Friday, August 28, 2015

दर्जी की दुकान



कौशलेंद्र प्रपन्न
अभी हाल ही में मैंने उदयपुर से शर्ट के लिए कपड़े खरीदे थे। सोचा अपनी मर्जी से सिलवाकर पहनूंगा। लेकिन दर्जी मास्टर जी ने चाइनिज काॅलर की बजाए सामान्य शर्ट बना दी। कुछ देर गुस्सा भी आया कि कपड़ा खराब कर दिया। इतनी शिद्दत से इंतजार था कि सिलवाकर शर्ट पहनूंगा। लेकिन कुछ देर जब दुकान में खड़ा बहस कर रहा था तभी गुस्सा शांत होता चला गया। मैंने पूछा आज कल लोग कपड़े नहीं सिलवाते क्या जो इस तरह की लापरवाही हो गई। मास्टर जी ने जो जवाब दिया फिर तो गुस्सा क्या आना था मैं सोचने पर मजबूर ही हो गया। उन्होंने कहा सर आज कल कपड़े कौन सिलवा कर पहनता है। सभी तो माॅल में जाकर बने बनाए कपड़ी ही पहनते हैं। पता नहीं आपने क्या सोचा और कपड़े सिलवाकर पहनना चाह रहे थे। पिछले पंद्रह साल से बामुश्किलन कोई पैंट व शर्ट सिलवाकर ले गया होगा। मेरा सवाल फिर मास्टर जी की ओर था कि तो फिर आपकी दुकान कैसे चलती है? पेट कैसे पालते हैं?
जैसे जैसे कपड़े सिलवाने कम हो गए अब या तो दुकान में चैकीदारी करते हैं या फिर बड़ी बड़ी दुकानों के बाहर आॅल्टर करने का काम किया करता हूं। उसमें क्या ही बचता है और क्या घर चला पाता हूं। रात में चैकीदारी करना भी मजबूरी है। मास्टर जी की बातों से सोचने का सिलसिला चल पड़ा। खुद याद आता है तकरीबन बीस साल तो हो ही गए होंगे जब मैंने भी दर्जी के सिले कपड़े पहने हों। आज चारों ओर स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया की गुहार सुनी जा रही है। हमें यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि इस डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी में हमारे मास्टर जी कहां अपनी दुकान खोलेंगे। वो भी ऐसे में जहां एक ही छत के नीचे तमाम जरूरतों की चीजों उपलब्ध हांेगी। क्या सब्जी और क्या तेल। क्या कपड़े और क्या जूते रोजदिन की जरूरतों के सारे सामान एक स्थान पर मिलना एक किस्म से समय की बचत तो हो सकती है लेकिन इन एक छतीय हाट में सामान की कीमतों में खासे अंतर दिखा जा सकता है। यदि कपड़े की ही बात करें तों तमाम राष्टीय अंतरराष्टीय ब्रांड के कपड़े जिनकी कीमतों की शुरुआत ही हजार से होती है। जिस शर्ट व पैंट की कीमत दो सौ ढाई सौ की लागत में तैयार होती है उसकी कीमत हम सभ्य नागर समाज के लोग सत्तर प्रतिशत प्लस बीस प्रतिशत की छूट के टैग पर हजार, पंद्रह सौ देकर खरीदकर चैड़े हो रहे होते हैं। यह बाजार का एक छत में सिमटना है या बाजार का विकेंद्रीकरण यह तो समाजशास्त्री व बाजार के गुरु बेहतर जानते हैं। लेकिन इन एक छतीय बाजार में खुदरा व्यापारी रो रहा है।
बचपन में अपने शहर डेहरी आॅन सोन में मुहल्ले में ही एक मास्टर सलून हुआ करता था। हालांकि अब भी है लेकिन नैन नक्श बदल गए हैं। लकड़ी के तख्ते पर बैठकर कर बाल कटाना और लगातार रोते रहना भी याद है। शायद बचपन में तब के बच्चे बाल कटाते वक्त रोया ही करते थे। पिछले दस सालों में उनके भी रेट बढ़े हैं लेकिन एक छतीय बाजार की तुलना में काफी कम है। मास्टर जी अभी भी पंद्रह रुपए में और बीस रुपए में बाल दाढ़ी काटा करते हैं। लेकिन इन एक छतीय दुकानों में सौ रुपए तो शुरुआता हुआ करता है। यह अंतर साफतौर पर दर्जी पेशे में भी देखा जा सकता है। आज भी कस्बों और छोटे शहरों में दर्जी की दुकानें हैं लोग कपड़े खरीद कर सिलवाने में विश्वास रखते हैं। लेकिन रेडिमेट का चस्का जिस भी शहर व गांव देहात को लग चुका है वहां टेलर मास्टर अब खास अवसरों पर ही व्यस्त रहा करते हैं।
ईदगाह में हामिद दौड़कर दर्जी के पास जाता है और वहां से अपना नया कुर्ता और नाड़े वाला पाज़ामा पहन कर पूरे मेले में रोशन होता है। ठीक उसी तरह हम लोग भी बचपन में शर्ट व पैंट सिलवाने के लिए मास्टर जी के पास जाते थे तब नाप लेने के बाद जब तक तैयार नहीं हो जाते थे रोज दुकान का चक्कर काटा करते थे। जब तक हमारी शर्ट दुकान में टंगी हुई नहीं दिखाई देती थी तब तक मास्टर जी का जान आफत में होता था। पिछले साल उन्हीं बचपन के मास्टर जी से मुलाकात हुई बताने लगे अब तो हमारी द ुकान पर भीड़ ही नहीं होती। जिसे देखो वही बने बनाए कपड़े पहनने लगा है। किसी के पास इतना वक्त कहां है जो सिलने का इंतजार करे। जब जी चाहा तभी बनी बनाई शर्ट और पैंट खरीद कर पहन लेते हैं। इन्हें देख कर लगता है पुराने कपड़े छोड़कर वे नई कमीज पहन कर निकल गए विचार की तरह।
हमारा समाज और बाजार बहुत तेजी से बदलाव के चक्र से गुजर रहा है। जहां मूल्य और कपड़े का ब्रांड अहम हो चुका है। हालांकि ब्रांड की पहचान और प्रतिष्ठा का मसला बड़े शहरों में ज्यादा है तबकि छोटे शहरों में आज भी स्थानीय कपड़ा मील के कपड़े सिलवा कर पहनते हैं। लेकिन चिंता की बात यह भी है कि जिस रफ्तार से बाजार हमारे घरों में खड़ा हो चुका है उसे देखते हुए लगने लगा है कि हम बाजार में हैं या बाजार हम में। दजी की दुकानों में कपड़ों के थान और डंड़ों में लिपटे विभिन्न ब्रांडों के कपड़ों पर जाले लग रहे हैं। यदि जेंडर की दृष्टि से इन मसलों पर नजर डालें तो थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई देती है। लड़कियां फिर भी सलवार कमीज़ अभी भी लड़कों की तुलना में दर्जी से सिलवाती हैं। यूं तो फैशन और सिले सिलाए कपड़ों की ललक उनमें भी पनप चुकी है। काश की हम अपने आस पास के दर्जी को बचा पाएं।

