Sunday, February 19, 2012

फिल्म भी दर्पण होते हैं समाज के हलचल दर्ज है

फिल्म बिधा भी कम मसक्कत के नहीं हैं. इस विधा में  भी शोध और दिमागी  कसरत  करना  पड़ता है. पथेर पाचाली आज भी दुनिया के १० क्लास्सिक फिल्म में शामिल है. फ़िल्में भी अपने समाज की धरकनें जज्ब करती है. टाइम गुजर जाने के बाद  जब हम इन फिल्मस के कथानक देश काल पर नज़र डालते हैं तो उस काल, देश के तमाम उठा पथक की जानकारी मिलती है. आलम आरा, हरिश्चंद्र, दो बीघा जमीन, नदिया के पार, शोले आदि यूँ तो लिस्ट लम्बी हो सकती है. लेकिन यहं लिस्ट बनाना न तो मकसद है और न ही जरूरी.
सवाल है फिल्म्स देखते टाइम हम महज़ आनंद उठा कर घर आ जाते हैं. निर्देशक के मेसेज को हॉल में ही दफना कर आते हैं. साहित्य हो या कला के दुसरे दर्पण हर दर्पण में अपने समाज के हलचल कैद होते हैं. पेज थ्री, पिंजर, नो ओने किल जसिका, लगन फिल्म्स को देखते हुवे हम उस बीते काल खंड के हिस्सा हो जाते हैं. यह समय के साथ यात्रा का सुख फिल्म, साहित्य, कविता, पेंटिंग आदि कला की विद्यां ही दे सकती है. हर विधा के अपने आनंद है और जोखिम भी.
फिल्म के साथ इक बात है वो है पढने से दूर जाते मानस को भी शरण में बुलाती है. पढने के लिए समय चाहिए. धर्य की दरकार होती है. लेकिन फिल्म्स को देखने के लिए इतने इंतज़ार की जरूरत नहीं होती. वीर ज़रा, बोर्डर, ग़दर आदि फिलेम्स को देखने जाएँ तो यह मान कर चलें की फिलेम्स के निर्देशक की नज़र पुर्ग्रह मुक्त नहीं होते. यहाँ दर्शक को खुली आखें ले कर जाना चाहिए. हर विधा के साथ यह जोखिम होता है. रचनाकार यदि पुयुराग्रह से ग्रषित है तो वो घटन को अपने नज़र से देखेगा और प्रस्तुत करेगा.
जो भी हो फिल्मस की आलोचना जितनी भी की जाये लेकिन इससे उसकी उपाद्यता को नज़रन्दाज नहीं कर सकते.                                    

Friday, February 17, 2012

इक शिक्षा सामानांतर बोध

शिक्षा के शेत्र में कई तरह के नवाचार चल रहे हैं. लेकिन फिरभी स्कूल बच्चों को  अपनी तरफ  खीच नहीं पा रही है तो यह सोचने की बात है की क्या वजह है. यही सवाल १९८७ में बोध शिक्षा समीति के संस्थापक योगेन्द्र जी को खीचा. काम करने की नै दिशा दी. आज इस बोध संस्था की सपने पुरे राजस्थान में फल फुल रहे हैं.
जयपुराने २० किलो मीटर पहले  बोध परिसर काम के सूक्ष्म तत्वों पर काम करती है. उन सपनो को साकार करने के लिए उसने राजस्थान सरकार के पिलोत प्रोजेक्ट के साथ हाथ मिल्या. आज की तारीख में जयपुर के अलग अलग सरकारी स्कूल में बोध अपनी योजना चला रही है. जिसमें बोध के शिक्षक सरकारी स्कूल के शिक्षक के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. बच्चों में पढने के प्रति ललक तो बढ़ी ही है साथ ही समुदय के लोगों में भी इक युथास  दिखाई देती हैं. 
भाति पुर और आमापुर के गरीब परिवार की बच्चे यहाँ अपनी तालीम के खाब पुरे कर रहे हैं. १९८७ में योगेन्द्र जी ने जैसे जिस तरह की कठिन हालात में बोध की शुरुयात की यह इक प्रेरणा का विषय है. आज आमा पुर का शाला पूरी तरह से समुदाय की हाथों में है. 
शिक्षा में यैसे नवाचार के लिए रस्ते निकालने ही होंगे. बोध न्च्फ़ २००५ को आधार बना कर परीक्षा से शिक्षा को मुक्त करने की मुहीम में जुटी है . बोध परिसर में बच्चों को ध्यान में रखा गया है. वह चाहे क्लास रूम हो या पठान पाठन की सामग्री हर उन चीजों में इक न इक न्यू तकनीक की, समझ की, नवाचार की झलक मिलती है. 
kaas बोध के साथ हमारी शिक्षा के मुगलों को विचार करना होगा.                          

Tuesday, February 14, 2012

नौटियाल गए....शहरयार भी चले गए....

नौटियाल गए....शहरयार भी चले गए....साहित्य हो या आम जीवन किसी के जाने के बाद वो लोग बेहद याद  आते  हैं. वहीँ दूसरी और खास बात यह की राम दरश मिश्र जी को उनकी आम के पत्ते के लिए व्यास पुरस्कार मिला.
साहित्यकार जब भी अपनी गवई अनुभवों को कागज़ पर आकार देता है वो पाठकों को तो काफी करिईब लगता है साथ ही वह अनुभवों का नवीकरण भी होता है.   
हम कितने भी शहरी हो लें लेकिन हमारी स्मृति में हमारा गावों और गावों के पल हमेशा साथ रहते हैं. साहित्यकार कुछ भी नहीं करता बल्कि वो हमारी स्म्रित्यों में पड़ी यूँही यादों को सहता और ताज़ा कर देता है. हम सभी को लेखक की बातें अपनी लगती हैं.    

Thursday, February 9, 2012

तुम मुझे मरने की गलती मत करना

यूँ तो पुनिश्मेंट पर हाई कार्ट ने पाबंदी लगा राखी है. लेकिन उनसब के बावजूद स्कूल में इस किस्म की घटनाएँ घटती रहती हैं. 
सहनशीलता दोनों ही तरफ घटी हैं. शिक्षक भी और छात्र भी दोनों ही आज कल अशांत हो चुके हैं. इक तरफ मानसिक तो दूसरी तरफ शारीरिक और समाज की और से शिक्षा और बच्चों पर दब्वो बढता जा रहा है. इसी का परिणाम है, इस किस्म की घटनाएं.
दुसरे शब्दों में कहें तो क्लास्स्रूम की प्रकृति को समझने की बेहद जरुरत है. तनावों, दाबों को पार करते हुवे बच्चों को गढ़ना इक जोखिम भरा काम है.    

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...