Wednesday, April 26, 2017

पाठ्यपुस्तकों की राजनीति और कथ्य


कौशलेंद्र प्रपन्न
अकादमिक हलकों में कोई शोर नहीं। सहज स्वीकार्य। कोई विरोध नहीं, कोई विकल्प नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी के लेखक चेतन भगत का उपन्यास ‘फाइब प्वांइट समवन’ शामिल करने की घोषण हुई है। यह घोषणा कई संदेश प्रेषित करते हैं। पहला यही कि अकादमिक घटकों में इस पहलकदमी को लेकर किसी प्रकार के प्रतिवाद नहीं उठ रहे हैं। दूसरा केएम पणिक्कर, टैगोर की रचना को स्थनांतरित एक ऐसे उपन्यास से किया जा रहा है जिसकी स्वीकार्यता एक गंभीर अकादमिक कामां में नहीं गिनी जाती। सवाल यह उठना चाहिए कि क्या चेतन भगत की यह रचना टैगोर और पणिक्कर की रचना को विस्थापित करने की रचनात्मक ताकत रखती है? क्या इस निर्णय से पूर्व विश्वविद्यालय की अकादमिक समिति की राय ली गई? यदि ली गई तो उनमें क्या सहमति बनी इसे भी समझने की आवश्यकता है। अमूमन पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम कई बार ख़ास पार्टी व राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रचार, प्रसार के साधन के तौर पर इस्तमाल किए जाते रहे हैं। इसके इतिहास में ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं। महज पंद्रह साल पहले 2002 में भी ऐसी ही एक अकादमिक घटना घटी थी। सीबीएससी ने प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी मंत्र को हटा कर मृदुला सिंन्हा की कहानी ज्यो मेंहदी के रंग को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया था। तब भी विवाद उठे थे कि क्या केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति केब की राय ली गई? क्या आकदमिक बहसों और विमर्श का इस बदलाव में शामिल किया गया? उस वक्त विभिन्न शिक्षाविद्ों, साहित्यकारों ने इस कदम की आलोचना की थी। नागर समाज ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि क्या यह निर्णय अकादमिक विमर्शों के मद्दे नजर ली गई या सरकार की निहित स्वार्थ के लिए कदम उठाए गए। न्यायालय का निर्णय दिया कि यह गलत है और तकरीबन एक साल बाद दुबारा गलती को सुधारा गया।
प्रो. अनिल सद्गोपाल ने इस पूरी घटना पर विस्तार से लिखा और बोला भी। उन्होंने लिखा कि सन् 1990 के आस पास जब विश्वविद्यालयों को निजी हाथों में सौंपे जाने की चालें चलीं जा रही थीं। विश्व बैंक को भारत के शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश के लिए द्वार खोले जा रहे थे तब शिक्षाविद्ों, साहित्यकारों, प्राध्यापकों की ओर से कोई भी विरोध दर्ज नहीं किए गए। तमाम विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक मौन थे। हमें उसका ख़ामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। अनिल सद्गोपाल जिस चुप्पी की ओर इशारा कर रहे हैं वह कहीं न कहीं मौन स्वीकारोक्ति नहीं तो क्या थी। क्या वह चुप्प होकर सरकारी हस्तक्षेप को बिना विरोध किए कबूल करना नहीं था। साहित्यिकारों, शिक्षाविद्ों और नागर समाज की चुप्पी कितनी ख़तरनाक हो सकती है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। समय समय पर शैक्षिक संस्थानों और पाठ्यपुस्तकों में प्रवेश की कोशिश होती रही है। राघवेंद्र प्रपन्न अपनी किताब ‘ज्ञान का शिक्षण शास्त्र’ में लिखते हैं कि 2002 में  इतिहास और समाज विज्ञान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों से विमर्श के दरकार को हाशिए पर डाला गया। बिना किसी अकादमिक विमर्श के स्कूली