Tuesday, July 31, 2018

गले लगने से पहले


कौशलेंद्र प्रपन्न
गले पड़ना। गले मिलना। गले से नीचे नहीं उतरना। गले की हड्डी बन जाना। गले का हार होना। आदि कई मुहावरे हमने सुने और सुनाए हैं। इनके मायने से भी हम बख़ूबी वाकिफ हैं। इनमें से एक है गले मिलना। गले मिलना यानी किसी को बहुत प्यार और विश्वास से गले लगाते हैं। दोनों ही पक्ष सम होते हैं। किसी भी कोण से देख लिया जाए तो शायद हम उसी के गले मिलते हैं जिन्हें अपना मानते और स्वीकारते हैं। लेकिन हम कई बार भूल जाते हैं कि जिसे गले लगा रहे हैं या जिसके गले लग रहे हैं क्या वो भी आपको उसी शिद्दत से स्वीकार कर रहा है या कहीं आप उसके गले तो नहीं पड़ रहे हैं। वो किसी भी तरह अपसे पीछा छुटाना चाहता है। वो चाहता है कि आपकी इस हरक्कत को सरेआम कोई और न मायने निकाल ले।
अगर ठहर कर देखा और समझा जाए तो गले मिलना और गले पड़ना में कोई ख़ास अंतर नहीं है। जब आप किसी की इच्छा का सम्मान करते हुए उसे गले लगाते हैं या आप उनके गले लगते हैं तब स्थिति बिल्कुल अलग होती है। वहीं यदि सामने वाले की इच्छा और मनसा को समझे बगैर गले लग रहे हैं तब गले पड़ना कहलाएगा।
कई बार आवेश में आकर वह चाहे भावनात्मक हो या फिर संवेदनात्मक वह किसी भी किस्म की भावना हो सकती है किसी को गले लगाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि सामने वाला आपको किस नज़र से देख रहा है। क्या वह भी आपक गले लगना चाहता है या हमज़ लोकलाज में पड़कर आपसे लगे लगा। बाद में इस छोटी सी बात को कई दृष्टिकोण से व्याख्या की जाएगी इसके लिए आपको तैयार रहना चाहिए।
कहते हैं हमें अपनी औक़ात और समाज में स्थान को हमेशा याद रखना चाहिए। हम कहां से आते हैं, हमारी सामाजिक पहचान क्या है और किस पद पर हैं आदि ख़ासा मायने रखते हैं जब हम समाज में कोई रिश्ता बनाते हैं। जब हम किसी को गले लगाते हैं। बेशक आपका मकसद साफ और स्पष्ट हो। आपके मन में कोई गंदलापन नहीं है। लेकिन आपके मन की सुनता कौन है। कोई क्यों आपके मन में चलने वाले भावदशाओं को समझने में अपना समय ख़राब करेगा। उसे तो यही लगता है कि यह व्यक्ति कोई ज़्यादा ही अपनापा दिखा रहा है। कोई ख़ास बात होगी। या फिर कुछ ज़्याद नजदीक आने की कोशिश कर रहा है।
समाज में रिश्ते हमस्तर और हमपद के साथ ज़्यादा बना करते हैं। यह आज की भी तारीख़ी हक़ीकत है कि हम अपने और अपनों के जैसों के बीच ही सहज हुआ करते हैं। कुछ देर के लिए जब हम अपनी हैसियत भूल कर ऊपर वाले को गले लगा कर या लग कर एहतराम करते हैं तब सामने वाले के लिए यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि इसके गले मिलने का क्या मकसद हो सकता है। यह गले ही क्यों मिला करता है। हाथ भी तो मिला सकता है।

Sunday, July 29, 2018

बकरी ने लड़की से कहा...तब से ख़ामोश हैं!!!




