Friday, August 26, 2016

वेब पत्रिकाओं मंे बच्चे


कौशलेंद्र प्रपन्न
तकनीक के बदवाल के साथ ही प्रकाशन और मुद्रण के स्वरूप में कए बड़ा बदलाव यह आया कि कागज की बजाए वेब पर साहित्य का प्रकाशन होने लगा। भोजपत्र, पेपाइरस, ताड़पत्रों, क्ले टेब्लेट्स, भीति पत्रों, स्तम्भों आदि का इस्तमाल हम पहले लिखने,प्रकाशन आदि के लिए करते थे। प्रकाशन और लेखन को संरक्षित करने के प्राचीन तौर तरीकों से आगे निकल चुका हमारा समाज आज गेगा बाइट्स, टेरा बाइट्स में अपने साहित्य को संरक्षित कर रहा है। एक ओर साहित्य मुद्रित रूप में उपलब्ध हैं तो वहीं दूसरी ओर हजारों लाखों पन्ने आभासीय दुनिया में तैर रही हैं। नब्बे के दशक के अंत में वेब साहित्य व वेब पत्रिकाओं की शुरुआत हो चुकी थी। धीरे धीरे लेखक,प्रकाशक भी इस ओर मुड़ने लगे। जहां पन्नों को पलटते थे और पत्रिकाओं को पढ़ाने का आनंद लेते थे अब बटन दबाते, एक क्लिक पर एक नई दुनिया के दरवाजे खुल जाते हैं। गुलजार साहब की एक कविता से पंक्ति उधार लेकर कहूं तो किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से/जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं/ अब अक्सर गुजर जाती हैं कम्प्यूटर के परदों पर/ अब उंगली क्लिक करने से बस झपकी गुजर जाती हैं/ किताबें मांगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे/उनका क्या होगा/वो शायद अब नहीं होंगे। इन पंक्तियों मंे गुलजार साहब ने किताबों की बदलती दुनिया की ओर बड़ी ही बेचैनी से अपनी चिंता जाहिर की है। और काफी हद तक सच के करीब भी है कि जिस देश में अभी भी स्कूलों से सात करोड़ बच्चे स्कूल न जाते हों। स्कूल में बैठने, पीने का पानी, शौच की व्यवस्था तक नहीं है ऐसे में कितने बच्चे/बड़े हैं जो कैंेडल पर किताबें पढ़ते हैं। कैंडल्स व आॅन लाइन किताबें/पत्रिकाएं/अखबार पढ़ने वाले एक खास वर्ग ही हैं। अभी भी हमारा बच्चा और बाल समाज इस स्थिति में नहीं है कि वो इंटरनेट पर साहित्य का आनंद ले सके। देश के व्यापक बच्चों को आज भी छपी हुई सामग्री ज्यादा लुभाती हैं।
बाल मनोविज्ञान और बाल शिक्षा दर्शन इसे स्वीकार कर चुका है कि बच्चों को मुद्रित सामग्री के साथ ही दृश्य और श्रव्य सामग्रियां ज्यादा स्थायी तौर पर पसंद आती हैं। जहां तक स्मृतियों में दर्ज होने का मसला है कि मनोविज्ञान कहता है कि बच्चों को दिखाई और सुनाई गई सामग्री लाॅंग टर्म मेमेारी में दर्ज हो जाती हैं। यानी दीर्घ कालीन स्मृतियों का हिस्सा हो जाती हैं। इसलिए बच्चों का साहित्य व शिक्षण श्रव्य और दृश्य सामग्रियों से भरपूर होना चाहिए। यही कारण है कि बाल पत्रिकाएं और बाल साहित्य भरपूर रंगों, चित्रों, रेखाचित्रों, कार्टून का इस्तमाल करती हैं। ताकि बच्चा ज्यादा से ज्यादा कंटेंट को चित्रों के मार्फत ग्रहण करे।