पाठ्यपुस्तकों से अमूक अंश, पैराग्राफ, पाठ नहीं पढ़ाने के फरमान जारी कर दिए गए। शिक्षकों को आदेश दे दिया गया कि वे कल से कक्षा में बच्चों से उस खास गद्यांश को न तो पढ़ाएंगे और न ही उस पर किसी भी प्रकार की चर्चा करेंगे। आखिर यह बताने की भी आश्यकता नहीं महसूस की गई कि क्यों उस अंश को पढ़ाने से रोका जा रहा है। शिक्षा को बेहद सहज और सरल मानकर उसकी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ होती रही हैं। इसमें राजनीति दलों ख़ासकर सत्तारूढ़ दलों ने खुल कर ऐसे खेल खेले हैं। इसमें राज्य स्तर पर भी पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों के साथ फेरबदल की गई हैं। राजस्थान, बंगाल, बिहार आदि की पाठ्यपुस्तकों में बड़ी ही साफगोई से यह खेल हुआ है। बंगाल के स्कूली पाठ्यपुस्तकों में शंगूर के आंदोलन को ममता बैनर्जी के नाम कर दिया गया। वहीं राजस्थान की किताबों में भी तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के जीवन चरित को शामिल किया गया। पाठ्यपुस्तकें भी समाज का जीता जागता आईना हुआ करती हैं और इसमें हम समाज के हलचलों, छटपटाहटों को देख और पढ़ सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसके पीछे अकादमिक विमर्श की आवश्यकता महसूस की गई। क्या शामिल करने से पहले इसपर शैक्षिक चर्चाएं हुईं?
शिक्षा और साहित्य को जब तब अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस्तमाल किए जाने की घटनाएं होती रही हैं। कमलानंद झा अपनी पुस्तक ‘पाठ्यपुस्तकों की राजनीति’ में बड़ी शिद्दत से यह सवाल उठाते हैं कि किस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दलों ने समय समय पर सत्ता में आने के बाद अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाने के लिए स्कूली पाठ्यपुस्तकों का गलत इस्तमाल किया। सरकार जिस भी राजनीति दल की सत्ता में आई उन्होंने स्कूली पाठ्यपुस्तकों के साथ छेड़छाड़ करन में पीछे नहीं रहे। माना जाता है कि स्कूली पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यचर्याएं बड़ी ही आसानी से अपने हित में प्रयोग की जा सकती हैं। एनसीइआरटी एक स्वायत्त विमर्श संस्था है जो सरकार को स्कूली शिक्षा के बाबत राय देती है। यही इसकी भूमिका है। सरकार इसकी बात मानें या न माने इसपर संस्था की कोई पकड़ नहीं है। इतिहास गवाह है कि हर सरकार सत्ता में आते ही एनसीइआरटी और मानव संसाधन मंत्रालय का अपने हित साधन के लिए प्रयोग करना शुरू करती है। सरकारें अपनी वैचारिक तंत्र को मजबूत करने वाले लोगों को इन संस्थानों पर प्रमुख पदों पर नियुक्त किया करती है ताकि मन चाही रद्दोबदल की जा सके। आज की तारीख में प्रमुख शैक्षिक संस्थानां पर वर्तमान सरकार के मतों में हां में हां मिलाने वालों को ऐसी संस्थाएं सौंपी गई हैं। नेशनल बुक टस्ट, भारत, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि के अगुए संस्थानों में भी वर्तमान सरकार के अपने विचारधारा को पोषित करने वाले लोग हैं। वे वही करते हैं जो सरकार कराना चाहती है। सबसे ज्यादा बदलाव एनसीइआरटी ने 2000 के आस पास स्कूली पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यचर्याओं में की। इस पाठ्यर्चा 2000 पर आधारित पुस्तकों पर भी भगवाकरण का आरोप लगा। यदि ठहर कर इन किताबों को पाठ्यचर्याओं का अनुशीलन करें तो यह आरोप बेबुनियाद नहीं हैं।
