Thursday, November 26, 2009

ताज पिछले साल यूँ ,

खून से यूँ रंग गया,

पर कहाँ बोलो ज़िन्दगी ठहरी भला,

न रुकी ज़िन्दगी ,

न रुकी लहरें समंदर की,

रोड भी जगमग रही भागती।

ज़िन्दगी कब, कहाँ

किस मोड़ पर,

छोड़ अंगुली,

रूठ कर,

चल दे आप से,

या की हम से,

रूकती नही है ज़िन्दगी,

पर यह ज़िन्दगी,

आती रही है,

कई रंग औ कई रूप में।

न रुकी ज़िन्दगी बोम्बे में -

रूकती भला कब तलक राजस्थान में ,

आख़िर डेल्ही की भी ज़िन्दगी चलती रही ,

दिन, महीने, साल में यूँ ढल जायेगे,

पर न रुक ये जाएगी

हर चलती जाएगी यह ज़िन्दगी।

कसाब आए या युनुश,

या की पंडित पादरी,

गर दिलों में है नही इन्सान की वो धरकन,

वह कहाँ सुन पायेगा किसी की चीख,

या फिर प्यार के मनुहार में क्या कोई आबाद,

यूँ होते रहे हैं।

साल

Saturday, November 21, 2009

ठाकरे का नया रार

ठाकरे का नया रार

ठाकरे रोज दिन कोई न कोई राग छेड़ते रहते है। कभी भाषा हिन्दी को टार्गेट बनते हैं तो कभी इन्सान को। लेकिन राग ज़रूर छेड़ते हैं। वरना उनको महाराष्ट्र में कोई याद भी करने वाला नही होगा। पहचान के लिए कभी चाचा तो कभी भतीजा मराठी मानुष का ज़हर बामन करते रहते हैं। यह उनकी मज़बूरी है के वो इसी तरह के एक्शन से कम से कम न्यूज़ में तो बने रहते हैं।

राग बाहरी पहले तो बाला साहिब ठाकरे ने है महाराष्ट्र में बुलंद किया था। लेकिन जब शरीर थकने लगा तो भारतीय परम्परा के अनुसार अपनी गद्दी पर भतीजे को बिराजमान कर दिया , उन्हें क्या पता था के अपना भतीजा चाचा के ऊपर इतना भरी पड़ेगा। इक दिन उनसे बड़ा पोवेरफुल्ल बन जाएगा। खलबली तो मचनी ही थी। सो बाला साहिब ने भी बुढ़ापे में खखार कर सचिन पर निशाना साधा। के वो खेल पर ध्यान देन राजनीति न करें। गोया राजनीति कुछ खास लोगों के घर के मुर्गी हो। जब चाह हुई दुह लिया। नही तो दुत्कार कर भगा दिया। सो सचिन को दी नसीहत पर पुरे देश में बाला साहिब के थू थू हुई। पर चमड़ा काफी मोटा है कोई असर नही पड़ता। इसी लिया तो महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने २१ नवम्बर को बॉम्बे स्टॉक एक्स्चंगे को धमकी दे डाली के इक वीक के अन्दर वो मराठी भाषा में अपनी वेब साईट बना ले।

दिन पर दिन मनस का मन बढ़ता ही जा रहा है।

Sunday, November 15, 2009

राज ने छेदे फिर बाहरी राग

लीजिये राग के कई रूप में इक राग बाहरी राग के शामिल किया जाना चाहिए। राज ठाकरे ने फिर बाहरी राग धुन गुनगुने है। इसे दुर्भाग्य से ज़यादा और क्या कहा जाए के अभी मनसे की और से विधान सभा में हिन्दी में शपथ लेने पर हंगामा किया जिस पर समस्त देश शर्मसार हुवा , घटना ठंढा भी नही हुवा था के राज ठाकरे ने बाहरी राग दुबारा से छेद दी है।
देश , समाज को भाषा के आधार पर बरता जाएगा तो इसे दुर्भाग्य ही तो कहना होगा। देश व् भाषा आपस में सौहादर्य भाव पैदा करती है, न के समाज के फाक करती है। जो लोग भाषा , धर्म को समाज में ओईमनाश्य फुकने के रूप में इस्तमाल करते है तो उन्हें बक्सा नही जन चाहिए।
देश को अपनी भाषा और संविधान पर नाज़ हुवा करती है जो इसे विलगने की कोशिश करेंगे उनको न तो देश वासी माफ़ करेगी और न ही किया जन चाहिए। लेकिन राज ठाकरे महाराष्ट्र में इक खास तारा के सुनामी लेन की कोशिश कर रहे है। समये रहते इसको रोका नही गया तो यह इक दिन हमारी साझा संस्कृति का मटिया मेट कर देंगे।

Thursday, November 12, 2009

कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह


कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह। कितने दुर्भागे हैं वो लोग जिनके शरीर को मरने के बाद कफ़न भी नसीब न हो तो क्या कहा जाए। आज इक यैसे ही उत्तरी परिसर डेल्ही यूनिवर्सिटी से लगे नाले में इक बहती लाश देखि। पहचान पाना मुश्किल था। वह औरत थी या आदमी यह भी तो पता नही चल पा रहा था। उस लाश को या ततो पुलिस अपने पास कुछ समय के लिए सिनाक्थ के लिए रखेगी अगर कोई अपना मिल गया तो उस को अन्तिम संस्कार नसीब हो गी वरना पुलिस लावारिश मान कर संस्कार कर देगी।

