Monday, July 28, 2014

प्रभावी निबंध ऐसे लिखो


कौशलेंद्र प्रपन्न
तुम सभी तो निबंध लिखते ही होगे। परीक्षा या कक्षा में मैडम या सर आपको निबंध लिखने के लिए बोलते होंगे। कैसे और क्या लिखते हो निबंध में? कितने अंक आते हैं निबंध लेखन में? अगर चाहते हो कि अच्छा निबंध लिखो और अच्छे अंक आएं तो आओ हम यहां ऐसे कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर नजर डालते हैं। अगर तुम इन बातों का ख़्याल रखोगे तो अच्छे नंबर आएंगे।
एक अच्छे निबंध में क्या चीजें होती हैं? एक अच्छे निबंध में कौन, क्या, कैसे, कब, कहां और क्यों के जवाब शामिल होते हैं। यदि इन क के उत्तर अपने निबंध में देते हो तो निबंध तो सुंदर और सार्थक होगा ही साथ ही वह निबंध एक बेहतर निबंध माना जाएगा। कैसे निबंध लिखोगे? निबंध में कैसे इन क का जवाब लिखोगे आओ अभ्यास करते हैं।
स्वतंत्रता दिवस पर निबंध लिखना है तो इस निबंध के साथ हम इस तरह से बर्ताव करेंगे। स्वतंत्रता दिवस क्या है? क्यों मनाते हैं स्वतंत्रता दिवस? कैसे मनाते हैं स्वतंत्रता दिवस? कब मनाते हैं? कहां मनाते हैं? कौन मनाता है? निश्चित मानो यदि तुमने इन छह क का जवाब पांच पंक्तियेां में देते हो तो कल्पना कर सकते हो कि तुमने छह गुणा पांच यानी तीस पंक्ति का निबंध तुमने लिख दिया।
एक अच्छे निबंध में यदि इन क का जवाब देते हो तो तुम्हारे टीचर को वह निबंध पसंद आएगा। इतना ही नहीं बल्कि तुम्हारे निबंध से टीचर प्रभावित भी होंगे। तुम्हारी तरह निबंध लिखने के लिए और को प्रेरित किया जाएगा। अब यदि कक्षा में या परीक्षा में निबंध लिखने को आए तो इस तरह लिख सकते हो।
घर पर इस तरह से और अन्य विषय पर भी निबंध लिखकर अभ्यास कर सकते हो। इससे तुम्हारा अभ्यास बढ़ेगा और तुम अच्छे निबंध लेखक बन सकते तो। एक अच्छा और सफल निबंध लेखक बनने के लिए बड़े बड़े लोग सपने तो देखते हैं लेकिन वो अभ्यास नहीं करते और एक अच्छा निबंध कैसे लिखें इसकी समझ नहंी होती।  