शिक्षा और शिक्षण की दिशा और दशा तय हो तो उससे देश को भी रास्ते मिलते हैं। देश की युवा पीढ़ी को शिक्षा क्या राह व रोशनी दिखाना चाहती है यह काफी कुछ तत्कालीन सरकार की दृष्टि और मान्यताओं पर निर्भर करती है। प्रत्येक सरकार की अपनी प्रतिबद्धताएं रही हैं। जब प्रो अनिल सद्गोपाल 1990 की चर्चा करते हैं तब हमें यह समझने की आवश्यकता है कि तब की सरकार की नजर में क्या करना प्राथमिकता की सूची में पहला था। वह सरकार उस वक्त सरकारी शिक्षण संस्थानों को चलाने  अपना हाथ पीछे खींचना चाह रही थी। वहीं दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर बाजार का आर्थिकी दबाव सरकार पर थी। सरकार ने विश्व बैंक और बाजार को सरकारी शैक्षिक संस्थानों के संचालन का काम सौंप दिया। इसे 2000 के आस पास बिड़ला अंबान समिति की रिपोर्ट में भी देख सकते हैं जिन्होंने सरकारी शैक्षिक संस्थानों को निजी हाथों में सौंपे जाने की सिफारिश की थी। सरकार ने इस समिति के सुझावों को माना भी। जब भी बाजार और सरकार एक मंच पर आती हैं तब सबसे पहला शिकार शिक्षा होती है। क्योंकि शिक्षा एक साफ्ट टारगेटेड रही है। विरोध करने वाले अकादमिक विमर्शकार, शिक्षाविद्ों को अपनी नौकरी बचानी ज्यादा पसंद है बजाए कि शिक्षा को बचाई जाए।
हालांकि प्रो अनिल सद्गोपाल जैसे शिक्षाविद्ों और जनांनदोलन से जुड़े शिक्षविद् कम हैं जो शिक्षा की प्रकृति और संस्थानों को बचाने के लिए आगे आएं। अमूमन सरकारी फरमानों को मान और स्वीकारने वालों की संख्या ज्यादा है इसलिए शिक्षा के साथ कोई भी कभी भी मनचाही पहलकदमियां थोप देता है। इसका विरोध,्र प्रतिवाद नागर समाज करना भूल जाती है। कुछेक सुगबुगाहटें हुई हैं जिनकी वजह से 2002 में शैक्षिक मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा और उसका सकरात्मक परिणाम भी मिले। उसी तरह से शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की शिक्षा की बात तो की गई किन्तु बड़ी चतुराई से 0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों के अधिकार पर सरकार मौन हो गई। इस सरकारी चुप्पी पर देश भर में आवाजें उठीं। बड़ी तेजी से नागर समाज वकालत कर रही है कि आरटीई में 0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों को शामिल किया जाए। संभावना बनती है कि नागर समाज के इस व्यापक वकालत की वजह से संशोधन हो पाए। शिक्षा वास्तव में जीवन की बेहतरी और समाज सापेक्ष रही है।इसके गठन में वर्तमान चुनौतियों और बाजार के दबाव भी रहे हैं। किन्तु हमें यह समझने की आवश्यकता हैकि हम अपनी शैक्षिक संस्थानों को निजी हित साधकों के माध्यम बनाना चाहते हैं या समाज के सर्वांगीण विकास का औजार।
चेतन भगत के उपन्यास फाइब प्वाइंट समवन, टू स्टेट, वन नाइट एट कॉल सेंटर आदि कोई न तो अंग्रेजी साहित्ययकारों ने गंभीरता से लिया है और न अंग्रेजी साहित्य के पाठकों ने ही इसकी प्रशंसा की है। इतना श्रेय जरूर है कि चेतन भगत के उपन्यासों के पाठक कॉलेज के छात्र हैं। छात्रों ने रूचि लेकर पढ़े। इसकी भाषा, वाक्य संरचनाएं बेहद सहज और सरल हैं। लेकिन समग्रता में देखें तो इन उपन्यासों के कथ्य बेहद सतही और उथले हैं। कॅालेज के प्रांगण को प्रमुखता से चित्रित किया है इसलिए भी छात्रों को ज्यादा पसंद आईं। अभी चेतन भगत की रचनाओं की समीक्षा और समालोचना होना बाकी है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि विश्वविद्याल के अकादमिक समिति को पुनर्विचार करना होगा कि हमें भविष्य में किस प्रकार के साहित्य को प्रश्रय दे रहे हैं और उसके पीछे क्या सम्यक तर्क और विमर्श शामिल किए गए।



