Thursday, January 29, 2015

स्कूली शिक्षा में गुणवत्त की बुनियाद



कौशलेंद्र प्रपन्न
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मांग और अपेक्षा समाज के हर तबकों को है। सामाजिक मंचों और अकादमिक बहसों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को केंद्र में रख कर राष्टीय स्तर पर विमर्श जारी है। यह मंथन इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य वर्ष 31 मार्च 2015 अब ज्यादा दूर नहीं है। गौरतलब है कि इएफए और मिलेनियम डेवलप्मेंट लक्ष्य में भी प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता की बात गंभीरता से रखी गई थी। यदि जमीनी हकीकत का जायजा लें तो जिस किस्म की तस्वीरें उभरती हैं वह चिंता बढ़ाने वाली हैं। निश्चित ही हमारे सरकारी स्कूलों में जिस स्तर की शिक्षा बच्चों को दी जा रही है वह मकूल नहीं है। वह शिक्षा नहीं, बल्कि साक्षरता दर में बढ़ोत्तरी ही करने वाला है। यहां दो तरह की स्थितियों पर ध्यान दिया जाएगा जिसे नजरअंदाज कर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति का नहीं समझा जा सकता। पहला, पूरे देश में एक उस किस्म के सरकारी स्कूल हैं जिनके पास बच्चे, शिक्षक, लैब, लाइब्रेरी आदि सुविधाएं उपलब्ध हैं। हर साल इनके परीक्षा परिणाम भी बेहतर होते हैं। स्कूल की चाहरदीवारी से लेकर पीने का पानी, शौचालय आदि बुनियादी ढांचा हासिल है। दूसरा, वैसे सरकारी स्कूल हैं जहां न तो पर्याप्त कमरे, पीने का पानी, शौचालय, खेल के मैदान, खिड़कियों में शीशी, दरवाजों में किवाड़ हैं और न बच्चों के अनुपात में शिक्षक। ऐसे माहौल में यदि कहीं किसी स्कूल में कुछ अच्छा हो रहा है तो उसे समाज में लाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया जाए। उनकी कोशिशों को सराहा जाए। बजाए कि सिर्फ उनकी बुराई ही समाज के सामने रखें।
स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
दिल्ली में ही नगर निगम और राज्य सरकार की ओर से चलने वाले स्कूलों में झांक कर देखें तो दो छवियां एक साथ दिखाई देती हैं। एक ओर वे स्कूल हैं जिसमें बड़ी ही शिद्दत से शिक्षक/शिक्षिकाएं अपने बच्चों को पढ़ाती हैं। उन स्कूलों में नामांकन के लिए लंबी लाइन लगती है। सिफारिशें आती हैं। हर साल बच्चे विभिन्न प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतते हैं। ऐसा ही एक स्कूल है शालीमार बाग का बी बी ब्लाॅक का नगर निगम प्रतिभा विद्यालय यहां पर जिस तरह से स्कूल को संवारा गया है और बच्चों की शैक्षणिक गति है उसे देखते हुए लगता है कि इन स्कूलों मंे रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम क्यों नहीं जाती। जहां कुछ तो अच्छा हो रहा है लेकिन रिपोर्ट में एकबारगी सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने के लिए ऐसे ही साधनविहीन और खस्ताहाल स्कूलों को चुना जाता है। दूसरे स्कूल वैसे हैं जैसे वजीरपुर जे जे काॅलानी में नगर निगम प्रतिभा विद्यालय जहां स्थानीय असामाजिक तत्वों की आवजाही है। खिड़कियां हैं पर उनमें शीशे नहीं। कक्षों में दरवाजे तक नहीं हैं। पलस्तर न जाने कब हुए होंगे। कक्षाओं में गड्ढ़े हैं। लेकिन उन हालात में भी शिक्षिकाएं पढ़ा रही हैं।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत आने वाले स्कूलों में भी अमूमन एक सी कहानी है। एक ओर ए ब्लाॅक दिलशाद गार्डेन में जहां अच्छे भवन हैं। शिक्षक हैं लेकिन बच्चे कम हैं। वहीं ओल्ड सीमापुरा के उर्दू स्कूल में बच्चों के पास बैठने के लिए टाट पट्टी तक मयस्सर नहीं है। एक एक कमरे में दो तीन सेक्शन के बच्चे बैठते हैं। जहां न रोशनी है और न धूप। यदि कुछ है तो महज अंधेरा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर यानी गुणवत्ता को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता एक ओर शिक्षकों के कंधों पर है तो वहीं दूसरी ओर प्रशासन को भी अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता है।
बेहतर प्रशिक्षक के शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर मोड़ना मुश्किल है। प्रशिक्षक का काम शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया से जोड़ना है। यदि सिर्फ शैक्षिक पौडागोगी यानी प्रविधि पर जोर दिया जाएगा तो वह प्रशिक्षण कार्यशाला भी ज्यादा कारगार नहीं हो सकती। शिक्षक कार्यशालाओं में प्रशिक्षक का चुनाव भी बेहद चुनौतिपूर्ण काम है। यदि एक ही कार्यशाला में दो अलग अलग विचारों और शिक्षण तकनीक बताया जा रहा है तो वह शिक्षकों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है। इसलिए इस बात को भी ध्यान में रखन की आवश्यकता है।

