Friday, December 24, 2010

जमीन न भूलूं

हम कहीं भी चले जाएँ मगर हमारी जमीन हम से जुदा नहीं होती। यही वजह है कि साहित्यकार अपनी रचनाओं में अपनी धरती को भूल नहीं पाते। वह जिस भी विधा में आये वह जमीं जरुर नज़र आता है। ललित लेख हो या कविता या कहानी हर विधा में हमारी मिटटी बोलती हैं।
बिस्मिल्ला खान ने कभी बनारस को नहीं छोड़ा। विद्यानिवास मिश्र ने मोरे राम का मुकुट भीग रहा है या चितवन की .... आदि। हर उन लोगो ने अपनी रचना में धरती को नहीं भुला जिन लोगो को धरती से जुड़ कर जीवन रस मिलता रहा है।
हमें अपनी जमीं को कभी नहीं भूलना चाहिए। जड़ से कट कर ज्यादा दिन तक पेड़ हरा नहीं रह सकता। कुछ दिन के बाद उसे सुखना ही है। हमारी फिदरत भी येसी ही है। हम अपनी जमीन से विलग हो कर खुश नहीं रह सकते। यही वजह है कि शहर में रह कर भी अपनी बालकोनी, द्रविंग रूम ने हरियाली, टोकरी वाली महिला को सजा कर अपने अन्दर गावों को जीते हैं।
हमारे आस पास हर चीज चीख चीख कर कहता रहता है कि कम से कम गावों की ओर लौट नहीं सकते तो कोई बात नहीं अपने अन्दर तो वह भदेश गावो को रच तो सकते हैं।

Saturday, November 27, 2010

हर सुबह अपनी ऊपर वाली जेब में रखता हूँ अपनी तस्वीर और पता...
गर कहीं गम जाएँ तो,
पहचान कर,
साथ ले लेना....

शीतकालीन संसद सत्र पर हंगामे की मार

शीतकालीन संसद सत्र पर हंगामा कुछ इस कदर हावी है कि दस दिनों से संसद खामोश है। प्रणवो डा खेद प्रगट कर चुके हैं कि वो इस अवरोध को खत्म करने में विफल रहे हैं। वहीँ मीरा कुमार भी खेद प्रगट कर चुकी हैं।
मालूम हो कि संसद के न चलने में इक दिन का खर्च तक़रीबन ८० लाख रूपये आता है। यदि दस दिन संसद नहीं चला इस का मतलब हुवा जनता की गाढ़ी कमाई पानी में चला गया। मगर सांसदों को इस पर ज़रा भी फिक्रमंद नहीं देख सकते। आपसी संवाद के नाम पर इक दुसरे पर चिताकासी और तंग बयां जारी करते देख सकते हैं।
हमारा देश इतना पैसे वाला नहीं है कि सरकारी खजाने से करोडो रूपये पानी में बहा दे।
गौर तलब हो कि पिछले मानसून सत्र में भी सांसदों की लापरवाही का खामियाजा देश की गरीब जनता भोगत चुकी है। इक रिपोर्ट की माने तो पिछले सत्र में कुल ७ करोड़ ८० लाख रूपये रुकावट की वजह से सरकारी खजाने से व्याय हो चुके हैं।
कितनी श्रम और पसीने बहा कर आम जनता कमाती है जिसकी मेहनत के पैसे यूँ ही बह जाते हैं। लेकिन सांसदों को श्रम भी नहीं आती। उनके वेतन में २०० फीसदी का इजाफा हुवा लेकिन आम जनता के पैसे यूँ ही बह जाये इस पर वो संजीदा नहीं नज़र आते।

Friday, November 26, 2010

क्या भाषा से नाराज़ हैं

जी हाँ कुछ लोग भाषा से खासे नाराज़ हुवा करते हैं। उनके लिए दूसरी भाषा यानि परहेज़ वाली चीज होती है। मेरा भांजा है कहता है हिंदी में बात करने पर जोर देता है। यदि अंग्रेजी में बोलता हूँ तो कहता है हमारी मत्री भाषा हिंदी है। हिंदी में बात करें। अपनापा लगता है।
उसे समझा कर थक गया कि भाषा की ताकत को समझो , भावना को किनारे कर इस भाषा का धामन थम लो भला होगा। अब तो वह फ़ोन तक नहीं उठाता.....

Thursday, November 25, 2010

बिहार की जनता ने निर्माण को चुना

बिहार की जनता ने निर्माण को चुना। आज के बिहार को चाहिए विकास, शिक्षा, और हर हाथ को काम। जो लालू ने नहीं दिया। नितीश सरकार ने वो सब कुछ करने की कोशिश कि जिसकी जरुरत वहां की जनता को थी। यही वजह है कि जनता ने कास्ट को नकार कर विकास का रास्ता चुना।
आमीन

Wednesday, November 24, 2010

आज मगध का होगा आने वाला कल

आज मगध का होगा आने वाला कल , हल ही में चुनावों में जीत के बाद तै होगा मगध का अगला भाग्यविधाता का नाम....
लालू ने बिहार को जिस कदर सवार उस पर रावरी देवी ने अपना रंग डाला। लेकिन बिहार की जनता वहीँ की वहीँ रही। नितीश ने बिहार की जनता में जान फुका। काम किया। जो काम करता है वो खा भी ले तो उतना बुरा नहीं लगता। अब देखना है मगध की जनता किसे अगला मुखिया बनता है।
आमीन

Friday, November 19, 2010

बड़ा कैसे बनते है उनको मालूम है

वो बड़ा हो कर अफसर और बड़ा आदमी होना चाहते हैं। बड़ा आदमी जिसके पास गाड़ी, दफ्तर और पैसे हो। लेकिन ये बच्चे इक अच इंसान भी बनना चाहते हैं। कोने कोने तक आखें देख भर लेने वाली यह भी देखना चाहती है कि बड़े होने के बाद क्या वो चीज है जो उनसे छुट जायेगा। वो पद लिख कर अपने सपने साकार करना चाहते है।
लेकिन स्कूल जाने के लिए न तो कपडे है न ही पावों में पहनने के लिए यैसे में शर्म या कुछ और मज़बूरी में सपने पुरे होने से पहले ही दम तोड़ देते हैं।

उनकी आखें, सपने और उड़ान

जी हाँ, सपने आखों में बसते हैं तब नींद नहीं आ सकती। अगर नींद आ गई तो सपने कहीं दूर न हो जाये इसका ख्याल रखना होता है। उनकी आखें भी सपने देखा करते हैं लेकिन वो पुरे नहीं होते। यैसे लाखों चिल्ड्रेन हैं जिन्हें दो जून की रोटी और शिक्षा नसीब नहीं। लेकिन दूसरी और विकास के नाम पर हम खूब दूर तक का सफ़र करते हैं। काश उन नन्ही उँगलियों, पावों को पंख दे सकें तो बेहतर हो।

Tuesday, November 2, 2010

शहर जो यादों में बस्ता है

शहर जो यादों में बस्ता है उसे टा उम्र भूल नहीं पाते। वह शहर हमारे साथ डोलता रहता है। कभी इतना वाचाल हो जाता है कि कुछ न बोल कर भी सब कुछ कह जाता है।
मरने के बाद हमारी इक्षा होती है कि हमारी अंतिम यात्रा अपने शहर में ख़त्म।

Monday, October 25, 2010

उन्हें भी सपने बुनने दो

जी हमारे बच्चे तो खाते पीते और सपने भी बेहतरीन हैं। लेकिन दुनिया के ८० मिलियन यैसे दुर्भागे हैं जिनको तो सोने को रोड , खाने को जिठान और प्यार के नाम पर झिडकी मयस्सर हो पाती है। दुनिया के यैसे तमाम बच्चों की कुल आबादी के ४९ फीसदी बच्चे हमारे देश में रहते हैं।
अमूमन यैसे बच्चे जन्म के पहले घंटे , पहले हप्ते , पहले माह मौत के शिकार हो जाते हैं।
क्या आप पर या हम पोअर कोई असर पड़ता है ? यदि पड़ता तो कम से कम कुछ पहल करते।
आज से तक़रीबन २० साल पहले तै किया गाया था कि २००० तक सारे बच्चे साक्षर , सुरक्षित और स्वत हो जायेगे।
लेकिन २०१० तक हालत वही के वही है।

Monday, August 30, 2010

हिंदी में अस्तावार्क पर हसने वाले ज्यादा हैं

हिंदी में अस्तावार्क पर हसने वाले ज्यादा हैं ज़रा मुझे स्पस्ट करने दें हाँ मैं कहना चाहता हूँ कि आज हिंदी के रचनाकार जनक के दरवार में मौजूद विद्वान् सभासद की तरह अस्तावाक्र की वक्क्रता पर हसने वाले ज्यादा हैं। यानि हिंदी में महिला की लेखन में सिर्फ अश्लीलता तलाशने वाले की कमी नहीं है। महिला लेखन गोया लुगदी साहित्या हो। जबकि हिंदी साहित्य का इतिहास बताता है कि महिला लेखिकाए भी रही हैं मगर उनको वो तवाज़ो नहीं मिल पाया। प्रेमचंद की पत्नी शिव रानी देवी को कितना पहचान मिल पाए इक लेखिखा के रूप में। जब कि वो भी बेहतरीन कहानिये लिखा करती थीं।
इन दिनों इक अलग विवाद गरम है ख़ास कर विभूति नारायाण राय के बयान पर कितनी बिस्तर पर कितने बार शीर्षक सुझ्या है उन महिला लेखिका के लेखन पर जिन किताबों में विस्तार पर या रिश्तों के ज़िक्र हुवे हैं। जनक के दरबार में तत्व मीमांशा के लिए विद्वान अस्तावाक्र के वक्रता को देख कर हस पड़े थे। उस पर अस्तावाक्र का ज़वाब था ' महाराज ये तो अभी देह विमर्श से ऊपर ही नहीं उठ पाए हैं ये क्या तत्व मीमांशा करेंगे ? ठीक यही हाल आज हिंदी जगत में महिला लेखन के साथ हो रहा है। पुरुष लेखक महिला लेखन को देह विमर्श से ऊपर देख ही नहीं पाते। यैसे में उनकी लेखनी में कितना और किसे किस्म का कौशल है इस बात की चिंता पीछे रह जाती है।

Friday, August 20, 2010

कर्म की गति और जीवन के राह

कर्म की गति कोण जान पाया है आज तक। लेकिन हमारे कर्म हमारे साथ ही रहते हैं। जैसा भी हम कर्म करते हैं उसके अनुसार फल भी समय समय पर मिलते ही रहते हैं। अफ़सोस कि हम उसे अपने भाग्य के सर मद देते है। पता नहीं भाग्य में यही लिखा था। जबकि जो भी मिला या मिलेगा वो हमहे कर्मों से तै होता है।
जीवन में राह कोई भी आसन नहीं होते और न ही कठिन। राह इस बात पर निर्भर करता है कि राह पर चलने से पहले क्या हमने जच्पद्ताल की। क्या हमने अपनी तैयारी जाच की कि हम जिस रास्ते पर कदम रख रहे हैं उस पर चल पायेंगे भी या नहीं। हलाकि बोहोत कुछ राह पर चल कर ही उसकी जोखिमें मालुम हो पाती हो पाती हैं। इस लिए कई बार जोखिम उठने भी पड़ते हैं। जिसे भी जोखिम उठए है उनको सफलता के साथ कुछ हार भी मिले हैं लेकिन वो हार सफलता के आगे अदने से हो जाते हैं।
कोई खुद की विचार्शुन्यता का ठीकरा दुसरे के माथे नहीं फोड़ सकता। जो भी फोड़ता है वो अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है । दर्हसल हम खुद ही जोखिम नहीं उठाते। फिर ठीकरा दसरे के माथे न फोद्ये तो बेहतर। जीवन में कई बार यैसे भी पल आते ही हैं जब हमने आगे के पथ नहीं सूझते। लगता है हम आज तलक गलत ही राह पर भाग रहे थे। सारा का सारा परिश्रम जो बेकार गया। लेकिन वास्तव में हमारी समझ , सूझ और कर्म कभी विफल नहीं होते। समय के साथ वो हमारे संग हो लेते हैं।
क्या कोई इस दुनिया से भाग कर खुद या कि समाज का परिवर्तन , पलट कर पाया है ? नहीं हार कर भाग कर कोई समाधान नहीं निकाल सकते। जूझ कर ही राह धुंध से भी निकाली जा सकती है।
थक कर बैठ गए क्या भाई.....
मंजिल दूर नहीं है....
कुछ और दूर कुछ दूर,
चलना है आठो याम।
'हम को मन की शक्ति देना मन विजय करें। दूसरों के जय से पहले खुद का जय करें। '

Wednesday, August 18, 2010

नशा और स्चूली लड़के

आज स्कूल और कॉलेज हर जगह नशा का वर्चास्वा बढ़ रहा है। पच्कुला हो या चंडीगढ़ या फिर हिमाचल तकिरबन हर जगह नशा का साम्राज्य अपना पैर फैलाता जा रहा है। पचुकला में रहने वाला नकुल कहता है, 'हम वहां गैंग वार भी करते हैं। हमारे पीठ पर पोलिटिकल साथ होता है। वो लोग तुरंत जेल से निकाल लेते है। ' इतना ही नहीं चरस, भंग खाना तो स्कूल लड़कों में बेहद ही आप है। ' मैं तो खुद को इनसे बचने के लिए कुसली में पढने लगा '
कसुअली में भी कोई बोहोत ज्यादा बेहतर इस्थिति नहीं कही जा सकती। यहं भंग खूब चलन में है। शाम होते ही यहं के बासिन्दे शराब और देशी थर्रा में सू जाते हैं। पहाड़ों में भंग खाना और पाना बेहद ही आसन है।
अगर देश के दुसरे कोने कि बात करें तो पायेंगे कि वहा भी नशा लेने का चलन है यहं यह अलग बात है कि नशा लेना का रूप अलग हो जाएगा।
स्कूल की बात करे तो पढ़ों और खुद ही पढो। मास्टर जिस बस हाजरी लगाने तक की ज़िमादारी निभाते हैं। जो पढ़े और पढने की आदत से लाचार हैं वो खुद ही पढ़ते हैं और खेद ही समझते हैं। छात्रों को तो गुरूजी की निजी शरण में जाना पड़ता है।

Saturday, August 14, 2010

बार बार खुदी से लड़ना और थक कर....

बार बार खुदी से लड़ना और थक कर बैठ जाना अक्सर यैसे पल हमारी ज़िन्दगी में आते रहते हैं। हर बार खुद को समझाते हैं कि नहीं अगली बार गलती नहीं होगी लेकिन होता यही है कि लोगों की बात की पार झांक नहीं पाते। या कहें कि देखना नहीं चाहते। भरम तुत्जाने का भय सताता रहता है। लेकिन लोगों से भरम ज़ल्द टूट जाएँ तो बेहतर रहता है।
कुछ लोग अपने आस पास इक जाल बुन कर रखते हैं। छेद कर झांक पाना आसन नहीं होता। वो लोग कभी ना नही कहते। हर बार हर मुलाकात में उम्मीद की इक झीनी रौशनी थमा देते हैं ताकि आप उनके जाल से बाहर न जा सकें। कितना बेहतर हो कि उमीद की उस किरण को समय पर बुझा दें तो कम से कम आप और कुछ कर सकें या सोच ही सकें।

Friday, August 13, 2010

आ से आम आदमी और आ से आज़ादी


आ से आम आदमी किसे तरह अपनी ज़िन्दगी बसर कर रहा है उसे देख कर अंदाजा लगा पाना ज़रा भी मुश्किल नहीं कि वह मौत को गले लगाने में पीछे नहीं मुड़ता। आम आदमी को विश्वास हो चूका है कि उसे इसी तरह कबी महँगी होती रोटी, सब्जी और आसियान की उमीद में आखों की सपने सुखा के शिकार होने हैं।

ब्लैक बेर्री और नैनो की चिंता साथ में खेल में खुद को झाड पोच कर दिखने की जीद कितने लोगों को बेघर किया गया इसका अंदाजा लगा सकते हैं। हर तरफ जल ही जल , घोटाला ही घोटाला और कल के नाम पर करोडो रूपये की....

आज़ादी और घोटाला, सुखा और बाढ़, रोटी और मॉल, एक और कूलर के बीच फासले तो नहीं मिटा पाए लेकिन हाँ आज़ादी मुबारक के सन्देश अगर्सारित करने में आज़ादी समझते हैं। आज़ादी मुबारक

Saturday, August 7, 2010

सेल के खेल में

सेल के खेल में सब कुछ गवा कर भी हम कितने खुश होते हैं। जब कि सच कुछ और ही होता है। सेल में न वापसी न बदलावों और न ही आपकी बात सुनी जाती है इक बार सामान बिक जाने के बाद दुकान पर जाएँ वही सेल्स मेनेजर व सेल्स बॉय आप की और देखता तक नहीं है। उस पर तुर्रा याह क्या बात है जब सामान खरीदने गए थे तब कि बर्ताव और बाद के बर्ताव में बोहुत अंतर आ जाता है। तब उनको सामान सेल करना था अब आपका काम अटका है।

सेल का फंदा तो बड़ा ही मौजू है , जो सामान आम दिनों में ६००, ८०० रुपे के होते हैं वही सेल में २५००, ३००० रूपये के ताग के साथ दीखते हैं। us par 50-50 % के सेल के बाद ५००, ८०० रूपये के आते है हम भी कितने खुश होते है कि सेल में खरीदारी की हैं। जब कि ज़रा दिमाग का इस्तमाल करें तो पायेंगे कि बिना सेल में और सेल के सीजन में कोई फर्क नहीं पड़ता।

सेल के नाम पर पिछले साल के सामान निकलने के ये सब नायब तरीके होते हैं।

Wednesday, August 4, 2010

कैसे कैसे बयान

हाल ही में कुलपति विभूति नारायण राय ने महिला लेखिका समूह को अपशब्द कहा। लेकिन उस कहे पर उनको कोई अफ़सोस नहीं था। लेकिन मामला गरम होता देख ज़नाब ने आखिर माफीनामा ज़ारी किया। लेकिन जिन शब्दों को इस्तमाल किया उस से ज़रा भी नहीं लगता कि उनने कोई गलती की। बतायुब राय , यदि कुछ महिला को भावना ठेस पुचा हो तो माफ़ी मांगता हूँ। इस माफ़ी में भी अरोगेंच्य नज़र आता है।
दो माह पहले इक कथाकार संपादक ने धर्म ग्रंथो को मल मूत्र तक कह डाला। लेकिन मामला टूल नहीं पकड़ा सो माफ़ी का सवाल नहीं उठा। लेकिन सोचने को विवास करता है कि इन बयानों के पीछे किसे तरह की मानसिकता होती है? साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि यह भी इक नाम छपने और विवाद में बने रहने का स्टंट है। वर्ना इन लोगों में पाक रही साधन्त कभी कभी बाहर आ जाते हैं।
नेता और पार्टी के बीच तो इस तरह की बयान बाजी तो होती रहती है लेकिन प्रचार खत्म होते ही गले मिलने की चलन भी खूब है। वाह क्या ही बयान बाजों के बीच भाईचारा है।

Monday, August 2, 2010

नार्यनते यत्र प्रताद्यानते....