Wednesday, July 23, 2014

लड़की के आंगन में शिक्षा का उजाला



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा का चरित्र है कि वो जेंडर को लेकर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं करती। शिक्षा की नजर में हर कोई शिक्षार्थी है। वह चाहे लड़की हो या लड़का। फिर क्या वजह है कि शिक्षा हासिल करने व प्राप्त करने में लड़कियों की संख्या लड़कों से कम है। वैश्विक स्तर पर लड़कियों की संख्या लड़कों से कमतर है। इसके पीछे के कारणों पर रोशनी डालें तो पाएंगे कि अभी भी हमारा समाज स्टीरियो टाइप के सोच से बाहर नहीं निकल सका है। यदि ईएफए ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट 2013-14 पर नजर डालें तो बड़ी गंभीर निराशा होती है। लड़कियां तो लड़कियां यहां तक कि लड़के भी शिक्षा ये महरूम हैं। ऐसे बच्चों की संख्या तकरीबन 7 करोड़ के आस पास है। यूं तो शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 सभी बच्चों ;6 से 14 वर्षद्ध को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा मुहैया कराने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन आरटीई एक्ट के लागू होने के बावजूद भी विभिन्न राज्यों की स्कूली शिक्षा से लड़कियां बाहर हैं। इसके पीछे दो महत्वपूर्ण कारण पहचाने गए हैं। पहला, स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय का न होना। दूसरा, समाज एवं परिवार की नजर में लड़कियां शिक्षा हासिल करें इसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं की जाती। सब के लिए शिक्षा 1990 यानी ईएफए के लक्ष्यों में ल़ड़कियों और लड़कों के बीच के फांक को कम करने और जेडर समानता लाना, शामिल किया गया था। लेकिन 2000 में डकार में हुए सम्मेलन में देखा गया कि अभी भी हमारा ईएफए का लक्ष्य बहुत दूर है। यही वो आधार भूमि है जिसने सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम को जन्म दिया। ताकि हम 2015 तक ईएफए के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। लेकिन वस्तुस्थिति को देखते हुए बेहद निराशा होती है। हालांकि आंकड़ों को देखते हुए यह जरूर कहा जाता है कि लड़कियां हर साल दसवीं और बारहवीं की कक्षाओं में लड़कों को पछाड़ कर आगे निकल रही हैं। यह इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू यह भी सामने है कि फिर क्या वजह है कि इन लड़कियों की उपस्थिति उच्च शिक्षा में नदारत है।