बकरी की पहचान छुपाते हुए उसकी प्रतीकात्मक तस्वीर दी गई है

कौशलेंद्र प्रपन्न
बकरी की मुलाकात लड़की से हो गई। लड़की ग़मज़दा थी। ख़ामोश भी थी। लेकिन उसकी ख़ामोशी को तोड़ते हुए बकरी ने कहा ‘‘ जो हाल तोर सो हाल मोर...’’।
बात यहीं नहीं रूकी। रूकती भी कैसे? मसला था भी कुछ ज़्यादा ही अमानवीय। बकरी ने रोते हुए कहा ‘‘ ये लड़की माना कि तेरे साथ भी चार चार लड़कों ने...’’
‘‘मगर तू तो इंसान की बच्ची है। तेरे साथ जो हुआ उसके लिए तेरे यहां कानून भी है।’’ ‘‘मेरी सोच ज़रा!’’
‘‘मैं किस अदालत में जाऊं? कहां गुहार लगाऊं? कौन किला को फाड़ेगा? न राजा, न बड़ही, न रानी कोई भी तो मेरे लिए आगे नहीं आएगा।’’
‘‘एक बात बताना लड़की तेरे लिए तो कैंडल मार्च लोग कर लेंगे। करेंगे’’
‘‘मेरी प्रजाति तो अनपढ़, गंवार ठहरी। हमें तो अच्छी चिकनी चुपड़ी भाषा में गिटपिट भी करना नहीं आता। कौन सुनेंगा हमारी बात?’’
लड़की बहुत देर तक सुनती रही। उसके गालों पर जो आंसू थे वे सूख चुके थे। जल्दी से उसने अपने आंसू पोंछे और आवाज़ ठीक करते हुए बोली-
‘‘चिंता मत कर बहन, हम दोनों की ही हालत एक सी है।’’
‘‘तू भी भोगी जा सकती है। और हम भी। बस अंतर इतना ही है कि तू बोल नहीं सकती। और हम बोलकर भी बेज़बान हैं।’’
‘‘विश्वास कर मैं तेरे लिए आवाज़ उठाऊंगी।’’
‘‘तेरा केस अलग है।’’
‘‘तू प्रेग्नेंट भी थी उसपर आठ लोगों ने तेरी इज़्जत लूटी।’’
...बकरी और लड़की दोनों ख़ामोश हैं...

Friday, July 27, 2018

बॉस के गले न लगा करो बाबू


कौशलेंद्र प्रपन्न
बाबू आप समझते नहीं हैं! किसी से गले लगने से पहले अपनी और उसकी सामाजिक वजूद तो देख लिया करो। कितने भोले हो बाबू! तुम सोचते हो कितने सफ्फाक दिल से किसी से गले लगते हो। लेकिन उसके लिए यह चाटूकारिता होगी। तुम तो खुले दिल और मन से तपाक से मिल लेते हो गले। वो उसे तुम्हारी कमजोरी मानते हैं बाबू।
तुम्हारी आवभगत उन्हें लगता है तुम छुपा से रहे हो। तुमने उन्होंने सार्वजनिक तौर पर गले क्यों लगाया? क्यों तुमने हंसते हुए उनसे हाथ मिलाया? सब कुछ देखा जा रहा है। देखा जा रहा है कि कैसे तुमने उन्हें विश किया? कैसे तुमने उनसे हाथ मिलाया? बाबू बड़े ही भोले हो।
समझा करो तुम ठहरे मजूर वो रहे हजूर। अंतर तो अंतर होता है। वो हैं तुम्हारे बॉस। तुम ठहरे उनके रिपोटी। यह अंतर यह फासले तुम्हें याद रखने थे। याद तो यह भी रखना था कि आख़िरकर वो हेड ऑफिस से आया करते हैं। तुमने क्या सोचा? उन्होंने एक दो बार हंस कर बात क्या ली, तुमने तो उन्हें अपना दोस्त मान बैठे। जबकि वो दोस्त नहीं। भूलों मत कि जो अंतर बने हैं वो अभी भी कहीं न कहीं मन के किसी कोने में जज्ब हैं। वो भी इस मनोदशा से बाहर नहीं आ पाए हैं।
क्या मजेदार तर्क है गले मिलो मगर अकेले में। अकेले में गले लग सकते हो। सार्वजनिकतौर पर गले न मिला करो। बाबू भोले मत रहो। कभी भी सिर कलम की जा सकती है। तुमने जो सहज ही गले लगाया उसका ख़मियाज़ा भुगतना होगा तुम्हें।

Thursday, July 26, 2018

समकालीन कथाकार एवं संपादक श्री महेश दर्पण से गुफ्तगू




दर्पण जी उन गिने चुने हुए लेखक,कथाकारों में शामिल हैं जिन्होंने तकरीबन चार दशक पत्रकारिता में गुजारे।
दिनमान, नवभारत टाइम्स, धर्मयुग आदि पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सेवा दे चुके दर्पण जी ने पिछले दिनों कथा-कहानी और पत्रकारिता पर बातचीत का अवसर मिला।
दर्पण जी की प्रमुख और गहरी चिंता इस बात की थी कि पत्रकारिता से सरोकार एक सिरे से ग़ायब होता गया। कभी प्रभाष जोशी, अज्ञेय, राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, सुरेंद्र प्रताप जैसे लोगों से पत्र-पत्रिकाओं की पहचान हुआ करती थीं। ये लोग अपने आप में एक संस्थान हुआ करते थे। प्रभाष जी या फिर अज्ञेय जी अपने पत्रकारों कर ख़बरों को लेकर सांसद, मंत्री और सरकार से भी लड़ पड़ते थे। वह एक युग था। अब एक जमाना है कि दबाव में ख़बरों दम तोड़ देती हैं।
वही हाल कथा-कहानी की है। कहानियां भी इन दिनों कुछ ख़ास दबावों, प्रलोभनों और अन्य प्रभावों की गिरफ्त में लिखी और छापी जाती हैं। 