आज की तारीख में कई हजार पन्नों वालों वेब पत्रिकाएं उपलब्ध हैं। उनमें से बच्चों के लिए कितना उपयोगी सामग्री उपलब्ध है इसका एक जायजा लेना अनुचित न होगा। इस लिहाज से चार बड़े वेब साइटों जो साहित्य, संस्कृति,कला आदि पर केंद्रीत है उसके कंटेंट यानी कथ्य सामग्रियों की एक पड़ताल बाल साहित्य के नजरिए की। इसमें हिन्दी समय डाॅट ओरजी जो वर्धा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय के तत्वाधान मंे प्रसारित और वेबकास्ट होता है। दूसरा कविताकोश डाॅट ओरजी, तीसरा गद्यकोश डाॅट ओरजी और चैथा हिन्दी नेस्ट डाॅट काॅम। इन वेब पत्रिकाओं के चुनाव के पीछे हमारी मनसा स्पष्ट थी कि क्या इन वेब पत्रिकओं, व प्लेटफार्म पर बच्चों के साहित्य को स्थान दिया गया है। यदि बाल साहित्य है तसे उसकी गुणवता और चयनित सामग्री की कितना प्रासंगिकता है। अब उक्त वेब साइटों पर उपलब्ध बाल साहित्य की चर्चा विस्तार से नीचे दी जा रही है।
हिन्दी समय डाॅट काॅम पर मुख्य पृष्ठ पर है विषयों के विभाजन में एक काॅलम शीर्षक बाल साहित्य का है। इस काॅलम को खोलने के बाद बाल साहित्य के प्रसिद्ध कथाकार,लेखक,कवियों,नाटककारों की रचनाएं नामानुसार प्रस्तुत की गई हैं। इन लेखकांे में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रकाश मनु, विनोद कुमार शुक्ल, सुभद्रा कुमारी चैहान, अलका सरावगी, जय शंकर प्रसाद, अशोक सेकसरिया, श्री लाल शुक्ल, रमेश तैलंग, हरिशंकर परसाई, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि की बाल रचनाएं कहानियां, नाटक दी गई हैं। इनमें निराल जी की गधा और मेढ़क, हरिशंकर परसाई जी की चूहा और मैं, प्रकाश मनु की एक टमाटर का दाना आदि पढ़ना वास्वत में मौजू है। वहीं दूसरी ओर हमें हिन्दी समय के बाल साहित्य खंड़ में पद्म लाल पुन्ना लाल बख्सी की कहानी बुढ़िया भी शामिल है। वहीं हरकिृष्ण देवसरे की कविता कवितर तेंदूराम पढ़ना आनंददायी है। लगभग पचास लेखकों की बाल कहानियां,नाटक,कविताएं निश्चित ही संतोष देता है।
कविताकोश डाॅट ओरजी में विभिन्न विषयों अनुक्रमों मंे एक विषय बाल कविताओं का है। इसकी खासियत यह है कि इसमें कोशानुसार वर्णानुक्रम से रचनाकारों की बालरचनाएं सर्च कर पढ़ी जा सकती हैं। जहां पर हमंे बाल कथाकारों,कवियों की रचनाओं से गुजरने का मौका मिलता है। इसमें लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, विजय किशोर मानव, रमेश तैलंग, दिविक रमेश, वीरेंद्र मिश्र, देवेंद्र कुमार आदि की प्रसिद्ध बाल कविताएं मिलेंगी। मसलन दिविक रमेश की कविता-उल्लू क्यों बनाते हो जी भी शामिल हैं। सूर्यकुमार पांडेय की कविता एक पान का पत्ता भी मिलेगा। इस कविताकोश में बाल कविताओं की प्रचूरता को देखते-पढ़ते हुए अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस कोशकार ने काफी मेहनत की है बाल कविताओं और बालकवियांे को एक स्थान पर मुहैया कराने में।
