Tuesday, December 31, 2013

संवाद के ललित पुल


मेरे अत्यंत प्रिय लेखक कम बड़े भाई हैं ललित जी, रोज दिन नई कविताओं के सिरजनहार। यह एक चेहरा है उनका। दूसरा चेहरा क्या जानना चाहेंगे आप?
तो दिखाता हूं- वह महज कवि नहीं बल्कि आज के हनुमान भी हैं। हनुमान माफ कीजिएगा मिथ का सहारा ले रहा हूं किन्तु संभव है नारद जी की भी कभी याद आए जाए उन्हें देख कर। नारद हां जिन्हें पत्रकारिता का पहले पत्रकार के नाम से भी  जाना जाता है। ललित न केवल बिछड़े  हुए के बीच संवाद के पुल बनते हैं बल्कि साक्षात भी जा मिलते हैं।
ऐसे ही वल्लभ डोभाल हों, शेरजंग गर्ग हों, गोविंद मिश्र हों, ज्ञान चतुर्वेदी हों या अन्य कथाकार, कवि, हर विधा के कलमकार के साथ सीधी बातचीत और सौहार्दपूर्ण रिश्ती की डोर को मजबूत करने में माहिर इस नारद को और भी शक्ति दे प्रभू ताकि हमारे बीच पुराने, वृद्ध कलमकारों की बातें पढ़ने को मिलें।
नए साल पर और और उर्जा और शक्ति, मन को मनबूती दे आगे बढ़ें कि जैसे बढ़ती की हवा। कि जैसे बढ़ते हैं सृजनशील पग।

कैसे कह दूं


हज़ारों मासूमों को बेघर किया,
आंखें से शर्म टपका,
क्या कहूं कब कब रोया,
कैसे कह दूं आज कि,
सब कुछ अच्छा रहा।
स्कूल से बाहर टहलते रहे बच्चे-
गंव कलह में उजड़ता रहा,
बोलो कैसे कह दूं खूशी मनाउं,
रोती सड़कों पर घूमती घुरली,
गोद में टांगे दुधमुंही बच्ची,
देख देख आगे बढ़े
फिर बोलो कैसे कह दूं,
सब कुछ अच्छा।
प्रेम में किए कत्ल-
ख़ून रहा टपकता पल पल,
तर किया मां का आंचल,
बाबा को वनवास दिया,
फिर तुम ही बोलो कैसे कह दूं,
कुछ भी तो न हुआ।
बेरोजगार हुए अपने घर के-
चुल्हा रहा उदास,
मां की लोरी भी छीज गई,
रहा न कोई उल्लास,
फिर बोलो मेरे मन,
कैसे कह दूं,
अब कुछ है आनंद।
नए साल में नई उम्मींदे टांगी-
दो नहीं हज़ारों अंखियां,
देखें सपने मंगल की,
उन आंखों मंे,
चूल्हों में,
दाने दे,
सपनों को आकाश,
घर में मिले रोटी पानी,
कोई न जाए बिदेस।