Tuesday, April 25, 2017

सतत विकास लक्ष्य चार और नागरिक सहभागिता


सभी बच्चां को गुणवत्तापूर्ण और समान शिक्षा मुहैया कराने की घोषणा 1990 और 2000 में की थी। 1990 जिसे सभी के लिए शिक्षा के नाम से जानते हैं और 2000 में सहस्राब्दि लक्ष्य में तय किया था कि हम सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण भेदभाव रहित बुनियादी शिक्षा प्रदान करेंगे। इसके लिए हमने 2015 का लक्ष्य रखा था। लेकिन यह तय समय सीमा गुजरे भी दो साल बीत चुके हैं। ध्यान हो कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमने 2016 में सतत् विकास लक्ष्य की शुरुआत की। ग्लोबल कंपेन फार एजूकेशन, जीसीइ और नागर समाज ने अब इस लक्ष्य का हासिल करने के लिए शिक्षा 2030 तक की समय सीमा तय की है। इस एसडीजी में कई लक्ष्य बनाए गए हैं किन्तु जो शिक्षा से संबंधित है उसमें लक्ष्य 3 और 4 ख़ास हैं। लक्ष्य चार में घोषित किया गया है कि हम अपने बच्चों को समावेशी और न्यायसंगत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करेंगे और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देंगे। इन लक्ष्यों की रोशनी में हमें हमारी क्षमता, गति और नीतियों की जांच करनी होगी। बल्कि कहना चाहिए कि हमें वर्तमान शैक्षिक हकीकतों को भी नजरअंदाज नहीं करना होगा। वर्तमान शैक्षिक चुनौतियों के मद्देनजर अपनी रणनीति और योजनाओं में बदलाव करने होंगे तब संभव हैइस बार हम अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे।

Friday, April 21, 2017

फास्ट एवं फ्यूरिअस 8 और हिन्दुस्तानी संवाद


ये छमिया, बीडू, और ऐसे ही संवाद जब अंग्रेजी फिल्म के हिन्दी रूपांतरण में सुनने को मिले तो आपकी पहली प्रतिक्रिया हो होगी? जब आप गोरों और अश्वेत पात्रों को मुंबईया हिन्दी बोलते हुए सुन कैसे एहसास होगा? हां यही तो हुआ है फास्ट एवं फ्यूरिअस 8 फिल्म में। इस कहानी पात्रों के संवाद हिन्दी में तर्जमा करने वाले ने मुंबईया बोलचाल को इस फिल्म में हल्केपन और सरलीकरण के तर्क पर किया गया है। पात्रों के संवाद कई बार महसूस होता है कि वे फिल्म के दृश्य को हंसी और हल्का करने के लिए किया गया है। लेकिन बात काबीले गौर है कि संवादों के अनुवाद में उर्दू-हिन्दी और मुंबईया बोलचाल को ध्यान में रखा गया है। उर्दू के इस्तमाल कई बार इतने साफ तलफ्फूज़ के साथ किए गए हैं कि इन फिल्म के पात्रों की जबान से ए किस्म का हास्य ही पैदा करता है। माना जाता है कि पात्रों के संवाद, परिवेश, वेशभूषा काल खंड़ कहानी को रोचक और प्रासंगिक बनाने में मददगार साबित होते हैं।
नाटक,नुक्कड़, मंचीय कला में ख़ासकर संवाद अदायगी और कहानी कहन की ख़ास शैली ही कहानी को रोचक बनाती है। पात्रों को संवाद, परिवेशीय प्रोपर्टी कहानी को प्रभावकारी बनाती है। गौरतलब है कि पहले भी हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध कहानियों, नाटकों के हिन्दी अनुवाद किए गए हैं। जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु हश्चिंद आदि ने जब विश्व के प्रसिद्ध नाटकों का हिन्दी अनुवाद किया तो उन्होंने न केवल कथ्य को बचाकर रखा बल्कि उस नाटक की बुनियादी पहचान बरकरार रखी। उन्होंने नाटकों के संवाद, पात्रों के नाम, गीत-संगीत भारतीय कर दिए। ताकि वे नाटक भारतीय दर्शकों से जुड़ पाए। इस फिल्म को देखते हुए महसूस हो सकता है कि काशा इसके संवाद और अनुवाद पर थोड़ा और काम हुआ होता।