इल्म की रोशनी निश्चित ही लड़कियों की जिं़दगी को ही रोशन नहीं करती बल्कि समाज और परिवार के अन्य सदस्यों को भी प्रभावित करती हैं। यहां भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या शिक्षा का मायने जो लड़कों के लिए है वही अर्थ लड़कियों के लिए भी है? समाज और परिवार में घटने वाली घटनाओं के अनुभव इससे बिल्कुल उलट हैं। माना जाता है कि लड़कियां पढ़ लिख कर क्या करेंगी। इन्हें तो आखिर में चूल्हा ही फूंकना है व घर गृहस्थी में ही लगना है। हमारी एकल मानसिकता एक किस्म से लड़कियों के लिए शिक्षा के दरकार को सीमित ही करती है। जबकि लड़की व लड़का पहले एक इंसान है। उसके बाद वह लड़का व लड़की है। जेडर के लिहाज से हमें उन्हें शिक्षित करना और इस किस्म की तालीम मुहैया कराना आवश्यक है कि वो जीवन को बेहतर तरीके से जी सकें। परिवार और समाज में सकारात्मक भूमिका निभा सकें।
शिक्षा लड़कियों को एक औजार प्रदान करती है जिसके जरिए वह समाज और समाजिकरण की प्रवृत्ति को बेहतर ढंग से समझ सकें। वह अपनी भूमिका और क्षमता का इस्तमाल कर सकें। लेकिन व्यवहारिक स्तर पर देखें तो एक गहरी खाई दिखाई देती है। वह खाई हम नागर समाज ने बनाए हैं। हम नहीं चाहते कि लड़कियां यानी स्त्री शिक्षित हो। हम नहीं चाहते कि वर्ग पढ़ लिख कर हमारी समझ और सत्ता को चुनौती दे। एक एक तरह से पुरुष का डर है जो लड़कियों को शिक्षा की मुख्य धारा से अलग रखना चाहता है। वह चाहता है कि यह वर्ग हम पर ही निर्भर रहे। और यह तभी संभव है जब इनकी जिं़दगी से शिक्षा बाहर रहेंगी।
जेंडर समानता और सब के लिए शिक्षा को लक्ष्य बनाने के पीछे नागर समाज का दरकार यह था कि आजादी के इतने वर्षां के बाद भी इनकी जिंदगी में इल्म की रोशनी पूरी तरह से नहीं फैल पाई है। इनका एक बड़ा हिस्सा अभी भी काला स्याह है। इसको दूर करने के लिए हमने अंतरराष्टीय स्तर पर कुछ घोषणाएं की। उन घोषणाओं में एजूकेशन फाॅर आॅल 1990, डकार घोषणा पत्र 2000, सहस्राब्दि विकास लक्ष्य आदि में हमने लड़कियों की शिक्षा एवं विकास को रखा। इसके पीछे वजह इतनी सी थी कि विश्व एक ओर तो विकास के राजपथ पर सरपट भाग रहा था वहीं हमारे गांव देहात, शहर कस्बे की लड़कियां अभी भी इल्म की दौड़ में पिछड़ रही थीं। अंतरराष्टीय स्तर पर हमारी साख पर बट्टा लग रहा था। हमने स्वेच्छा से शिक्षा के अधिकार कानून नहीं बनाए बल्कि वह अंतरराष्टीय दबाव काम कर रहा था।
ईएफए के छह लक्ष्यों में जेड़र समानता यानी लड़के लड़कियों के बीच के अंतर को पाटना भी शामिल किया गया था। यहां यह स्पष्ट करते हुए चलना उचित है कि ईएफए और सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में हमारी कोशिश यह है कि हम लड़कियों को न केवल साक्षर बनाएं बल्कि उन्हें शिक्षित करें। वो शिक्षा के मायने को समझें और शिक्षा की कड़ी को बढ़ान में अपनी रचनात्मक सहभागिता दें। पाॅलो फ्रेरे ने अपनी किताब उत्पीडि़तों कि शिक्षा शास्त्र में जिक्र करते हैं कि सदियों से विकास की मुख्य धारा से कटे इस वर्ग में गुलामी को लेकर एक किस्म का मोह और जड़ता की स्थिति बन जाती है। यथास्थितिमवाद को बरकरार रखने में इन्हें सहजता महसूूस होती है। यही वजह है कि जब बदलाव और शिक्षा की बात की जाती है तो एक अप्रत्याशित भय इन्हें घेर लेता है।  