ठहराव जिं़दगी के


कौशलेंद्र प्रपन्न
ठहराव महज़ ज़िंदगी को ही खत्म नहीं कर देती बल्कि जीने की ललक और छटपटाहट को भी मार देती है। हम सब एक समय, पद, प्रतिष्ठा हासिल करने के बाद ठहरने लगते हैं। एक आत्मतोष घेरने लगता है कि हमने अपनी जिं़दगी में बहुत कुछ पा लिया। जो प्रसिद्ध, मान, पद आदि मिलने थे मिल गए। अब आगे क्या? और क्या हासिल करना शेष रहा? जब इस प्रकार के प्रश्नों के आगे हम चुप हो जाएं तो समझना चाहिए कि हमारी जिं़दगी में ठहराव का डेरा लग चुका है। दूसरे शब्दों में कहें तो लाइफ कोच, मैनेजमेंट के जानकार इसे किसी भी प्रोजेक्ट के लिए बेहतर और लाभकरी स्थिति नहीं मानते। क्योंकि मैनेजर या लीडर या फिर आम इंसा नही जब अपने आप से संतुष्ट हो जाता है, उसे कहीं से भी चुनौतियां नहीं मिलतीं तब कुछ समय के बाद ठहरने लगता है। जानकार व्यक्ति इसलिए ताकीद करते हैं कि रूकना नहीं। ठहरना नहीं। आगे बढ़ना है। जीवन में अपने ही कामों को चुनौती देनी है। या फिर अपने सामने चुनौतियों खड़ी करने से हम हमेशा चौकन्न और सक्रिय हुआ करते हैं।
हम सब की ज़िंदगी में एक वह मकाम आता है या फिर हम मान लेते हैं कि हमने सबकुछ हासिल कर ली। अब कुछ बचा नहीं जिसे पाना हो। वह चाहे पद, पुरस्कार, मान सम्मान आदि ही क्यों न हो। दो किस्म के व्यक्ति होते हैं। पहला, हमेशा ही अतीत प्रेमी और अतीत में जीने वाला। उसके लिए वर्तमान की चुनौतियां कोई ख़ास मायने नहीं रखतीं। वो साहब जिनसे भी जब भी मिलते हैं उनकी जबाव अपनी पुरानी कहानियां, शौर्य, दान, उपकार आदि सुनाने में ख़र्च करती है। उन्हें इसी कहानी वाचन में आनंद बल्कि स्वप्रशंसा में गोते लगाने ज़्यादा भाता है। यदि इन्हें कोई टोक दे, या फिर यह एहसास कराए कि अब वो बात नहीं रही। आप का वो वक़्त था, अब ऐसा नहीं होता। किया होगा आपने ऐसे वैसे काम लेकिन आज ख़ुद को खड़े करने, दौड़ाने में पूरी जिं़दगी खप जाती है। इस प्रकार के लोग अपने जीवन में करते छटाक भर है लेकिन इस छटाक भर काम पर पूरी जिंदगी गुजार देने का माद्दा रखते हैं। वहीं दूसरा, वे व्यक्ति होते हैं जिन्हें अपनी जिं़दगी में ठहर जाना या पुरानी कामों में ही आत्मसुख तलाशाना बहुत देर तक नहीं भाता। इस किस्म के लोग रोज़ नई नई चुनौतियों से लड़ने और रणनीति में बनाने में अपना समय, श्रम, और सोच लगाया करते हैं। शायद इस प्रकार के लोग ही जमीन से आसमान तक की याख करते हैं। यही वो लोग हैं जो न केवल अपनी जिं़दगी बल्कि अपने परिवार के साथ ही समाज को भी एक नई राह और ऊंचाई प्रदान करते हैं। यही वो लोग हैं जो लीडर या समाज चेत्ता कहलाने के हकदार होते हैं। इन्हीं लोगों के कंधे पर समाज, प्रोजेक्ट, लाइफ की प्रगति और गति निर्भर करती है।
घर और समाज में दोनो ही तरह के लोग मिलेंगे। पहले वालों की संख्या कुछ ज़्यादा होती है जिनके प्रभाव में दूसरे वालों के पनपने की संभावना को कमतर करती हैं। पहले वालों के प्रभाव क्षेत्र और औरा बहुत बड़ा और व्यापक होता है। इस प्रभाव क्षेत्र को एरिया ऑफ इन्फ्यूलेंस कहा करते हैं। जो किसी भी व्यक्ति व प्रोजेक्ट की सफलता को प्रभावित करती हैं। एरिया आफ इन्फ्यूलेंस और एरिया और कंसर्न दोनों ही वो ताकतें हैं जो पहले और दूसरे किस्म के लोगों की कोशिशों और सफलता को ख़ासा प्रभावित करती हैं। दूसरें शब्दों में कहें तो कंसर्न यानी जिन तत्वों, परिस्थितियों आदि से हमारा सीधा सीधा साबका पड़ता है। जिसे हम या तो बदलने की ताकत रखते हैं। वहीं एरिया आफ इन्फ्यूलेंस हमारे हर प्रयासों को प्रभावित करता है। हमारे काम और प्लानिंग पर असर डालता है। कई बार एरिया आफ इन्फ्यूलेंस पर हमारी पकड़ नहीं होती। हम इस हैसियत में नहीं होते कि इसे बदल सकें। तब ऐसे में इसे नियंत्रित करना व बदलने हमें मुकम्मल रणनीति बनानी पड़ती है। कई बार आम व्यक्ति एरिया आफ इन्फ्यूलेंस और एरिया और कंसर्न पाट में फंस जाता है।