Monday, December 23, 2013

पुरस्कार के महरूम भी लेखन


कई बड़े नाम वाले लेखकों से बात होती रही है। वो निर्मल वर्मा हों, वल्लभ डोभाल हों, शेरजंग गर्ग हों या कोई अन्य लेखक जो वास्तव में लेखन करते हैं उनकी नजर में पुरस्कार महज लेखनोत्तर एक सामाजिक स्वीकृति है इससे ज्यादा और कुछ नहीं।
बतौर शेरजंग गर्ग जी ने एक बातचीत में कहा कि पुरस्कार पाने की प्रसन्नता तब ज्यादा होती है जब आपको उसे पाने के लिए कोई जोड़ तोड़ न करना पड़।
वहीं निर्मल वर्मा ने एक बार मुझ से बातचीत में कहा था कि पुरस्कार मिलने से उत्साह मिलता है। लिखने के लिए और और प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन पुरस्कार के लिए लेखन मैं बेहद निम्नतर मानता हूं।
वास्तव में देखा जाए तो पुरस्कार मिले और पुरस्कार के लिए कुछ प्रयास किए जाएं दोनों ही अलग बातें हैं। आज की तारीख में किस तरह से पुरस्कार लिए और दिए जाते हैं यह लेखक जगत में किसी से भी छूपा नहीं है।
दूर दराज में भी ऐसे कई लेखक हैं जो अच्छा लिख रहे हैं। लेकिन वे वो लोग हैं जिन्हें न कोई पुरस्कार मिला है और न उन्हें आप किसी बड़े मंच पर विराजमान देखते हैं। वो चुपचाप अपने काम में लगे हैं। संकोची और शर्मीले किस्म के ऐसे लेखकों को बाहर लाने की जरूरत है।
पुरस्कार किसे बुरा लगता है। हर कोई चाहता है कि इस बार का फलां पुरस्कार उन्हें मिल जाए। वो भी कंधे चैड़े कर के दिखा सकें कि देखो आखिर मुझे भी पुरस्कार मिल ही गया।
आप मुझे पुरस्कार दो और मैं आपको। यदि आपके पास मंच है तो मैं आपको उछालूंगा और आप मुझे। बहरहाल पुरस्कार मिले इसके लिए लेखन किस स्तर का होता है इसका मुआयना तो समय करेगा लेकिन आप खुद अपने लेखन के निर्णायक होते हैं।
कई ऐसे लेखक हैं जो पुरस्कार को ध्यान में रखते हुए भी लेखन करते हैं। दृष्टि फलां फलां पुरस्कार पर होती है और उसके बाद उसी के अनुरूप लेखन करते हैं। यानी पाठक या साहित्य के लिए नहीं बल्कि बाजार जैसा मांगेगा वैसा लेखन करेंगे।

Sunday, December 22, 2013

कथाकार वल्लभ डोभाल से मिलना


कथाकार ही नहीं बल्कि एक सहज और सरल व्यक्ति भी हैं। उनसे मिलकर एक पल के लिए भी नहीं लगा कि हम महज कथाकार से मिल रहे हैं, बल्कि घर के सबसे बड़े सदस्य से मिलना हो रहा है।
सवाल था क्या कहानी और उपन्यासकार के पात्र उसके हाथ की कठपुतली होते हैं?
जी बिल्कुल। कथाकार के पात्र कथाकार के हाथों नाचने वाले होते हैं। मेरा तो मानना है कि जो भी पात्र कथा में आते हैं वो कथाकार के आस-पास के लोगों के प्रतिनिधित्व करते हैं। कथाकार जैसे चाहता है वैसे ही उसके पात्र चलते हैं।
दूसरा सवाल था- क्या कहानी के पात्र का जीवन-दृष्टि कथाकार की ही दृष्टि होती है?
डोभाल जी ने कहा कि हां कथाकार का प्रतिबिंब होता है उसके पात्र। कथाकार जिस तरह का जीवन जीता है उसकी छवियां पात्रों में कहीं न कहीं दिखाई देती हैं।
छंद में जिसने आपने आप को साधा है वहीं छंद मुक्त कविता लिख सकता है। इसमें आप क्या कहते हैं?
बिल्कुल सही बात है। मैंने भी शुरू में छंदबद्ध कविताएं लिखी हैं। बाद मैंने कविता का क्षेत्र छोड़कर कहानी में आ गया। क्योंकि कविताएं वास्तव में पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए पूरे नहीं होते। इसलिए मैंने कविता से नाता तोड़कर कहानी दामन थामा।
प्रस्तुति
कौशलेंद्र प्रपन्न
रविवार दिसम्बर 22, 2013

