Tuesday, September 27, 2016

शिक्षा के नाम पर शिक्षणशास्त्र की नजर से शिक्षा को समझना


कौशलेंद्र प्रपन्न
मंजूल संयोग ही माना जाएगा कि शिक्षा पर हमपेशा सुश्री ऋतु बाला और श्री राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षण शास्त्र पुस्तकें शिक्षा जगत को दिए हैं। इन दोनों ही पुस्तकों के लेखकद्वय सुश्री ऋतु बाला और राघवेंद्र प्रपन्न निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। क्योंकि इन दोनों ने शिक्षा में पिछले दो दशकों से होने वाली हलचलों को ठहर कर पकड़ने और समझने के लिए विभिन्न दस्तावेजों और अध्ययनों को अपनी इन किताबों में शामिल किया है। लेखकद्वय ने शैक्षिक जगत से संबद्ध विभिन्न दस्तावेजों एवं अंतरराष्टीय-राष्टीय दबावों और आर्थिकी पहलुओं की परतों को खोलने का प्रयास भी किया है। शिक्षा के नाम पर आजादी से पूर्व और आजादी के बाद कितना और किस स्तर के काम हुए हैं यह जानना अपने आप में बहुत ही दिलचस्प होगा। शिक्षा के छात्र और शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए शिक्षा का इतिहास और राजनीति काफी रूचिकर और रहस्यमय भी रहा है। रहस्यमय इसलिए क्योंकि राजनीति शिक्षा में हस्तक्षेप कर शिक्षा की धार को कुंद करने की ताकत रखती है और इस ताकत को शिक्षा पर आजमाती भी रही है यह समझना जरा मुश्किल काम है। हमें पाठ्यपुस्तकों,पाठ्यचर्याओं और पाठ्यक्रमों के निर्माण प्रक्रिया को किस प्रकार राजनीतिक हस्तक्षेप शिक्षा के उद्देश्य को भ्रमित करती है इसकी झलक हमें ज्ञान का शिक्षा शास्त्र पुस्तक के पहले पाठ में मिलता है। ‘‘भारतीय स्कूली शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक विज्ञान के विमर्श की शिक्षा शास्त्रीय विवेचना’’ पाठ में विज्ञान की किताबों में किस तरह सन् 2000, 2002 में पाठ्यपुस्तकों एवं पाठ्यचर्याओं को एक विशेष विचारधारा ने अपनी वैचारिक विस्तार के लिए किताबों को औजार के तौर पर इस्तमाल किया इसकी झांकी सप्रमाण मिलती है। बतौर इसी पाठ से एक और उदाहरण प्रस्तुत है - ‘‘समाज विज्ञान के पाठ्यक्रम सन् 1988 से सन् 2001 के पाठ्यक्रम का मिलान करने पर यह साफ हो जाता है कि पाठ्यपुस्तकों की यह दुर्दशा महज संयोग, असावधानी तथा गैरजानकारी का परिणाम नहीं है बल्कि सन् 2002 का पाठ्यक्रम सैद्धांतिकतौर पर ही इस बात को मान्यता नहीं देगा कि विद्यार्थी, समाजविज्ञान को समाजशास्त्रीय पद्धति से पढ़ सके।’’
हम राजनीति को शिक्षा से अलगाकर शिक्षा की प्रकृति को समझने का दावा कर सकते हैं। सर्वांगीण शैक्षिक समझ की वकालत तभी संभव है जब हम शिक्षा की सामाजिक,राजनीति, परिवेशीय एवं आर्थिक भूगोल को अपनी नजरों से गुजारें और उन तमाम पहलकदमियों,हलचलों को समझने का प्रयास करें जिसे हम इतिहास के हिस्से डाल देते हैं। शैक्षिक जगत का भूगोल भी रोजदिन न सही किन्तु गतिमान तो है ही। परिवर्तन की प्रक्रिया यहां भी घटित हो रही है। शैक्षिक भौगोलिक जमीन भी तेजी से खिसक रही है लेकिन क्योंकि हम गति में हैं इसलिए उन परिवर्तनों से नवाकिफ हैं। जिनका परिणाम आज नहीं बल्कि दस बीस साल बाद हमारी पीढ़ी को भुगतनी होगी। तक्सीम के तकरीबन सत्तर साल बाद भी शिक्षा का चरित्र संदिग्ध ही रहा है। शिक्षा किसके लिए, किसके द्वारा, किसको दिया जा रहा है इस गुत्थी को सुलझाने में हम असफल रहे हैं।