Tuesday, July 22, 2014

विद्यालय या कूटालय



कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार ताज्जुब होता है कि क्या हमारे बच्चे विद्यालय में जा रहे हैं या कूटालाय में। जहां हर दिन कोई न कोई बच्चे कूटे जाते हैं। हाल ही में स्कूल के प्रांगण से इस तरह की ख़बर बंग्लूरू और हैदराबाद, आंध्र प्रदेश से आई है। एक ओर प्रधानाचार्य बच्चे को डंडे से लगातार पीट रहा था। इस बाबत न्यूज चैनल पर दिखाई गई तस्वीर एवं वीडियो एकबारगी शिक्षक की क्रूरता को सामने ला रहा था। जिसने भी देखा और सुना उसके रोगटे खड़े हो गए होंगे। इतना ही नहीं शिक्षक और स्कूल अभिभावकों को लुभाने की बजाए डरा रहे होंगे। दूसरी घटना स्कूल परिसर में बच्ची के साथ व्यायाम शिक्षक ने बलात्कार किया। इस तरह की घटनाएं शिक्षा और स्कूल के प्रति आक्रोश और अविश्वास पैदा करते हैं।
जुबिनाइल जस्टिस एक्ट ;जेजे एक्टद्ध और राष्टीय बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग ;एनसीपीसीआरद्ध एवं राज्य स्तर पर ;एससीपीसीआरद्ध हर बच्चे के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इन घटनाओं को देखते हुए एनसीपीसीआर की अध्यक्ष ने तत्काल स्थानीय शिक्षा अधिकारी से जवाब तलब किया है। जेजे एक्ट और एनसीपीसीआर देश के हर बच्चे को सुरक्षा और प्रताड़ना से निजात दिलाने के लिए गठित की गई है। याद हो कि इस बाबत उच्च न्यायालय ने आदेश भी जारी किया था कि किसी भी स्कूल में शारीरिक दंड़ वर्जित है। लेकिन इस आदेश का माख़ौल तो समय समय पर उड़ाया ही जाता है साथ ही जेजे एक्ट की अवहेलना भी स्कूलों में खूब होती है।
गौरतलब है कि 1989 में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेशन आॅन चाईल्ड राईट, यूएनसीआरसी89 ने विश्व के सभी बच्चों को जीने, सुरक्षा, सहभागिता आदि का अधिकार देता है। जो भारत में भी लागू है। लेकिन इन सब के बादजूद हमारे यहां निठारी जैसी घटनाएं होती है। न केवल निठारी बल्कि आज तो तकरीबन हर राज्य में ंस्कूलों और स्कूल के बाहर बच्चों को कूटा-पीसा जा रहा है। हमारे पास बाल आयाग से लेकर जेजे एक्ट आदि का कानूनन प्रवाधान भी है। फिर क्या वजह है कि बच्चों का शोषण एवं शारीरिक प्रताड़ना रूकने की बजाए बढ़ रहे हैं।
स्कूल की बुनावट व चरित्र पर नजर डालें तो स्थितियां कुछ स्पष्ट होंगी। एक क्लास में पचास, साठ, अस्सी बच्चे बैठते हैं। उन्हें पढ़ाने से लेकर खाना बांटने, वर्दी देने आदि का काम भी करना पड़ता है। ऐसे में शिक्षक व शिक्षिका मानसिक रूप से इतने खिन्न होते हैं कि कई बार उनकी व्यवस्थागत शिकायतें उनकी मानसिक शांति को तोड़ देती हैं। हमारे पास स्कूल पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शिक्षकों के लिए शांति की शिक्षा की भी सिफारिश करती है। लेकिन गौर किया जाए तो शिक्षकों के लिए सरकार की ओर से आयोजित प्रशिक्षण कार्यशालाओं में किस तरह से शिक्षकों को सीखाया जाता है और शिक्षक किस मनोदशा से आते हैं यह एक चिंता का विषय है।
शिक्षा का अधिकार कानून बेशक पूरे देश में लागू हो चुका है। इसकी सिफारिशों पर गोष्ठियां, सेमिनार हो चुके हैं लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज भी दिल्ली और दिल्ली के बाहर राज्यों में सरकारी स्कूलों में एक कक्षा में पचास से ज्यादा बच्चे हैं। यूं तो 30ः1 का अनुपात की वकालत आरटीई करती है लेकिन अमूमन स्कूलों में कक्षाओं की स्थिति इससे बिल्कुल उलट है।
हैदराबाद एवं बंग्लूरू की घटना पर सरकारी स्कूलों के तकरीबन 120 बीस शिक्षक/शिक्षिकाओं से कार्य
शाला में बातचीत का अवसर मिला। उन्होंने तो सीधे कहा वह हैवान है। दरिंदा है शिक्षक नहीं है। इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि न तो सारे शिक्षक एक समान होते हैं और न उनकी मान्यता एवं मूल्य। हमें शिक्षकों की कार्यशालाओं का आयोजन योजनाबद्ध तरीके से करने की आवश्यकता है। साथ ही शिक्षकों का इन कार्यशालाओं में सकारात्मक मिल सके इसके लिए विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए।
समग्रता में देखें तो बच्चो की मार पिटाई आज कोई नई घटना नहीं है। यह स्कूलों में घटने वाली आम घटना है। इसे कैसे कम किया जाए व खत्म किया जाए इसके लिए शिक्षक वर्ग में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। वरना इस तरह के वारदात समस्त शिक्षक जाति पर प्रश्नचिंह्न लगाते हैं।

