Friday, October 31, 2014

31 अक्टूबर 1984 की शाम


मैं उन दिनों हरिद्वार में था। शाम होते ही हरिद्वार में चारों ओर अफरा तफरी मच गई। बगल के गुरूद्वारे से बर्तन-भांड़ गंगा में फेंके जा रहे थे। सिक्ख कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे। जो दिखाई देता वो मारा जाता। सिक्खों की दुकानों, होटलों को लूट कर भागने वाले भीड़ का कोई चेहरा न था। जिसके हाथ में जो लगा वो उसे ही लेकर भाग रहा था। किसी के सिर पर टीवी थी तो किसी के सिर पर फ्रीज। पूरी जिंदगी जिसने जमीन पर देह सीधा किया अब उसके पास सोने के लिए पलंग और सोफे हो गए थे।
अपनी इन्हीं नन्हीं आंखों के सामने देखा कि हरिद्वार के देवपूरा के पास सड़क पर एक सिक्ख युवक के गले में टायर डाल कर जिंदा जला दिया गया। समझ उतनी पक्की नहीं थी लेकिन वह दृश्य देखकर दिल दहल गया।
रेल गाडि़यों में सिक्खों की लशें भर कर हरिद्वार आ रही थीं। गंगा में सिक्खों की दुकानों, घर, गुरूद्वारों की सामनें बह रही थीं। समझ नहीं आ रहा था कि इंदिरा जी को जिसने भी मारा इसमें इन बेगुनाह सिक्खों का क्या दोष था? क्या किया था उस युवक ने जिसकी गर्दन में टायर डाल कर जला दिया गया। उस दुकान वाले सुखबीर ने ही क्या किया था जिसकी छोटी सी चूड़ी कंघे की दुकान उस दंगे में बरबाद हो गई।
चारों तरफ सन्नाटा और शोर दोनों ही था। जिनके घर,परिवार और दुकानें बर्बाद हो रही थीं उनके आंसू नहीं रूक रहे थे। और जिनकी आंखों के सामने बेटा ज लाया जा रहा था उनने पूछिए उन पर क्या बीत रही थी?
जो भी हो बचपन में ही देखने को मिला कि गरीब, गैर सिक्ख परिवारों के पास टीवी, पलंग, फ्रीज, और भी वे चीजें जो दुकान से लूटी गई थीं वो साफ नंगी आंखों से देखी जा सकती थीं।
ओफ! वे भी क्या काले दिन थे और काली रात थी जब अपना ही पड़ोसी दहशत में रात गुजार रहा था।  जिन्ने अपनी जान गंवाई उन उन आत्माओं को सादर नमन

Tuesday, October 28, 2014

ख़तरनाक !

ख़तरनाक !

डांट नहीं,
प्यार भी नहीं,
मनुहार भी नहीं,
वार भी नहीं।
ख़तरनाक-
लटका हुआ लोर,
अटकी हुई बहस,
टंगी हुई सांस
टूटता विश्वास।
ख़तरनाक-
मां का रोना,
बहन की सुबकी,
पत्नी के आंसू,
पिता का रूदन।
ख़तरनाक-
मंा-बाप के सामने,
बच्चों का बिखराव,
घर में दरार,
आवाज में अपरिचय।

Wednesday, October 22, 2014

देवता घर

दीपावली की शुभकामनाएं। परिवार में समृद्धि और खुशियां बनी रहे इसी कामना के साथ एक छोटी सी अभिव्यक्ति प्रस्तुत है।

इस बरस
देवता घर नहीं खुला,
नहीं जोरा दीया,
जालों में लिपटे मिले,
कृष्ण, राम और तमाम देवता।
सुबह सुबह नहाना भी भूल गए बाल गोपाल
धूल में सने रहे सब के सब,
तुलसी के चारों ओर,
घासों का भरमार।
बेटे की आस में
दुआर रहा उदास,
दीवार में अटकी तस्वीर में हंसता रहा बेटा,
सियालदह से उतर गया राहगीर,
नहीं पहंुचा घर।
चीनी की जगह डालने लगी है नमक खीर में
मतारी की लोर भरी आंख,
तकती रहती,
गली से मुड़ते हर रिक्शे से उतरने वाले,
कोई उतरे इसके दुआर।
इस बरस देवता घर उदास
जालों में लिपटे,
करते रहे इंतज़ार,
रोशनी की राह तकते रहे देवता।