नार्यनते यत्र प्रताद्यानते.... हाँ इस तरह के वाक्य अब बदल जाएँ तो बेहतर। हाल ही में राहुल महाजन और डिम्पल महाजन के बीच की तकरार को उन सब ने देखा जिनने शादी के अवसर पर जश्न मनाया था। स्वम्बर को लेकर क्या ही दिलचस्पी देखने को मिली उसे देख कर लगा जैसे घर में किसी कि शादी हो रही है। लेकिन शादी कुछ ही माह बाद दोने के बीच के फाक सामने आ गए। राहुल के बहाने देश की उन तमाम दिमाग के माप सामने आते हैं जिस और इशारा मिलता है।
आज महिलाए किसे तरह घर , दफ्तर , ससुराल आदि जगह पिटाई खाती हैं किसी से छुपा नहीं है। आज इस वाक्य को बदल कर कुछ इस रूप में लिखना जाना चाहिय - जहाँ जहाँ नारी की पिटाई होती है वहां वहां अशांति की वस् होती है।
उस पर तुर्रा यह कि वोमेन एम्पोर्वामेंट की बात जिस शिदात से की जा रही है वह और कुछ नहीं बल्कि दिखावा है। राजनैतिक चाह और रूचि कैसी है इस और इशारा करता है। वर्ना महिला आरक्षण बिल अब तक ताल नहीं रहा होता। हर बार कुछ न कुछ पंगा लग जाता रहा है।
देश की हाल क्या बयां करें को नहीं जानत है कि हर पल लड़की , औरत की जिस क़द्र पिटाई होती है उसे हम इन्सान तो क्या इक जानवर भी कुबूल नहीं कर सकता। २१ वि सदी में हम महिल्याओं को शराब, रात घर से पार बिताते और गर्भनिरोधक गोली को हाजमोला की गोली की तरह चूसते देखा है। तो यह है न्यू , आधुनिक और अल्ट्रा मोर्डेन प्रीती वोमेन आफ डा इंडिया।

Wednesday, July 28, 2010

संसद को जाता रास्ता

क्या सारे संसद की और जाने वाली सड़क पर जाने के लिए लम्बी पारी खेलते हैं। पत्रकार, युद्याग्पति, मास्टर या ऑफिसर सब के सब संसद तक जाने वाली रोड की तलाश ज़रूर करते हैं। तरुण विजय, मणि शंकर, राम जेठमलानी या और भी कई नाम गिनाये जा सकते हैं। जो अंत में संसद में जा बैठने को बेताब हो रहे थे। लेकिन मजा तो तब आता है जब ये संसद में गैरहाजिर होने लगते हैं। पूरी जीवन भर की थकान, तमन्ना आदि आदि पूरी करने में संसद से ही गायब रहने लगते हैं।
सवाल तो तब पुचा गायेगा जब हाज़िर होंगे। इनको मालुम हो कि १ मिनिट की संसद की कारवाही का खर्च २५ हज़ार रूपये आते हैं। अगर उनकी तू तू मैं मैं के चाकर में संसद थप होता है तो उसकी भरपाई कोण करेगा। जनता के पैसे उडाना रास नहीं आएगा। संसद जा बैठे तो कुछ काम भी कर ले तो बेहतर।

Wednesday, July 21, 2010

जी का पत्र पुत्री के नाम

नेहरु जिस ने जेल में रहते हुवे बेटी इन्द्र को पत्र लिखा था। यह पत्र पिता का पत्र पुत्री के नाम से खासा प्रशिध हुवा। नेहरु जिस ने बेटी को दुनिया की समझ साझा किया था। इस लिहाज से नेहरु जिस ने पिता का धर्म पालन किया था। येसा कहने में ज़रा भी संकोच नहीं।
आज के तमाम जितने जी हैं यानि पिता जी , चाचा जी , तावु जी , आदि अपनी बेटी के नाम क्या पत्र लिखते हैं ज़रा ध्यान दें-
प्यारी बेटी ,
तुम को किसी और से जान का खतरा हो न हो कम से कम हम से तो है ही। हम तुम को कभी भी मौत के घाट उतार सकते हैं। उस पर तुर्रा यह कि हमने ज़रा भी अफ़सोस न होगा। हम जो भी करेगे वो घर , समाज और परिवार के नाम , नाक और परंपरा की खातिर करेंगे। तुम को तो मरना ही होगा बेटी।
तुम अपनी जान को ज़यादा सहेज कर मत रखा करो। जितना खाना पीना हो इसी पल में कर लो। क्या पता कल कोण तुम को प्यार करने लगे जो हमें गवारा न होगा। और तुम को खा मखा जान से हाथ धोनी होगी।
तुम अफ़सोस की बात करती हो ? पागल तो नहीं हो रही हो ? तुम कब बड़ी हो गई ? पहले समाज , घर की इज्जत है या कि तुम? तुम को गवा कर दूसरा बेटा या बेटी को जन सकते हैं। आखिर तेरी माँ और क्या दे सकती है ?
पहली बात यह कि शादी के बाद त्तुम पैदा हुई।
घर में गोया कोई मर गया हो। दादी तो जैसे सोंठ बनाना ही भूल गई।
और तुम हमारे आगे प्यार कैसे कर सकती हो ? प्यार के नाम पर धोखा खा कर रोटी घर आवो यह हमें पसंद नहीं। आज सेक्स ही प्यार हो गया है। प्यार के नाम पर सेक्स पाने का आसन रास्ता। हम तुम्हे इस रह पर नहीं जाने दे सकते। तेरी बुवा भी कभी चलने की जुरर्त की थी। आज तलक किसी को नहीं मालूम कि कहाँ चली गई। दादी आज तक पूछती है बेटी न जाने कहाँ चली गई। गई कहाँ उसे तो नीद सुला दिया गया। वह भी साथ में। वो भी पास लेता बा ॥ बा कहता होगा। तेरी बुवा को वो प्यार से बा कहता था। अब दोनों बेफिक्र हो दो अलग अलग लेकिन इक ही ज़मीं पर लेते हैं।
क्या तू भी छाती है कि तू भी बुवा के पास जा लेते। देख हमारे हाथ ज़रा भी नहीं कपेंगे। वैसे भी आदत हो गई है। मामा की बेटी भी तो नदी में नहाने गई कहाँ लौट कर आ सकी। बेटी समझ रही हो न।
मेरी प्यार की निशानी, बेटी मैं तेरा सब कुछ हूँ। समझा करो। जन्म दे सकता हु तो मौत की नींद भी तो सुला सकता हूँ। माँ की आखों में तू उस समय ममता की झिल्ली न पाएगी। गडासा या माचिस वही तो लगाएगी जिन घने बालों को वो घटा समझ चेहरे पर बिखेरते होगा। तेरी बालों को आग तो माँ ही लगाएगी।
बस अब और क्या कहूँ तुझे बेटी की तरह पाला है , बल्कि बेटी ही तो है। तावु या मामा, चाचा या पापा क्या फर्क पड़ता है आग लगाने वाला हाथ कोई भी हो मरना तो तुझे ही होगा। इस लिए मेरी मान तू प्यार मत कर तेरी शादी करा देते हैं जो करना हो वहीँ करना। न समझ हो तो तुझे कोई बचा सकता है।
तेरा अपना,
सब कुछ। पैदा करने वाला ,
पालने वाली,
गोद में घुमाने वाली गोद और सकल परिवार।

Saturday, July 17, 2010

रुपया है या देवनागरी का आधा स

देवनागरी का आधा स को रुपया का प्रतिक मान लिया गया। हर किसी ने इसे कुबूल कर लिया। कहीं किसी और से भी सवाल नहीं उठे। यानि जो भी लाड दिया जायेगा उसी को मान लेना क्या हमारी मज़बूरी है। मानलिया कि रुपया के प्रतिक बनाने वाला आई आई टी का स्टुडेंट है है। हजारो में में से उस के इस काम को अंत में इस लायक माना गया कि उसपर स्वीकृति की मुहर लगी।
इक भाषा के विद्वान या भाषा वैजानिक इस प्रतिक को र तो मान सकता है लेकिन यह रु कैसे है यह समझ से बाहर कि बात है। यह पहली नज़र में देवनागरी के स का हराश्वा रूप लगता है। स का तय रूप ही आध रूप स को हलंत लगा कर बनाया जा सकता है
लेकिन हमारे देश में कई चीजें ऊपर युपर ही तै हो जाया करती हैं।

Thursday, July 15, 2010

शुक्रिया कहने का मन

मैं इक बार उन मित्रों का प्यार पलकों पर रखता हूँ जिन लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दिया....
जो लोग इस बात को ले कर रोते रहते हैं कि पठनीयता खत्म हो रही है तो बिलकुल गलत नहीं तो अर्ध्य सत्य है। इस बात कुबूल करना होगा। इक आलेख पर प्रतिक्रिया मिलना इस बात का प्रमाण है कि लोग पढने से नाता बरक़रार रखे हुवे हैं। बल्कि कहना चाहिए कि न केवल पढ़ते हैं बलिक वो लगो लेखक से अपनी बात मनसा ज़ाहिर करने में भी गुरेज नहीं करते।
पठनीयता खत्म नहीं हो सकती। बस माध्यम में तबदीली आ सकती है जो ताजुब नहीं। वैसे भी पूरा पाषाण काल से लेकर अब तक मध्याम तो बदलते ही रहे हैं। कहाँ हम शुरू में खड़िया, स्टोन , भोज पत्र, पेपिरस, ताम्र पत्र, स्तंभ, मिटटी की प्लेट पर लिखा करते थे। जैसे जैसे हमारे पास तकनीक आता गया वैसे वैसे हमरे लेखन और पठान में तेज़ी आती चली गई।
ताड़ पत्र, भोज पत्र, स्टोन आदि पर लिखते लिखते हमने कागज़ कलम से लिखा शुरू किया। चाइना में कागज़ मुद्रण तकनीक के आविष्कार से मुद्रण और लेखन में रफ़्तार आ गया। आज हाल यह है कि इक अखबार इक घंटे में लाख से भी ज़यादा कापी मुद्रित करने में आगे है। अखबार से आगे नज़र डाले तो पायेंगे कि इक ताफ्फी नुमा उपकरण में हजारों पेज आजाते हैं। उससे भी इक कदम आगे चले तो देख सकते हैं कि इक पल में शब्द किसे रफ़्तार से मीलों के फासले पलक झपकते नाप जाते हैं।
लोग कह रहे है आज पढने वाले कम हो रहे हैं। जबकि सच यह नहीं है। यदि लिखने वाला इमानदार हो कर लिखता है तो उसको पाठक के तोते नहीं पड़ते। चेतन भगत, किरण बाजपाई, जोशी जैसे लेखक का पाठक के कम होने कि शिकायत नहीं।
मैं इक बार उन मित्रों का प्यार पलकों पर रखता हूँ जिन लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दिया....

Monday, July 12, 2010

देह से मुक्ति की...

देह तो यहीं रह जाता है उन्ही मिटटी, पानी , आग , आकाश और हवा में घुल कर। जो भी लोग साथ चार कंधो पर लड़ कर लाते हैं कुछ ही दर में पर रख कर बैठ जाते हैं और जॉब , टेंशन , शादी , बेटे बेटी और दुनिया की बातो में मशगुल।
हम तो फिर भी चेत नहीं पाते। अहम् में चूर किसी को जीवन भर कहाँ लगते हैं। कोई कुछ बोल दे तो खाने को भागते हैं। जब कि सच मालूम है कोई भी पल भर घर में रखने वाला नहीं। हर कोई ज़ल्द से ज़ल्द बहार करने की बात करता है। फिर भी मकान बनाने , पैसा जोड़ने , लड़ने में अपनी बेशकीमती जीवन के पल जाया कर देते हैं।
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पैसा न जोड़ा जाये। अछ्ही लाइफ की कामना न की जाये। कर्म , परिश्रम से नाम, प्रशिधि, और पैसा भी कमाना ही चहिये। यदि चाहते हैं कि इक सुकून भरी ज़िन्दगी जी जाये तो पैसे की कीमत को नकार कर नहीं चला जा सकता। 'पॉकेट में हो पैसा तो खुदा भी जमीं पर आता है' है तो यह फिल्म का गाना मगर है सौ फीसदी सच। पैसे से आपकी बात, कद, नाम , प्यार सब कुछ जुदा हुवा है। गर पैसा नहीं तो माँ बाप तो माँ बाप यहाँ तक कि बीवी, बच्चे, दोस्त , प्रेमिका सब के सब ठीकरे भर भी भाव नहीं देते। कन्नी काटना जानते होगे जी हैं लोग आप से दूर जाने लगते हैं। लोगों को लगता है कहीं पैसा न मांग बैठे।
माना कि पैसा सब कुछ नहीं होता लेकिन पैसे न हो तो आप या कि हम कुत्ते से ज्यदा कुछ नहीं होते। हर कोई दूत कार कर आगे बाद जाता है। इस लिए यदि इज्जत , प्यार , दुलार नाम की ख्वाइश है तो पैसे की शाट को नकार कर नहीं चल सकते।
धन से मुक्ति या देह से मुक्ति दोनों तो दोनों इक तो नहीं नहीं लेकिन देह से मुक्ति के बाद पैसे की ज़रूरत नहीं होती लिकिन पैसे से मुक्ति तो जीवन भर नहीं होता। जिसके टेट में पैसे होते हैं बेटा भी उन्ही की सेवा करता है। लोभ में ही सही मगर यदि माँ बाप की सेवा बेटा पैसे की उमीद में करता है तो कम से कम सेवा तो हो रही है। इस लिए बुढ़ापा या जवानी सुन्दर बनाना है तो पैसा तो जोड़ना ही होगा।
तुलसी दास ने कहा है , 'आशा तृष्णा न मुई मरी मरी गया शारीर' देह से मुक्त हो सकते हैं। बेहद आसन है लेकिन उमीद , आशा और चैन की ज़िन्दगी की लालसा से मुक्त हो कर रह पाना ज़रा मुश्किल...

Monday, July 5, 2010

सुन्दर देह जान पर बन आये

सुन्दर देह जान पर बन आती है। हिरन के सिंग बड़े ही कुब्सुरत होते हैं बेचारी उसी सिंग की वजह से मारी जाती है। कभी कभी तो अपने बदसूरत पैर के बल पर भागने में कामयाब हो जाती है लेकिन सिंग किसी पेड़ या झड में फस जाता है और ....
इनदिनों ही नहीं बल्कि लम्बे समय से चला आ रहा है खुबसूरत देह मुस्कान और अदा की वजह से कई लड़कियां या एक्ट्रेस , माडल को अपनी जा गवानी पड़ती है। यह इतिहास सिद्ध है कि सीता को भी अपनी खूबसूरती की कीमत चुकानी पड़ी थी। राम के साथ कई हज़ार सैनिक, दोस्तों ने जान की बाजी लगा कर रावान के साथ युद्ध करना पड़ा। इन सब के पीछे सुन्दरता ही तो था। राजा रजवाड़ों के बीच कई बार सुन्दर रानी को लेकर युद्ध हुवे हैं। सुन्दर जान , देह परिवार , समाज और कई बार देश के लिए भी खतरा साबित हवये हैं।
इन दिनों माडल की मौत रहस्य बना हुवा है। इससे पहले भी इस तरह की घटनाये होती रही हैं। लेकिन हमने उससे कोई पाठ नहीं सीखा। सुन्दर होना कोई गुनाह नहीं, न ही कोई जुर्म जिसकी कीमत लड़की चुकाए, । सुन्दर देह तो कुदरत की दें है और खुद उसे संभल कर चलते हैं लेकिन पुरुष की दूरबीन भेदी निगाह से देह की तार तार होना तो आज बड़ी इ आम बात है। इस में पिता, भाई , रिश्तेदार सब तो शामिल हैं आखिर किसे किसे चलनी से चाल कर इक लड़की देखे।
तेज़ाब से मुह जला देने या चाकू से गोद कर मार डालने की घटना भी नै नहीं है। जो कभी प्यार के दंभ भरते नहीं थकता था वही प्यार के इंकार करने पर या शादी न करने की बात सुन कर आग बबुलाहो मार डालने जैसी घिनौनी हरकत करते हैं। क्या यही प्यार है ? शायद यह सवाल ही बेकार है आज रिश्ते में वो गर्माहट रही ही कहाँ। जब प्यार वासना को शांत करने व शादी से पहले सब आनंद भोग लेने के पैमाने पर टिके हों तो दोष किसे से मठे मढ़ा जाये। यहं तो 'को बद कहत चोट अपराधू' किसको कम और किसे ज़यादा कसूरवार कहेंगे। इस हमाम में क्या देवता और क्या इंसान सब धन इक पसेरी.

