Thursday, May 31, 2018

डर का दर्शन



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब में एक डर है। हम सब एक भय में जीया करते हैं। शायद पूरी जिं़दगी डर में ही गुजार देते हैं। शायद हम खुल कर अपनी लाइफ नहीं जी पाते। शायद हम दूसरों की इच्छाओं, शर्तां, चाहतों को जी रहे होते हैं। अपनी लाइफ तो बस डर में ही कट जाती है। यदि हम डर के दर्शन में जाएं तो पाएंगे कि मनुष्य न केवल एक सामाजिक सदस्य है बल्कि समाज में रहने के नाते दूसरों की अपेक्षाओं, लालसाओं, उम्मींदों को भी जीया करता है। उसे हमेशा यह डर रहता है कि कहीं फलां नाराज़ न हो जाएं। कहीं फल्नीं रूठ न जाए। कहीं बॉस गुस्सा न हो जाए, कहीं रिश्तेदार हुक्का पानी न बंद कर दें। शायद यही वह डर का दर्शन है जिसमें हमारी पूरी जिं़दगी भय के साथ गुज़र जाती है। हालांकि दर्शन और उपनिषद् निर्भय होने की कामना करते हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में इसका झांकी मिलती है- ‘‘अभयंमित्रादभयंमित्रा...मम्मित्रम् भवंतु’’ इस मंत्र में कामना की गई कि हमें अपने मित्र से भी भय न हो। हमें अपने अमित्र या शत्रु या परिचित से भी भय न हो। हम निर्भय हो सकें। मेरी कामना है कि तमाम विश्व मेरा मित्र हो। हालांकि यह कामना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से दखें तो यह संभव नहीं है। क्योंकि हर कोई आपका मित्र नहीं हो सकता। सबकी अपनी अपनी सीमाएं हैं। सब के अपने स्वार्थ हैं। जहां स्वार्थों के बीच टकराहट होगी वहां मित्रवत् भाव बरकरार रखना ज़रा कठिन काम है।
पूरा भारतीय आर्ष ग्रंथ, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र आदि मित्रवत् व्यवहार करने की वकालत करते हैं। यह अगल बात है कि हम सभी को खुश नहीं कर सकते। ख़ासकर जब आप किसी प्रमुख व शीर्ष पद पर हों तो हर कोई आपसे खुश रहे ऐसा संभव नहीं है। वह होना ज़रूरी भी नहीं। कोशिश तो की जा सकती है लेकिन दावा करना भूल होगा। कोई भी मैनेजर, डाइरेक्टर, सीइओ, या एमडी आदि पूरी कंपनी के हित के लिए कठोर कदम उठाते हैं। इसमें निश्चित ही किसी न किसी की हानि तो होती है। किसी न किसी का मुंह तो उतरेगा लेकिन क्या महज इस भय से कोई निर्णय को टाला जाना चाहिए? क्या आलोचना और निंदा के डर से कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए? आदि ऐसे सवाल हैं हां मैनेजमेंट के जानकार मानते हैं कि व्यापक हित के लिए कठोर से कठोर निर्णय भी लिए जाने चाहिए। वहीं गांधी जी मानना था कि यदि एक गांव के बरबाद होने से यदि एक शहर बचता है तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं। एक शहर व राज्य के बरबाद होने से देश बचता हो तो राज्य व शहर को बरबाद होने में कोई हानि नहीं है। यही दर्शन और मनोविज्ञान मैनेजमेंट में भी अध्ययन किया जाता है और इन्हें माना जाता है। यदि एक व्यक्ति की वज़ह से कोई संस्था ख़राब हो रही हो। या फिर संस्थान के कर्मियों में निराशा घर कर रही हो, फिर लोग छोड़कर जा रहे हों तो ऐसे में मैनेजमेंट उस एक व्यक्ति को बदलने के निर्णय में पीछे नहीं हटेगी जिसकी वजह से पूरी संस्था पर ग़लत असर पड़ रहा हो। यहां डर नहीं भय नहीं बल्कि तार्किक कदम उठाने होते हैं।
डर व भय कई किस्म के होते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि ये देखें तो इसे फोबिया माना जाता है। कई किस्म की फाबिया का जिक्र मनोविज्ञान में आता है। पानी का डर, अंधेरे का डर, अनजान से डर, ऊंचाई से डर आदि। यह सूची लंबी हो सकती है। ख़ासकर मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा शास्त्र में विभिन्न तरह की फोबिया व भय का ट्रिटमेंट किया जाता है। दूसरे शब्दों में इन भयों का अध्ययन किय जाता है ताकि मनोरोगी को निदान प्रदान किया जा सके। जानकार मानते हैं कि हम न केवल व्यक्ति, वस्तु, परिस्थितियों से ही डरा करते हैं बल्कि सबसे बड़ा डर हमारा दूसरों की नज़र में असफल होना होता है। हम किसी भी कीमत पर फेल स्वीकार नहीं कर पाते। दूसरों की हंसी और दूसरों की नज़र में श्रेष्ठ साबित करने की चाहत कई बार हमें गहरे भय और निराशा में धकेल देती है। यानी हमारे डर व भय का एक सिरा दूसरों की नज़रों में असफल न होने, नकारा न होने की छवि से बचना है। जबकि हमें अपनी लाइफ अपनी शर्तां पर जीना आना चाहिए न कि दूसरों की इच्छाओं को ही ढोते रहे और कंधे, पीठ छिलते रहे।
असफलता का डर, लोगों के हंसने का डर, दूसरों की नज़रों में बेहतर साबित करने का डर आदि ऐसे आम डर हैं जिनसे हमसब रोज़ गुज़रा करते हैं। कोई हंस तो नहीं रहा है? कहीं कोई मेरी आलोचना तो नहीं कर रहा है? कोई मुझ से नाराज़ न हो जाए आदि िंचंताएं हमें डर की ओर धकेलती हैं। बच्चे जब आत्महत्या करते हैं। ख़ासकर दसवीं व बारहवीं के परीक्षा परिणाम के बाद तो इसके जड़ में यही वज़ह है लोग क्या कहेंगे? दोस्त क्या कहेंगे? मम्मी-पाप की उम्मीदें मुझ से बहुत थी। मैं तो नकारा हूं। मुझसे यह भी नही हो सका आदि मनोवृतियां व्यक्ति को डर के गिरफ्त में लाती हैं। जबकि मंथन करने की आवश्यकता यह है कि क्या आप उन लोगों के लिए पढ़ रहे थे? क्या उनके लिए जीवन के लक्ष्य तय कर रहे थे, क्या एक बेहतर इंसान उनके लिए बन रहे थे या आपको एक सफल व्यक्ति बनना ही था। आपको जीवन में अपनी शर्तां पर जीना ही था इसलिए जी रहे हैं।
कोई भी व्यक्ति लाइफ में असफल नहीं होना चाहता। लेकिन सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपनी सफलता के लिए किस शिद्दत से काम कर रहे हैं। कितनी प्लानिंग से योजना बनाकर उसे अमल कर रहे हैं। असफल होने के डर से बचने के लिए हमें अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। तब यह डर भी खत्म हो जाता है।


Wednesday, May 30, 2018

इंटरनेट में खोते चैन




यह बात साबित हो चुकी है कि क्या वयस्क और क्या बच्चे सभी अपनी लाइफ से एक बड़ा हिस्सा इंटरनेट पर जाया किया करते हैं। कभी लाइक्स को देख कर इतने खुश हो जाते हैं गोया और कोई दुनिया में हमसे ज़्यादा खुश है ही नहीं। वहीं कम लाइक्स मिलने या न मिलने पर इतनी मायूस हो जामे हैं जैसे दुनिया में कोई प्यार करने वाला बचा ही नहीं। यह इंटरनेटी लव और केयर ऐसी बीमारी बन चुकी है कि हम वास्तविक जीवन में खुशियों की तलाश की बजाए आकाशीय सुख में खुश हो जाया करते हैं। 
हमारे आस-पास हज़ारों लाखों गेगा बाइट्स में सूचनाएं बह रही हैं। उनमें से कौन सी सूचना सचमुच हमारे लिए हैं इसका निर्णय नहीं कर पाते। हम तो यह भी तय नहीं कर पाते कि इन सूचनाओं में से कितने को अपनी ज़िंदगी में तवज्जो देनी है। 
थोड़ी थोड़ी बात पर जैसे कभी औज़ार निकाल लिया करते थे। वैसे ही आज हम थोड़ी सी कोई बात हुई नहीं कि सीधे इंटरनेट के पेट में गुदगुदी करने लगते हैं। जो भी सूचना इंटरनेट उगल पाता है उसे ब्रह्मत वाक्य की तरह मानने लगते हैं। 
यदि पेट दर्द हुआ, यदि सीने में दर्द हो रहा है तो इंटरनेट हजारों किस्म की बीमारियों के लक्षणों में आपको उलझा देगा। अब आप तनाव में आ जाते हैं अरे ये क्या हुआ? अब तो मेरी जिं़दगी ख़तरे में हैं आदि। जबकि हम विवेक और वैज्ञानिक चिंतन की बजाए उन्हें ही सच मानने लगते हैं। रातों की नींद ख़राब करने लगते हैं। 
इंटरनेट किसी वयैक्तिक ज़रूरतों को ध्यान में रखकर सूचनाएं संग्रहीत नहीं करता। बल्कि वह वैश्विक स्तर पर ज्ञान और सूचनाओं का सरलीकरण करता है। हर सूचना का अधिकारी वयैक्तिक और सामूहिक दोनों ही स्तरों के हो सकते हैं। यहां ध्यान देने की बात इतनी सी है कि हमें इंटरनेटी सूचना व ज्ञान को हासिल करते वक़्त इतना ख़्याल ज़रूर रखना चाहिए कि कौन सी सूचना व ज्ञान मेरे मकूल और कौन सी त्याज्य है। 
सूचना के विक्रेताओं और बाजार की नज़र ये देखें और डेटा मैनेजर के तौर पर समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि हर सूचना और ग्राहक की ज़रूरतों के अनुसार गढ़ा और बिकाउ बनाया जाता है। जो सूचना बाजार के अनुसार नहीं है उसे बाजार की शर्तां और मांग के अनुसार तैयार किया जाता है। 
आज की तारीख़ में दुनिया गोया डेटा में सिमट कर मुट्ठी में आ चुकी है। दुनिया के किसी भी कोने से किसी भी कोने में हम एक दूसरे की ख़बर ले और दे सकते हैं। यह तो एक काम हुआ। इंटरनेट महज हाल समाचार जानने और देने का माध्यम भर नहीं है बल्कि इसका इस्माल हमें व्यापकतौर पर करना सीखना होगा। मसलन सोशल मीडिया व प्लेटफॉम का प्रयोग क्या हम सिर्फ फोटो, जीपीएस लोकेशन शेयर के लिए ही करें या फिर इसका प्रयोग कुछ और सकारात्मक तौर पर भी हो सकता है इसओर भी हमें ध्यान देने की आवश्यकता है। 
हमारे बच्चे और वयस्क दोनों ही वर्ग सूचनाओं और डेटा का इस्तमाल अपनी जीवन शैली को बेहतर बनाने के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जो भी सूचनाएं व जानकारी हम सोशल मीडिया व प्लेटफॉम पर फेंकते हैं वह फिर हमारी निजी नहीं रह जाती। वे तमाम सूचनाएं सबकी हो जाती है। हाल ही में एक सोशल साइट विवादों में रहा। इसके पीछे सवाल निजता का ही उठा। हम बिना सोचे समझे सोशल साइट्स पर अपनी तमाम कदमों, सांसों की धड़कनों को दर्ज़ कर खुश हो रहे होते हैं कि देखों देखों मैं आज यहां हूं। मैं यह कर रहा हूं। मैं यूं भी हूं आदि आदि। कई बार कोफ्त सी होती है कि क्यों हम अपनी निजी क्षणों को सरेआम करते हैं। क्यों हमें दूसरों को दिखाने व खुश करने में आनंद आता है। 
सूचनाओं और डेटा ने हमारी निजता का जिस कदर प्रभावित किया है उसका अंदाज़ा शायद हम अभी नहीं लगा सकते। लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब हम सोशल मीडिया व प्लेटफॉम पर ही मिला करेंगे। हमारी तमाम निजताएं खत्म हो चुकी हांगी। हमारी ज़िंदगी एक डेटा में तब्दील हो जाएंगी। 
डेटा और सूचनाएं ज़रूरत के हिसाब से देनी और मिलनी चाहिए। जिसकों जितनी ज़रूरत हो उतनी ही सूचना देना बेहतर होता है। यदि आप पात्र के अनुसार सूचना नहीं देते तो वह ओवर फ्लो होने लगेगा। फिर हमें डेटा मैनेजर की आवश्यकता पड़ेगी। सूचनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना ऐसा हमें अपने आप से वायदा करना होगा। तब शायद हम अपनी जिं़दगी बेहतर ढंग से जी सकते हैं। जीवन की हर कड़ी और हर गांठें खोलने के लिए नहीं होतीं। कुछ तो ऐसे कोने होते हैं जो किसी ख़ास के साथ ही खोले जा सकते हैं। उन्हें सरेआम करना कहीं की भी समझदारी नहीं होती। 