Tuesday, April 18, 2017

अवसाद, उदासी और शिक्षा


अवसाद, उदासी, अकेलापन, दुःिंचंता, निराशा आदि जिस नाम से भी इस अवस्था को पुकारें किन्तु यह मानसिक स्थिति बहुत तेजी से युवाओं और प्रौढ़ों को अपने गिरफ्त में ले रही है। वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएं तो स्थिति और भी भयावह दिखाई देती है। हाल ही में गुरूग्राम के एक बहुराष्टीय कंपनी में कार्यरत महिला कर्मी का कूद कर जान दे देना अवसाद की मनोदशा का महज एक तस्वीर भर नहीं है। बल्कि इससे पहले भी अवसाद की चपेट में आकर कई व्यक्यिं ने जिंदगी की डोर बीच में भी छोड़ दी है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे अवसाद कहें या फिर आमजन की भाषा में अकेलेपन व उदासी का सबब किन्तु व्यापक स्तर पर निराशा एवं घोर उदासी जान ले लेती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह हम बचपन से पढ़ते और रटते बड़े हुए हैं। फिर क्या वजह है कि बड़े होने के बाद व्यक्ति इतना एकांगी, अकेला और उदासी में डूब जाता है कि उससे समाज, परिवार दूर चला जाता है और वो हमसे काफी दूर। यह सवाल एक नागर समाज के सामने बड़ी चिंता के तौर पर उभरी है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2017 को अवसाद, उदासी से मुक्ति के तौर पर सात अप्रैल को घोषित किया है। वैश्विक स्तर पर लाखों की संख्या में युवा एवं प्रौढ़ महिला एवं पुरुष अवसाद के घेरे में हैं। इन्हें अपनी भावनाओं, संवेदनाओं को प्रकट करने का मौका नहीं मिलता। इस तरह के लोग भीड़ में होते हुए भी निपट अकेला महसूस करते हैं। घर परिवार में होकर भी उदास और निराशा में खुद को पाते हैं। शिक्षा इस तरह के लोगों को कितनी मदद करती है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
शिक्षा यदि जिंदगी की तालीम दे पाती तो संभव है कोई इस तरह अपनी जिंदगी से मायूस होकर उम्मीद की डोर नहीं छोड़ सकता। वास्तव में वर्तमान शिक्षा कुछ दक्षताएं ही पैदा कर पाती हैं जिसके बदौलत व्यक्ति अपनी रोजीरोटी कमा पाता है। तनाव व एकाकीपन एवं आम जिंदगी के दबाव को कैसे सहा और समायोजन स्थापित की जाए इसकी समझ शिक्षा नहीं दे पाती। यूं तो शिक्षा दर्शन और दाशर्निकों ने जीवन और शिक्षा को एक साथ लेकर चलने और समझ की वकालत की है। किन्तु स्थितियां विपरीत हैं। हमारी अपेक्षाओं पर बाजार और प्रतियोगिताएं सवार हैं जो तय करती हैं कि हमारी जिंदगी की प्राथमिकताएं क्या होंगी। हमारे जीवन में आनंद किस प्रकार के होंगे। बाजार और वैश्विक प्रतियोगिताओं के दबाव में हमारे अपने जीवन के लक्ष्य भी नए तय किए हैं। इस चुने हुए लक्ष्यों में तनाव, एकाकीपन स्वभाविक है। जब तक हम परिवार और समाज से कटेंगे नहीं तब तक तय लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे। बहुराष्टीय कंपनियां यदि आपको लाखों का पैकेज देती हैं तो आपसे आपके निजी समय चुरा लेती हैं। कब आप खाना खाएंगे कब आप घूमने जाएंगे यह सब बाजार और कंपनी तय करती है। बाजार निजी स्वतंत्रता और निजता के लिए केई स्थान नहीं देती। बल्कि उसे समय और टारगेट के अनुसार काम मिलना चाहिए। यही वो दबाव है जिसमें आज हमारी पीढ़ी जी रही है। शिक्षा दरअसल न केवल दक्षताओं का विकास करती है बल्कि संवेदनाओं को परिष्कृत भी करने का काम करती है। लेकिन आज शिक्षा में संवेदनाओं और भावनाओं का कोई स्थान नहीं है। बाजार शिक्षा के मापदंड़ कर रही है। तय कर रही है कि आज शिक्षा किस दिशा में और किस तरह की दी जानी चाहिए।
शिक्षा का मकसद बच्चे के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना रहा है। इस विकास में तकनीक, संवेदना, सहभागिता आदि भी शामिल है। शिक्षा और हमारी जिंदगी से जो चीज तेजी से गायब हो रही है वह है संवेदना और सहभागिता। हम जिस कदर असहिष्णु हुए हैं, जिस तरह साझा संस्कृति से दूर हुए हैं यह बहुत साफ तौर पर देखा और महसूस किया जा सकता है। हमें नागर समाज के जीवन में गहरे पैठ चुकी उदासी और एकाकीपन के समाधान के लिए गंभीरता से विमर्श करना होगा। क्योंकि अवसाद व उदासी जिस तेजी से महानगर, शहर और कस्बों में फैल रही है यह शुभ संकेत नहीं है। महानगरों में तो एकाकीपन के मायने समझ आते हैं क्योंकि व्यक्ति की जिंदगी की शुरुआत सुबह दफ्तर और शाम दफ्तर से लौटने में ही खत्म हो जाती है। इतना समय और क्षमता भी नहीं बची रहती कि अपने दोस्तों या परिवार के सदस्यों से मिल सकें। यह प्रकारांतर से हमें अकेलेपन की ओर धकेलती है। हम अपने खालीपन को बाजारीय सामानों और अट्टहासों और खोखली हंसी से भरने की कोशिश करते हैं।
मानवीय संवेदनाओं और स्पर्श जिस शिद्दत से हमें आनंद और अपनेपन के एहसास से भर देती है वह सोशल मीडिया पर उपलब्ध लाइक्स और कमेंट्स से कहीं ज्यादा प्रभावी और लाभकरी होता है। किन्तु अफ्सोसनाक हकीकत यही है कि हमने अपनी निजता और मानवीय संवेदनाओं को बाजार के हवाले कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यूं ही वर्ष 2017 को अवसाद व उदासी से निराकरण के तौर पर घोषित किया है। आज की तारीख में यदि किसी व्यक्ति व समाज को किसी चीज की आवश्यकता है तो वह है सुख, शांति और अपनों का साथ। बड़ी साफगोई से बाजार इन्हीं चीजों में सेंध लगाती है बल्कि लगा चुकी है।
शिक्षा के लक्ष्यों को मानवीय जीवन से जोड़ने वाले घटकों को बिना ठीक किए यह संभव नहीं है। अध्यापक वह प्रमुख घटक है जो कक्षा में बच्चों के साथ अधिकांश समय रहता है। बच्चों की दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला व्यक्ति कोई होता है तो वह शिक्षक है। यदि वह जीवन और समाज के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा कर सके तो बच्चों के लिए सबसे बड़ी घटना हो सकती है। यहां एक दिक्कत यह है कि कई बार शिक्षण अपने पूर्वग्रहों से बाहर नहीं आ पाता और वही दृष्टिकोण प्रकारांतर से बच्चों में अनजाने ही हस्तांतरित हो जाते हैं।