Wednesday, January 14, 2015

बाजार 11 बजे की



कौशलेंद्र प्रपन्न
सोम- बाजार,वीर- बाजार,मंगल- बाजार, बुध-बाजार आदि इस तरह से हर दिन का बाजार दिल्ली के विभिन्न इलाकों मंे लगा करती हैं। इन बाजारों की ख़ासीयत यह है कि इस बाजार में लोग 9-10 बजे के बाद जाना चाहते हैं। जब दिल्ली के बाहर लोग आधी नींद ले चुके होते हैं तब दिल्ली वाले सब्जी-फल आदि लेने निकलते हैं। इतनी देर रात बाजार जाने के कारण स्पष्ट है सब्जियां-फल सस्ती मिला करती हैं। यही कारण है कि बड़ी बड़ी गाडि़यों से उतर कर झोले भर कर पूरे हप्ते की खरीद्दारी करते लोग मिल जाएंगे। इस बाजार का अर्थशास्त्र यह भी है कि जितना देर से जाओ चीजें उतनी ही सस्ती मिलती हैं। दुकानदार को दुकान बढ़ाकर घर जाना होता है इसलिए जो सब्जी 8-9 बजे 40 रुपये की मिलती है वह 11 बजे 15 और 20 रुपये की मिलने गलती है।
गांव देहात में आज भी हप्ते में एक दिन बाजार लगा करता है। नाम बेशक हाट, पीठ हो सकते हैं। उन बाजारों में महिलाएं,बच्चे, बड़े सभी जाते हैं। कपड़े, खाना-पीना, श्रंगार की चीजें भी बिका करती हैं। उत्तराखंड़ में ऐसे बाजारों को पीठ कहा जाता है। याद है जब मैं गुरुकुल कांगड़ी में पढ़ा करता था तब हरिद्वार से पांच किलो मीटर पहले ज्वालापुर और बीएचईएल में पीठ लगा करता था। पहली बार यह शब्द सुना था। जब बाजार गया तो अपने पुराने बाजार की छवि उभरने लगी। बाजार में सारी चीजें इतनी सस्ती थीं कि आम बाजार में उन्हीं चीजों की कीमत कम से कम दुगनी जरूर थीं।
इन बाजारों की आर्थिकी प़़क्ष पर नजर डालें तो पाएंगे कि सामान इसलिए सस्ती मिला करती हैं क्योंकि दुकानदार माल सीधे मंड़ी से उठाया करते हैं। इसमें कोई बिचैलीए भूमिका नहीं होती। हप्ते में एक दिन लगने वाले इस बाजार में क्या नहीं होता। हर वो जरूरत की चीजें मिल जाएंगी जिनके लिए हम लोग माॅल या बड़ी बड़ी दुकानों में जाया करते हैं। खाने- पीने से लेकर पहनने- ओढ़ने, साज-सज्जा, किचन, अचार,बर्तन-बासन सब कुछ। एक ओर छोले भटूरे वालेे की दुकान होती है तो उसी से लगे जलेबी वाला भी खड़ा होता है। किसी की भी दुकान खाली नहीं होती है। सब्जियां सस्ती तो मिलती हैं साथ ही ताजी भी होती हैं।
बाजार तो बाजार ही होती है। यदि बाजार में चाक चिक्य ना हो तो बाजार क्या है। गीत गाने की सीडी,डीवीडी जो अन्य जगह 50-80 रुपये में मिलती हैं यहां पर 10 और 20 रुपये में उपलब्ध होती हैं। चार-पांच फिल्में एक सीडी में मिलती हैं। समग्रता में देखें तो यह बाजार गाड़ी वालों के लिए पैसे बचाने की जगह होती हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर कम आमदनी वाले परिवारों के लिए यह बाजार वरदान के रूप में होती हैं। यह वही बाजार है जिसमें हमारे घरों में काम करने वाली रूबी, अनीता, रानी जाती हैं वहीं उन्हें घरों के मालिक भी जाया करते हैं। जब दोनों आमने सामने पड़ते हैं तो स्थिति अजीब हो जाती है। रूबी बोलती है आप भी यहीं से चीजें खरीदती हैं? यानी उस वर्ग के लिए तो यह बाजार सहज है लेकिन दूसरे वर्ग बाबुओं के लिए उनके स्तर और नाक की दृष्टि से उनकी नजरों में नहीं जंचता।
अमीर हो या गरीब हर व्यक्ति चीजें सस्ती में ही खरीदना चाहता है। पैसे बचाना कौन नहीं चाहता। यही वजह है कि दिल्लीवासी सोने के समय में कटौती कर साप्ताहिक बाजार में जाया करते हैं। लंबी लंबी महंगी गाडि़यों से उतर कर सब्जी-फल की दुकान में मोल भाव करते लोग नजर आए जाएंगे। कभी प्रोफेसर, बैक मैनेजर, पत्रकार,बिजनेसमैन सभी इस बाजार में नियमित खरीद्दार होते हैं। कुछ ऐसे भी अवसर आते हैं जब हम अपने पड़ोसी से भी इसी बाजार में मिला करते हैं। यह बाजार वही स्थान है जहां लड़के-लड़कियां भी नजरे बचा कर मिलती हैं। माॅल में मिलना जिनकी पहंुच से बाहर है वो लोग इस बाजार में मिलते हैं। यह बाजार अपनी पूरी उमंग पर तब होती है जब रात 10 बजते हैं।
हप्ते के हप्ते के लगने वाले इस बाजार में गरीबों के घर अच्छे से चलते हैं। साथ ही दूसरे वर्ग के लोगों के लिए चीजें सस्ती हो लगती हैं। बाजार का अपना चरित्र और प्रकृति होती है। बाजार में हर वर्ग के लिए चीजें उपलब्ध होती हैं। हर व्यक्ति की जरूरत की चीजें उसकी जेब के हिसाब के उपलब्ध होती हैं। यही बाजार दर्शन यहां इन बाजारों में भी देखने को मिलता है। जब इस बाजार में हर चीजें उपलब्ध हैं तो क्यों एक समाज के एक बड़ा तबका माॅलों, महंगी दुकानों में खरीद्दारी किया करता है। क्योंकि उन्हें अपनी हैसीयत, रूतबा बड़े- बड़े नामी- गिरामी ब्रांड के कपड़ों, जूतों,पहनावे आदि से दिखानी होती है। वह इन बाजारों में खरीद्दारी करना अपनी तौहीन समझते हैं। उन्हें लगता है इस तरह के बाजार में मजदूर एवं मध्यम वर्ग के लोग आया करते हैं।
मार्केट ऐट 11 दरअसल समाज के बड़े वर्गों के लिए लाभप्रद है। जहां कम से कम मौसमी सब्जियां-फल आदि खरीद सकते हैं। अपने बच्चों के शौक भी इस बाजार में पूरे होते हैं। नए नए पहनावे, चश्में,खाना-पीना,प्रसाधन के अन्य सामान जेब की सीमा में मिल जाते हैं। जिस तरह से गली-मुहल्लों, काॅलोनियों में जेनरल स्टोर खुल रहे हैं वहां की भीड़ बिल्कुल अलग है। यह बाजार कभी बंद नहीं होने वाले क्योंकि यह बाजार आम जनता के लिए, आम जनता के द्वारा संचालित होता है।