अभिनय से सीखो भाषा


कौशलेंद्र प्रपन्न
तुम सभी ने कभी न कभी अभिनय किया होगा। मैम ने तुम्हें कक्षा में रोल प्ले कराया होगा। याद आया! हां वही रोल माॅडल प्ले के जरिए हम आज भाषा सीखेंगे। वह इस तरह से होगा कि हिन्दी स्वर और व्यंजन वर्णों को साथ लेकर एक नाटक खेलेंगे। स्वर वर्ण यानी अ, आ, इ, ई वे वर्ण हैं जो बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता से बोली जाती हैं। वहीं व्यंजन वर्ण को स्वर वर्णों की मदद की आवश्यकता होती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि अ या आ को बोलने के लिए दूसरे किसी वर्ण की जरूरत नहीं होती। वहीं क, ख, ग, घ, च आदि को बोलने के लिए अ, आ, इ, ई आवश्यकता होती है। जब हमें आम बोलना है तो पहले आ, फिर म को मिलाना पड़ता है तभी आम शब्द बनता है।
एक ग्रुप स्वर का है। दूसरा ग्रुप व्यंजन का। अब हम लोग एक शब्द बोलेंगे और तुम लोग उस शब्द के अनुसार जोड़ी में खड़े होंगे। जैसे मान, दान, कान, कमल, जाल, ताल ये दो वर्णां वाले शब्द हैं। आम सभी स्वर और व्यंजन वाले एक बच्चा स्वर का अ, आ है और दूसरे ग्रुप का बच्चा क, ज, ल हैं। जब दोनों बच्चे साथ मिलेंगे जैसे क और ल यानी कल। म, अ, आ, ल, अ मिल कर माल बना। बच्चे इसी तरह शब्द बनाने के क्रम में जोड़ी बनाएंगे।
तुम इस तरह शब्द बनाने और शब्दों की दुनिया से रू ब रू हो सकोगे। शब्द ऐसे ही मिल जुल कर बनते हैं। जैसे तुम लोग आपस में मिल कर खेलते हो उसी तरह शब्द बनाने में जोड़ने का काम करना पड़ता है। तुम देखोगे कि अभिनय के जरिए शब्दों की प्रकृति को समझ पाओगे।
नाक, कान, आंख जैसे शब्दों को साथ मिल कर बनाने के बाद उस शब्द के स्वभाव को प्ले कर के दिखाओ। जैसे उपर शब्द लिखे गए हैं। नाक कहां हैं, कान कहां है उसे दिखाते हुए ग्रुप में उसके नेचर को अभिव्यक्त करेंगे। तुम देखोगे कि इस तरह से अभिनय के जरिए तुम्हारे पास बहुत सारे शब्द बिना याद किए आ गए।


Friday, July 18, 2014

बच्चों को कहानी कैसे सुनाई व पढ़ाई जाए


प्रारंम्भिक कक्षाओं में बच्चों को कहानी कैसे सुनाई व पढ़ाई जाए इसको लेकर कई बार शिक्षक मित्र उलझन में रहते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए यह प्रयास किया गया है। 

Tuesday, July 15, 2014

प्रदर्शनी की तैयारी ऐसे करो


कौशलेंद्र प्रपन्न
तुम सभी चाहते हो न कि जो तुम लिखो, पेंटिंग बनाओ या कोई नई चीज बनाओ उसे सभी बच्चे देखें। जो आपकी क्लास रूप में न हो। ऐसी जगह पर हो जहां हर कोई देख सके। वह जगह तुम्हारे क्लास रूम के बाहर की दीवार हो सकती है। मगर सवाल यह उठता है कि आखिर वह क्या है?
वह है प्रदर्शनी। एक्जीब्यूशन का नाम तो सुना ही होगा। बड़े बड़े कलाकार, लेखक, पेंटर आदि अपनी पेंटिंग, चित्रों, व अन्य चीजों को सुंदर ढंग से सजा कर किसी कैन्वस या डिशप्ले बोर्ड पर चिपका या टैग कर लगाते हैं।
बड़े बड़े कलाकार अपनी कलाकृतियों को एक जगह चिपका कर उसे बोर्ड पर प्रदर्शित करते हैं। जिसे देखने वाले उनके कामों को एक जगह पर देख पाते हैं। तुम्हारे स्कूल में भी इस तरह की प्रदर्शनी लगती होंगी। कभी स्कूल में तुम्हारे आर्ट के टीचर अपनी व दूसरे बच्चों की बनाई पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाते होंगे।
तुम भी अपनी कक्षा के दूसरे बच्चों की बनाई पेंटिंग, कविता, कहानी या जानकारी व सूचनापरक लेखों वाली प्रदर्शनी लगा सकते हो। इसके लिए तुम्हें अपनी कक्षा के टीचर से अनुमति लेनी होगी कि तुम लोग इस तरह की प्रदर्शनी लगा सकते हो। एक बार आदेश मिल जाने के बाद तुम अपने क्लास के बाकी बच्चों के बनाए चित्रों, कविताओं, आदि को मिलाकर एक प्रदर्शनी लगा सकते हो।
इस प्रदर्शनी को लगाने के लिए तुम्हें जो जरूरी चीजें चाहिए वह यही हैं कि आर्ट पेपर, मारकर, मोटे लिखने वाले पेन, रंगीन पेंसिलें आदि। ताकि इनकी मदद से तुम अपने चित्रों, कविताओं आदि को सुंदर ढंग से लिखकर चटकीलें रंगों से सजा कर अलग अलग रंगों के चार्ट पेपर पर लिख सको।
यह काम अकेले करने की बजाए अपनी कक्षा के दूसरे बच्चों की मदद लेनी चाहिए। अकेले क्या क्या करोगे। इसलिए दूसरे बच्चों को भी इसमें शामिल करो। उन्हें भी मजा आएगा और तुम्हें मदद भी मिल जाएगी। तो चलो एक प्रदर्शनी तुम्हारी तैयार हो गई।