Tuesday, July 24, 2018

आंसू के मोल


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं इंसान जब इस जमीन पर आता है तब उसे विभिन्न किस्म की विपरीत परिस्थितियों से सामना होता है और उसकी आंख से आंसू निकल आते हैं। शायद जो बच्चा रोता नहीं उसे जबरन रुलाया जाता है। यह भी सुनने में ज़रा अजीब सा लगता है कि यदि आप रोते नहीं तो पीट कर रुलाया जाता है। जब बड़े हो जाते हैं तब भी गाहे बगाहे रोते रहते हैं। कभी परिस्थितियों पर,कभी हालात पर, कभी रिश्तों पर तो कभी अपने काम और जीवन पर रोना आता है। रोते ही रहते हैं। और शिकायत भी करते रहते हैं। रोना और जीना। जीना और शिकायत करना दोनों ही चीजें साथ साथ चला करती हैं। जो रोता नहीं उसे जबरन रुलाने का प्रयास किया जाता है। आपने देखा ही होगा। यदि फलां का पति, बच्चा, पत्नी गुज़र जाती है। और फलां या फल्नीं रोती नहीं या रेता नहीं तो लोग चिंता करने लगते हैं। रुलाओ उसे। रो नहीं रही है। रुलाते तो इसीलिए हैं कि रोने से मन हल्का हो जाएगा। रोने से मन की गुत्थी थोड़ी ढिली होगी। जमा हुआ बर्फ थोड़ी पिघलेगा। तर्क तो यही दिए जाते हैं। रोने से मनोविज्ञान का भी गहरा रिश्ता रहा है। मनोविज्ञान व मनोचिकित्सा शास्त्र मानता है कि रोने से हमारी मनोजगत् की हलचलें व ठहराव कम होता है। मानसिक तनाव कम होते हैं। नस नाड़ियां सहज होती हैं। आदि। यह एकबारगी ग़लत भी नहीं है। तमाम साहित्य- कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि में ऐसे पात्र होते हैं जिन्हें देख,पढ़, सुनकर पाठक सहज ही अपनी घटनाओं से जुड़ जाता है और रुलाई स्वभाविक ही आ जाती है।
साहित्य में ख़ास कर ऐसी रचनाएं लेखकों ने यह सोच कर नहीं कीं कि हमें पाठकों को रुला ही देना है। बल्कि उन्होंने तो समाज के सहज और सामान्य गतिविधियों व घटनाओं को अपनी रचना में पुनर्सृजन करने की कोशिश की। उन्होंने यह प्रयास किया कि समाज में जो हो रहा है वह अप्रिय है। उसके प्रति कम से कम लेखक सामाजिक को संवेदनशील बनाए। उन परिस्थितियों के प्रति नागर सामज को चौकन्ना करे और जिम्मेदारियों का एहसास कराए। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भी कई रचनाएं चाहे वो कहानी, कविता व उपन्यास ही क्यों न हो समय समय पर रची गई हैं। निर्मला, गोदान, पिंज़र, हज़ार चौरासी की मां, जिन्ने लाहौर नहीं वेख्या ते जन्माई नइ, साकेत, अंतिम अरण्य, बच्चे काम पर जा रहे हैं, खो दो आदि ऐसी रचनाएं हैं जिन्हें पढ़ते व देखत हुए हमारे आंखें नम हो जाती हैं। गोया हम उसी कालखंड़ में यात्रा करने लगते हैं।
रोना अपने आप में न तो शर्म की बात है और न आंसू आ जाना कोई अप्रिय और अनहोनी सी घटना ही। क्योंकि यदि इंसान है तो सहज ही रोना, हंसना, क्रोधादि स्वभावगत प्रक्रियाएं हैं। लेकिन हमारा सामाजिकरण ही ऐसा होता है कि हम बचपन से ही रोने को ख़राब हो और एक ख़ास वर्ग क अांगन में डाल देते हैं। वो रोएं तो उनकी तो यही आदत है। वे तो रोती ही रहती हैं आदि। मगर हम रो दे ंतो आसमान कहीं फटने लगता है। कहीं कोई जमीन दरकने लगती है। सुनाया जाता है कि लड़की की तरह रो रहे हो। कमाल का तर्क है रोना उनके पाले में। हंसना लड़कों के हिस्से आया। प्रसिद्ध संपादक, लेखक,कवि अज्ञेय जी ने शेखर एक जीवनी में लिखा है कि रोना एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे मनुष्य का अंतरजगत् कुछ और साफ और हल्का हो जाता है। दूसरें शब्दों में कहें तो रोना, रुदन, रुद्रादि भाव मानवीय स्वभाव के प्रमुख अंग हैं। इनके न तो अलग हुआ जा सकता है और न ही जीया जा सकता है।