Monday, May 28, 2018

पोजिटिविटी को बचाएं तो बचाएं कैसे




कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारी पोजेटिव थॉट और पोजेटिव दुनिया पर हर वक़्त आघात और चोट पहुंचाई जाती है। इसमें हमारा परिवेश, हमारी रोज़दिन की दिनचर्या आदि भी शामिल हैं। इन नेगेटिव आक्रमण से ख़ुद को कैसे बचाएं यह एक बड़ी चुनौतियों में से एक है। हालांकि हमारी अंदर की दुनिया सकारात्मक सोच और चिंतन से लबरेज़ होता है लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता है वैसे वैसे हमारा घर, परिवेश, ऑफिस आदि हमारी पोजेटिव दुनिया पर चोट करने लगते हैं। फर्ज़ कीजिए आप आप सुबह आपने ख़ुद से वायदा किया कि मैं अपने काम को पूरी शिद्दत से करूंगा। कोशिश करूंगा कि तय समय सीमा में पूरा कर लूंगा लेकिन इसी बीच आपका साथी आपको ऑफिस पॉलिटिक्स में उलझा देता है। आपको कल की घटनाओं में घसीटने लगता है। हम बिना सोचे समझे उसकी बातों में रस लेने लगते हैं। बल्कि कहना चाहिए उसके हांक पर चलने और घिसटने लगते हैं। यहीं हमारी ख़ुद की ताकत और आत्म विश्लेषण की क्षमता कमजोर पड़ने लगती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने साथ काम करने वाले की नकारात्मक सोच और काम न करने के बहाने के बुने जाल में फंसते चले जाते हैं। शायद इन्हीं छोटी और पतली गली से हमारे अंदर की सकारात्मक सोच और क्षमता को चोट पहुंचाने का काम शुरू हो जाता है। कई बार हम बिना जाने समझे इस मकड़जाल में उलझते चले जाते हैं। जब पूरी तरह से इसमें फंस जाते हैं। तब एहसास होता है कि यह क्या हुआ? हमें तो अपने आप से किए वायदे पूरे करने थे। हमें तो तय समय सीमा में अपना काम पूरा करना था। देखते ही देखते दिन गुज़र जाता है। और हम अपने तय काम को कल के लिए टाल देते हैं। इस प्रकार से भी किसी और के नकारात्मक सोच और काम न करने की प्रवृत्ति को हम अपना चुके होते हैं।
किसी भी समाज में काम ने करने, नकारात्मक सोच वाले लोगों की कमी नहीं है। दोनो ही किस्म के लोग मिलेंगे। एक वह व्यक्ति जो हमेशा ही चार्ज रहता है। उससे बातें करें, मिलें तो लगता है कैसा व्यक्ति है जब भी मिलो हर वक़्त ऊर्जावान रहता है। हम कह भी देते हैं कि आपसे मिलकर लगता है व्यक्ति कभी भी थक नहीं सकता। आपसे मिलकर लगता है कि तमाम नकारात्मक परिवेश के बावजूद भी काम किया जा सकता है। काम ही क्या अपने अंदर की पोजिटिविटी को बचाया जा सकता है। हां ऐसे पोजेटिव सोच वाले साधारण ही इंसान होते हैं। ठीक हमारी तरह ही। बस यदि कोई अंतर होता है कि तो वह यही कि इस प्रकार के लोग हमेशा नकारात्मक सोच वालों के बीच रह कर भी अपनी सकारात्मक दुनिया को हानि नहीं पहुंचने देते। यह काम कोई ज़्यादा कठिन नहीं है लेकिन चुनौतियों भरा ज़रूर है। क्योंकि मानवीय स्वभाव के अनुसार हमें नकारात्मक सोच, गै़र ज़रूरी गॉशिप अपनी खींचती ही हैं। हमें दूसरे की निंदा करना। शिकायत करना, दूसरों में खोट निकालना में परनिंदा सुख मिला करता है। लेकिन हमें मालूम ही नहीं चलता कि कब हम परनिंदा रस में अपनी दुनिया को शुष्क बना बैठे।
हमारे आप-पास की परिस्थितियां और माहौल कई बार हमारी अंदर की दुनिया का भूगोल कैसा होगा यह तय किया करते हैं। हालांकि इस परिवेशीय दबावों से बचा भी जा सकता है लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि हमें बेहद चौकन्ना रहना होता है। जो हम अक्सर नहीं हो पाते। यही कारण है कि परिवेशीय तनाव, नकारात्मक सोच हमारी सकारात्मक चिंतन पर चोट करने लगती है। ख़ासकर ऑफिस आदि में काफी आम देखा जाता है। एक व्यक्ति या समूह ऐसो होता है जो महज दिन पूरा करने के लिहाज़ से ही आता है। जो हमेशा काम करने वाले व सकारात्मक परिधि में रहने वाले ऊर्जावान समूह को विफल करने की कोशिश करते हैं। निदा फाज़ली का शेर मौजू है कि ‘‘दो चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे’’। पहले समूह वाले हमेशा प्रयास करते हैं कि दूसरे समूह के लोगों पर कैसे अपनी छाप छोड़ी जाए। इस प्रयास में वे कुछ भी करने पर उतारू होते हैं। बस उन्हें उनकी निंदा मंडली में शामिल हो जाएं। वहीं दूसरे समूह के लोगों पर हमेशा ख़तरा रहता है कि कब पहले समूह के लेगों का असर उनपर स्थाई न हो जाए।
सकारात्मक और नकारात्मक िंचतन और सोच के बीच हमेशा से ही रस्सा कस्सी रही है। क्या रामायण और क्या महाभारत। या फिर इतिहास के झरोखे से झांक लें। हमें ऐसी बहुत सी घटनाएं मिलेंगी जहां हम देख सकते हैं कि नकारात्मक चिंतन के लोग इसी जुगत में होते हैं कि कैसे कामगर की क्षमता और आंतरिक ऊर्जा को क्षति पहुंचाई जाएं। इस प्रकार के हमले चारें ओर हेते हैं। क्या परिवार के लोग और क्या समाज हर जगह हमें इस प्रकार के संघर्ष की कहानी दिखाई देगी। हम यदि सचेत नहीं हैं। चौकन्ने नहीं हैं तो हमारी पोजिटिविटी को हमेशा ही ख़तरा रहेगा।

Friday, May 25, 2018

चोला बदलती शिक्षा



कौशलेंद्र प्रपन्न 
शिक्षा जिस तेजी से अपना चोला बदल रही है उस रफ्तार से हमारी चिंतन शैली, विमर्श की गति नहीं बदल रही है। शायद हम शिक्षा के बदलते मिज़ाज को पहचानने में भूल कर रहे हैं। आज भी हम 1990 और 2000 के दशक में ठहर कर शिक्षा को देख और जी रहे हैं। यही कारण है कि हमारे लिए महज बीए, बीएस सी, बी कॉम जैसे पारंपरिक कोर्स ही लुभा रहे हैं। हालांकि अब के बच्चे और अभिभावक भी करवटें तो ले रहे हैं लेकिन शिक्षा के बाजार को समझने में पीछे हैं। क्योंकि यदि बच्चों की परीक्षा की प्रकृति को देखें तो बड़ी तेजी से एक परिवर्तन देखा जा सकता है कि बच्चे मेडिकल, इंजीनियरिंग के अलावा लॉ आदि में भी दिलचस्पी दिखाने लगे हैं। लेकिन यह तेजी और रूचि समय और बाजार की मांग की दृष्टि से समयानुकूल नहीं माना जा सकता। शिक्षा की दुनिया को समझना हो तो कई बार भारत के बाहर नज़रें डालनी पड़ेंगी। जहां शिक्षा महज स्नातक और परास्नातक तक महदूद नहीं रहा। बल्कि शिक्षा पारंपरिक चोले से बाहर निकल कर खेल कूद रही है। 
हर साल गर्मी की छुट्टियों में शिक्षा एक प्रकार से मैला और मेले की ढर्रे पर ढलती नजर आएगी। इधर स्कूलों की छुट्टी हुई नहीं उधर गतिविधियों का बाजार अपना सामान बेचने लगता है। गली गली, मुहल्ला मुहल्ला आपके बच्चे को एक बेहतर और चरफर इंसान बनाने के दावे करने लगता है। उनके तो दावे यह भी होते हैं कि हम आपके बच्चे को एक्टर, डांसर, थिएटर पर्सन और न जाने किन किन निर्माणों के खाब दिखाने लगते हैं। गोया बच्चे न हुए मिट्टी के लोदे हो गए। जो स्कूल साल भर में नहीं गढ़ पाए वे महज एक या डेढ माह में कर दिखाएंगे। हालांकि समय और श्रम पर भी निर्भर करता है कि किस बच्चे में कौन सी क्वालिटी डेवलप की जा सकती है। जो बच्चा एकदम गुम्मा रहता है। मुंह ही नहीं खोलता ऐसे बच्चों के अभिभावक चिंतित रहते हैं कि वह बोलता नहीं। गतिविधियों में भाग नहीं लेता आदि। कैसे भी उनका बच्चा और बच्चों के तर्ज पर शरारतें करने लगे, उसका कम्यूनिकेशन स्कील बेहतर हो जाए। मालूम नहीं यह तो अभिभावक ही बेहतर बता सकते हैं कि इन आधी मई और जून के माह में उनके बच्चों की कितनी ग्रुमिंग हो पाती है। कितनी अपेक्षाएं पाली होंगी और उनमें से कितना और किस प्रकार का परिवर्तन हो सका। जो भी हो आपका बच्चा डांस करना सीख पाए या नहीं लेकिन बाजार ने आपको सपने तो बेच ही दिए। 
एक सवाल यह भी उठता है कि नब्बे के दशक में इस प्रकार की समर कैंपां की बाढ़ नहीं आई थी। बच्चे इन छुट्टियों मौज मस्ती किया करते थे। दादा दादी, नाना-नानी के घर या फिर कहीं घूम-टहल आते थे। तब क्या बच्चों की ग्रुमिंग नहीं होती थी। क्या तब के बच्चे घर-घुस्सा हुआ करते थे? आदि ऐसे सवाल हैं जिनपर हम आज की बलबलाती गतिविधियों के उफान को समझ सकेंगे। ऐसे कत्तई नहीं है कि तब के बच्चों ने अपने जीवन में मकाम नहीं हासिल किया। या वे बच्चे इंट्रोवर्ट रहे गए। यदि ऐसा होता तो हमें बेहतर पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक, सोशल साइंटिस्ट, वक्ता नहीं मिलते। वहीं दूसरी तरफ मसला यह भी है कि क्या बच्चों की सर्वांगीण विकास की जिम्मेदारी स्कूल और शिक्षकों की नहीं होती है? क्या शिक्षक और स्कूल सिर्फ टेक्स्टबुक, करिकूलम आदि को पूरा कराने की जिम्मेदारी के आधार पर अपनी जवाबदेही से बच सकते हैं। क्योंकि शिक्षा का तो एक उद्देश्य और शायद मुख्य उद्देश्य बच्चे को एक सफल और सार्थक नागरिक बनाना है। यदि हमारी स्कूली शिक्षा इस जवाबदेही में पिछड़ती है तो हम कहीं न कहीं प्रकारांतर से बाजार को ऐसी गतिविधियों एवं समर कैंपों को बढ़ावा ही दे रहे हैं। 
हमारे बच्चे सिर्फ समर कैंपों के भरोसे नहीं छोड़े जा सकते। उन्हें इन समर कैंपों के तामझाम से बाहर निकालना होगा। क्योंकि बच्चों की ग्रुमिंग में इस प्रकार गतिविधियों की भूमिका होती है लेकिन इतनी भी नहीं कि वो स्कूली परिवेश पर भारी पड़ने लगे। हमें तो आज नहीं कल अपने स्कूली शिक्षा को ही दुरूस्त करना होगा। विश्व के अन्य कोनों में शिक्षा की बेहतरी के लिए क्या क्या और कौन से कदम उठाए जा रहे हैं उन्हें संज्ञान में लाना होगा। शायद यही वजह रही हो और थी भी कि समय समय पर शैक्षिक समझ बनाने के लिए शिक्षाकर्मी, शिक्षक, मंत्री आदि विदेशों का दौरा करते हैं ताकि वहां की शिक्षा और स्कूली तंत्र को समझा जा सके और उसे भारतीय परिवेश में मुकम्मल कैसे बनाया जाए इसपर एक रोड़मैप बनाया जाए। लेकिन क्या हक़ीकत से हम मुंह फेर सकते हैं कि इस प्रकार की शैक्षिक यात्राएं शैक्षिक-समझ से ज़्यादा व्यक्तिगत विकास और ग्रुमिंग में जाया हो जाता है। दिल्ली सरकार ने यही कोई तीन साल पहले पूरी दिल्ली के सरकारी स्कूलों से छांटकर 200 मेंटोर शिक्षक का दल बनाया था। उनमें से कुछ को बाहर भी ले जाया गया। ताकि दिल्ली के सरकारी स्कूलों की स्थिति को बेहतर बनाई जा सके। उस प्रोजक्ट का क्या हुआ? क्या हुआ उन तमाम कार्यशालाओं का जिसपर लाखों रुपए खर्च किए जा चुके। शिक्षा में पैसे खर्च करने को हर कोई तैयार है बस कमी इस बात की है कि हमारे पास काम करने ललक, क्षमता, दक्षता, टाइम मैनेजमेंट और समय पर अपने लक्ष्य को पाने की तड़प नहीं है। 