Monday, April 17, 2017

किस खेत से....


किस खेत से लाई थी गेहूं,
किस पेड़ से डाली
बोलो मेरी चिड़िया रानी
अपनी बातें मुझ से बोलो।
किस बाग से लाई थी लकड़ी
किस नद से पानी,
तिनक तिनका कहां से लाई
अपनी कहो कहानी मैना।
तुमने बुना था घर वो अपना
जहां न धर सकते थे दाना,
तुमने बनाया घर वो अपना,
जोड़ जोड़कर गेहूं का दाना।
दिया जहां पर अंड़ा तुमने
जगह भी वो कितना तंग था,
सेने को सहा घाम दुपहरी तुमने
तिनका ला ला सांझ किया था।
एक दिवस देखा मैंने क्या,
चांच निकाल झांका था नभ में
वो तेरा ही बच्चा था क्या,
मिच मिच करती आंखों में।
सपने संजोए आई थी
जग के इस मेले में
वो सुबह भारी कैसी थी
उड़ गए वे खुले वितान में।
खोई खोई ताक रही थी,
जिसमें पले थे वो दो बच्चे,
कहां गए किस ओर उड़ चले,
क्या वापस वो आ पाएंगे।
आज उदास बैठी थी चिड़िया,
सूझ नहीं रहा था कुछ भी
किस खेत से लाई थी गेहूं
किस पेड़ से डाली
बना उन्हें पाला था।