Thursday, July 19, 2018

शिक्षा में द्वंद्व


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में द्वंद्व का मायने व्यापक है। यह द्वंद्व सामान्य कॉफ्लिक्ट नहीं है। जैसे समाज में पाया जाता है। यह द्वंद्व कई स्तरों पर हैं। पहला हम शिक्षा से क्या हासिल करना चाहते हैं? यदि हमने शिक्षा के कुछ सर्वमान्य तय उद्देश्य तय कर रखे हैं तो उन्हें पाने के लिए हमने कौन सी रणनीतियां बनाईं? उन रणनीतियों के ज़रिए हम किन राहों का इस्तमाल करन रहे हैं? क्या हमारे पास पूरी प्लानिंग है? क्या उन्हें कार्यान्वित करने की हमारी राजनैतिक, नीतिगत और सामाजिक इच्छा शक्ति है आदि। तकरीबन सौ साल से भी ज़्यादा सालों से हमारी शिक्षा इन्हीं अंतर द्वंद्वों से लड़ रही है। इसी संघर्ष का परिणाम है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम को कानून बनने में लंबा समय लगा। प्रकारांतर से शायद सत्ताओं की प्राथमिकता सूची में शिक्षा शामिल ही नहीं हो सकी। जब हमें आजादी मिली वो भी तकरीबन सत्तर साल बीत चुके हैं, अभी भी हमारे प्राथमिक स्कूलों में जाने वाले बच्चों की बड़ी संख्या स्कूली शिक्षा के हाशिए पर हैं। यह विफलता नहीं तो इसे और किस नाम से पुकारा जाए। विभिन्न मंचों पर हमने घोषणाएं तो कीं कि हम फलां वर्ष तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा देंगे। इनमें 1990, 2000, 2015 आदि ऐसी ही किनारें हैं जहां शिक्षा को किनारे लगना था। अगर मगर किन्तु परन्तु के कारण अब यह किनारा 2030 तक खिसका दिया गया है।
उक्त जिन द्वंद्वों की चर्चा की गई है वे तो हैं ही साथ ही नीतिगत स्तर पर भी बहुत से मोड़ मुहानें हैं जहां से शिक्षा अचानक मुड़ जाती है। जब कुछ साल गुजर जाते हैं तब एहसास होता है कि हम तो शिक्षा के मूल मकसद को कहीं पीछे छोड़ आए हैं। आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि शिक्षा की बुनियादी मांगों व प्रकृति को भी अच्छे से रेखांकित नहीं कर सके हैं। कभी हम शिक्षा के नाम पर पढ़े-लिखने भाषायी कौशलों को शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल कर चिल्लाने से लगते हैं। ‘‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’’ यहां इन उद्देश्य में क्या हमारी नज़रें सिर्फ बच्चों को साक्षर बनाना है या बच्चे जो पढ़़ रहे हैं उन्हें समझ कर पढ़ और बढ़ रहे हैं इसे भी जांचने की आवश्यकता है। पढ़ना-लिखना शिक्षा का उद्देश्य तो है ही साथ ही यह कौशल भाषा के हिस्से आया करता है। श्रवण-वाचन, पठन और लेखन। क्या हम भाषायी कौशल के कंधे पर शिक्षा के उद्देश्य को बैठा सकते हैं विमर्श इस पर होना चाहिए। सत्ता और आम जनता में बीच भी हमेशा से द्वंद्व रहा है।