Monday, January 12, 2015

नई राष्टीय शिक्षा नीतिः एक और प्रहार



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा समितिओं और आयोगों की सिफारिशों और नीतियों को समय समय पर पुनरीक्षा से गुजारा गया है। वह 1964-66 का कोठारी आयोग हो, 1968 की राष्टीय शिक्षा आयोग हो या 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति। सन् 1990-1992 में आचार्य राममूर्ति पुनरीक्षा समिति बनाई गई थी जिसका मकसद था 1986 की नीतियों को आज के संदर्भ में पुनर्मूल्यांकन किया जाए और आवश्यकतानुसार सुझाव दिए जाएं। एक बार फिर राष्टीय शिक्षा नीति को पुनरीक्षा और पुनर्गठन के दौर से गुजरने का मौका आया है। मानव संसाधन विकास मंत्री ने पिछले साल ही घोषणा की थी कि 2015 में नई राष्टीय शिक्षा नीति देश भर में लागू की जाएगी। इस बाबत राज्य के शिक्षा मंत्रियों और शिक्षाविद्ों, समाज के विभिन्न धड़ों से बातचीत की जाएगी। गौरतलब हो कि जब जब सत्ता में हिन्दूत्वहावी सरकार आई है उसने अपने तरीके से शिक्षा को बदलने का प्रयास किया है। न केवल एक दल बल्कि अन्य वैचारिक दलों की सरकारों ने भी शिक्षा को अपने वैचारिक प्रसार प्रचार के लिए इस्तमाल किया है। 2000 में राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 तैयार हो कर देश भर में लागू हुआ तो जिस तरह से पाठ्यचर्या को बुना गया था उसी तर्ज पर पाठ्यपुस्तकें बनाई गईं। प्रेमचंद की कहानी को मृदुला सिन्हा की कहानी से पुनस्र्थापित किया गया। इतना नहीं बल्कि भाषा, इतिहास, विज्ञान की धार को तेज करने की बजाए कुंद ही किया गया। शिक्षा नई सोच और सृजनात्मकता को बढ़ावा देने का काम करती है। शिक्षा दरअसल इतिहास को पढ़ने और अतीत की गलतियों को सुधारने की समझ भी पैदा करती है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज जिस नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की बात की जा रही है। उसके उद्देश्यों से हमें असहमति का अधिकार है। क्योंकि इस नई नीति के जड़ में आरएसएस की विचारधारा और पूर्वग्रह स्पष्ट दिखाई देते हैं। जहां माना जा रहा है कि भारतीयों को भारतीयता से हटा कर पश्चिमवादी विचारधारा पढ़ाई जा रही है, जिससे उनमें पाश्चात्य जीवन मूल्य का प्रसार हो रहा है। इसलिए आवश्यक है कि नई पीढ़ी को भारतीय शिक्षा दी जाए, उंची कक्षाओं में भी उन्हें अंग्रेजी के बाजए हिन्दी माध्यम से पढ़ाया जाए और संस्कृत को अनिवार्य बना दिया जाए।
योग गुरु रामदेव नई सरकार के सलाहकार भी हैं उन्होंने शिक्षा पाठ्यक्रम का एक दस्तावेज सरकार को सौंपा है। इसमें प्रमुखता से संघ और हिन्दुत्व विचारधारा को पोषित किया गया है। वहीं दीनानाथ बत्रा की लिखी किताब ‘ तेजोमय भारत’ गुजरात के तकरीबन 42 हजार सरकारी स्कूलों में पढ़ाए जा रहे हैं। उस किताब के कुछ अंशों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे किस तरह की शिक्षा देने पर उतारू हैं-