शैक्षिक वैश्विकरण,उदारीकरण, नव उदावाद, बाजारीकरण के दौर में हमें शिक्षा की प्रकृति को समझना बेहद जरूरी है। न केवल शैक्षिक इतिहास बल्कि शिक्षा-समाज, शैक्षिक-राजनीति, शैक्षिक आर्थिकी को भी समझने का प्रयास करना होगा तभी हम वर्तमान की शैक्षिक चरित्र और प्रकृति को कोसने की बजाए शिक्षा से जुड़े उन तमाम घटकों को सुधारने की बात करेंगे जिन्होंने शिक्षा को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे शब्दों में कहें तो शिक्षा के इतिहास, समाज, चरित्र, वैश्विक बुनावट को समझना होगा।
शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षा शास्त्र पुस्तकों का स्वागत होना चाहिए क्योंकि इन दो किताबों में लेखकद्वय राघवेंद्र प्रपन्न और ऋतु बाला ने बड़़ी ही शिद्दत से शिक्षा के वर्तमान, इतिहास एवं समाज से टकराने और खरोंच मारने की कोशिश करते हैं।
शिक्षा की मुख्यधारा में किस तरह से शैक्षिक चरित्र निर्धारित करने वाले नीतिकारों और राजनीतिकों ने शैक्षिक विमर्श और पाठ्यपुस्तकों से वंचितों, दलितों,अनुचित जाति और जनजातियों को हाशिए पर रखा इस अंधेरे कोने की ओर ऋतु बाला द्वारा लिखित आलेख पाठ ‘‘स्कूली पाठ्यपुस्तकों में दलित-वंचित वर्ग की छवि’’  में विस्तार से चर्चा मिलती है कि किस प्रकार हमारे पाठ्यपुस्तकों में दलितों, वंचित वर्गों को पढ़ाया जाता है और उससे बच्चों में किस प्रकार की छवियां बनती हैं। लेखिका ने देश के चार राज्यों बिहार, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के हिन्दी की किताबों में वर्णित वंचितों और अनुसूचित जाति और जनजातियां की छवियां को उभारने वाले चित्रों का विश्लेषण किया है जो आंखें खोलने वाला अध्ययन है। बतौर लेखिका- ‘‘ चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि अनुसूचित जनजाति का एक भी महिला अथवा पुरुष पात्र ऐसा नहीं है जिसकी चर्चा समूह तथा जनजाति विशेष से हटकर एक व्यक्तित्व के रूप में की गई है। जबकि आदिवासी समाज में कई ऐसे ऐतिहासिक चरित्र हुए हैं जो चर्चित भी रहे हैं तथा आज भी जीवंत हैं मसलन- अकेले बिहार के रांची जिले में 1789 से 1920-21 तक तकरीबन छः चर्चित विद्रोह हुए हैं। परंतु इनका जिक्र तक अध्ययन में शामिल बिहार की पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलता।’’  ऋतु बाला इसी पाठ में आगे लिखती हैं कि चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों ; कक्षा 6 से 8 हिन्दी विषयद्ध  के 2268 पृष्ठों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की कुल हिस्सेदारी 71 पृष्ठों की पायी गई। एक और ध्यान खींचने वाले तथ्य की ओर खींचती हुई ऋतुबाला लिखती हैं कि इन चार राज्यों की हिन्दी की सोलह पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर के कुल तीन चित्र  हैं। जिसमें इन्हें वकील की पोशाक में दिखाया गया हैं कोई बिंब, चिह्न प्रतीक व वाक्यांश ऐसा नहीं है जो बतला सके कि ये अनुसूचित जाति से संबंधित हैं। ऋतुबाला एप्पल की स्थापना को कोट करते हुए लिखती हैं कि महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों की विश्वदृष्टि क्या है इसकी कोई ठोस विवेचना किए बगैर ही पाठ्यपुस्तकों में महिलाआें और अल्पसंख्यकों के योगदान को सीमित कर दिया जाता है। लेखिका बड़ी ही शिद्दत से अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जनजातियों आदि की छवियों की पड़ताल इस पाठ में करती हैं। उन्होंने अपने ही अध्ययन के हवाले से हम नागर समाज का ध्यान उस तथ्य की ओर भी खींचा हैं कि हमारी पाठ्यपुस्तकें ही हद तक इन वंचितों के हित और सकारात्मक छवि निर्माण में मददगार साबित होती हैं या फिर छवि भंजक की भूमिका निभाती हैं।