Friday, April 14, 2017

सपनों से भी बाहर


उसने करीने से अपना सामान बटोरा और सिस्टम से लॉग आउट हो गया। आस पास सब देख रहे थे। बल्कि देखते हुए भी नहीं देख रहे थे।
देख रही थीं आस पास की वो खिड़कियां, दरवाज़े और एसी के बटन वो आज जा रहा था। जा रहा था वहां से जहां उसने अपने करियर के तकरीबन छह साल गुजारे। क्या मालूम था कि एक दिन वही मंदी उसकी नौकरी पर बन पड़ेगी। जिन स्टोरी को अखबार के पन्नों पर बनाया करता था आज वह भी एक सिंगल कॉलम की ख़बर बन जाएगा।
लेकिन अफ्सोस की वह उस कॉलम में भी समा न सका। लोग महज बातें करते रहे कि अच्छा था। मेहनती थी आदि। लेकिन किसी ने भी मदद तो नहीं की। किसी ने भी आश्वासन तक नहीं दिया।
आज अकेला ही उस का़गज पर दस्तख़त कर ऑफिस से बाहर हो गया। शायद अपने सपनों से भी बाहर।

Thursday, April 13, 2017

अकेली हो गई


वो शायद अकेली हो गई थी। निराश और हताश भी होगी। शायद जॉब ही वो कारण रहा हो। रहा भी। इक्रीमेंट। पैसे में बढ़ोत्तरी। उसके जीवन पर हावी हुआ हो गया। पैसे और पद उसकी जिंदगी पर भारी पड़ गया।
वो इस दुनिया से ही कूच कर गई। वो अकेली नहीं थी। उस जैसे और भी हैं जिन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह गए। तनाव और हताशा। इन द्वंद्वों के दबाव में जीवन हार गई। जीने की ललक और ताकत चूक गई।
हम जिस दौर में जी रहे हैं वो बड़ी तनाव और द्वंद्वों भरा है। हमारा स्वयं का जीवन इतना रिक्त हो चुका है कि बाहरी तत्वों से जीवन भरा चुका है। आंतरिक खुशी और उल्लास रिक्त हो चुका है। पैसे और पद हमारी जिंदगी के मकसद तय किया करते हैं।
हम यहीं अपनी पकड़ जिंदगी पर खोते जा रहे हैं। तय करना होगा कि जिंदगी बड़ी है या पद, पैसे और प्रमोशन।

Friday, April 7, 2017

पास फेल की चक्की में ...

पास फेल की चक्की में पीस रहे हैं बच्चे, पीस रही है शिक्षा। शिक्षा कहीं न कहीं अपने लक्ष्य से भटकी नजर आती है।हमारा मकसद महज अंक और ग्रेड हासिल करने तक महदूद हो चुका है।संभवतः हमारे पास डिग्रियां तो होती हैंलेकिन उस स्तर की समझ विकसित नहीं हो पाती। अफसोसनाक बात यह हैकि फिर भी हमारा पूरा का पूरा ध्यान और मेहनत सिर्फ परीक्षा पास करने तक सिमट चुका है।इससे बेहतर तो यह होता कि हम बच्चों में तालीम की समझ और जीवन में इस्तमाल पर जोर देते। हम उन्हें बता पाते कि जीवन में इनमें से कौन सी चीज, इल्म काम आ सकती है।अपने जीवन को कैसे बेहतर बना सकते हो। लेकिन जब हम नीति, समिति, राजनीतिक पहलों को देखते हैंतब भी एक निराशा हमें घेर लेती है।कितना बेहतर होता कि हम शिक्षा को आम जिंदगी में इस्तमाल के योग्य बना पाते।
हाल ही में एक बच्चे से आत्महत्या कर ली। वह प्राथमिक कक्षा का नहीं था। बल्कि वह मेडिकल का छात्र था। लेकिन क्योंकि उसने परीक्षा में वही लिख पाने में पीछे रह गया जो पूछा गया था। उसे फेल हो जाने का भय सता रहा था। गांव-घर, यार दोस्त, मां-बाप क्या कहेंगे इसकी चिंता ने उसे इस जिंदगी से जुदा कर दिया।इसमें उस लडके से ज्यादा उस शिक्षा पर सवाल खडे होते हैंजिसने एक एक इंसान की जान ले ली।

Tuesday, April 4, 2017

कितना आसान है


कितना आसान है
तोहमत लगाना
कितना आसान है
हंसी उड़ाना
कितना आसान है
नीचा दिखाना।
कितना कठिन है
ख़ुद पर हंसना
कितना कठिन है
खिलंदड़ बनना
कितना कठिन है
राह निभाना।
कठिन है कितना
स्नेह बचाना
कठिन है कितना
बंधन निभाना
कठिन है कितना
बस जाना
कठिन है कितना
आंखों में चुभना।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...