Sunday, March 29, 2009

हिन्दी साहित्य इतिहास में हाशाये पर बाल साहित्य

हिन्दी साहित्य इतिहास में हाशाये पर बाल साहित्य
हिन्दी साहित्य का इतिहास उठ कर देखें तो इतिहास में बाल साहित्य की कहीं चर्चा नही मिलती। चाहे वो रामचंद्र शुक्ला का इतिहास हो या फिर हजारी प्रसाद का या फिर बाद के साहित्य इतिहास लेखन हर जगह बाल साहित्य उपक्षित है। वजह जो भी हो मगर बाल कथा जगत को इस लायक ही समझा गया की इस के बारे में भी चर्च करें। जब की साहित्य में दलित , महिला आदि कि चर्च है मगर बाल साहित्य को क्या वजह है हाशिये पर धकेल दिया गया।
जब हम प्रेमचंद , माखनलाल , सोहनलाल और मुक्तिबोध से लेकर महादेवी वर्मा तक के लेखन में बाल रुझान पाते हैं। इन सब साहित्येकारों ने बाल गोपाल के लिए भी लिखा यहाँ तक कि विष्णु प्रभाकर ने भी जम कर लिखा। बाल कहानियो का अपना अलग संसार है जिसमें बड़े लेखक प्रवेश नही करना चाहते।

Wednesday, March 25, 2009

कलाकार का अन्तिम अरण्य

कलाकार का अन्तिम काल बड़ा ही दर्दीला होता है। जीवन भर गा , बजा कर , लोख पढ़ कर समाज का मनोरंजन किया करता है लेकिन उमर जब परवान पर होती है तब कोई तीमारदार नही होता। बेटा या बहु संभालती है। मगर जब जेब खालो हो तो बेटा भी क्या करलेगा। कलाकार का अन्तिम अरण्य बड़ा ही दर्दीला होता है। सरकार भी खामोश , लोग भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उसके पास हस्पताल के खर्चे तक नही होते की इलाज करा सके। यैसे में कला क्या दे पति है अपने कलाकार को ?
मेह्न्दिहासन को किसने नही सुना है क्या पाकिस्तान क्या ही हिंदुस्तान हर जगह उनको बेंतेहन मुहब्बत करने वाले मिल जायेगें मगर वो भी इनदिनों बीमार पड़े है , उनके बेटे के पास इतना सामर्थ्ये नही की वो हॉस्पिटल का खर्च उठा सके। बेचारे ने अपनी असमता जाहिर की है। वहीं हमारे देश में भूपेन हजारिका को भी इनदिनों कुछ इसे तरह के दौर से गुजरना पड़ रहा है। उनके खर्च को कोई उठाने वाला नही न तो सरकार न ही कोई घराना। दरसल कलाकार जब तक अपनी कला का प्रदर्शन किया करता है तब तक लोगों की भीड़ जमा हुवा करती है लेकिन जब वो असक्त हो जाता है तब कोई पूछता भी नही। यैसे में वो वनवास की ज़िन्दगी बसर करने को विवास होता है।
केवल गायक या कलाकार ही नही बल्कि लेखक , कवि भी इसे भीड़ में शामिल है। साहित्य का इतिहास पलट कर देख लें चाहे प्रेमचंद हों , निराला हों या फिर प्रवोग वादी चर्व्हित कवि नागार्जुन ही क्यो न हो बल्कि त्रिलोचन सब की वही गति हुई अंत काल में पैसे की किल्लत में दिन गुजरना हुआ। कथाकार अमरकांत ने तो यहाँ तक की अपनी रचनाये तक नीलम की, उन्होंने तो जीवन के पुरस्कार तब बेचने के पस्कास कर डाली।
साहब मामला बस इतना सा है की ये लोग अपनी लेखनी से वो लिखा जो इनके जी में आया वो नही लिखा जिसके पाठक की मांग है , बाज़ार किस तरह के लेखन की है इस को ध्यान में नही रखा।

Saturday, March 21, 2009

जब कभी हो

जब कभी हो,
गमगीन ज़रा से बात पर
तो देखना
इक चेहरा
हसने को हो काफी
तो समझना
है उम्मीद ,
मुस्कराने की ...
या फिर पल भर सोचना ,
जाती नही है सड़क कहीं ,
जाता है इन्सान ,
हफ्ता हुवा ,
रोता हुवा ,
पर गर कोई ,
मुस्कराते हुवे ,
जा रहा हो तो समझना ...
वो साथ है सभी के

Thursday, March 19, 2009

साथी

खफा दोस्त को मन से याद....
साथी आप से खफा हो तो उसे मन से याद करने पर हिचकी जरुर आएगी। यानि आपका दोस्त आपको बोहोत याद करता है। इसे क्या नाम देना चाहेगे आप इसे दोस्ती का तकाजा नही कहना चाहते?

पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़

पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़

सबलोग पत्रिका की सामग्री बेहद अची है इसकेलिए सम्पद्किये टीम को साधुवाद। इस पत्र में राजनीती, बाज़ार , गंभीर लेख सब कुछ हैं। नीलाभ का लेख पढ़ कर आताम्तोश मिला।

इक सुझावों देने से रोक नही पा रहा हूँ ख़ुद को, वो यह की पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़ जाए तो यह अधुरा पत्र पूर्ण सा हो जाएगा।

Tuesday, March 17, 2009

साथी जो दूर चला जाए

साथी जो दूर चला जाए
उसके लिए आप या की हम दुयाएँ ही किया करते हैं ,
वो चाह कर भी दूर भला कैसे जा सकता है ,
रहता तो करीब ही है पर ,
महसूस करने के लिए समय ,
कहाँ है हमारे पास ,
कभी नौकरी,
कभी लाइफ के पेचोखम ,
सुलझाते ,
पता ही नही चलता की ,
जो पास हुवा करता था ,
कितना दूर जा चुका है ।
इतना की आवाज भी दो तो ,
अनसुना सा लगता है ,
नाम किसे और का जान पड़ता है ...
क्या नाम दे कर पुकारें उसे ,
जो कभी सासों में समाया होता था ,
आज वही किताबों में धुंध करते हैं ,
दोस्ती का सबब...
कुछ शब्द खली से लगने लगते हैं ,
जब वो मायने नही दे पते ,
खासकर तब जब आप बेशब्री से धुंध रहे हों ,
इक खुबसूरत सा शब्द जो बयां कर सके ,
आप की अनकही भावना ,
जो अकले में शोर करने लगती हैं ।

Monday, March 16, 2009

दुनिया उसके आगे

दुनिया उसके आगे

दुनिया उसके आगे ख़त्म नही हो गति जहाँ से आगे हमें कुछ भी दिखाई नही देता। दरसल हमारी आखें वही देखने की आदि हो चुकी होती हैं जिसे हम देखना चाहते हैं। जब की दुनिया किसे के रहने या चले जाने से इक पल के लिए भी थर्टी नही। वो तो अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है बल्कि भागती है।

लेकिन उसकी दुनिया जैसे कुछ देर के लिए जैसे रुक गई हो उसके सामने दुनिया इक बार के लिए बड़े ही तेज़ रफ्तार से चक्कर काट गई हो। जैसे ही उसे ऑफिस में बुलाया गए उसे अंदेशा तो हो चुका तह मगर मनन कुबूल नही कर रहा था।

.... हाथ में पिंक स्लिप थमाते हुए कहा गया हम साथ हैं कम्पनी साथ है कोई चिंता की बात नही। पर चिंता तो होनी शरू हो गई। आज बीवी को क्या मुह दिख्यागा जब सब को पता चलेगा की आज से साहब घर में बैठ जाने वाले हैं। लोग तो लोग अपने भी सोचेंगे की नाकारा है इसीलिए बहार किया जाया वरना यही बहार है बाकि त्यों काम कर रहे

Saturday, March 14, 2009

कुछ रह जाती हैं

कुछ तो रह जाती हैं लाख आप या की हम खर्च कर देन सुबह से शाम तक मगर कुछ चीजें हमारे दरमियाँ रह ही जाती हैं जो कभी न तो बात पति हैं और न ही किसी से साझा ही किया जा सकता है।
साहित्य में इसे आप या की हमारा अपना अनुभूत सत्य होता है।
लेकिन कई बार रचनाकार पर गमन करता हुवा कुछ यासी रचना कर डालता है जो उसे कालजई बनादालता है।
इन्ही कुछ रचनाकार में निराला

Monday, March 9, 2009

सेक्स और इंटरनेट में से चुनेंगी इंटरनेट को

के दौर में तकनीक किस तरह हमारे सिर पर चढ़कर बोल रही है। अमेरिकी पुरुषों और महिलाओं के मिजाज पर हुए सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 46 फीसदी अमेरिकी महिलाएं इंटरनेट सर्फिंग को सेक्स से ऊपर रखती हैं। उनका मानना है कि कुछ हफ़्तों के लिए अगर उन्हें सेक्स और इंटरनेट में किसी एक चुनना हो तो वह इंटरनेट को तरजीह देंगी। अमेरिकी महिलाओं पर नेट का जादू इस कदर चल रहा है कि वह सेक्स से ज़्यादा फनी सर्फिंग को मानने लगी हैं।

शब्द जो निकल गए

इक बार शब्द जुबान से निकल गए तो वापस कहाँ आ पाते हैं? आपको शब्द के हर्जाने तो चुकाने ही होते हैं चाहे वो नम आखों से करना पड़े या सॉरी बोल कर।
साहब जो कहा जाया है की बंद मुह से पता नही चलता सामने वाला विद्वान है या....
सूक्ति है न की कोयल और कौए के पहचान बसंत में बेहतर हुवा करता है। चोच खोला तो पता चलता है को को कर रहा है क्यु क्यु...
शब्द इन्सान को सोहरत दिलाता है तो दूसरी और जुटे भी खिलाता है। अब साहब तै आप को करना है की क्या चाहते हैं....
कालिदास ने ठीक ही लिखा है-
'इको शब्दा सु प्रोक्ता सोव्र्गे लोको काम धुक भवति'
इक शब्द नाद जागृत करता है तो इक ॐ या अल्ला उस से मिलाता है...


Sunday, March 8, 2009

तो फागुन आ ही गया

फागुन तो आ गया आब भी लोगों पर खूब रंग दिखने लगे। इक रंग प्यार के चरोऔर बिखर गए हैं, मगर कोयल इस साल भी नही कुकी, न ही बसंत के आने पर फूल ही खिले, क्या खिला फिर ? हाँ अंतरिम बजट जरुर आए मगर चहेरे पर खुशी न दौर सकी।
पर ज़नाब पॉलिटिकल धरो में जम कर जोड़ तोड़ चल रही है
१५ वी लोक सभा में अपनी पुरी कोशिश झोक देने में कोई कसार नही उठा रखना चाहते सभी पार्टी अपनी दावेदारी मजबूत करना चाहती है।
कोण किस दल में जा मिलेगा कुछ भी तै नही है। दुनिया में मंदी की जम कर कोहराम सा मचा है लेकिन आने वाले चुनावो में प्रचार पर लाखों नही करोड़ से ज्यादा बर्बाद किए जायेंगे।



शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...