Thursday, June 25, 2015

अरविंद गौंड के साथ एक दिन हमारे शिक्षक प्रशिक्षक


23 जून की सुबह भी कोई खास नई तो नहीं थी, लेकिन एक उत्साह जरूर था कि आज हमारी मुलाकात नाटक के चर्चित नाम- हस्ती श्री अरविंद गौंड़ के साथ काम करने का मौका मिलने वाला है। ये वही अरविंद गौंड़ हैं जिन्होंने रांझना फिल्म में अभिनय तो किया ही है साथ ही फिल्मी जगत के कई हस्तियों को अभिनय का पाठ पढ़ाया है। उनमें कंगणा रानावत हों या फिर सोनम कपूर या रणधीर कपूर इन्हें अभिनय के लिए अरविंद गौंड़ के पास कभी न कभी आना ही पड़ा है। अस्मिता थिएटर ग्रूप के निर्देशक अरविंद गौंड़ ने हमारे साथ पूरा दिन व्यतीत किया।
अंतःसेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान में मास्टर टेनर यानी शिक्षक प्रशिक्षक कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला से पूर्व हमने शिक्षक प्रशिक्षक कार्यशाला में इंडक्शन मैनुअल और विभिन्न विषयों की कार्यशाला आयोजित की। हमने महसूस किया कि नाट्य विधा को कार्यशाला में शामिल किया जाए। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हमने एक दिवसीय कार्यशाला की रूपरेखा तैयार की। इस कार्यशाला का उद्देश्य यही था कि शिक्षकों को नाट्य विधा को कैसे कक्षा में इस्तमाल किया जाए इसकी समझ प्रदान की जाए। हमारा मकसद यह भी था कि किसी भी विषय को पढ़ाने के दौरान नाटक का प्रयोग किस तरह से कर कक्षा को जीवंत बनाया जा सकता है।
श्री अरविंद गौंड नाटक के क्षेत्र के जाने माने नाम हैं। इन्हें बुलाने के पीछे मकसद यह था कि प्रशिक्षकों को नाटक विधा की बारीकी और इस्तमाल के बारे में समझ बन सके। नाटक का प्रयोग गणित, भाषा, विज्ञान आदि विषय को पढ़ाने के दौरान नाट्य विधा को प्रयोग कैसे किया जाए।
सुबह 9 बजे से 2 बजे के बीच व्याख्यान कम गतिविधि आधारित कार्यशाला संपन्न हुआ। श्री अरविंद गौंड जी की शैली बातचीत और गतिविधि पर निर्भर थी। मसलन नंबर सेंस को लेकर एक गतिविधि कराई गई जिसमें मानसिक चैकन्नापन की जरूरत तो थी ही साथ ही अपनी बाॅड़ी का समायोजन भी खासे अहम था। वहीं बादल, बंदर, पेड़ की कहानी को नाटक के जरिए कैसे कक्षा में कराया जाए इस पर एक छोटी सी प्रस्तुति की गई।

बंदर और टोपी वाला फेरीवाला की कहानी खासे चर्चित है इस कहानी को वर्तमान समय में किस तरह से आधुनिक तकनीक से जोड़ कर रचा जाए इसका आस्वाद प्रतिभागियों को मिला। बंदर सेल्फी खींच कर फेसबुक पर अपलोड कर रहे थे। लोगों से गुजारिश की गई कि वे लाइक करें और कमेंट भी करें। इस कहानी को नाटक में ढाल कर सबको बेहद आनंद आया।
पुरानी कहानी को नए सिरे से सिरजने का आनंद और सुख बच्चों को कैसे दिया जाए इस तरह की गतिविधियों को जरिए प्रशिक्षकों को मिल पाया। अंत में चार समूहों को स्कूल और शिक्षा से जुड़े मुद्दों को कक्षा में कैसे बच्चों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए यह कार्य दिया गया। इन नाटकों/नुक्कड़ नाटकों को जरिए बच्चों और बड़ों के बीच किस तरह से संवेदशीलता पैदा की जाए यह समझ विकसित हो पाई।