Monday, December 9, 2013

खाद्य सुरक्षा अधिनियम और बिलबिलाता बचपन


-कौशलेंद्र प्रपन्न
 समस्त दुनिया के भूगोल से हजारों नहीं बल्कि लाखों बच्चे नदारत हो जाते हैं उसपर तुर्रा यह कि हमारे विकसित समाज के अग्रदूत बच्चे हमारे सुनहले कल के भविष्य हैं। हमने वैश्विक स्तर पर घोषणाएं की कि हम आने वाले वर्षों में बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा, विकास और स्वास्थ्य की न केवल देखरेख करेंगे, बल्कि अपने देश में उन्हें बुनियादी हक के तौर पर सांवैधानिक अधिकार भी दिलाएंगे। याद हो कि सार्वभौम मानव अधिकार घोषणा हो या कि 1989 में आयोजित संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन की घोषणा जिसे यूएनसीआरसी89 के नाम से जाना जाता है, उसमें तो हमने ख़ासकर बच्चों की स्थिति को ध्यान में रखा था। लेकिन वास्तविकता क्या है यह आज किसी से छुपा नहीं है। ज़रा देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों खासकर रेडलाइट्स पर नजर डालें तो गंदी मैली-कुचैली बालों, गेंदरा ओढ़े हजारों लड़के/लड़कियां मिलेंगी जो किसी स्कूल में नहीं जातीं। किसी भी किस्म की सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें नहीं मिलता। उस पर दुखद बात तो यह है कि सरकार एवं प्रशासन अपने शहर को साफ स्वच्छ और विकास यहां दिखता है के चक्कर में उन्हें कई बार सीमा पर अंधेरे में धकेल चुकी है। याद करें काॅमन वेल्थ गेम्स के दौरान न केवल बड़ों को बल्कि बच्चों को भी शहर के बाहर रातों रात खदेड़ा गया था। उनके पुनर्वास, रहने, खाने-पीने का इंतजाम सरकार की जिम्मेदारी थी। उनकी संख्या, आबादी को लेकर सरकार को फिक्रमंद होना था। लेकिन स्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। वो जिन्हें शहर से बाहर हांक दिए गए वो कहां हैं? किन हालात में जीवन बसर कर रहे हैं आदि सवाल सरकार के आंकड़ों के भूगोल से नदारत हैं। बच्चों की चिंता से चिंतातुर सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून 2009 पारित किया और उसे 2010 में लागू भी कर चुकी है। आरटीई के लागू होने के तकरीबन तीन साल बाद भी स्थितियां कोई खास बदली नजर नहीं आतीं। सरकार खुद स्वीकारती है कि अभी भी अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जबकि अन्य आधिकारिक रिपोर्ट बताती हैं कि ऐसे बच्चों की संख्या जो स्कूल नहीं जाते तकरीबन सात कारोड़ से भी ज्यादा है। यदि खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की घोषणाओं और उसकी पंक्तियों पर नजर डालें तो एक तस्वीर साफ उभरती है कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं उन्हें ही भोजन का अधिकार प्राप्त है। वो भी साफ लिखा हुआ है कि अवकाश के दिनों को छोड़कर, सरकारी, सरकारी मान्यता प्राप्त सभी स्कूलों में दोपहर का भोजन बच्चों को मुहैया कराया जाएगा। बतौर अधिनियम के धारा 5.1 के खंड़ क के अनुसार ‘छह मास से छह वर्ष के आयु समूह के बालकों की दशा में स्थानीय आंगनवाडी के माध्यम से आयु के समुचित निःशुल्क भोजन, जिससे अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषाहार के मानकों को पूरा किया जाए सकेगा-