Thursday, October 16, 2014

वर्तनी की गलतियों को ऐसे करो कम


कौशलेंद्र प्रपन्न

हिन्दी में हम लोग अकसर शब्दों को लिखने और बोलने में गलतियां करते हैं। ऐसी गलती सिर्फ तुम लोग ही नहीं करते, बल्कि बड़े-बड़े, पढ़े लिखे लोग भी करते हैं। कई बार इसके पीछे हमारी असावधानी दिखाई देती है, तो कई बार अज्ञानता।
आओ देखते हैं हिन्दी लिखते वक्त किस तरह की सामान्य गलतियां करते हैं हम सब और उनसे कैसे बचा जाए, क्योंकि जब हम परीक्षा में उत्तर पुस्तिका में गलत लिखते हैं तो कई बार मैडम अंक काट लेती हैं या लाल पैन से गोल घेर देती हैं कि आगे से सही लिखो। जैसे ‘मै’ लिखोगे तो गलत होगा, क्योंकि ‘मैं’ में एक अनुस्वार होता है। ‘है’ लिखो एक हो तो, जब बहुवचन में इस्तेमाल होता है तब ‘हैं’ आएगा। यानी है पर अनुस्वार का प्रयोग होता है। दवाई लेकिन जब बहुवचन होता है तब दवाइयां होना चाहिए, लेकिन अकसर तुम लोगों ने दवाई की दुकान पर लगे बोर्ड पर देखा होगा-दवाइयां, यह गलत है।
हम लोग और भी छोटी-छोटी गलतियां हिन्दी लिखते वक्त करते हैं। अगर तुम ध्यान से पेपर पढ़ोगे या टीवी पर लिखे शब्दों को देखोगे तो सही शब्द लिखे दिखाई देंगे। और कई बार इन जगहों पर भी गलत लिखे मिलते हैं। ऐसे में तुम्हें अपने टीचर से सही रूप के बारे में पूछना चाहिए।
कुछ और शब्द देखो, जिन्हें हम कहां लिखते वक्त गलती करते हैं- श्रीमति, गलत है। होना चाहिए श्रीमती। उसी तरह हिन्दी में हम अनुस्वार, हरस्व और दीर्घ यानी छोटा उ और बड़ा ऊ, छोटी इ और ई की भी गलतियां खूब करते हैं।
हिन्दी की विशेषता यही है कि हिन्दी में जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते हैं। यदि बोला ही गलत गया है तो सुनने वाले गलत लिख देते हैं। अक्‍सर क्लास में बच्चे इसलिए भी गलत लिखते और बोलते हैं, क्योंकि वो मैडम की बात ध्यान से नहीं सुनते। इसलिए उनकी हर बात ध्यान से सुनो और अगर कभी वर्तनी में कोई गलती हुई है तो उसे तुरंत सुधार लो और ध्यान रखो कि भविष्य में फिर से वह ना दोहराई जाए।