राघवेंद्र प्रपन्न ‘‘भाषा की शिक्षा शास्त्रीय मीमांसा’’ पाठ में विस्तार से चर्चा करते हैं कि किस प्रकार 1988, 2000 और 2005 की भाषायी विमर्श और स्थापनाओं में बुनियादी अंतर देखने को मिलता है। इससे हमें भाषायी शिक्षा के शैक्षिक दर्शन की झलक मिलती है। जहां एक ओर 1988 की भाषायी शिक्षा की नीति लगभग एक धरातल पर नजर आती है वहीं 2000 की भाषायी स्थापना में बुनियादी फांक नजर आता है। मसलन 2000 की पाठ्यचर्या स्पष्ट मानती है ‘‘ प्राथमिक स्तर के प्रथम दो वर्षों में बच्चों को सुनना,बोलना,पढ़ना और लिखना और सेचने जैसे मूल कौशलों को विकसित करने में मदद करनी होगी।उच्चारण के निर्धारित मानकों के अनुसार मानकीकरण की प्रकिया पर भी विशेष ध्यान देना होगा।’’ वहीं लेखक 2005 की पाठ्यचर्या के हवाले से कहते हैं  ‘‘ कक्षा 3 के बाद मौखिक और लिखित माध्यमों को उच्च स्तरीय संवाद कौशल और आलोचनात्मक चिंतन के विकास के प्रयास हों।’’ राघवेंद्र प्रपन्न इसी पाठ में अन्य लेखकीय विचारों और भाषायी मान्यताओं को भी संदर्भित करते हैं। जेम्स ब्रिटेन की पंक्तियां उद्धृत करते हुए लिखते हैं-‘‘ आरम्भिक वर्षों में बोलने, प्रतिक्रिया करने,विविध तरीकों से अभिव्यक्त करने के मौके भाषा विकास के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी आधार है न कि मानकीकृत भाषा के अनुसार वर्तनी एवं भाषा सुधार।’’  इस तरह से लेखक विभिन्न भाषासमालोचकों भाषाविद्ों के हवाले से विभिन्न पाठ्यचर्याओं में भाषायी दृष्टि और शिक्षा स्थापनों के अंतरों को रेखांकित करने का प्रयास करता है। विभिन्न हिन्दी के पाठ्यपुस्तकों की शिक्षा शास्त्र एवं हकीकतों की ओर ध्यान दिलाते हुए उदाहरणों सहित इस तथ्य की स्थापना करता है कि भाषायी शिक्षा घंटी बदलू तर्ज पर हो रही हैं।
वहीं ऋतु बाला अपनी सुदीर्घ पाठ ‘‘भारतीय शिक्षा-अधिगम प्रक्रिया में संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ का महत्व’’ में विस्तार से बच्चों की सीखने की प्रक्रिया की चर्चा करती हैं। इस संदर्भ में भारतीय परिवेश की चर्चा तो करती हैं ही हैं। साथ ही विदेशी िंचंतकों को भी बेहतर तरीके से संदर्भगत कोट करती हैं मसलन वाडगाट्स्की के उपागम को रेखांकित करते हुए लिखती हैं कि ‘‘बच्चा जिन सामाजिक परिस्थितियों में विकसित होता है वह न केवल जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की विषयवस्तु बल्कि उसके तंत्र पर भी अपना चिह्न अनिवार्य रूप से छोड़ता है।’’
अब हम दूसरी किताब शिक्षा के नाम पर नजर डालें तो पाएंगे कि लेखकद्वय ऋतुबाल और राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा जगत में घटने वाली घटनाओं को केंद्र में लाते हैं। समय समय पर शिक्षा में कब और किस तरह की करवटें घटी हैं इसकी सुगबुगाहटों को इस किताब में सुना जा सकता है। शिक्षा के नाम पर किताब में तकरीबन चालीस निबंधों को शामिल किया गया है। इन निबंधों को समय समय पर विभिन्न शैक्षिक परिघटनाओं पर सामयिक टिप्पणियों के तौर पर की गई हैं जिसे किताब के रूप में लाने से पहले पुनर्पाठ के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। इन लेखों को विभिन्न अखबारों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं। इसलिए स्थान और समय को ध्यान में रखते हुए कायिकतौर पर छोटे आकार में देखे जा सकते हैं। लेकिन आकार में छोटा होने का अर्थ यह नहीं हैं कि कहीं भी किसी कोण से कमतर हों। हालांकि लेखकद्वय की पहली