यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Tuesday, June 29, 2010
रिश्ते बड़े या पैसे
इसतरह के कार्यक्रम को सुन कर आज के युवा के विचार सुन कर कुछ देर के लिए ताजुब होता है लेकिन होना नहइ चाहिए। मूल्य नैताकता या इसी तरह के शब्द आज अपने अर्थ खो चुके हैं जो भी यैसे शब्दों को ले कर बैठे हैं उनको निराशा ही हाथ आने हैं और कुछ नहीं। रिश्ते के मायने बदल चुके हैं इस बात को कुबूल करना ही होगा। जो भी इस उम्मीद में बैठे हैं उनको भी इस हकीकत को स्वीकार करना ही होगा कि आज संवेदना से नहीं बलिक पैसे से रिश्ते चलते हैं...
शब्दों के मेनेजर
शब्दों के शिल्पी नहीं कहा आप को लग रहा होगा इसके पीछे कोई ख़ास वजह होगा। हाँ सही समझ रहे हैं, आज कई लेखक नहीं बल्कि उनको शब्दों के मेनेजर ही कहना ठीक होगा क्योंकि वो लोग कोई साहितिक पृष्ठभूमि से नहीं आये हैं वो तो मैनेजमेंट , होस्पेतिलिटी वो इसी तरह के अन्य सेविक एरिया से ए हैं इस लिए उनके लिए शब्दों के मारक अबिलिटी पर पूरा विश्वास है। उनको पाठक वर्ग भी मिल रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि उनको पढने वाले कॉलेज, काम्पुस के न्यू क्लास है। लेकिन वो चेतन, थककर, जैसे न्यू व्रितिन्ग्स को बिना दीर किये पढ़ते हैं। जो भाई उनको नहीं पढ़ा हो उसको शर्म का सामना करना पड़ता है। जब दोस्तों के बीच बात चलती है कि क्या तुमने चेतन की वो वाली नोवेल पढ़ा? अगर नहीं पढ़ा तो आपको लगेगा कि मैंने क्या किया, उसे ही पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा। इसी तरह के कई शब्दों के मेनेजर हमारे बीच अपनी सफलता के लोहा मनवा चुके हैं। यह अलग बात है कि उनकी नोवेल तथाकथित तौर पर गंभीर नहीं कह सकते। गंभीर आज की तारीख में किसे के पास पचाने की शक्श्मता है। पेट चलने लगेगा। इसलिए मिलावट के ही खाद्य पदार्थ खाना चाहिए। तो ये लोग येसी ही रचनाएँ ले कर आ रहे हैं।
ज़ुरूरत तो हिंदी वालों को भी चाहिए कि वो इस तरह की लेखनी को बढ़ावा देने पर सोचना चाहिय। जब पढने वालों को साहित्य मिलने लगे तो कोई क्यों नहीं पढना चाहेगा। आप उनको केंद्र में रख कर लेखन करके तो देखें वो पढने पर मजबूर हो जायेंगे। पर उसके लिए कलम में वो लोच्पन लाना होगा। लेकिन इसका यह मतलब अहि कि फिल्म वालों की तरह इस तर्क को आधा बना कर अलर बालर कुछ भी परोस कर निशिचित ही विश्वास तोड़ने का काम करेंगे.
angreji में इनदिनों इस तरह की रेटिंग वाले लेखक नहीं बल्कि मेनेजर किस्म के ने आथर रोज दिन बाजार में खूब बिक रहे हैं। प्रकाशक राइटर पाठक की जोड़ी खूब जम रही है। क्यों न हिंदी में भी अपना कर देखा जाये.
Monday, June 28, 2010
नियम जो कभी भी बदल जाये
कुछ लोग फूट बौल खेल रहे थे। आस पास बैठे लोग खेल का मजा उठा रहे थे। इक कुछ देर बाद .... फौल फूउल इक आवाज तेज़ होने लगी। किसी को खच समझ नहीं आया आखिर क्या हुवा ? किसी ने कहा क्या हुवा ?