कार्यक्रम संयोजक
कौशलेंद्र प्रपन्न

Monday, June 22, 2015

आंगन कहां है अम्मा


घर भर में एक आंगन ही हुआ करता था
जहां अम्मा बैठाकरती थीं
अंचरा में बायन लेकर
रखा करती थीं हाथ में बायन
तोड़ तोड़कर गाजा, लड्डू
ठेकुआं।
आंगन ही था-
जहां बैठा करते थे
पिताजी
स्कूल से लौटकर
रखा करते थे
झोला भरे तरबूज से या मकई से।
हमें पिताजी का इंतजार कम
झोले का जोहा करते थे बाट
डांट भी वहीं मिला करता आंगन में,
धीरे धीरे आंगन बदल गया कमरे में
कमरे दबडे में।
आंगन ही हुआ करता था
जहां गड़ता था बांस
मंड़प भी वहीं छवाया जाता था
हल्दी भी वहीं लगती थी बहन या भाई को।
आंगन ही था जहां दादी रखी गई थीं-
सोई थीं दादी अंतहीन यात्रा पर जाने के बाद
सभी वहीं हुए थे इकट्ठे
चाचा, चाची,
बुचुनिया की माई
ओमबहु
सब वहीं लोर बहाए थे
वह आंगन ही था।
टू प्लस वन
या त्रि प्लस वन में
कई बार चक्कर काट चुका हूं
कहीं आंगन नहीं मिला
न मिली वह जगह जहां संग संग बैठ सकें सभी
कभी जुट जाएं रिश्तेदार,
भाई बहन।
वैसे भी अब ये लोग भी तभी आते हैं
जब कोई शादी ब्याह हो
या फिर......

Sunday, June 14, 2015

अथा तो योग विवाद अनुशासनम्


अथा तो योगानुशासनम् पातंजलि के योगदर्शन का पहला सूत्र है। छः दर्शनों में एक दर्शन योग दर्शन है। इन दिनों योग पर ही विवाद खड़ा हो गया है। यहां स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यम,नियम,आसन,प्राणायाम,धारणा, ध्यान समाधिः आदि मिल कर योग बनते हैं। लेकिन विवाद योग के एक अंग आसन पर उठा है। आसन में भी सिर्फ एक आसन सूर्यनमस्कार पर। यह कहीं भी जिक्र नहीं मिलता कि सूर्यनमस्कार में मंत्रों का उच्चारण किया ही जाए। माना जाता है कि सूर्यनमस्कार में दस आसनों का समावेश है। इस एक आसन को करने से तकरीबन दस आसनों का लाभ मिलता है। आसन प्राणायाम करने से शारीरिक और मानसिक शांति और सौष्ठव से किसी को भी गुरेज नहीं हो सकता। विवाद यहां उठा कि सूर्यनमस्कार के दौरान मंत्रोंच्चारण करना पड़ता है।
मेरा खुद का अनुभव कुछ और कहता है। मैंने कभी मंत्रों का जाप नहीं किया लेकिन आसन नियमित करता रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी कठिन से कठिन आसन कर लेता हूं। हाथ पर चलना हो या अद्र्ध त्रिकोणासन सहजता से करता हूं। बद्ध मयूरासन से लेकर बद्ध सिरसासन भी करता हूं। पिछले कुछ सालों से नियमित नहीं कर पाने की वजह से कमर बढ़ गया था। पुरानी पैंटें नहीं आती थीं। लेकिन पिछले दिसंबर से नियमित आसन करने की वजह से आज पुरानी पैंटें पहन पा रहा हूं।
मेरी तो राय यही है कि एक खास आसन के साथ मंत्र को जोड़ कर योग के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।