Thursday, May 24, 2018

हक़ीकत ए तालीम




आज की तारीख़ में उपयुक्त कैडिडेट पाना बेहद चुनौतियों भरा काम है। यदि आप बाजार में बेहद कैडिडेट की तलाश कर रहे हैं तो महज डिग्रीधारियों से आपका काम नहीं चलने वाला। डिग्रियां सभी के पास हैं। कोई नेट, पीएचडी, तो कोई एम एड भी हैं। लेकिन जब हक़ीकत से रू ब रू होते हैं तब घोर निराशा होती है। क्योंकि डिग्री तो है लेकिन डिग्री के अनुरूप उनके पास न तो समझ है और न ही अपेक्षित योग्यता। कहने को पोस्ट ग्रेजुएट हैं। प्रशिक्षकीय डिग्री भी हासिल की हुई है। जब आप ऐसे कैडिडेट की प्रोफाइल से गुज़रते हैं तो एक उम्मीद बंधती है कि कम से कम एक तो ऐसा प्रतिभागी मिला जो आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा है। लेकिन जब उससे बातचीत करते हैं, कुछ गहरे में उतरते हैं तब हैरानी इस बात की होती है कि डिग्री अपनी जगह है और विषयी समझ बिल्कुल दूसरे छोर पर है। तब कई बार चिल्लाने का मन करेगा कि यह कैसी पढ़ाई है? कैसी तालीम दी जा रही है जिसमें डिग्रियां तो दी जा रही है किन्तु तद् तद् डिग्री के स्तरीय ज्ञान और समझ नहीं है। मालूम हो कि दिल्ली विश्ववद्यिलय में बीए या एम ए जिस खर्च हो जाते हैं उससे कम से कम चार गुणा अधिक खर्च पर निजी कॉलेज और विश्वविद्यालय में इन्हीं डिग्रियों को हासिल करने के लिए हमारे आज के युवा भीड़ लगा कर खड़े हैं। कहीं भी योग्यता और समझ की चिंता नज़र नहीं आती। 
हाल ही में विभिन्न पोस्ट के लिए कैंडिडेट के इंटरव्यू में बैठने का मौका मिला। बॉयोडेटा क्या ही बेहतरीन तरीके से बनाए गए थे। बॉयोडेटा को अच्छे से मैनेज कर और प्रेजेंटेबल भी बनाया गया था। जिसमें तमाम डिग्रियां, डिप्लोमा, विभिन्न सेमिनारों, वर्कशॉपों की लंबी सूची बनाई गई थी। उन बॉयोडेटा में कई तरह की हॉबी का भी ज़िक्र था। प्रसन्नता इस बात की थी कि कम से कम संस्थान को एक योग्य और सही कैंडिडेट मिल सकेगा। जो आगे चल कर संस्थान के मिशन, विज़न, और लक्ष्य को हासिल करने में अपनी समझ और योग्यता का इस्तमाल करेंगे। लेकिन जब बातचीत का सिलसिला निकला तो एक एक कर पिछड़ते चले गए। मुझे उनके पिछड़ने का दुख जितना नहीं था उससे कहीं ज़्यादा उनके पिछड़ने की वज़हों की पहचान कर कोफ्त से भर रहा था। अफ्सोस इस बात का था कि जिन कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की पहचान अपनी शैक्षिक गुणवत्ता के लिए था वहां से ऐसे ऐसे छात्र बाजार में आ रहे हैं। ताज्जुब तो इस पर हुआ जब उनकी आंखों में इसका इल्म भी नहीं दिखा कि उन्हें दुख है कि जवाब नहीं दे पा रहे हैं। उन्हें इस बात का अंदाज़ा तक नहीं लगा कि जो सवाल उनके पूछे जा रहे हैं उसे वे समझ भी नहीं पा रहे हैं। साहित्य में भाषा व शब्द की तीन ताकतों की चर्चा होती है- अभिधा, व्यंजना और लक्षणा। वे प्रतिभागी इन तीनों की भाषायी जादू से बेख़बर थे। जबकि वे जिन पोस्ट के लिए आए थे वह भाषा विशेषज्ञ के लिए ही था। 
यदि आप शिक्षा जगत में है। उसमें भी स्कूली शिक्षा से आपका साबका रहा है तो आपसे इतनी तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि आपने नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क का नाम सुना हो, आपने कभी भूलवश ही सही इस एनसीएफ को उलट पलट कर देखा हो, या फिर कहीं किसी से चर्चा सुनी हो या फिर अख़बारों, पत्रिकाओं में आलेख ही पढ़े हों। यदि आपने इंटरव्यू बोर्ड इसकी उम्मीद रखता है कि आपको एनसीएफ के बारे में मालूम होना चाहिए तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन कुछ उत्तरों को पढ़ और सुनकर शिक्षण प्रोफेशन से ही विश्वास उठने सा लगा। सुबह उठकर अपने बड़ों का प्रणाम करना चाहिए, पैर छूना चाहिए, स्कूल नहा धोकर जाना चाहिए यह एनसीएफ भाषा-शिक्षण संबंधी सिफारिफ करता है। शिक्षा से जुड़े किसी भी व्यक्ति को इन उत्तरों पर हंसी से ज़्यादा उन संस्थानों से शिकायत होगी जहां से ऐसी समझ लेकर बच्चे बाजार में आ रहे हैं। 
दरअसल शैक्षिक संस्थान भी आज की तारीख़ में महज बाजार को तवज्जो देते हुए कोर्स और कोर्स के खेवनहारों को रखते हैं। जहां की फैकेल्टी स्वयं डिमोटिवेटेड होगी, ख़ुद ने कभी शोध पत्र न लिखे हों, जिनकी ख़ुद की स्कूली समझ पतली है वे किस प्रकार की शैक्षिक समझ बच्चों में संक्रमित करेंग इसका अनुमान लगाना ज़रा भी कठिन कठिन नहीं है। जब से बहुवैकल्पिक सवालों और परीक्षा का ढर्रा निकल और चल पड़ा है तब से विषयनिष्ठ समझ दूर की कौड़ी होती गई है। भाषा और शिक्षा शास्त्र में तो और स्थितियां चिंताजनक होती गई है। बच्चों को पांच वाक्य लिखने को दिया जाए तो उसमें साठ से सत्तर फीसदी ग़लतियां मिलेंगी जो व्याकरण और वर्तनी की दृष्टि से उचित नहीं है। वहीं तथ्य और समझ के स्तर पर भी उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

Wednesday, May 23, 2018

घरों में हो एक रोआन घर...




कौशलेंद्र प्रपन्न 
नागार्जुन ने कभी लिखा था, ‘‘कालिदास सच सच बतलाना तुम रोए थे या अज रोया था?’’ वहीं प्रसिद्ध उपन्यासकार,कवि और लेखक अज्ञेय ने अपनी कालजयी कृति शेखर एक जीवनी में लिखा है, पुरूष कितना दुर्भागा है कि वह रो भी नहीं सकता। मनोविज्ञान और व्यवहारवादी मानते हैं कि रोने से न केवल मन हल्का होता है बल्कि मस्तिष्क की तंतुएं खुलती हैं। वहीं कथा सम्राट प्रेमंचद ने भी रोने को पाक माना है और लिखते हैं कि रोने से मन प्रच्छालित हो जाता है। वह प्रायश्चित का महज साधन भी है। मनोविज्ञान ख़ासकर रोने की प्रक्रिया को मनुष्य के सहज प्रवृति में शामिल करता है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पाएंगे कि जब भी किसी को रोते हुए देखते हैं तो कहीं न कहीं हमारा मन भी द्रवित हो जाता है। हम नहीं चाहते कि कोई रोए। यदि हम गैर करें तो हमारा समाजिकरण ऐसा होता है कि किसी भी लड़के या पुरूष को रोते हुए देखते हैं तो छूटते कह देते हैं क्या लड़कियों की तरह या स्त्री की तरह रो रहे हो। मर्द हो मर्द रोते नहीं। यह समाजिकरण कम से कम पुरूषों के साथ ताउम्र साथ रहता है। पुरूष चाहकर भी या कितना भी दुखी हो वह खुल कर रो नहीं सकता। वह कभी फफक फफक कर या फूट फूट कर रो नहीं पाता। यही कारण है कि पुरूष अंदर ही अंदर टूटने लगता है। वहीं महिलाएं रो कर अपना मन शांत कर लेती हैं और पुरूष शांत होकर भी अंदर से बेइंतेहां रो रहा होता है। पुरूष हमेशा ही अपने लोर को छुपाता है। कहीं भीतर से ढह रहा होता है लेकिन समाजिकरण उसे रोने नहीं देती। 
यदि आप रो नहीं सकते तो अंदर से टूटने लगते हैं। मनोविज्ञान तो यहां तक मानता है कि मनोचिकित्सा में रोने, बिलखने जैसे प्रक्रियाएं आम होती हैं। व्यक्ति लंबे समय से कोई दर्द, कोई टीस दबा कर जी रहा होता है। जब सही वक़्त मिलता है तो वह खुलकर और बेझिझक रोने लगता है। आज की तारीख़ में कोई भी ऐसा नहीं है जो तनाव में नहीं है। किसी भी लाइफ ऐसी नहीं है तो दर्द और कंफ्लिक्ट से परे है। ऐसे में व्यक्ति रोता है। रोता तब है कि वह अंदर से बिल्कुल टूट जाता है। लेकिन रोने को इतना कमतर या नीची नज़र से क्यों देखा जाता है। इसके पीछे बच्चों का सामाजिकरण मूल कारण है। बच्चे बचपन से ही घर और स्कूल, दोस्तों और परिवार में यही सुनते हुए बड़े होते हैं कि रोते नहीं। रोने वाले कमजोर होते हैं आदि। 
यदि हम इतिहास में झांकें तो बड़े-बड़े महलों में रानियों के लिए एक कोपभवन होता था। उस कोपभवन का प्रयोग रानियां तब इस्तमाल करती थीं जब दुखी होती थीं। जब उदास होती थीं। या जब राजा से रूस जाती थीं। उस कोप भवन में रानियां उदास या तो रोती रहती थीं या फिर ग़मज़दा पड़ी रहती थीं। मेरा तो मानना है कि जब घर बनाया जाए तो जैसे देवता घर बनाया जाता है। जैसे रसोई घर बनाया जाता है। जैसे नहान घर बनाया जाता है। कितना अच्छा हो कि घर में एक रोआन घर भी बनाया जाए। जिसे जब रोने की ज़रूरत महसूस हो तो वहां जाकर रो आए। हल्का हो जाए। रोना और रूठना, उदास होना मानवीय स्वभाव का हिस्सा है। रोने का मन करे या दुखी हों तो रो लेने में हर्ज़ नहीं है। लेकिन यह दिक्कतें तब पैदा करता है जब आप रोने को आदत में शामिल कर लेते हैं। रेने को आदत न बनाएं बल्कि मन हल्का करने के लिए प्रयोग करें। रोएं तब जब नितांत ज़रूरी हो। हर वक़्त रोना अच्छा नहीं होता। क्योंकि इसी समाज ऐसे रायबहादुर भी हैं जो आपके रोने का सबब जानकर आपका इस्तमाल करने से पीछे नहीं रहेंगे। सहानुभूति के बोल और स्पर्श के चक्कर में आप अपना सब कुछ लुटा देते हैं। 
इतिहास और मानवीय विकास की कहानी बताती है कि आंसूओं को हथियार भी बनाया गया है। इस कर्म में महिलाएं शायद एक कदम आगे हैं। माफी के साथ कहना पड़ रहा है कि कई बार महिलाएं आंसू और रूलाई का इस्तमाल घर में कलह और फसाद पैदा कराने में भी करती हैं। पत्नी का रोना या लोर से भर जाना घर की सुख शांति को खत्म भी कर देती है। इसलिए इस आंसू और रूदन का प्रयोग ग़लत दिशा में ले जाने से बचना प्रकारांतर से रोते हुए के प्रति सहानुभूति बरकरार रखने मे ंहम मदद ही करते हैं। 
जब किसी आदमी को रोते देखते हैं तो वह कम से कम मेरे लिए एक विदारक स्थिति होती है। उसमें भी जब आप किसी आदमी को वो भी उम्रदराज़ को रोते हुए देखना बहुत कष्टदायी होता है। मनोविश्लेषण में माना जाता है कि जब व्यक्ति अपनी पुरानी घटनाओं और अतीत में जाता है तब उसे बहुत सी ऐसी बातें छूने लगती हैं, याद आती हैं जहां तब तो वह रो नहीं सका लेकिन आज जब मौका मिला तो रोकर मन हल्का कर लेता है। रोते सिर्फ कहानी, उपन्यास, कविता के पात्र ही नहीं हैं बल्कि आम मनुष्य रोते हैं जिसकी सुबकी हमें साहित्य में सुनाई देती है। रोने और आंसू को हथियार बनाने से बचना और खुल कर रोना दोनों ही बातें हमारी लाइफ का हिस्सा हैं। 