कक्षा 8 तक के अथवा छह से चैदह वर्ष के आयु समूह के बीच के बालकों की दशा में इनमें से जो भी लागू होता हो, स्थानीय निकायों, सरकार द्वारा चलाए जा रहे सभी विद्यालयों में और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में, विद्यालय अवकाश दिनों को छोड़कर, प्रत्येक दिन निःशुल्क एक बार दोपहर का भोजन पूरा किया जाएगा।’ इन पंक्तियों के क्या निहितार्थ हैं और इससे कैसे बच्चे लाभान्वित होंगे आदि विमर्श आगे करेंगे यहां बस प्रथम दृष्ट्या दिया गया है। अब जो मजेदार बात सामने आती है वो यह कि सरकार के अनुसार अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं, तो वे अस्सी लाख बच्चे दोपहर के भोजन से तो महरूम ही हुए।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की प्रस्तावना पर नजर डालें तो सरकार की सद्इच्छा स्पष्ट दिखाई देती है। अपने प्रस्तावना में अंतराष्टीय मानव अधिकार की घोषणा 1949 की पंक्तियां उद्धृत की गई हैं जिसमें कहा गया है कि हरेक नागरिक को पर्याप्त भोजन पाने का अधिकार है। भोजन पाने का अधिकार से मतलब सिर्फ चावल और गेंहू नहीं। बल्कि पका हुआ भोजन है। साथ ही भारतीय संविधान के प्रावधानों को भी साईट किया गया है मसलन अनुच्छेद 21 जिसमें हर व्यक्ति को इज्जत से जीने का अधिकार भी प्राप्त है। अनुच्छेद 39 ए, राज्य अपनी जिम्मेदारी समझते हुए स्त्री-पुरूष सभी को जीविका के पर्याप्त साधनों को देखते हुए चलें। वहीं अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य के सभी काम करने की मानवीय स्थितियों और मातृत्व राहत की व्यवस्था करें। साथ ही अनुच्छेद 47 को भी प्रस्तावना में जगह दी गई है जिसमें कहा गया है कि सभी के पोषण और रहन- सहन के स्तर को उंचा उठाना एवं लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाना भी राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। यहां पूरे अधिनियम पर विमर्श अभिष्ट नहीं। बल्कि इस खाद्य सुरक्षा अधिनियम में बच्चों को लेकर क्या प्रावधान है, सरकार किस तरह लाखों बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने के प्रति वचनबद्ध है आदि को केंद्र में रख कर पड़ताल करना है।
हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स जीएचआई की रपट जारी हुई है। इस रिपोर्ट की रोशनी में भारत में 210 मिलियन नागरिक भूखे की श्रेणी में आते हैं। भारतीय नागरिकों, बच्चों एवं इस खाद्य अधिनियम को देखने की आवश्यकता है इससे जो तस्वीर हमारे समाने उभरती है वह कुछ और ही है। जीएचआर रिपोर्ट के अनुसार भारत में कम पोषाहार भोजन पाने वालों की संख्या 2010-12 में 17.5 फीसदी है। बच्चों के लिहाज से देखें तो कम वजन वाले पांच साल से नीचे के बच्चों की संख्या 40.2 फीसदी है। पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की मृत्यु दर की बात करें तो वह भारत में 6.1 फीसदी है। कुछ और भी तथ्यों पर नजर डालने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि इससे भारत में बसने वाले बच्चों की संख्या एवं उनकी स्थितियों को बेहतर