‘‘अमेरिका स्टेम सेल अनुसंधान का के आविष्कार का श्रेय लेना चाहता है, पर सच यह है कि भारत के डाॅ बालकृष्ण गणपत मातापुरकर को पहले ही शरीर के अंगों का फिर से निर्माण करने के पेटेंट मिल चुका है...तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह अनुसंधान नया नहीं है और डाॅ मातापुरकर को इसकी प्रेरणा महाभारत से मिली थी। कंुती का सूर्य के समान तेजस्वी एक पुत्र था।’’ अजेय कुमार, 12.12.2014 जनसत्ता
पाठ्यपुस्तकों में इस्तमाल किए गए शब्दों को निकाल बाहर करने के बाबत दीनानाथ बत्रा ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को ज्ञापन सौंपा है जिसमें उर्दू, फारसी,अंगे्रजी के शब्दों को पाठ्यपुस्तकों से बाहर निकालने की वकालत की गई है। इन शब्दों में दोस्त, शरारत, खबरदार, गायब, गुस्सा,मौका आदि शामिल हैं। इन शब्दों को बाहर करने के पीछे तर्क दिया गया कि इन शब्दों से हिन्दी खराब होती है। जरा शैक्षिक दर्शन और शिक्षा शास्त्र की दृष्टि से इन तर्कों पर विचार करें तो यह हास्यास्पद से ज्यादा नहीं लगता। जबकि भाषाविदों और शिक्षा शास्त्रियों की मानें तो हिन्दी व अन्य भाषााओं को उर्दू, फारसी, बोलियां खराब करने की बजाए समृद्ध ही करती है। यदि हिन्दी से उक्त शब्दों व बोली भाषाओं को निकाल बाहर किया जाए तो वह र्हिन्दी कैसी होगी इसके अनुमान मात्र से ही डर लगता है।
नई राष्टीय शिक्षा नीति किन किन बिंदुओं पर प्रहार करने वाली है इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। शिक्षा की बुनियाद मानी जाने वाली भाषा नीतियों, इतिहास, विज्ञान और समाज शास्त्र आदि पर इन बदलावों के तलवार चलने वाले हैं। संभव है आगामी शिक्षा नीति में हिन्दी उर्दू विहीन, अंग्रेजी के कटी, बोलियों से बेदखल होगी जहां हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ शब्दावलियां होंगी। और उस हिन्दी में प्रेमचंद का कोई स्थान नहीं होगा। क्योंकि प्रेमचंद को काफी समय तक हिन्दी में नहीं लिख रहे थे। वे तो उर्दू में लिखा करते थे। सो प्रेमचंद हिन्दी के लेखक न रहें। साथ ही गंगा-जमुनी संस्कृति यानी हिन्दी उर्दू की साझा जबान को घातक साबित कर उर्दू को हाशिए पर धकेेल दिया जाए।
संस्कृत शिक्षण को लेकर पिछले साल विवाद का जन्म हो चुका है। जर्मन की जगह केंद्रीय विद्यालयों में आगामी शैक्षिक सत्र में संस्कृत को पढ़ाने का निर्णय लिया जा चुका है। इसके साथ ही हिन्दी की शुद्धता के तर्क तले भाषा दर्शन का गला दबा दिया जाए इसकी भी पूरी संभावना नजर आती है। नई शिक्षा नीतियों में जिन मूल्यों, नैतिकता और जीवन मूल्यों को शामिल किया जाएगा उसमें नहीं लगता है वैज्ञानिक सोच के लिए कोई स्थान होगा। ऐसा भी नहीं लगता है कि तैयार होने वाली नई शिक्षा नीति त्रिभाषा सूत्र की आत्मा को बचा पाए।
इसकी एक बानगी देख सकते हैं- जिन लोगों ने खास विचार धारा के प्रसार में अपना हाथ खींेच लिया उन्हें उनके पद से ही हटा दिया गया। मसलन एनसीइआरटी ने निदेशक प्रवीण सिनक्लेयर को इसलिए हटा दिया गया क्योंकि वे 2005 के राष्टीय पाठ्यचर्या को जारी रखना चाहते थे। वहीं राजस्थान विश्वविद्यालय के उपकुलपति को भी पद से हाथ धोना पड़ा। इतना ही नहीं अपने एजेंडे को लागू कराने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में ऐसा कुलपति नियुक्त किया गया जो हिन्दुआइजेशन आॅफ एजूकेशन में भाग ले सके।