Tuesday, May 22, 2018

मुलाकातें जो याद रह जाती हैं




मुलाकातें अक्सर वही याद रह जाती हैं जो सुखद होती हैं। कई बार दुखद मुलाकातें भी भूली नहीं जातीं। दूसरें शब्दों में कहें तो हम सामाजिक होने के नाते अपने जीवन में बल्कि रेज़ भी कई लोगों से मिला करते हैंं। उनमें से कुछ नाम और चेहरे यादगार बन जाते हैं। पिछले दिनों प्रसिद्ध कवि और संपादक अरूण शेतांश से मिलना हुआ। वजह तो कुछ और रही होगी लेकिन दिल्ली में इनसे मिलना पहली दफ़ा हुआ। दिल्ली में ही क्या शायद लाइफ में पहली बार मिले। हालांकि इनसे बातचीत फोन पर तो कई बार हुआ। इनकी रचनाओं से गुजरना भी कई बार रहा। जो कहीं न कहीं मिलने की तड़प को हवा देती रहीं। आख़िरकार अरूण जी की कविताओं से रू ब रू हो सका जो कहीं न कहीं स्मृतियों में दर्ज़ हो गईं। ‘‘वैसी नदी बची है देश में? सिका साफ जल पी सकूं भर पेट अंजूरी से उठा कर...’’ जिस तरह के बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग इस कविता में है वह बेहद मौजू और प्रासंगिक है। इस मुलाकात में न केवल कविता पर चर्चा हुई बल्कि साहित्य और साहित्यकारों के रवैया, हिन्दी और साहित्यकारों की जिम्मेदारी पर भी विमर्श हुआ। 
ऐसे ही चलते फिरते भी हम कई लोगों से मिला करते हैं। किसी का चेहरा ही काफी होता है मुलाकात के वक़्त को कम करने के लिए। तो कुछ के बात करने के अंदाज़ और शैली बेहद ऊब पैदा करती हैं। इच्छा तो यहां तक होती है कि कैसे यह पल और जल्द सिमट जाए। कब इनसे छुटकारा मिले आदि। जब एक मुलाकाती व्यक्ति महज अपनी प्रसिद्धी, उपलब्धियों का गिनाने लगता है तब शायद घोर निराशा होती है कि क्या यह मुलाकात सच में मिलने के लिए है या उपलब्धियों को दर्ज़ कराने और अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए है। ऐसे में आत्मप्रशंसा के तत्व मुलाकात को कमतर कर देता है। यदि प्रसिद्धी है तो, उपलब्धि है तो वह ख़दु बोला करती है। उसी ख़ुद ही बोलने दीजिए बजाए कि आपको बोलना पड़े। कई बार आप भी ऐसे लोगों से मिले होंगे जिनसे दुबारा मिलने से पहले हज़ार बार सोचा करते हैं कि उफ!!! दुबारा उनकी सारी कहानी सुननी पड़ेगी। दुबारा जनाब बताएंगे कि कैसे फलां सम्मेलन, पुरस्कार में उन्हें तालियां मिली थीं। कैसे किसने उनके लिए शब्दों की लड़ियां लगाई थीं आदि। ऐसे में सुनने वाला बचता है। 
मुलाकातें कई बार इतनी गहरी होती हैं कि जिन्हें बार बार याद कर सुखद एहसास से भर जाते हैं। पिछले दिनों ऐसी ही मुलाकात बुर्ज़ ख़लिफा में शालीग्राम से मिलकर हुआ। लाइन में खड़ खड़े यूं ही बातचीत का सिलसिला निकल पड़ा और उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे आज भी हिन्दी और भोजपुरी को बचाए हुए हैं। उनके साथ खड़ा उनका पंद्रह वर्षीय लड़का न तो हिन्दी बोल-समझ सकता था और अंग्रेजी। वह सिर्फ फ्रैच बोल-समझ सकता था। उन्होंने बताया कि उनकी तीसरी पीढ़ी भारत से माइग्रेट कर गई थी। लेकिन आज भी उन्हें भारत से लगाव है। हिन्दी और भोजपुरी से जुड़ाव महसूस किया करते हैं। उस मुलाकात में देश दुनिया की बात हुई। बात हुई भारतीय संस्कृति की। वो तो चाहते हैं उनका बच्चा भारतीय संस्कृति को जाने समझे लेकिन वो लाचार हैं। ऐसी ही एक और मुलाकात लेह में हुई। जगह भी सार्वजनिक कॉफी शॉप। बातों बातों में मालूम चला वो जनाब स्टेनजिन नेशनल स्कील इंडिया के नेशनल निदेशक हैं। बातों से ही तो हम किसी के बारे में जान पाते हैं। पहचान की एक कड़ी कभी तो खोलनी ही पड़ती है। हालांकि सार्वजनिक स्थानों, रेल, मेट्रो आदि में घोषणा की जाती है कि अपरिचितों से बात न करें। उनका दिया खाना न खाएं आदि। हालांकि सच है यह भी कि ऐसी कई घटनाएं हुईं हैं जिसमें हमें नुकसान भी उठाने पड़े हैं। लेकिन इस हक़ीकत से मुंह नहीं फेर सकते कि इन्हीं अपरिचितों में कुछ रिश्ते भी गहरे बन जाते हैं। 
कहने को तो पूरा विश्व ही परिवार हो चुका है। हर घर, हर देश हमारा घर है। लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। हम अपने ही बनाए औरे में रहा करते हैं। हम खुलेंगे नही ंतो जुड़ेंगे कैसे। जब जुड़ेंगे नहीं तो वैश्विक परिवार में शामिल कैसे होंगे। आज हम ग्लोबल गांव के नागरिक हो चुके हैं। हमें वैसे ही बरतने भी हांेगे। एक दूसरे की संस्कृति, भाषा, बोली, संगीत आदि के साथ ही व्यक्ति को भी स्वीकार करने होंगे। यह तज़र्बा भी मजेदार रहा कि कुछ पाकिस्तानी परिवारों से भी मुलाकात हुई। वे रावलपिंड़ी के रहने वाले थे। जावेद की पत्नी ने पूछा भारत में आपका क्या रूटीन होता है? आपकी पत्नी ऑफिस जाती है? घर में कौन कौन हैं आदि। उनके सवालों में कई गिरहें थीं। जिन्हें वे समझना चाहती थीं। हमारे बारे में मीडिया और राजनेता से हटकर समझने की ललक थी। 
अरूण जी से ही यह मुलाकाती कहानी शुरू हुई थी। क्यों न उन्हीं पर खत्म की जाए। उनसे यदि कोई रिश्ता था तो वह मानवीय मूल्यों, साहित्य के दरकार और क्योंकि वे भी संवेदनशील रचनाकार हैं जिनकी बदौलत हम मिले। पहली बार मिले लेकिन एक पल के लिए भी यह एहसास नहीं हुआ कि यह हमारी पहली मुलाकात थी। आप भी कई लोगों से मिलते हैं। बल्कि मिलेंगे। मिलिए और मुलाकात यादगार ज़रूर बनाएं।   

Monday, May 21, 2018

हांजीमल और नाजीमल




कहानी कोई नई नहीं है। हम सब इस कहानी के पात्र, घटना, परिवेश में शामिल हो सकते हैं। ये कहानी ही ऐसी है। आज ज़िंदगी में हमने ऐसे कई पात्रों को देखा और सुना है। जो हमेशा ही हां जी हां जी किया करते हैं। बेशक वो आगे जाकर पीछे हट जाएं। लेकिन मुंह पर हरदम उनके हां जी ही हुआ करता है। कुछ समय के लिए यह शब्द सुनना बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जब उनके हां जी और व्यवहार में दिखाई नहीं देता तब दुख होता है। तब हैरानी होती है। हमें महसूस होता है कि बेहतर था कि वह पहले ही ना कह देता। लेकिन ऐसे लोगों की आदत हो जाती है हर किसी के सामने और हर परिस्थिति में महज खुश करने के लिए उनके जबान पर हां ही होता है। ऐसे लोग बहुत जल्द पहचान भी लिए जाते हैं कि यह हां तो कह रहा है लेकिन अपनी जबान पर कायम रहेगा इसमें शक है। ऐसे लोगों पर हमेशा ही शंका के बादल बने रहते हैं। क्या नाते रिश्तेदार और क्या दोस्त या दफ्तर हर जगह ऐसे लोग बेहद चर्चित होते हैं। वहीं दूसरे किस्म के वे लोग हैं जिनके जबान पर हमेशा ही ना होता है। इन्हें आप ना जी कह सकते हैं। इससे पहले की प्रयास किया जाए। इससे पहले कि प्रयत्न किया जाए। वे छूटते ही कहते हैं ना जी यह तो न हो पाएगा। इनमें तो बहुत दिक्कत है। बहुत मुश्किल है। ऐसे लोग प्रयास करने से डरते हैं। बल्कि आप कह सकते हैं ऐसे लोग हर चीज, हर कोशिश और हर पहलकदमी को पहले पहल नकारात्मक नज़रे से देखने के आदि हो चुके होते हैं। ऐसे लोगों के साथ काम करना, योजना बनाना बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि ये लोग थोड़ी देर के लिए ठहर कर सोचने और संभावनाओं की तलाश करने की बजाए रिटेलिएट करने में विश्वास करते हैं। इस किस्म के लोग भी घर-परिवार, दफ्तर, यार-दोस्तों की मंडली में मिल जाएंगे। ना जी मल ऐसे मनोदशा के होते हैं जिन्हें समझाना बेहद कठिन होता है। उन्हें सकारात्मक कदम उठाने में डर लगता हैं। बल्कि कह सकते हैं कि ऐसे लोगों में चुनौतियां स्वीकार करने में डर लगता है। ये लेग एक बने बनाए कंफर्ट जोन में रहना पसंद करते हैं। 
आपके आस-पास उक्त दोनों ही तरह के यार-दोस्त, सहकर्मी, रिश्तेदार ज़रूर होंगे। जिनके साथ रिश्ता निभाना बेहद कठिन होता है। यह तो बात हुई रिश्तेदारी की। दोस्ती निभाने की। लेकिन फ़र्ज कीजिए नाजी माल और हांजी मल आपके दफ्तर में भी हैं तो उनके साथ काम करना कितना कठिन होता है। इसके भुक्तभोगी होंगे आप। हांजी मल और नाजी मल दोनों की दो स्टी्रम स्थितियों में जीने वाले जीव है। इन्हें बीच का रास्ता दिखाई नहीं देता। इन्हें नई सोच, नए बदलाव, नई जिम्मेदारियों के बीच समायोजन स्थापित करने में डर लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों ही किस्म के लोग अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने में तेज होते हैं। उन्हें मालूम है उनके इस बरताव की वजह से उन्हें कोई नए प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं बनाया जाता। उन्हें कोई नई जिम्मेदारी सौंपने से पहले मैनेजमेंट हज़ार बार सोचती है। क्योंकि उनकी आदतों से मैनेजर और संस्थान का हेड भी बखूबी वाकिफ होता है। उन्हें पता हेता है कि उसके हां में कहीं न कहीं न छुपा है जो स्पष्ट नहीं है। 
अगर ठहर कर विचार करें तो पाएंगे कि हांजी मल और नाजी मल जैसे मनोदशा व प्रवृत्तियों वाले लोगों से न केवल कंपनी, प्रोजेक्ट , संस्थान आदि को भारी नुकसारन उठाना पड़ता है। बल्कि कई बार रिश्तेदारी और दोस्तों में भी एक फांक पैदा करने में ऐसे लोग अहम भूमिका निभाते हैं। इनकी मनोरचना को बदलने के लिए यदि मैनेजमेंट प्रयास करे तो एक सूखे बांस की तरह तन जाते हैं। टूटना कबूल होता है। मगर झुकने में इन्हें परेशानी होती है। क्योंकि इन्होंने झुकना शायद सीखा ही नहीं। शायद यह मसला अपब्रिंगिं की भी है। इसे आप समाजीकरण कह सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति की पूरी स्कूलिंग ऐसे ही नकारात्मक व जिम्मेदारी से परे रहने में हुई है तो वह उसके स्थाई स्वभाव का अंग हो जाता है। वह उसे चाह कर भी जल्दी ठीक नहीं कर पाता। वह चाहता तो है कि समायोजन स्थापित करे। लेकिन उसकी लंबे समय की ना कहने की आदत भारी पड़ती है। यह कुछ कुछ ऐसा ही है कि जिसे झूठ बोलने की आदत है वह कई बार बल्कि जानते हुए भी कि इस झूठ की आवश्यकता नहीं है मगर आदतन बोलता है। उसे मालूम होता है कि इस झूठ से उसका कोई ख़ास फायदा तो नहीं होगा मगर बोलने से रूका नहीं पाता। सो नाजी मल और हांजी मल जैसे लोगों के साथ भी कई बार ऐसी ही स्थितियां होती हैं। जो भी हो यदि कोई चीज, व्यवहार पसंद नहीं तो हां या ना स्पष्टता और दृढ़ता के साथ कहने का माद्दा होना चाहिए। क्योंकि इस ना से शुरू में तो किसी की नज़रों में खटक सकते हैं लेकिन दूरगामी प्रभाव देनों के लिए बेहतर होता है। हां या ना कहना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि किन हालातों और किनके बीच हां जी और ना जी कह रहे हैं यह ख़ास मायने रखता है। 