गद्यकोश डाॅट ओरजी जैसा कि नाम से मालूम होता है कि इसमें सिर्फ और सिर्फ कहानियों ही मिलेंगी। यथानाम तथा गुणः यह कोश है। इसमें बाल कहानी के नाम से उप शीर्षक मंे हमें विभिन्न बाल कथाकारों की बाल कहानियों मिलती हैं। इस वेब साइट के मुख्य विषयों मंे हमें दो शीर्षक बच्चों के लिए मिलता है। पहला बाल कथाएं और दूसरा बाल उपन्यास। बाल कहानियों के आंगन में हमें 139 पृष्ठों में फैला बाल कथा संसार नजर आता है। इसमें मनोहर चमोली ‘मनु’, बलराम अग्रवाल, गिजूभाई बधेका आदि की बाल कहानियां समग्रता में पढ़ सकते हैं। वहीं बाल उपन्यासों में पन्ने थोड़े कम हैं कुल् तीन पन्नों का यह बाल उपन्यास खंड़ सिर्फ तीन उपन्यासों का समेटे हुए है। जिसमें हिमांशु जोशी की तीन तारें जो कि 2005 में किताब घर प्रकाशित है और यशपाल जैन की राजकुमारी की प्रतिज्ञा जतो 2005 में प्रकाशित हुई थी उपलब्ध है। इसके अलावा अभी यह खंड़ सूखा पड़ा है।
अब बात करते हैं बाल साहित्य को भी साथ लेकर चलने वाला वेबसाइट हिन्दी नेस्ट डाॅटकाॅम की। इस वेब साइट पर हमंे बच्चों की दुनिया शीर्षक से बच्चों की वास्तव में दुनिया का नजारा मिलता हैं। इसे वेबसाइट में बच्चों के साहित्य कहें या बाल दुनिया बड़ी ही व्यवस्थित तरीके से विभिन्न उपखंड़ों में परोसा गया है। मसलन- बच्चों की दुनिया में चीता कैसे बना सबसे तेज, जिराफ की गर्दन लंबी कैसे हुई? शेर फल क्यों नहीं खाता जैसे विषयों पर आलेख हैं वहीं कहानियों के खंडत्र में हमें अमर ज्येाति, बेबी माने अप्पी, छोटा सा रहस्य, नन्हीं नीतू आदि कहानियां संकलित हैं। वैसे ही कविताओं का अलग से एक ख्ंाड़ मिलता है जिसमें अगर पेड़ भी चलते होते, आओ मिल कर पेड़ लगाएं, गधा जानवर आदि कविताएं संग्रहीत की गई हैं। साथ ही साथ बाल निबंधों को भी ध्यान मंे रखते हुए स्थान दिया जाना वास्तव में सुखकरी है। इस खंड़ में अपने देश को जानो, दिल्ली का गुडियाघर, समुद्र में स्वरलहरियां आदि दी गई हैं। और तो और नन्हें बच्चों की रचनाओं को भी तवज्जो दी गई है। नन्हें बच्चों की रचनाएं उप शीर्षक से एक नन्ही सी बच्ची की दीवाली, निराले रंग, नया साल आया आदि बच्चों की रचनाओं से रू ब रू होने का अवसर मिलता है। बच्चों की चित्रकारी काॅलम में छोटे बच्चों की बनाई चित्रकारियों को शामिल किया गया है। इसमें हमें चित्र के साथ ही बच्चों की कविताओं से भी गुजरने का मौका मिलता है। बच्चे अपने देश,गांव, खेत खलिहान को कैसे और किस नजर सेक देखभाल रहे हैं इसका जायका हमें इस काॅलम के तहत मिलता है। एक और दिलचस्प बात यह है कि हमारे आस-पास के पक्षी काॅलम में विभिन्न पक्षियों के बारे में जानकारी दी गई है। जैसे कठफोड़वा, किगफिशर,बया, शकरखोरा, शाह बुलबुल आदि पक्षियों की आवाजों, परिवार से बच्चों को परिचित कराने का बेहतर काॅलम पढ़ने को मिलता है।
इस तरह से हमने लाखों हजारों पन्नांे और गेगा बाइट की दुनिया से तीन हिन्दी के सशक्त वेब पत्रिकाओं के कंटेंट यानी कथ्य की चर्चा की जिसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि किसी भी शिक्षक, विद्यार्थी को बाल कहानियां,कविताएं पढ़नी हो तो यहां विजिट कर सकते हैं। संभव है इंटरनेट की इस पयोधि में काफी उपयोगी और सार्थक वेब पत्रिकाएं रह गई हों।
आज की तारीख में हमारा साहित्य भी चोला बदल चुका है या फिर बदलने की प्रक्रिया मंे है। पुराने से पुराने अखबार, पत्रिकाएं, पुस्तकों आदि को डिजिटल रूप में तब्दील किया जा रहा है। ऐसे में बाल कहानियों, कविताओं, बाल पत्रिकाओं को आॅन लाइन करना, डिजिटल रूप में बदलना एक आवश्यक कार्य है। यही वजह है कि राष्टीय संग्रहालय ने विभिन्न पुरानी पांडुलिपियों को डिजिटल फार्म में तब्दील किया जा रहा है। साथ ही पत्रिकाओं के पुराने और नए संस्करणों को आॅन लाइन निकालने की कोशिश रही है।


