Thursday, March 26, 2015

पांच साल का वक्त कम है आरटीई को आंकने के लिए


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा का अधिकार अधिनियम कितना सफल हुआ और हमारे समाज पर क्या असर हुआ इससे टटोलने के लिए पांच साल का समय ज्यादा नहीं है। हम कुछ ज्यादा ही उत्साह से भर गए हैं और न्याय करने के दहलीज पर खड़े हैं। जरा कल्पना करें कि जिस कानून को बनने में तकरीबन 100 साल का वक्त लगा। जिसे मुकम्मल करने के लिए लगभग 1911 से संघर्ष किया जारी थी उसके परिणाम को लेकर हम कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी कर रहे हैं। यूं तो 31 मार्च 2015 अंतिम तारीख है कि हम सभी 6 से 14 साल तक के बच्चों को बुनियादी शिक्षा हासिल करा देंगे।
भारत के विभिन्न राज्यों की स्कूल की बुनियादी हालत पर नजर डालें तो पता चलेगा कि आरटीई को पूरी तरह से कार्यान्वित होने में कम से कम दस साल का समय भी कम पड़ेगा। यदि नेशनल कोईलिएशन फाॅर एजूकेशन की रिपोर्ट की मानें तो देश के विभिन्न राज्यों में वर्तमान में चलने वाले सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। राजस्थान में 17,129, गुजरात में 13,450, महाराष्ट में 13,905, कर्नाटक में 12,000, आंध्र प्रदेश में 5,503 स्कूल बंद कर दिए गए। इतना ही नहीं बल्कि कई राज्यों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। कल्पना करना कठिन नहीं है कि जिन राज्यों में पर्याप्त शिक्षक, स्कूल आदि ही नहीं हैं वहां आरटीई किस आधार पर काम करेगी। पांच लाख से भी ज्यादा शिक्षकों के पद रिक्त हैं। जहां स्कूल हैं वहां शिक्षक नहीं और जहां शिक्षक हैं वहां बच्चे नदारत हैं। दूसरी बड़ी समस्या यह भी है कि जहां शिक्षक नहीं हैं वहां पैरा टीचर, शिक्षा मित्र एवं अन्य संज्ञाओं से काम चलाए जा रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता पर असर डालने वाले और भी मुख्य घटक हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते।
असर, प्रथम, डाइस आदि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआंे की चिंता शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर रही है। इन संस्थाओं के रिपोर्ट पर नजर दौड़़ाएं तो पाएंगे कि बच्चों को अपनी कक्षा व आयु के अनुसार जिस स्तर की भाषायी और विषय की समझ होनी चाहिए वह नहीं है। असर, प्रथम और डाइस की रिपोर्ट चीख चीख कर बताती हैं कि कक्षा छठीं में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा एक और दो के स्तर की भाषायी कौशल एवं गणित की समझ नहीं है। इसका अर्थ यही निकलता है कि ओर हमारा ध्यान महज कक्षाओं में भीड़ इकत्र करना है और संख्या बल पर यह घोषणा करनी है कि हमने फलां फलां राज्य में सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश करा चुके हैं। वहीं हमारा ध्यान किस स्तर की शिक्षा बच्चे हासिल कर रहे हैं वह हमारी चिंता का विषय नहीं है।
बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता को सीधे सीधे प्रभावित करने वाले जिन तत्वों को हम मोटे तौर पर देख और समझ पाते हैं उनमें शिक्षक, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक और स्कूली परिवेश शामिल हैं। जब जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ने की बारी आती है तब सबसे माकूल सिर हमें शिक्षक का नजर आता है। कुछ गलत हुआ या स्कूल में नहीं हो रहा है तो उसकी जिम्मेदारी शिक्षक की है। जबकि ठहर कर देखने और समझने की कोशिश करें तो शिक्षक तो एक अंग मात्र है जिसके कंधे पर इसकी जिम्मेदारी दी गई है। बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता न केवल एक कंधे पर है बल्कि और भी कंधे हैं जिन्हें पहचान कर मजबूत करने होंगे। हमारे स्कूलो में प्रािक्षित शिक्षकों की खासा कमी है। यदि आंकड़ों की बात करें तो डाईस की 2013-14 के अनुसार अस्सी फीसदी शिक्षक व्यावसायिक तौर पर प्रशिक्षित हैं। डाईस की ही 2013-14 की रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि सरकारी स्कूलों के महज 46 फीसदी शिक्षक जो कि संविदा पर काम कर रहे हैं वे प्रशिक्षित हैं। वहीं स्थिाई शिक्षकों में से 17 फीसदी शिक्षक सिर्फ प्रशिक्षित हैं। अब अनुमान लगाया जा सकता है कि जिन स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं वहां किस स्तर की गुणवत्तापूर्ण सीखना-सिखाना हो रहा होगा। आरटीई फोरम की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 51.51, छत्तीसगढ़ में 29.98, असम में 11.43, हिमाचल में 9.01, उत्तर प्रदेश में 27.99, पश्चिम बंगाल में 40.50 फीसदी आदि राज्यों में शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं।
माना जा रहा है कि आरटीई के पांच साल तो पूरे हो गए लेकिन यह अभी पूरी तरह से सफल नहीं हुआ। यहां सवाल उठना जायज है कि क्या पांच वर्ष किसी भी, उस पर भी शिक्षा कानून के असर को देखना और कोई पूर्वग्रह बनाना कुछ जल्दबाजी ही होगी। अभी हमें कुछ और समय और सुविधाएं देने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं बल्कि अवसर के साथ ही सुविधाएं एवं प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