Tuesday, July 17, 2018

सामान बटोरू स्वभाव और सेल



कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी सेल का मौसम साल में एक या दो बार आया करता था। जनवरी, फरवरी या फिर पंद्रह अगस्त के आस-पास। या फिर राखी, दिवाली या फिर होली के आस-पास। अब तो सेल का कोई मौसम न रहा। जब मन किया बाजार ने तय किया तभी सेल का मौसम तारी हो जाती है। कभी कोई कंपनी तो कभी दूसरी कंपनी में हाड़ लगती है और सेल का मौसम शहर, महानगरों पर हावि हो जाते हैं। कभी महासेल तो कभी महामेघा सेल। सिर्फ नाम में अंतर देखे जा सकते हैं। प्रवृत्ति एक सी होती है। कैसे कस्टमर की जेब से पैसे निकलवाए जाएं। गोया कस्टमर तैयार बैठे होते हैं कि आईए और मेरी जेब काटें। जब कटने वाला तैयार तो काटने वाला क्योंकर सस्त हो। जो सामान सामान्य दिनों में हज़ार की होती है उसपर तीन से चार हज़ार का प्राईस टैग लगाकर पचास$पचीस$ बीस फीसदी के सेल के टैग लगाकर वही सामान पंद्रह सौ में पिचका दिया जाता है। ख़रीदने वाला खुश कि तीन चार हजार का सामान सेल में सस्ते में मिल गया। वह एक नहीं दो नही बल्कि तीन चार पैंटें, शर्ट खरीद लेता है। बिना इसको जांचे कि उसे शर्ट व पैंट की ज़रूरत है भी या नहीं। बस इस तर्क पर खरीद लेता है सेल में मिल रहा है खरीद लो कभी तो काम आएगी।
पूरी तरह से हमें याद होगा कि कभी वक़्त था जब शादी ब्याह या फिर तीज त्योहारों पर नए नए कपड़े दिलाए जाते थे। जिन्हें बहुत जतन से रखते, धोते और सूखा कर अगली बार पहने के लिए रख दिया करते थे। माम-मामी, बुआ के घर जाना होता तो जैसे खरीदी वैसे ही पहनी हम नए कपड़े पहन कर जाते और आकर वैसे ही टीन या स्टील के बक्शे में धर दिया करते थे। तब महसूस होता था कि नए कपड़ों की इज्जत क्या होती है। वे कपड़े फिर समय के साथ फटे भी किया करते थे। मुहल्ले वाले, यार दोस्त मजाक भी उड़ाया करते थे अब तो नई कमीज़ खरीद ले भाई। देख नहीं रहा है कंधे पर शर्ट झांक रही है। मगर नई कमीज़ अगली होली या दिवाली में ही मिला करती थी। वो भी कई कई बार कपड़े खरीदे जाते और दर्ज़ी के पास नाप देकर हर दिन पूछने जाना कि सील गई क्या? टंगी हुई कमीज़ों और पैंटों में अपनी कमीज़ देखने का इंतज़ार हुआ करता था।
ईदगाह का हामीद याद आता है। पूरे तीस दिन के रोज़े के बाद गांव में हलचल है। किसी के पाजामे में नाडा नहीं है, कोई नई बुशर्ट पहने हुए है। तो कोई अपने जूते को चमकाने में लगा है। वहीं कोई अपने जूते में तेल डाल कर गिला कर रहा है। यही तो वर्णन प्रेमचंद अपनी कहानी ईदगाह में करते हैं। तब लोगों को नए कपड़ोंख् जूतों, चप्पलों का इंतजार होता थ। किसी के पास भी एक या दो से ज़्यादा जूते या अंगरक्खा नहीं होता था। जब फट जाती थी तब नई खरीदी जाती थी।