Monday, October 13, 2014

रिपोर्टो को झुठलाती स्कूली हकीकत


हां तमाम रिपोर्ट गैर सरकारी और सरकारी दोनों ही को झुठलाती सरकारी स्कूलों को लेकर जारी हकीकत को आज पानी पीते हुए मैंने देखा। जिन संस्थानों ने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता के बारे में अपनी रिपोर्ट जारी की है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे कमतर होते हैं। कक्षा 5 वीं व छठी में पढ़ने वालों को कक्षा 1 व 2 के स्तर की भाषा नहीं आती। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि रिपोर्ट गलत और झूठा है। आज मैंने पूर्वी दिल्ली के तकरीबन पांच स्कूलों में कक्षाओं में गया। कहीं समाज विज्ञान, कहीं हिन्दी में दिपावली पर लेख, कहीं गिनतियां और कहीं अंगरेजी कराई जा रही थीं। कक्षा 3,4,और 5 वीं में जाने का मौका मिला। बच्चे न केवल बोर्ड से उतारने में दक्ष थे बल्कि वो अगल से पढ़ने और लिखने में भी सक्षम थे।
बोर्ड पर लिखे वाक्यों के अलावे वाक्य और तीन वर्णाें वाले शब्द लिखकर पढ़ने को बोला और बच्चों ने पढ़ा। इन कक्षाओं से निकल कर लगा रिपोर्ट कितनी झूठी तस्वीर पेश करती हैं। पता नहीं किस स्कूल और किस कक्षा में जाकर ये लोग देख आते हैं।