Thursday, June 4, 2015

कहां हो उर्दू




कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम के उर्दू शिक्षकों के लिए टेक महिन्द्रा फाउंडेशन में तीन दिवसीय उर्दू शिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में तकरीबन 11 प्रतिभागियों की सहभागिता रही। यूं तो पूर्वी दिल्ली नगर निगम में उर्दू माध्यम में पढ़ाने वाले कम से कम 200 शिक्षक हैं। अकेले पूर्वी दिल्ली नगर निगम में 17 उर्दू माध्यम के स्कूल चल रहे हैं। लेकिन प्रशिक्षण कार्यशाला में अनुपस्थिति बताती है कि हम कितनी संजीदगी से उर्दू और उर्दू शिक्षण को लेते हैं। जो आए थे उनकी खुद की उर्दू की समझ जिस स्तर की थी उसे देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं था कि इनके द्वारा कक्षा में किस गंभीरता के साथ उर्दू पढ़ाई जाती होगी। हमलोग अक्सरहां तमाम रिपोर्ट के हवाले से कहते रहते हैं कि कक्षा 6 ठीं व आठवीं में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा 2 री व तीसरी की भाषायी समझ और गणित की दक्षता नहीं है। यहां तो एम ए और बी एड किए हुए उर्दू शिक्षकों का आलम यह था कि उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उर्दू में कितने वर्ण होते हैं और तलफ्फुज़ कैसे दुरुस्त करें। बच्चों को अलिफ, बे, पे ते से आदि वर्णों को कैसे पढ़ाएं यह तो दूर की बात है। किसी भी भाषा के कौशलों की जब बात की जाती है कि उसके चार कौशलों की बात किए बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। उर्दू शिक्षण में अल्फाजों को कैसे बोलें, लिखें और पढ़ें इन कौशलों के विकास के लिए शिक्षक अभी भी पुरानी तरकीबें ही अपना रहे हैं। गौरतलब है कि दिल्ली में उर्दू माध्यम के स्कूल और शिक्षकों की ख़ासे कमी है। उर्दू माध्यम के शिक्षकों की नियुक्ति 1990 के बाद नहीं हुई।
बतौर एक अध्यापिका, ‘अब बच्चे उर्दू माध्सम से पढ़ना नहीं चाहते।’ वजह बताती हैं कि कई बार हमारे पुराने बच्चे जो अब छठीं व आठवीं में आ चुके हैं वे बताते हैं कि उन्हें उर्दू में पढ़ाने वाला कोई नहीं है। विज्ञान, गणित, समाज विज्ञान को उन्हें हिन्दी माध्यम में पढ़ाया जाता है उन्हें कुछ भी समझ नहीं आता। यह एक बड़ा कारण है कि बच्चे तो बच्चे बच्चों को अभिभावक भी खुद अब नहीं चाहते कि उनका बच्चा उर्दू माध्यम से तालीम हासिल करे। क्योंकि जैसे जैसे बच्चे उपर के दर्जें में दाखिल होते हैं उन्हें उर्दू माध्यम में तालीम मुहैया नहीं कराई जातीं। ऐसे में बच्चे हतोत्साहित होते हैं।
यदि उर्दू जुबान की बात करते हैं तो पुरानी दिल्ली और ज़ाफराबाद की उर्दू में भी फ़र्क मिलता है। जिस किस्म की उर्दू के उच्चारण हमें पुरानी दिल्ली में सुनने को मिलती है वह दिल्ली के दूसरे कोनों में बोली जाने वाली उर्दू से कहीं अलग है। उर्दू बतौर भाषा एवं विषय के तौर पर पूरे भारत में पढ़ाई जा रही है लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि इस भाषा के साथ राजनीतिक बरताव तो होते हैं किन्तु इस भाषा के विकास और उन्नयन के लिए पुख्ता कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