समझा जा सके। भारत जैसे देश में 6 साल के अंदर के बच्चे पूरी आबादी में से सबसे ज्यादा खतरे के घेरे में आते हैं। छोटे बच्चे खासकर 6 साल से कम उम्र के बच्चों की बात करें तो उन्हें प्राकृतिक मार सहना पड़ता है। अत्यधिक बाल मृत्यु दर और कुपोषण की मार भी बच्चों को ही सहना पड़ता है। भारत में 0-6 आयु वर्ग के बच्चों की संख्या तकरीबन 158.8 मिलियन है। कुपोषण से मरने वालों की संख्या 50 फीसदी से भी अधिक है। 8.3 मिलियन बच्चे औसतन जन्म के समय कम वजन के पैदा होते हैं यानी जिनका वजन 2.500 ग्राम से भी कम होता है। तकरीबन 46 फीसदी बच्चे जिनका उम्र 3 साल से कम होता है ऐसे बच्चों की संख्या 31 मिलियन के आस-पास है। हर दस बच्चों में से 8 बच्चे जिनकी आयु 6-35 माह की है वो एनेमिया के शिकार हैं। ‘‘ बच्चों के जीवन की शुरू के 6-8 साल बेहद गंभीर क्षण होते हैं। यह वैश्विक स्तर पर पहचाना गया कि जीवनपर्यंत चलने वाली विकास की प्रक्रिया की बुनियाद के साथ ही इन सालों में विकास की गति बेहद तेज होती है।’’ ;एनसीइआरटी,2006द्ध न्यूरो साइंटिस्ट की मानें तो बच्चों के दिमाग का अहम हिस्सों का तकरीबन 85 फीसदी विकास एवं निर्माण इन सालों में होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें बच्चांे के दिमाग का समुचित एवं भरपूर विकास एवं निर्माण हो सके इसके लिए शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां उपलब्ध करानी चाहिए ताकि दिमाग का विकास अपनी पूरी क्षमता के साथ हो सके। ;एनसीइआरटी,2006 एवं वल्र्ड बैंक, 2004द्ध
सेव द चिल्डेन की हालिया रिपोर्ट भारत की कुछ दूसरी ही किन्तु महत्वपूर्ण तस्वीर पेश करती है, इस रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में 1990 के बाद बाल मृत्यु दर को कम करने में सबसे अधिक प्रगति करने वाले शीर्ष 10 देशों में शामिल है। बाल मृत्यु दर पर आधारित संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार लाइबेरिया, रवांडा, इंडोनेशिया, मैडागास्कर, भारत, मिस्र, तंजानिया और मोजाम्बिका जैसे देशों का भी बीते दो दशक में प्रदर्शन बेहतर रहा है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर कम करने में भारत ने लगातार प्रगति की है। वर्ष 2001 में जहां 25 लाख बच्चों की मौत हुई थी वहीं 2012 मंें यह संख्या घटकर 15 लाख हो गई। जबकि गौरतलब है कि वर्ष 2012 मंे ही 81 जिले ऐसे थे जहां बाल मृत्यु दर एक तिहाई से अधिक रही और इनमें से आधी लड़कियां थीं।
बहरहाल खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार देश के तमाम नागरिकों जिसमें बच्चे भी शामिल हैं, उन्हें भोजन मुहैया कराने की जिम्मेदारी केंद्र व राज्य सरकार की है। ध्यान हो कि यूएनसीआरसी89 जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है, उस घोषणा पत्र पर भारत ने भी दस्तखत किए थे। इस लिहाज से भारत प्रतिबद्ध है कि वो अपने देश में 0-14 साल तक के सभी बच्चों को भोजन,सुरक्षा, शिक्षा, विकास एवं सहभागिता का अधिकार प्रदान करे। इसी के साथ ही 1990 में सेनेगल में भी भारत विश्व के अन्य देशों के साथ दस्तखत करने वाला