Sunday, July 4, 2010

भाषा जब लड़ने लगे

भाषा जब लड़ने पर उतर आये तो कोइन से भाषा इस्तमाल करेगी ? क्या वो आम फहम भाषा में लडाई करेगी या कोई और बोली में तू तू मैं मैं करेगी ? क्या हो सकती है उसकी भाषा?
पहली बात तो भाषा लडाई नहीं कर सकती दूसरी बात यदि भाषा के बीच लडाई की स्थति आ भी गई तो उनके बीच इस बात को लेकर लडाई तो हो सकती है कि आज तुम्हारी बड़ी चलती है जिसे देधो यही तुम्हे पढता है। हाँ भाई हो भी क्यों न तुम को पढने वाले विदेश , कॉल सेण्टर या फिर कसी नामी कम्पनी में काम करने लगते हैं। समाज में उनकी बात सुनी जाती है। तुम्हे तो चाहने वाले देश विदेश में हजारों की संख्या में हैं। वहीँ मुझे तो तब कोई पढना चाहता है जब उसे कहीं कोई राह नहीं सूझता। यैसे देखा जाये तो मैं तो तुम से बड़ी हुई या नहीं मैं तो हारे हुवे , निराश मन और आम जन की बोली वाणी हूँ। हर कोई ऑफिस बड़े लोगों के बीच पोलिश भाषा को बोल कर जब उब जाते हैं तब मन की भावों को अपनी बोली में ही कहना चाहते हैं। प्यार हो या लड़ाई तब तो तू कहीं कोने में चली जाती है। और वैसे भी अपनी जुबान में गाली देने प्यार का इज़हार करने के लिए तो अपनी उसी भाषा को जुबान पर लेट हैं जो उनके साथ दूध पीने से साथ रही है।
कुछ भाषाएँ सच में बाज़ार में, समाज , लोगों के बीच ख़ास तवज्जो तो दिला देती है। मगर हम जब सपने देखते हैं किसी को डाटते हैं रौब गत्ते हैं तब अपनी बनावती भाषा सामने आजाती है। वैसे तो भाषा से बड़ी बोली हुई फिर। वो तो हमारे जन्म से लेकर मरने तक साथ रहती है। यह अलग बात है कि उस बोली को हम दबा कर रखते हैं। लेकिन जब भी मौका मिलता है वो बोली तमाम बंदिशों तो तोड़ कर ऊपर आ ही जाती है। हमारी ओढ़ी हुई भाषा बोली के सामने नंगी हो जाती है। वैसे इस में कोई अश्लील बात नहीं। जो येसा देखते हैं यह उनकी नज़र की दोष हो सकती है।
भाषा बोली वाणी ये सब के सब शब्दों के अलग अलग रूपों में गुथ्ये होते हैं। अगर इनके तन्तुयों को खोल कर देखें तो पायेंगे कि इनकी रचना भी इक ही रसे से हुई है।

आतंक की कोई जमीर नहीं होती

इक बार फिर से लाहौर दहल गया। इससे इक बात तो साबित होती है कि आतंक की आखों में न तो धर्म न कौम न ही लिंग की कोई सीमा होती है। बस यदि कुछ होती हो तो वह है खून , चीख , बम और रुदन। वह आख किसकी, माँ की , बहन के भाई की या पिता की इससे भी उनको कुछ भी लेना देना नहीं होता। जिस ज़मीन पर पाले बढे और बचपन गुजारी उसको भी तबाह करने से पहले उनके दिमाग दिल के दरमियाँ किसी किस्म की हलचल नहीं होती।
ज़मीन पाकिस्तान की हो या भारत की। हर वो ज़मीन उनके लिए माकूल है जहाँ बम फोड़े जा सकते हैं जहाँ लोग बसते हों. वो जगह अल्ला टला का हो या भवन इश्वर का हो। उनकी निगाहों मेहर धर्म , कौम , लोग सामान हैं , सामान को नष्ट करने में ज़रा भी हिचक नहीं महसूसते। आत्मा या जीव की अमरता और भारतीय दशन गीता की कृष्ण उपदेश को जीवन में उतारा है कि
आत्मा न हन्यते न हंय मने शरीरे, न शोषयति मरुतः। वो मानते है हम कोई हैं किसी को मरने वाले या मारने वाले। सब खेल तो उस ऊपर वाले की है। हम तो बस माध्यम भर हैं। सीढ़ी तो केवल मंजिल तक पहुचने के लिए होती है अब कोई वहां से खुद कर जान दे दे तो उसमे सीढ़ी का क्या दोष।
वाश्तव में आतंकी के दिमाग से पहले पहल संवेदना , दर्द को महसूसने वाले कोने को खली किया जाता है। और फिर उसमे भरा जाता है नफरत , आतंक और पिद्दा में आनंद पाने की ललक। बचचन ने लिखा है ' पीड़ा में आननद जिसे हो आये मेरी मधुशाला' तो इस आतंक की मधुशाला में मुस्लिम युवा को लाया जाता है और चक कर नफ़रत , कौम , धर्म और ज़ेहंद की बतियाँ पिलाई जाती हैं। जिसे वो बड़े ही मन से पीते हैं। जो नहीं पीता उसे मधुशाला से बाहर का रास्ता दिहाका दिया जाता है। गरीब मुस्लिम परिवार के पिता अपने बेटे को इस मदिरालय में शौक से भेजते है। पैसे से घर की हालत ठीक करने की लालसा में इक बाप हजारो बेटे, बेटी और परिवार के नेवाला कमाने rवाले को मौत के नींद सुला ने को अपने बेटे को रुक्षत करते हैं । काश वो इक रात इक दिन भूखे सो जाते लेकिन बेटे को तबाही फ़ैलाने के रस्ते पर न जाने देते। अलाहः उन मुस्लिमो की सद्बुधी दे और उन्हें पाक रस्ते पर चले का हौसला दे। खुदा हाफिज। सब्बा खैर।

Tuesday, June 29, 2010

रिश्ते बड़े या पैसे

रिश्ते कब कैसे बदल जाते हैं इसका प्रमाण गाहे बगाहे मिलते रहते हैं लेकिन दिल जो है मानने को तैयार ही नहीं होता। पिछले दिनों रेडियो पर इक कार्यक्रम सुन रहा था वहां दो की बीच के प्यार का परीक्षा लिया जा रहा था। क्या वो मुझे ही प्यार करता है या किसी और को। प्रस्तोता ने पुचा मैं आपको १००० रूपये दूंगा क्या आप उनके साथ डेट पर जाना चाहेगी या पैसा ले कर घर पर रहना चाहेगीं। तो तकरीबन गिर्ल्स का कहना था पैसे दे दो अगर यह आप्शन है तो। कोइन जाना चाहता है। प्रस्तोता ने फिर कहा तो क्या वाकई पैसे के लिए उनके साथ डेट पर जाना नहीं चाहेगीं। तो साफ़ ज़वाब था हाँ इसमें क्या गलत है।
इसतरह के कार्यक्रम को सुन कर आज के युवा के विचार सुन कर कुछ देर के लिए ताजुब होता है लेकिन होना नहइ चाहिए। मूल्य नैताकता या इसी तरह के शब्द आज अपने अर्थ खो चुके हैं जो भी यैसे शब्दों को ले कर बैठे हैं उनको निराशा ही हाथ आने हैं और कुछ नहीं। रिश्ते के मायने बदल चुके हैं इस बात को कुबूल करना ही होगा। जो भी इस उम्मीद में बैठे हैं उनको भी इस हकीकत को स्वीकार करना ही होगा कि आज संवेदना से नहीं बलिक पैसे से रिश्ते चलते हैं...

शब्दों के मेनेजर


शब्दों के शिल्पी नहीं कहा आप को लग रहा होगा इसके पीछे कोई ख़ास वजह होगा। हाँ सही समझ रहे हैं, आज कई लेखक नहीं बल्कि उनको शब्दों के मेनेजर ही कहना ठीक होगा क्योंकि वो लोग कोई साहितिक पृष्ठभूमि से नहीं आये हैं वो तो मैनेजमेंट , होस्पेतिलिटी वो इसी तरह के अन्य सेविक एरिया से ए हैं इस लिए उनके लिए शब्दों के मारक अबिलिटी पर पूरा विश्वास है। उनको पाठक वर्ग भी मिल रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि उनको पढने वाले कॉलेज, काम्पुस के न्यू क्लास है। लेकिन वो चेतन, थककर, जैसे न्यू व्रितिन्ग्स को बिना दीर किये पढ़ते हैं। जो भाई उनको नहीं पढ़ा हो उसको शर्म का सामना करना पड़ता है। जब दोस्तों के बीच बात चलती है कि क्या तुमने चेतन की वो वाली नोवेल पढ़ा? अगर नहीं पढ़ा तो आपको लगेगा कि मैंने क्या किया, उसे ही पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा। इसी तरह के कई शब्दों के मेनेजर हमारे बीच अपनी सफलता के लोहा मनवा चुके हैं। यह अलग बात है कि उनकी नोवेल तथाकथित तौर पर गंभीर नहीं कह सकते। गंभीर आज की तारीख में किसे के पास पचाने की शक्श्मता है। पेट चलने लगेगा। इसलिए मिलावट के ही खाद्य पदार्थ खाना चाहिए। तो ये लोग येसी ही रचनाएँ ले कर आ रहे हैं।

ज़ुरूरत तो हिंदी वालों को भी चाहिए कि वो इस तरह की लेखनी को बढ़ावा देने पर सोचना चाहिय। जब पढने वालों को साहित्य मिलने लगे तो कोई क्यों नहीं पढना चाहेगा। आप उनको केंद्र में रख कर लेखन करके तो देखें वो पढने पर मजबूर हो जायेंगे। पर उसके लिए कलम में वो लोच्पन लाना होगा। लेकिन इसका यह मतलब अहि कि फिल्म वालों की तरह इस तर्क को आधा बना कर अलर बालर कुछ भी परोस कर निशिचित ही विश्वास तोड़ने का काम करेंगे.

angreji में इनदिनों इस तरह की रेटिंग वाले लेखक नहीं बल्कि मेनेजर किस्म के ने आथर रोज दिन बाजार में खूब बिक रहे हैं। प्रकाशक राइटर पाठक की जोड़ी खूब जम रही है। क्यों न हिंदी में भी अपना कर देखा जाये.

Monday, June 28, 2010

नियम जो कभी भी बदल जाये

आप को इक कहानी सुनाता हूँ -
कुछ लोग फूट बौल खेल रहे थे। आस पास बैठे लोग खेल का मजा उठा रहे थे। इक कुछ देर बाद .... फौल फूउल इक आवाज तेज़ होने लगी। किसी को खच समझ नहीं आया आखिर क्या हुवा ? किसी ने कहा क्या हुवा ?
गेंद पैर से छु गया। फौल हुवा न। किसी ने कहा इसमें गलत क्या है। गेंद तो पैर से ही तो खेले जाते हैं। आवाज आई नियम बदल गया। पैर से ही खेलते रहे यह भी कुई बात है। नियम तो बदलना चाहिए। प्रगतिवाद तो यही है। परिवर्तन तो जीवन और प्रकृति का नियम है। तो नियम अभी ही क्यों। बस परिवर्तन के लिए कोई मुहूर्त नहीं होता। यह तो ठीक नहीं।
किसी ने कहा गलत है। चीत है। हाँ है। अगर खेलना है तो खेलो वर्ना रास्ता नापो।
ठीक उसी तरह समाज में भी देखने में आता। लोग इसी तरह अपनी सहूलियत के अनुरूप नियम में तब्दीली क्या करते हैं। पसंद हो तो ठीक नहीं तो उनका क्या बिगड़ सकते हैं। जब चाह तब नियम को अपनी ओर किया और जब दुसरे के लिए फयाद्मंद हो रहा हो तो नियम उसी पल से बदल दिया। है न मजेदार बात।

Sunday, June 27, 2010

राजनीति में न दोस्त न दुश्मन स्थायी

राजनीति में न दोस्त न दुश्मन स्थायी जी हाँ सही इशारा समझ रहे हैं हाल ही में जसवंत जी को पार्टी में मिठाई के साथ स्वागत किया गया। उनकी का वनवास पूरा हुवा। यह वनवास १४ साल का नहीं बलि बल्कि महज ९ माह का था। चेहरे पर क्या हसी थी घर वापस लौट कर। पर किसे घर में साहब उस घर में जिस की देहरी से बिना माकूल कारन बताये बाहर का रास्ता दिखाया गया था। चलिए हम इंसानों ने अपने हित के अनुसार मूल्य , नीति , नियम का निर्माण करते हैं जहाँ भी अपने मूल्य विकास में बाधा महसूस होती है जहत से उसे बदल देते हैं। जसवन जी ने भी बुरे ख्याल को दिल से निकल दिया है। पुरानी बटनों में दर्द से ज़यादा रखा ही क्या है सो वो भूल जाना चाहते हैं।
यह साबित करता है कि राजनीति में कोई भी किसी का चीर दुश्मन या दोस्त नहीं होते। वो तो लोजो की नज़र में इक विरोधी की छवि निर्माण करते हैं। लेकिन वही जब रात की पार्टी में मिलते है तो उसी अंदाज में जैसे सुबह या कि शाम कौच किसी ने कुछ कहा ही न हो।
सुबह का भुला शाम घर लौट आये तो उसे भुला कहाँ मानते हैं।

Thursday, June 24, 2010

समाज के नाक की खातिर क़त्ल

आज समाज की मान्यताएं किसे, कब , कैसे बदलता है इसे निशितित नहीं कहा जा सकता। लोग तरह तरह के तर्क दे कर अपनी बात को जायज ठहराठे हैं। कब बदलते हैं अपनी पहचान इसे भी आसानी से देख पाना मुश्किल है। इन दिनों प्रेम करने वाले जुगल को सीधे मौत के घाट उतारा जा रहा है। उसपर तर्क यह कि समाज के लिए जरूरी है। ये कुछ कुछ यैसे ही तर्क हैं जिसे कुतर्क कहा जा सकता है ।
हरियाणा से होते हुवे क़त्ल का सैलाब देश की राजधानी दिल्ली तक दस्तक दे चुकी है। जब देश की राजधानी में कोई सुरक्षित नहीं है तो दुसरे राज्य में क्या मंजर हो सकता है इसका अनुमान लग्न कठिन नहीं है। इक तरफ कोर्ट साफ़ शब्दों में पुलिस, सरकार को झाड लगा चुकी है। पुलिस को कोर्ट ने कह अगर बॉस का कुता गुम्म जाये तो पूरी फोरसे लगा दी जाती है। लेकिन राजधानी में कोई कैसे क़त्ल का खेल जरी रख सकता है।
मगर सरकार भी क्या करे उसे vot की चिंता है।

Tuesday, June 15, 2010

भोपाल के जेल se निकला नागेन्द्र

भोपाल के जेल से निकला नागेन्द्र जी हिंदी साहित्य में इक डॉ नागेन्द्र हुए हैं जिन्हें सभी हिंदी व् साहित्य के रसिक जानते हैं। लेकिन इस नागेन्द्र को जेल की सलाखों ने लिखने पर मजबूर कर दिया। जेल जाना कुछ के लिए रोज के काम हुवा करते होंगे लेकिन इस नागेन्द्र के लिए पुरे १० साल के सजा हो गई। वो भी उस अपराध के लिए जो उसने किया ही नहीं था। उस पर आरोप यह लगागाया कि इस ने अपनी पत्नी की हत्या की है। और २००१ में जेल जाना पड़ा। लेकिन इस नागेन्द्र के पास इक संवेदनशील मन था जिसने उसे कलम चलाने पर विवश किया। जेल में रहते हुवे उसने तें विषये में ऍम ये किया हिंदी , अंग्रेजी और समज्शाष्ट्र के साथ ही म्यूजिक और कंप्यूटर में भी ट्रेनिंग ली। जेल से निकल कर वो अपने किताब छपवाना का मन बना रहा है। अभी उसके पास कम से कम १०० कविता और लघुकथा , उपन्यास की पंदुलीपी तैयार है।
पढने की ललक को कोई न तो ताले में और न जेल की सलाखों के पीछे दाल कर रोक

Monday, June 14, 2010

खबर के नाम पर.....ये क्या हो रहा है भाई

खबर के नाम पर.....क्या कुछ आज अखबार में या न्यूज़ चैनल पर खबरें परोसी जा रही हैं कुछ देर के लिए लगता है परिभाषाएं कितनी ज़ल्द नये रूप में ढल जाती हैं। उदंड मार्तंड, सरस्वती , हरिजन आदि में जिस ख़ास उद्येश्य को ले कर खबर के प्रति नज़र होती थी जिस पर खबरों का चयन करते थे आज वह कसौटी पूरी तरह से बदल चुकी है। माध्यम के साथ खबर की प्रकृति भी बदल गई। यह गलत भी नहीं कह सकते चुकी खबर की भाषा , खबर का रूम क्या हो , साथ ही खबर को कितना तवज्जो दिया जाये यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप क्यों खबर देना चाहते हैं? खबर यानि पांच सवाल का जवाब देने काबिलियत रखता हो।
आज स्थिति यह है कि अख़बार में खबर कम विज्यपन ज्यादा और खबर उस में दुबक कर रहते है। खबर की औकात क्या है यह खबर की रफ़्तार नहीं बल्कि विज्ञापन के बाद खाली जगह पर निर्भर करता है। खबर के संपादन में यह देखा जाता है कि कहना से काट देने पर भी काम चल सकता है और खबर पर चाकू चला देते हैं। अखबार में खबर और विचार धुन्धने पड़ते हैं तब कहीं वह खबर मिलती है। विज्ञापन के बाद जो जगह बचता है वो जगह मनोरंजन परक खबर ले लेती हैं। फ़िल्मी गपशप। किसा किसके साथ किस विस चला रहे हैं। उसके बाद कुछ विज्ञानं समाज शाश्त्र आदि में क्या रिसर्च हो रहे हैं लेकिन इसमें ज्यादा खबरे हम विदेश में किसी संस्था, शोध के परिणाम को रोचक बना कर परोस देते हैं। मसलन कस कर चुम्बन करने से उम्र बढती है। सुबह सुबह सेक्स करने वाले ज्यादा तेज बूढी वाले होते हैं... फिर कुछ दिन बाद दुसे शोध के हवाले से खबर लगते हैं चुम्बन करने से मुह में दाने होते हैं। इस तरह की खबरे के पाठक खूब है। बड़ी ही चाव से पढ़ते है।
अख़बार के पन्नो से विचार , विमर्श गंभीर लेख तक़रीबन गायब हो चुकी हैं। हिंदी की बात करे तो विचार की दृष्टि से गरीब ही दिखती हैं। सम्पाद्किये पेज पर भी भूख मरी दिखयी देती है। लेख के स्थान पर ब्लॉग से उठा कर सीधे चाप देते हैं। न दुबारा लिखने का झंझट न ही प्रश्रीमिक देने का जहमत। बोध कथा प्रेरक प्रसंग आदि किसी किताब से प्रस्तुति में भी वही नज़र काम करता है। मन कि आज कैसी खबर कब किसको चाहिए यह रेअदेर की जरुरत पर निर्भर करता है। साथ ही पाठक पैसे वाला है तो उसके लिए खबर को प्राप्त करने के कई ज़रिये है। नेट , ब्लॉग, ट्विटर आदि माध्यम इतनी तेजी से समाज में इक नए वर्ज पैदा किया है। नेता, एक्टर , खिलाडी सब इक इक कर ट्विटर ब्लॉग के शरण में तेजी से जारहे है। अपनने मन के भड़ास निकलना जुरुरी है सो इस नए माध्यम को लोग तेजी प्रयोग कर रहे हैं।
ज़ल्द ही खबर की प्रकृति और खबर क्यों कितनी मात्र में चहिये यह पाठक पर निर्भर करता है।