Thursday, May 17, 2018

यूं चले जाना




मैथिली शरण गुप्त अपनी प्रसिद्ध काव्य रचना में यशोधरा की मन की बात लिखते हैं, जब गौतम बुद्ध बिना बताए रातों रात अपने बच्चे और पत्नी को छोड़ कर प्रस्थान कर जाते हैं। यशोधरा कहती है, सखी वे मुझसे कह कर जाते....जो तुम एक बार कहते हैं मैं क्षत्राणी स्वयं आरती उतार कर तुम्हें विदा करती। लेकिन तुम बिन बताए, बिना कहे, चोरों की तरह चले गए। यदि इस काव्य रचना को पढ़ें तो जीवन और व्यहार की कई सारी मानवीय संवेदना की परते खुलती चली जाती हैं। यदि हम अपने आस-पास नज़र डालें तो पाएंगे कि कई सारे लोग ऐसे होते हैं जो बिना बताए रातों रात शहर, कस्बे, कंपनी, दफ्तर आदि से दूर चले जाते हैं। वजहें कई हो सकती हैंं। उन्होंने क्यों नहीं बताया, मन में क्या था? आदि ऐसी गांठें हैं जिन्हें वे स्वयं ही खोल सकते थे। मगर अब वो हमारे बीच नहीं रहा करते। लेकिन कंपनी के एचआर और अधिकारी को सब मालूम होता है। क्यों कोई व्यक्ति रातों रात चला गया। या जाने को कहा गया। यह जाने और कहने पर जाने में बहुत बारीक अंतर है। जिसे ठहर कर समझने और महसूसने पर जाने के पीछे की कहानी समझ में आती है। जो भी हो जाने वाले के लिए हमेशा ही एक साफ्ट कॉरनर होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि कौन, किस पस्थिति में गया। इसका सही सही भूगोल और निहितार्थ की परतें वही खोल सकता था। 
यदि समाज में देखें तो रेज़दिन हज़ारों की नौकरियां लगा करती हैं और हज़ारों के लिए रिटायरमेंट का दिन भी होता है। अवकाश प्राप्ति के दिन सरकारी नौकरियों में तो नियुक्ति के दिन ही तय कर दिए जाते हैं। व्यक्ति को मालूम होता है कि किस दिन, किस तारीख को उसे नौकरी से मुक्ति मिलेगी। लेकिन निजी कंपनियों की नौकरी में ज्वाइंनिंग और रिटायरमेंट की कोई तारीख़ पहले से मुकरर्र नहीं होती। निजी कंपनियों,संस्थानों आदि में सरकारी रिटायरमेंट की आयु सीमा से बाहर जाकर लोगों को हायर और फायर भी किया जाता है। हायर और फायर की प्रक्रिया में डिग्री, अनुभव उम्र से ज़्यादा यह देखी जाती है कि किस व्यक्ति में नई चुनौतियों को स्वीकार करने, उसे दुरूस्त करने, टीम को सही दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करने और कंपनी या संस्था को नई ऊंचाई तक ले जाने की क्षमता और दक्षता है या नहीं। वह व्यक्ति उम्र में छोटा या बड़ा भी हो सकता है। सिर्फ इस बात को तवज्जो दी जाती है कि किसमें दूर दृष्टि, रणनीति बनाने, एक्जीक्यूट करने और प्रोजेक्ट को सफल बनाने की क्षमता और प्रवीणता है। 
हमारे बीच से कई बार ऐसे लोग, ऐसी रिश्ते नदारत हो जाते हैं जैसे वे कभी हमारे कंसर्न एरिया में थे ही नहीं। गोया वो रिश्ता हमारे लिए एक सिरे से गायब हो गया। जैसे वो कभी हमारे बीच था ही नहीं। लेकिन कोई भी व्यक्ति या रिश्ते अचानक यूं ही हमारे बीच से खत्म नहीं हो जाते। बल्कि दूर जाने, भूल जाने की प्रक्रिया दो स्तरों पर चल रही होती हैं। एक अंतर और दूसरा बाह्य। अंतर जगत में क्या चल रहा है इसका अनुमान लगाना ज़रा कठिन है। क्योंकि हर किसी की अपनी अंतर दुनिया हैं जहां वो निपट अकेला होता है। कोई रिश्तेदार, भाई-बहन, दोस्त कोई भी साथ नहीं होता। उसे ख़ ुद ही निर्णय लेने होते हैं। उन निर्णयों के लिए खुद ही जिम्मेदार होना होता है। बस रिश्तेदार या भाई-बहन महज राय दे सकते हैं किन्तु उसका ख़मियाज़ा व्यक्ति को स्वयं ही भुगतना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर बाह्य स्तर पर जिस प्रकार की गतिविधियां चलती हैं उसका तो कभी कभी अनुमान लगाना कठिन नहीं है। लेकिन बाह्य परिस्थितियां कई बार हमारी ही भूलों, चूकों, ख़ामियों से भी संचालित होती हैं। जिसे नियंत्रण में लाया तो जा सकता है लेकिन ज़रा कठिन है। क्योंकि हम अपने कंफर्ट जोन से बाहर नहीं आना चाहते। हम अपनी पूर्वग्रह को बरकरार ही रखना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, हम अपनी कार्य शैली, सोच, विजन में रद्दो बदल के लिए तैयार नहीं होते। 
कंपनी व्यक्ति से नहीं बल्कि मिशन और विज़न से चला करती है। कई बार कंपनी व्यक्ति से और व्यक्ति कंपनी से पहचाना जाता है। वह इसलिए क्योंकि नेता (मैनेजर, निदेशक आदि) हमेशा अपनी स्पष्टता और चिंतन की व्यापकता के आधार पर व्यक्तिगत जीवन और कर्म क्षेत्र में सफल हो पाता है। महज़ फ़र्ज कीजिए यदि नेता स्वयं ही उलझा हो, विचार और दिशा की स्पष्टता ही नहीं है तो वह हमेशा ही दिग्भ्रमित दिखाई देगा और औरों को भी भ्रम में रखेगा। इसका ख़मियाजा कंपनी या फिर कई बार परिवार, दोस्तों आदि को भुगतना होता है। 

Tuesday, May 15, 2018

नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा...




कौशलेंद्र प्रपन्न 
वाट इज़ देयर इन द नेम...हिन्दी में कहें तो नाम में क्या रखा है? इन्हीं भावदशाओं और दर्शनों की करीब से पहचानते इस गीत की पंक्तियों को सुनें तो कई कहानियां एक के बाद उभरती चली जाएंगी। उन कहानियों के मज़मून बेशक अगल होंगे लेकिन कथ्य तकरीबन एक सा मिलेगा। कई बार हम व्यक्ति के नाम भूल जाते हैं लेकिन चेहरा देखते ही उसके साथ बिताए पल याद आने लगती हैं। वहीं कुछ के चेहरे सामने भी आए जाएं तो उस व्यक्ति का नाम याद नहीं कर पाते। दरअसल हम उन्हीं चेहरों, नामों को भूल जाते हैं याद याद रखते हैं जिनके साथ या तो सुखद पल गुजारे हैं या फिर जिन्हें याद कर आज को भी खट्टा कर लेते हैं। एक बाद के लिए आज पर अतीत चढ़ने लगता है। ऐसे में हम उन्हें ही याद रखना व मिलने की चाह रखते हैं जिनके साथ हमें सच में खुशी व प्रसन्नता मिलती। वह पल बेशक बेहद अल्पायु वाला ही क्यों न हो। नाम बार बार याद करने के बावजूद भी इस लिए भूल जाते हैं क्योंकि हमारी स्मृतियां उन्हीं सूचनाओं, नामों स्थानों आदि का याद रख पाने में सक्षम होती हैं जिनके साथ हमारी स्मृतियों मजबूत हुआ करती हैं।
नाम बदलने, स्थान बदलने और तस्वीरें बदल देने से कोई व्यक्ति व संस्था अपनी मूल प्रकृति नहीं बदल पाती। बल्कि आम जन की स्मृतियों में बसी यादों, एहसासातों और सपनों को हम नहीं धो सकते। कोई शहर अपना नाम हज़ार बार बदल ले। कोई व्यक्ति अपना नाम कोर्ट के द्वारा अपना नाम बदल ले लेकिन वह अपनों के लिए वही पप्पु, संजय, बबुआ और न जाने क्या क्या ही रहता है। ठीक वैसे ही आप या कि हम किसी भी ख़ास मकसद से किसी शहर, नगर,डगर का नाम बदल दें लेकिन पुरानी स्मृतियों में दर्ज़ नाम ही जबान पर आते हैं। 
हाल में कहें या फिर पहले भी डगरों, नगरों के नाम बदलें का फैशन चला था। वह फैशन था या कि दलगत हित लेकिन डगरों, नगरां, स्थानों के नाम धड़ाधड़ बदले गए। कनॉट प्लेस का राजीव चौक हो जाना, मुगलशराय का दीनदयाल उपाध्याय नगर हो जाना, अकबर रोड़ रातों रात महाराणा प्रताप में तब्दील हो जाना कई बार हैरान करती हैं। हम एक सड़क, पुल, गली, दफ्तर तो रातों रात नहीं बदल पाते। इसमें कई अड़चनें आती हैं लेकिन कैसे तुरत फुरत में हम डगरों, नगरों, चौराहों के नामों की तख़्तीयां बदल दिया करते हैं। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं होती। पिछले माह रामनवमी के ठीक आस-पास कई बड़े बड़े और प्रमुख स्थानों के साइन बोर्ड पर ‘‘राम राम’’ चस्पा कर दिए गए। किसने किया? कौन इसका जिम्मेदार है? कैसे इतनी ऊंचाई पर रातों रात राम राम नाम को चिपकाया गया? आदि। ये सवाल हमें पूछना चाहिए नगर निगम के अधिकारियों से कि जब संज्ञान में आया, किसी ने याद दिलाया तब तो उन साइन बोर्ड को साफ करने, राम राम के नाम को मिटाने की कम से कम कवायद ही सही किन्तु सक्रियाता तो दिखानी ही चाहिए थी। दिल्ली के तकरीबन बड़े और प्रमुख चौराहों, रेड लाइट्स के आस-पास के स्थान, दिशा प्रदर्शक बोर्ड पर राम राम के स्टीकर लगाए गए हैं। उन्हें कब और कौन उतारेगा? कौन इस पर एक्शन लेगा यह तो नहीं मालूम लेकिन इस प्रकार की प्रवृत्तियां शुभ नहीं मानी जा सकतीं। 
नामों और तस्वीरों के बदल जाने से तारीख़ें नहीं बदला करतीं। महज किसी ख़ास व्यक्ति की तस्वीर बदल दी तो क्या उम्मीद करते हैं उस व्यक्ति के अतीत को भी बदल देने का दावा करते हैं? शायद नहीं। शायद हम सिर्फ आज अपने ख़ाम अहम की तुष्टि भर ही करने की कोशिश कर रहे हैं। यही प्रवृत्ति इन दिनों नामों के बदलने और तस्वीरों को बदलकर हम साबित कर रहे हैं। क्यों हमें बार बार इतिहास में जाना चाहिए? क्यों हमें बार बार अतीत से दुखद और चुभन भरी और ठीस देने वाली घटनाएं ही चुन कर आज में लाना चाहिए। क्यों न हम अतीत व इतिहास से सुखद पल चुन कर लाएं। क्यों न अपनी भूलों को वहीं छोड़कर वहां से आगे की दिशाएं तय करने वाली सीखों को अपने साथ ज़ि़ंदा रखें ताकि भविष्य और वर्तमान के बेहतर बना सकें। 
मानवीय स्वभाव है कि हम बार बार सबसे पहले दुखते और चुभते पलों को याद किया करते हैं हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ। वैसा नहीं हो सका। उसके मेरे साथ अच्छा नहीं किया। वह कभी मिलता और फोन नहीं करता आदि आदि। शिकायतों से शुरू होने वाले संवाद ज़्यादा सुखद और दीर्घजीवी नहीं हो पाते। नामों को बदलने की बजाए कामों से नामों को मर्ज कर दें तो कितना बेहतर हो। 