देश है, जिसमे तय किया गया था कि 2000 तक सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। लेकिन स्थितियां कोई खास सुधरी नहीं दिखीं सो 2000 में डकार में एक बार फिर वचनबद्धता दुहराई गई कि 2015 तक यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा। किन्तु हकीकतन ऐसा नहीं हुआ। लेकिन भारत सरकार ने तकरीबन सौ साल के लंबे संघर्ष के बाद ज्योति बा फुले की पहली आवाज कि हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले, को 2002 में भारतीय संविधान में 86 वां संशोधन कर के धार 21 में ए जोड़ कर मूल अधिकार प्रदान किया। जिसे 2009 में हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हुआ। इस आरटीई की चर्चा इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देती है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी इसी को आधार बना कर देश के हर बच्चे को ‘0 से 14 वर्ष आयु वर्ग’ भोजन का अधिकार प्रदान करती है। यूं आरटीई में 0से 6 आयु वर्ग को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन खाद्य सुरक्षा अधिनियम में 0से 6 आयु वर्ग के बच्चों के लिए आंगनवाडी जैसी संस्थाओं के जरिए भोजन पहुंचाने की सुविधा प्रदान करती है।
0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों के लिए कितना विटामिन युक्त भोजन चाहिए और 6से 14 साल तक के बच्चों के लिए कितना इसका पूरा खाका इस अधिनियम में दिया गया है। बतौर अधिनियम- देश के सभी दरिद्रतम व्यक्तियों, स्त्रियों और बच्चों को दोनों टाईम मुफ्त पका पकाया भोजन दिया जाएगा। लेकिन ऐसे देश में जहां मिड डे मील का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है वहां दरिद्र के लिए भोजन कौन और कैसे पकाएगा यह एक बड़ा सवाल है। मिड डे मील के झोल को सभी जानते हैं। केंद्र से लेकर राज्यों मंे स्कूलों में जिस तरह के विषाक्त भोजन खाकर बच्चे मौत के घाट उतर रहे हैं तो क्या ऐसे में सभी बच्चों को पौष्टिक भोजन मिल पाएगा? खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अध्याय 2 में खाद्य सुरक्षा के लिए उपबंध के अंतर्गत बालकों को पोषणीय सहायता एवं बालक कुपोषण का निवारण और प्रबंधन खंड़ जोड़े गए हैं। बच्चों को मिलने वाले भोजन के पोषण मानक पर नजर डालना अप्रासंगिक नहीं होगा-
पोषण मानकः छह मास से तीन वर्ष के आयु समूह, तीन से छह वर्ष के आयु समूह के बालकों और गर्भवती स्त्रियों और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए पोषण मानक। उपलब्ध कराके या एकीकृत बाल विकास सेवा स्कीम के अनुसार पोषक गर्म पका हुआ भोजन या खाने के लिए तैयार भोजन उपलब्ध कराके पूरे किए जाने अपेक्षित हैं।
क्रम संख्या प्रवर्ग भोजन का प्रकार कैलोरी किलो.कैलोरी प्रोटीन ग्राम
1 बलक ‘6 माह से 3 वर्ष घर ले जाने वाला राशन 500 12-15
2 बालक ‘ 3 से 6 वर्ष’ स्ुबह का नाश्ता और गर्म पका हुआ भोजन 500 12-15
3 बालक 6 मास से 6 वर्ष तक के जो कुपोषित हैं घर ले जाने वाला राशन 800 20-25
4 निम्न प्राथमिक कक्षाएं गर्म पका हुआ भोजन 450 12
5 उच्च प्राथमि कक्षाएं गर्म पका हुआ भोजन 700 20