Tuesday, March 24, 2015

अपने शहर को पीठ पर लादे हुए


अपने शहर से अब भी पीछा नहीं छूटा,
न छूटा था तब
जब छोटे थे
जब शहर की चैहद्दी को नाप लेते थे साइकिल से,
पिताजी के संग टहल आते थे सोन।
शहर के मिज़ाज से परिचय था शायद पुराना,
जहां भी जाता रात होते न होते लौट आता था अपने शहर
मामी कहा भी करतीं
का रखल है तुम्हरे शहर में?
है कोई कचहरी
है तुम्हरा शहर जिला?
का है तोहर शहर में?
एक कारखाना हुआ करता था तेरे शहर के बीचो बीच
अब तो उसकी चिमनी भी उदास मंुह उठाए खड़ी है।
बचपन का वह शहर
थाना चैक पर हरी ताजी सब्जियों,फलों का शहर,
माॅल, चकाचक बाजारों से दूर मेरा शहर
दो नदियों की गोद में लेटा मेरा शहर
छूटता नहीं
कि जैसे कोई बच्चा नहीं छोड़ता मां का अचरा
कि जैसे नहीं छूटता बचपन की लड़ाई के बाद मिलान।
शहर को लादे लादे यहां तक चला गया
और कितना दूर लेकर जा सकूंगा अपने शहर को
पीठ भी जख़्मों से भरा है
सांसें भी उखड़ सी रही हैं
फिर भी कुछ है मेरे शहर में
जो नहीं छूटता छोड़ने के बाद भी।
झाबर मल गली की लस्सी,
कचैरी गली की मिठाई,
कुछ भी नहीं छूटा अब तलक,
बसा है जेहन में अइनी काट का बांध,
और छठ में सुबह सुबर बालू पर दौड़,
भइया के साथ छुट्टियों में सोन में नहाना,
सोन तो गोया
दौड़ता ही रहता है जब तब।
कहते हैं इसी शहर में ठहरे थे बंकिम चंद,
लिखा था कुछ अंश उपन्यास का,
हां वही शहर जो अब रोता है दिन के उजाले में
रात बहाता है आंसू अपनी बेहाली पर,
न रोजगार है,
न कारखाना,
फिर भी न जाने क्यूं बसा है शहर कहीं गहरे कील की तरह।