Thursday, July 10, 2014

प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण की चुनौतियां


 प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को बच्चे में कैसे सुरूचिपूर्ण ढंग से पढ़ाएं बड़ी और कठिन होती हैं। काॅलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रों के पास भाषा की एक लंबी थाती होती है जिसके साथ वे एक लंबा सफर तय कर के आते हैं। इसलिए उनके साथ भाषा की कठिन और सृजनात्मक स्तर पर न केवल संवाद स्थापित करना सहज होता है बल्कि उनसे उम्मींद की जाती है कि वे स्वयं स्वतंत्र रूप से लेखन-सृजन कर सकें। सवाल यह उठाता है कि बच्चों में भाषा के प्रति कैसे रूझान पैदा करें। प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों के लिए भाषा शिक्षण की कौन सी विधि अपनाई जाए, इसपर विस्तार से विमर्श करने की आवश्यता है। साथ ही भाषा शिक्षण को रूचिकर बनाने के लिए कक्षा व कक्षा के बाहर किस प्रकार की गतिविधियों को शामिल किया जाए ताकि बच्चे आनंद लेते हुए भाषा सीख पाएं। इस दृष्टि के शिक्षा शास्त्र एवं शिक्षा शिक्षण कार्यक्रमों पर ध्यान देना होगा। इतना ही नहीं बल्कि पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम निर्माण के दौरान ही ऐसी गुंजाइश पैदा करनी होगी कि अध्यापक कक्षा में भाषा शिक्षण करते वक्त उनका इस्तेमाल कर सके। इस लिहाज से नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क 2005 पर नजर डालना गलत न होगा। एनसीएफ 2005 भाषा शिक्षण को लेकर ख़ासे संजीदा है। भाषा शिक्षण उसकी नजर में महज वर्णमालाएं याद करा देना व व्याकरण की विभिन्न कोटियों से परिचय करा देना नहीं है। बल्कि एनसीएफ 2005 की कोशिश है कि भाषा शिक्षण व भाषा की कक्षा में बच्चों को सृजनशीलता और कल्पना की पूरी छूट मिले। छूट इस बात की भी मिले कि वो यदि गलत उच्चारण करते हैं तो भी उन्हें न तो पीटा जाए और न ही कक्षा में उनका मजाक बनाया जाए। लेकिन अमूमन होता बिल्कुल उलट है। क्योंकि भाषा के शिक्षक जिस तरह की भाषायी शिक्षण की तालीम लेकर आते हैं वह उन्हें इसकी इज़ाजत नहीं देती कि जब बच्चा गलती करे या गलत उच्चारण करे तो उसे टोकने की बजाए अभिव्यक्ति के सहज प्रकटीकरण के तौर पर ले। गौरतलब है कि भाषा को बरतने से लेकर शिक्षण की प्रक्रिया तक उदार और नए प्रविधियों को अपनाने की मानसिक स्तर पर छूट मिलनी चाहिए। इसके साथ ही प्रशासनिक स्तर पर ज्यादा टोका टाकी से यदि निजात मिल सके तो निश्चित ही भाषा की कक्षा जीवंत हो उठेगी।
पिछले सालों में सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की भाषा और गणित की गुणवत्ता को लेकर काफी रिपोर्ट और सर्वे सामने आ चुकी हैं। उन तमाम रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि उन रिपोर्टांे में यह तो दिखाया गया है कि 6 ठी व 8 वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को एक पंक्ति भी लिखने पढ़ने की क्षमता नहीं है। वे बच्चे सिर्फ कक्षा तो पार कर गए लेकिन भाषा, गणित आदि विषयों में वह गुणवत्ता नहीं हासिल कर सके। इसके पीछे की वजहों में हमने सीधे-सीधे अध्यापकों की क्षमता और व्यवस्था की कमी