Friday, June 11, 2010

नीति७ मूल्यपरक शिक्षा, मंत्री जी बतायेंगे सम्प्रदाए का नाम


नीति७ मूल्यपरक शिक्षा, मंत्री जी बतायेंगे सम्प्रदाए का नाम , जी अब केंद्रीय विद्यालय में मूल्य परक शिक्षा की तालीम दी जाएगी। निर्देशक जी ने आदेश ज़ारी किया कि हर विद्यालय के प्रधानाचार्य अपने आस पास के ब्रह्मकुमारी विशाविदयालय से संपर्क कर सप्ताह में इक दिन क्लास में नीति व् मूल्यपरक शिक्षा की पढाये सुनिश्चित करेगें। इस पर मानव संसाधन मंत्रालय ने अपना मंतव्य प्रगट किया कि ब्रह्मकुमारी संस्था से नहीं बल्कि रामकृष्ण मिशन से दिया जाये मूल्य पार्क शिक्षा। वैसे राष्ट्रीय शिक्षा व् यशपाल समिति और २००० के बाद खास कर मूल्य परक शिक्षा की सिफारिश की गई थी। मगर यह मामला ठंढे बसते में दाल दिया गया था। विवाद यह उठा कि धार्मिक शिक्षा दी जाये या आधात्मिक शिक्षा की सिफारिश की गई। बारह्हाल किसी ने इस विवाद वाले फाइल में हाथ जलाना नहीं चाहते थे सो मूल्य परक व् धर्म शिक्षा को दबा दिया गया। मगर कब तक कोई विवाद को डरा कर रख सकता है।

shishakha के ज़रिये समाज में बदलावों की लहर पैदा किया जा सकती है । नीति व् विचार व् ख़ास लक्ष्य को अमलीजामा भी शिक्षा के मर्फात पूरा करने का काम शिक्षा से लिया जाता रहा है। मंत्री जी मंत्रालय जिसके कब्जे मी होता है वो अपनी तरह की लहर पैदा करते ही रहे हैं। बीजेपी को जब मौक़ा हाथ लगा तो उसने भी अवसर का लाभ उठाया। कंग्रिस को जब कुर्सी मिली तो उसने भी कोई कसार नहीं उठा रहा। जिसे जब मौक़ा मिला उसने अपने पसंद के लोगों, विचार, जीवनी , कहानी व् कविता पाठ में शामिल करने में चुके नहीं। प्रेमचंद के उपन्यास को हटा कर , कहानी की जगह इक बीजेपी की नेता की लिखी ज्यो महंदी के रंग पाठ में ठूस दिया गया। अब बच्चे तो स्कूल में जो भी पद्य जायेगा उसे पढ़ कर उत्तर लिखने की लिए विवश होते हैं। उनसे या मास्टर जी मादाम से कोई राये भी लेना मुनासिब नहीं समझते।

विचार , वाद , पूर्वाग्रह को अगली पीढ़ी में खिसकाने शिक्षा का इस्तेमाल तो किया जाता रहा है। इसलिए हर सरकार शिक्षा पर कब्ज़ा कर मन माफिक तालीम विधायाला शिक्षा की पीठ पर तंग देते हैं। अगर नीति व् मूल्यपरक शिक्षा देने की सदिक्षा है तो टैगोर के शिक्षा दर्शन को तो शिक्षा शतर में ख़ास स्थ्याँ प्राप्त है उसे शामिल किया जा सकता है। लेकिन रामकृष्ण के तंत्र से शिक्षा देने पर मंत्रालय का तर्क यह है कि यह वर्ष १८५ वों वर्षगाठ मना रहा है। तो टैगोर का वर्ष गत भी इसी साल म्नायिजा रही है।

जो भी हो शिक्षा के बहाने विचार, पूर्वाग्रह व् अंध भक्ति व ख़ास धर्म की शिक्षा न दी जाये इस पर गंभीरता से सोचना होगा.

Tuesday, June 8, 2010

न्याय से निराश जन मानस, यह भी कोई त्रासदी से कम नहीं

न्याय तो हुवा मगर इस न्याय से किसी को कुछ भी नहीं मिला। आखें न्याय की उम्मीद में २५ बरस तक तंगी रहीं मगर जो न्याय मिला वह तो न मिलने के बराबर है। भोपाल में आज से २५ साल पहले दिसम्बर २, ३ की कडकती रात में मिथिल गैस के रिसाव की चपेट में कम से कम १५००० से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई। ५ लाख से अधिक इस गैस से बुरी तरह प्रभावित हुए। रात की नींद इतनी लम्बी होगी किसी ने सोते समय सोचा नहीं होगा। जो सोये वो लोग ताउम्र के लिए सो गए। उनके लिए उनकी बिस्तर ही चिता बन गई। जो बच गए वो किसी काम के नहीं रहे। उस गैस कांड से न केवल मानव बल्कि जानवर भी चपेट में आये।
हाल ही में भोपाल के कोर्ट ने इस गैस कांड में शामिल दोषियों को जिस तरह की सजा मुकरर किया उससे पूरा देश स्तब्ध है । महज़ दो साल जेल और २५,००० रूपये बतौर सजा सुन कर स्पष्ट होता है कि किसे दोषी करार देना है किसे बरी करना है यह सब आप के समपार पर काफी कुछ निर्भर करता है। इस गैस कांड में सीधे तौर पर शामिल अन्दुर्सन को महज़ २५,००० रूपये जामा करा कर राज्य सरकार ने उसे देश से बाहर जाने दिया।
उस गैस कांड में जीवन से हाथ धो बैठने वाले लोगों की चिंता सरकार सेष को कितनी है जिस न्याय से साफ होता है। पैसा पद , संपर्क मजबूत हों तो आपका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता । बा इज्जत आपको बरी कर दिया जायेगा।
पूरे देश में इस न्याय से लोगों में गहरी निराशा जन्मी है। हालाकि इस जुद्गेमेंट को हाई कोर्ट में चुनौती दी जायेगी। मगर जिस कदर निराश मन के हौसले चकनाचूर हुए उसको क्या होगा। आज भी २५ साल बाद भी वहां लोगों में अपंगता देखे जा सकते है। गैस रिसाव के आस पास के इलाके में आज भी उस काली रात की वारदात के निश्याँ देखे जा सकते हैं।

Monday, June 7, 2010

पेड़ का बयाँ

क्या पेड़ कभी बयां कर सकता है ? हाँ कर सकते हैं अपने आखों के सामने जो भी घटना होती है उसे अपनी आखों में जब्ज कर लेते हैं। ज़रा सुने-
मैं तो पेड़ हूँ कहीं जा आ नहीं सकता है। जहाँ जन्म लेता हूँ वहीँ ताउम्र जमा रहता हूँ। हाँ यह अलग बात है कोई मुझे कलम के द्वारा दूसरी जगह खड़ा कर देते हैं। तब मेरी शाखाएं व्याप्त हो जाती हैंवर्ना मैं तो इक ही जगह खड़ा रहता हूँ। बर्ष के हर मौसम में मैं चुप खड़ा रहता हूँ। धुप हो या बारिश, ठंढ हो या पतझड़ मौन सहता रहता हूँ। यही तो मेरी नियति है। मेरे सामने लोग बड़े होते हैं। धुल में लिप्त कर बड़े हुए बच्चे बड़े हो कर शहर चले जाते हैं। दुबारा लौट कर नहीं आते। मैंने अपनी आखों से गावों को बसते और उजड़ते देखा है। पर हमारे बयाँ पर कोई कैसे विश्वास कर सकता है। हर कोई यही कहेगा कि पेड़ भी कोई बयाँ दे सकता है। मगर यही सच है मैं बयाँ देता हूँ जी हाँ मैंने देखा है महाभरत, रामायण और यहाँ तक कि कारगिल भी मेरे सामने ही घटा है।

Sunday, June 6, 2010

हिंदी संग अंगरेजी

आज भाषा की आपसी रिश्ते तो अलग कर नहीं देखा जा सकता है। हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है अपनी खास पहचान भाई जिसे नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता। बच्चे हो या बड़े हर किसी को इस बात का इल्म हो चूका है कि अंगरेजी और हिंदी में से कोण सी उसके साथ दूर तब चलने वाली है। हिंदी में सरकारी घोषणा वादे और सपने दिखया जाता है मगर कम काज तो अंगरेजी में ही होता है। दोनों भाषा के प्रयोग करने वाले बेहतर तर्क देकर साबित करते नहीं थकते कि फलना हमारी मातृभाषा है और दूजा तो विदेशी ठहरी। अपनी घर की भाषा को जो जगह मिली है वह अंगरेजी को कैसे दे सकते हैं। भाषा के बीच लडाई है है बल्कि मनमुटाव तो बोलने लिखने वालों के बीच तमाम तरह के भेद हैं। जबकि कोई भे भाषा दुसरे की दुश्मन नहीं होती। हाँ यह अलग बात है कि जिस भाषा को बाज़ार , लोग ज्यादा मिलते हैं उसे अपने पर नाज़ होना भी लाज़मी है यही अंगरेजी के साथ है। दोनों की बीच इक लक्ष्मण रेखा खीचने वाले भावना को कुरेद कर दूसरी भाषा को निचा दिखने का खेल खेलते हैं।
स्कूल, कॉलेज या फिर दफ्तर में दोनों भाषा के चमत्कार आम है। हिंदी में और अज्ग्रेजी में बोल कर इस बात की परीक्षा ले सकते हैं। अंग्रेजी बोलने वाले की बात ज़ल्द सुनी जाती है। वहीँ हिंदी में बोल कर देख लें आपकी बात को उस वजन से नहीं लिया जाता। इक दुसरे को भला बुरा कहने से बेहतर है हम भाषा की शक्ति को कुबूल करें। दोनों भाषा को साथ ले कर भी चला जा सकता है। जरूरी तो नहीं कि हिंदी को बोलेन मगर अंगरेजी से नाक सिकुरे। साथ अगर दोनों भाषा आपके संग हो गई तो आपको मालूम नहीं आप कितने शक्तिशाली हो जायेंगे। दोनों भाषा पर चांस मार कर देखिये बहुत कठिन नहीं है। हिंदी तो हम छुटपन से ही बोलते आ रहे है। यानि आपको जो भी समय लग्न है वो अंगरेजी है। अगर रोज २० मिनुत भी अंगरेजी पर दिया जाये तो आप देखते ही देखते आप की सम्प्रेषण में चार चाँद लग जाएगी। अब आप दो भाषा को इक साथ रखते है। जहाँ जिस भाषा की जरुरत पड़े उसका इस्तमाल कर सकते हैं। लेकिन जब विकल्प ही नहीं होगा फिर आप मजबूर होंगे सिर्फ इक भाषा के इस्तमाल करने में।
विरोध अगर हो भी तो वह धनात्मक हो तो उसके अलग फायेदे है। विरोध भाषा के बरतने और जानकारी के स्टार पर होना बेहतर है लेकिन पढने को पुर्ग्रह से अलग रखना चाहिए तभी हमारे पास दोनों भाषाएँ इक नै दुनिया रच सकती है

Thursday, June 3, 2010

बात निकल पड़ी है

बात निकल पड़ी है ....

दरअसल पाकिस्तान और भारत के बीच मुंबई आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच रुकी वार्ता ट्रेन जो थिम्पू में पुनः ट्रैक पर लौट आई है साथ ही जुलाई में इस्लामाबाद में विदेश मंत्री की मुलाकात होनी है। इससे पहले गृह मंत्री चिदंबरम जून में पाकिस्तान जायेंगे।

यह तो प्रयास राजनैतिक स्टार पर हैं ताकि दोनों देशों के लोग करीब आ सकें। इस के साथ ही भारत से टाइम्स ग्रुप और पाकिस्तान के जंग ग्रुप मिलकर अमन की आशा कार्यक्रम चला रहे हैं। वैसे भी दोनों देशों के रिश्ते की दूर इक दुसरे से जुड़े हैं।

Wednesday, June 2, 2010

जीवन के साथ प्रयोग

जीवन तो इक ही मिलता है। उसको या तो अपने शर्तों पर जीयें या किसी के गुलाम हो कर पूरी ज़िन्दगी काट दें। यह पूरा का पूरा हम पर निर्भर करता है। ज़िन्दगी के साथ हम अक्सर प्रयोग करते रहते हैं। कभी सफल होते हैं तो कभी प्रयोग से जिस प्रकार के परिणाम की उम्मीद करते हैं वही हासिल नहीं होता। दरअसल जीवन के साथ गाँधी ने भी प्रयोग किया था। हर कोई प्रयोग करता है। सब के अपने सिध्यन्त होते हैं जिस निकष पर हम अपने जीवन को कसते रहते हैं। जिसने ज़िन्दगी भर झुक कर काटा है वह कभी आवाज , सवाल नहीं कर सकता। क्यौकी जीवन भर उसने सिर्फ आदेश सुना है। उसकी चेतना दब जाती है जो उम्र भर इस शोषित चेतना से उबार नहीं पता।
पालो फ्रेरे ने इस चेतना को शोषित की दमित चेतना नाम दिया है। मान कर चलता है कि उसका जीवन सिर्फ मालिक की सेवा , आदेश और नीचे बैठने के लिए है। इसमें मालिक के दोष को देखने के स्थान पर यह मान बैठता है कि यह इश्वर की येसी ही विधान है। हम कोण होते हैं उसकी तंत्र को चुनौती देने वाले। हमारे बाप दादे भी यही तो करते आये हैं यह तो जन्म जन्म से चला आरहा है।
उत्पदितों की दमित चेतना को बतौर कायम रखने में हमारी शिक्षा, समाजो संस्कृतीत तालीम भी भूमिका निभाती है। समाज में दो किस्म के लोग होते हैं इक वो जो आदेश पाने वाले दुसरे आदेश देने वाले। आदेश देने वाला कभी यह स्वीकार नहीं कर पाटा है उसके नौकर ज़वाब तलब करें। सर नीचे कर के बिना जुबान खोले काम में दुबे रहें। सवाल करने वाले नौकर , चाकर मालिक को पसंद नहीं आते। उनको दर लगता है कि इनकी चेतना जागृत हो गई तो हमारी चाकरी कोण करेगा। इसलिए इन्हें शिक्षा देने के खिलाफ रहते हैं। शिक्षा उनमे जाग्रति पैदा का सकती है। वो अपने अधिकार, आजादी की मांग कर सकता है। इसलिए उनका अशिक्षित रहना ही उनकी तंत्र को महफूज रखते हैं।
जीवन इक ही है इसके साथ प्रयोग करते करते काट देना है या प्रयोग के बाद प्राप्त परिणाम भोगने के लिए कूद को बचा कर रखना है यह हम पर निर्भर करता है।

Tuesday, June 1, 2010

रोटी बिन मौत


कितनी अजीब बात है इक तरफ लोग अपनी थाल में रोटी दाल यूँ ही फेक देते हैं। इक रेस्तरो में बैठ कर बर्गर , पिज्जा के टुकरा बर्बाद कर देते हैं। वहीँ देश में कई लोग हैं जो बिना रोटी के भूखे रात सो जाते हैं। जिनके पेट में अन्न नहीं जाता वो दुनिया से चले जाते हैं। हाल ही में मुझ्फर्नगर के इक गावों में बेटी भूख से बिलबिला कर रात सो गई....