बाल साहित्य और शिक्षा समीक्षा से बाहर


कौशलेंद्र प्रपन्न

कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा वृत्तांत आदि साहित्य की विधाओं में खूब लिखी और छापी जा रही हैं। किताबें की सूची बनाई जाए तो वह हजारों की संख्या सहजता से पार कर जाएंगी। लेकिन यदि बच्चों के लिए लिखी गई किताबों की सूची देखने चलें तो वहां हम 10-20 के बाद हांफने लगते हैं। यही हाल शिक्षा का भी है। बाल और शिक्षा गोया साहित्य का हिस्सा ही नहीं माना जाता। शायद यही वजह है कि जब पूरे साल का लेखा जोखा लिखा जाता है तब बाल और शिक्षा उन आकलनों से नदारत होती हैं। यदि आप यही जानना चाहें कि इस वर्ष बच्चों के लिए कौन सी किताब आई तो आपके हाथ निराशा ही लगेगी। कविता, कहानी, उपन्यास विधा की किताबों से कोई गुरेज नहीं है लेकिन क्या बाल और शिक्षा विधा को हाशिए पर ढकेल कर एक मुकम्मल तस्वीर की कल्पना की जा सकती है? क्या भविष्य के पाठक के लिए ऐसी जमीन की उपतजाउ है? कुछ और भी सवाल हैं जिनसे मुंह नहीं मोड़ सकते। दरअसल बाल और शिक्षा शास्त्र विधा में कम लिखे जाने के कारणों पर विचार करें तो पाएंगे कि यहां बाजार और आथर््िाक पहलू ज्यादा हावी है। यदि बाल एवं शिक्षा साहित्य के खरीद्दार न के बराबर हैं तो ऐसे में प्रकाशक इस दुखते रग पर हाथ नहीं धरना चाहता। इसका अर्थ यह भी नहीं कि कविता, कहानी, उपन्यास के बाजार गरम हैं। हां इन किताबों के लोर्कापण तो होते हैं लेकिन उन्हें भी पाठकों के राह जोहने पड़ते हैं। संभव है कविता, कहानी के पाठक ज्यादातर वे होते हैं जिन्हें भेंट स्वरूप किताबें मिलती हैं। जिन्हें पढ़कर मित्रों को एहसास करना होता है कि हां हमने तुम्हारी किताब पढ़ी बहुत अच्छी है। इस अच्छी की परिभाषा पर न जाएं। क्योंकि उन्हें महज एक दो कहानी व कविता पढ़कर अपनी राय बना लेते हैं। दरअसल अभी कविता,कहानी आदि की किताबों की समालोचना होना बाकी है। विभिन्न प्रकाशकों के सूची पत्रों से गुजरने के बाद जो हाथ लगता है वह बेहद निराशाजनक ही कहा जाएगा।
हिन्दी के प्रकाशक जिस तरह की बाल किताबें छापते हैं उनमें ज्यादातर बाल कहानियां, बाल गीत होती हैं। दूसरे स्तर की वे किताबें मिलेंगी जो सिर्फ नसीहतें देती मिलेंगी। जैसे बच्चे कैसे सीखते हैं, बाल मन के गीत, बाल नाटक, मंदबुद्धी बच्चे आदि। इन किताबों की विषयी समझ और फैलाव पर नजर डालें तो ये किताबें बड़ों कह नजर से बच्चों की दुनिया को देखने की कवायदें ज्यादा लगेंगी। बच्चों के लिए उपयागी किताबें की संख्या बेहद कम हैं। जो बाजार में उपलब्घ हैं वे अंगे्रजी की किताबें हैं या फिर बाल गीत हैं। क्या बाल साहित्य सिर्फ बाल गीत, बाल कहानियां भर ही हैं। इस पर विमर्श करने की आवश्यकता है।
बच्चे कैसे सीखते हैं, भाषा शिक्षण के तौर तरीके क्या हों, कहानी कैसे कही जाए, कक्षा में भाषा और बोली, बच्चों की कहानियां कैसी हों आदि ऐसे विषय हैं जिन पर लेख, किताबें लिखी जानी चाहिए। यदि 2014 में प्रकाशित कुछ किताबों पर नजर डालें तो विभिन्न प्रकाशकों की सूची में बाल साहित्य और शिक्षा की किताबें 50 से ज्यादा नहीं हैं। वहीं अन्य कविता, कहानी की किताबें हजार की संख्या आसानी से पार कर जाएंगी।  