Thursday, August 27, 2015

तुम से मिलता हूं गोया जहां पूरा समा जाता हो


पहाड़ से मिलता हूं
मिलता हूं
जंगल से भी।
जब भी गले लगाया
किसी मोटे बिरिछ को तो लगा
तुम्हीं में समा गया गोया।
काले थे या गोरे
रंग उनके
कहां मायने रखता अब
बस गले लगा लो
तो लगता है अपने ही तो हैं।
वैश्विक दुनिया में
लगाने को गले मचलता है मन
उन वर्ण को भी जो हमारे यहां क्रीम से साफ करना चाहते हैं
धो देना चाहती हैं पैदाइशी रंग
क्या सांवला और क्या गौर
जब भी मिला करता हूं किसी गैर से
वो अपना सा ही लगता है।
अब क्या बात करें उनकी
जो कहा करते थे
हमीं तो हैं दुनिया तुम्हारी
हमीं से तो रिश्ते अर्थवान हुआ करते हैं
वे शब्द अब खाली खोखले से लगते हैं
लगते हैं वे चुनावी घोषणाओं से
ग़र कैसे हो सकता था
दर्द में तड़पे कोई
आप टपका दें
एक मैसेज
गेट वेल...
और इधर मेरा बुखार उतर जाए।
इन दिनों लगने लगे हैं वहीं लोग प्यारे
जो अपने न थे
ना ही जिनकी पहचान थी
लेकिन क्या हुआ बता सकते हैं?
क्योंकर कोई ग़ैर अपनी ओर खींचने लगा
बरबस उसकी आंखों से टपकते लोर अपनी ओर खींचते हैं।