बाप बेचारा अपनी बेटी को रोटी भी नहीं दे सका। सरकार की और से च्लायेजा रहे कार्यक्रम जिसमे रोगी , गरीब बच्चे को खाना, शिक्षा दावा के साथ दियेजाने की घोषणा की जाती है लेकिन इस परिवार को क्या मिला ? मौत और चीर नींद जहाँ से कोई वापस नहीं आता। कितनी विडंबना है कि इक तरफ लोग खा कर बीमार होते हैं वहीँ दूसरी और भूख की मार सहते जीवन से हाथ धो देते हैं।

इसी साल २६ जनवरी को जहाँ दिल्ली में इंडिया गेट पर तमाम लोग जश्न मन रहे थे वहीँ राजस्थान के इक गावों में इक किसान अपनी गरीबी की मार सह रहा था। भूख से चटपटा कर बीवी, बच्चे के संग इस दुनिया को अलविदा कह रहा था। बात किसी इक राज्य की नहीं है बल्कि यह उस देश में घट रहा है जहाँ सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे पानी की तरह खर्च हो रहे हैं। विदर्भ की किसानों की मौत भी अब किसी न्यूज़ चंनल के लिए ब्रेअकिंग खबर नहीं बनती। मगर यैसे घटनाएँ हमारे विकास के सुन्दर चेहरे पर इक तमाचा नहीं तो और क्या है।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुवा,

आज कल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्वा।

दुष्यंत कुमार की ये पंक्ति क्या ही व्यंग मारती है। सही है दिल्ली सब की नहीं सुनती। अगर दिल्ली को सुनानी है तो कोई मंच, कोई आन्दोलन, या कोई और रास्ता पकड़ना पड़ता है। जिसे जिस राह सहज लगता है अपनी काटने लगता है।

Sunday, May 30, 2010

खाप की थाप सुन रहे हो मुन्ना? गोत्र के कूप में गिर रहे हैं हम

खाप की थाप सुन रहे हो मुन्ना? गोत्र के कूप में गिर रहे हैं हम , सुन रहे हैं कि तुम्हारे गावो में भी लड़के और लड़की को मौत के घाट उतर कर बुजुर्ग लोग खुश हैं कि गावों की नाक कट गई। कम से कम आने वाली पीढ़ी तो प्यार के रह पर कदम बढ़ने से पहले दस बार सोचेगी। मौत का खौफ इनके जेहन में बैठना बेहद ज़रूरी है। सुना तो यह भी है लड़की के बाप और भाई खुद मिल कर लड़की को रात में काट कर नहर में बहा आये? क्या यह सच है मुन्ना ?
पुरे गावों जेवार में उनकी नाक उची हो गई। और उनके बेतवा के लिए रिश्ता इक बड़ी ही मालदार घर से आई है। किसी ने आवाज तक नहीं उठाई कि बेटी के हत्यारे हैं। कल को बहु को भी वही हस्र कर सकते हैं जो बेटी को किया। इनको बेटा चाहिए छये कुछ भी हो जाये। आज कल सुनने में आया है बेटी को स्कूल भी जाने से मन कर दिया गया है। गावों के तमाम लड़कियां घर बैठ गई हैं। लेकिन बहु पढ़ी लिखी की मांग करते हैं। मुन्ना ये तो साफ ज्यादती है। तुम कुछ नहीं बोलते क्या? तुम तो ओज्फोर्ड से पढ़ कर आये हो जी। तुम से उम्मीद लगा रखें हैं। मगर सुना है तुम भी उनकी ही हाँ में हाँ मिला रहे हो। लोग तो यह भी कह रहे हैं कि तुम वोट की खातिर यह सब कर रहे हो। का ई सच है ?
जब पढ़े लिखे लोग जवान खून भी पुराणी जर्जर और बुरी रीति की प्रशंसा करेंगे तो फिर गावों तो गावों शहर भी इससे बच नहीं पायेगा। कल्पना चावला, उषा , चाँद कोचर जैसे बेहतरीन महिला समाज को किसे मिल पाएगीं? कभी सोचा था कि अपने भतीजे की शादी मैं अपनी पड़ोस की उस लड़की के करायुन्गा जो बेहद ही शालीन और पढ़ी लिखी है मगर है नीची जाती की। मगर अब यह भी खाब ख्याब ही रह जायेगा। तुम्हारे गावों में तो मुझे घुसने भी नहीं देंगे। शादी किये मुझे तक़रीबन १५ साल हो गए। तब गावों भी पीछे धकेल आया था। मैं तेरी भाभी को किसे भी हाल में नहीं अलग कर सकता था सो हमने साथ रहने का वचन लिया। तुम तब छोटे थे। तेरी माँ ने हमें अपने पीहर में पनाह दी थी। जिसका परिणाम नुको अपनी जान से हाथ धो कर हमारी जान की रक्षा करनी पड़ी।
मैं अपनी भाभी का कर्ज दार हूँ। मैं उनके बेटे का घर यूँ उजड़ने नहीं दूंगा। तुम को जब भी मेरी मदद की जरुरत हो बेहिक आ जाना। गावों में रह कर न तुम बच सकते और न ही तेरे साथ की दोस्त ही। १६ सालों में बेशक दुनिया बदल गई हो। गावों में सड़क , बिजली पानी , टीवी और फोन आगये हों लेकिन लोगों को अभी भी उसी खोह में रहना भाता है। प्यार करना या अपने पसंद की लड़की को जीवन साथी बनाना सबसे संगीन जुर्म लगता है।
मैं अपना प्यारा भतीजा नहीं खोना चाहता। माँ जैसी भाभी नहीं खोना चाहता।
तुम्हारा
चाचू

Thursday, May 27, 2010

आई हेत यू वैरी मच

आई हेत यू वैरी मच आप इस लाइन पर ज़रा चौक गए होंगे। बात बिलकुल दुरुस्त है। कोई कितने प्यार से आप को कह रहा है आई हेत यू वैरी वैरी मच। इस पर आप क्या सोच सकते हैं? यही न कि सामने वाला नाराज़ है। लेकिन ज़रा सोच कर देखें कि मान लें आज हम यह निश्चित कर लें कि आई हेत यू का मतलब आप को मैं बेहद प्यार करता हूँ। तब आपको बुरा नहीं लगेगा।
भाषा इसी को तो कहते हैं कि जिस शब्द के मतलब हमने निश्चित कर लेते हैं वही अर्थ सदियों तक चलते रहते हैं। धीरे धीरे वही अर्थ रुद्ध हो जाते हैं। कमल नाम सुनते ही हमारे दिमाग में इक खास किस्म का फूल आता है यही तो बिम्ब व् प्रतीक कहलाता है। शब्द इसी तरह हमारे आस पास बनते बिगड़ते रहते हैं। मिट्ठे गढ़ते रहते हैं। यही शब्द हमारे संस्कार में शामिल हो जाते हैं।
भाव के बिना बोले शब्द निरा ध्वनि मात्र होते हैं। लेकिन जब वही हमारे अनुभव से पग कर निकलते हैं तब मन उन्ही शब्दों को सुन कर मयूर सा नाच उठता है। यही तो शब्दों का जादू कहलाता है। वर्ना कई शब्द तो जैसे कोड़े से लगते हैं। कानों में पीड़ा पहुचाते हैं। वहीँ कुछ शब्द यैसे भी होते है जिन्हें सुन कर आप दिन भर मस्त रहते हैं। यूँ तो शब्द अपने आप में कोई मायने नहीं रखते लेकिन जब हमारी ज़िन्दगी की कोई खास पल को उकरते हैं तो वही शब्द हमारे लिए ख़ुशी के सबब बन जाते हैं।

Wednesday, May 26, 2010

कितने राठोर


कितने राठोर हमारे आस पास घूमते रहते हैं। सीना फुला कर गोया कह रहे हों मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा। मगर आपने जो भी भूत में किया वो आपके पीछे पीछे चली ही आती है। देखिये, राठोर ने कभी सोचा होगा कि १९९० की बात २० साल बाद उनके गले पद जाएगी। आडवानी व् उनके साथ राम मंदिर की तमन्ना लिए बाबरी मस्जीद को ख़ाक में मिलते समय सोचा होगा कि उनपर इतने सालों के बाद केश भी खुल सकता है। लेकिन सच है कि कभी न कभी हमारे अतीत वर्तमान में रोड़े अटकाते हैं तब लगता है हमने क्या गलती की जिसकी सज़ा मिल रही है।

हमारे समाज में कई सारे राठोर हैं खुलम खुल्ला खेल खेलते हैं। उनके मनोबल इतने बढ़ जाते हैं कि कानून को अपने घर की दाई समझने की भूल कर बैठते हैं। इन्द्र गाँधी की हत्या के बाद देल्ली में किस कदर सिखों पर जुल्म किये गए क्या इसे कोई भुलाये भूल सकता है। पूरे देश में सिखों पर जैसे हज़ारों यमराज इक समय में हमला बोल दिया हो। लोगों ने जम कर लूट पात किया। सिखों ने बाल काट डाले। हिन्दू होने का हमने क्या ही लाज़वाब परिचय दिया। सज्जन कुमार या तित्लर तो इक आध चेहरे थे जिनको आज की तारीख में किये का फल मिल रहा है। मगर उन हज़ारों चेहरे को कैसे पहचान किया जाये।

राठोर, कसाब या यैसे ही कई नाम हो सकते हैं, नाम बेशक बदल जायेगे लेकिन उनकी करतूतों में कोई कमी नहीं आ सकती। इस लिए हमने यैसे चेहरे को समाज के सामने बे नकाब करना होगा। उनके हौसले तोड़ने होगें तब संभव है समाज में महिलायों को शायद सुरक्षा दिला सकें।

कर्म हमने किया तो भोगना होगा

कर्म हमने किया तो भोगना होगा। कर्म प्रधान इस देश में गीता, उपनिषद , व् अन्य ग्रन्थ भी कर्म पर जोर देते हैं। कर्म प्रधान यही जग माहि। बिना कर्म के हम चाहते हैं हमने जो किया भी नहीं उसके भी फल हमें मिले। पर क्या यह संभव है ?
हमारे कर्म हमारे साथ चलते हैं। चाहे लोक में इसके उद्धरण देखें या अन्य पर लेकिन कर्म अपना रंग दिखाता है। हमने यदि म्हणत की है तो वह इक न इक दिन अपना रंग लायेगा ही। दो भाई व् बहन इक घर में पल बढ़ कर समाज में अपनी जगह बनाते है। दोनों के कर्म और परिश्रम काम आता है न ही जिस घर में जन्म लिया। पिता कितने भी धनि , ज्ञानी हों लेकिन यदि उनके बच्चे उनसे नहीं सीखते तो पिता के नाम बस तभी तक साथ होते हैं के फलना के बेटे हैं। देखो , पिता इतना पढ़ा लिखा लेकिन बेटे रोड पर हैं।
कर्म की प्रध्नता कोई भी नकार नहीं सकता । कुछ देर के लिए आप कुबूल न करे लेकिन है तो हकीकत की आप जो कर्म के पेड़ बोते है वही फल आप को मिलता है। यह अलग बात है कि कुछ लोगों को बिना बोये ही आम खाने को मिल जाता है। लेकिन यैसे लोगों की संख्या कम होती है। इसलिए कर्म करने में विश्वास करना बेहतर है न कि भाग्य पर हाथ धर कर।

Thursday, May 20, 2010

भाषा की चमक


भाषा की चमक जी आपने सही सुना भाषा की अपनी चमक भी होती है। भाषा को जितना बोला, लिखा , सुना और पढ़ा जाये उतनी ही हमारी भाषा दुरुस्त और चमकीली होती चली जाती है। वैसे तो हीरानंद सचिद्यानंद अजेय ने कहा था कि बासन को ज़यादा मांजने से मुल्लमा छूट जाता है। इसको भाषा पर उतर कर लोगों ने देखा और कहा कि उसी प्रकार शब्द को ज्यादा प्रयोग से उसकी अथ्त्वाता मधिम पद जाती है। लेकिन मेरा मानना है कि भाषा एसी चीज है जिसे जितना मांजा जाये उसकी चमक और दुगनी हो जाती है।

हम गाली अपनी ज़बान में क्या ही फर्र्रते से देते हैं वही अगर कहा जाये कि इंग्लिश में उसी अधिकार से दें तो शायद हम न दे पायें जब गाली देने में मुश्किल होती है तो कोई इंग्लिश बोलने में कितना हिचकेगा इसका अंदाजा लगा सकते हैं। भाषा को तो जितना बोलो उतना ही सुन्दर और निखरता है । अमिताभ ने इक फिल्म में बोला था- "आई वाक् इंग्लिश, आई ईट इंग्लिश, आई स्लीप इंग्लिश" कितनी गंभीर बात है मगर इसे क्या ही सरल तरीके से गाने में अमिताभ ने गाया। भाषा पर इसे घटा कर देखें तो पाते हैं कि जिसने भी भाषा के साथ इस तरह का रिश्ता कायम कर लिया उसकी भाषा के साथ गहरी छनती है। भाषा डरावनी नहीं होती। और न ही भाषा कठिन होती है। वास्तव में भाषा बेहद ही नाज़ुक , कोमल , और कमसीन होती है। इस के साथ ज़रा भी बेवफाई उम्र भर के लिए दुखद होता है।

भाषा के साथ मुहब्बत करने वाले दुनिया में बेहद ही कम लोग हुवे हैं। जिसने भी भाषा के साथ इलू इलू किया है उसको पूरी दुनिया ने पलकों पर बैठ्या है। गोर्की , प्रेमचंद , प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा ही नहीं बल्कि और भी नाम हैं जिनकी प्रसिधी भाषा पर जबरदस्त पकड़ और कमाल की दोस्ती ने रंग दिखा दिया।

इनदिनों स्कूल की छुट्टियाँ हो गई हैं बच्चे विभिन्न कोर्से में सिखने जा रहे हैंइंग्लिश स्पेअकिंग , पेर्सोनालिटी देवेलोप्मेंट आदि। इंग्लिश बोलने की ललक ने इन बच्चों को गर्मी में भी चैन से बैठने नहीं दिया। हर कोई चाहता है बेधरक र्न्ग्लिश बोले। मगर झिझक है कि बोलने नहीं देती। स्कूल बोलने से मना करता है। माँ पिता बोलने के लिए क्लास में भेजते हैं। मगर यहाँ उनकी ज़बान ही नहीं खुलती। वैसे तो चपर चपर बोल लेंगे लेकिन जब बोलने को कहा जाये तो मौन साध लेंगे। पता नहीं सही बोल पायूँगा या नहीं।

भाषा को आज याद कर परीक्षा में सवाल कर आने तब सीमित कर दिया गया है। वही वजह है कि बोलने में कतराते हैं। परीक्षा बोलने की नहीं होती बल्कि लिखने की होती है। इसलिए लिख कर ९० ९७ फीसदी अंक तो आजाते हैं मगर बोलने को कहा जाये तो गला सूखने लगता है।

भाषा व्याकरण से पहले आती है। व्याकरण भाषा का अनुसरण करती है न कि भाषा व्याकरण के पीछे भागती है। बचपन में बिना व्याकरण का ख्याल किये बोलते हैं जब स्कूल जाना शुरू करते हैं तब व्याकरण सीखते हैं। इसका मतलब यह हुवा कि भाषा व्याकरण की मुहताज नहीं है। भाषा को जितना बोल सकें, सुने उतना ही वह भाषा हमारे करीब आती चली जाती है।

शर्माना छोड़ दाल और भाषा से मुहब्बत कर ले यार। फिर देखना लोग कैसे तेरी तरफ खीचे चले आते हैं।

Wednesday, May 19, 2010

जो रचेगा वो कैसे बचेगा

जो रचेगा वो कैसे बचेगा श्रीकांत वर्मा की इन पंक्ति उधर ले कर कुछ कहना चाहता हूँ। पिछले दिनों न्यू देल्ली के इंडिया habitat सेंटर में इक विचार विमर्श हुवा. विषय था- 'मीडिया में साहित्य की कम होती जगह' कई नामी लोग इस मंच से अपनी मन की भड़ास निकल कर अपने अपने घर को चले गए। सवाल यह है कि क्या वास्तव में साहित्य सेवा से समाज या कि रचनाकार का क्या काय कल्प हुवा है? जवाब है बेहद कम। अगर रचनाकार का भला होता तो क्या कारन है कि अमरकांत को अपनी मेडल या अन्य पुरस्कार बेचने की घोषणा करनी पड़ी। नागार्जुन, त्रिलोचन या निराला को साहित्य रचना के बल पर बेहतर ज़िन्दगी मिल सकी। निराला जिस ने तो सरोज स्मृति लिख कर अपनी मन की भावना रख दी। वहीँ अमरकांत को बुढ़ापे में दवा के लिए अपनी तमाम रचना को नीलाम करने की स्थिति का सामना करना पद रहा है। आखिर इक रचना किसे किसे रूप में साहित्यकार से मूल्य लेती है।

याद करने प्रेमचंद को घर की तमाम बर्तन बासन बेचने की स्थिति का मुह देखना पड़ा। साहित्य वास्तव में रोटी तो दे सकती है मगर दवा पानी सुरक्षा आदि में असमर्थ होती है। कई बार लगता है साहित्य कठोर हकीकत से पलायन का इक रास्ता है। कविता, कहानी लिख कर खुद पढ़े , दोस्तों को पढाये जुगाड़ दुरुस्त है तो कई जगह समीक्षा छपा ली। पुरस्कार मिल जाये इसके पीछे नहा धो कर पिल गए। अगर सफल हुए तो चर्चा होगी वर्ना आपकी किताब कहीं धुल फाक रही होगी।

आज साहित्य की ज़ुरूरत किसे है? इस पर भी सोचना होगा। साहित्य पढने वाले या तो कॉलेज , विश्वविद्यालय के छात्र- अध्यापक रह गए हैं या शोधकर्ता जिनको मजबूरन रूबरू होना पड़ता है। इसके अलावे ज़रा नज़र उठा कर देखें कितने हैं जो अख़बार , पत्रिका के बाद साहित्य पढ़ते हैं। संख्या कम है। आज साहित्य किसी को मानसिक शांति तो दे सकती है मगर दो जून की रोटी मुश्किल है। साहित्य पढने वाले को आज के ज़माने में पिछड़ा हुवा ही मानते हैं। आप माने या नकार दें आपकी मर्जी लेकिन सच है कि साहित्य वही पढता है जिसके पास अराफात समय है।

मीडिया दरअसल आज के ज़माने की मांग और चुनौतयों को कुबूल करता बाज़ार की धरकन सुनता है। इसलिए यहाँ साहित्य से कहीं ज़यादा स्टोरी चलती है। वह स्टोरी जो दर्शक जुटाए, टीआरपी दिलाये। जो साहित्य नहीं दिला सकती। सेक्स , धोखा और सिनेमा वो दम है जो मीडिया को बाज़ार में टिके रहने की ज़मीन मुहैया कराती है। फिर साहित्य कैसे ब्रेअकिंग न्यूज़ बन सकती है। जब कोई विवाद खड़ा होता है या कि किसी नामी साहित्य कार रुक्षत तब कुछ देर के लिए न्यूज़ आइटम बन पाते हैं साहित्यकार। वर्ना पूरी ज़िन्दगी लिखत पढ्त जीवन काट देते हैं आज की मांग है कोर्से या किताब वही सफल जो जॉब दिलायु हो । वर्ना लिब्ररी में किताबें पाठक को देखने को लालायेत रहती हैं। कोई पन्ना पलटने वाला नहीं मिलता। टेक्स्ट बुक तो मज़बूरी में पढ़ी जाती हैं क्योकी यह सीधी सीधी परीक्षा से वास्ता रखता है।

साहित्य को टेक्स्ट बुक की तरह बन्दिय जाये तो इसके भी पाठक मिल जायेंगे। इससे कहीं ज़यादा ज़रूरी यह है कि साहित्य जो ज़िन्दगी से वास्ता रखने का मादा रखता हो तब साहित्य हम से जुड़ जाएगी।

Sunday, May 16, 2010

मकानमालिक की जलन

मकानमालिक की जलन या यूँ कहें कि अगर आप कुछ खरीद कर ला रहे हैं और आपका मकान मालिक देख ले तो आपनी खैर नहीं। वो सोचते हैं किरायेदार को कंजर होते हैं उन्हें फ्रिज, टीवी के इस्तमाल का हुक ही नहीं। किरायेदार हैं तो वो भिखमंगे हैं। उन्हें कभी भी घर से खदेर जा सकता है। इतना ही नहीं मकान मालिक के नखरे और घर खली करने की कई नायब तरीके होते हैं -

घर रेनोवेत करना है, घर में शादी है, बला बला। दरअसल उन्हें ज़यादा किराया चाहिए होता है लेखिन मुह खोल कर नहीं मांगते। मांगते किसे कहेंगे ? लेकिन साहिब किरायेदार तो खानाबदोश होता है। हर समय डेरा डंडा सर पर लेकर चलना होता है।

घर नहीं तो सामान खरीदने का हक़ नहीं। घर नहीं तो कुछ भी नहीं। पहले इन्सान को घर बनाना चाहिए। तब कुछ और काम करे। दिल्ली में गेम होना है मगर हर्जाना स्टुडेंट्स, कम कमाने वाले को भरना होगा। हर चीज महँगी। घर किराये पर लेने चलें तो सर चक्र जाता है। जिस कोठरी का दम १००० रूपये होगें उसकी कीमत ३००० मांगी जाती है। कोई सवाल करने वाला नहीं। उस पर आप को कई सवाल के जबाब देने होंगे - बिहार , पत्रकार , वकील , फॅमिली को जिस हम घर नहीं देते। यानि किराये पर रहना है तो न शादी करें और न सामान रखें। तब मकान मिल सकता है।

जगजीत सिंह का ग़ज़ल है -

हम तो हैं परदेश में देश में निकला होगा चाँद .....

