Thursday, January 27, 2011

भाषा के लिए क्या करोगे मुन्ना


कौशलेन्द्र प्रपन्ना
भाषा हमारे बीच रह कर जो काम करती है उससे हम जिंदगी भर उबर नहीं पाते। बचपन में जिस भाषा- बोली से हमारा वास्ता पड़ता है उसी की बदौलत हम ताउम्र अपनी भावनाओं, विचारों, प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता को प्रकट करते हैं। लेकिन ताज्जुब तब होता है जब हम उसी भाषा की उपेक्षा करने लगते हैं। भाषा के साथ की उपेक्षा दरअसल महज भाषा तक ही सीमित नहीं रह पाती, बल्कि वह हमारी सांस्कृतिक धरोहर, परंपराओं तक संक्रमित होती है। इस बात से किसे गुरेज होगा कि हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। जिसके मार्फत वह अपने साथ समाज की तमाम परिवर्तनों को बदलते संस्कार और संस्कृति के साथ अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करती है। जब एक भाषा हमारे बीच से उठ जाती है तो उसके साथ चलने वाली अन्य उपधाराएं भी उसके संग लुप्त हो जाती हैं। तकनीक विकास के साथ हमारी बोली वाणी में भी बदलाव आए हैं। यूं तो भाषा वर्तमान युगीन चुनौतियों, मांगों के हिसाब से बदलती रही हैं। लेकिन उसके इस बदलाव को दो स्तरों पर देख सकते हंै। पहला, आंतरिक स्तर पर जो निरंतर चलती रहती है। यह हमें स्थूल आंखों से दिखाई नहीं देती। दूसरा, बाहरी स्तर पर होने वाले परिवर्तनों को हम सभी महसूस करते हैं। किसी दूसरी भाषा के साथ शब्दों, बिंबों, उपमाओं एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर जब भाषा आपस में आवाजाही करती है उसे बाहरी बदलाव कह सकते हैं। भाषा को सीखने के साथ दो बातें हो सकती हैं। पहला, जब हम अपनी मातृ भाषा से ऐतर कोई दूसरी भाषा सीखते हैं तब हमारी पहली भाषा सहायक तो होती है लेकिन साथ ही संभावना इसकी भी बनती है कि वो दूसरी भाषा को सीखने में बाधा पैदा करे। ऐसे में अपनी पहली भाषा पर बंदिश लगानी पड़ती है। जब कोई गैर अंग्रेजी भाषी अंग्रेजी सीखता है उस दौरान वह अनुवाद का सहारा लेता है। पहले वाली भाषा में सोचना फिर उसे टारगेट भाषा में अनुवाद करता है। इस प्रक्रिया में वह पहली भाषा के व्याकरणिक परिपाटी से खासे प्रभावित होता है। जबकि हर भाषा की अपनी तमीज़ और व्याकरणिक पद्धति होती है। इसलिए टारगेट भाषा को सीखते वक्त स्वतंत्र रूप से उस भाषा को सीखना बेहतर होता है। दूसरा, जिस भाषा को हम अपनी मां एवं परिवेश से बिना किसी अतिरिक्त श्रम के हासिल करते चलते हैं उसके साथ उपरोक्त सिद्धांत नहीं चलते। क्योंकि मातृ भाषा को सीखने की प्रक्रिया में पहले हम बोलने, सुनने के गुर सीखते हैं। लिखने-पढ़ने के कौशल तो स्कूल व बड़े होने पर व्यवस्थित रूप से सीखते हैं। उपरोक्त दोनों ही भाषाओं के सीखने में बुनियादी अंतर यह है कि दूसरी भाषा के साथ हमें ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता। क्योंकि भाषा की बारिकियां हम व्यवहार से सीखते हैं। इसलिए लिंग, वचन, कर्ता, कर्म आदि व्याकरणिक स्तर हमें व्यवहार से आ जाती हंै। लेकिन यहां एक बड़ी गड़बड़ी यह होती है कि यदि उस भाषा व बोली में उच्चारण, लिंग आदि के प्रयोग में लोग गलतियां करते हों तो वही गलती हमारे संग हो लेती है। भाषा की इस तरह से बुनियादी गलतियां ताउम्र सालती हैं। भाषा सीखने की सत्ववादियों और परिवेशवादियों की मान्यताओं की मानें तो हर बच्चा भाषा सीखने की अपनी विशिष्ट क्षमता लेकर पैदा होता है, पर उसकी इस क्षमता के निर्धारण में उसकी वर्तमान जीवन की परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी पीढ़ियों के भाषा संस्कार भी शामिल रहते हैं। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया में प्रायः पीढ़ियों का समय लग जाता है, यह मामला पैसा उपलब्ध होने पर अमीर बस्ती में घर किराए पर लेने जैसा सहज नहीं है, क्योंकि इसके लिए अपना सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश भी बदलना पड़ता, जिसकी प्रक्रिया अपनी गति और मर्जी से चलती है। भाषा को बरतने में जिस तरह की गलतियों की संभावना होती है वह व्याकरणिक होती हैं। जिसके तहत उच्चारण, हिज़्जे, विभिन्न वणों मसलन उष्ण वर्ण, महाप्राण वर्ण आदि के शब्दों को बोलते एवं लिखते वक्त जिस प्रकार की सावधानी की जरूरत होती है उसकी कमी साफ देखी जा सकती है। इसके लिए अध्यापक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जब खुद अध्यापक की वर्तनी अशुद्ध होगी, उच्चारण में जिसे दीर्घ, लघु के नाम से जानते हैं। इसे ‘आम बोल चाल में छोटी ‘इ’ और बड़ी ई की मात्रा के नाम से पुकारते हैं’ और अनुनासिक, अनुस्वार में अंतर नहीं कर पाते। जिनके उच्चारण में ड, ड़, र, ल, ऋ, ष्, श, और स में फ़र्क नहीं देख सकते। ऐसे में बच्चे मास्टर जी के लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बोलने पर हंसी उड़ाते हैं। बच्चों को शुद्ध उच्चारण की उम्मीद अपने घर में मां-बाप एवं अन्य सदस्यों से करना पड़ता है। यह एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा की शुद्धता, मानकता भाषा के लिए कितना जरूरी है। इस बाबत आम धारणा यह बनी हुई है कि यदि बोलने वाले की बात, भाव समझ में आ गए फिर उसने गलत उच्चारण किया या लिंग दोष से मुक्त था या नहीं यह ज्यादा मायने नहीं रखता। भाषा का मकसद यही है कि वह बोलने वाले को अपने विचार, भावनाओं को प्रकट करने में मददगार हो। लेकिन भाषा की शुद्धता को लेकर भी तर्क दिए जाते रहे हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। भाषा की शुद्धता अशुद्धता के इन तर्कों से परे यदि विचार कर सकें तो वह यह हो सकता है कि भाषा में वैविध्यता एवं विभिन्न बोलियों, उपबोलियों की छटाएं तो हों लेकिन साथ ही यदि भाषा को एक मानकीकृत रूप नहीं देंगे तो ऐसे में एक दूसरी समस्या भी समानांतर खड़ी हो सकती है। वह समस्या लेखन से लेकर उच्चारण एवं पठ्न- पाठन में अर्थ की दृष्टि से उलझने पैदा करेंगी। किसी भी भाषा में शब्दों के उच्चारण का खासा महत्व होता है। यदि स्वर व व्यंजन वर्णों का उच्चारण शुद्ध न किया जाए तो लिखने, बोलने, सुनने एवं पढ़ने के स्तर पर समस्या पैदा हो सकती है। भाषा की परिभाषा में हम पढ़ते आए हैं कि भाषा के जरिए हम अपने विचारों, भावों आदि को अभिव्यक्त करते हैं। यदि बोलने वाला शब्दों का सही उच्चारण नहीं करता तो उसकी भावाभिव्यक्ति में बाधा पैदा हो सकती है। यह अलग बात है कि ऐसे में सुनने वाला आशय समझने के लिए भाषा के वाचिक स्वरूप के अलावा अन्य रूपों का सहारा लेगा जिसमें आंगिक, प्रतीक, संकेत आदि आते हैं। संस्कृत साहित्य में कहा गया है, ‘एको शब्दः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक भवति’ इसका मतलब है एक शब्द का सही समुचित प्रयोग स्वर्ग तुल्य खुशी देता है। वहीं दूसरी ओर शब्द को ‘शब्द इव ब्रह्मः’ शब्द को ब्रह्म माना गया है। वहीं शब्द को नादब्रह्म भी माना जाता है।

