रशिक्षण शैली पर भी उठता है। पढ़ने-पढ़ाने की ख़्वाहिश रखने वाले इस पेशे में कम नहीं हैं किन्तु उनकी ऊर्जा और प्रतिबद्धता को सही तरीके से इस्तमाल नहीं किया गया। यह ह़कीकत है कि जिस लचर तरीके से सरकारी शिक्षकों की प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित होती हैं उसमें निराशा ज्यादा पैदा होती है। जो समर्थ और सक्षम शिक्षक हैं वे बेमन से आते हैं और जब कार्यशाला में उन्हें कुछ नया या चुनौतिपूर्ण नई तालीम नहीं मिलती तब वे बेहद हताश और निराश होते हैं। हम यदि शिक्षकों की निराशा और हताशा को कम नहीं कर पाए तो कम से कम उन्हें ऐसा माहौल देने में सहयोग करें कि वे अपनी क्षमता और कौशल का प्रयोग अपनी कक्षा में कर सकें। 
देखा जाए तो हर शिक्षक की अपनी कहानी होती है। इस कहानी में कई सारे पात्र होते हैं। मानें या मानें हम पूरी जिं़दगी में जितने लोगों से नहीं मिल पाते एक शिक्षक अपनी आधी जिं़दगी में उतने जीवन से भरे बच्चों से रू रू होता है। एक प्राथमिक कक्षा को पढ़ाने वाला शिक्षक कक्षा एक में जिन बच्चों को पढ़ाना शुरू करता है उन्हें पांचवीं कक्षा तक ले जाता है। कक्षा छठीं की ओर प्रेरित कर हमारा शिक्षक बेशक उन हज़ारों बच्चों के चेहरे भूल जाए। नाम बेशक याद रहे लेकिन एक बच्चा ताउम्र अपने शिक्षक की विशेषताओं, उसकी कमियों, उसकी खीझों, बात करने के अंदाज़ आदि को याद रखता है। अनमुन लगाएं, आप सुबह सुबह कक्षा में प्रवेश करते हैं और आपके स्वागत में चालीस, पच्चास चेहरे और 100 आंखें इंतज़ार कर रहीं हैं यही तो वे पात्र हैं शिक्षकों की कहानी के जिन्हें शिक्षक अपने तई गढ़ता, मांजता और पुनर्नवा करता है। इस प्रक्रिया में कई बार हारता है, टूटता है, टूटकर जुड़ता है। एक शिक्षक की दुनिया में इन पात्रों की बड़ी भूमिका है। जिस प्रकार से बच्चों की दुनिया में शिक्षकों की भूमिका होती है उसी प्रकार शिक्षकों की दुनिया में बच्चों की भी भूमिका अहम मानी जाती है। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि शिक्षक बच्चों की दुनिया को कैसे आकार देता है। कई बार बच्चे कैसे शिक्षकों को भी गढ़ते हैं इन्हें जानना हो तो महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘‘मा साब’’ को पढ़ा जाना चाहिए। या फिर नागार्जुन की कविता दुखहर मास्टर को बांचें तो एक ऐसी शिक्षक की छवि बनती है जिसने अपने जीवन में मारने, डाटने के अलावा बच्चों को गढ़ने में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभाई। वहीं अरूण कमल की कविता ‘‘मुक्ति’’ पठनीय है। एक ऐसे मास्टर और पिता की चर्चा करते हैं जिसने अपने बच्चे को पढ़ाने में कोई ख़ास वक़्त नहीं दिया। वह मास्टर पिता ट्यूशन पढ़ाने में अपने समय का बड़ा हिस्सा लगाता है। अवकास प्राप्त करने के बाद मास्टर पिता को एहसास होता है कि उन्होंने अपने बेटे को तो देखा ही नहीं। सुबह स्कूल चले जाते और रात जब बेटा सो जाता तब पिता-मास्टर घर लौटते। बतौर मुक्ति कविता की पंक्तियां पठनीय हैं- ‘‘दोष मेरा ही था, मैंने कभी पूछा नहीं, कैसे हो तुम, जानता भी नहीं था क्या पढ़ते हो तुम, और आज जब अचानक देखा मैंने, तुम कुछ नहीं जानते, मेरा लड़का कुछ भी नहीं जानता।’’ अरुण कमल प्रतिनिधि कविताएं, पेज-36, राजकमल प्रकाशन। आज के समय की ऐसी सच्चाई नज़र की गई है जिसे शिद्दत से पढ़ा जाना चाहिए। शिक्षकों की दुनिया को समझने में कई बार साहित्य की विधाएं- कहानी, कविता, उपन्यास,नाटक या फिर संस्मरण आदि काफी मदद करती हैं। हालांकि सच्चाई यह भी है कि ऐसे हज़ारों शिक्षक अभी भी मौजूद हैं जो लगातार अपनी समझ, सौदर्यबोध, जीवनानुभव से बच्चों को प्रकारांतर से मदद करने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करते।

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