हर सुबह अपनी ऊपर वाली जेब में रखता हूँ अपनी तस्वीर और पता...
गर कहीं गम जाएँ तो,
पहचान कर,
साथ ले लेना....
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Saturday, November 27, 2010
शीतकालीन संसद सत्र पर हंगामे की मार
शीतकालीन संसद सत्र पर हंगामा कुछ इस कदर हावी है कि दस दिनों से संसद खामोश है। प्रणवो डा खेद प्रगट कर चुके हैं कि वो इस अवरोध को खत्म करने में विफल रहे हैं। वहीँ मीरा कुमार भी खेद प्रगट कर चुकी हैं।
मालूम हो कि संसद के न चलने में इक दिन का खर्च तक़रीबन ८० लाख रूपये आता है। यदि दस दिन संसद नहीं चला इस का मतलब हुवा जनता की गाढ़ी कमाई पानी में चला गया। मगर सांसदों को इस पर ज़रा भी फिक्रमंद नहीं देख सकते। आपसी संवाद के नाम पर इक दुसरे पर चिताकासी और तंग बयां जारी करते देख सकते हैं।
हमारा देश इतना पैसे वाला नहीं है कि सरकारी खजाने से करोडो रूपये पानी में बहा दे।
गौर तलब हो कि पिछले मानसून सत्र में भी सांसदों की लापरवाही का खामियाजा देश की गरीब जनता भोगत चुकी है। इक रिपोर्ट की माने तो पिछले सत्र में कुल ७ करोड़ ८० लाख रूपये रुकावट की वजह से सरकारी खजाने से व्याय हो चुके हैं।
कितनी श्रम और पसीने बहा कर आम जनता कमाती है जिसकी मेहनत के पैसे यूँ ही बह जाते हैं। लेकिन सांसदों को श्रम भी नहीं आती। उनके वेतन में २०० फीसदी का इजाफा हुवा लेकिन आम जनता के पैसे यूँ ही बह जाये इस पर वो संजीदा नहीं नज़र आते।
मालूम हो कि संसद के न चलने में इक दिन का खर्च तक़रीबन ८० लाख रूपये आता है। यदि दस दिन संसद नहीं चला इस का मतलब हुवा जनता की गाढ़ी कमाई पानी में चला गया। मगर सांसदों को इस पर ज़रा भी फिक्रमंद नहीं देख सकते। आपसी संवाद के नाम पर इक दुसरे पर चिताकासी और तंग बयां जारी करते देख सकते हैं।
हमारा देश इतना पैसे वाला नहीं है कि सरकारी खजाने से करोडो रूपये पानी में बहा दे।
गौर तलब हो कि पिछले मानसून सत्र में भी सांसदों की लापरवाही का खामियाजा देश की गरीब जनता भोगत चुकी है। इक रिपोर्ट की माने तो पिछले सत्र में कुल ७ करोड़ ८० लाख रूपये रुकावट की वजह से सरकारी खजाने से व्याय हो चुके हैं।
कितनी श्रम और पसीने बहा कर आम जनता कमाती है जिसकी मेहनत के पैसे यूँ ही बह जाते हैं। लेकिन सांसदों को श्रम भी नहीं आती। उनके वेतन में २०० फीसदी का इजाफा हुवा लेकिन आम जनता के पैसे यूँ ही बह जाये इस पर वो संजीदा नहीं नज़र आते।
Friday, November 26, 2010
क्या भाषा से नाराज़ हैं
जी हाँ कुछ लोग भाषा से खासे नाराज़ हुवा करते हैं। उनके लिए दूसरी भाषा यानि परहेज़ वाली चीज होती है। मेरा भांजा है कहता है हिंदी में बात करने पर जोर देता है। यदि अंग्रेजी में बोलता हूँ तो कहता है हमारी मत्री भाषा हिंदी है। हिंदी में बात करें। अपनापा लगता है।
उसे समझा कर थक गया कि भाषा की ताकत को समझो , भावना को किनारे कर इस भाषा का धामन थम लो भला होगा। अब तो वह फ़ोन तक नहीं उठाता.....