लापता होते बच्चे कौन है फिक्रमंद

-कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रपन्नएक जनवरी 2011 में पिछले 22 दिनों के अंदर अकेली दिल्ली से 120 बच्चे गायब हो चुके हैं। एक अनुमान के अनुसार हर दिन पांच बच्चे लापता हो रहे हैं। लापता होने वाले इन बच्चों की आयु 4 से 16 साल की है। एक ओर दिल्ली से गुम होने वाले बच्चों की संख्या 2009 में 2,503 थी। दूसरी ओर 2010 में लापता होने वाले बच्चों की संख्या 2,500 से ज्यादा है। उस पर ताज्जुब तो तब होता है जब दिल्ली पुलिस इस बाबत मानती है कि इन बच्चों को पकड़ने व उठाकर ले जाने वाले गिरोह के होने की बात से इंकार करती हैं। लेकिन एक गैर सरकारी स्वयं सेवी संस्था का मानना है कि दिल्ली से बच्चों को उठाकर भीख मांगने, बाल-मजदूरी, वैश्यावृत्ति, व अन्य गैरकानूनी कामों में लगा दिया जाता है। लापता होने वाले इन बच्चों की पारिवारिक पृष्टभूमि पर नजर डालें तो पाएंगे कि गायब होने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवार के हैं। अमूमन इनके मां-बाप के बीच मारपीट, लड़ाई-झगड़ा आदि बेहद ही आम घटना है इससे निजात पाने के लिए भी बच्चे शुरू में तो घर से भाग जाते हैं। लेकिन उनमें से कुछ बच्चे कुछ महीने बाद लौट भी आते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने बड़े स्तर पर बच्चों की चोरी हो रही है, लेकिन प्रशासन की ओर मजबूत और सार्थक कदम नहीं उठाए गए। जिसका परिणाम यह है कि हर साल गुम होते बच्चों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। जाहिर सी बात है कि उन बच्चों को किसने उठाया? वो कौन लोग हैं? क्या इसी तरह बच्चे लापता होते रहेंगे? इसे रोकने के लिए कौन सामने आएगा आदि सवाल खड़े होते हैं। लेकिन इन सवालों का जवाब मिलना बाकी है। अव्वल तो बड़ों के बीच बच्चों की उपस्थिति एक गैर जरूरी, नादान की ही होती है। खासकर बड़ों का रवैया इन बच्चों के साथ सौहार्दपूर्ण नहीं कहा जा सकता। हमारी दृष्टि पूर्वग्रहों पर तैयार होती है। हम मान कर चलते हैं कि बच्चों की दुनिया हम बड़ों की दुनिया से बिल्कुल अलग और उपेक्षणीय है। इसलिए हर साल जब तमाम क्षेत्रों की उपलब्धियों, लाभ-हानि, महत्वपूर्ण घटनाओं की समीक्षा प्रिंट और न्यूज चैनलों पर आखिरी हप्ते में होती हंै। तब अख़बारों में विस्तार से कथा-कहानी, उपन्यास, कविता, अलोचना आदि में कौन- सी किताब, व्यक्ति आदि चर्चा में रहे, पर समीक्षाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन बड़ी ही ताज्जुब के साथ कहना पड़ता है कि यदि कोई यह जानना चाहे कि बच्चों के लिए कौन- सी किताबें आई? बाल कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि के बारे में मुकम्मल जानकारी नहीं मिल पातीं। एक तो बाल साहित्य पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है। उस पर बाल साहित्य के नाम पर क्या कुछ लिखे जा रहे हैं, इसपर कौन ध्यान देता है। हम फिल्मों की डीवीडी, सीडी खरीदने में देर नहीं करते। लेकिन जब किताब खरीदने की बात आती है तब बचत करने का ख्याल मन में आता है। हैरी पोट्टर की सीरीज खरीदने में हम नहीं हिचकिचाते, लेकिन जब हिंदी में प्रकाशित बाल-पत्रिका या बाल कहानी की किताब खरीदने की बारी आती है तब हम हजार बार सोचते हैं।