अक्सर भाषायी गोष्ठियों में यह सवाल बड़ी शिद्दत से उठायी जाती है कि उर्दू और हिन्दी को दो नजरिए से देखा जाता रहा है। एक ओर हिन्दी और दूसरे मुहाने पर खड़ी उर्दू हमेशा से ही उपेक्षित रही है। जबकि यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि आमफहम ही भाषा में उर्दू का समावेश जिस सहजता के साथ होता आया है उसे देखते सुनते हुए इसका इल्म भी नहीं होता कि हिन्दी में उर्दू इस कदर गुम्फित है कि उसे निकालना संभव नहीं है। यदि उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों को हिन्दी से कान पकड़कर बाहर कर दें तो वह हिन्दी कैसी होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय को सुझाव दिए गए कि हिन्दी से उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों मसलन दोस्त, अखबार, दफ्तर, बाजार जैसे शब्दों को निकाल बाहर करना चाहिए। इसके पीछे के तर्क को सुन कर हंसी ही आ सकती है कि इससे हिन्दी खराब हो रही है। इस तरह हिन्दी अशुद्ध हो रही है। इन तर्कों की मनसा पर ठहर कर विचार करें तो पाएंगे कि यह एक ख़ास वैचारिक पूर्वग्रह से उठाई गई मांग है। जबकि भाषा विज्ञान और भाषाविद् की दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि किसी भी भाषा में विभिन्न बोलियों, भाषाओं के शब्द उन्हें खराब करने की बजाए उन्हें सवंर्धित ही करते हैं। वह चाहे हिन्दी हो उर्दू हो या फिर अन्य भाषाएं।
प्रेमचंद ने शुरूआती दौर में हिन्दी मंे नहीं लिखा करते थे। प्रेमचंद साहित्य के जानकार इस बात से वाकिफ हैं। उनकी पहली हिन्दी कीह कहानी तकरीबन 1916 के आसपास आती है। उससे पहले प्रेमचंद की लेखकीय भाषा हिन्दी नहीं थी। इस तथ्य से भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि भाषा की छटाएं विभिन्न भाषा-बोलियों के शब्दों से और भी प्रभावकारी हो जाती हैं। जो लोग भाषायी शुद्धता के तर्क पर हिन्दी और उर्दू को अलग करना चाहते हैं उन्हें इसपर भी विचार करना होगा कि क्या वे गंगा जमुनी संस्कृति यानी हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली तहजीब को विलगाना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि भाषायी संघर्ष और भाषायी फांक को बढ़ाया जाए।
आज उर्दू की हालत कुछ तो राजनीति और कुछ भाषायी शुद्धतावादियों की वजह से खराब है। यदि उर्दू भाषा को एक खास वर्ग,जाति, धर्म एवं संप्रदाय के अलग कर के देखने की कोशिश करें तो पाएंगे  िकवह जुबान हमारे हिन्दुस्तानियों की आज भी रही है। आजादी के बाद की जो पीढ़ी जिंदा है वो आज भी पंजाबी एवं हिन्दु परिवार उर्दू के अखबारों को चाव से पढ़ते है। उनकी पंजाबी भी कहीं न कहीं उर्दू के साथ गलबहियां किया करती है।