भाषा और शिक्षा से संबंधित ‘समाज, बच्चे-बच्चियां और शिक्षा’, ‘सवालों की शिक्षा’ वीरेंद्र रावत की लिखी इन दो किताबों से गुजरना गणित शिक्षण, कक्षा अवलोकन, भाषा की बुनियादी शैक्षिक समझ की विस्तार से विमर्श करती चलती है। वहीं कई प्रासंगिक दस्तावेजों की रोशनी में यह किताब नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क की परिभाषित भी करती है। भाषा, बच्चे और शिक्षा, कौशलेंद्र प्रपन्न की किताब सड़क पर भटकने वाले लाखों बच्चों को समर्पित है। इस किताब में भाषा से संबंधित शिक्षण विधि, भाषा की प्रकृति-भूगोल की जानकारी तो देती ही है साथ ही बच्चों के अधिकारों के लिए 1989 में संपन्न संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन की पांच बाल अधिकारों की रोशनी में भारत के बच्चों को देखती और विमर्श करती है। प्रेमपाल शर्मा की किताब ‘शिक्षा भाषा और प्रशासन’, शिक्षा के सरोकार 2014, पढ़ने का आनंद 2013, भाषा का भविष्य 2012। यदि 2014 में प्रकाशित ‘शिक्षा के सरोकार’ के कथ्य पर नजर डालें तो पाएंगे कि हिन्दी माध्यम और भाषा शिक्षण को लेकर उठे यूपीएससी की विवाद बवंड़र को ठहर कर विचारने की ओर प्रेरित करता है।
यदि बड़े प्रकाशकों की प्रकाशित किताबों की सूची देखें तो प्रेमचंद की कहानियां प्रमुखता से छापी जा रही हैं। वहीं दूसरे ज्यादा छपने वाले लेखक रवींद्र नाथ टैगोर हैं जिनकी कहानियां भी पेपर बैक में छपी हैं। राजकमल प्रकाशन की बच्चों की किताबों में प्रेमचंद, टैगोर, रवि शंकर आदि की किताबें ज्यादा हैं। जो विभिन्न मुद्दों पर लिखी गई हैं। एक ओर कृष्ण कुमार किताब मैं नहीं नहीं पढ़ूंगा है वहीं दूसरे ओर बड़े भाई साहब, सवा सेर गेहूं, गिल्ली डंड़ा और रवि शंकर की नालंदा, राममनोहर लोहिया,प्रवासी पक्षियों का बसेरा आदि टाईटिल मिलती हैं। वहीं प्रभात प्रकाशन की ओर शिक्षा पर बारह टाइटिल छापे गए हैं। लेकिन उन किताबों का प्रकाशन वर्ष स्पष्ट नहीं है कि कितनी किताबें 2014 में छपीं। लेखकों में शामिल हैं दीनानाथ बत्रा, देवेंद्र स्वरूप, जगमोहन सिंह राजपूत, जे एस अग्रवाल जो एक खास विचारधारा से संबंधित हैं। इनमें दीनानाथ बत्र की ‘‘ भारतीय शिक्षा का स्वरूप’’, जे एस राजपूत की किताब ‘‘ शैक्षिक परिवत्र्तन का यथार्थ’’, देवेंद्र स्वरूप किताब ‘‘ राष्टीय शिक्षा आंदोलन का इतिहास’’ शामिल है। बाल कथाओं में विष्णु प्रभाकर, श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी, प्रकाश मनु, हरीश शर्मा आदि की रोचक बाल कहानियों की किताबें मिलेंगी। हितोपदेश की कहानियां, उपनिषद की कहानियां, चुनी हुई बाल कहानियां, सात बहनों की लोक कथाएं आदि बच्चों के लिए टाइटिल हैं। पंचतंत्र की कहानियां, पूर्वोंत्तर की लोकगाथाएं आदि बाल किताबों पर नजर डालें तो एकबारगी बच्चों पर नैतिक शिक्षा, मूल्य, प्राचीन कथाओं पर पढ़ाने पर जोर दिया गया है।
आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और बाल साहित्य को नजरअंदाज किया जाए बल्कि उन साहित्यों को भी मुख्यधारा की समीक्षा और सूची में मकूल स्थान दिया जाए। क्योंकि बाल साहित्य और शिक्षायी किताबों को हाशिए पर रख कर साहित्य के वृहद् परिदृश्य की कल्पना करना मुश्किल है। संभव है इस लेख में कुछ किताबें यहां छूट गईं हों लेकिन उसके पीछे कोई सोची समझी रणनीति नहीं है।