शिक्षा की प्रकृति और राजनीतिक इच्छा शक्ति




शिक्षा की प्रकृति को राजनीति और अर्थनीति काफी गहरे तक प्रभावित करती है। शिक्षा को गढ़ने में समाजो- सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ ही साथ देश की राजनीति और अर्थनीति किस प्रकार एक अहम भूमिका निभाती है इस पर गंभीरता से विमर्श करना यहां उद्देश्य है। यहां हमारी अपेक्षा शिक्षा को केंद्र में रखते हुए राजनीति और अर्थनीति के देशीय और वैश्विक प्रतिबद्धताओं,घोषणाओं और समितियों की बुनियादी चरित्र को पहचानना और उसकी मारक क्षमता को समझना है। हम यहां स्वातंत्रोत्तर शैक्षिक परिघटनाओं पर अपनी नजर रखेंगे। नई शिक्षा नीति निर्माण के पीछे की मनसा और उसकी राजनीति की परतें भी खोलने की कोशिश की जाएगी। वत्र्तमान सरकार नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। देश के विभिन्न घटकों को इस विमर्श में शामिल करने की घोषणा की जा चुकी है। गौरतलब है कि अपने विचार व अपनी राय ट्विटर के तर्ज पर 180 कैरेक्टर में देने का प्रावधान है। जिन वैचारिक-मान्यताओं के आधारा पर नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की जा रही है उससे ज्यादा सकारात्मक परिवत्र्तन की उम्मीद करना व रखना निराशा को बढ़ाना है। जिस किस्म की भाषायी परिवर्तनों की बात इसमें की गई है उसपर भी उचित स्थान पर विमर्श की जाएगी। पहली बात तो यही कि यदि हमें शिक्षा में राजनीति और अर्थतंत्र की धार को देखना है तो हमें 1990 में थाईलैंड के जमितियन शहर में हुए सब के लिए शिक्षा यानी ईएफए के सम्मेलन पर नजर डालना होगा। जहां से कम से कम भारतीय प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव करवट ले रहा था। दूसरे शब्दों में 1990 के ईएफए से पूर्व और एईएफए के उत्तर भारतीय शिक्षा यानी प्राथमिक शिक्षा में कठोर और वैश्विक परिवत्र्तन घटित हुए। इससे पूर्व भारतीय प्राथमिक शिक्षा भारतीय संविधान, भारतीय समाजो-सांस्कृतिक और बुनावट को ध्यान में रखते हुए नीतियां और समितिओं की सिफारिशों के मद्दे नजर कदम उठाए गए। लेकिन 1990 की इस वैश्विक परिघटना के बाद वैश्विक बैंक, मुद्र कोष एवं नीतियां हमारी प्राथमिक शिक्षा पर हावी होती चली गईं। विस्तार से हम आगे उन प्रभावों और दुष्परिणामों की चर्चा जरूर करेंगे लेकिन यहां इतना बताना भी अपेक्षित है कि ईएफए से पूर्व और पश्चात् भारतीय शैक्षिक मानस पर बुनियादी अंतर और दृष्टि बदल रही थी। शिक्षा में हम अपने भौगोलिक, सांस्कृतिक,भाषायी पहचानों को तवज्जो दिया करते थे, लेकिन 1990 मंे हमने शिक्षा की डोर विश्व बैंक और आकाओं के हाथों सौंप दिया। इन शैक्षिक परिघटनाओं पर शिक्षाविद् प्रो. अनिल सद्गोपाल जैसे चिंतकों ने अपने स्वर और प्रतिबद्धताएं प्रकट कीं कि यदि शिक्षा का इतिहास लिखा जाएगा तो यह काल और घटना काले अक्षरों में लिखा जाएगा। प्रो सद्गोपाल ने तब आगाह किया था कि जो काम भारतीय सरकार को करना चाहिए था वह काम सरकार वल्र्ड बैंक के हाथों सौंप कर ताली पीट रही है।
आजादी के बाद शिक्षा संबंधी बनी समितियों और आयोगों की बुनियाद में झांकें तो पाएंगे कि राजनीति की बीज खासे गहरे पैठी है। आजादी के बाद के आयोगों और समितियों की संस्तुतियों और स्थापनाओं पर नजर डालने पर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि इन समितियों पर राजतंत्र गहरे प्रभावित करता रहा है। तत्कालीन सत्ता और सरकारी की भाषा और नीति ही शिक्षा समितियों में मुखर रही हैं। हम यदि 1964-66 की कठोरी आयोग की बात करें तो कोठारी आयोग ने बड़ी शिद्दत से शिक्षा की गुणवत्ता, बजट, समान स्कूल सिस्टम, शिक्षक-छात्र अनुपात आदि पर विचार किया था। इस समिति ने जो भी सिफारिशें की थीं उन्हें एकबारगी ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। इसका हश्र इस रूप में भी देखने में आता है कि यशपाल समिति से दो ‘तीन वर्ष पूर्व आचार्य राममूर्ति समिति ;1990द्ध ने बस्ते के बोझ को कम करने के लिए ठोस शैक्षिक सिद्धांत पेश किए। इस समिति का दुखद अंत यह हुआ कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस रपट की समीक्षा जनार्दन रेड्डी समिति ;1992द्ध से करवाई। रेड्डी समिति ने जैसे तैसे राममूर्ति समिति की रिपोर्ट को खारिज कर दिया।’ देखें कमलानंद झा लिखित पुस्तक पाठ्यपुस्तक की राजनीति। गौरतबल है कि समितियों की कार्यवाही को कहीं न कहीं राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं ने खासे प्रभावित किया। लेकिन तथ्य को नकारा नहीं जा सकता था। आधे से अधिक बच्चे जो स्कूल छोड़ देते उका कारण गरीबी नहीं,वरन स्कूली शिक्षा का उबाउपनख् नीरस पाठ्यक्रम और भयावह परीक्षा प्रणाली है। यही वजह है कि राममूर्ति समिति या फिर यशपाल समिति या अरुण घोष समिति सभी ने बस्ते के बोझ को कम करने की सिफारिश की। यह शैक्षिक गंभीरता शैक्षिक महकमों में तो महत्व रखती थीं लेकिन सरकार व राजनीति के लिए यह अहम नहीं था।
शैक्षिक समितियों को जिस राजनीति जिस दृष्टि से देखती और बरतती है वह खासे अहम है। आजादी के बाद निर्मित शैक्षिक समितियों की संस्तुतियों को वर्तमान सरकार ने कान नहीं दिया। इसका जीता जागता उदाहरण 1937 में आयोजित वर्धा शिक्षा सम्मेलन में महात्मा गांधी और डाॅ जाकिर हुसैन के नेतृत्व में आयोजित इस सम्मेलन में मूल्यों की शिक्षा पर सरकार के कान पर जू तक नहीं रेंगे। जिन मूल्यों की शिक्षा में समावेश की वकालत की गई थी उसकी जमक र अवहेलना हुई। इस तरह से अमूमन अधिकांश आयोग आम जनता के साथ होने की बजाए सत्ता के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो और क्या है। थोड़ा और पीछे जा कर इतिहास में झांके तो पाएंगे कि उन्नीसवीं सदी के अंत आते आते हर प्रसाद शास्त्री, गुरुदास बनर्जी, रवींद्र नाथ टैगोर और लोकेंद्रनाथ पालित ने पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा पर जोर दिया। 1929 की हार्टोग समिति और 1937 की बूड-एबाॅट समिति ने भी पढ़ाई के माध्यम को मातृभाषा बनाए रखने की वकालत की लेकिन इन्हें भी नजरअंदाज ही किया गया। इन पदिघटनाओं की रोशनी मंे शिक्षा में राजनीति की भूमिका को साफतौर पर समझ सकते हैं।
आजादी के बाद भारतीय प्राथमिक शिक्षा के पूरे परिदृश्य को दो भागों में बांट कर देख सकते हैं। पहला 1990 के पूर्व और दूसरा 1990 के बाद यानी सबके लिए शिक्षा शिक्षा सम्मेलन के पश्चात्। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व बैंक के सौजन्य से आयोजित ‘सब के लिए शिक्षा’ सम्मेलन में शिक्षा के व्यावसायीकरण का बीज पड़ा। इस ऐतिहासिक वैश्विक घटना को प्रो अनिल सद्गोपाल इस नजर से देखते हैं कि इस सम्मेलन ने भारत की शिक्षा के पूरे इतिहास को एक नया और नकारात्मक मोड़ दिया। थाईलैंड के जोमतियन शहर के इस सम्मेलन के पश्चात् भारतीय शिक्षा व्यवस्था इस रूप मंे करवट ली कि जहां इससे पूर्व संविधान को प्रश्रय देते हुए सांवैधानिक जवाबदेही थी वहीं जोमतियन सम्मलेन के  उत्तराद्र्ध संविधान के आधार की जगह भूमंड़लीकरण की बाजार आधारित नीतियों ने स्थान ले ली। वहीं भारत सरकार का स्थान अंतरराष्टीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने ले ली। यह एक प्रस्थान बिंदु था जहां से शिक्षा नई चाल ढली। गौरतलब है कि यहीं से शिक्षा में एक नई कसमसाहट मरोड़ ले रही थी। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर गठित तकरीबन सभी आयोगों-बिड़ला अंबानी समिति, एन.जनार्दन रेड्डी समिति, उच्च शिक्षा पर न्यायाधीश पुन्नेय्या समिति, सैमपित्रोदा की अध्यक्षता में गठित राष्टीय ज्ञान आयोग सभी ने निजीकरण-व्यापारीकरण की प्रक्रिया को हवा ही देने का काम किया।
सन् 1968 में बनी राष्टीय शिक्षा नीति और तकरीबन बीस वर्ष बाद बनी दूसरी राष्टीय शिक्षा नीति की मूल स्थापना को किस प्रकार राजनीति से ध्वस्त किया इसे देखना भी दिलचस्प होगा। इससे पूर्व मालूम ही है कि 1964-66 में काठोरी आयोग शिक्षा की बेहतरी के लिए सिफारिशें दे चुका था। लेकिन उसपर अमल करने की बजाए उसकी धार और प्रभाव को कुंद ही करने की कोशिश की गई। यही वजह है राजनीति इच्छा शक्ति की कमी साफ झलकती है। यही वजह है कि 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति की घोषणा कि सन् 1995 तक 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। गौरतलब है कि यह काम हमारे संविधान की धारा 45 के अनुसार 1960 तक पूरा कर लिया जाना था। अफसोसजनक बात है कि 2015 में भी यह लक्ष्य रास्ते में ही हांफ रहा है। इसे रफ्तार देने के लिए 2000 में डकार में संपन्न सम्मेलन में भी लक्ष्य को दुहराया गया था कि 2010 तक हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। लेकिन इस बार फिर राजनीति इच्छा शक्ति हार गई। सर्वविदित है कि 2015 का लक्ष्य वैश्विक स्तर पर तय किया गया था सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य हम हासिल करे लेंगे। लेकिन अब इस तिथि को आगे खिचकाने पर विमर्श जारी है।