गेंद पैर से छु गया। फौल हुवा न। किसी ने कहा इसमें गलत क्या है। गेंद तो पैर से ही तो खेले जाते हैं। आवाज आई नियम बदल गया। पैर से ही खेलते रहे यह भी कुई बात है। नियम तो बदलना चाहिए। प्रगतिवाद तो यही है। परिवर्तन तो जीवन और प्रकृति का नियम है। तो नियम अभी ही क्यों। बस परिवर्तन के लिए कोई मुहूर्त नहीं होता। यह तो ठीक नहीं।
किसी ने कहा गलत है। चीत है। हाँ है। अगर खेलना है तो खेलो वर्ना रास्ता नापो।
ठीक उसी तरह समाज में भी देखने में आता। लोग इसी तरह अपनी सहूलियत के अनुरूप नियम में तब्दीली क्या करते हैं। पसंद हो तो ठीक नहीं तो उनका क्या बिगड़ सकते हैं। जब चाह तब नियम को अपनी ओर किया और जब दुसरे के लिए फयाद्मंद हो रहा हो तो नियम उसी पल से बदल दिया। है न मजेदार बात।
Sunday, June 27, 2010
राजनीति में न दोस्त न दुश्मन स्थायी
यह साबित करता है कि राजनीति में कोई भी किसी का चीर दुश्मन या दोस्त नहीं होते। वो तो लोजो की नज़र में इक विरोधी की छवि निर्माण करते हैं। लेकिन वही जब रात की पार्टी में मिलते है तो उसी अंदाज में जैसे सुबह या कि शाम कौच किसी ने कुछ कहा ही न हो।
सुबह का भुला शाम घर लौट आये तो उसे भुला कहाँ मानते हैं।
Thursday, June 24, 2010
समाज के नाक की खातिर क़त्ल
हरियाणा से होते हुवे क़त्ल का सैलाब देश की राजधानी दिल्ली तक दस्तक दे चुकी है। जब देश की राजधानी में कोई सुरक्षित नहीं है तो दुसरे राज्य में क्या मंजर हो सकता है इसका अनुमान लग्न कठिन नहीं है। इक तरफ कोर्ट साफ़ शब्दों में पुलिस, सरकार को झाड लगा चुकी है। पुलिस को कोर्ट ने कह अगर बॉस का कुता गुम्म जाये तो पूरी फोरसे लगा दी जाती है। लेकिन राजधानी में कोई कैसे क़त्ल का खेल जरी रख सकता है।
मगर सरकार भी क्या करे उसे vot की चिंता है।
Tuesday, June 15, 2010
भोपाल के जेल se निकला नागेन्द्र
पढने की ललक को कोई न तो ताले में और न जेल की सलाखों के पीछे दाल कर रोक
Monday, June 14, 2010
खबर के नाम पर.....ये क्या हो रहा है भाई
आज स्थिति यह है कि अख़बार में खबर कम विज्यपन ज्यादा और खबर उस में दुबक कर रहते है। खबर की औकात क्या है यह खबर की रफ़्तार नहीं बल्कि विज्ञापन के बाद खाली जगह पर निर्भर करता है। खबर के संपादन में यह देखा जाता है कि कहना से काट देने पर भी काम चल सकता है और खबर पर चाकू चला देते हैं। अखबार में खबर और विचार धुन्धने पड़ते हैं तब कहीं वह खबर मिलती है। विज्ञापन के बाद जो जगह बचता है वो जगह मनोरंजन परक खबर ले लेती हैं। फ़िल्मी गपशप। किसा किसके साथ किस विस चला