Friday, May 11, 2018

विकसने में संघर्ष बहुत है






कौशलेंद्र प्रपन्न 
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है हमज संघर्ष ही...संघर्ष से बच कर जीए तो क्या जीए तुम या कि हम...कवित की इन पंक्तियों को जगदीश गुप्त से उधार ली है। इन पंक्तियों में जिस प्रकार की चिरगारी है वह हमें जीवन में आगे बढ़ने में मदद करती है। बगैर संघर्ष में दुनिया का कोई भी व्यक्ति, संस्था, कंपनी आगे नहीं बढ़ी होगी। एक बात तो तय हो गई कि यदि जीवन में आगे बढ़ना है, विकसना है तो हमें किसी न किसी स्तर पर किसी न किसी रूप में संघर्ष करना ही पड़ता है। हर व्यक्ति और समाज के अनुसार उसके संघर्षों की प्रकृति निर्धारित होती है। किसी का संघर्ष चौदह वर्ष का होता है तो किसी का अल्पायु। लेकिन हरके जीवन की यह कहानी बड़ी पुरानी और सच्ची है कि संघर्ष तो करना ही पड़ा है। यदि हम अपने परिवेश पर नज़र डालें तो एसे कई व्यक्ति मिलेंगे जिन्होंने अपने जीवन में काफी संघर्ष किया। तब जाकर आज वो जीवन की सफलता के झंड़े लहरा रहे हैं। वहीं कुछ ऐसे भी लेगे मिलेंगे जिन्होंने मेहनत तो बहुत की लेकिन उसके अनुरूप उन्हें सफलता व सुख नहीं मिला। यदि ऐसे संघर्षां की कहानियों के तानाबाना करीब से देखें तो संभव है हमें ऐसी कोशिशें भी दिखाई देंगी जो महज दूसरों को दिखाने और प्रभावित करने के लिए किए जा रहे थे। वे अपनी संतुष्टि के लिए प्रयास नहीं कर रहे थे। यहां यह हक़ीकत समझ लेनी चाहिए कि हमें अपनी नज़रों और कोशिशों में सच्चे और ईमानदार होने की आवश्यकता है न कि औरों की नज़रों में। यह भी दिलचस्प है कि हम अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरों से अच्छे, लायक, आज्ञाकारी आदि के प्रमाण पत्र बटोरने में ज़ाया कर दिया करते हैं। जबकि हमें इस ओर ध्यान देना लाजमी होगा कि हम अपनी निगाहों में ईमानदार और प्रयास करने वाले हैं या नहीं। 
जब केई व्यक्ति, समाज, कस्बा, नगर विकसने की राह पर होता है तब कई तरह के संघर्षां, आलोचनाओं, निंदाओं और प्रोत्साहनों से गुज़रना होता है। इसे सहज मानवीय और विकास की प्रवृति के रूप में समझना चाहिए। जब कोई कस्बा व गांव विकास करता है तो पुरातन मान्यताओं वाले इसका विरोध परंपरा, मान्यताओं आदि के हवाले से उस विकसने की प्रक्रिया को नकारते हैं। जब कोई व्यक्ति विकसने और संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ता दिखाई देता है तब हमारे ही आस-पास के लोग, सहयात्री हमारे प्रयासों की प्रशंसा करने, प्रोत्साहित करने की बज़ाए आपके सपनों, कोशिशों को नकारने और हतोत्साहित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे वे क्यों करते हैं इनके वज़हों मानवीय स्वभावों में से एक है। इसे हम मानवीय विकसने की प्रक्रिया में बाहरी संघर्ष के रूप में पहचान सकते हैं। इस किस्म के बाहरी संघर्षों में साथ के लोगों की संवेदनात्मक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक आदि दबावों को रख सकते हैं। वे कई बार स्वभावतः ऐसे करते हैं। उन्हें यह कबूल नहीं हो पाता कि उनके सामने का व्यक्ति विकसने की कोशिश कर रहा है। उन्हीं की नज़रों के आगे फलां व्यक्ति कैसे अपनी कॉम्यूनिकेशन, मैनेजमेंट,प्रेजेंटेशन आदि स्कील कैसे डेवलप कर सकता है। आदि कुछ बाह्य भय भी हमारे विकसने के राह में संघर्ष के रूप में मिला करते हैं। हमें इस प्रकार के संघर्षां से भी लड़ना और ख़ुद को बाहर निकालना होता है। 
कभी हमने बीज को जमीन से बाहर निकलते शायद न देखा हो। कभी देखने की कोशिश करें तो समझना आसान हो जाएगा कि एक बीज को जमीन से बाहर आने में कितनी मेहनत करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में एक नवजात बच्चे में जनमने में कितने संघर्षां का सामना करना पड़ता है। तब जाकर बच्चा इस दुनिया में आंखों खोलता है ऐसी दुनिया जो व्यक्ति के विकसने को संहर्ष स्वीकारने की बजाए इसबात में सुख की तलाश करता है कि वह अभी तक संघर्षशील है। । अभी तक प्रयासरत है। हालांकि इस हक़ीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे फैलों ट्रेवलर में ऐसे भी चाहने वाले होते हैं जो हमारी विकसने की यात्रा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल होते हैं। उन्हें देखने और महसूसना अच्छा लगता है कि उनके बीच का कोई व्यक्ति प्रयास कर रहा है। उन्हें आपके विकसने में मदद करने में प्रसन्नता होती है। 
हमें यदि विकसना है तो बाहरी और आंतरिक संघर्षों से लड़ना और जीतना ही होगा। अभी हमने बाहरी संघर्षां की तो बात की लेकिन आंतरिक संघर्षं की चर्चा रह गई। इसे भी वलते चलते समझते चलें तो बेहतर होगा। आंतरिक संघर्षां मे ंहम अपनी क्षमताओं, कमजोरियों, अपनी सीमाओं, अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने आदि से डरते हैं। हमें अपनी सीमाओं और उड़ान का एहसास नहीं होता कि मेरी ख़ुद की क्षमता व सामर्थ्य कितनी है। जब हम अपनी क्षमताओं को पहचान लेते हैं तब रिस्क और संघर्षोंं से जल्दी और समुचिततौर पर बाहर निकल पाते हैं। नहीं तो हमारी अधिकांश ऊर्जा आंतरिक और बाह्य संघर्षां से लड़ने और उबरने में खत्म हो जाती है। जब हमें संघर्षां के उपरांत मिली सफलता का आनंद लेना होता है उस वक़्त भी जीवन संघर्षों में ही बसर करना हमारी मजबूरी हो जाती है। 

Wednesday, May 9, 2018

ये कैसी इबादत है लला!!!




कौशलेंद्र प्रपन्न 


ये कौन सी पाठ पढ़े हो लला मन लेत हौ देत छटाक नहीं...। कुछ ऐसी ही स्थिति कई बार राजनीतिक लोगों की ओर से आने वाले बयानों में लगता है। हाल ही में हरयाण के मुख्यमंत्री ने कहा और बाद में अपने वक्तव्य से में काफी ऑल्टर भी किया जैसा कि अकसर राजनीतिक लोग किया करते हैं। मसलन मेरा यह मतलब नहीं था। मेरे बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया आदि। तो बात हो रही थी इबादत की। फरमाया गया कि खुले में इबादत यानी नमाज़ की इज़ाजत नहीं होगी। तर्कोंं से पुल भी बांधे गए। अपनी बात व फरमान को सही ठहराने के लिए विभिन्न किन्तु परंतु का भी सहारा लिया गया। इबादत किसी की भी की जाए। पूर्जा अर्चना कोई भी करे। रत जग्गा किसी भी समुदाय की ओर से आयोजित की जा रही हो। रात भर जागरण कोई भी गाए। इसमें किसी को क्यों और कब आपत्ति हो सकती है? कब कोई अपनी आवाज़ कोर्ट व थाने में उठाता है? यह तब विरोध और बंद करने की मांग उठती है जब समाज के बुढ़े, बच्चे, बीमार, परीक्षार्थी प्रभावित होते हैं। कायदे से समय और स्थान को ध्यान में रखा जाना चाहिए इसमें किसी को भी कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए। 
इस बयान से पहले भी कई बार कोर्ट की ओर से आदेश आ चुके हैं कि रात ग्यारह के बाद कहीं कहीं दस बजे के बाद, म्यूजिकख् इबादत की अनुमति नहीं होगी। लेकिन हम जिस समाज में रहते हैं वहां यह भी देखते हैं कि खुलआम रात की पार्टियां, पूजा अर्चना, नाच गाने आदि धड़ल्ले होते हैं। कई लोग समय सीमा तोड़ने में अपनी शान समझते हैं। जबकि उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि आस-पास रहने वाले बीमार, बुढ़े व बच्चे को कितनी दिक्कत होती होगी। आज आप कर रहे हैं कल आपको ही देखकर आपका पड़ोसी करेगा। उसके पास कौन से पैसे की कमी है। 
पूजा-अर्चना, नमाज़ आदि अत्यंत व्यक्तिगत और एकांत की साधना एवं कर्म है। एक बात समझनी होगी कि जो हमारा ऐकांतिक कर्म है उसे इतने खुले और प्रदर्शन के तर्ज़ पर करने से क्यां गौरव और अपनी मान्यताओं को मनवाने की ज़िद रखते हैं। हमें हमारी निजी मान्यताओं, सांप्रदायिक उत्सवों एवं आयोजनों में वैश्विक और समष्टि की सोच रखनी चाहिए। हालांकि यह कहना और करना बेहद मुश्किल है। किन्तु शुरू के कुछ मुश्किलातों को यदि पार कर गए तो नई पीढ़ी के लिए आदर्श हो सकते हैं। हज़ारों बच्चों, बुढ़े की दुआएं भी साथ होती हैं। जिन्हें आपने अपनी रात भर की चीखों, फिल्मी तर्ज पर पूजा-अर्चना, नाच-गान के शोर से निज़ात दिला दी। 
दरअसल शुरू कौन करे। कौन आगे आए और कह सके हमें मंदिर व मस्जिद में ही इबादत करनी है। यदि जगह है तो तमाम उत्सवों को तय परिसर में ही संपन्न किया जाएगा। इसके लिए किसी न किसी को तो लीड लेनी पड़ेगी। जो चुप्प हैं, ख़ामोश तामाशे में शामिल हैं उनसे बदलाव की उम्मीद करना बेईमानी होगी। यदि समाज में इस प्रकार की साम्प्रदायिक आयोजनों, सार्वजनिक उत्सवों, पूजा-अर्चना, इबादतों आदि कम करना है तो किसी ने किसी को तो आगे आना होगा। कब तक हम हमज सरकार, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि से ही उम्मीद करते रहें कि अब लोकतंत्र के चारों खम्भों के ज़रिए ही बदलाव घटित हो सकता है। ऐसे स्थिति पर नज़र डालें तो पाएंगे कि समय समय पर सरकार बेशक आंखें मूंद ले लेकिन न्यायपालिक बड़ी ही शिद्द से अपनी जिम्मेदारी निभाती है। इसी का परिणाम है कि साम्प्रदायिक पूजा स्थलों के नाम पर जिस प्रकार से अवैध सरकारी भूमि को हथियाया जाता है इस बाबत कोर्ट कई बार निर्देश जारी कर चुकी है। मंदिर व मज़ारों के नाम पर कई राज्यों, शहरों में महत्वपूर्ण स्थलों पर अवैध निर्माण कर साम्प्रदायिक पूजा-अर्चना स्थल में तब्दील किया जा चुका है। 
इबादत तो बिना किसी शोर और प्रपंच के किए जाते हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने की एक कविता की पंक्ति उधार लेकर कहूं तो ‘‘प्रभू जी जब हारा हूं तब न आइए...’’ यहां तो मंज़र यह है कि जब भी उत्सव करने का मन करता है। मनोरंजन का माहौल बनाना होता है तो रत जग्गा का आयोजन खुले में सड़क और गली को घेर कर किया करते हैं। 

Tuesday, May 8, 2018

बच्चों को परीक्षा शुरू








कौशलेंद्र प्रपन्न 



बच्चों को परीक्षा शुरू होने से तकरीबन ढाई घंटे पहले परीक्षा केंद्र में प्रवेश कराया गया। परीक्षा दस बजे शुरू होनी थी और बच्चों को 7.30 से 8.30 के बीच ही प्रवेश करना था। प्रवेश भी कोई मामूली नहीं कहा जाएगा। बच्चे सुबह सुबह बिना खाए पीए परीक्षा देने पहुंच गए। गेट पर ही चप्पल, जूते, शर्ट, पैंट, बालों तक की तलाशी ली गई। बच्चियों को तो कान की बाली भी निकालनी पड़ी। बालों के स्टॉइल की भी तलाशी हुई। 
अगर आपको याद हो तो पिछले माह विभिन्न अख़बारों में विज्ञापन आए थे कि परीक्षा केंद्र पर बच्चियां पोनी टेल भी बना कर नहीं जा सकतीं। खुले बाल होंगी। कानों में बालियां नहीं होगी आदि। इससे पहले भी विभिन्न राज्यों से आने वाली ख़बरों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि लड़कों की पैंट तक उतरवा दी गई थी। बच्चे कच्छे में बैठकर पेपर दे रहे थे। सोचने वाली बात यह भी है कि आख़िर इस कदर अविश्वास की स्थिति ही क्यों पैदा हुई। क्यों हमें अपने ही बच्चों पर विश्वास नहीं रहा। गोया बच्चे परीक्षा देने नहीं बल्कि नहाने धोने जा रहे हैं। 
परीक्षा में पेपर का लीक होना, परीक्षा के दौरान अनियमितताएं होना आदि हमारी परीक्षा की प्रकृति और पूरी परीक्षा प्रणाली को संदेह के घेरे में ला खड़ी की है। पिछले दिनों तमाम परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक हुए। इसके जद में बड़ी से बड़ी संस्थाएं शक के घेरे में आईं। परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थाओं को जांच एजेंसियों के हवाले किया गया। यह कहीं न कहीं हमारी स्वयं की शिक्षा और परीक्षा को लेकर जिम्मेदारी पर सवाल खड़े करती है। 
परीक्षा तो शिक्षा के साथ चलने वाली समानांतर प्रक्रिया हो चुकी है। हां यह अगल मसला है कि समय के साथ परीक्षा और परीक्षार्थीं के मायने और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। परीक्षा तो महाभारत काल में भी होता था। बस अंतर इस बात की है कि तब पात्रों की परीक्षा होती थी। तब शायद अंक नहीं, ग्रेड नहीं बल्कि दक्षता की पड़ताल होती थी। धीरे धीरे दक्षता और कौशल जांचने की बजाए हम अंकों पर सिफ्ट हो गए। आज की तारीख में बच्चों को शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता की चिंता से ज़्यादा अंकों और ग्रेडों की चिंता होती है। बिना अंकों के उन्हें तथाकथित अच्छे नामी कॉलेजों में दाखिला नहीं मिल पाता। जब उन्हें इसकी चिंता होती है कि कैसे अच्छे अंक आएंगे तब वे या उनके अभिभावक दूसरे रास्तों की ओर मुड़ते हैं। 
कई बार महसूस होता है कि उच्च शिक्षा का केंद्रीकरण हो चुका है। दिल्ली ही वह केंद्र है जहां उच्च शिक्षा बेहतर चल रही है। यही वजह है कि देशभर के तमाम युवाओं का सपना दिल्ली के किसी भी कॉलेज में दाखिला लेना होता है। जबकि यदि राज्य स्तरीय कॉलेज बेहतर होते तो वे युवा क्योंकर दिल्ली में धक्के खा रहे होते। हमें अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्त को विकेंद्रीकृत करने की आवश्यकता है। हालांकि पहले पटना, इलाहाबाद, हैदराबाद आदि भी उच्च शिक्षा के केंद्र हुआ करते थे। लेकिन समय के साथ इन संस्थानों को बढ़ाने की बजाए हमने इन्हें हाशिए पर धकेलने का काम किया। इसी का परिणाम है कि आज अपने समय के स्थापित शिक्षा केंद्र ध्वस्त होते चले गए। जो बचे हैं वे बुनियादी संसाधनों, समुचित प्राध्यापकों की बदहाली से त्रस्त हैं। 
परीक्षा तो तब ली जाए जब कॉलेज में शिक्षण विधिवत हुआ। पिछले दिनों एडीटीवी पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार ने तकरीबन 28 कड़ियों में उच्च शिक्षा की दशा दिशा का एक विकास यात्रा किया। उन तमाम स्टोरी से गुजरते हुए यही महसूस हुआ कि हम दिल्ल में बैठ कर उच्च शिक्षा यानी कालेज और विश्वविद्यालयों की शैक्षिक स्थिति का अनुमान नहीं लगा सकते। जहां राज्यों में नियमित रूप से कक्षाएं नहीं चलतीं। जहां परीक्षा और शिक्षा तीन और चार साल पीछे चल रही हो। वहां किस प्रकार की शैक्षिक गुणवत्ता की उम्मीद की जा सकती है। 
ऐसे में हमारे लाखों युवा छात्र/छात्राएं बस हर साल परीक्षा पास कर अगली सीढ़ी पर बढ़ रहे हैं। उन्हें किस ओर जाना है? किस कोर्स में दाखिला लेना है आदि के बारे में कोई मार्गदर्शन करने वाला नहीं। हम शिक्षा बेशक गंभीरता से उन्हें मुहैया न कराएं लेकिन परीक्षा के वक़्त उन्हें कच्छा में बैठाने से नहीं हिचकते। और यही कारण है कि आज परीक्षा शिक्षा पर दबाए बनाती जा रही है। परीक्षा पास करना ही शिक्षा का मकसद हो चुका है। फिर ऐसे में क्यों न किसी भी तरह अंक हासिल की जाए। इसके लिए कुछ भी करना पड़े। इन्हें ही रोकने के लिए सरकार को इस प्रकार के कदम उठाने पड़े। लेकिन परीक्षा में चोरी चकारी न हो इसके लिए शायद और भी तरीके अपनाए जा सकते हैं। हमें इसकी योजना बनाने की आवश्यकता है। न कि बच्चों को कच्छा और शर्ट में परीक्षा में बैठने पर मजबूर किया जाए। इन अविश्वास का ख़मियाज़ा बच्चों को क्यों भुगतना चाहिए। 