किताबों की दुनिया में विभेदीकरण




साहित्य शब्द सुनते ही हमारे जेहन में जिस तरह की छवि बनती है वह कविता, कहानी और उपन्यास की ही होती है। क्या साहित्य महज यही है या साहित्य की सीमा में और भी विधाएं शामिल होती हैं। साहित्य का अपना क्या चरित्र है और साहित्य व्यापक स्तर पर क्या करती है? इन सवालों पर विचार करें तो पाएंगे कि साहित्य का मतलब महज पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता और कहानी पढ़ाना भर नहीं हैं, बल्कि पाठकों को जीवन दृष्टि प्रदान करना भी है। जीवन मूल्यों और संवेदनशीलता पैदा करना भी है। साथ ही समाज में खास वर्गों के प्रति समानता का भाव जागृत हो इसकी भी गंुजाइश साहित्य में हो।
साहित्य का शिक्षा शास्त्रीय विमर्श करें तो पाएंगे कि साहित्य हमारी पूर्वग्रहों को भी अग्रसारित करने का काम करती है। यदि कहानी व कविता विधा को लें तो वहां भी कहानियां कुछ यूं शुरू होती हैं- एक समय की बात है। किसी गांव में एक ब्राम्हण होता थे। उनके दो बेटे थे। बड़ा बहुत ज्ञानवान और छोटा नकारा। इन शुरूआती पंक्तियों में देख सकते हैं कि गांव में क्या ब्राम्हण ही होते थे। क्या उनकी बेटियां नहीं थीं। क्या उस गांव में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग नहीं रहते थे। इस तरह से कहानियों में लिंग, जाति, वर्ण आदि को लेकर एक खास विभेद स्पष्ट देखे जा सकते हैं। शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन इस तरह की विभेदी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं लेकिन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने इस तरह की कहानी और कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया है जिसे पढ़ कर बच्चों में एक खास किस्म के वर्गांे के साथ स्वस्थ धारणा का निर्माण नहीं होता। अपने से कमतर मानने की प्रवृत्ति का जन्म पहले पहल कक्षा में पैदा होता है। एक बुदेलखंड़ी, मालवा, भोजपुरी, डोगरी बोलने वाले बच्चों से सवाल हिन्दी में पूछे जाते हैं तब वे बच्चे जवाब जानते हुए भी भाषायी मुश्किलों की वजह से चुप रहते हैं। यदि उन बच्चों को कक्षा में उनकी भाषा और भाषायी दक्षता को लेकर मजाक बनाया जाता है तब साहित्य कहीं पीछे छूट जाता है। स्थानीय भाषा पर मानक भाषा सवार हो जाती है। यहां बच्चों की मातृभाषायी समझ को धत्ता बताते हुए मानक भाषा को अपनाने की वकालत की जाती है।
यदि राष्टीय पाठ्यचर्या 1977, 1990 व उसके बाद 2000 पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां चित्रों, लिंग, भाषा को लेकर संतुलित छवि नहीं मिलती। यही वजह था कि 1990 में मध्य प्रदेश में एक सर्वे किया गया कि जनजाति और महिलाओं को किस प्रकार पाठ्यपुस्तकों में दिखाया गया है। उस रिपोर्ट में पाया गया कि महज 0.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भागिदारी दिखाई गई थी। वहीं महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ 0.2 प्रतिशत थी। एक और सर्वे और शोध पर नजर डालना जरूरी होगा जो 1994-95 में हुई। यह शोध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग में हुई थी। इस शोध में पांच हिन्दी भाषी राज्यों की कक्षा 5 से 8 वीं के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया गया था। इस शोध का उद्देश्य था कि इन पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं और जनजातियों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट की मानें तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। महज 0.00 और 0.1 फीसदी उपस्थिति दर्ज देखी गई थी।
राष्टीय शिक्षा नीति 1986 की रोशनी में बनी पाठ्यपुस्तकों पर भेदभाव-जाति, वर्ग, लिंग का आरोप लगा था। इन आरोपों से उबरने के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया। उन्हें सुझाव देना था कि कहां कहां इस तरह की गलतियां हुईं हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। उस सुझाव के बाद बने पाठ्यपुस्तकों पर नजर डालें तो स्थिति और भी हास्यास्पद नजर आती है। महिलाओं की उपस्थिति तो बढ़ी लेकिन उनमें काम और पूर्वग्रह पूर्ववत् बनी रहीं। महिलाएं बाल बनाती हुईं महिलाएं खाना बनाती हुई पारंपरिक कामों में लीन दिखाई गईं।
सचपूछा जाए तो साहित्य की दुनिया इस प्रकार के विभेदीकरण का स्थान नहीं देती। लेकिन न तो साहित्य और न साहित्यकार अपने पूर्वग्रहों से बच पाता है। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप मंे निजी मान्यताओं, धारणाओं और मूल्यों को साहित्य तो जीवित रखता है। यदि हमें कहें तो किताबें निर्दोष नहीं होतीं तो गलत नहीं होगा। साहित्य का मकसद पाठकों को एक बेहतर मनुष्य बनाने और अपने अनुभवों को व्यापक करने में मदद करना है।
साहित्य की दुनिया पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि साहित्य भी कक्षा कक्षा होने वाले विभेद के फांक को बढ़ाने वाला ही होता है। विभिन्न तरह के विभेदों और वादों में बंटा साहित्य चाहे वह दलित विमर्श हो या आदीवासी साहित्य या फिर प्रवासी साहित्य अमूमन इन साहित्यिक कृतियों में अपने वादों और विचारों को ही पोषित किया जाता है। एक बच्चे की दृष्टि से साहित्य को देखें तो उनके पास कविता और कहानी के रूप में पहंुचती हैं। वह कहानी बड़ों की दुनिया के बारे में होती हैं। बच्चों के साहित्य जिन नामों से मिलते हैं वे चिन्टू के कारनामें, टीपू की सैर आदि। जहां वैज्ञानिक सोच और कल्पना की गुंजाइश के स्थान पर पूर्व निर्धारित सोच और निर्णय को परोसा जाता है। बाल साहित्य पर नजर डालें तो जंगल, पेड़-पौधे, जानवर आदि की कहानियां होती हैं या फिर परियों, सपनों की दुनिया बुनी जाती हैं। इस किस्म के साहित्य से कैसे गुजरें इसकी समझ और औजार शिक्षकों को देना बेहद जरूरी है। ऐसे में कक्षा में शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है। यदि शिक्षक इस तरह की स्थिति में स्वविवेक का इस्तमाल नहीं करता तब बच्चों में स्वस्थ विचार नहीं पहुंच पाते।
बच्चों के साहित्य और आम साहित्य में यदि कोई बुनियादी फांक या बारीक सा विभाजन कुछ हो सकता है तो वह यही कि एक साहित्य वयस्कों की दुनिया की कहानी बताती है तो दूसरा साहित्य बड़ों के द्वारा बच्चों की दुनिया को समझने और समझाने की कोशिश करता है। एक ओर हम अपनी आपबीती घटनाओं, अनुभवों को अपने ही वर्गों में साझा करते हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चों की दुनिया को बड़ों के चश्मों से देखकर व्याख्यायित करते हैं। दरअसल बाल साहित्य के नाम पर हम वयस्क अपनी ही नजर से उनकी दुनिया को देखने और समझने की कोशिश करते हैं। जरूरत इस बात की भी है कि हमें बच्चों की आवश्यकता और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर उनके लिए साहित्य तैयार करें।
साहित्य के अंदर की दुनिया में कैसे और किन वर्गों को हाशिए पर धकेला जाता है इसे भी देखते चलें। हमारे ही समाज के कई वर्ग हैं जो हमारे पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों से बाहर रखे जाते हैं। पाठ्यपुस्तकों से ख़ासजाति संबंधी एवं वर्ग संबंधी शब्द जगत को भी हाशिए पर रखना व मुख्यधारा की भाषा से काट कर रखा जाता है। हाल ही में एक खास विचार धारा की ओर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सुझाव दिया गया कि बच्चों की किताबों से उर्दू, अरबी, फारसी एवं अंगरेजी शब्दों को हटा दिया जाए। उस सुझाव में उदाहरण स्वरूप शब्दों की सूची भी सौंपी गई थी। तर्क दिया गया कि उक्त शब्द हमारे हिन्दी के वर्णमाला को दुषित कर रहे हैं। ज़रा उन शब्दों पर नजर डालते हैं जिन्हें पाठ्यपुस्तकों से निकाल बाहर करने की वकालत की गई वे शब्द हैं- शरारत, ख़बरदार, दोस्त, गायब, मौका, मुश्किल आदि जिन शब्दों को बच्चों की स्कूली किताबों से बाहर का रास्ता दिखाया गया था। अजेय कुमार, ‘वैज्ञानिक सोच के विरूद्ध’, जनसत्ता, 12 दिसंबर 2014, उन जगहों पर संस्कृत और हिन्दी के शुद्ध शब्दों को स्थानांतरित किया गया था।
सवाल यह है कि कुछ शब्दों, वाक्यों, गद्यांशों को बदल देने से शिक्षा में समता और समानता की स्थिति पैदा हो सकती है? क्या हिन्दी के शब्दों को किताबों में ठूंस देने से तथाकथित मूल्य, संस्कार बच्चों में कोचे जा सकते हैं? क्या बच्चों के दिमाग में वयस्कों की समझ और पूर्वग्रह को रोपना उचित है? आदि प्रश्नों से मुंह नहीं मोड़ सकते। लेकिन अफसोस की बात है कि इस तरह की घटनाएं बड़ी ही सोची समझी रणनीति के तहत की जा रही हैं। हम अपने बच्चों को किस तरह की तालीम देने की कोशिश कर रहे हैं उसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है। हमें यह भी साफ करने की जरूरत है कि हम किस किस्म की शिक्षा किसकी भाषा में देना चाह रहे हैं। महज शब्दों, वाक्यों, उदाहरणों को किताबों से बाहर कर देना ही समाधान नहीं है।
दरअसल साहित्य कुछ पूर्वग्रहों को अग्रसारित करने का भी काम करता है। यदि समग्रता में देखें तो हमारा स्कूल और हमारी पाठ्यपुस्तकें भी विभेदीकरण के अंतर को निरंतर बरकरार रखने में अपनी भूमिका निभाते हैं। यदि हम झूठन व मुर्दहिया या फिर मणीकर्णिका को ध्यान से पढ़े ंतो वहां स्कूल का शिक्षक खुद डाॅ तुलसी राम के शब्दों में भाषायी हिंसा किया करता था। साथ ही जाति सूचक शब्दों का इस्तमाल डाॅ तुलसी के साथ साथ अन्य दलित बच्चों के साथ भी किया करते थे। जिन मानसिक तनावों और संवेदनात्मक उथलपुथल से डाॅ तुलसी का बालमन गुजरा ऐसे हजारों बच्चे यदि आज भी विभिन्न स्कूलों में जी रहे हैं तो इसे किस दृष्टि से देखे जाने की आवश्यकता है। क्या हमें ठहर कर इसपर विचार नहीं करना चाहिए कि आजादी के 6 दशकों के बाद भी यदि समाज में जाति,धर्म,वर्ण, भाषा के आधार पर स्कूलों में बच्चों के साथ भेदभाव हो रहे हैं तो इसके पीछे हमारी कौन सी और किस स्तर की चिंतन प्रक्रिया जिम्मेदार है।
हम दलित व समाज के अन्य पिछड़े तबकों से आने बच्चों की बात तो बाद में करेंगे यहां तो पूरा का पूरा पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकें भी बच्चों में खास वर्ग, जाति, भाषा की श्रेष्ठता को लेकर लगातार विष वमन कर रहे हैं। ऐसे में हमें अपने शिक्षा और साहित्य के वृहत्त उद्देश्यों को पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। शिक्षा की पात्रता कभी भी जाति, वर्ण, भाषा आदि नहीं रही है। यदि किसी भी समाज में ऐसा हो रहा है तो वह शैक्षिक दर्शन और शैक्षिक विमर्श से कोई वास्ता नहीं रखता। उसका यदि कोई रिश्ता होता होगा तो वह राजनीतिक व अन्य प्रलोभनों को हो सकता है कम से कम शिक्षा का उससे कोई लेना देना नहीं है।