बच्चे और बाल-साहित्य दोनों ही बड़ों की दुनिया के लिए कोई ख़ास मायने नहीं रखते। कुछ तारीखों को निकाल दें तो पूरे साल बच्चे समाज के संज्ञान में नहीं आते। बाल-दिवस, पंद्रह-अगस्त एवं गणतंत्र-दिवस आदि कुछ खास अवसरों पर मुख्य अतिथि के आने की प्रतीक्षा में बेहोश होकर गिरते बच्चों को देख सकते हैं। इन खास दिनों को यदि साल के कैलेंडर से निकाल दें तो बच्चे किसी बड़े राजनेता के आगमन पर नृत्य- गान एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते नजर आते हैं। लेकिन इन बच्चों को बड़ों की दुनिया में वह महत्व आज तक नहीं मिल सका है। पिछले साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन एवं सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक से अस्सी लाख से भी ज्यादा बच्चे महरूम हैं। हालांकि, सरकार की ओर से इन बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हो चुका है। साथ ही कई स्तरों पर परियोजनाएं भी चल रही हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाली बाल किताबों पर एक सरसरी निगाह डालें तो उसमें हमें भाषायी वर्चस्व एवं खास वर्ग विभाजन भी मिलेगा। एक ओर हिंदी में प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिकाओं एवं किताबों को देखें तो उसकी छपाई, चित्र, रेखांकन, कथ्य आदि अभी भी बेहद पारंपरिक ही मिलेंगी। जबकि बच्चों की किताबें मनमोहक, रंगीन, बड़े बड़े चित्रों वाले होने चाहिए। बाल किताबों में किस प्रकार के चित्र, रेखांकन आदि कितनी मात्रा में हो यह इस पर निर्भर करता है कि वह किताब किस आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रख कर लिखा गया है। यदि हम 1 से 6 साल के बच्चों की किताब की बात करें तो इन किताबों में शब्दों की संख्या कम और चित्र यानी दृश्य ज्यादा होने चाहिए। क्योंकि इस अवस्था में बच्चे लिखित शब्दों को पहचानना शुरू ही करते हैं। यदि शब्दों की मात्रा ज्यादा होगी तो बच्चों को पढ़ने में मुश्किलें आती हैं। इसलिए सामान्यतौर पर देखा जाता है कि बच्चे अपने से बड़ों से पढ़कर कहानी सुनाने को कहते हैं। यदि शब्द से ज्यादा दृश्यों के माध्यम से कहानी चल रही है तो ऐसे में बच्चे चित्रों को पहचानते हुए कहानी का आनंद खुद उठा सकते हैं। इस उम्र के लिए कहानी लिखते वक्त इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि जीव-जंतुओं, प्राकृतिक दृश्यों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जाए। ताकि बच्चे आसानी से अपने परिवेश से जुड़ सकें। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके लिए कहानियां ऐसी हों कि उसमें वो खुद भी संवाद रचने का आनंद उठा सकें। यह तभी संभव होगा जब कहानी के बीच-बीच में लेखक बच्चों को सिरजने का मौका भी उपलब्ध कराए। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों से बातचीत के दौरान पाया कि बच्चों को किताब में छपी कहानियों से ज्यादा वैसी कहानियां ज्यादा पसंद आती हैं जो विभिन्न भाव- भगिमाओं पर आधारित हों। यदि हिंदी और अंग्रेजी में छपी कहानी की किताबों की गुणवत्ता पर नजर डालें तो एक तरफ हिंदी में प्रकाशित कहानियों की किताबों के कागज़ की गुणवत्ता, छपाई, पिक्चर आदि की दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं होती। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी में बेहतर पिक्चर, कागज, छपाई आदि बच्चों को अपनी ओर खीचती हैं।