Saturday, October 11, 2014

छायावाद में वृहत्त्रयी: एक अनुशीलन


कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं

कौशलेंद्र प्रपन्न
‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्वदेश’, ‘उपन्यासः समय और संवेदना’, ‘शब्द जिन्हें भूल गई भाषा’ आदि पुस्तकों के रचयिता विजय बहादुर सिंह की किताब ‘‘छायावाद के कवि प्रसाद,निराला और पंत’’ में प्रसाद,निराला और पंत की काव्य संसार और संवेदना का पूरी बारीकि से भौगोलिक चित्रण पेश किया गया है। इस किताब में भाषायी संरचना के एक एक रेशों को तार तार कर पहचानने की कोशिश की गई। जिसकी झलक हमें पाठ 8 में काव्य भाषा शीर्षक के अंतर्गत पढ़ने को मिलता है। इस पाठ में सिंह बड़ी ही गंभीरता से वृहत्रयी पंत,निराला और प्रसाद के काव्यगत भाषायी संरचनाओं और भाषायी बुनावट का विश्लेषण करते हैं। प्रसाद की काव्य भाषा के तहत प्रसाद के समग्र काव्य दुनिया में इस्तमाल भाषा की छटाओं का विवेचन मिलता है। राम स्वरूप चतुर्वेेदी के अनुसार ‘चित्राधारा’ की कविताओं में प्रसाद ने ‘खड़ी बोली का ब्रजभाषाकरण’ किया है पेज 234। प्रसाद की काव्य दुनिया में किस तरह की भाषायी आवजाही हुई है इस पाठ में उदाहरण सहित देखा-पढ़ा जा सकता है। वहीं निराला और पंत की काव्यगत भाषा की छवियों पर भी सिंह ने विमर्श किया है।
हिन्दी साहित्य में छायावाद का ख़ासा महत्व है। हिन्दी काव्य यात्रा कई वादों, विवादों और संवादों से गुजर कर ही निखरी है। बल्कि कहना चाहिए हिन्दी काव्य की यष्टि इन्हीं वादों और दर्शनों से सौंदर्य प्राप्त करती रही है। वह चाहे प्रगतिवाद हो,प्रयोगवाद हो या फिर गीत, नवगीत आदि। इन्हीं तमाम मोड़ों, मुंहानों से गुजरती हुई हिन्दी काव्य की भाषायी छटाएं भी बिखरती रही है। छायावाद की चर्चा जब भी चलेगी तब तब प्रसाद,निराला और पंत को नजरअंदाज कर के नहीं चला जा सकता। साथ ही यह विमर्श अधूरा माना जाएगा जब तक की हम महादेवी जी को इस विमर्श में न शामिल करें।
विजय बहादुर सिंह हिन्दी साहित्य, कविता, समीक्षा और भाषायी अनुशीलन के क्षेत्र में स्थापित और परिचित कलम हैं। इन्हीं की लेखनी से जन्मी ‘‘छायावाद के कवि प्रसाद,निराला और पंत’’ पुस्तक इन तीन कवियों के समग्र स्थापनाओं, मान्यताओं और वैचारिक प्रतिबद्धताओं की समीक्षा करती हैै। यह पुस्तक महज पठनीय ही नहीं हैं बल्कि इनकी जरूरत लंबे समय तक बनी रहेगी। जब भी जहां भी तीन कवियों के कर्म, भाव, भाषा पर शोध का प्रश्न उठेगा तब तब यह किताब संदर्भ ग्रंथ के तौर पर इस्तमाल होगा।
पहले पाठ परंपरा की खोज में संस्कृत नाटकों, साहित्यों और साहित्यकारों के बरक्स सिंह ने स्थापित किया है कि क्यों वृहत्त्री संज्ञा का इस्तमाल इन्होंने किया है। 1932 में पहली बार नंददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद,निराला और पंत पर एक लेख माला लिखी थी जो तत्कालीन साप्ताहिक ‘भारत’ में क्रमशः 10 जुलाई,1932 में प्रकाशित हुई थी। उस लेख माला में सर्वप्रथम वृहत्त्रयी शब्द का प्रयोग किया गया था, पेज 13। इस पाठ में भवभूति, भारवि, कालिदास जैसे संस्कृत के प्रकांड़ विद्वानों के हवाले से सिंह ने साबित किया है कि किस प्रकार संस्कृत साहित्य में त्रयी के नाम से साहित्यकारों को पहचाना गया वैसे ही वाजपेयी ने वृहत्त्री के अंतर्गत पंत,निराला और प्रसाद को शामिल किया। इस पाठ में प्रचुरता से संदर्भ ग्रंथों का प्रयेाग किया गया है। बतौर उदाहरण, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रसिद्ध कवि और समीक्षक पं. जानकी वल्लभ शास्त्री ने इन तीनों महाकवियों को अपने विवेचन का आधार बनाते हुए एक समीक्षा पुस्तक ‘त्रयी’ के नाम से प्रस्तुत की।
पूरी पुस्तक में जिस तरह से पाठों में संदर्भ और पाद टिप्पणियों का प्रयोग किया गया है उससे स्पष्ट होता है कि लेखक ने एक एक बात को कहने से पूर्व उसकी बहुत बारीकि से पड़ताल किया है। साथ ही बात को पूर्व स्थापित और सिद्ध साबित करने के लिए पूर्व लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों की किताबों, विचारों को सप्रमाण रखा है। यह किताब महज लेखों का संग्रह नहीं है। यह किताब छायावाद की व्याख्या भी नहीं है। बल्कि यह किताब छायावाद को समझने और छायावादी कवियों त्रयी की दार्शनिक बुनावट के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक प्रकृति की भी समग्रता से व्याख्या करती है।
काव्य का विषय, काव्य का वस्तु आदि कविता की बुनियादी ढांचे पर भी विमर्श के अवसर मुहैया कराती है। किस कवि की क्या काव्य विषय रहे हैं उनमें संस्कृति, समाज, दर्शन, आत्म जीवन दर्शन किस हद तक काव्य को प्रभावित करते हैं आदि की चर्चा हमें तीनों ही कवियों को लेकर अलग अलग शीर्षकों में मिलती हैं। मसलन वृहत्त्रयी के कवियों का काव्य विषय व्यक्ति की आशाओं,आकांक्षाओं से लेकर विश्व मानव के सुख-दुख और सौन्दर्यपूर्ण जीवन तक फैला हुआ है, पेज 61। इस तरह से तीनों ही कवियों के काव्य विषय पर विस्तार से विमर्श मिलता है।
यह पुस्तक निःसंदेह एक शोध छात्र के लिए लाभदायक तो है ही साथ ही हिन्दी के सुधी पाठकों के लिए जिन्हें इन कवियों से विशेष स्नेह है उनके लिए यह खासे महत्व की है। पुस्तक के पाठों की योजना बड़ी सोच समझ कर की गई है। एक एक पाठ बेशक आकार में लंबे हो गए हों लेकिन विषय और कथ्य के लिहाज से प्रासंगिक हैं। परिशिष्ट 1 और 2 विशेषतौर पर महादेवी वर्मा पर केंद्रीत है। यह परिशिष्ट अपने आप में काफी लंबा है लेकिन पाठकों को यह एक नए अनुभवों से गुजरने जैसा होगा। क्योंकि यह परिशिष्ट श्रमसाध्य है। लेखक ने इस पुस्तक को सिर्फ विचार के स्तर पर भी स्थापित करने की कोशिश नहीं की है बल्कि एक एक वाक्य कहने के पीेछे तर्क और प्रमाणों का भरपूर सहारा लिया है।
 