पुस्तक ज्ञान का शिक्षण शास्त्र ज्ञान निर्माण और शैक्षिक अकादमिक विमर्शों को शामिल करने की वजह से पाठों की लंबाई विस्तार की दृष्टि से पाठकों को ठहर कर पढ़ना होगा। लेकिन शिक्षा के नाम पर किताब में स्वतंत्र रूप से लिखे गए लेखों को अलग अलग कर भी पढ़ सकते हैं। ऋतु बाला अपनं लेख तुम्हारा तो हो जाएगा में लिखती हैं कि किस तरह से समाज में लडकियों उसमें भी अनुसूचित जाति के होने के नाते आरक्षण के व्यंग्यबाण सुनने होते हैं। इसके पीछे की मानसिकता क्ी परतें खोलते हुए लिखती हैं कि शिक्षण संस्थाएं अपने सामाजिक सरोकारों के लिहाज से विकास के हाशिए पर खडे लोगों के लिए न्यूनतम संवेदना विकसित करने में असफल रही हैं। ऋतु बाला पाठ्यपुस्तकों कें अंबेडकर में लिखती हैं कि किस प्रकार हमारे पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर की छवि को उकेरी गई हैं।
वहीं राघवेंद्र प्रपन्न का लेख शिक्षक और छात्र का रिश्ता एक अप्रत्यक्ष शैक्षिक सत्ता की ओर पाठकों का ध्यान खींचते हैं। जब  बच्चा कहता है कि फिर आपको पता ही क्या हैं ? इस पर शिक्षकीय सत्ता बाहर आता है कि तुम मेरा अकादमिक रिकार्ड जानते हो? मैंने कहां कहां से पढ़ाई की? किस तरह से शिक्षक हमेशा अपनी सत्ता बच्चों से अलग रखने का प्रयास करता है और जब कोई छात्र इस सत्ता पर सवाल उठता है तब शिक्षक बौखला उठता हैं।
इस भारतीयता से अनजान पाठ में राघवेंद्र प्रपन्न लिखते हैं कि किस प्रकार हिन्दी के नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे लेखक स्कूली शिक्षण से बाहर हैं। शिक्षकों को यदि कोई चिंता होती है तो बस पाठ को पूरा कराना है। नागार्जुन के देहांत पर सुबह की सभा में कैसे सभी मौन हैं और उन कवि से अपरिचित हैं शिक्षक समाज इस ओर ठहर कर लेखक विचार करते हैं। साथ ही किस तरह की भारतीयता का परिचय हमारा पाठ्यपुस्तक करा रहा है। इसकी झलक भी हमें मिलती हैं।
पूर्वग्रहों के पाठ में ऋतु बाला दलितों, वंचितों के समाज को कैसे पाठ्यपुस्तकों से सोची समझी रणनीति के तहत बाहर किया गया है इस तरफ एक समझ का झरोखा खोलती हैं। विभिन्न हिन्दी के पाठ्यपुस्तकों में कितना प्रतिशत स्थान दलितों, वंचितां को मिला हैं इस ओर पाठकों को अध्ययन की प्राप्ति से रू ब रू होने का मौका मिलता हैं।
शिक्षा के नाम पर पुस्तक में हालांकि प्रथम लेखिका ऋतु बाला और दूसरे स्थान पर राघवेंद्र प्रपन्न का नाम है। लेकिन लेखों के अनुपात पर नजर डालें तो एक विषमता यहां भी दिखाई देती है। जहां राघवेंद्र प्रपन्न के लेखो की संख्या 29 के आस पास है वहीं ऋतु बाला जी के लेखों की संख्या बीस से भी कम हैं। क्या ऐसा सोच समझ कर किया गया या फिर अनजाने में ऐसा हुआ लेकिन यह बात अखरती है कि इस किताब की प्रथम लेखिका ऋतुबाला जी के ही लेखों की संख्सा कम हैं। हालांकि संख्या से ज्यादा गुणवत्ता की बात की जाए तो इनके लेख कई दूसरे लेखों पर भारी दिखाई देते हैं।
जहां तक किताब की भाषा और शैली की बात करें तो यथा नाम तथा भाषा कहना उचित लगता हैं। क्योंकि शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक चरित्र की विवेचना काव्य भाषा में नहीं हो सकती। पाठकों को इसके लिए भाषायी तौर पर भी खुद को तैयार करना होगा। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षा की गहरी समझ पाने के लिए विभिन्न दस्तावेजों, किताबों, उदाहरणों को समझने के लिए समय भी निकाल कर पढ़ना होगा। भाषा गंभीर और सामान्य से हटकर भी मिलेंगी। खासकर जब ज्ञान का शिक्षणशास्त्र पुस्तक से गुजरेंगे। वहीं शिक्षा के नाम पर किताब की भाषा और वाक्य विन्यास साधारण और अखबारी हैं। वहीं ज्ञान का शिक्षण शास्त्र की भाषा पूरी तरह से अकादमिक हिन्दी मानी जाएगी।