Monday, August 24, 2015

तुम्हारे पास समंदर था और मेरे पास पहाड़ दादू

तुम्हारे पास समंदर था और मेरे पास पहाड़ दादू

तुम्हारे पास समंदर था सो मचलते रहे ताउम्र
मेरे पास पहाड़ था,
सो भटकता रहा मोड़ मुहानों से ताउम्र।
तुम्हारे पास समंदर की लहरें थीं खेलने उलीचने को
जो तुमने किया,
तटों से टकराती लहरें गिनते रहे उम्र भर
मेरे पहाड़ मुझे ताकीद करते रहे उम्र भर
सावधानी घटी कि गए हजारों हजार फीट नीचे।
पहाड़ अकसरहां कहा करते थे
मैदान भला या पहाड़ तय कर लो
खुद सोच विचार कर लो
फिर निकलो
मगर पेट था कि माना नहीं
चला गया
पहाड़ के सन्नाटे को पीछे धकेल।
पर तुम्हारे पास तो समंदर था-
लहराता
बलखाता
जहां गिरने की कोई निशानी न थी
डूबता भी कौन है किनारों पर बसने वाले
मगर तुमने क्यों छोड़ा समंदर का साथ?
पहाड़ों के दर्द को भूला
भला मैं कब तलब मैदान फांकता
बार बार लौटता रहा पहाड़ मगर
अब पहाड़ ग़मज़दा था
खाली खाली खोखला पहाड़
मौन बस यही कहता रहा
अब मैं भी थक गया हूं
इन मोड़ मुहानों पर जी नहीं रमता
तुम क्या गए सारी रौनकें चली गईं गोया।