छायावाद के कवि
प्रसाद निराला और पंत
लेखक- विजय बहादुर सिंह
प्रकाशन-सामसिक बुक्स,नई दिल्ली
वर्ष-2014
मूल्य-595

Thursday, October 9, 2014

अंतिम बिस्तर



मेरी जब लगेगी बिस्तर
सिलवटें हटाने तुम न आ पाओगी,
दहलीज़ के उस पार,
खड़ी बिलखती रह जाओगी।
साथ होंगे वो जो कभी साथ थे
साथ होंगे जो कभी झांकने नहीं आए,
जिनके बगैर खुशियां बिखरे थे
बस पास वहां तुम न होगे।
मां तुम न होगी
बहन तुम न होगी
संगिनी तुम न होगी
वह नींद कैसी होगी।
आंखें खोल देख न पाउंगा,
पलकें अश्रुगलित होंगी,
तुम्हें न पा उठ न पाउंगा
ऐसे में तुम कहां होगी।
मां तुम बिन कभी नींद न आई
रात बिरात बड़बड़ाते उठ जाता हूं
प्रिये तुम बिन नींद न आई
रात बिरात तुम्हीं को टटोलता हूं।
उदास होना कभी मेरे बगैर
कमी खली कभी मेरी
झांक लेना खिड़की के पार
चिरईं बन आ जाउंगा।