बच्चों को किस तरह की कहानियां पसंद हैं, इसे हम दरकिनार कर नहीं चल सकते। अमूमन साहित्यकार अपनी रूचि, पसंद नापसंद आदि से प्रेरित होकर नैतिकता, मूल्यादि से बोझिल कथा-कहानियां लिखते हैं। क्या कथा-कहानी सुनने-सुनाने या पढ़ने-पढ़ाने के पीछे एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि किस तरह बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में नैतिका का पाठ ठूंसा जाए। या कि उद्देश्य यह भी हो सकता है कि कहानियां पढ़ते वक्त बच्चे अपने परिवेश की भाषा-बोली, रहन- सहन, खान-पान आदि के बारे में भी जान सकें। गौरतलब है कि हर भाषा में प्रौढ़ पाठकों के लिए खूब लिखी जाती हैं। और उन्हें पाठक भी मिलते हैं। पाठकों की कमी का रोना जितना हिंदी लेखकों की ओर सुनाई पड़ती है उतनी अंग्रेजी भाषा के लेखकों के बीच नहीं। यदि तिलस्म, जादू टोने वाली कथानक पर आधारित हैरी पोटर लिखी जा सकती है तो हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं। भारतीय कथा-साहित्य में वृहदकथा, पंचतंत्र, बेताल पचीसी कुछ ऐसी कथानकें हैं जिन्हें यदि आज के परिवेश की चुनौतियों, बदले हुए माहौल में पुनर्सृजित किया जाए तो उसका एक अलग प्रभाव एवं महत्व होगा। यदि छोटे बच्चों के लिए उपलब्ध कहानियों की किताब पर नजर डालें तो पाएंगे कि उसमें कहीं न कहीं पूर्वग्रह कई स्तरों पर साफतौर पर देखा जा सकता है। वह पूर्वग्रह जाति, लिंग, वर्ण आदि से जुड़ी होती हैं। जरा कल्पना कर सकते हैं कि जब बच्चों के कोमल मन में फांक पैदा किया जाएगा तब ऐसे बच्चों की युवापीढ़ी से किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है। मसलन लड़का, लड़की, ब्राम्हण, गांव, शहर के लोगों के रहन सहन से जुड़ी मान्यताओं को कहानियों में खत्म करने की बजाए उन्हें आगे की पीढ़ी में प्रेषित किया जाता है। आज भी कुछ कहानियां वही की वही हैं जिसे हमारी और उससे पहले वाली पीढ़ी भी पढ़कर जवान हुई वहीं हमारे समाने जवान हो रहे बच्चे भी उसी कहानी से रस ले रहे हैं। प्यासा कौए की कहानी, पंचतंत्र की खरगोश-कछुए की दौड़, लालची पंड़ित आदि की कहानियां आज भी पढ़ी जा रही हैं। लेकिन इन कहानियों से आज की चुनौतियों, परिवेशगत समझ, प्रतियोगी समाज में बच्चे को निर्णय लेने में मददगार नहीं हो पाते। इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कहानियों के देश- काल, संस्कृति, बोली-वाणी आदि का स्वाद बच्चों को मिलता रहे। यह तभी संभव हो सकता है जब कथाकार आज के देश काल, चलन, परिवेशगत बदलाओं के बारे में कहानी के माध्यम से बच्चों को मानसिकतौर से तैयार करने की जिम्मेदारी समझे। तकनीक-प्रौद्योगिकी संयंत्रों ने जिस कदर हमारी रोजदिन की गतिविधियों को प्रभावित कर रहा है ऐसे में किसी के पास इतना समय नहीं है कि बच्चों को पर्याप्त समय दे सकें। घर पर जब अभिभावक बच्चों को समय नहीं देते। स्कूल में अध्यापक की अपनी मजबूरी है कि एक साथ चालीस पचास बच्चों की क्लास में हर बच्चे पर व्यक्तिगततौर पर ध्यान दे सके। इस तरह से बच्चों से कौन संवाद करता है? जाहिर सी बात है घर पड़ी टीवी, इंटरनेट से लैस कम्प्यूटर, वीडियो गेम्स आदि बच्चों को खालीपन मिटाने में मदद करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इंटरनेटी समाज में कितनी और किस स्तर की जानकारी, साहित्य मिलती हैं और इंटरनेटी मास्टर जी की बातकही पलक झपकते बच्चों को किस खुले समाज में धकेल देती है। इस पर हमें विचार करना होगा।