का ठिकरा फोड़ दिया। इस प्रक्रिया में हमने सिविल सोसायटी की जिम्मेदारी को एक सिरे से नकार दिया। हमने वयैक्तिक प्रयास को भी तवज्जो न देना प्रकारांतर से शिक्षण एवं भाषा को लेकर सरलीकरण ही कह सकते हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि वर्तमान स्थितियों और संसाधनों के बीच कैसे वह कोना और अवसर मुहैया कर सकें जहां सरकारी स्कूलों में भाषा और अन्य विषय पढ़ाने की परिस्थिति पैदा हो सकें। इस दृष्टि से हमें सरकार के साथ ही समाज के सभ्य और शिक्षित समाज की सहभागिता भी सुनिश्चत की जाए। सरकार व व्यवस्था की अपनी सीमाएं हैं लेकिन क्या इन तर्कांे और कारणों को मान कर सरकारी स्कूलों में शिक्षण की स्थिति को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए।
सरकार की हंैड होल्डिंग के लिए सिविल सोसायटी संस्थाएं आगे आ रही हैं। इसे जनसहभागिता कह सकते हैं। इस पीपीपी को एक बारगी कोसने की बजाए उसकी पहलकदमियों और व्यापक प्रभावों पर भी ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए आज विभिन्न गैर सरकारी संस्थाएं हाथ बढ़ा रही हैं। कंपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर के तहत कई कंपनियां प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए सरकारी स्कूलों को सहभागिता के तहत अपना रही हैं। टेक महिंद्रा फाउंडेशन की ओर से पूर्व दिल्ली नगर निगम के सभी 400 स्कूलों में सरकार के साथ साझा कार्यक्रम चल रहा है। इन स्कूलों में शिक्षक की भाषा क्षमता, गणित शिक्षण, अंगरेजी शिक्षण को लेकर उनकी दक्षता और क्षमता विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन कर रहा है। पिछले एक सालों में ऐसे 150 स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। वहीं आने वाले दिनों में कम से कम 5000 शिक्षकों की व्यावसायिक विकास और शिक्षण कौशल विकास का जिम्मा उठाया है। इसी तरह कई अन्य गैर सरकारी संस्थाएं प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर हैड होल्डिंग कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की अवधारणात्मक और विषय के साथ शिक्षण कौशल में दक्षता मुहैया कराने के प्रयास कई स्तरों पर एक साथ चल रहे हैं। उन्हें एकबारगी आलोचना करने की बजाए उसकी सकारात्मक पक्ष को स्वीकारना चाहिए। टेक महिंद्रा के इन सर्विस टीचर एजूकेशन संस्था के प्रोजेक्ट मैनेजर साजि़द अली कहते हैं कि हम अगले दो सालों में पहले तो इन शिक्षकों में शैक्षिक जिम्मेदारी का एहसास पैदा करेंगे। उसके बाद उनकी बुनियादी जरूरतों शैक्षणिक संदर्भ में को पूरा कर सकें। उसके बाद हमारा ध्यान शिक्षकों के बीच गहरे पैठ चुकी इस धारणा को तोड़ना कि तमाम प्रशिक्षण कार्यशालाएं महज समय काटने के जरिए हैं। यहां ऐसे कोई भी कौशल विकसित नहीं कराया जाता। जब इनमें इस पूर्वग्रह को तोड़ पाएंगे तब हम उन्हें विषय और शिक्षण को बेहतर कैसे बनाया जाए को लेकर विषय विशेषज्ञों के द्वारा प्रशिक्षण कार्यशालाएं प्रदान करेंगे। उसके बाद यह आकलन करना हमारे लिए चुनौती है कि क्या वे शिक्षक कार्यशाला में सीखे हुए कौशलों का इस्तेाल अपनी कक्षा में कर रहे हैं? यदि नहीं तो उसके लिए हम और कैसे उनकी प्रवृत्ति में बदलाव ला सकते हैं।