रहे हैं। उसके बाद कुछ विज्ञानं समाज शाश्त्र आदि में क्या रिसर्च हो रहे हैं लेकिन इसमें ज्यादा खबरे हम विदेश में किसी संस्था, शोध के परिणाम को रोचक बना कर परोस देते हैं। मसलन कस कर चुम्बन करने से उम्र बढती है। सुबह सुबह सेक्स करने वाले ज्यादा तेज बूढी वाले होते हैं... फिर कुछ दिन बाद दुसे शोध के हवाले से खबर लगते हैं चुम्बन करने से मुह में दाने होते हैं। इस तरह की खबरे के पाठक खूब है। बड़ी ही चाव से पढ़ते है।
अख़बार के पन्नो से विचार , विमर्श गंभीर लेख तक़रीबन गायब हो चुकी हैं। हिंदी की बात करे तो विचार की दृष्टि से गरीब ही दिखती हैं। सम्पाद्किये पेज पर भी भूख मरी दिखयी देती है। लेख के स्थान पर ब्लॉग से उठा कर सीधे चाप देते हैं। न दुबारा लिखने का झंझट न ही प्रश्रीमिक देने का जहमत। बोध कथा प्रेरक प्रसंग आदि किसी किताब से प्रस्तुति में भी वही नज़र काम करता है। मन कि आज कैसी खबर कब किसको चाहिए यह रेअदेर की जरुरत पर निर्भर करता है। साथ ही पाठक पैसे वाला है तो उसके लिए खबर को प्राप्त करने के कई ज़रिये है। नेट , ब्लॉग, ट्विटर आदि माध्यम इतनी तेजी से समाज में इक नए वर्ज पैदा किया है। नेता, एक्टर , खिलाडी सब इक इक कर ट्विटर ब्लॉग के शरण में तेजी से जारहे है। अपनने मन के भड़ास निकलना जुरुरी है सो इस नए माध्यम को लोग तेजी प्रयोग कर रहे हैं।
ज़ल्द ही खबर की प्रकृति और खबर क्यों कितनी मात्र में चहिये यह पाठक पर निर्भर करता है।
Friday, June 11, 2010
नीति७ मूल्यपरक शिक्षा, मंत्री जी बतायेंगे सम्प्रदाए का नाम
नीति७ मूल्यपरक शिक्षा, मंत्री जी बतायेंगे सम्प्रदाए का नाम , जी अब केंद्रीय विद्यालय में मूल्य परक शिक्षा की तालीम दी जाएगी। निर्देशक जी ने आदेश ज़ारी किया कि हर विद्यालय के प्रधानाचार्य अपने आस पास के ब्रह्मकुमारी विशाविदयालय से संपर्क कर सप्ताह में इक दिन क्लास में नीति व् मूल्यपरक शिक्षा की पढाये सुनिश्चित करेगें। इस पर मानव संसाधन मंत्रालय ने अपना मंतव्य प्रगट किया कि ब्रह्मकुमारी संस्था से नहीं बल्कि रामकृष्ण मिशन से दिया जाये मूल्य पार्क शिक्षा। वैसे राष्ट्रीय शिक्षा व् यशपाल समिति और २००० के बाद खास कर मूल्य परक शिक्षा की सिफारिश की गई थी। मगर यह मामला ठंढे बसते में दाल दिया गया था। विवाद यह उठा कि धार्मिक शिक्षा दी जाये या आधात्मिक शिक्षा की सिफारिश की गई। बारह्हाल किसी ने इस विवाद वाले फाइल में हाथ जलाना नहीं चाहते थे सो मूल्य परक व् धर्म शिक्षा को दबा दिया गया। मगर कब तक कोई विवाद को डरा कर रख सकता है।