अब तो सेल महासेल के मौसम में किसी के पास इतना भी वक़्त नहीं है कि एक बार घर में अपनी आलमारी को खोल कर गिनती कर लें कि कितनी पैंटें, शर्ट, टी शर्ट हैं जो पिछले साल भी पहनने की बारी नहीं आई थी। वे तमाम कपड़े अपनी बारी के इंतजार में सिमटे जा रहे हैं। कभी तो उनके भी भाग्य बिहुरेंगे। कभी तो उन्हें भी पहना जाएगा। मगर नई नई शर्ट, पैंट और आलमारी में ठूंस दी जाती हैं। वही हाल जूते शैंडिलों का है। एक नहीं बल्कि कम से कम पांच छह जूते शैंडिल तो काम बात है। एक चमड़े के, दौड़ने जिसे वॉक करने के हल्के जूते, बिना फीते वाले, फीते वाले भी जूते एक दूसरे पर चढ़े रहते हैं। लेकिन क्योंकि किसी ख़ास ब्रांड के जूते सेल में तीन या चार हजार में मिल रहे हैं तो बिना ज़रूरत के उसे खरीद कर शू रेक में अडसा देते हैं।
जब कभी मौका मिले तो कभी अपनी आलमारियों की सफाई कीजिए मालूम चलेगा कि जिन्हें भी छांटते हैं कि इसे तो अब नहीं पहनता किसी और को दे दें। तभी सामान बटोरू प्रवृत्ति सवार हो जाती है। और उसका घर से बाहर निकलना ठल जाता है। और इस तरह से सामानों की लाइन लंबी होती जाती है। आख़िर एक आलमारी से काम क्यों नहीं चल सकता? क्या पहले घरों में शू रेक हुआ करते थे? शायद ही किसी किसी घर में। लेकिन जब से आठ दस जोडत्रे जूते चप्पल होंगे तो उसे सलीके से रखना भी तो होगा।
काश हम अपनी पुराने, जिन्हें अब नहीं पहनते। बल्कि शरीर पहनने नहीं देता। कभी बड़े शौक से मन पसंद पैंट या शर्ट खरीदी थी। तब उसे बचा कर रख दिया करते थे। अब शरीर वैसे छरहरा रहा नही ंतो वे कपड़े हमारे काम के नहीं रहे। लेकिन किसी और के तो काम आ सकते हैं। बहुत कम ऐसे घर होंगे जिनके यहां ऐसे कपड़ों, जूतों, चप्पलों की भीड़ होगी जिन्हें हम चाहें तो जरूरतमंद लोगों के तन ढक सकते हैं।
सामानों का अति संग्रह कही न कहीं संसाधनों का ग़लत इस्तमाल भी तो है। क्योंकि चीजें सेल में मिल रही हैं इसतर्क पर घरों को सामानों से भर दिया जाए। क्या यह बिना सोचे कि इस चीज की ज़रूरत हमें है या नहीं? बस सेल का लाभ उठाते हुए घरों को कबाड़ घर बना दिया जाए। घर का घर रहने देना अपने आप में कठिन है। लेकिन घर में चलने, उठने-बैठने, की जगह तभी रखी जा सकती है जब अनावश्यक सामानों से घर को न भर दें।