रंगों में अकेलापन


कौशलेंद्र
रंगों में अकेलापन

प्रपन्नरंगों में एक अलग ही दुनिया सांस लेती है। हरेक रंग की अपनी भाषा और कहानी होती है। यहां मूक होकर भी रंग वाचाल होते हैं। हम किस रंग को ज्यादा पसंद करते हैं यह भी कहीं न कहीं हमारी अपनी मनोरचनात्मक भूगोल भी बताता है। रंगों से खेलने वाले हाथ चाहे किसी के भी हों वह प्रकारांतर से अपनी ही मनोजगत् को रंगों में उतारते रहते हंै। बच्चों को रंगों से कुछ ज्यादा ही लगाव होता है। इन विविध रंगों में कहीं अचेतन मन में दबी कुचली हमारी ख्वाहिशें सोती रहती हैं। जो सही अवसर और वातावरण पाकर बाहर निकल आते हैं। कुछ ऐसे ही सामाजिकतौर पर उपेक्षित बच्चों जिनकी सुबह और शाम रात और दिन सड़कों पर बीता करती हैं। इन बच्चों की दुनियी किन स्तरों पर आम बच्चों की दुनिया से अलग होती है इसकी झलक इनकी बनाई पेंटिंग में मिलती हैं। छोटी-छोटी अंगुलियों से बनी इन पेंटिंग्स में एक खास रंग और रेखाओं के मायने खुलते जनजर आएंगे। इन्हीं स्तरों को समझने के लिहाज से इनकी बनाई तकरीबन 50 पेंटिंग को चुना। इन पेंटिंग में बच्चों के संसार में आकार लेती स्मृतियां, वस्तुएं अपने खास अर्थ में स्थान लेती हैं। इनके घर, बच्चे, पेड़, जानवर, सूरज आदि के मायने तक अलग होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनकी पेंटिंग्स में कहीं न कहीं खालीपन साफ नजर आता है। यह खालीपन दरअसल इनके परिवेश, समाजीकरण एवं लालन- पालन की ओर इशारा करती हैं। विविध प्रकार के रंगों से रची सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तौर पर तथाकथित पिछड़े बच्चों की तमाम पृष्ठभूमि की झलक मिलती है। इतना ही नहीं बल्कि इनके द्वारा चुने गए रंगों को पीछे भी इनके अपने तर्क और रंगों के विकल्प साफतौर पर दिखाई देंगे। इस विमर्श को अंजाम देने के लिए इन बच्चों से बातचीत जरूरी था। पहले इनसे रंगों की पसंदगी और चीजें को देखने की दृष्टि को समझना आवश्यक था। इनसे पहली मुलाकता में कुछ भी हा्राि नहीं लगा। बार बार इनसे संवाद स्थापित करने की कोशिश करता रहा। अंत में इनसे बातचीत मुकम्मल हो सकता। इनमें ‘सेव द चिल्डन’ के प्रदीप की मदद को नजरअंदाज नहीं कर सकता। इन्होंने बच्चों से बातचीत में एक सेतू का काम किया। वह सेतू जिस पर चल कर रंगों की इनकी दुनिया में उतरने में मदद मिल सकी। इनकी पेंटिंग्स को देखते वक्त सबसे पहला सवाल यही उठा कि इनकी रंगों की दुनिया इतना सूना क्यों है? क्या वजह है कि इनके बनाए सूरज, पेड़, पहाड़ व अन्य रोज मर्रे की चीजों अपनी रूढ़ स्वरूप में क्यों नहीं आ पाई हैं। इस सवाल का परत दर परत तब खुलता चला गया जब इनसे खुल कर इनकी पेंटिंग्स में इस्तेमाल रंगों के चुनाव में सोच पर बातचीत हुई। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े इन बच्चों की पेंटिंग्स से गुजरते वक्त सोचने पर मजबूर हुआ कि इनकी पेंटिंग में घर खाली क्यों है? इन घरों में न तो कोई झरोखा है और न कोई माकूल दरवाजे। और तो और घर में छत और छत से लटकते पंखे आदि कुछ भी नहीं हैं। वास्तव में खुल आसमान या पार्क या फिर फ्लाइओवर के नीचे जीवन बसर करने वाले बच्चों की दिमाग छत की कल्पना ही नहीं कर पाती। यदि किसी के पास घर कहलाने वाली कोई चीज है तो वह है झुग्गी। जिसे अक्सर स्थानीय पुलिस उखाड़ने पर आमादा रहती है। ऐसे में एक बंद कोठरी ही इनकी कल्पना को उजागर करती है। बगैर खिड़की, पंखे, रोशनदान एवं रसोई कोने के इस घर में बच्चों की कैसी दुनिया बनती बिगड़ती होगी, इसकी कल्पना शायद हम न कर सकें। खिलौनों के नाम पर सड़क पर पड़े पत्थर, रात में पीकर फेकी गई बाॅटलें आदि बेहद आम एवं बेकार चीजें होती हैं। ऐसे में बारह वर्षीय आरिफ़ जिसे ककहरा एवं अंग्रेजी के अल्फाबेट्स लिखने एवं पहचानने की कमाई है, की बनाई पेंटिंग ने खासकर आकर्षित किया। क्योंकि इसकी पेंटिंग में जो कहलाने के लिए घर था वह नितांत खाली था। सदस्य विहीन इस घर ने उससे जानने की ओर धकेला कि क्या वजह है कि उसके घर में कोई भी सदस्य नहीं है। पूछने पर बताया कि पापा फैक्टी गए हैं। मां कोठी में काम करने गई है। भाई-बहन पार्क में खेलने गए हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर सात वर्षीय विजय ने अपने खाली घर को लेकर जो जवाब दिया वह चैंकाने वाला था। उसने कहा- ‘मम्मी- पापा भगवान के पास चले गए। इसलिए घर खाली है। और पूछने पर पता चला कि दरअसल उसकी मम्मी तीन महीने पहले किसी और के साथ भाग गई। पापा दिन भर पीते रहते हैं। उसने शर्म की वजह से कहानी गढ़कर सुना दिया। गहराई से परखने के बाद यह मालूम चल सका कि इन बच्चों को रंगों, चीजों की बुनियादी समझ तक नहीं है। हो भी कैसे, जिनका घर, परिवार, आस-पड़ोस, यार-दोस्त सब सड़क पर ही रहते हैं। ऐसे में किनसे रंग और रेखाओं, चीजों की समझ की उम्मीद की जाए। लेकिन वहीं कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो अपनी कबाड़ की कमाई से कभी कभार फिल्म के जरीए या हकीकत में चीजों से रू-ब-रू होते हैं। लेकिन यह भाग्य की बात नहीं बल्कि उनकी मेहनत रंग लाती है। जिसे जितना मोटा कबाड़ मिला उसकी कमाई उसी के अनुसार हुई। इन बच्चों में पढ़ने को लेकर ललक तो है लेकिन घर परिवार की आर्थिक स्थिति इन्हें इज़ाजत नहीं देती। नेहरू प्लेस, दिल्ली का रहने वाला दस वर्षीय आलीम की मानें तो मुझे बड़ा अफ्सर बनना है वह बड़ा अफ्सर जो दफ्तर में बैठा करता है। जिसके पास गाड़ी होती है। मैंने भी गाड़ी पर चलना चाहता हूं। लेकिन कबाड़ नहीं चुनूंगा तो अब्बू मारते हैं। आलीम, प्रशांत, पूजा, अनिशा, राजकली कुछ ऐसे बच्चे हैं जो तमाम खींचतान के बावजूद पढ़ने की भूख मिटाने की जुगत में होते हैं। यही वजह है कि इन्हें अ, आ और ए बी सी, वन टू थ्री जैसी बुनियादी तालीम की रोशनी है। यदि इन्हें वक्त पर समुचित खाद पानी मिल सका तो निश्चित ही एक आम सामान्य बच्चों की पांत में बैठ सकते हैं। इनकी रंगों की दुनिया कुछ फैलाव लिए हुए हैं। इनकी समझ और कल्पना की सीमा इन्हीं के समुह के अन्य बच्चों से ज्यादा व्यापक है। इनकी पेंटिंग्स में गाड़ी, बाईक आदमी भी होता है लेकिन वह एक रूढ़ अर्थों में ही आते हैं। इनकी आंखों में फौजी बनने से लेकर डाक्टर और मास्टर बनने के सपने खलबला रहे हैं। यदि इन वंचितों की आंखों में बसे सपने को साकार नहीं कर पाते तो यह निश्चित ही तमाम विकास थोथा कहा जाएगा।