सरकार इस मानक के जरिए सभी बच्चों को पका हुआ भोजन मुहैया कराने की घोषणा करती है। गौरतलब बात यह है कि उद्देश्यों और कारणो का कथन के क्रम संख्या 7 के ‘घ’ में लिखा गया है कि चैदह वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को 1. छह मास से छह वर्ष की आयु समूह के बालकों की दशा मंे स्थानीय आंगनवाडी के माध्यम से निःशुल्क आयु के अनुसार भोजन उपलब्ध कराने की अपेक्षा जिससे अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषण संबंधी मानकों को पूरा किया जा सके, और 2. कक्षा  8 तक के या छह वर्ष से चैदह वर्ष की आयु समूह के बालकों की दशा में, स्थानीय निकायों या सरकार द्वारा चलाए जा रहे और सरकार से सहायता प्राप्त सभी विद्यालयों में विद्यालय अवकाशों को छोड़कर, प्रत्येक दिन एक बार निःशुल्क दोपहर के भोजन का हकदार बनाना, जिसमें अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषण संबंधी मानकों को पूरा किया जा सके।
अब हमें उस ओर भी विमर्श करने की आवश्यकता है जहां सरकारी दस्तावेज जवाबदेह हैं कि सभी बच्चों को भोजन दिया जाएगा। लेकिन हमने देखा कि सरकार व सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ही वो भी अवकाश के दिन छोड़ कर भोजन मुहैया कराई जाएगी। अब प्रश्न है कि सरकारी स्कूल साल में कितने दिन खुले होते हैं। दिल्ली के दरियागंज स्थित एचएमडीएवी स्कूल के प्रधानाचार्य श्री रमा कान्त तिवारी ने बताया कि  पिछले साल 212 दिन स्कूल खुले थे वहीं इस साल 210 दिन स्कूल खुलेंगे। बतौर तिवारी  6से 8 वीं कक्षा तक के सभी बच्चों को दोपहर का भोजन मिलता है साथ ही आयरन की गोलियां भी मिलती हैं। दिल्ली के अन्य इलाकों के स्कूलों की भी तकरीबन यही स्थिति है। मगर दिल्ली से बाहर अन्य राज्यांे में मिड डे मील की क्या स्थिति है इसे पूरा देश देखता-सहता रहा है। अब प्रश्न उठता है जो बच्चे स्कूल से बाहर है जिनकी संख्या सरकारी घोषणा के अनुसार 80 लाख है, उन्हें क्या यह लाभ मिल पाएगा? स्कूल से बाहर जीवन बसर करने वाले सड़कों, पार्क, प्लाइ ओवर के आस-पास रहने वाले बच्चे यानी भोजन ग्रहण करने से महरूम ही होंगे। लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे देश भर में बजबजाती जिंदगी बसर कर रहे हैं। उन्हें दोपहर तो क्या कई कई दिन भूखे पेट सोना पड़ता है। ऐसे बच्चों की चिंता कौन करेगा।
यूएनसीआरसी 89 के अनुसार सभी बच्चों को सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास और सहभागिता का अधिकार मिला हुआ है। भारत ने भी इस घोषणा पत्र पर दस्तखत किया था। इस वचनबद्धता के अनुसार सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि जो बच्चे स्कूल नहीं जाते उन्हें स्कूल में दाखिल कराना, उन्हें बुनियादी शिक्षा यानी कक्षा 8 वीं तक शिक्षा मुहैया कराना है। इसी कड़ी में आरटीई, जुबिनाइल जस्टिस एक्ट, राष्टीय बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग आदि को देखने-समझने की आवश्यकता है। एक ओर इन समितियों की सिफारिशें हर बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण के साथ ही भोजनादि के अधिकार पर कार्य करता है। आवश्यकता है जिन घोषणा प्रपत्रों पर दस्तखत किए हैं उन्हें अमलीजामा पहनाया जाए।