Tuesday, July 10, 2018

भाषायी हत्यारे...इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं हम?




कौशलेंद्र प्रपन्न
यदि किसी व्यक्ति की हत्या होती है या की जाती है तो उसके लिए भारतीय संविधान मे सज़ा का प्रावधान है। विभिन्न धाराओं उपधाराओं के तहत आजीवन कारावास या सज़ा ए मौत तय है। लेकिन ताज्जुब की बात है कि जब मानवीय विकास से गहरे जुड़ी किसी भाषा की हत्या होती है या की जाती है जो उसके लिए कोई सज़ा का प्रावधान नहीं है। राहुल देव, वरीष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषाओं के संरक्षण की वकालत बड़ी ही शिद्दत से कर रहे हैं। उनका मानना है कि भारत को बचाना है तो भारतीय भाषाओं को बचाना होगा।
पिछले दिनों टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के शिक्षा ईकाई अंतःसेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान में शिक्षांतर व्याख्यान माला की नौंवी कड़ी में बतौर वक्ता अपनी बात रखी कि हम सब रोज भाषाओं के साथ अन्याय करते हैं। बल्कि हम सब भाषा के हत्यारे हैं। वह इस रूप में कि न तो हम हिन्दी ही ठीक से बरत पाते हैं और न अंग्रेजी ही। दो भाषाओं के बीच में हमारी पूरी जिं़दगी गुज़र जाती है। हमें न तो अच्छे से हिन्दी आ पाती है और न अंग्रेजी ही। उदाहरण से इस वक्तव्य को स्पष्ट किया कि क्रू कभी हमने किसी अंग्रेजी के सेमिनार में या व्याख्यान में हिन्दी को सुना है? कितनी प्रतिशत हिन्दी उन सेमिनारों में बोली जाती हैं? आदि। वहीं हिन्दी के सेमिनार में अंग्रेजी के शब्दों और वाक्यों का इस्तमाल प्रचूरता से होता है।
राहुल जी का मानना था कि यदि हम हिन्दी बोल रहे हैं तो पूरी हिन्दी ही बोलें। उसमें अंग्रेजी की छौंक न लगाएं। दरअसल इसके पीछे हमारी मानसिकता का परिचय भी मिलता है। आज की तारीख़ में हज़ारों भाषाएं मर चुकी हैं बल्कि हर साल मर रहीं हैं लेकिन उन्हें बचाने के लिए हमारी संवेदना नहीं जगती। हम इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं?
भाषायी विमर्श में राहुल जी ने बड़ी संजीदगी से इसे स्थापित किया कि भाषा के बगैर हमारा अस्तित्व नहीं है। भाषा मरती है तो एक पूरा का पूरा जीवन दर्शन मर जाता है। एक अस्मिता और भाषायी समाज खत्म हो जाती है।


Thursday, July 5, 2018

आनंदपूर्ण पढ़ना-पढ़ाना पर किसके कंधे पर



कौशलेंद्र प्रपन्न
तकरीबन पांच व छह दशक पहले प्रो. यशपाल ने ‘शिक्षा बिना बोझ के’ वकालत की थी। उनका तर्क था कि शिक्षा-शिक्षण, पढ़ना-पढ़ाना आदि कोई बोझ न हो। सीखना-सिखाना प्रक्रिया सहज और आनंदपूर्ण प्रक्रिया हो। बजाए कि स्कूल और स्कूली परिवेश बच्चों को आकर्षित करने के उन्हें डराएं आदि। बड़ी ही शिद्दत से प्रो. यशपाल ने अपनी इन सिफारिशों को सरकार को सौंपी थी। सरकार तो सरकार होती है। उसकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। कन्हें कब और कितना उछालना है, किसे तवज्जो देनी है आदि सरकार और सत्ता तय किया करती है। क्यर हम इसे सरकार और सरकारी सत्ता कह इच्छा शक्ति की कमी न मानें कि छह दशक के बाद भी हम ज्वायफुल लर्निंग की ही बात कर रहे हैं। सिर्फ नाम बदले हैं। रैपर बदले हैं अंदर का कंटेंट, कंसेप्ट तकरीबन समान है। यदि दिल्ली सरकार हैप्पी करिकुलम की बात करती है। साथ ही कई महीनों की मेहनत से कंटेंट तैयार करवाया गया। अब उसे स्कूलों में लागू का जाएगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि कक्षा में स्कूल की शुरुआत में तीस मिनट बच्चे ध्यान से किया करेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन गैर हिन्दू संप्रदाय के बच्चों को भी हमें विमर्श के केंद्र में रखने होंगे। क्योंकि स्कूल किसी एक ख़ास संप्रदाय व मान्यताओं का परिसर नहीं है बल्कि यहां एक ऐसा समाज बसता और आकार लेता है जो भविष्य में व्यापक समाज का दिशा देते हैं।
दूसरा उदाहरण मानव संसाधन मंत्रायल के निर्णय को लिया जाए। हाल ही में एमएचआरडी मंत्री ने घोषणा की कि हमारे बच्चों का करिकुलम बहुत भारी है। उस भार को कम करना होगा। कम किया जाना चाहिए। यह पहली सरकार है जो शिक्षा के इस भार को पहचान कर कम करने की इच्छा शक्ति रखती है। अब उन्हें कौन समझाए कि कभी कभी शिक्षा और मंत्रालय के निर्णयों, दस्तावेज़ों को पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका कि प्रो. यशपाल से लेकर जस्टिस जे एस वर्मा की कमिटि ने भी शिक्षा की बेहतरी और ज्वायफुल लर्निंग के लिए पहले सिफारिशें दे चुकी हैं। यह अलग बात है कि हमने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। उस पर तर्रा यह कहना कि पहली बार उनकी सरकार इस ओर ध्यान दे रही है।। यह अफ्सोसनाक बात नहीं तो और क्या नाम दे सकते हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...