क्रांतिवादी शिक्षक मारे जाएंगे





हाल में जिस शिक्षक की शिकायत पर उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक परिवर्तनकारी निर्देश जारी किए जिसकी प्रशंसा चारों ओर हो रही है जिसपर तमाम अखबारों, सोशल मीडिया एवं शैक्षिक जगत में तारीफ हो रही है उसी शिक्षक को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उस शिक्षक को बर्खास्त किया जा चुका है। एक शिक्षक कैसे आवाज बुलंद कर सकता है। सत्ता इस आवाज को किसी भी कीमत पर सुनने को तैयार नहीं है। शिक्षक वर्ग को माना ही जाता है कि यह महज आज्ञाकारी होना चाहिए। यह वर्ग सिर्फ और सिर्फ आदेशों का पालन करने के लिए बना है। वह आदेश गैर शैक्षिक कामों में लगाने का हो या फिर शिक्षण प्रशिक्षण जैसे गंभीर कर्म। शिक्षक सिर्फ पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों को पूरा कराने वाला सस्ता और सुलभ साधन मात्र है। जब भी किसी शिक्षक ने अपनी स्थिति और पद के विपरीत आवाज उठाने की कोशिश की है तब तब उसे फरमान पकड़ाए गए हैं। लेकिन इन तमाम परिघटनाओं पर नजर डालें तो यह सहज ही जान पड़ता है क्योंकि शिक्षक की अपनी न तो कोई सत्ता होती है और न सामाजिक पहचान ही। समाज इस वर्ग को जिस नजर से देखता है उसमें भी एक कातरता और बेचारगी का भाव होता है। एक शिक्षक ने प्राथमिक स्कूलों में हो रहे शैक्षिक परोड़ों का समाज और न्यायपालिका के समक्ष रखने की कोशिश की। लेकिन उसकी आवाज और छटपटाहटों को सत्ता और सरकार जिस रूप में ली यह किसी से दबा-छुपा नहीं रहा।
गौरतलब है कि शिक्षक की सामाजिक हैसियत और सत्तायी चरित्र को हमेशा से ही कमतर आंका गया है। जबकि शिक्षण और शिक्षक की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यदि एक शिक्षक कम पढ़ा लिखा व खास वैचारिक पूर्वग्रह का है तो वह हजारों लाखों बच्चों को प्रभावित करता है और उसी के अनुरूप गढ़ता है। इस खतरे को हम देख नहीं पा रहे हैं। याद हो कि सन् 2009 के आसपास बिहार सरकार ने प्राथिमक स्कूलों में शिक्षा को ठेके पर यानी तदर्थवाद के हाथों सौंप दिया। हजारों गैर प्रशिक्षित स्नातकों, परास्नातकों के हाथों बिहार की प्राथमिक शिक्षा को सौंप दिया गया। जिन्हें मानदेय के नाम पर 4000 से 6000 पर रखा गया। इस तरह से वहां की प्राथमिक शिक्षा को गैर प्रशिक्षित शिक्षकों के हाथों सौंप कर सरकार फारिक हो गई। इसके परिणाम एक दो सालों के बाद आने शुरू हुए। बल्कि कहना चाहिए कि इस तरह से गैर प्रशिक्षित शिक्षकों के हाथों सौंपे गए प्राथमिक शिक्षा के परिणाम आने में थोड़ा वक्त लगता है लेकिन उन परिणामों के भयावहता को भांप कर डर लगता है। आज की तारीख में पूरे देश भर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को देखते हुए घोर निराशा होती है। बच्चे कक्षा 3 री, 5 वीं व आंठवीं में पढ़ते तो हैं लेकिन उन्हें भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषयों की समझ, ज्ञान एवं कौशल अत्यंत कमतर होते हैं। इस बाबत कई सारी रिपोर्ट सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं से हर साल आती रही हैं। लेकिन सरकार की नींद नहीं खुलती। सरकार बस पूरी कोशिश में है कि किसी भी तरह से सरकारी स्कूलों को नकारा साबित कर प्राथमिक स्कूलों को बंद किया जाए और यह काम जिनी कंपनियों के हाथों गिरवी रख दी जाए। सरकार इस मनसा में तेजी से आगे बढ़ भी रही है। यदि 2014-15 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूलों को बंद कर दिए गए। राजस्थान में 1800, छत्तीसगढ़ में 3000, उत्तराखंड़ में 4000 एवं अन्य राज्यों मंे भी सरकारी स्कूलों मंे ताले लगाने के प्रयास किए जाए रहे हैं। इन बंद किए गए स्कूलों के पीछे सरकारी तर्क शास्त्र यह है कि हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं है। हमारे पास शिक्षक नहीं हैं आदि। इन तर्कों की रोशनी में देखें तो आरटीई स्पष्ट मानती है कि हर स्कूल में प्रशिक्षित शिक्षक, 31 और 1 का अनुपात एवं भवन होने चाहिए। इन दृष्टि से देखें तो अमूमन सरकारी स्कूलों के पास जमीन है। भवन भी हैं किन्तु जर्जर हालत में हैं। उन्हें दुरूस्त करने की बजाए निजी हाथों में देने के लिए सरकार बेचैन है। उत्तराखंड़ में तो एक निजी संस्थान को सरकारी स्कूलों को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जा चुकी है।
जिस रफ्तार से सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने पर सरकारें तत्पर हैं उन्हें देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब सरकारी स्कूलों की बागडोर निजी संस्थानों के हाथों में होगी। ज़रा कल्पना कीजिए ऐसा होता है तो लाखों गरीब परिवारों के बच्चा कहां शिक्षा हासिल करने जाएंगे। यूं तो यूपी हाई कार्ट ने निर्देश तो जारी किए हैं लेकिन हजूर और मजूर के बच्चे किस स्कूल में पढ़ने जाएंगे। सरकारी की बेचैनी और चिंता सरकारी स्कूलों को बचाने की बजाए उन्हें अपने हाथों तर्पण करने की ज्यादा है। यह तर्पण का खेल 1990 सब के लिए शिक्षा यानी जेमितियन सम्मेलन के बाद शुरू हुआ था। इस सम्मेलन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा सरकार की बजाए विश्व बैंकों और वैश्विक पूंजी से तय की जाने लगी। तत्कालीन शैक्षिक परिघटनाओं पर नजर रखने वाले प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपल का मानना था कि यदि शिक्षा का इतिहास लिखा जाएगा तो यह एक दुखड़ माना जाएगा। क्योंकि इस सम्मेलन के बाद प्राथमिक शिक्षा का समूचा परिदृश्य ही बदल गया।
प्राथमिक शिक्षा और शिक्षक को जब तक पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों के निर्माण में सहभागिता सुनिश्चित नहीं जाएगी तब तक सकारात्मक परिवर्तन की कल्पना अधूरी ही रहेगी। शिक्षक स्वयं बेशक समाज में एक दिन में क्रांति न ला पाए किन्तु वह जिस बीजों को सींचता और पालता है वह एक दिन क्रांति के सबब बनते हैं। आज की तारीख में प्राथमिक शिक्षा को जिस हल्के में लिया जाता है यही वजह है कि हमारे बच्चे कक्षा 6 ठी तक पहुंचते पहुंचते या तो स्कूल से बाहर की दुनिया में खम जाते हैं या फिर जिस स्तर की शिक्षा हासिल करते हैं वह बड़ी चिंता में शामिल हो जाती हैं।