इक अकेला इस शहर में आशियाना धुन्धता है आबुदाना धेन्द्ता है.....

गुलाम अली को याद करने का मन हुवा -

हम तेरे शहर में आये हैं मुसाफिर की तरह....

ग़ज़ल या गीत तो बोहोत हैं मगर इनमे रह नहीं सकते। इक मकान ही चहिये। जो आपके शहर में मुश्किल है। चलो ग़ालिब अब तेरे शहर में जी नहीं लगता। सब के सब सलीब है॥

Saturday, May 15, 2010

रास्ते कहीं नहीं जाते

रास्ते कहीं नहीं जाते जाते हैं हमारे कदम। इसको इस रूप में समझ सकते हैं कि रास्ते अगर कहीं जाते तो हर राहगीर कहीं न कहीं ज़रूर पहुच जाता। रास्ते तो यहीं के यहीं रहते हैं चले वाला अपनी मंजिल तक पहुच पता है। दुसरे शब्दों में , अगर सही राह , सही समय पर, सही दिशा में चुना जाये तो संभव है इक न इक दिन चलने वाला अपनी मंजिल तक पहुच जायेगा। लेकिन जब रास्ते सही न हों, दिशा ठीक न हो तो उस राही को ता उम्र भटकते देख सकते हैं। इसलिए यदि हम चाहते हैं हैं कि हम उम्र भर चलते ही न रहें बल्कि निश्चित लक्ष्य भी पा सकें तो पहले हमें अपनी मंजिल और उस तक पहुचने वाली दिशा को जाँच लेना होगा।
आज अधिसंख्य के साथ यही त्रासदी है कि उसे चलना तो मालुम है मगर किसे राह जाये यह नहीं पता। इसलिए वह कई बार गलत राह पर, गलत दिशा में अपनी तमाम ऊर्जा जाया करदेता है। ज़रूरी है कि आज के युवा को सफल, कुशल और मंजे हुवे लोगों के द्वारा मार्ग दर्शन मिले। ताकि इक युवा अपनी उर्जा को सही दिशा में अपनी प्रकृति रुझान के अनुसार लक्ष्य निर्धारित कर आगे बढ़ सके।
कई बार माँ बाप या भाई बहन की अदुरी खवाइश को बच्चों के कंधे पर लड़ दिया जाता है जिसे वह पूरी ज़िन्दगी लिए लिए फिरता है। आधे अधूरे मन से मिली मंजिल को पाने में इक युवा अपनी पूरी उर्जा झोक देता है। बेमन , गलत फिल्ड और कई बार तो अपनी चुनी मंजिल को तिलांजलि दे माँ बाप की अधूरी इक्षा को पूरा करता रहता है।
हम राह दिखाने, लक्ष्य निर्धारित करने और विधि चुनने में मदद कर सकते हैं। लेकिन चलने वाला वही राही लक्ष्य तक पहुच पता है जिसने उचित समय पर, अपनी उर्जा की पहचान कर राह पकड़ कर चला करते हैं।

Thursday, May 13, 2010

पहले गली फिर अफ़सोस

कितनी मजे की बात है अपनी राजनीती में पहले नेता दुसरे को गली देते हैं और जब बात पर प्रतिक्रिया आती है तब तुरंत से अफ़सोस ज़ाहिर कर देते हैं यह कहते हुवे कि मेरा इरादा किसी कि भावना को ठेस पहुचाना नहीं था मगर दुःख हुवा तो मैं उसके लिए खेद प्रगट करता हूँ। कितना आसन काम है यह कह देना। मगर उतना ही कठिन है शब्द की मर को महसूस कर पाना।
बीजेपी प्रेसिडेंट नितिन गर्कारी ने लालू और मुलायम जिस को कांग्रेस और सोनिया गाँधी के तलवे चाटने वाला बताया। मगर जब बात बदती नज़र आई तो कह दिया कि वह तो मुहावरा था। मेरा मकसद किसी को चोट पहुचाना नहीं था। यह तो चलता ही रहता है। खास कर चुनाव के दिनों में इक दुसरे पर कीचड़ उछालना बेहद ही आम बात है। यद् कर सकते हैं मनमोहन जिस को आडवानी जिस ने क्या कहा था और पलट वर में मनमोहन जिस भी कम नहीं कहा। मगर सर्कार बनजाने के बाद दोनों नेता संसद में दोस्त की तरह मिले। दोनों ने ही कहा चुनाव के दौरान जो कुछ भी कहा सुना गया उसे भूल जाया जय।
राजनीती में कहा सुनी तो चलती ही रहती है। कोई इन पर कान देने लगे तो उसका तो हो गया दिमाग ख़राब। इस लिए तोर मोर चोर तो चलता ही रहता है।

Tuesday, May 11, 2010

बिन सोच के बोलने वाले

जय और थरूर दोनों बडबोले यानि मरे बिन सोच के बोलने वाले। कबीर ने कहा था , बोलने से पहले परख कर ही बोले। वही समझदार है। वो क्या जो ठोकर खा कर सीखे। वाणी होती ही है इतनी मारक कि इक शब्द किसी को सुख दिला देती है तो वही इक शब्द जूता भी खिलाती है। इक शब्द ने दशरथ की जीवन लीला ख़त्म कर दी। वहीँ इक शब्द इन्सान को कहाँ से कहाँ बैठा देता है।
जय राम रमेश को क्या ज़रूरत थी दुसरे की मिनिस्ट्री में घुसने की। मगर हम आदतों से लचर होते हैं। अपने घर में झाकने की बजाये दुसरे की काम, घर में तक झक करना अच लगता है। ब्रितिब्रिन्जल मामले में देख लें यही मुख है जिसने पत्रकारों को कहा था , अपने दिमाग का इलाज कराये। और भी इस तरह के शब्द तीर जय राम ने चलाये थे। उधर थरूर साहब भी कभी गोरु डंगर कहा तो कभी नहरू की चाइना निति की आलोचना की। समझने के बाद भी नहीं मने तो आखिर में कमान ने नाप दिया।
राजनीती हो या आम जीवन सोच के बोलने वाले कहीं मात नहीं खाते । जिसने भी शब्द के साथ बद्तामाजी की उसे उसका परिणाम भुगतना पड़ा है।

Sunday, May 9, 2010

राधा को भी मरना पड़ता

पत्रकार उस पर लड़की और तो और सुन्दर यानि इक के बाद इक बेहतर का मुलम्मा। उस पर दिल्ली में पढ़ी लाधे से प्यार न हो जाये क्या यह संभव है ? हुवा नम्रता को भी प्यार हुवा। प्यार में क्या कौम और क्या कास्ट। कुछ भी मायने नहीं रखता। अगर कुछ महत्वपूर्ण होता है तो वह है लड़का प्यार करने वाला, सच्चा, नेक दिल इन्सान हो। और निरुपमा का प्यार भी निकल पड़ा। लड़का नीची कास्ट का। लड़की ब्रह्मिन। न तो घर को पसंद न रिश्तदार को। यैसे में माँ बाप पशो पेश में। लड़की जो थी, भावना का इस्तमाल किया गया। निरुपमा को माँ की बीमारी की खबर के बहाने घर बुलाया गया। वहां जो कुछ हुवा सभी जानते हैं।

पिछले दो इक दिनों में मुजफ्फर नगरसे भी येसी ही घटना घटी.

आज राधा कृष्ण होते तो ज़रा कल्पना कर सकते हैं राधा का क्या हस्र होता। या तो राधा पंखे से लटकी मिलती या कहीं खेत में पड़ी रहतीं शिनाख्त के लिए। दूसरी ओर कृष्ण या तो जेल में होते। वैसे भी जेल से यतो उनका गर्भनाल रिश्ता है या ननिहाल फिर उनको ज्यादा परेशनी नहीं होती। लेकिन राधा के बारे में सोच कर दिल भर आता है बेचारी राधा का क्या हाल होता।

आज के माँ बाप प्रेम विवाह के विरोध में यूँ तन गए हैं गोया प्रेम न हुवा किसी का क़त्ल कर दिया हो। दिल इतना कठोर कैसे हो सकता है की अपनी औलाद को अपने ही हाथों मार सकते हैं। रिश्तेदार क्या अपनी औलाद से ज्यादा प्यारी हो जाती है की नाक के लिए क़त्ल कर सकती हैं वाही हाथ जिसने दूध मिलाया हो?

कुछ दिनों से आनर किल्लिंग के नाम पर देश के विभिन्न राज्यों से ख़बरें मिल रही हैं। पहले हरयाणा के खाप समुदाय के लोगों ने प्यार कर के घर बसने की चाह रखने वालों को सरे आम कतला कर दिया गया। या फिर सरपंच ने दोनों को भाई बहन के रूम में रहने के लिए विवश किया। गोया हरयाणा भारत का हिस्सा ही नहीं। वहां संविधान लागु ही नहीं होता। साफ तौर से कार्ट का आदेश है की प्रेम विवाह गलत नहीं है। प्रशासन यैसे जोड़ों को पूरी सुरक्षा देगी। लेकिन जो हुवा वो किसी से छुपा नहीं है।

Friday, May 7, 2010

कितने कसाब

कितने कसाब यह सवाल अपने आप में बड़ा मौजू है। यूँ तो कसाब इक नाम है। हिंदी याकरण के नियम से देखें तो यह व्यक्ति वाचक संजिया है। लेकिन वास्तव में आज कसाब समूह वाचक संजय बन चूका है। बहुवचन कसाब किसी भी देश के लिए घोर खतरा पैदा कर सकते हैं। इक कसाक को सजा य मौत देने से मसला हल नहीं हो सकता। हमें कसाब को पैदा करने वाले उस जमीन को बंजर बनाना होगा। कसाब के मौत की खबर पर पाकिस्तान के अखबार जंग ने लिखा, ' कसाब स्कूल बीच में थप करने वाला लड़का है। वो तो घरसे काम की तलाश में निकला था मगर वो आतंकी संगठन के हाथ में पद गया। जहाँ उसे गन थमा दिया गया। प्रशिशन दिया गया। आज पाकिस्तान की युवा पीढ़ी रोजगार, रोटी दी तलाश में गलत संघटन आतंकी लोगो के हाथ लग जाते हैं। हमें इस तरफ गंभीरता से सोचना होगा।

जंग की शब्दों से पाकिस्तान की युवा पीढ़ी की दर्द और किश्मत, और भविष्य की झलक मिलती है। सच ही है पिछले साल इस बाबत कुछ रिपोर्ट भी आये थे जिसमे कहा गया था कि पाकिस्तान में युवा पीढ़ी के मदर्शे में नै वर्णमाला रटाये जा रहे हैं। जिस में अलिफ़ की जगह आतंक, बे का मायेने बम आदि की तालीम दी जा रही है। ज़रा कल्पना कर के देखें कि जहाँ के युवा इस तरह की तालीम हासिल कर रहे हो वहां किसे तरह की भविष निर्माण हो रहा है। पाकिस्तान की आम जनता को मूल जरूरतों से भटक कर कश्मीर पाने के सपने दिखाना इक तरह से वहां की सियासत और सेना की गहरी चाल है। ताकि आम जनता रोजगार, घर, तालीम जैसे बुनियादी हक़ की मांग को भूल कर कश्मीर पाने के सपने में सोये रहें।

पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों को बखूबी मालूम हो चूका है कि तमाम पुराने मुद्दे बातचीत से ही सुलझी जा सकती है। थिम्पू में दोनों देशों के प्रधनमंत्री मिल कर इक नै पहल की कि रुके हुवो संवाद को आगे बाध्य जाये। गिलानी ने वचन दिया कि हम अपने देश की जमीन का इस्तमाल भारत के खिलाफ आतंक फ़ैलाने के लिए नहीं होने देंगे। और इस बात पर एतबार कर संवाद की रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखा दी गई। अब दोनों देशों के विदेश मंत्री के बीच बातचीत होगी।

आतंक ने दोनों देशों के रिश्ते को लम्बे समय से नुकसान ही पहुच्या है। जब तब वार्ता की गाड़ी डेरेल हुई तो इसके पीछे आतंकी बर्दातें रही हैं। लेकिन इस का खामियाजा तो आम जनता को भुगतना पड़ा है। व्यापारी कामगार और आम जनता अपने दिल को किसी तरह समझाते रहे हैं कि इक दिन दोनों देशों के बीच के फासले मिट जायेंगे ये लोग अपने रिश्तेदारों से मिल सकेंगें। देखिया विभाजन ने किसे तरह दो दिलों, रिश्तों के बीच इक गहरी खाई बना दी। जो ६५ साल बाद भी बार्कर है।

Thursday, May 6, 2010

शास्त्र का मलमूत्र


शास्त्र का मलमूत्र , धो रहे रहे हम, कहा हिंदी के इक वरिष्ट लेखक, कथाकार और हंस के संपादक ने । अवसर था इक बुक के लोकार्पण का। यादव ने कहा, ' शारीरिक और भौतिक मलमूत्र से कहीं ज़यादा हम शास्त्रों का मलमूत्र धो रहे हैं। ' ज़रा विचार करने की बात है कि आधुनिक और प्रयोगवादी, प्रगतिशील विचार के कहलाने के लिए और समय समय पर अपनी पहचान बांये रखने के लिए क्या इस तरह के बयां दिन ज़रूरी होता है? यूँ तो साहित्य को गलियाने में किसी का क्या जाता है। यह किसी कि न तो जोरू है न ज़मीन, फिर कोण सर दर्द ले। जिसे जो मन करता है साहित्य को कह देता है। जब कि लोग उसी की रोटी खा रहे होते हैं।

यहाँ मामला साहित्य से निकल कर शास्त्र तक पंहुचा है। यानि हमारे तमाम शास्त्र आज तक मलमूत्र ही विसर्जित करते रहे हैं। और हम हैं कि उसी के तहर पर बैठ कर शादी, मरनी, वचन आदि खाते आये हैं। हमारा न्याय मंदिर टट्टी के ढूह पर हाथ रख कर कसम खिलाता है -

'जो कुछ भी कहूँगा सच कहूँगा......' क्या यह संविधान का मजाक उड़ना नहीं है ?

रामायण, महाभारत , गीता आदि आप्त ग्रंथों को कुछ दीर के लिए महज साहित्य मानकर चलें तो भी यह साहित्य के साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। यह तो मीमांशा उचित नहीं कह सकते। इससे पहले पन्त के साहित्य को कूड़ा कहा गया था। तब कोई और मुह था। आज कोई और। मुह बदल सकते हैं लेकिन अपमान जिस हुवा उसे तो वापस नहीं किया जा सकता।

लिखे हुवे शब्द की सत्ता हमारे पहले से चली आ रही है... शायद हमारे बाद भी शब्द रह जाएँ, शब्द मरते नहीं। शब्द से पहले हम अक्षर पर विचार करें तो पाते हैं - 'न क्ष्रम टी अक्षरम' जिसका नाश नहीं होता वही अक्षरम होता है। ईश्वरवादी इसीलिए उस ब्रम्हा, तत्वा के लिए अक्षर नाम भी दिया है। शब्द शास्वत होते हैं। उस शास्वत शब्द से रची कृति मलमूत्र तो नहीं हो सकती हाँ कम महत्वा कि हो सकती है।

'शब्द इवा ब्रम्ह:' इसका अर्थ किसी सर्वशक्तिमान सत्ता से न ले कर यदि लौकिक अर्थ ही लें तो होगा- शब्द के उचित प्रयोग से हमें धन, समृधि, मान , सब कुछ तो मिलता है। फिर शब्द मलमूत्र को धोने वाले कैसे हो सकते हैं।

Wednesday, May 5, 2010

शहर नहीं मरता

शहर तो आप और हम लोगों से बना करता है। बियाबान में न लोग रहते हैं और न शहर ही बस्ता है। लोगो के आकर घर बनाने से मोहल्ला, कालोनी, अप्पर्त्मेंट में तब्दील हो जाते हैं। यही वजह है कि किसी खास शहर से हमें राग हो जाता है। चाहे वो जन्मभूमि हो या जहाँ आपने उम्र के लम्बे काल बिताये हों। या फिर जहाँ प्यार हुआ हो।

इसीलिए शहर हर किसी के ज़ेहन में ताउम्र घर बना लेता है। कभी जिस शहर में बचपन बिता हो। साथ के दोस्त बड़े हुए। बालबच्चे दार हो गए। जहाँ बचपन की चची , साथ खेलती वो लड़की अब ब्याह कर घर चली गई। यैसे में वही शहर काटने को दौरते हैं।

शहर की खासबात यही होती है कि वो आपको पुराणी यादों में ले जाता है। वो शहर इसीलिए हमारी जिन्दगी में अहम् होते हैं। जिस शहर में माँ- भाई , बचपन , खोया हो उस शहर से नफ़रत हो जाता है। शहर तो शहर होता है इस से क्या राग और क्या नफरत। जन्म से पहले वो शहर था और हमारे बाद भी वो शहर रहता है।