shishakha के ज़रिये समाज में बदलावों की लहर पैदा किया जा सकती है । नीति व् विचार व् ख़ास लक्ष्य को अमलीजामा भी शिक्षा के मर्फात पूरा करने का काम शिक्षा से लिया जाता रहा है। मंत्री जी मंत्रालय जिसके कब्जे मी होता है वो अपनी तरह की लहर पैदा करते ही रहे हैं। बीजेपी को जब मौक़ा हाथ लगा तो उसने भी अवसर का लाभ उठाया। कंग्रिस को जब कुर्सी मिली तो उसने भी कोई कसार नहीं उठा रहा। जिसे जब मौक़ा मिला उसने अपने पसंद के लोगों, विचार, जीवनी , कहानी व् कविता पाठ में शामिल करने में चुके नहीं। प्रेमचंद के उपन्यास को हटा कर , कहानी की जगह इक बीजेपी की नेता की लिखी ज्यो महंदी के रंग पाठ में ठूस दिया गया। अब बच्चे तो स्कूल में जो भी पद्य जायेगा उसे पढ़ कर उत्तर लिखने की लिए विवश होते हैं। उनसे या मास्टर जी मादाम से कोई राये भी लेना मुनासिब नहीं समझते।
विचार , वाद , पूर्वाग्रह को अगली पीढ़ी में खिसकाने शिक्षा का इस्तेमाल तो किया जाता रहा है। इसलिए हर सरकार शिक्षा पर कब्ज़ा कर मन माफिक तालीम विधायाला शिक्षा की पीठ पर तंग देते हैं। अगर नीति व् मूल्यपरक शिक्षा देने की सदिक्षा है तो टैगोर के शिक्षा दर्शन को तो शिक्षा शतर में ख़ास स्थ्याँ प्राप्त है उसे शामिल किया जा सकता है। लेकिन रामकृष्ण के तंत्र से शिक्षा देने पर मंत्रालय का तर्क यह है कि यह वर्ष १८५ वों वर्षगाठ मना रहा है। तो टैगोर का वर्ष गत भी इसी साल म्नायिजा रही है।
जो भी हो शिक्षा के बहाने विचार, पूर्वाग्रह व् अंध भक्ति व ख़ास धर्म की शिक्षा न दी जाये इस पर गंभीरता से सोचना होगा.
Tuesday, June 8, 2010
न्याय से निराश जन मानस, यह भी कोई त्रासदी से कम नहीं
हाल ही में भोपाल के कोर्ट ने इस गैस कांड में शामिल दोषियों को जिस तरह की सजा मुकरर किया उससे पूरा देश स्तब्ध है । महज़ दो साल जेल और २५,००० रूपये बतौर सजा सुन कर स्पष्ट होता है कि किसे दोषी करार देना है किसे बरी करना है यह सब आप के समपार पर काफी कुछ निर्भर करता है। इस गैस कांड में सीधे तौर पर शामिल अन्दुर्सन को महज़ २५,००० रूपये जामा करा कर राज्य सरकार ने उसे देश से बाहर जाने दिया।
उस गैस कांड में जीवन से हाथ धो बैठने वाले लोगों की चिंता सरकार सेष को कितनी है जिस न्याय से साफ होता है। पैसा पद , संपर्क मजबूत हों तो आपका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता । बा इज्जत आपको बरी कर दिया जायेगा।