और अंत में शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षण शास्त्र दोनों ही किताबें अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अलहदा हैं। दोनों के केंटेंट और प्रस्तुति भी भिन्न हैं। लेकिन शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह दो किताबें शिक्षा की दुनिया में प्रवेश द्वार के तौर पर काम आ सकने की क्षमता रखती हैं।




Saturday, September 3, 2016

शिक्षक की गुणवता और बदलता परिवेश



कौशलेंद्र प्रपन्न
सितंबर आ गया है। हम एक एक कर शिक्षक फिर हिन्दी को याद करेंगे। मास्टर जी मांफ कीजिए आप तो पूरे साल याद आते हैं लेकिन कुछ और कारणों से। कहीं आप कक्षा में सोते हुए पाए जाते हैं तब याद आते हैं। तब भी याद आते हैं जब कक्षा में बैठे बैठे ब्ल्यू फिल्में वाली विडियो अपने स्मॉर्ट में देखते पाए जाते हैं। और तो और जब आपकी छवि नकारा साबित करती रिपोर्ट आती है तब आप याद आते हैं। सबसे ज्यादा आपकी याद आती है 5 सितंबर को। क्योंकि इस दिन समाज को बड़ी ही श्रद्धा से आपको याद करता है। बच्चे आपको पावं छू कर आशीष लेते हैं। आपका स्नेह तब ज्यादा याद आता है जब कोई किसी चीज को प्यार से बिना झुझलाए दो तीन बार समझाने की बजाए गो टू हेल कह देता है। जब कभी कहीं किसी शब्द, वाक्यों के मायने में उलझ जाता हूं तब भी आपकी बहुत याद आती है। आपका चेहरा याद आता है आप किस तरह धैर्य से बातें सुनते और फिर विस्तार से समझाया करते थे। लेकिन समय के साथ आप भी तो बदल गए। बदलते क्यों न आप भी तो इसी समाज में रहते हैं। इन्हीं लोगों से आपका वास्ता जो पड़ता है। मेरे पापा बता रहे थे एक मास्टर जी आए थे कह रहे थे तुम्हें उन्होंने पढ़ाया है। उनकी पेंशन रूकी हुई थी। क्योंकि कुछ लेने देने के खिलाफ थे। मगर टूट गए। मुझे मालूम है आप टूटने वालों में से नहीं थे। लेकिन आपको भी इसी समाज में रहना है तो इसकी रवायतों को न चाहते हुए भी कई बार कबूलना पड़ता है। आप जहां भी स्वस्थ रहें। आपकी बहुत याद आती है। आज भी नए नए शिक्षकों/शिक्षिकओं में आपको देखता हूं।
समाज के समुचित विकास और संवर्द्धन में शिक्षा,सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि को शामिल किया जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी यदि कमजोर पड़ती है तो यह समझना चाहिए कि समाज व देश का विकास सही और समुचित दिशा में नहीं हो रहा है। यदि उपरोक्त किसी भी एक के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है तो इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि उस समाज का सर्वांगीण विकास नहीं हो रहा है। सरकारें आती जाती हैं लेकिन प्रतिबद्धताएं, समस्याएं, चिंताएं यथावत् समाधान के इंतज़ार में अपनी जगह बरकरार रहती हैं। हमने आजादी के बाद भी यह दुहराना नहीं भूले कि समाज का विकास करना है तो शिक्षा को दुरुस्त करना होगा। वह 1952 की समिति हो, 1964-66 की कोठारी आयोग की संस्तुतियां हों, 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1990-92 की आचार्य राममूर्ति पुनरीक्षा समिति हो, 2002 की संविधान के 86 वें संशोधन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकारों में 21 ए को शामिल करना हो आदि। इन उपरोक्त समितियों, आयोगों और घोषणाओं की रोशनी में हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या हमने इन संस्तुतियों को प्राथमिक शिक्षा को बेहतर करने क लिए किस प्रतिबद्धता के साथ काम किया। सरकारें आती और जाती रहीं। हर सरकार ने घोषणाएं खूब कीं किन्तु प्राथमिक शिक्षा की दशा दिशा अभी भी हमारे तय लक्ष्य से दूर है। यहां यह भी बताते चलें कि 1968 में यह बात कही और स्वीकारी गई थी कि 1986 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। समय और लक्ष्य को बढ़ाया ही गया यह शिक्षा के विकास क्रम पर नजर डालें तो साफतौर पर दिखाई देता है। सन् 1986 भी हमारे हाथ से निकल गया। सन् 1990 में सेनेगल में संपन्न अंतरराष्टीय शिक्षा सम्मेलन में विश्व के तमाम देशां से स्वीकारा और हस्ताक्षर कर कबूल किया कि 2000 तक हम देश के सभी बच्चों को ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तख़त किए थे। भारत में इस घोषणा को लागू करने में दो वर्ष का अतिरिक्त समय लगा यानी 1992 में भारत इस दस्तावेज को अमलीजामा पहनाता है। यहां दिखाई देती है कि हमारे राजनीतिक धड़ों को शिक्षा की चिंता कितनी थी। हमें राजनीतिक इच्छा शक्ति का भी परिचय मिलता है कि हमने अब तक शिक्षा का मौलिक अधिकार तक नहीं माना था। हालांकि प्रो. कृष्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद में इस मसले को उठाते हैं और कहते हैं कि ‘शिक्षा का अधिकार कानून को बनने में सौ वर्ष का समय लगा।
गौरतलब है कि 2002 में संविधान में 86 वां संशोधन के बाद मौलिक अधिकारों में धारा 21 में ए जोड़ा गया और कहा गया ‘निःशुल्क एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा का अधिकार’ सभी बच्चों ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध को प्रदान किया जाएगा। जैसा की सभी को मालूम है कि यह संशोधन कानून 2009 में बना। यानी भारत के तमाम बच्चों को मौलिक शिक्षा का अधिकार 2009 में मिला। इसी तारीख को तय किया गया कि सभी राज्यों में यह 31 मार्च 2013 तक लागू हो जाएगा। यह तय समय सीमा गुजरे भी आज लगभग तीस वर्ष हो चुके हैं। हकीकत यह है कि हमारे देश के लगभग जैसा कि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि आज भी अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत के कुल बच्चों की जनसंख्या में से अस्सी लाख बच्चों प्राथमिक शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। जब इस आंकड़े को गैर सरकारी संस्थानों, प्रथम, आरटीई फोरम, ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट आदि ने जांचा तो पाया गया कि यह संख्या 5 करोड़ के आस पास बैठती है। आंकड़ों में बात करने वाली सरकार यह तो जरूर पेश करती है कि आरटीई के लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन दर में खासा उछाल आया है। लेकिन बीच में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ी है। आरटीई फोरम की वार्षिक सम्मेलन में जारी रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों की बच्चियों में स्कूल बीच में छोड़ने की संख्या बढ़ी है। इसके पीछे वजह स्वच्छ और शौचालय का न होना प्रमुख है। ;27,28 मार्च 2015, राष्टीय शिक्षा अधिकार सम्मेलन,रिपोर्ट द्ध वहीं सरकारी शैक्षिक संस्था नीपा की ओर जारी डाइस की रिपोर्ट कभी इस ओर हमारा ध्यान खीचती है कि गांवों और शहरों में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़कियां की संख्या अधिक है। वजह स्कूल का गांव से दूर होना, स्कूल में पीने का पानी और शौचालय का न होना, टीचर की कमी है। ; 2013-14,2014-15 की डाइस की रिपोर्ट द्ध गौरतलब है कि यह रिपोर्ट स्कूली शिक्षकों द्वारा ही भरवाई जाती हैं। देश भर में सरकारी स्कूलों में यह कवायद हर साल होती है और यह दस्तावेज किसी की नजर में नहीं चढ़ती। न ही इसपर कोई ख़ास गंभीर कदम ही उठाए जाते हैं। डाइस की रिपोर्ट सरकारी स्कूलों के शिक्षक और प्रधानाचार्य के द्वारा ही तैयार की जाती है इसलिए इस दस्तावेज को खास तवज्जो दी जानी चाहिए।