रुका हुवा फैसला और कसाब

कसाब को दुनिया ने नंगी आखों से देखा है कि कदर उसने मुंबई में कहर बरपाया। उसने कुबूल भी किया। फैसला अभी तक रोक कर रखा गया है। कुछ लोगों का मन्नना है कि उसकी उम्र महज २२ साल है उसे सुधरने का मौका मिलना चाहिए। क्या इस दलील में दम है? यदि वो खुद से पूछे तो उसकी रूह बोल उठेगी कि तुमको इस काम के लिए दुनिया का कोई भी न्याय बचा नहीं सकता।
कितने आशु , कितने सपने का खून किया है इस का शयद उसे इल्म नहीं। लेकिन जिस बच्ची के सर से बाप का शाया उठ गया उस से कोई पूछे कि बाप का मरना क्या होता है। उस औरत से कोई जा कर पूछे कि पति के बिना ज़िन्दगी क्या मायने रखती है? लेकिन सवालों से कसाब को क्या लेना। उसे तो आकयों ने सिखाया है आशुयों पर मत जाना, उदास चहरे मत देखना। वर्ना मनन करने लगोगे कि कहीं गलत तो नहीं कर रहा। हमारा धर्म दहशत, खून बहाना, चीखें पैदा करना है। हमारी न तो कोई बहन, माँ , बाप , भाई बेटी, हैं नहीं हम किसी के पिता ही हैं।

Friday, April 30, 2010

रुका हुवा दौरे वार्ता चल पड़ी

रुका हुवा दौरे वार्ता चल पड़ी। भूटान की राजधानी थिम्पू में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बीच हुई बातचीत से उम्मीद बंधी है कि रुकी हुई वार्ता की ट्रेन चल पड़ेगी। पिचले साल शर्म अल शेख में हुई मुलाकात का कुई खास असर इसलिए दिखाई नहीं दिया क्योकि पाकिस्तान ने किये वादे को पूरा नहीं कर सका। बतौर पाक की ज़मीन का इस्तमाल भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ने में किया जाता रहा। यही वजह है कि वार्ता रुक गई थी।
दोनों देशों के बीच इस वार्ता से राजनिक के लेवल की वार्ता शुरू होगा। बेहतर है मामले वार्ता से सालता लिए जाये। वर्ना वो भी कमतर नहीं। हम भी तो बाज नहीं आयेंगे। और दोनों की आन शान में बिला बजह आम नागरिक परशान होंगे।
भारत और पाक के रिश्ते के कई आयाम हैं। कई मोड़ हैं। उन मोड़ और रेशे को समझना होगा। तभी दोनों देशों के रिश्ते के खटरस समझ पाएंगे। दरअसल १९४७ के सपने पाकिस्तान की आखों में है। वो कश्मीर को लेने में कोई कसार उठा नहीं रखना चाता। और भारत भी कैसे कश्मीर को दान कर दे। यहीं पर दोनों देशों के रिश्ते की उष्मा दबी है।
बेहतर हो की सियाचिन, पानी, कश्मीर के मामले को बातचीत के ज़रिये सल्ताया जाये। वर्ना पाकिस्तान का विकास रुका है अब डाउन होना शुरू होगा। इकोनोमी का बड़ा हिस्सा तो वह सेना पर खर्च करता है। तो यैसे में बाकि शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार आदि पर ध्यान देना संबव नहीं।

Monday, April 5, 2010

आत्मविश्वास का पेंडुलम

गति में भी जड़ता का सिधांत काम करता है। गति में रहते रहते हम इक तरह के रफ़्तार में जीने के आदि हो जाते हैं। इसलिए गति और बदलावों ज़िन्दगी में बेहद ज़रूरी है। परिवर्तन हमारे सोच, रहन सहन बोल चाल सब में दिखाई देता है। लेकिन आत्मविश्वास का डोलना कुछ देर के लिए हमें सोचने पर मजबूर करता है। हमारा आत्मविश्वास क्योंकर डोलता है ? किन हालत में हम अपने रह से विचलित होते हैं इसकी भी तहकीकात करनी होगी।
लेकिन इतना तो निश्चित है कि लाइफ में आत्मविश्वास तभी डोलने लगता है जब हम अन्दर से असुरक्षित महसूस करते हैं। इक दर हमारे अन्दर घर बनाने लगता है तब हम अपने से ज़यादा दुसरे पर विश्वास करने लगते हैं। किन्तु आत्मविश्वास का दोलायेमान अवस्था सही संकेत नहीं देते। यानि कहीं कुछ बड़ा घट रहा है। जब हम खुद ही विश्वासी नहीं हो पाते तो दुसरे के बारे में क्या कह सकते है।

Monday, March 29, 2010

नाले की लाश

नाले की लाश और आम लाश में क्या अंतर हो सकता है ? बेहद आसन सवाल है, इक आम लाश को कम से कम कफ़न तो मयस्सर हो गति है लेकिन इक लावारिश लाश को वो सब चीजें मुनासिब कहाँ। जो इक आम लाश को होता है।
रोने को तो हर लाश के साथ कुछ आखें होती ही हैं। कुछ के लिए आखें सूखती ही नहीं तो कुछ के लिए आसूं ही नहीं आतीं। नाले में बहती लाश को देखने के लिए लोग तो खड़े हो जाते हैं लेकिन उसकी शिनाख्त में मदद करने में पीछे हो जाते हैं। वैसे भी नाले में बहती लाश के साथ वो कुछ भी नहीं होता जो इक आम लाश के साथ किया जाता है। यानि उसकी अंतिम यात्रा में वर्दी वाले ही होते हैं। अपने तो धुंध में दिन, महीने काट देते हैं। आश कब कि ख़त्म हो जाती है। इक दिन अचानक फ़ोन का आना कि इक बॉडी मिली है पहचान के लिए आज्ये।
आखों में उम्मीद लिए लाश को देखते हैं। कोई पुराना निशान को मोहताज़ पड़ा इक प्यारा अब और हमारे साथ शामिल नहीं जान कर धक्का लगता है। कुबूल तो करना ही पड़ता है। यह तो शुक्र है कि कम से कम लाश तो मिल गई। वर्ना परिवार के लोग पूरी ज़िन्दगी तलाश करते उम्मीद में जीते रहते।
लाश नाले की हो या जेरो लैंड की दोनों का हस्र इक सा ही होता है।

Friday, March 12, 2010

भारत पाक का रिश्ता

भारत पाक का रिश्ता है बड़ा रोचक
क्या कभी सोच है वो कोण क्या है जहाँ पर दोनों दोस्त मिला करते हैं?
वो बिंदु है कश्मीर, आतंक और बम। इससे आगे चलें तो पाते हैं कि दोनों देशों में लोगों के रंग रूप, बोली बनी भी कामो बेश इक से है। जो इक नहीं है वो है मुहब्बत।
जब भी लोगों को मौका मिलता है हम विष बमन करने से गुरेज नहीं करते। कुल मिला कर मामला यही है कि हम वो हर पल को बेहद सिधात्ता से जिया करते है।

Sunday, March 7, 2010

सम्मान के इक दिन बाकि हैं.....

सम्मान के लिए इक दिन है विमेंस डे के नाम पर। लेकिन बाकि के साल भर जो भी करें वो माफ़। साल भर हम उनको हाशिये पर धकेल कर सुकून महसूसते हैं। हर संभव कोशिश करते हैं उनको आगे न आने दिया जाये। लेकिन वो तो उनकी लगन और जुनून है कि लाख रुकावट के बावजूद वो आगे आ रही हैं। तो यैसे में उनकी इज्ज़त के साथ लोकतान्त्रिक बेहैवे करना चाहिय।
लेकिन अक्सर यही होता है कि जहाँ भी मौका मिलता है हम उन्हें नीची जगह ही बैठते रहने के लिए जुगत भिड़ते रहे हैं। पर किसी को ज़यादा दिन तक रोक नहीं सकते। आज आलम यह है कि वो चाहती हैं हर जगह, हर मोड़ पर मजबूत कदम रखना। यैसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि उनको रास्ता दें। वर्ना वो दिन क्या दूर है जब आप को उसे रह देने कि जगह उन से मांगना होगा।
आज लड़कियां हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। उनको लाइफ में अब पुरुषों की जुररत नहीं रही। साफ कहती है जीवन में राहगीर प्यारा हो तो उसपर तंगने की जगह मजबूत बने।

Wednesday, March 3, 2010

दिल फुकती लड़की

दिल फुकती लड़की कहीं आप गलत न सोच लें इसलिए बता दें कि दिल्ली विश्वविद्लाया हो या अन्य कॉलेज हर जगह स्मोकिंग करती लड़कियां मिल जाएँगी। ताजुब न करें इसमें उन्हें गलत नहीं लगता। ३५ फीसदी का हक़दार जो हैं। ख़ुशी में, गम में, लड़ाई में, प्यार में पर जगह साथ साथ।

दिल्ली विश्वालय के कानून के प्रांगन में कभी सिगरेट की दुकान लगाने वाली अम्मा से इनदिनों मुलाकात हुई वो भी तक़रीबन ७, ८ साल बाद। उन आखौं में आज भी मेरी तस्बीर बरक़रार थी॥ बताया कि पिचिले दिनों जेतली आये थे मुझ से इक सिगरेट मांग कर ५०० का नोट पैर पर रख दिया। लगा अपना बेटा क्या ज़यादा प्यार करेगा। आज भी कई पुराने वकील आते है। वो रुक कर हाल समाचार जानते हैं लगता है अपने से कहीं अधिक ये लोग प्यार करते है। बात चल रही थी कि इक लड़की ५ पैकट क्लास्सिक की मांग कर ले गई। अम्मा ने बताया, आख्यें मत चौड़ी करो बेटा। आज कल लड़कियां खूब सिगरेट पीती हैं। इतना ही नही बल्कि भरकर पीनेवाली ज़यादा मिलेंगी। कल की बात है दो लड़कियां थीं इक घंटे में दोनों मिल कर १० डिब्बी क्लास्सिक पी गईं। लाल लाल आखें हो गई थीं। पर बेटा क्या कर सकते हैं। पता नहीं लड़कियां क्यों सिगरेट पिने लगीं।

मुझे लगता है बेटा, लड़कियां लड़कों से ज़यादा बिगड़ गई हैं। लाल पीले और भी रंग के पैंटी दिखाती है। शर्म नहीं आती।

दिल तो जलती है लड़कियां मगर इस में उनका भी तो दिल जला करता है। बराबरी का दौर है.... देखते रहें आगे क्या क्या जलता हैक्या कुछ दीखता है॥ लगे रहो देखन हरे।

Friday, February 26, 2010

रंग प्यार के

बिन भेद वाले रंग,

जिस रंग में न हो भेद किसी कौम या कि धर्म कि,

रंग हो तो बस प्रेम और स्नेह कि,

क्या उस पर क्या उन पर सब पर,

रंग हो इक सा।

वह रंग न डाले-

कोई भी यैसे रंग जिस में,

दिख जाये उपरी प्यार कि,

मुस्कान।

आप सभी को रंग प्यार के मुबारक।

Friday, February 19, 2010

ज़िन्दगी यूँ ही चलेगी

ज़िन्दगी यूँ ही चलेगी , चुकी हम किसी से समझोता नहीं करते। जबकि ज़िन्दगी में तो सुख दुःख तो पहिया के समान चलते रहते है। लेकिन हम तो सुख का दामन हाथ से निकलने नहीं देते। हमारी कोशिश तो यही होती है कि हम बेहतर ज़िन्दगी जीयें। लेकिन हम जैसा चाहते हैं वैसा हर समय कहाँ होता है। कोई जिसे आप या हम बेहद करीब मानते हैं जब उससे रुखसत की बरी आती है तब दिल बैठना शुरू होजाता है ।

छह कर भी उससे दूर नहीं जा पाते। लाख मनन कर लेते हैं कि यह गलत है लेकिन दिमाग हमेशा से ही बस अपने बारे में ही सोचता है। यैसे में प्यार, नफरत, दूरिय, सब के सब रह रह कर चहलकदमी कर ने लगते हैं। यैसे में कोई खुद के अपने प्रिय से को अलग कर सकता है। अलग होने या करने के लिए मनन, चिंतन जैसे भावुक पलों को बिलकुल भूलना पड़ता है। कठोर हो कर सोचना होत्ता है।

मन क्या करे उसे जब इन्द्रिय अपनी और खेचती हैं तो वह रुक नहीं पाटा। यही वो पल होता है जब इन्सान खुद को धुखा देता है। खुद के साथ झूठ बोलता है। जब की मनन हकीकत जनता है। बस दिल इसे शिकार नहीं कर पाटा।

जब की यह सच है कि इन्सान को अपनी जमीन देखनी चाहिए।

Friday, February 12, 2010

कुम्भ में स्नान

कुम्भ में स्नान को लेकर जिस तरह से भीड़ हरिद्वार में जमा हुई है उसे देख कर लगता है समस्त देश गंगा के तट पर जमा है। देश की आर्थिक, सामाजिक या फिर राजनीतिक हालत जो भी हो हमें स्नान करने से वास्ता है। वहां की जनता परेशां होती है हो। स्कूल, कॉलेज बंद रहें तो हों। मगर स्नान में किसी भी किस्म की बदिन्ताज़मी बर्दास्त नहीं होगी।

कुम्भ में अखाड़ों में पहले मैं पहले मैं की लड़ाई में किसे कदर आम जन को भय से गुजरना होता है उसका अंदाजा लगा सकते हैं। मगर न तो सरकार और न ही अखाड़ों को इससे कोई खास लेना होता है और न ही स्नान करने वालों को।

साधू समाज को समाज के प्रति भी कोई जिम्माधारी होती है है तो उसका पालन किया जाना चाहिय। लेकिन साधू समाज का वास्ता स्नान से ज़यादा होता है। काश वो लोग समाज की सर्स्कृति व् धर्म या फिर संस्कार के लिए स्चूलों में नैतिक मूल्यों का प्रसार करें तो कम से कम आज के बच्चों में कुछ मूल्य, संस्कार या फिर भारतीय धरोहरों के बारे में लगाओ पैदा करने में रूचि जागेगी। लेकिन इस काम के लिए मेहनत करना होगा। साधू समाज को धार्मिक कर्मकांडों से फुरशत ही कहाँ है जो इस काम में समय दे सकें।

Wednesday, February 10, 2010

बेगुन हुवा ब्रिंजल

बेगुन हुवा ब्रिंजल, आखिर जनता और जैव संबर्धित उत्पाद पर चल रहे विवाद का अंत हो गया। जय राम रमेश ने आख़िरकार जैव आधरित बैगन के उत्पाद को लेकर सरकार के कदम का खुलासा कर दिया। पहले तो रमेश १० फरबरी को येलन करने वाले थे लेकिन इक दिन पहले ९ तारीख को ही घोषणा कर दी कि फ़िलहाल भारत में जैव आधरित उत्पाद के लिए प्रयाप्त समय नहीं है।

इस एरिया में अभी जाँच पड़ताल करना बाकि है। पूरी तरह से सुरक्षित है इस बात की पुस्ती जब तक नहीं हो जाती इस मौसदे को सरकार आगे नहीं बध्यागी।

यानि बैगुन का भरता निकल गया। हो भी क्यों न बिना पूरी तहकीकात के बेगुन की जैविक खेती का मन बनालेने से तो बात नहीं बन जाती। इसीलिए इस परियोजना को मुह की खानी पड़ी। जानकारों का मानना है कि इस पारकर कि खेती से न केवल इन्सान पर बल्कि जीव जनत्वों पर भी बुरा असर पद सकता है। अमरीका में कपास की जैविक खेती के दौरान पाया गया कि जिन जनत्वों ने उस पौद्ध को खाया था उनकी या तो मौत हो गई या फिर उनकी किडनी में खराबी पायी गई। यैसे में बिना पर्याप्त जाच पड़ताल के आनन् फानन में सरकार इस मौसदे को अमली जामा पहनना चाह रही थी।

मगर देश की जनता और खुद देश के ११ राज्यों ने जैविक बैगुन की खेती के खिलाफ आवाज बुलंद कि की हम अपने यहाँ जैविक खेती नहीं होने देंगे।

Monday, February 8, 2010

कुम्भ में चक्षु स्नान करने वाले

कुम्भ में चक्षु स्नान करने वाले

चक्षु स्नान करने वालों की अची खबर ली है। सही है कि कुछ लोग नहाने कम नहाते हुए का देह दर्शन करने आते हैं और देह दर्शन से तृप्त होकर अपने अपने घर लौट जाते हैं। इस कर्म में क्या बूढ़े और क्या बच्चे, क्या मीडिया कर्मी और क्या आमजन सब के सब यहाँ नंगे हैं।

आपकी इस टिपण्णी पर कुछ लोग जिनकी चमड़ी अभी नर्म होगी उन्हें ज़रा चुभ सकती है। चलिए कम से कम सुधर जाये तो सार्थक हो। आदते इतनी ज़ल्दी कहाँ जाती है। जाते जाते टाइम लग जाता है।

Wednesday, February 3, 2010

चंद सवाल यूँ ही टंगे रहते हैं

हाँ कुछ सवाल यूँ ही हमारे आगे टंगे रहते हैं गोया किसी ने उन्हें कह रखा हैं कि जब तक न कहा जाये तब तक यूँ ही बने रहना है।
मसलन क्या प्यार महज किसी का बे इन्तहां चाह ही है? क्या उस चाह को इतना प्यार करना गुनाह है कि किसी दिन यही बोल पड़े कि यार इतना प्यार मत किया करो।
कभी कभी लगता है कि इक सीमा प्यार में होती है। गर किसी को ज़यादा प्यार करेंगे तो संभो है वो सोचने लगे कि आखिर माज़रा क्या है?
इसलिए बंधू यह सवाल हमेशा ही तंग जाते हैं कि कहीं आप के प्यार को सामने वाला आपकी कमजोरी तो नहीं मान बैठा है? कहीं आपका प्यार उसे खीझ तो पैदा नहीं करती? सवालों की लम्बी कतार लग सकती है। मगर खतम नहीं होगा सवाल।
सो ज़रा सोच तो लें क्या प्यार उतना ही दिया या किया जाए जितना पाच जाये।