Friday, May 4, 2018

लिखते कैसे हैं वो




कौशलेंद्र प्रपन्न
यह सवाल बेहद दिलचस्प और दरपेश है। बल्कि कहना चाहिए यह सवाल अकसर लेखकों, पत्रकारो कवियों आदि से पूछा जाता रहा है। इस सवाल के जवाब में मेरे ख़्याल से काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। पिछले दिनों इन्हीं सवालों से रू ब रू होना पड़ा। साथ काम करने वालों ने बड़ी हैरानी से पूछा कि आप इतने और रोज़ कैसे लिख लिया करते हैं। क्या कोई मशीन है? वो कौन सी ताकत है जो रोज़ लिखा ले जाती है आदि। इन सवालों से बड़े-बड़े लेखक, पत्रकारों एवं कवियों आदि को अपने समय में सामना करना पड़ा है। सबने अपने अनुभवां के आधार पर जवाब भी देने की कोशिश की है।
पहले पहल तो लेखक,कवि,पत्रकार आदि कोई दूसरी दुनिया का जीव नहीं होता। वह भी इसी समाज में हम सब के साथ रहा करता है। जैसे अन्य लोगों को जीवन में तरह तरह के अनुभवों से गुजरना होता है वैसे ही एक लेखक भी उन अनुभवों को जीता, पकता, बेचैन होता है। अंतर बस इतना है कि सामान्य व्यक्ति अपने अनुभवों, निजी एहसासातों को अपने में ज़ज्ब कर जीता है। किसी से कहता भी है तो वह आत्म पीड़ा के तौर पर रो गा कर चुप हो जाता है। लेकिन एक लेखक, कवि जिन हालातों से गुजरता है। उन्हें बड़ी शिद्दत से महसूसकर शब्दों में बांधने की कोशिश करता है। वह प्रयास करता है कि जो मेरे साथ गुजरा है, वह दुनिया के किसी न किसी कोने में किसी की भी निजी टीस हो सकता है। मैं जैसा महसूस कर रहा हूं। मैं जैसे इन हालातों से निकलने की कोशिश कर रहा हूं। उन औजारों से क्यों न औरों को भी वाकिफ कराउं। क्या पता औरों को मेरे अनुभव व कहानी से कुछ रोशनी मिले। क्या मालूम मेरा लिखना किसी की ज़िंदगी को बेहतर राह पर ला पाएं। लेखकों, कवियां आदि का मकसद लेखन से हमज आत्मतुष्टी, आत्मसंतोष और प्रसिद्धी हासिल करना ही नहीं होता बल्कि वह वैश्विक स्तर पर अपने तजर्बों को बांटने में विश्वास करने लगता है। इन्हीं ताकतों के आधार पर वह कुछ लिख पाने की कोशिश करता है।
विचारों, भावनाओं को बांध पाना, रोक सकना या फिर दुबारा जीना कोई आसान काम नहीं होता। बल्कि इस शब्द साधना में समय, श्रम, धैर्य, अभ्यास आदि बहुत काम करते हैं। बिना अभ्यास, प्रयास, चिंतन, पुनर्चिंतन, विचारों को शब्दों में ढालने के धर्यपूर्ण साधना के कोई लेखक नहीं लिख सकता। लिखने के लिए जिन चरणों के बारे में स्थापित और प्रसिद्ध लेखकों ने अपनी राय रखी है यदि उन पर नज़र डालें तो वे कुछ इस प्रकार की हो सकती हैं-
विचार, अनुभव, घटना, कोई वाकया आदि को देखना, अनुभव करना, उन अनुभवों की गहराई को महसूस करना, उन्हें तटस्थ होकर निरीक्षण करना, जहां भावनाओं की आवश्यकता हो वहां भावनाएं, संवेदना को प्रयोग करना, टाइम मैनेजमेंट, थॉट मैनेजमेंट, आकार प्रकार, शैली, फारमेट को चुनाव और अंत में भाषा, शब्दों आदि का चयन। इन्हीं सोपानों के ज़रिए कोई भी लेखक,कवि, पत्रकार आदि लिखा करते हैं।
हमें अपने विचारों को वो भी इतने चंचल होते हैं जिन्हें रेक पाना, बांध पाना बेहद श्रम साध्य और अभ्यास की मांग करता है आदि को ठहकर देखना,महसूसना तो एक प्रक्रिया है। लेकिन अब लेखक को महसूसे हुए अनुभव को कैसे, कब, कहां, क्यों प्रसारित करना है, क्यों लिखे कवि,लेखक, पत्रकार इन सवालों का जवाब ख़ुद को पहले देना होता है। तब तलाश की जाती है कहां, किसके लिए लिखना है।
क्योंकि कई बार नए लेखकों की शिकायत होती है कि उनके लेख छपते नहीं। संपादक लौटा दिया करते हैं। आदि इन सवालों का हल यही है कि लिखने से पहले किनके लिए, कब,कहां लिखना चाहते हैं उसके फारमेट को ध्यान में रखना होगा। उस पत्र-पत्रिका की प्रकृति और पन्नों के स्वरूप और स्थान को भी लिखने से पहले ध्यान में रखना होगा तब आपकी रचना अस्वीकृत नहीं हो सकेगी। इस काम के लिए अभ्यास, अध्ययन, पैनी नज़र और समय की दिशा पर पकड़ बनाना बेहद ज़रूरी होता है। इन्हें नकार कर या नज़रअंदाज़ कर कोई लिख नहीं पाएगा।
लिखने से पहले हज़ार बार सोचना भी मानिख़ेज होता है कि क्यों लिखना है, किसके लिए लिखना है आदि। इससे क्या हासिल होगा। इसलिए समाज में ऐसे भी लेखक और कवि आदि हैं जो निरंतर लिख रहे हैं लेकिन कहीं छपने की चाह उन्हें नहीं होती। मेरा ऐसा मानना है कि यदि लेखक कवि, पत्रकार आदि लिख रहे हैं तो उस पर नागर समाज का हक है। हक़ यह भी है कि लेखक, कवि आदि जिस समाज में रह रहे हैं वे भी नागरीय जिम्मेदारी के तहत लिखें और समाज में अपने शब्दों के ज़रिए अपनी राय रखें। क्या पता एक प्रतिशत भी असर आपके लिखने के होता है तो लेखकीय प्रतिबद्धता का एक अंश पूरा हो जाता है।
लिखने से पहले, लिखने के बाद अपने विचार, अनुभव,शब्दों के चुनाव, प्रस्तुती आदि पर काफी काम करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई लेखक इनसे बच बचाकर लिखता है तो वह कहीं न कहीं लेखकीय जवाबदेही से न्याय नहीं करता।

Thursday, May 3, 2018

वायदे का तारीख़ बना जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
वायदे कई स्तरों पर कई लोगों, संस्थानों, सरकारों की ओर किए जाते हैं। कुछ वायदे पूरे होते हैं। कुछ बीच राह में ही दम तोड़ देते हैं। कुछ तो ऐसे भुला दिए जाते हैं गोया कभी किए ही न गए हों। जो वायदे याद रह जाती हैं उसका फॉलोअम किया जाता है। जो भूल जाते हैं वे तारीख़ों में दर्ज़ हो जाते हैं। वायदों का भी अपना इतिहास हुआ करता है। उन इतिहासों में जाना इस लेख का मकसद नहीं है। लेकिन इतनी अपेक्षा तो ज़रूर की ता सकती है कि हम किन वायदों को भूल जाते हैं और किन्हें हमेशा हमेशा याद रखते हैं।
सरकारी वायदे व घोषणा कह लें सबसे ज़्यादा की और भुलाई जाती हैं। ही सरकार सत्ता में आने से पहले नागरिकों से किया करती है। सत्ता में आने के बाद उनमें से कुछ को भी मुकम्मल अंजाम तक पहुंचा पाते हैं। बाकी के वायदे इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं। जिन्हें गाहे ब गाहे जनता याद कराया करती है तब हम तरह तरह के बहानों, परिस्थितियों का हवाला देकर नागरिक को बरगलाते रहते हैं। घोषणा और वायदे में न तो सरकार पीछे रहती है और न हम। हम भी कई बार अपने वर्कस्टेशन पर, आफिस में, आफिस के लोगों को वायदे करते हैं। हम यह कर देंगे। वह कर देंगे। यह काम पूरा कर लेंगे। कुछ वायदे जॉब में आने से पहले इन्टरव्यू में किया करते हैं। जब जॉब में आ जाते हैं तब काफी वायदे इतिहास हो जाया करती हैं। बार बार याद दिलाने पर उन वायदों में से कुछ को पूरा कर देते हैं।
रिश्तों में भी तो हम वायदे किया करते हैं। दूसरे शब्दां में घोषणाएं किया करते हैं। शादी से पहले कुछ वायदे होते हैं और शादी के बाद जब चेक लिस्ट बनती है किन किन वायदों को पूरा किया गया तब रिजल्ट कुछ और ही निकलता है। इसे ऐसे भी समझें कि कुछ वायदे शादी के पहले मनुभावन, लोकलुभावन ही होते हैं। यह कहने वाले और सुनने वाले दोनों ही समझते हैं लेकिन मन है कि मानने से इंकार नहीं करता। दूसरे वायदे शादी के बाद की होती हैं। ये घोषणाएं जांची और समय समय पर इत्तला की कराई जाती हैं कि तुमने तो यह कहा था। तुमने तो यह भी कहा था लेकिन तुमने तो पूरा नहीं किया। अब आप यह तो नहीं कह सकते कि वह तो यूं ही कह या था। ठीक उसी तरह किसी भी रिश्ते में इसे जांचा और परखा जा सकता है। दोस्त ही कम हैं क्या जांचने के लिए। हम अपने दोस्तों के बीच भी वायदे किया करते हैं। लेकिन वे वायदे कितने पूरे होते हैं यह तो वास्तविकता की जांच में मालूम होता है कि काफी वायदे खाली के खाली अब भी वहीं पड़े हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वायदे उन्हीं चीजों, मदद की करनी चाहिए जो हम पूरा करने के सामर्थ्य रखते हों। जिन्हें हम पूरा नहीं कर सकते उसके बारे में इंकार करना ज़्यादा बेहतर है बजाए कि किसी भी अपेक्षा को बढ़ा दिया जाए। जब अपेक्षाएं व उम्मीद टूटती है तब इसकी आवाज़ बाहर तो सुनाई देती लेकिन व्यक्ति अंदर टूट जाता है।
हम अपनी जिं़दगी में झांक कर देखें कितने की वायदे किया करते हैं। कई बार ख़ुदी से वायदे करते हैं और कई बार औरों से। ख़ुद से किए गए वायदे का हालांकि कोई पूछनहार नहीं होता। ऐसे में सावधानियों का घटना, भूल जाना आदि की संभावनाएं ज़्यादा होती हैं। वायदे पूरे न होने पर हम भिन्न तरह के बहानों से ख्ुद को बहला लेते हैं। लेकिन कभी हम अकेले में ख़ुद से पूछते हैं कि जो वायदे हमने पूरे नहीं किए उसका ख़मियाज़ा कौन भुगतता है। हमें ही अपने वायदों के परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। इसलिए यदि हम ख़ुद से भी वायदे कर रहे हैं जो चौकन्ना रहना चाहिए। वायदे पूरे होंगे या फेल होंगे यह निर्भर करता है कि हम उन्हें पूरी करने के लिए कितने सजग और जागरूक हैं। वरना वायदे तो होते ही हैं फेल होने के लिए। फिल्म का गाना भी तो है- ‘‘वायदे हैं वायदे का क्या...’’ दूसरा एक और मौजू गाना प्रासंगिक है-‘‘मिलने की तुम कोशिश करना वादा कभी न करना, वादा तो टूट जाता है।’’सो ख़ुद से भी झूठे वायदे करने से बचें। जो वायदें करें उसके प्रति जवाबदेही तो रखनी बनती है।