ज़रा सोच कर देखे की कोई येसा भी बद नसीब होता है की उसको मरने के बाद भी कोई अपना नही कहता। इस का इक और पहलु है की वह भी इक मंज़र होता है जब इन्सान तनहा ही मर जाता है मागर किसी को ख़बर भी नही लगती। कई इस तरह की खबरें अख़बारों में देख सकते हैं जो लिखा होता है गुमशुदा की पहचान। कोई चेहरा इतना ख़राब होता है की पहचान मुश्किल होती है।

बस यह तो आप की किस्मत है या आप के घर वालों की जो आपकी लाश तो मिली।

Tuesday, November 10, 2009

हिन्दी के साथ संविधान का उपहास ही यह

बॉम्बे विधान सभा में सोमवारको जो भी हुवा उसे किस तरह संसद शर्मसार हुवा है इस की कल्पना की जा सकती है। यह तो खुलम खुला न केवल भारतीये संविधान की अवहेलना है बल्कि संसद की मर्यादा के साथ खिलवार है। हिन्दी में शपथ लेना क्या इतना बड़ा गुनाह है की विधान सभा की मर्यादा को ताख पर रख कर मनस के लोगों ने हंगामा खड़ा किया। हलाकि उसके लिए उन्हें ४ साल के लिए संसद से निष्काषित कर दिया गया। मगर क्या यही उस कृत्या के लिए पर्याप्त ही

हिन्दी को या हिन्दी बोलने वालों को न केवल मुंबई में बल्कि आसाम में भी दुर्गति सहनी पड़ी है। मगर हमारी चेतना फिर भी जागने को तैयार नही है। हिन्दी भाषी के साथ आज से नही बल्कि इक लंबे अरसे से दोयम दर्जे के बर्ताव सहने पड़े हैं। लेकिन यह घटना इक नही विवाद को जन्म देती है। वह यह की तो क्या हिन्दी और संविधान में प्रदत अधिकार के इसी तरह ताख पर रख कर भारत में कोई भाषा के आधार पर नौकरी करने , राज्य में रहने से वंचित किया जाता रहेगा। अगर हाँ तो इस तरह भारत में हर राज्य इसी तर्ज़ पर अपने यहाँ दुसरे राज्य के लोगों को काम करने रहने के मौलिक अधिकार को धता बताता रहेगा।

ज़रूरत इस बात की है के हम इस तरह की मनोदशा को सुधरें वरना वह दिन दूर नही जब देश के अन्दर लोग खुल कर नही रह सकते।

Saturday, November 7, 2009

प्रभाशंत है यह

पत्रकारिता जगत में जोशी जी का जाना वास्तव में यह प्रभाशंत है। किसी युग का अंत नही बलिक यह अपने आप में भाषा के शिल्पी का जाना कहा जाना चाहिए। जोशी जी ता उम्र भाषा खास कर हिन्दी पत्रकारिता को ले कर खासे सक्रिए रहे। उनकी लेखनी ने कई सालोंतक जनसत्ता में रविवार को कागद कारे किया। उनकी चाह थी की उम्रे के ७५ वें साल तक इस स्तम्भ को लिखे। मगर काल का चक्र कब, कैसे , किस गति में घूमेगा यह कोई नही बता सकता।
नई दुनिया को अपनी सेवा देने के बाद डेल्ही में जनसत्ता के १९९५ तक रह दीखते रहे। हालाकि सम्पद्किये जिमादारी छोड़ दी लेकिन सलाहकार संपादक बने रहे। देश भर में घूम घूम कर आन्दोलन के सूत्रपात करने वाले जोशी जी के लिए डेल्ही में बैठ कर लेख लिखना न भाया। उनसे आखरी मुलाकात आन्ध्र भवन डेल्ही में सितम्बर में हुई तब भी वो उसी प्रखरता से बोल रहे थे।
प्रभाष जी के साथ इक फुदकती पालवी मधुरता में पगी पत्रकारी भाषा भी शायद चली गई। पर उनको कोटि कोटि नमन ....

Tuesday, November 3, 2009

सुना है

सुना है के कल रात कहानी पुरी रात रोटी है। कोई उसके साथ नही था दुःख बटने वाला सो ख़ुद ही कहती ख़ुद ही सुनती रही पुर्री रात। सुनने में तो यह भी आया की कल रात कहानी के आसू पोछने वाला भी कोई नही था। आठ आठ आशु रोटी रही। मुमकिन है याद हो न हो चेहरा उसका। पकड़ कर नानी का दमन दूर कहीं वादियों में , नाले पहाड़ घूम आती थी। लौटती थी तो खुश्बुयों से लबरेज़ बाँहों में भर लेती बच्चों को। पुरी पुरी रात कहनी में कट जाती वो सुने दिन। सुना है इक दिन वो मायूस अपनी ही गम था या के न बात पाने का दुःख चुप हो गई। तब से खामोश कहानी की दुनिया कुछ सुनी रहने लगी।
अगर आपको वो कहीं मिले तो मेरा पता दे देना।

कहानी जो कहती है

कहानी जो कहती है हम से....
उसको सुन लो जी तुम...
उसको सुन लो जी तुम।
कहानी के बिना क्या है बचपन?
बचपन सुना है जी ,
बचपन बेगाना जी ।
कहानी जो कहती है तुम से ,
उसको सुन लो जी तुम....
कहानी जो कहती है किताब से,
उसको पढ़ लो जी तुम।
कहानी जो रोटी है उसको,
तुम तो सुन लो जी हाँ।
कहानी में बस्ती है नानी उसको गुन लो जी तुम।
कहानी जो कहती है तुम से उसको सुन जी तुम........

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...