Wednesday, August 19, 2015

हजूर के बच्चे भी पढ़ेंगे सरकारी स्कूल में



कौशलेंद्र प्रपन्न
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए उत्त्र प्रदेश सरकार को निर्देश जारी किया है जिसके निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। उच्च न्यायालय ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि सरकारी नौकरी वाले,सांसदों, न्यायपालिका आदि से संबद्ध कर्मियों के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ें। दूसरे शब्दों में हजूर और मजूर के बच्चे एक ही टाट पर बैठें। जहां उच्च और निम्न वर्ग का भेद न हो। यह अवधारणा नया तो नहीं है हां यह दिलचस्प जरूर है। जमीनी तल्ख़ हकीकत यह है कि आज सरकारी स्कूलों में उन्हीं परिवारों के बच्चे पढ़ने जाते हैं जो निजी स्कूलों के नाज़ नखरे नहीं उठा सकते। यूं तो मजूर और अशक्त मां बाप की भी तमन्ना यही होती है कि उनके बच्चे निजी स्कूलों में ही पढ़ें। लेकिन उनकी माली हालत साथ नहीं देती। बहुत पहले शिक्षा में यह बात जोर शोर से उठी थी कि सभी के लिए समान शिक्षा और समान स्कूल हों। ताकि समाज का ताकतवर और कमजोर वर्ग का बच्चा भी एक साथ शिक्षा हासिल करे। यदि इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि राजा और प्रजा दोनों के ही बच्चे एक समान स्कूल में ही पढ़ा करते थे। गुरुकुल की परंपरा यही बताती है कि गुरुकुल में राजा का बच्चा और आम प्रजा का बच्चा दोनों ही समान शि़क्षा पाता था। गुरु की नजर में वे महज बच्चा हुआ करते थे। लेकिन जैसे जैसे हमारे समाज में शक्ति और अर्थ का वर्चस्व बढ़ा वैसे वैसे स्कूलों में विभाजन की रेखाएं चैड़ी होती चली गईं। कोठारी आयोग से लेकर शिक्षा नीति, राष्टीय शिक्षा आयोगों में भी समान स्कूली शिक्षा की वकालत की गई। आज प्राथमिक शिक्षा की पतली होती गुणवत्ता के चादर को देखकर घोर निराशा होती है। यह निराशा कम होने की बजाए निरंतर गहराती ही जा रही है। प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता एक अहम मसला है। कई सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट हमें ताकीद करती हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ने-लिखने और समझने की क्षमता का स्तर अपनी कक्षानुरूप नहीं है। कक्षा छः में पढ़ने वाला बच्चा कक्षा दूसरी व तीसरी की भाषा की किताब नहीं पढ़ पाता। यही हाल गणित और विज्ञान विषय का है।
उच्च न्यायालय की चिंता और निर्देश एक उम्मीद की रोशनी की तरह लगती है। उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए वह इन स्कूलों में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों, स्थानीय निकायकर्मियों, जनप्रतिनिधियों तथा न्यायव्यवस्था के जुड़े लोगों के बच्चे भेजे जाएं और छः महीने के बाद मुख्य सचिव इस बाबत रिपोर्ट दे कि इस बीच इस आदेश का किस हद तक पालन किया गया है। गौरतलब है कि न्यायालय के आदेशों की माखौल इतिहास में कैसे उड़ाए गए हैं। जिस तरह से पिछले आदेशों व निर्देशों की धज्जियां उड़ाई गईं हैं क्या इस निर्देश का हस्र भी वही नहीं होगा। यदि सरकारी स्कूलों की स्थिति पर नजर डालें तो देख पाएंगे कि पिछले साल से इस वर्ष जुलाई तक विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूलों में तालें लटका दिए गए हैं। महाराष्ट में 14 हजार, राजस्थान में 17 हजार, तेलंगाना में 4 हजार, उत्तराखंड़ में 3 हजार, छत्तीसगढ़ में 4 हजार से ज्यादा सरकारी स्कूलों को विभिन्न तर्कांे के आधार पर बंद कर दिए गए। यहां सरकार की मनसा की झलकी मिलती है। क्या सरकार इन स्कूलों को बंद कर समाज को एक बेहतर सरकारी स्कूलों का विकल्प दे रही है?क्या सरकार की मनसा निजी स्कूलों को बढ़ाने का है? क्या यह एक वैश्विक उपक्रम का हिस्सा है कि सरकारें अपने स्कूलों को नकारा साबित कर बंद कर दें फिर सस्ते दामों पर मिली जमीनों पर निजी स्कूलों को खाद पानी दे फलने फुलने का वातावरण बनाया जाए आदि।
सरकारी स्कूलों में यदि स्थिति खराब है तो इसके लिए सरकार तो जिम्मेदार है ही साथ ही सरकारी स्कूलों में अध्यापन करने वाले अध्यापक वर्ग भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि एक बार सरकारी टीचर बन जाने के बाद कितने प्रतिशत शिक्षक ऐसे हैं जो अपनी नैतिक और पेशागत जिम्मेदारियों को समझते और निभाते हैं? कितने शिक्षक हैं जो अपनी शैक्षिक समझ और ज्ञान को अधुनातन करने का प्रयास करते हैं? जितनी प्रतिबद्धता और बेचैनी सरकारी स्कूल में नौकरी पाने की होती है क्या उसका दस फीसदी भी जिम्मेदारी एवं शिक्षण की छटपटाहट शिक्षकों में बची रहती है आदि सवाल भी पूछे जाने चाहिए। क्योंकि जितना वेतन अध्यापकों को आज की तारीख में मिल रही है वह दुनिया के अन्य पेशों की नजर से देखें तो एक अच्छी सैलरी मानी जा सकती है। अब सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या सरकारी शिक्षक अपने वेतन के साथ न्याय करता है। यदि नहीं तो क्यों न ऐसी व्यवस्था की जाए कि जिस कक्षा का रिजल्र्ट खराब हो उसक अध्यापक की प्रोन्नति, वेतन आदि में कटौती की जाए। यह विमर्श तेजी से आगे आकार ले रहा है कि शिक्षकों की जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया जाए। यदि सरकार उन्हें एक अच्छी सैलरी दे रही है तो उनसे बेहतर शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक स्तर की उम्मीद तो की ही जा सकती है।
निजी स्कूलों के बेल लगातार बढ़ने के पीछे सरकारी सुस्तता और मौन स्वीकृति भी एक बड़ा कारण है। वरना क्या वजह है कि सरकारी स्कूलों में एक निजी स्कूलों के शिक्षकों से कहीं ज्यादा पढ़े लिखे शिक्षकों की टीम है किन्तु जब कक्षा में शिक्षण शिक्षा के स्तर की बात आती है तब निजी स्कूल के लिए तालियां बजती हैं और सरकारी टीचर के लिए लानत मलानत ही हिस्से आते हैं? क्या वजह है कि सरकारी स्कूल का शिक्षक अपने वेतन से आधी या उससे भी कम सैलरी पाने वाले निजी स्कूलेां के शिक्षकों के बरक्श कमतर परिणाम देता है। कहीं न कहीं सरकारी ढर्रे की सोच भी एक बड़ा रोड़ा है जिसके वजह से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता संदेह के घेरे में है। यदि ठहर कर देखें तो सरकारी स्कूलों की भी कई कोटियां हैं- नवोदय विद्यालय, सर्वाेदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय, प्रतिभा विद्यालय आदि। इन तमाम विद्यालयों में भी शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता में अंतर देखे जा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देश को सकारात्मक सोच की पहलकदमी मानी जा सकती है। संभव है इस निर्देश को माॅडल मान कर अन्य राज्यों में भी ऐसे ही कदम उठाए जाएं। इस निर्देश में स्पष्टतौर पर कहा गया है कि जो सरकारी अधिकारी, न्यायव्यस्था, कार्यपालिका,जनप्रतिनिधि आदि से अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजेंगे उन्हें निजी स्कूलों की फीस के बराबर राशि खजाने में जमा कराना होगा। इतनी ही नहीं बल्कि उनके प्रमोशन और इक्रिमेंट आदि भी रोके जाएं। यह अगले शैक्षिक सत्र से लागू होने की आशा है।