पूरे देश में इस न्याय से लोगों में गहरी निराशा जन्मी है। हालाकि इस जुद्गेमेंट को हाई कोर्ट में चुनौती दी जायेगी। मगर जिस कदर निराश मन के हौसले चकनाचूर हुए उसको क्या होगा। आज भी २५ साल बाद भी वहां लोगों में अपंगता देखे जा सकते है। गैस रिसाव के आस पास के इलाके में आज भी उस काली रात की वारदात के निश्याँ देखे जा सकते हैं।
Monday, June 7, 2010
पेड़ का बयाँ
मैं तो पेड़ हूँ कहीं जा आ नहीं सकता है। जहाँ जन्म लेता हूँ वहीँ ताउम्र जमा रहता हूँ। हाँ यह अलग बात है कोई मुझे कलम के द्वारा दूसरी जगह खड़ा कर देते हैं। तब मेरी शाखाएं व्याप्त हो जाती हैंवर्ना मैं तो इक ही जगह खड़ा रहता हूँ। बर्ष के हर मौसम में मैं चुप खड़ा रहता हूँ। धुप हो या बारिश, ठंढ हो या पतझड़ मौन सहता रहता हूँ। यही तो मेरी नियति है। मेरे सामने लोग बड़े होते हैं। धुल में लिप्त कर बड़े हुए बच्चे बड़े हो कर शहर चले जाते हैं। दुबारा लौट कर नहीं आते। मैंने अपनी आखों से गावों को बसते और उजड़ते देखा है। पर हमारे बयाँ पर कोई कैसे विश्वास कर सकता है। हर कोई यही कहेगा कि पेड़ भी कोई बयाँ दे सकता है। मगर यही सच है मैं बयाँ देता हूँ जी हाँ मैंने देखा है महाभरत, रामायण और यहाँ तक कि कारगिल भी मेरे सामने ही घटा है।
Sunday, June 6, 2010
हिंदी संग अंगरेजी
स्कूल, कॉलेज या फिर दफ्तर में दोनों भाषा के चमत्कार आम है। हिंदी में और अज्ग्रेजी में बोल कर इस बात की परीक्षा ले सकते हैं। अंग्रेजी बोलने वाले की बात ज़ल्द सुनी जाती है। वहीँ हिंदी में बोल कर देख लें आपकी बात को उस वजन से नहीं लिया जाता। इक दुसरे को भला बुरा कहने से बेहतर है हम भाषा की शक्ति को कुबूल करें। दोनों भाषा को साथ ले कर भी चला जा सकता है। जरूरी तो नहीं कि हिंदी को बोलेन मगर अंगरेजी से नाक सिकुरे। साथ अगर दोनों भाषा आपके संग हो गई तो आपको मालूम नहीं आप कितने शक्तिशाली हो जायेंगे। दोनों भाषा पर चांस मार कर देखिये बहुत कठिन नहीं है। हिंदी तो हम छुटपन से ही बोलते आ रहे है। यानि आपको जो भी समय लग्न है वो अंगरेजी है। अगर रोज २० मिनुत भी अंगरेजी पर दिया जाये तो आप देखते ही देखते आप की सम्प्रेषण में चार चाँद लग जाएगी। अब आप दो भाषा को इक साथ रखते है। जहाँ जिस भाषा की जरुरत पड़े उसका इस्तमाल कर सकते हैं। लेकिन जब विकल्प ही नहीं होगा फिर आप मजबूर होंगे सिर्फ इक भाषा के इस्तमाल करने में।
विरोध अगर हो भी तो वह धनात्मक हो तो उसके अलग फायेदे है। विरोध भाषा के बरतने और जानकारी के स्टार पर होना बेहतर है लेकिन पढने को पुर्ग्रह से अलग रखना चाहिए तभी हमारे पास दोनों भाषाएँ इक नै दुनिया रच सकती है
Thursday, June 3, 2010
बात निकल पड़ी है
बात निकल पड़ी है ....