शिक्षा को सुचारूरूप से चलाने के लिए आर्थिक मदद की जरूरत पड़ती है। गौरतलब है कि 1964-66 में कोठारी आयोग ने तब सकल घरेलू उत्पाद के 6 फीसदी दिए जाने की सिफारिश की गई थी। यदि आज भी 2012-13,213-14 और 2015-16 के बजट को देखें तो हम बामुश्किलन 3 फीसदी ही शिक्षा की बेहतरी के लिए खर्च कर रहे हैं। वर्तमान सरकार ने शिक्षा के मद में दी जाने वाली आर्थिक सहायता राशि में ऐतिहासिक कटौती की गई। इसमें सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन आदि में भारी कटौती की गई। इस पहल की आलोचना शैक्षिक क्षेत्र की हुई। तमाम शिक्षाविद्ों, अर्थशास्त्र के जानकार मानते हैं कि शिक्षा में गुणवता और बच्चों की भविष्य को बेहतर बनाना है तो सरकार को शिक्षा के मद में कैंची नहीं चलानी चाहिए थी। यहां याद दिला दें तो 2000 में जब डकार में सम्मेलन हुआ जहां 1990 में घोषित सभी के लिए शिक्षा की पुनरीक्षा हो रही थी तब भारत सरकार ने कहा था कि हमें आर्थिक मदद चाहिए ताकि हम तय समय सीमा के भीतर शिक्षा के आधिकार को पूरा कर पाएं। यही वह वर्ष है जब वैश्विक स्तर पर भारत को तमाम स्रोतों से आर्थिक मदद मिलने शुरू हो गए। सर्व शिक्षा अभियान के तकत करोड़ों रुपए सरकार को हर वर्ष मिले। यदि इस लिहाज से देखें तो शिक्षा को उस अनुपात में सुधार नहीं हुए। आर्थिक मार झेल रही प्राथमिक शिक्षा को कैसे बेहतर बनाया जाए इसके लिए कई स्तरों पर योजनाएं बनाई गईं। कोठारी आयोग ने कहा था कि यदि प्राथमिक शिक्षा में गुणवता सुनिश्चित करना है तो कक्षा में 25/1 यानी बच्चे और शिक्षक के अनुपात होने चाहिए। लेकिन यह अनुपात सरकारी स्कूलों में अभी भी दूर की कौड़ी है। इसके पीछे के कारणों को सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों इस रूप में पहचान की कि हमारे स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। शिक्षकों कमी कमी को पूरा करने का एक वैकल्पिक रास्ता यह 1990 के आस पास यह निकाला गया कि हम कम प्रशिक्षित पैरा टीचर, शिक्षा मित्र, अनुबंधित शिक्षकों से कक्षा में शिक्षण का काम लेंगे। यह एक ऐतिहासिक कदम था। प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा मित्रों के हवाले शिक्षा को छोड़ दिया गया। प्रो अनिल सद्गोपाल की नजर में यह उदारीकरण और प्राथमिक शिक्षा में विश्व बैंक का प्रवेश काल था। प्रो सदगोपाल आगे कहते हैं कि यह एक सरकारी तंत्र को भारत की हाथों से झीन का बाजार को सौंपने से कम नहीं था। हमने अपनी शैक्षिक नीति और दिशा तय करने के लिए विश्व बैंकों को आमंत्रित किया। आज भी प्राथमिक स्कूलों में देश भर में लाखों पद खाली हैं जिन पर शिक्षा मित्र और अनुबंधित शिक्षक खट रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा में इस तदर्थवादी पहल ने प्राथमिक शिक्षा की गुणवता को खासा प्रभावित किया। शिक्षाविद् प्रेमपाल शर्मा शिक्षा-कुशिक्षा किताब में लिखते हैं कि आज प्राथमिक शिक्षा में सबसे भयावह स्थिति और बोझ समझ का तो है ही साथ ही भाषा के तौर पर अंग्रेजी की ज्यादा है। हमारे अधिकांश बच्चे अंग्रेजी के डर में जीवन जीते हैं। प्रेमपाल शर्मा इस किताब में चर्चा करते हैं कि आज प्राथमिक शिक्षा यदि किसी बड़े संक्रमण काल से गुजर नहीं है तो वह भाषायी विस्थापन है। भाषायी समझ और विषयी शिक्षण में शिक्षक की अपनी तालीम काफी मायने रखता है। क्योंकि जिस तरह आज हमारे शिक्षक प्रशिक्षण पा रहे हैं वे खुद शंका के घेर में हैं।