Wednesday, August 24, 2016

स्कूली रिपोर्ट के आगे की हककीत



विद्यालयी शिक्षा को लेकर सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट को झुठलाती जमीनी तल्ख़ हकीकत कुछ और ही मंजर बयां करती हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार ने एक सर्वे रिपोर्ट साझा किया जिसमंे गंभीरतौर पर चिंता जतलाई गई थी कि सरकारी स्कूल के बच्चे हिन्दी पढ़ने लिखने में बहुत कमजोर हैं। बच्चों को हिन्दी के सामान्य वाक्य तक लिखना-पढ़ना नहीं आता। इसी किस्म की रिपोर्ट प्रथम की भी आ चुकी है जो लगातार पिछले 2005 से इस बाबत रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहा है। इसी के साथ ही सरककारी संस्था डाईस भी रिपोर्ट जारी कर चुकी है। इन तमाम रिपोर्ट से गुजरते हुए एक ही छवि बनती है कि सकराी स्कूलों मंे न तो ठीक से शिक्षण हो रहा है और न ही शिक्षक मेहनत कर रहे हैं। शिक्षक ख़ासकर शक के घेरे में लिए जाते हैं कि इन्हें मोटी रकम बैठे बिठाए मिलती है। पढ़ाते-वढ़ाते नहीं हैं। यह छवि कैसे बनी होगी और वे कौन से आधार हैं जिनपर इस तरह की धारणाएं बनती हैं उन्हें समझने की आवश्यकता है। जरूरत तो इस बात की भी है कि हिन्दी को पढ़ाने के तौर तरीके कैसे अपनाएं जाए रहे हैं और कक्षा तक शिक्षक किस रूप में लेकर जा पाता है। यानी कहीं न कहीं न पढ़ पाने व न लिख पाने की स्थिति का जिम्मेदार बच्चा है,शिक्षक है या फिर सरकारी की नीतियां जहां सब कुछ एकमेक हुआ पड़ा है। दरअसल यदि बच्चे हिन्दी नहीं पढ़ पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह कत्तई नहीं है कि वे अन्य विषयों में दक्षता हासिल कर चुके हैं। अध्ययन तो यह भी बताते हैं कि न केवल भाषा बल्कि गणित, विज्ञान आदि विषयों मंे भी बच्चों की दखलंदाजी कम ही है। दूसरे शब्दों मंे यदि बच्चे विभिन्न विषयों मंे अपेक्षित दक्षता हासिल नहीं कर पा रहे हैं तो इसमें शिक्षण पद्धति, पाठ्यपुस्तकें और अध्यापकीय सत्ता भी काम करती है।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन और पूर्व दिल्ली नगर निगम के साझा प्रयास से अंतःसेवाकालीन शिक्षण शिक्षा संस्थान की शुरुआत 2013 में हई। इसके पीेछे मकसल यह रहा कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों, प्रधानाचार्यों की आदि शिक्षण दक्षता को और तराशा जाए। पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन 380 प्राथमिक स्कूल हैं जिनमें तकरीबन 6000 शिक्षक हैं। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ने अब तक कम से कम 3500 शिक्षकांे को विभिन्न विषयों की शिक्षण कार्यशाला मंे प्रशिक्षण प्रदान कर चुका है। हिन्दी,गणित,अंग्रेजी, विज्ञान और समाज विज्ञान के साथ ही आर्ट एंड क्राफ्त, म्युजिक आदि की कार्यशालाओं मंे शिक्षक/शिक्षिकाओं को लगातार प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यदि शिक्षकों के अनुभव की बात करें तो वे स्वीकारते हैं कि उन्हें इन कार्यशालाओं मंे रोचक तरीके से कैसे पढ़ाएं इसकी समझ मिली। यहां आने वाले विषय विशेषज्ञों ने काफी मदद मिलती है। प्रतिमा कुमारी भजनपुरा डी ब्लाॅक प्रथम पाली की शिक्षिका हैं उनका कहना है कि हमने आज तक कई सेमिनार किए लेकिन जो तत्परता, कौशल और मनोयोग से इन कार्यशालाओं में सिखाया जाता है वैसी गुणवत्ता हमें पिछले बीस साल की नौकरी में नहीं मिली। ऐसे ही उद्गारों से रू ब रू होना पड़ता है शैल्जा चैधरी को जो कि अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान में हिन्दी विभाग में सहायक के तौर काम करे रही हैं इनका मानना है कि उन्हें कई शिक्षकों ने बताया कि उनके शिक्षण विधि में एक बड़ा अंतर आया। पहले वे वैसे ही पढ़ाते थे जैसे वे पढ़कर आए थे। लेकिन कार्यशाला के बाद उन लोगों ने अपनी शैली में बदलाव किया। वे अब गतिविधियों को शामिल करने लगे हैं जो उन्हें इन कार्यशालाओं मंे सिखाया जाता है। अब बच्चे ज्यादा आनंद लेते हैं।
पूर्व दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों जिसमें भजनपुरा,यमुना विहार, सीमापुरी,दिलशाद गार्डेन, गोकुल पुरी, मयूर विहार आदि  शामिल थे। हमने कक्षा अवलोकन में पाया कि न सिर्फ बच्चे लिखे हुए को पढ़ने मंे सक्षम हैं बल्कि स्वतंत्ररूप से वाक्यों को लिखने में भी दक्ष हैं। हमने कोशिश की कि बच्चे पाठ्यपुस्तकों से ऐत्तर क्या वे लिख और पढ़ सकते हैं इसके लिए हमने चार से पांच पंक्तियां हिन्दी मंे लिखीं जिसे बच्चों ने अच्छे से पढ़ा। कुछ वाक्यों में व्याकरणिक स्तर वर्तनी की अशुद्धियां भी की थीं जिसे बच्चों ने पकड़ा और दुरुस्त भी किया। विभिन्न स्कूलों के अवलोकन के आधार पर कह सकता हूं कि जिन लोगों,संस्थानों की रिपोर्ट यह कहती है कि सरकारी स्कूल के बच्चे पढ़ना-लिखना नहीं जानते उन्हें दुबारा कुछ और स्कूलांे मंे जाना और देखना चाहिए। एनसीइआरटी द्वारा तय रिडिंग के मानक बिंदुओं पर भी हमने इन बच्चों को समझने की कोशिश की और एक शुभ संकेत मिला कि बच्चे उन पैरामीटर पर भी बच्चे/बच्चियां खरे उतर रहे हैं।
स्कूल की किताबें,दीवारें, छत, सीढ़ियों आदि को शिक्षकों ने टीएलएम के तौर पर विकसित किया है। अकसर प्रथम पाली के शिक्षकों, प्रधानाचार्यों की शिकायत रहती है कि दूसरी पाली के बच्चे चित्र, पोस्टर,टीएलएम को बरबाद कर देते हैं। सुबह लगाव और दोपहर तक वो फट कर नीचे गिरे मिलते हैं। लेकिन शिक्षकों के प्रयास की सराहना करनी चाहिए कि इन सब स्थितियों के बावजूद भी वे अपने प्रयास से पीछे नहीं हटते। कक्षाओं मंे भी शिक्षकों ने बच्चों की मदद से वर्णमालाएं , कविताएं, कहानियां आदि सचित्र तैयार किया है। इसका नजारा तो तभी मिल सकता है जब हम कक्षाओं मंे पूर्वग्रह को झांड़ कर जाएं। यहां एकपक्षीए विमर्श करना मकसद नहीं है बल्कि जो देखा, सुना, पाया और महसूस किया उसे सामने लाना है। अपने कक्षायी अवलोकन में पाया कि बच्चे हिन्दी में वाक्य को पढ़ने,लिखने में सहज थे। वे न केवल रिमझिम की किताब को पढ़ पा रहे थे बल्कि वे लिख भी रहे थे। भाषा के चारों कौशलों मंे दक्ष नजर आए। वे पूरी मजबूती और आत्मविश्वास के साथ अपनी कविता,कहानी का वाचन भी कर रहे थे।