Thursday, January 20, 2011

सच को नकारने वाले

सच को नकारने वाले इक तरह से हकीकत से चेहरा नहीं मिलाना चाहते। इन लोगों को जितना भी सच बतादिया जाये लेकिन ये स्वीकार नहीं करते। दरअसल इनकी कमजोरी ही कही जायेगी जो सच को नकारते हैं। फ़र्ज़ करें आप मानते हैं की फलना बेहद प्यार करता है। और आप आंख बंद किये यही मन में बैठा लेते हैं की वो आपके है और आप सीमा पार कर जाते हैं।
जब की आज की तारीख में रिश्ते के मायने बदलते हैं।

Monday, January 10, 2011

बाल अधिकार की चिंता किसे हो

जाहिर से बात है कि बड़े तो बड़े उपक्षित होते हैं साथ ही बच्चे भी हाशिये पर दल दिए जाएँ तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं। दिल्ली में पिछले साल २०१० में बाद के ९ माह में २१६८ बच्चे लापता हो गए। वो बच्चे कहाँ गए? किसे हाल में हैं ? हैं भी या नहीं किसी को मालुम नहीं। सरकार तो यैसे ही उची सुनती है। जनता को अपने घर, नून तेल लकड़ी से फुर्सत नहीं की वो सड़क के बछो के चिंता करें।
गौरतलब है कि २०१० के अक्टूबर में इक रपोर्ट आई थी जिसमे बड़ी संजीदगी से बता गया था कि दुनिया भर के ८० मीलियन बच्चे आज भी भूख, सुरक्श, और बड़ों के हवास के शिकार होते हैं। यूँ तो भारत में हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार कानून लागु हो चुका है लेकिन सच या है कि बच्चे जो स्कूल छोड़ देते हैं वो डूबा शिक्षा से जुड़ नहीं पाते।

Saturday, January 8, 2011

जा नहीं पाया कहीं

वो जा कर भी कहाँ पहुच पाया-
उससे भी दूर जाना चाह कर भी जा न सका,
चाहता तो उसके पीछे लग जाता,
लेकिन लगा नहीं...
इक उसी में घुल गया-
बन कर धुल हवा,
लोगों ने कितना समझाया,
ज़िन्दगी लम्बी है,
सफ़र में दोस्त और भी मिल जायेंगे,
कुछ सपने बिखर भी जाये तो आखें नाम नहीं करते...
पर न वो उसका ही हो सका और न खुद का-
घर से दूर निकल जाना,
दिन भर उसके राह पर नज़र टाँगे,
बैठा ही रहता,
हर उस और से आने वाले को पकड़ कर,
पूछता कहीं मिली?

Thursday, January 6, 2011

साल तो नया आएगा

साल तो नया आएगा ,
होगी वही बाते,
दिन भी वही रात भी वही...
बॉस कैलंडर की तारीखें,
रंग बदल जायेंगे,
कुछ आदते कहीं रस्ते में रह जाएँगी...
कुछ और वायदे करेंगे खुद से,
तुम से और उनसे,
पर वह भी कैलंडर के साथ पलट जायेगे....
हाँ कुछ तो नया होगा,
कुछ दोस्त बनेंगे,
कुछ पुराने दम तोड़ देंगे....

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...