Friday, December 6, 2013

वो जो कस्बा था



कौशलेंद्र प्रपन्न
 एक ओर सोन और दूसरी ओर नहर। दोनों के बीच में बलखाता कस्बा। तकरीबन तीन ओर नदी और बीच में बसा कस्बा ही था। पड़ोस में चिपनियां थीं जो कागज़, साबुन, डालडा सीमेंट बनाती थीं। जब इस कस्बे का पड़ोसी शहर जवान था यानी डालमियानगर में रौकनें थीं, सड़कें, अस्पतालें, स्कूल आदि थे। साथ ही लोगबाग भी ठीक ठाक ही थे। अस्सी के दशक में कस्बे का पड़ोसी धीरे-धीरे मरने लगा। मरने लगे लोग। उजड़ने लगीं रौनकें। क्योंकि अब डालमियानगर कारखाना की माली हालत खराब होने लगी थी। शुरू में आंशिक और फिर माह, माह से साल हो गए कारखाना बंद हो गया। लोगों में बेचैनी बढ़ने लगीं। कुछ लोग जो दूरगामी दृष्टि रखते थे वो लोग शहर छोड़कर रोजी की तलाश में बाहर चले गए। धीरे-धीरे इस कारखाने में काम करने वाले द्वितीय और तृतीय के साथ चैथी श्रेणी के कामगर जिनके लिए शहर छोड़ना मुश्किल था वो इसी शहर और पड़ोसी कस्बे में दूसरे काम करने पर मजबूर हो गए। किसी के परिवार सब्जी की रेड़ी लगाने लगी तो किसी ने छोटी मोटी दुकानें डाल लीं तो कुछ जो मास्टरी के कौशल रखते थे, उन्होंने टीचिंग शुरू कर दी।
पड़ोस का शहर अब वीरान हो चुका है। वो सड़कें, वो अस्पतालें, मंदिर, बैंक सब के सब अपनी अतीत की दास्तां बयां करती हैं। डालमियानगर से सटा कस्बा डेहरी आॅन सोन जो पहले कह चुका हूं। यह कस्बा दरअसल अपने पड़ोसी की वजह से गुलजार था। यूं तो इस कस्बे का नाम अंग्रेजों ने इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ही रखा डेहरी आॅन सोन। ठीक ही तो है यह डेहरी, सोन नदी के तट पर बसा है। वही शोण भद्र जो मध्य प्रदेश के अमरकंटक पहाड़ से निकल कर बिहार के विभिन्न शहरों को पार करता पटना में गंगा में समाहित हो जाता है। सोनभद्र की कहानी भी दिलचस्प है। यह देश के चार नदों में से एक है। यह नदी नहीं है। दूसरा इसे ब्रह्मा का अभिशाप मिला हुआ है। दूसरी मजे की बात यह कि इसी सोन भद्र के किनारे डेहरी में कभी शरद्चंद ने ठहर कर अपना उपन्यास भी लिखा। इसका जिक्र विष्णु प्रभाकर अपने आवारा मसीहा में करते हैं।
बहरहाल कारखाने के बंद होने से इस कस्बे पर भी ग्रहण लगना शुरू हुआ। जिस कस्बे की गति, रौनक अपने पड़ोसी से थी वो कारखाने के बंद होने के बाद ठहर सी गई। जब डालमियानगर चालू हालत में था तब दिल्ली-कोलकाता लाइन पर चलने वाली डिलक्स अब पूर्वा एक्सप्रेस डेहरी रूका करती थी। जो सीधे-सीधे देश की राजधानी से जुड़ती थी। इधर कारखाना बंद हुआ उधर आस-पास के गांव के लोग इस कस्बे में विस्थापित होने लगे और इस कस्बे के लोग अपनी सुविधा और सामथ्र्य के अनुसार कस्बे को छोड़ने लगे। कभी इस कस्बे की आबादी तकरीबन दो या चार लाख हुआ करती थी। अब उसी कस्बे की आबादी तकरीबन 13 लाख का आकड़ा पार कर चुकी है। लेकिन दुकान, व्यापार और कमाई का कोई व्यावसायिक नियमित स्रोत नहीं है। कैसे यह कस्बा चल रहा है कई बार सोच कर ताज्जुब होता है। लेकिन जहां पहले बाइक, कारें बेहद कम हुआ करती थीं। सड़कों पर मोटर साइकिल गुजरने पर सब की नजरें उस ओर होती थीं। यदि चाहें तो पैदल इस कस्बे का एक चक्कर आप दो से तीन घंटे में काट सकते हैं। लेकिन अब यह चैहद्दी चैड़ी हो चुकी है। लोग सोन की ओर मकान बनाने लगे हैं। जो खुलापन इस शहर को प्रकृति ने दिया था वह अब लोगों के रहने की ललक और प्रोपर्टी सेल के जाल में फसता जा रहा है। इसकी प्राकृतिक छटा अब ज्यादा दिन मुक्त नहीं रह सकती। उस शहर को तब देखा था और अब देखता हूं तो लगता है क्या कोई कस्बा ऐसे भी शहर बनता है? जहां की अपनी पहचान बिकने लगे। जहां के लोग भी दूसरे महानगरों के मानींद अपना मिज़ाज बदल रहे हों तो उस कस्बे को, उसके पुराने लोगों को जी करता है पूछा जाए अपने कस्बे को उसी रूप में ही रहने दो ना। पर क्या यह व्यावहारिक है? उचित है?
भूमंड़लीकरण और आधुनिक माॅल के युग में उनसे इस तरह की चाक- चिक्य से दूर रहना का दुराग्रह कितना जायज है? उन्हें भी हक है कि वो भी अपने कस्बे में नामी गिरामी फास्ट फुड  का लुत्फ उठाएं। माॅल में शाॅपिंग करें और महानगरीय संवेदनशून्यता का जामा ओढ़ लें।
कौशलेंद्र प्रपन्न

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...