दिल्ली और दिल्ली के बाहर सरकारी स्कूलों मंे हिन्दी कैसे पढ़ी- पढ़ाई जा रही है इसका जायजा लेने के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने बिहार,राजस्थान,हरियाणा,पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि के सरकारी स्कूलों मंे कक्षाओं का अवलोकन किया। अलग अलग कक्षाओं में पढ़ाइ जा रही हिन्दी में आने वाली दिक्कतों में मात्रा, वर्णमालाओं की समझ को लेकर था। हालांकि बच्चों का मात्राओं वाले शब्द पढ़ने में परेशानी हो रही थी लेकिन वे समय लगा कर पढ़ तो रहे थे। बच्चों से आगे निकल कर बात करूं तो शिक्षकों मंे भी हिन्दी की वर्तनी और उच्चारण दोष पाए गए। स,श,ष के साथ ही ड,ड़, च वर्ग के पाचवें वर्ण के उच्चारण में दिक्कतें आती हैं। यदि बच्चे नहीं पढ़ पाते तो इसमें कहीं न कहीं शिक्षकीय भूमिका भी जद मंे होती है। हमें समग्रता में हिन्दी पढ़ने पढ़ाने के मसले को देखना और समझना होगा। जब तक पुस्तकीय वाचन,पुनप्र्रस्तुतिकरण तक शिक्षण को महदूद रखेंगे तब तक ऐसी समस्याएं आती रहेंगी।


Monday, August 22, 2016

डिजिटल इंडिया में बच्चों की दुनिया


कौशलेंद्र प्रपन्न
यदि डिजिटल इंडिया में कक्षायी चरित्र को देखें तो एक व्यापक परिवर्तन दिखाई देता है। पुराने पड़ चुके ब्लैक बोर्ड के स्थान पर डिजिटल बोर्ड लग चुके हैं। ई पेन, ई बोर्ड, ई चार्ट के शोभायमान कक्षा में बच्चे भी ई लर्निंग कर रह हैं। लेकिन कुछ हजार निजी स्कूली कक्षाओं के अवलोकन पर यह धारणा बनाना गलत होगा कि हमारे सरकारी स्कूलों मंे पढ़ने वाले बच्चों को भी इसी किस्म की सुविधा मिल रही है। क्योंकि तमाम सरकारी और गैर सरकारी अध्ययन रिपोर्ट इस ओर इशारा करते हैं कि अभी भी देश में एकल शिक्षकीय विद्यालय चल रही हैं। इन एकलीय स्कूलांे मंे किस किस्म की तकनीक और शैक्षिक माहौल होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यहां तक कि दिल्ली के पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तहत चलने वाले प्राथमिक स्कूलांे में अगस्त माह तक किताबें, काॅपियां, पेंसिल आदि तक नहीं मिल पाई हैं। यह हालात दिल्ली भर की ही नहीं है बल्कि देश के विभिन्न राज्यों मंे भी झांके तो कमोबेश स्थितियां एक सी मिलेंगी।
यह तो एक उदाहरण है यदि हम सरकारी स्कूलों की कक्षायी हालत को देखें तो केंद्रीय विद्यालयों, सैनिक स्कूलों, नवोदय विद्यालयों, सर्वोदय विद्यालयों आदि को छोड़ दें तो राजकीय विद्यालयों की कक्षाएं घोर उपेक्षा की शिकार नजर आएंगी। यह तो स्थिति है कक्षा की। इसके एत्तर यदि शिक्षण कालांशों, पठन सामग्रियों आदि पर नजर डालें तो एकबारगी महसूस होगा कि क्या एक ही राज्य में किस प्रकार से समान स्कूल प्रणाली के साथ मजाक चल रहा है। आरटीई लागू होने के छह साल बाद भी राज्य स्तरीय शिक्षकों की कमी तकरीबन चार से पांच लाख है। दुख तो तब होता है जब अभी भी अद्र्ध प्रशिक्षित शिक्षकों के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा को ढोने का काम चल रहा है।