Wednesday, March 18, 2015

बजट में शिक्षा पर चली कैंची


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए हमारा सालाना बजट और केंद्र सरकार किस नजर से देखती है इसका अंदाजा लगाना हो तो हमें इस साल के 2015-16 के बजट को देखना दिलचस्प होगा। हमें यह भी याद रखना होगा कि 1964-66 में कोठारी आयोग ने प्रारम्भिक शिक्षा की बेहतरी के लिए जितनी राशि की आवश्यकता की मांग की थी हम उसे देने में काफी पीछे हैं। कोठारी आयोग ने तब सकल घरेलु उत्पाद के 6 फीसदी शिक्षा को देने की सिफारिश की थी। लेकिन यह हम पिछले दो तीन सालों के बजट को देखें तो शिक्षा में सुधार और गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए हर साल बजट में बढ़ोत्तरी देखी जा सकती हैं। लेकिन 2015-16 के बजट में ऐसा क्या हुआ कि शिक्षा के मद में मिलने वाले आर्थिक राशि में इतनी बड़ी कटौती की गई। गौरतलब हो कि 1990 में जिस ‘सभी के लिए शिक्षा’ यानी ‘एजूकेशन फार आॅल’ में के लक्ष्यों में यह भी शामिल किया गया था कि 2010 फिर 2015 तक सभी के लिए शिक्षा मुहैया करा देंगे। वहीं यह भी घोषित किया गया था कि बुनियादी शिक्षा में लड़की/लड़के के अंतर को पाट सकेंगे। सभी बच्चे यानी 6-14 आयुवर्ग के बच्चे बुनियादी शिक्षा हासिल कर लेंगे। इन्हीं अंतरराष्टीय प्रतिबद्धताओं के मद्दे नजर हमने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को पूरे देश में 1 अप्रैल 2010 को लागू किया। इसी तारीख को इसकी अंतिम तारीख भी तय की गई थी जो 31 मार्च 2015 है। ध्यान हो कि यह अंतिम तारीख भी हमसे महज पंद्रह दिन दूर है।
यदि आम बजट पर नजर डालें तो शहरी विकास, आईटी, आर्थिक बाजार आदि को खासे तवज्जो दिया गया है। लेकिन शिक्षा हमारी चिंता से कोसों दूर है। सर्व शिक्षा अभियान जिसके तहत बुनियादी स्कूल एवं बच्चों की शैक्षिक गतिविधियों को शामिल किया गया। इस मद में हर साल पैसे करोड़ों में दिए जाते थे ताकि कोई भी कार्यक्रम पैसे की कमी की वजह से न रूके। लेकिन 2015-16 के बजट पर एसएसए के मद में मिलने वाले 27,758 रुपए को घटाकर 22,000 करोड़ कर दिया गया। वहीं मिड डे मिल जिसकी वजह से देश भर में बच्चे कम से कम दोपहर के भोजन की ओर स्कूल में आए इसके वर्तमान बजट 13,215 करोड़ रुपए को घटाकर 9,236 करोड़ कर दिया गया। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि स्कूलों में इस दोपहर भोजन में क्या और किस स्तर के भोजन बच्चों को दिए गए और कितने बच्चे बीमार पड़े और कितने बच्चें हमारे बीच से उठ गए। वहीं उच्च माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान ‘रमसा’ को मिलने वाले 5,000 रुपए को भी कम कर 3,565 करोड़ रुपए कर किया गया। कुल मिल कर आम बजट में शिक्षा को मिलने वाली राशि की कटौती प्रतिशत में बात करें तो यह 17 फीसदी की कटौती बनती है।