Saturday, January 10, 2015

पूर्वी दिल्ली नगर निगम स्कूल निरीक्षक और शिक्षा निदेशक


पूर्वी दिल्ली नगर निगम के शिक्षा निदेशक श्री के विजयन ने कहा ‘‘ यह एक ऐसा संयोग है जहां एक मंच पर स्कूली निरीक्षक, शिक्षा निदेशक, उप शिक्षा निदेशक एवं शिक्षा विभाग के अन्य अधिकारी एक साथ मिल रहे हैं और अपनी अकादमिक और प्रशासनिक अड़चनों पर विमर्श कर रहे हैं।’’ संभवतः पहली बार स्कूल निरीक्षक के लिए प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन टेक महिन्द्रा फाउंडेशन एवं पूर्वी दिल्ली नगर निगम के साझा प्रयास से 6 से 8 जनवरी के बीच संपन्न हुआ। लंबे अरसे से स्कूल निरीक्षक के लिए प्रशिक्षण कार्यशाला की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। अंततः दक्षिणी एवं उत्तरी शहादरा के विभिन्न स्कूल निरीक्षकों से उनकी आवश्यकता एवं प्रमुख परेशानियों को रेखांकित करते हुए कार्यशाला का आयोजन किया गया।
इस कार्यशाला में पहले दिन 14 स्कूल निरीक्षक उपस्थिति थे। वहीं स्कूल निरीक्षक के अलावा शिक्षा उप निदेशक, सहायक शिक्षा निदेशक, आदि उपस्थित थे। वहीं कैवल्या गैर सरकारी संस्था के श्री विपुल कुमार और शौकत भी उपस्थित थे। कौशलेंद्र प्रपन्न ने पहले दिन शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के राजनीतिक, सामाजिक और रणनीतिक दबावों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं पर विमर्श किया।

Friday, January 9, 2015

भाषा और बोली के मरने की ख़बर


भाषा और बोली के मरने की ख़बर हर किसी को है। हर कोई भाषा बोली को मरते अपने सामने देख रहा है। देख रहा है कि किस तरह से मातृभाषा को शिक्षा-शिक्षण की मुख्य धारा से काट कर बच्चों को एक दूसरी भाषा सीखने पर जोर बनाया जा रहा है। हर अभिभावक चाहते हैं कि उसका बच्चा अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी जरूर बोलना, लिखना और पढ़ना सीख लें। अंग्रेजी के बगैर उसके लाल का भविष्य गोया अंधकारमय है। यदि अंग्रेजी नहीं सीखी तो उसकी जिंदगी बेकार है। ऐसी धारणाएं आम हैं। साथ यह भी आम है कि विदेशी भाषा के नाम पर हमारे जेहन में यदि किसी ताकतवर भाषा की छवि उभरती है तो वह अंग्रेजी ही है। हम अपने बच्चों पर इस गैर मातृभाषा सीखने के लिए कितना और किस कदर दबाव बनाते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। बच्चे की सहज अभिव्यक्ति-क्षमता, सृजनशीलता और कुछ नया सोचने की बीज बचपन में ही जल जाती है। मौलिक चिंतन और भाषीय छटा के बीज को अभिभावक, समाज और अंत में शिक्षा व्यवस्था ही मट्ठा देती है। तुर्रा यह कि हमारे बच्चे मातृभाषा नहीं बोलते। हमारे बच्चे अपनी भाषा से कट रहे हैं। यह कितना बड़ा अन्याय है कि पहले हम बच्चों से उनकी स्वभाविक भाषा-बोली अलग करते हैं और फिर दोष का ठीकरा भी उन्हीं पर फोड़ते हैं। दरअसल हमें भाषा-बोली के मरने और शिक्षा की मुख्यधारा में उसकी हैसीयत को पहचानना होगा।

Thursday, January 8, 2015

नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण- काम जारी है


सुनने में आया है कि नई राष्टीय शिक्षा नीति बनाने की तैयारी शुरू हो चुकी है। संभव है जिस तरह से उर्दू, फारसी, एवं गैर हिन्दी शब्दों को पाठ्यपुस्तकों से बाहर करने की वकालत की जा रही है उसी तर्ज पर यह एनपीई भी तैयार होने वाला है?

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...