मीडिया को कोई भी कही भी राह चलते पत्थर मार कर आगे चला जाता है। वास्तव में मीडिया की इस छवि के ज़िम्मेदार वैसे रिपोर्टर हैं जिनके लिए हर घटना इक सनसनी है। खबर संजीदगी की हो या वारदात की उनकी आवाज़ उसी पीच पर रन मर रही होती है। गोया मीडिया खबर देने की जगह भय की दुकान खोल कर बैठ गई हो।
मीडिया की इस पौध को दरअसल सही खाद पानी ही नहीं मिल पाते। जिसका परिणाम यह होता है की वो जब जौर्नालिस्म के कोर्से करने के बाद जब जॉब शुरू करते हैं तब किताबी और वास्तविक खबर में अंतर दिखाई देता है।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...
No comments:
Post a Comment