Tuesday, August 11, 2015

घोषणाएं हंै घोषणाओं का क्या



घोषणाएं होती हैं करने के लिए। किसने कह दिया कि घोषणाओं को पूरा भी करना है। नहीं किया तो आपकी जान पर पड़ जाएगी। वो भी राजनीति में तो बेहद आमफहम बात है। हाल में प्रधानसेवक जी ने बिहार में घोषणाओं की नई पौध लगाई है। उन्होंने कहा है कि बिहार को बिमारू राज्य से बाहर निकालना है। उन्होंने तो यह भी कहा कि बिहार को विकास के राह पर हांक देंगे बस शर्त यह है कि राज्य का कमान उनके हाथों में सौंप दिया जाए। सवाल यह उठता है कि क्या केंद्र में रहते हुए वे बिहार की स्थिति को नहीं सुधार सकते। क्या बिहार के विकास के लिए इस राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेना जरूरी है या राजनीतिक फैलाव भर करना चाहते हैं। बिहार राज्य की शिक्षा, तकनीक, विकास आदि को लेकर बहुत हांफते हुए बहुत सारी घोषणाएं की गई हैं। कौन नहीं जानता कि जो सपने व घोषणाएं बिहार व अन्य राज्यों की आंखों में चुनाव के इर्द गिर्द दिखाई जाती है उनका उत्ता चुनाव क्या हस्र हुआ करता है।
किसी समाज व राज्य की खुशहाली,विकास संपन्न्ता वहां की शिक्षा,स्वास्थ्य, रोजगार आदि के आधार पर देखा जाता है। यदि इन बिंदुओं पर बिहार पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा के नाम पर फर्जी डिग्रीधारी शिक्षक प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापन कर रहे हैं। इस बाबत न्यायालय के आदेश के बाद 14 से ज्यादा शिक्षकों ने त्यागपत्र दे दिया। यह संख्या कहां तक पहुंची इसकी फाॅली अप स्टोरी किसी भी समाचार पत्र, पत्रिका में शायद नहीं छपी। तय था कि आठ जुलाई तक जिनके पास भी फर्जीडिग्री है वे अपना इस्तीफा दे दें। लेकिन आठ जुलाई के बाद कितने इस्तीफे आए क्या सरकार को पता है? क्या मीडिया ने इसका फाॅलो अप किया। जवाब आप सभी को पता है। समाचार पत्र एक बाद खबरों को उछाल कर अगली खबर की ओर मुड़ जाया करती है। हालांकि यह सरलीकरण होगा किन्तु कम से कम इस खबर व हकीकत के साथ तो यही हुआ है। शिक्षा की स्थिति तो यह है कि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतर और विश्वविद्यालीय शिक्षा में भी उम्मीद की रोशनी नजर नहीं आती। पटना विश्वविद्यालय में इस अकादमिक सत्र में हिन्दी विभाग में महज पांच दाखिले हुए। यह खबर भी पिछले माह आई थी। अभी यह संख्या कहां तक पहुंची किसे मालूम है?
शिक्षा ही वो आधार है जिस जमीन पर खड़े होकर हम राज्य व देश की तबीयत कैसी है, का अंदाजा लगा सकते हैं। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर पर अव्वल तो शिक्षा की छीजती हुई परते नजर आती हैं। जहां कुछ शिक्षक पढ़ने का अपना मूल कर्तव्य मानकर पढ़ाते हैं उन्हें गैर अकादमिक कामों में हांक दिया जाता है।

Saturday, August 8, 2015

काव्य संवाद एक नजर मंे




किसी दिन सुबह नहीं आया तो किससे लड़ोगे...गुड की तरह याद आउंगा जब रोटी खाओगे। कौशलेंद्र प्रपन्न की कविता पर जम कर तालियां बजीं। वहीं डाॅ शशि सहगल ने मीठा चावल पंजाबी की कविता का पाठ किया जिसे श्रोताओं ने हाथों हाथ लिया। वहीं दूसरी ओर डाॅ लालित्य ललित की कविता गांव का खत शहर के नाम सुन कर श्रोताओं में एक उत्साह दौड़ गई।
इस कार्यक्रम में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन की शिक्षा और थीम प्रमुख डाॅ नुज़हत अली ने महानगर की त्रास्दी को उजागर करते हुए अपनी कविता नए मकान में झांकती हुई चिरियां को याद किया।
कार्यक्रम का संचालन सुश्री शैलजा चैधरी ने किया। अपनी अलग अंदाज़ में श्रोताओं को भरपूर आनंद दिया। सुश्री शैलजा ने कार्यक्रम में छोटी छोटी क्षणिकों और काव्य पंक्तियों से कार्यक्रम में रस का संचार किया।
इस कार्यक्रम में डाॅ नुज़हत अली, श्री सलमान यू खान, मदन मोहन शर्मा, डाॅ मनिषा मिनोचा डाॅ लालित्य ललित, डाॅ शशि सहगल के साथ तकरीबन पचास शिक्षक,शिक्षिकाएं शामिल थीं। श्रोताओं में से श्री विमल कुमार, श्री विनोद कुमार, सुश्री रूचि, सुश्री प्रिया गोस्वामी, सुश्री सुमन लता ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...