हम वापस अपने विषय पर लौटते हैं कि प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण कैसे करें ताकि बच्चे न केवल भाषा की तमीज सीखें बल्कि भाषा के बहुआयामों से भी परिचित हो सकें। भाषा शिक्षण में बच्चों की सहभागिता कैसे सुनिश्चित की जाए इस पर भी शैक्षणिक विमर्श की आवश्यकता है। प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण में गतिविधियों को शामिल कर भाषा की कक्षा रोचक बना सकते हैं। पहले तो हमें भाषा शिक्षण की बुनियादी संरचना पर भी चर्चा करना अपेक्षित है। हमें इस पर भी ध्यान देना होगा कि विभिन्न गतिविधियों और शिक्षा प्रशिक्षण संस्थाओं में किस तरह की विधियां प्रयोग में लाई जा रही हैं। प्राथमिक स्तर पर ध्वनियों को सुनने, बोलने, लिखने आदि के अभ्यासों के जरिए बच्चों में भाषा शिक्षण किया जाए। यह तरीका खासे प्रयोग में लाया जाता है। पहले बच्चों को ध्वनियों को सुनने का अभ्यास कराना होगा फिर बच्चे उन सुने हुए स्वरों का नकल करें उनसे बोलने का अभ्यास कराया जाए। कक्षा में बोलने और सुनने की गतिविधियों का बारंबार अभ्यास कराने से बच्चों में ध्वनियां जब स्थान बना लेती हैं तब बच्चों से चित्र देख कर ध्वनियों और चित्रों के बीच संबंध स्थापित कराने में बच्चों की मदद करना भाषा शिक्षण में मददगार साबित होेते हैं।
बोलने और सुनने की दक्षता जब बच्चों में आए जाए तब उनसे चित्र देख कर व्याख्या करने यानी भाषा के इस्तेमाल करने में शब्दों की संपदा को प्रयोग करना सीखाना चाहिए। शिक्षा शास्त्र भाषा शिक्षण में हमारी मदद इस रूप में करती है कि भाषा को लिखने का कौशल बहुत बाद में कराना चाहिए। यानी 3-6 आयु वर्ग के बच्चों में घिसना, रगड़ना, कलाई पर नियंत्रण पैदा करना शिक्षक का लक्ष्य होता है। जब बच्चे की कलाई में मजबूती आ जाती है तब कलाई और आंखों के बीच समायोजन बनाना सिखाया जाता है। भाषा शिक्षण में अव्वल तो लिखने के कौशल पर ज्यादा जोर होता है। जबकि यह शिक्षा शास्त्र की दृष्टि से उचित नहीं है। हालांकि इस कौशल के विकास को लेकर अभिभावकों की ओर से भी शिक्षकों पर दबाव होता है। अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों में भी यही धारणा गहरे बैठी होती है कि बच्चे को लिखना आना चाहिए। जबकि लिखने के लिए छोटे बच्चे में इससे पूर्व अपने स्थूल अंगों पर नियंत्रण आना जरूरी है।
समग्रता में देखें तो प्राथमिक कक्षाओं में भाषा शिक्षण को लेकर कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसमें स्वयं शिक्षक की पूर्वधारणाएं, अभिभावकों की ओर से लेखन पर जोर एवं भाषा शिक्षण की पारंपरिक तरीकों के साथ कैसे समायोजन स्थापित किया जाए। इन्हीं परिस्थितियों में हम शिक्षकों और बच्चों की भाषायी कौशलों, दक्षता का अवलोकन और मूल्यांकन भी जिस आनन फानन में करते हैं उसमें कमियों का छूट जाना मानवीय भूल है। लेकिन यहां ध्यान देने की बात यह है कि बजाए शिक्षकों पर आरोप लगाने के हम क्यों न शिक्षकों की दक्षता और कौशल विकास पर उनकी मदद करें।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...