उसे समझा कर थक गया कि भाषा की ताकत को समझो , भावना को किनारे कर इस भाषा का धामन थम लो भला होगा। अब तो वह फ़ोन तक नहीं उठाता.....
Thursday, November 25, 2010
बिहार की जनता ने निर्माण को चुना
बिहार की जनता ने निर्माण को चुना। आज के बिहार को चाहिए विकास, शिक्षा, और हर हाथ को काम। जो लालू ने नहीं दिया। नितीश सरकार ने वो सब कुछ करने की कोशिश कि जिसकी जरुरत वहां की जनता को थी। यही वजह है कि जनता ने कास्ट को नकार कर विकास का रास्ता चुना।
आमीन
Wednesday, November 24, 2010
आज मगध का होगा आने वाला कल
आज मगध का होगा आने वाला कल , हल ही में चुनावों में जीत के बाद तै होगा मगध का अगला भाग्यविधाता का नाम....
लालू ने बिहार को जिस कदर सवार उस पर रावरी देवी ने अपना रंग डाला। लेकिन बिहार की जनता वहीँ की वहीँ रही। नितीश ने बिहार की जनता में जान फुका। काम किया। जो काम करता है वो खा भी ले तो उतना बुरा नहीं लगता। अब देखना है मगध की जनता किसे अगला मुखिया बनता है।
आमीन
लालू ने बिहार को जिस कदर सवार उस पर रावरी देवी ने अपना रंग डाला। लेकिन बिहार की जनता वहीँ की वहीँ रही। नितीश ने बिहार की जनता में जान फुका। काम किया। जो काम करता है वो खा भी ले तो उतना बुरा नहीं लगता। अब देखना है मगध की जनता किसे अगला मुखिया बनता है।
आमीन
Friday, November 19, 2010
बड़ा कैसे बनते है उनको मालूम है
वो बड़ा हो कर अफसर और बड़ा आदमी होना चाहते हैं। बड़ा आदमी जिसके पास गाड़ी, दफ्तर और पैसे हो। लेकिन ये बच्चे इक अच इंसान भी बनना चाहते हैं। कोने कोने तक आखें देख भर लेने वाली यह भी देखना चाहती है कि बड़े होने के बाद क्या वो चीज है जो उनसे छुट जायेगा। वो पद लिख कर अपने सपने साकार करना चाहते है।
लेकिन स्कूल जाने के लिए न तो कपडे है न ही पावों में पहनने के लिए यैसे में शर्म या कुछ और मज़बूरी में सपने पुरे होने से पहले ही दम तोड़ देते हैं।
लेकिन स्कूल जाने के लिए न तो कपडे है न ही पावों में पहनने के लिए यैसे में शर्म या कुछ और मज़बूरी में सपने पुरे होने से पहले ही दम तोड़ देते हैं।
उनकी आखें, सपने और उड़ान
जी हाँ, सपने आखों में बसते हैं तब नींद नहीं आ सकती। अगर नींद आ गई तो सपने कहीं दूर न हो जाये इसका ख्याल रखना होता है। उनकी आखें भी सपने देखा करते हैं लेकिन वो पुरे नहीं होते। यैसे लाखों चिल्ड्रेन हैं जिन्हें दो जून की रोटी और शिक्षा नसीब नहीं। लेकिन दूसरी और विकास के नाम पर हम खूब दूर तक का सफ़र करते हैं। काश उन नन्ही उँगलियों, पावों को पंख दे सकें तो बेहतर हो।
Tuesday, November 2, 2010
शहर जो यादों में बस्ता है
शहर जो यादों में बस्ता है उसे टा उम्र भूल नहीं पाते। वह शहर हमारे साथ डोलता रहता है। कभी इतना वाचाल हो जाता है कि कुछ न बोल कर भी सब कुछ कह जाता है।
मरने के बाद हमारी इक्षा होती है कि हमारी अंतिम यात्रा अपने शहर में ख़त्म।
मरने के बाद हमारी इक्षा होती है कि हमारी अंतिम यात्रा अपने शहर में ख़त्म।
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