Wednesday, June 3, 2015

गुणवता के लिए शिक्षक प्रशिक्षण जरूरी



हाल ही में बिहार राज्य में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए विश्व बैंक ने पैंतालीस हजार डाॅलर देने की घोषणा की है। इस राशि को देने के पीछे तर्क यह दिया गया कि बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का एक बड़ा वजह वहां के शिक्षकों में प्रशिक्षण की कमी है। इन पैसों के आधार पर बिहार के प्रारम्भिक शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा। कहा यह भी गया है कि यदि बिहार में सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करना है तो उतने ही शिक्षकों की आवश्यकता भी पड़ेगी और इस लिहाज से वहां के शिक्षक पर्याप्त नहीं हैं। शिक्षकों की कमी भी इन्हीं आर्थिक सहायता राशि से दूर की जाएगी। यूं तो पूरा ही देश शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। दिल्ली से लेकर झारखंड़ तक। जम्मू से लेकर कन्या कुमारी तक हर राज्य में हजारों के पद खाली पड़े हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार शिक्षकों की कमी भी 31 मार्च 2013 तक पूरी कर ली जानी थी। शिक्षकों की को लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय समय पर सरकार से जवाब तलब किए हैं लेकिन परिणाम में कोई अंतर नहीं देखाई दिया। हालात वहीं के वहीं हैं। आरटीई के प्रावधानों के अनुसार 25 एवं 31 बच्चों पर एक शिक्षक होने चाहिए। वे शिक्षक प्रशिक्षित होने चाहिए इसकी वकालत और सिफारिश आरटीई करती है। लेकिन देश के अधिकांश सरकारी स्कूलेां में स्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं। बारहवीं और बीए, एमएम पास छात्रों को तदर्थ पर शिक्षण कर्म में लाया जा रहा है। गौरतबल है कि 2010 के आसपास बिहार में गांधी मैदान में खुलआम नियुक्ति पत्र बांटे गए थे। लेकिन आरटीई के अनुसार नियुक्ति के दो वर्ष के भीतर उन शिक्षकों को प्रशिक्षण मुहैया कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी बताई गई थी। इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश राज्य में भी हजारों की संख्या में शिक्षकों के रिक्तों को भरा गया था।
शिक्षा की गुणवत्ता का जहां तक प्रश्न है तो कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहां एक ओर जिला प्रखंड़ शिक्षण संस्थान यानी डाईट की स्थापना की गई है। वहीं विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं पाठ्यक्रम चलाए गए। इन संस्थानों की स्थापना के पीछे मकसद यही था कि राज्यों में शिक्षकों की प्रशिक्षण गुणवत्ता सुनिश्चित की जाएगी। लेकिन जिन हालात में इन संस्थानों से छात्र निकलते हैं उनकी शैक्षिक समझ और शिक्षण गति को देखकर लगता है इनके द्वारा कक्षा में किस प्रकार शिक्षण किया जाता होगा। हर साल गैर सरकारी और सरकारी आंकड़े जारी किए जाते हैं जिन्हें देखकर चिंता गहरी हो जाती है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया करा रहे हैं। हमारे बच्चे प्राथमिक स्तर पर कक्षा एक व छः कक्षा की भाषायी समझ और गणित के सामान्य से हल नहीं कर पाते। भाषा और गणित के अलाव विज्ञान और सामान्य विज्ञान की समझ भी उनकी कक्षा और उम्र के अनुसार नहीं है। क्या हमारी प्रशिक्षण और शिक्षण विधि पर एक बड़ा सवाल खड़ा नहीं करता। क्या हमें हमारी शिक्षा की पतली होती धारा दिखाई नहीं दे रही है? यदि हम इस प्रवृति को अभी नहीं देख पा रहे हैं तो निश्चित ही आने वाले वर्षांे में हम किस प्रकार के पौध बो रहे हैं इसका अनुमान होना चाहिए।
शिक्षकों के प्रशिक्षण को लेकर सरकारी और गैर सरकारी तंत्र अपने अपने तरीके से प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही हैं, लेकिन विचार करने की आवश्यता यह है कि इन संस्थानों में दी जाने वाली प्रशिक्षण औजारों की गुणवत्ता कितनी है? किस स्तर की प्रशिक्षण दक्षता उनमें प्रदान की जा रही है। क्या महज अंकों के पहाड़ खड़े किए जा रहे हैं? क्या सिर्फ परीक्षा पास करने की तालीम दी जा रही है या आगामी वर्षों में शिक्षा को किस प्रकार की चुनौतियां से सामना करना होगा इस ओर भी सचेत किया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले छात्र अमूमन पाठ्यपुस्तकों के अलावा कुछ भी पढ़ाना नहीं चाहते। वे अपनी पाठ्यपुस्तकों को भी महज अंकीय दृष्टि से ही पढ़ते हैं। उन्हें जो अन्य सहायत पुस्तकें बताई जाती हैं वे पढ़ना उन्हें वक्त जाया करना सा लगता है। यही वजह है कि शिक्षण कर्म में आने के बाद उनकी शैक्षिक लेखन, शोध पत्रों आदि अकादमिक गतिविधियों में रूचि नहीं पैदा हो पाती। क्या इस रूचि के पैदा करने में उनके शिक्षकों के योगदान को नकारा जा सकता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...