Sunday, January 31, 2010

गाँधी बाबा सुन लो ना

बाबा आप क्या गए आपके साथ आपके तीनो बन्दर भी चले गए। हमें अब बुरा देखने, सुन्सुने, और बोलने में ज़रा भी शर्म नहीं आता। आप क्या गए भारत में कई भारत बसने लगे। हाल की ही बात है अपनी मुंबई , ताजुब हो रहा होगा कि यह कहाँ कि बात बता रहा हूँ, लेकिन बाबा आप के चले गाने के बाद हमने नै नै नाम इजाद किये हैं। आप तो मद्रास जानते होंगे। कलकत्ता का नाम भी आप के लिए अन्य शहरों की तरह है। मगर आप का मद्रास अब चन्नी हो गया। कलकत्ता कोलकत्ता हो गया। और तो और दिल्ली को तो आप से बेहतर क्या कोई जन सकता है। यहीं तो आपने अंतिम बार प्राथना में मौन हो गए।
अब तो आपके समय का लुटियन जों का नाम भी हमने बदल दिया अब वह ज़गह राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के नाम से जाना जाता है। हमने तो आपके जाने के बाद सब कुछ नै सिरे से सब कुछ सजाया। सुन रहे हैं बापू ? आपकी अश्थी महा सागर में विसर्जित की जा चुकी है। आपकी प्रपोत्र के हाथों आप अब महासागर में जा मिले। चलिए बाबा कभी इधर आना हो तो अपने साथ अपना आईडी ज़रूर लाना। वर्ना मुश्किल में पद जायोगे। हाँ बाबा अगर मुंबई जाना ही हो तो मराठी सिख लेना नहीं तो कभी भी महाराष्ट्र से ख्देरे जा सकते हो।

Friday, January 29, 2010

लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ से एक जिम्मेदार एवं सृजनात्मक भूमिका

लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ से एक जिम्मेदार एवं सृजनात्मक भूमिका निभाने की उम्मीद एवं मांग नाजायज नहीं ठहराई जा सकती। इस चौथे स्तम्भ यानी पत्रकारिता की शक्ति को कमतर नहीं माना जाना चाहिए। क्योंकि पत्रकारिता की एक आवाज़ जर्जर, भ्रष्ट एवं स्वार्थपूर्ण राजनीति एवं छद्म जनचेतना को बेनकाब करने के लिए पर्याप्त है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि एक सिंगल कॉलम की ख़बर (स्टोरी) अपनी मारक क्षमता से सरकार, संस्थान व व्यक्ति विशेष को धूल चटाने की माद्दा रखती है। मुद्रित माध्यम अर्थात अखबार, पत्रिका में प्रकाशित एक-एक शब्द, वाक्य एवं फोटो कितने व्यापक स्तर पर मार करते हैं, इसकी बानगी वक़्त-वक़्त पर देखने को मिली है।

Tuesday, January 26, 2010

देश की रास्ट्रीय गान पर ख़ामोशी

देश की रास्ट्रीय गान पर ख़ामोशी!!!
जी जहाँ देश भर में ६१ वे गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा था। इंडिया गेट पर राष्ट्रपति महा महिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जवानों की सलामी ली रही थीं। राज पथ पर जवान, विभिन राज्यों से आये युवा अपनी मिटटी, संस्कृति, लोक धुन आदि का परिचय दे रहे थे। इसी बीच जब देश का रास्ट्रीय गान, ' जन गन मन गया जा रहा था उस धुन पर कुछ लोगों की ख़ामोशी देखी जा सकती थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित् मंत्री प्रणव मुखर्जी , सोनिया गाँधी की होठ सिले हुवे थे। यदि किसी का होठ हिल रहा था तो वह था , उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का। क्या ही विडम्बना है कि देश के प्रमुख पदों पर विराजे लोग बिना ही शर्म के देश के रास्ट्रीय गान का अपमान कर रहे थे मगर कोई इस ध्यान देने वाला नहीं था।
देश या की देश की शान तिरंगा झंडा का खुलम खुला मखोल बने और हम या की नयायपालिका, पत्रकरिता, कार्यपालिका सब के सब खामोश रहें तो फिर किसे से उम्मीद किया जायेगा। आम जनता अपने नेतावों को बड़ी ही उम्मीद से देखा करती है। मगर जब वो ही देश के सम्मान में गए जाने वाले गान को गुनगुनाना में कोताही बर्तेगें तो आम जनता में किसे तरह का सन्देश जायेगा।
यूँ तो कोर्ट ने समय समय पर इस बाबत आदेश जारी किये हैं लेकिन परिणाम यही धाक के तीन पात। पहले देश के सम्मान में गए जाने वाले गीत के दरमियाँ लोगों से उम्मीद की जाती थी की वो देश गान के समय कम से कम सावधान खड़े हो कर इज्जत देंगे। धीरे धीरे देखा गया कि लोगों को खड़े होने में भी परेशानी होती है। रास्त्र गान की इज्जत बनी रहे इस लिए कोर्ट में पीएल डाला गया कि कोर्ट इस मामले में हस्तचेप करे। लेकिन कोर्ट के अन्य आदेशों की तरह इस का भी हस्र हुवा।
स्कूल, कॉलेज में या कि अन्य अवसरों पर भी देश गान का अपमान किया जाता रहा है। याद करें इस से पहले इक प्रधानमंत्री देश गान के समय हाथ पीछे बांध कर खड़े थे। बाद में जब इस बाबत मीडिया में ख़बरें गरम हुई तो उनने अपनी गलती स्वीकारी। मगर देखते हैं ६० वे गणतंत्र पर सोनिया जी, मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी साहब अपनी इस चुप्पी पर कुछ बोलते हैं या नहीं।

Monday, January 18, 2010

शब्द साधक ही साधू

आप अस्सी पड़ावों को बेहतर ढंग से पार कर चुके,
जिस उम्र में आकर,
अमूमन लोग खुद को काम से मुक्ति पर्व मानते हैं,
किन्तु आपने कर्म प्रधान यही जग माहि,
जीया,
किया,
दुनिया को दिया,
शब्द समझ का औजार....
शब्द ब्रम्ह के करीब आप या
गंगा में स्नान,
आचमन,
तिलक,
धुनी राम कट ली ज़िन्दगी,
इस गुमान में कि,
हैं वो उसके बेहद करीब ...
पर सच है यह कि,
जो शब्द साधना करे-
एकांत वासी अरविन्द हो,
आप के जन्म दिन पर मेरी शुभ कामना स्वीकार करें,
आप का,
कौशलेन्द्र

Sunday, January 17, 2010

कोई रोटी बिन जान देवे तो जश्न में पैसा खर्चे

क्या ही गजब की बात है कि जहाँ इक और पूरी दुनिया २५ दिसम्बर को खुशियाँ मना रही ही वहीँ राजस्थान में उदयपुर के पास गावों में इक किसान परिवार की आर्थिक कंगाली ने भूख से किसान का जान ले रही थी। ज़रा देखना होगा कि आप जितनी रोटी थाली में बर्बाद कर देते हैं वह रोटी का टुकरा अगर उस परिवार का मिला होता तो कम से का परिवार की आश न खत्म होती।
जितनी बर्बादी पार्टी में होती है उस खर्च से कई बेहाल परिवार को रोटी मिल सकती थी। अगर हम येसा करें तो कई बेसहारा मौत की बजाय जीवन का सामना कर्येंगा।

Thursday, January 14, 2010

घरघुसना

घरघुसना से कुछ याद आया, बचपन में वैसे लड़कों या आदमी को घरघुसना कहते थे जो घर से निकलता ही नहीं। उसे यक बयक लोग देख कर कहते थे क्या माँ की या बीवी की पल्लू से बाहिर कैसे निकल गए। हर समय बीवी का देखते रहने वाले आलोचना के शिकार होते ही थे। लेकिन उनकी भी आदत पुरानी थी सो नहीं निकला तो नहीं ही निकला करते थे।
आज भी कई लोग मिलेंगे जिन्हें घर से निकलना हो तो कई बार तलने की कोशिश करते हैं।

Wednesday, January 13, 2010

साथ साझा चुल्हा कैसे जले

साथ साझा चुल्हा कैसे जले,
हमने तो मंदिर,
आँगन,
चूल्हा,
बर्तन,
सब अब तक दो फाक कर चुके।
नदियाँ,
नाले,
पोखर भी,
उस पार दी ही डाले,
झेलम,
चिनाब,
शिप्रा,
गंगा,
यमुना,
अपने पास रख लिया,
कुछ को हमने उसपार उलीचा,
सागर भी हमने सोचा दो फाक कर ही डालीं,
पर्वत खोदी,
माँ की आँचल फाड़ चुके हम,
अब क्या फाड़ें तुम हे बोलो,
कहते हो कश्मीर भी दे दो
बोलो खुद ही अपने वतन का संभल बन पाए जो,
कश्मीर दे दें,
यह तो भीख में दी नहीं जा सकती,
फिर तो माज़रा यहीं पर अटके,
पर बोलो गर कश्मीर तेरा हो ही जाये तो,
कब तलक,
कौम पर राज कर ही सकोगे...
साझा सब कुछ खतम हो चुका,
अब तो दर्द,
आसूं अपने हैं साझा,
बोलो इस को जी सकते हो,
तब तो जंग ख़त्म हो जाये,
लहू तम्हारे भी बह जायेंगे.....

Tuesday, January 12, 2010

ग़ालिब तेरे शहर में जी नहीं लगता

ग़ालिब तेरे शहर में अब जी नहीं लगता,
कभी तेरे कूचा ये मुहबत में रौनक हुवा करती थी,
अब तो तेरे उन गलियों से खून, चीख आती है।
ग़ालिब चलो अब वहां आशियाँ बनायें जहाँ मिलती हों,
झेलम सतलुज या गोदावरी की आचल में हिलोद्ये मरती हो चेनाब,
फिर से चलो किसी के कोठे पर पतंग काटें मंझा लगा,
भाई ग़ालिब अब तो तेरा शहर हर रोज बस्ता और बर्बाद होता है।
ग़ालिब सुना है रब की घर में कोई बड़ा या की छोटा नहीं,
तो फिर चलो ग़ालिब खुदा से बात करें रोते के आसूं कैसे कोई पोचे।
लाहौर या की इस्लामाबाद शहर तेरा भी डरा डरा रहता है,
बम की गूंज वहां भी लहू पीती है, ग़ालिब कुछ करते हैं।
उन्हें अपने घर से निकाल देते हैं, फिर देखते हैं।
हम फिर खुली हवा में जी भर कर साँस लेंगे,
ग़ालिब मीर तकी मीर हों या कर्तुल यां हेडर,
सब ने पैगाम ये अमन की खातिर कलम थामी,
हम भी चलो कुछ येसा गीत लिख्यें जो साथ गुनगुना सक्यें।
अब तो ग़ालिब हद हो चूका कहाँ बर्लिन की दिवार भी गिर चुकी,
लेकिन हम हैं की अब तलक रूठे रूठे बैठे हैं
और कितना इंतज़ार करोगे की कोई आएगा हाथ में लेकर कश्मीर,
कश्मीर को यहीं रहने दो, हम वहां अमन की खेती करते हैं।
बच्चे गायें गीत प्यार की गूंज गूंगे को मीठे की स्वाद सा लगे,
बस भी करो मेरा तेरा हो गया पुराना, अब कुछ नया राग में अलाप्यें।
कुछ सुबह की नमाज़ की तरह या ब्रहम मुहर्त में गंगा स्नान की बाद शंकर को जल डालते,
अंजुरी में भर दें मुठी भर प्यार की रजकण ताकि हाथ से छुए जिसे भी वह मह मह हो जाये....

Saturday, January 9, 2010

जब तक

जब तक आपके या मुझ में कुछ करने की लालसा होगी तब तक दुनिया में श्रीजन काम करते ही रहेगें। मसलन कुछ लोग तो दुसरे की कमी निकालने में इतने माहिर होते हैं कि आपने कहा नहीं कि उधर आलोचना तैयार। मगर यदि कुछ लिखने या रहने की बात हो तो फिर देखने लायक होता है यैसे लोग पहले पलायन करते हैं।
साहित्य में भी काफी लोग मिलेंगे जो आलोचना कर्म में इतने मंजे होते हैं कि खुद कुछ लिख ही नहीं पते। उनकी लेखनी बस विष वमन कर सकती हैं जो ताउम्र चलती रहती है। कई बार आलोचना की सरोकार होती है लेकिन तब कलम नहीं चलती। लेकिन किसी की खाल उध्रनी हो तो साहब सबसे आगे रहते हैं। खुद बेशक सालों साल कलम न पकड़ी हो लेकिन लेखन पर व्याखान देने दूर दूर बुलाये जाते हैं। यैसे बकता वास्तव में अपने आगे किसी को बढ़ते नहीं देख सकते। वैसे तो यह शास्त्र सभी जगह लागु होती है लेकिन लेखन में कुछ ज़यादा ही सटीक है।
कई लेखक किताब छपने से पहले ही इतना हवा बंधते हैं कि सामने वाला कुछ देर के लिए अपना आप खो बैठे। लेकिन इनकी असलियत तब सामने आती है जब पाठकों के साथ ही समिश्कों की नज़र इनकी पुस्तक पर कोई सेमिनार, बहस तक नहीं आयोगित करती। फिर साहब खुद ही अपने करीबी को बोल गोष्टी रखते हैं जिस सारा खर्च खुद उठाते हैं। लोगों को कानो तक यह बात पहुच नहीं पाती और लगता है इनके किताब पर इतनी गोष्टी, इतनी समीक्षा प्रकाशित हो चुकी है, जब की माज़रा कुछ और ही हुवा करता है। खुद साहब समीक्षा लिख कर कई अखबारों, पत्रिका में भेजा करते हैं। छपने के बाद लोगों को दीखते फिरते हैं। फलना फलना अख़बार, पत्रिका में मेरी किताब की समीक्षा छापी है।
तो यैसे किताब और समीक्षा लिखने या छपने का क्या लाभ। बेशक लोग आपको लेखक के रूप में जानने लगेगे लेकिन हकीकत तो आप या आपकी पत्नी जानती है। बसरते के आपने पत्नी को सच बताया हो। वर्ना वो भी इसी मुगालते में जीती रहेगी कि उसके पतिदेव लेखक हैं। लोग जानते हैं। और आप सीना फुला कर पत्नी के सामने तो चल सकते हैं लेकिन जब मंच पर साहित्य के परखी मौजूद होंगे तब आपकी रचना का सही मूल्याङ्कन होगा। वास्तव में आपकी लेखनी में कितना दम है, इसका मूल्याङ्कन तो परखी लोगों के द्वारा ही हो सकता है। लिखे हुवे शब्द को चिरकाल तब संजोने की लिए गुण करी रचना करनी होती है। और उसके लिए पढंत लिख्यंत और स्वाध्याय जरुरी होती है। आज कितने लोग है जो अपनी रचना के अलावे दुसरे को पढ़ते हैं। बहुत ही कम लोग होंगे जो किसी की रचना पर अपनी राये लिख कर लेखक को भेजते हैं। कुछ करते है तो उनको लेखक की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती। यानि लेखक- पाठक के बीच के रिश्ते ख़त मेल सब कब के अर्थ हीन हो चुके हैं।

Thursday, January 7, 2010

साहित्य में अतीत


साहित्य में अतीत बड़े ही ब्यापक रूप से वर्णित होता रहा है। किसी की कृति में लमही की जमीन, लोग, बोली वाणी साकार रूप पाते हैं, तो किसी की रचना में मैला आँचल रचा बसा होता है। वहीँ बाबा नागार्जुन के यहाँ छिपकली दीवारों पर गश्त लगा रही होती है तो कानी कुतिया बुझे चूल्हे के पास बैठी खुजला रही होती है इस उमीद में की कभी तो सब लोग होंगे बोहुत दिनों के बाद।

लेखक, कथाकार, उपन्यासकार अपनी लेखनी से अपने आस पास की हाल, उठा पटक को बखूबी पकड़ कर पाठक को परोसते हैं। कालिदास की रचना हो या विद्या निवास मिश्र या फिर निर्मल वर्मा ही क्यों न हों इन सभी की रचना अपने समय और तत्कालीन समय की करवट भी सुनी देखि जा सकती है। कोई लेखक अपने समय की धरकन को भला कैसे नज़रंदाज कर सकता है। जो येसा करता है उसके पाठक वर्ग बड़े ही सिमटे और अपने कुप्प में सिमित रहा करते हैं। किसी भी रचना की व्यापकता की पह्च्यां उसके पाठक की रूचि , पसंद - नापसंदगी पर काफी निर्भर करती है। जो ज्यादा पढ़ा जाएगा उसकी बाज़ार में मांग तो होगी ही साथ ही उससे पाठक वर्ग को उमीद भी होती है। लोग इंतजार करते हैं की अगला क्या आने वाला है। लेखक कुछ नया कहने लिखने के लिया किसे दौर से गुजर कर लिख पता है इसका अनुमान शायद पाठक को न हो लेकिन जो इस दुनिया के लोग हैं वो तो बेहतर समझते हैं।

जो समय के कपाल पर चरण धरने का मादा रखता है वही लेखक कुछ लिख सकता है। वर्ना रोज दिन लेखक उगते हैं और शाम से पहले ही ढल जाते हैं। लेकिन इक हकीकत यह भी है जिसे इंकार नहीं किया जा सकता कि लेखक आज की तर्रिख में केवल लिख पढ़ कर जीवन नहीं चला सकता। घर के लिया चाहिय नून तेल और रोटी। और यह लिख कर संभव नहीं। कभी हमारे साहित्य जगता में यैसे लोग थे। लेकिन आज समय कुछ और है। आज तो यैसे लोगों से कोई अपनी बेटी भी ब्याहना नहीं चाहता।

पैसे का मोल जानना होगा। स्वन्था सुख्या के बजाए बाज़ार और पाठक को ध्यान में रख कर लिखना होगा। वर्ना कई लेखक अपने उम्र के ढलान पर बुनयादी दवा चिकित्सा के घर के कोने में चारपाई पर खस्ते रहते हैं। अपने मेडल, अवार्ड को बेच कर जीवन की आखरी घडी को काटना मज़बूरी होती है। हर कोई प्रेमचंद, रेनू या संसद तक के सफ़र कर आने वाले की पंक्ति में नहीं आता। इक इक पुस्तक छपने में कितनी मसक्कत करनी होती है यह किसी उस लेखक से जान सकता है जिसे प्रकाशक कैसे कैसे नचाते हैं।

बॉस , बस आज इतना ही वर्ना कहीं आप या हम निराश हो कर उमीद छोड़ कर बैठ जाएँ , जो लिखयेगा वही तो आज न कल छापेगा।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...