गौरतलब है कि एक ओर सरकार और सरकारी दस्तावेज वहीं दूसरी ओर गैर सरकारी संस्थाएं स्कूलों और बच्चों के जो आंकड़े पेश कर रहे हैं उसे देखते हुए यह अंदाज लगाना जरा भी कठिन नहीं है कि सरकार की नजर में शिक्षा कितनी अहम है। सरकार तमाम विकास-यात्रा की बात करती हो लेकिन शिक्षा उसकी चिंता से बाहर है। बल्कि कहना चाहिए कि महज तरह के तरह अभियान और योजनाएं तो सरकार चला देती है लेकिन उसकी निगारनी का कोई सुनिश्चित रणनीति और मैकेनिज्म नहीं है। यदि वजह है कि एक ओर सरकारी दस्तावेज पिछले साल अगस्त में जहां 80 लाख बच्चों के स्कूल से बाहर होने की बात करती है वहीं छः माह बात यूनेस्को और यूनिसेफ की जनवरी 2015 की रिपोर्ट मानती है कि भारत में 14 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। यह आंकड़ों की उलटबासी समझी जा सकती है। हाल ही में राज्य सभा न्यूज चैनल पर टेलिकास्ट सरोकार कार्यक्रम में असर, आरटीइ फारम एवं अन्य विद्वानों से स्वीकारा कि अभी भी हमारी पहंुच स्कूलों और बच्चों से काफी दूर है। आरटीई फोरम की हालिया रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर है। वहीं 5 लाख से ज्यादा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं।
शिक्षा में गुणवत्ता और बच्चों तक पहंुचने वाली शिक्षा किस स्तर की है उसका जायजा लें तो असर की रिपोर्ट इस बाबत हमारी मदद करता है। असर के रिपोर्ट की मानें तो हमारे बच्चे कक्षा पांच व छः में पढ़ने वाले बच्चे न तो एक गद्यांश पढ़ सकते हैं और न पढ़े हुए टैक्स्ट को समझ सकते हैं। न केवल भाषा में बल्कि गणित और विज्ञान में भी यही हाल है। सामान्य जोड़ घटाव करने में भी हमारे बच्चे पीछे हैं। जिस देश की भविष्यनिधि ऐसी होगी उसका भविष्य कितना उज्ज्वल होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
समाज में यह धारणा मजबूती से पैठ चुकी है कि हमारे सरकारी स्कूल न इस लायक नहीं रहे कि हम अपने बच्चों को वहां भेज सकें। हमारे पास विकल्प के तौर पर निजी स्कूली ‘गुणवत्ता का सवाल न करें’ ही बचते हैं। जबकि ध्सान देने की बात है कि हमारा सरकारी स्कूलों का तंत्र और शिक्षक वर्ग जिस गुणवत्ता के हैं हम उनकी दक्षता का सही सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। उस तुर्रा यह कि हम अपने सरकारी स्कूलों को निजी संस्थानों को सौंपने का मन बना चुके हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...