प्राथमिक शिक्षा में गुणवता के सवाल को अपने समय के प्रसिद्ध हस्ताक्षरों ने दर्ज किया है। प्रो कृष्ण कुमार ने विभिन्न पत्रों में इस मसले को उठाया है। प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों की प्रशिक्षणीय कौशलों और पाठ्यक्रमों पर भी विमर्श करते हैं। अपनी किताब स्कूली हिन्दी में चर्चा करते हैं कि शिक्षकों की हैसियत और सामाजिक पहचान भी प्रकारांतर से उसके व्यवसाय को प्रभावित करता है। वहीं शिक्षा के नए क्षितिज किताब में रमेश दवे लिखते हैं कि प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों की कमी का असर कहीं न कहीं गुणवता पर दिखा जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षकों को मिलने वाली पूर्व सेवाकालीन प्रशिक्षण उस स्तर के नहीं हैं जिसकी अपेक्षा शिक्षा शास्त्र में की जाती है। जब प्राथमिक शिक्षा में गुणवता की बात होती है कि तब सबसे पहले हमारा हाथ शिक्षक की गर्दन की ओर जाता है। अंधेर नगरी चौपट राजा से बिंब उधार ले कर कहूं तो क्योंकि शिक्षक की गर्दन कमजोर होती है। क्यांकि यह गर्दन सरलता से पकड़ी जा सकती है। यही वजह है कि शिक्षा में जो भी गिरावट बताई जा रही है उसका जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही है। जबकि इस गिरावट में शिक्षक एक मोहरे के तौर पर इस्तमाल होता है। यदि हमारी योजना, पाठ्यपुस्तकों,पाठ्यक्रमों और रणनीतियों में शिक्षक की कोई अहम भूमिका नहीं होती तो वह कैसे अपनी हैसियत और हस्तक्षेप को सुनिश्चित कर सकता है। प्रो कृष्ण कुमार गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद मेंं विमर्श करते हैं कि शिक्षक शिक्षा विभाग में सबसे छोटी इकाई होता है जिसकी कोई नहीं सुनता। वह सिर्फ अपनी कक्षा में निर्माता और सर्वेसर्वा होता है। लेकिन समाज में उसकी हैसियत कमतर ही आंकी जाती है।
शिक्षक की गुणवता और कौशल काफी हद तक कक्षायी शिक्षण को प्रभावित करता है। यदि हम इस दृष्टि से देखें तो प्रो कृष्ण कुमार अपनी किताब ‘गुलामी शिक्षा और राष्टवाद’ में चर्चा करते हैं कि जिन कारकों ने शिक्षकों को एक कमजोर पेशागत पहचान और हैसियत बख्शी है, उनमें एक पाठ्यचर्या के मामले में उसका कोई हाथ न होना भी था। औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा लाए गए नौकरशाही में यह बात निहित थी कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों से संबंधित सारे फैसले वरिष्ठ प्रशासकों द्वारा ही लिया जाता था। पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में शिक्षक की भूमिका पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षकीय भूमिका न के बराबर है। कहने को हर दस्तावेज यह तो दावा करता है कि शिक्षकों से राय ली गई। लेकिन सूक्ष्मता से देखें तो पाएंगे कि वह नक्कारखाने में तूती की तरह होती है। शिक्षक की आवाज शैक्षिक विमर्शों में नजरअंदाज ही किया गया है। वरना शिक्षकीय समूह से उठने वाली शिकायतों पर ध्यान दिया जाता।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...