दरअसल पाकिस्तान और भारत के बीच मुंबई आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच रुकी वार्ता ट्रेन जो थिम्पू में पुनः ट्रैक पर लौट आई है साथ ही जुलाई में इस्लामाबाद में विदेश मंत्री की मुलाकात होनी है। इससे पहले गृह मंत्री चिदंबरम जून में पाकिस्तान जायेंगे।
यह तो प्रयास राजनैतिक स्टार पर हैं ताकि दोनों देशों के लोग करीब आ सकें। इस के साथ ही भारत से टाइम्स ग्रुप और पाकिस्तान के जंग ग्रुप मिलकर अमन की आशा कार्यक्रम चला रहे हैं। वैसे भी दोनों देशों के रिश्ते की दूर इक दुसरे से जुड़े हैं।
Wednesday, June 2, 2010
जीवन के साथ प्रयोग
पालो फ्रेरे ने इस चेतना को शोषित की दमित चेतना नाम दिया है। मान कर चलता है कि उसका जीवन सिर्फ मालिक की सेवा , आदेश और नीचे बैठने के लिए है। इसमें मालिक के दोष को देखने के स्थान पर यह मान बैठता है कि यह इश्वर की येसी ही विधान है। हम कोण होते हैं उसकी तंत्र को चुनौती देने वाले। हमारे बाप दादे भी यही तो करते आये हैं यह तो जन्म जन्म से चला आरहा है।
उत्पदितों की दमित चेतना को बतौर कायम रखने में हमारी शिक्षा, समाजो संस्कृतीत तालीम भी भूमिका निभाती है। समाज में दो किस्म के लोग होते हैं इक वो जो आदेश पाने वाले दुसरे आदेश देने वाले। आदेश देने वाला कभी यह स्वीकार नहीं कर पाटा है उसके नौकर ज़वाब तलब करें। सर नीचे कर के बिना जुबान खोले काम में दुबे रहें। सवाल करने वाले नौकर , चाकर मालिक को पसंद नहीं आते। उनको दर लगता है कि इनकी चेतना जागृत हो गई तो हमारी चाकरी कोण करेगा। इसलिए इन्हें शिक्षा देने के खिलाफ रहते हैं। शिक्षा उनमे जाग्रति पैदा का सकती है। वो अपने अधिकार, आजादी की मांग कर सकता है। इसलिए उनका अशिक्षित रहना ही उनकी तंत्र को महफूज रखते हैं।
जीवन इक ही है इसके साथ प्रयोग करते करते काट देना है या प्रयोग के बाद प्राप्त परिणाम भोगने के लिए कूद को बचा कर रखना है यह हम पर निर्भर करता है।
Tuesday, June 1, 2010
रोटी बिन मौत
कितनी अजीब बात है इक तरफ लोग अपनी थाल में रोटी दाल यूँ ही फेक देते हैं। इक रेस्तरो में बैठ कर बर्गर , पिज्जा के टुकरा बर्बाद कर देते हैं। वहीँ देश में कई लोग हैं जो बिना रोटी के भूखे रात सो जाते हैं। जिनके पेट में अन्न नहीं जाता वो दुनिया से चले जाते हैं। हाल ही में मुझ्फर्नगर के इक गावों में बेटी भूख से बिलबिला कर रात सो गई....
बाप बेचारा अपनी बेटी को रोटी भी नहीं दे सका। सरकार की और से च्लायेजा रहे कार्यक्रम जिसमे रोगी , गरीब बच्चे को खाना, शिक्षा दावा के साथ दियेजाने की घोषणा की जाती है लेकिन इस परिवार को क्या मिला ? मौत और चीर नींद जहाँ से कोई वापस नहीं आता। कितनी विडंबना है कि इक तरफ लोग खा कर बीमार होते हैं वहीँ दूसरी और भूख की मार सहते जीवन से हाथ धो देते हैं।
इसी साल २६ जनवरी को जहाँ दिल्ली में इंडिया गेट पर तमाम लोग जश्न मन रहे थे वहीँ राजस्थान के इक गावों में इक किसान अपनी गरीबी की मार सह रहा था। भूख से चटपटा कर बीवी, बच्चे के संग इस दुनिया को अलविदा कह रहा था। बात किसी इक राज्य की नहीं है बल्कि यह उस देश में घट रहा है जहाँ सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे पानी की तरह खर्च हो रहे हैं। विदर्भ की किसानों की मौत भी अब किसी न्यूज़ चंनल के लिए ब्रेअकिंग खबर नहीं बनती। मगर यैसे घटनाएँ हमारे विकास के सुन्दर चेहरे पर इक तमाचा नहीं तो और क्या है।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुवा,
आज कल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्वा।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्ति क्या ही व्यंग मारती है। सही है दिल्ली सब की नहीं सुनती। अगर दिल्ली को सुनानी है तो कोई मंच, कोई आन्दोलन, या कोई और रास्ता पकड़ना पड़ता है। जिसे जिस राह सहज लगता है अपनी काटने लगता है।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...