Wednesday, May 2, 2018

प्राथमिकता, प्रयास और सफलता



कौशलेंद्र प्रपन्न
यह कोई नई बात नहीं की जा रही है बल्कि लंबे समय पर इसपर कई तरह बात की जा चुकी है फिर क्या वजह है आज इस पुराने मुद्दे पर लिखने की आवश्यकता महसूस की गई। वज़ह है मनोविज्ञान में कहा जाता है जब हम किसी भी चीज व आदतें हों, काम हो, विचार हो उसे बार बार दुहराते हैं तब वह हमारी लॉग टर्म मेमोरी का हिस्सा हो जाती हैं। यानी जिस भी विचार, आदत को हम अपने जीवन में जितनी बार दोहराते हैं वह हमारी स्थायी स्मृति का हिस्सा हो जाती हैं। उसे भूलना तकरीबन मुश्किल होता है। यह दोहराव तय करता है कि कौन सा कंटेंट, कौन सा वाकया हम अपने लिए चुनते हैं। कौन सी घटना, कौन सी परिस्थितियों को हम भूलना नहीं चाहते। यह तय करता है हमारे जीवन की प्राथमिकता। प्राथमिकता तय हो जाने के बाद हम उसे सफलता तक पहुंचाने के लिए प्रयास किया करते हैं। जब हम प्राथमिकता तय कर चुके होते हैं तब हमारी कोशिशें, हमारे बरताव, हमारी जीवनचर्या भी उसी के अनुसार निर्धारित होने लगती है। जहां भी जाते हैं, जो कुछ भी सुनते-पढ़ते, देखते हैं उसमें हमारी प्राथमिकता एक अहम भूमिका निभाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी जीवन की प्राथमिकताएं ही जीवन की दिशा भी तय किया करती हैं।
सबसे पहले हमें अपने जीवन से क्या चाहिए यह तय करना होता है। हम जीवन को बने बनाए रास्ते, बनी बनानी मान्यताओं पर ही हांक देना चाहते हैं या कोई और रास्ते का इज़ाद करना चाहते हैं। जब हम यह तय कर लेते हैं तब हम अपने जीवन में प्राथमिकताएं तय किया करते हैं। जो एक सुनियोजित रणनीति और प्लानिंग की मांग करता है। क्योंकि जीवन में करने और खोने को बहुत कुछ है। यदि उन्हीं खाने पाने में उलझे रहे। कौन क्यों आपसे रूस गया? क्यों फलां आपसे अब ठीक से बात नहीं करता। अब वह आपके साथ घूमता नहीं आदि आदि। यह आपकी प्राथमिकता है तो आपकी दूसरी ज़रूरी चीजें जिसे आपने चाहा है। जिसे आप शिद्दत से पाना या होना चाहते हैं वह बाधित होती है। कई बार अर्जुन की दृष्टि हासिल करना बेहतर होता है जिसमें हमें हमारे जीवन में जो पाना चाहते हैं वही दिखाई दे। आस-पास की लुभावनी चीजें बहुत हैं जो बार बार आपको भटकाएंगी। यदि बीच में ही भटक गए। ठहर गए तो आपने जो सपना देखा था वह चकनाचूर तो होना ही है।
उपनिषद् की एक कहानी यहां कहना बेहद मौजू होगा। नचिकेता ने यमराज से कुछ सवाल किए। उन सवालों ने तय किया। उन सवालों की संरचना पर नज़र डालें तो पाएंगे कि वह नचिकेता अपनी प्राथमिकता में कितना स्पष्ट था। उसे मालूम था कि उसे क्या चाहिए। उसने यह भी तय कर रखा था कि उसे यमराज से कितना क्या और कैसे पाना है आदि। बीच बीच में यमराज किसिम किसिम के प्रलोभन देते हैं। राजपाट, आभूषण, धन आदि। यदि नचिकेता अपनी प्राथमिकता से समझौता कर लेता तो उसे जीवन, आत्म आदि के रहस्य जानने की प्राथमिकता पीछे रह जाती। ठीक उसी प्रकार जीवन में भी कई प्रकार के यमराज आया करते हैं। कई तरह के प्रलोभन-पद, पैसे, स्त्री सुख आदि दिया करते हैं। यदि आप अपनी प्राथमिकता से समझौता कर लेते हैं तब आप अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में पिछड़ जाते हैं।
इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जब हम अपने जीवन के लिए प्राथमिकताएं तय करते हैं तब बहुत सी चीजें हमारी प्राथमिकताओं के निर्धारण में भूमिका निभाती हैं। अभिभावक, दोस्त, परिवेश, संस्कृति आदि। रास्ते, सुझाव हमें कई ओरों से सुनने को मिलती हैं। अंत में हमें ख़ुद तय करना होता है कि हमें इनमें से क्या और कितना चाहिए। हम कैसे अपने लक्ष्य को पा सकते हैं इसके लिए अब प्रयास जिसे एर्फ्ट कहते हैं। एक्शन कहते हैं करना होता है। जब तक एर्फ्ट यानी प्रयास नहीं करेंगे तब तक सफलता की उम्मीद करना बेकार है। जब सफलता नहीं मिलती तो हम अपने प्रयास को जांचने की बजाए परिस्थितियों को कोसने लगते हैं। बजाए कि हमने अपने लक्ष्य को पाने के लिए किस प्रकार के और कितनी शिद्दत से प्रयास किए इसे जांचने, पुनः जांचने, समझने के हम अपने लक्ष्य और प्राथमिकताएं बदलने लगते हैं। हम अपने लक्ष्य और प्राथमिकताओं से समझौता करने लगते हैं।
यदि प्राथमिकता तय की है तो हमें प्रयास और प्रयास के स्तर क्या होंगे इसे भी निर्धारित करना बेहद ज़रूरी है। जब हम प्रयास और दिशा भी तय कर चुके होते हैं तब हमें उस लक्ष्य को पाने के लिए क्या क्या और कौन कौन से एप्रोच हो सकते हैं उसे स्पष्टतौर पर तय करने होते हैं। इन्हीं स्पष्ट रणनीतियों, एप्रोचों, प्लांनंग और एक्जीक्यूशन पर हमारा जीवन प्रोजेक्ट, या कोई भी प्रोजेक्ट चला करता है। उक्त तत्वों की स्पष्टता और मानवीय इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है हमने जो शुरू में अपने लिए प्राथमिकताएं तय की थीं क्या वह सफल हो पाईं। वरना तो पूरी उमग्र पड़ी है कोसने की उसने, इसने, ऐसे, परिस्थितियों आदि ने साथ नहीं दिया वरना हम भी काम के ही थे।

Tuesday, May 1, 2018

इमोशनली यूज़ होने से बचें



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम कई स्तर पर लाइफ में यूज़ हो रहे होते हैं। कई बार हमें एहसास होता है कि हम यूज़ किए जा रहे हैं या यूज़ हो रहे हैं। लेकिन हमें इस यूज़ होने में मजा आ रहा होता है। हम अपने आप को यूज़ होने से मना नहीं कर पाते। क्योंकि उस यूज़ होने में हमें आनंद आता है। उदाहरण क्या बताना आप तो समझते ही हैं जैसे बच्चों द्वारा मा-बाप को यूज़ करना। मां-बाप के द्वारा बच्चों का यूज़ करना। देस्तों के बीच भी यूज़ करने की परिपाटी खूब है। इससे कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। वहीं कई रिश्ते ऐसे भी हुआ करते हैं जिसमें हमें मालूम होता है कि हम यूज़ किए जा रहे हैं लेकिन मना करने की हिम्मत नहीं होती। वैसे ही कई बार हम अपने दफ्तर में यूज़ किए जा रहे होते हैं लेकिन इतनी ताकत नहीं होती कि आप यूज़ होने से ख्ु़ाद को बचा लें या पीछे खींच लें। क्योंकि यह आपको भी मालूम है कि यदि आपने यूज़ होने से इंकार किया तो उसका असर दूरगामी हो सकता है। फिर शिकायत मत करना कि हमें क्यों यूज़ नहीं किया। आज तो दफ्तर हो या घर, दोस्त हों या देश हर जगह लोग यूज़ होने के लिए तैयार बैठे हैं। कोई तो यूज़ करे और सफलता, सुख, उपलब्धि की ओर धकेले। ऐसे यूज़ एंड थ्रो के जमाने में स्थायी कुछ भी नहीं होता। यदि आप यूज़ होने के लिए कब से रेडी तैयार बैठे हैं तो फिर क्या कहने। आपही का सिक्का चलेगा। बल्कि बजेगा। इतना बजेगा कि कोई सुनने वाला आपसे जलने लगेगा।
यूज़ एंड थ्रो का बजरीया चलन अब हमारे रिश्तों में भी आ चुका है। जब जिसकी ज़रूरत होती है हम उसके पास उससे चिपक लेते हैं। काम निकाल लेते हैं। जैसे ही काम निकल चुका होता है फिर अपने अपने रास्ते हो लेते हैं। आप कौन और मैं कौन की स्थिति आ जाती है। जब आप अपने ही घर में यूज़ किए गए या हो रहे हों तो इसकी शिकायत किससे करेंगे। कौन नहीं हंसना चाहेगा। हर किसी के लिए आपका यूज़ होना एक रोमांच और मनोरंजन का विषय बनता है। ऐसे में आप किसी से भी अपनी बात, एहसासात साझा नहीं करते। क्योंकि आप इस कदर यूज़ हुए हैं कि किसी को बता नहीं सकते। मन ही मन ख़ुद को कोसते हैं कि काश समय रहते ख़ुद को यूज़ होने से बचा लेता। काश इमोशनल न होता। काश ! समझ पाता कि अचानक रिश्तों में यह गरमाहट क्यां आ रही है। कभी तो वक़्त था कि न चिट्ठी, न फोन, न आना न जाना कुछ भी तो नहीं था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि प्यार के सोते निकल पड़े आदि आदि।
सच पूछिए तो हम पहले पहल घर में कई स्तरों पर यूज़ हो रहे होते हैं। उसे अगल अलग नामों से जानते हैं। बबुआ है। अपना बच्चा है। भाई है न! मेरी बात नहीं मानेगा? अरे अरे!! अपने बड़ों से ऐसे जवाब लड़ाते हैं आदि आदि। लेकिन यह भी सच है कि कई बार हम इन इमोशनल परिवेश में ठग लिए जाते हैं। छल लिए जाते हैं। बल्कि यूज़ कर लिए जाते हैं। हमें इसका एहसास बहुत बाद में होता है। वो भी तब जब खेत की लिखा पढ़ी हो चुकी होती है। जब पिता के एकाउंट से पैसे निकाल लिए जाते हैं। दूसरा स्तर घर में जो किसी भी स्तर पर यदि कमजोर है तो उसे कौन यूज़ नहीं करता। हर कोई अपने अपने तरीके से कोई खखार कर, कोई दबे पांव, तो कोई प्यार से आपको यूज़ करते हैं। हम जानते समझते हुए भी ख़ुद यूज़ होने से नहीं बचा पाते।
बात सिर्फ घर की नहीं है। बल्कि यह हक़ीकत तो दफ्तर की भी है। इस दफ्तर की कहानी में बस पात्र बदले होते हैं। स्थान बदला होता है। लोगों के स्वार्थ के मायने बदले होते हैं। और कोई बड़ा अंतर आप नहीं देख सकेंगे। कोई आपके स्वभाव का फायदा उठाता है (इसे यूज़ पढ़ें), कोई आपके इतिहास का लाभ उठाते हुए आपको यूज़ करता है। तो कई ऐसे भी मिलेंगे जो आपसे चिकनी चुपड़ी बातें कर आपको आसमान में चढ़ाकर धीरे से अपनी बात, ज़रूरत सरका देते हैं और आप यूज़ होने से रोक नहीं पाते। वहीं आप बॉस से तो हंसते हंसते यूज़ हो जाया करते हैं। बॉस से यूज़ होने में एक अगल किस्म का सुख मिलता है। हमें लगता है काश! और यूज़ हो पाता? कितना अच्छा होता कि हमें यूज़ होने का और मौका मिलता। लेकिन हम कहीं न कहीं अपनी जमीर को धोखा दे रहे होते हैं।
सावधान रहें। चौकन्ने रहें। यूज़ हों लेकिन अपनी शर्तों पर। जानते समझते हुए यूज़ हों। आपको मालूम हो कि आप यूज़ किए जा रहे हैं। लेकिन उसके लिए आपके मन में या कभी भी यह एहसास न हो कि आप ग़लत यूज़ किए गए। आप इमोशनली यूज़ न हों।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...