Monday, October 6, 2014

अच्छे दिन- 17000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान


  
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कौशलेंद्र प्रपन्न
तकरीबन 5 लाख प्राथमिक स्कूली शिक्षकों की कमी से हमारा प्राथमिक स्कूल जूझ रहा है। स्कूलों में शिक्षकों की रिक्त पदों को भरने के लिए अनुबंधित, शिक्षा मित्रों, पैरा टीचर आदि की मदद ली जा रही है ताकि शिक्षकों की कमी का असर हमारे बच्चों पर न पड़े। अफसोस की बात है कि सबसे खस्ता हाल हमारे प्राथमिक स्कूलों का ही है। क्योंकि इन स्कूलों में न तो पर्याप्त शौचालय, पीने का पानी, खेल का मैदान, शिक्षक आदि हैं और न शिक्षा की गुणवत्ता। ऐसे में हमारे बच्चों को साथ स्कूल छीन कर यह कैसा भद्दा मजाक किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूरे देश में कम से कम 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं। उन्हें किस प्रकार बुनियादी तालीम मुहैया कराई जाए इस ओर चिंता करने की बजाए राजस्थान से ख़बर आई है कि वहां तकरीबन 17 हजार स्कूलों को बंद कर दिया जाएगा। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन स्कूलों को चलाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है। जिन 17 हजार स्कूलों में ताला लगाया जा रहा है उन स्कूलों के बच्चों को स्थानीय अन्य स्कूलों में समायोजित किया जाएगा। ज़रा कल्पना कीजिए जिन स्कूलों में पहले से ही क्षमता से ज्यादा बच्चे हैं उस पर और अतिरिक्त बच्चों को किस प्रकार कक्षा में स्थान उपलब्ध कराया जाएगा। ध्यान रहे कि पहले से ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के प्रावधानों की अवहेलना की जा रही है उस पर तुर्रा यह कि अब उन्हीं कक्षाओं में 30 से ज्यादा बच्चे बैठेंगे। गौरतलब है कि आरटीइ एक कक्षा में तीस एक अनुपात में शिक्षक/बच्चों की वकालत करती है। लेकिन देश के किसी भी सरकारी स्कूलों में झांक लें वहां एक कक्षा में 50 और 70 बच्चे तो आम देखे जा सकते हैं। क्या एक शिक्षक से यह उम्मीद करना कि वह तमाम बच्चों पर समुचित ध्यान दे पाएया? क्या वह शिक्षण कार्य में गुणवत्ता ला पाएगा।
यह महज सवाल नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि जिन बच्चों को दूसरे स्कूल में भेजा जाएगा क्या वह स्कूल उन बच्चों के घर के करीब होंगे? क्या बच्चों की बढ़ी संख्या के हिसाब से कक्षा में परिवर्तन किए जाएंगे? क्या अतिरिक्त शिक्षकों की भर्ती की जाएगी? आदि। एक तो पहले से ही राज्य में शिक्षकों की कमी है उस पर स्कूलों को बंद किया जाना सीधे-सीधे आरटीइ की अवहेलना तो है ही साथ बाल अधिकारों की भी अनदेखी है। स्कूल के बंद होने से स्थानीय लोगों की ओर से क्या कोई मांग या आवाज उठी है? यदि नहीं तो यह एक गंभीर मसला है। वह इसलिए भी कि जो थोड़ी सी भी अच्छी स्थिति में हैं जो निजी स्कूलों की फीस वहन कर सकते हैं उनके लिए यह घटना कोई खास मायने नहीं रखती। लेकिन हमारे समाज में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो सरकारी स्कूलों पर ही टिका है। अपनी रोजी रोटी से अपने बच्चे की महंगी शिक्षा का बोझ नहीं उठा सकते। उनकी भी इच्छा होती है कि उनका बच्चा पढ़-लिख जाए। लेकिन कल्पना कर सकते हैं कि जब उनके स्थानीय सरकारी स्कूल घर से दूर हो जाएंगे तब क्या वे अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के अतिरिक्त खर्चे को उठा पाएंगे।
राजस्थान से लेकर देश के अन्य राज्यों में भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तर्ज पर स्कूल चल रही हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि उन स्कूलों में आम जनता की कितनी शैक्षिक चिंता है। क्या उन स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के साथ बरताव में कोई फांक है? यदि गहराई से पड़ताल करें तो यह अंतर स्पष्ट दिखाई देगा। विभिन्न राज्यों से इस तरह के भेदभाव की खबरें भी आती रही हैं जहां ऐसे बच्चों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। किसी के बाल काट दिए जाते हैं तो किन्हीं बच्चों को गृहकार्य नहीं दिया जाता। उन बच्चों को कक्षा में पीछे बैठाया जाता है ताकि इन बच्चों की पहचान की जा सके।
सरकारी स्कूलों को बंद किया जाना निश्चित ही दुखद घटना है। बजाए कि हम अपने सरकारी स्कूलों की हैड होल्डिंग करें उन्हें नकारा साबित कर बंद करने पर आमादा हैं। गौरतलब है कि सब के लिए शिक्षा यानी एजूकेशन फॉर ऑल के लक्ष्य का हासिल करने की अंतिम तारीख 2015 है। हम जिस रफ्तार से चल रहे हैं उसे देखते हुए उम्मीद की रोशनी भी बुझती नजर आ रही है। एक ओर विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में मॉल, फ्लाइओवर, मेटो रेल आदि का निर्माण किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर शिक्षा की बुनियादी जमीन को दलदल बनाना कहां की सभ्य समाज की पहचान है। सरकारी स्कूलों को दुरूस्त करने और उसे मजबूत करने की बजाए बंद करना किसी भी सूरत में उचित कदम नहीं माना जा सकता। केंद्र सरकार जहां एक ओर बच्चों से संवाद कर उन्हें बेहतर कल के सपने दिखा रही हैं वहीं दूसरी ओर उनसे स्कूल बंद कर किस तरह के हकीकत से रू-ब-रू करा रही है।

कौशलेंद्र प्रपन्न, शिक्षा सलाहकार एवं भाषा विशेषज्ञ टेक महिन्द्रा फाउंडेशन

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...