आज बच्चे जितना पुस्तकों से नहीं सीखते उससे कहीं ज्यादा डिजिटल दुनिया में रहते हुए सीख रहे हैं। वह चाहे गेम्स हांे, या फिर सोशल मीडिया। सरकारी स्कूल के बच्चे हों या फिर निजी स्कूल के। दो ही बच्चे अपनी अपनी सुविधा और संसाधनों के मार्फत लगातार सीख रहे हैं और अपनी जिंदगी में इस्तमाल  भी कर रहे हैं। बच्चे अपने मां-बाप के फोन से ही सही किन्तु सूचनाएं और अपने शिक्षक/शिक्षिकाओं के बारे में फेसबुक पर जानकारियां हासिल कर रहे हैं। और तो और बच्चे शिक्षकों द्वारा पढ़ाए गए पाठों और जानकारियों का कई बार विभिनन ई स्रोतों पर सत्यापित भी करने लगे हैं। बच्चों की कक्षायी और काहर की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। इसके साथ हमारा बरताव कैसा हो इसपर विमर्श करने की आवश्यकता है। हमारे शिक्षक वर्ग भी इस तकनीक और डिजिटल दुनिया से वाकिफ हो रहे हैं ताकि बच्चों को इससे महरूम न रहना पड़े।
डिजिटल इंडिया में जितनी तेजी से सूचनाएं विस्तारित और दुनिया भर में फैलती हैं यदि इसकी अहमियत को बच्चे समझें अपनी जानकारी और अनुभवों को वैश्विक कर सकते हैं। लेकिन अफ्सोसनाक बात यह भी है कि बच्चे सामान्यतौर पर बिना समुचित मार्गदर्शन के इस माध्यम का इस्तमाल गलत सूचनाओं और जानकारियों के लिए भी कर रहे हैं। यानी बच्चे क्या देख-पढ़ रहे हैं इसपर हमारी नजर होनी निहायत ही जरूरी है। वरना ऐसी भी घटनाएं देखने और सुनने को मिल रही हैं कि बच्चे ने अपनी मैडम की निजी पलों के विडियों को इंटरनेट पर डाल दिया। यह विवेक और अपनी समझ का सही इस्तमाल न करने का परिणाम है। हमंे अपने बच्चों को डिजिटल वल्र्ड की पहुंच और उसकी खामियों को भी बताना होगा। क्यांेकि पूर्व कथित वाक्य है विज्ञान दो धारी तलवार है। ठीक उसी तर्ज पर हम इसे भी समझने की कोशिश करें कि इंटरनेट व डिजिटल दुनिया बच्चों को जहां एक ओर व्यापक दुनिया से जोड़ता है वहीं दूसरी और एक कुंठा निराशा से भी भर देता है।
हमें डिजिटल वल्र्ड में रहने और बच्चों को वाकिफ कराने से एतराज नहीं है बल्कि हमें सचेत रहने में कोई हानि नहीं है। आज की तारीख में ज्ञान और शिक्षा की दुनिया डिजिटल दुनिया मंे ज्यादा वैश्विक होने की संभावनाएं लिए हुए है। वैयक्तिक अनुभव शोध को पलक झपकते ही वैश्विक फलक पर भेजने की सुविधा आज ही हमारे पास आई है तो क्या वजह है कि हम उस अवसर का प्रयोग सकारात्मक न करें। यही वजह है कि हमारे शिक्षक भी अब गृहकार्य, एसाइंमेंट आदि तकनीक आधारित सूचना संसाधनों के इस्तमाल करने पर जोर दे रहे हैं। प्रकारांतर से बच्चों को आज की बदलती डिजिटल दुनिया से रू ब रू कराना गलत नहीं है बशर्ते हम उन्हें बेहतर तरीके से मार्गदर्शन भी प्रदान करें।
बच्चों की किताबें, काॅपियां, पेन पेंसिल आदि भी बहुत तेजी से बदल चुकी हैं। हमारे समय में नटराज की पेंसिलें आया करती थीं। लाल रंग वाली। अब पेंसिलें और पेन आदि के रंग-रूप, देह ढांचा आदि बदल चुके हैं। देखने,इस्तमाल करने में भी रोचक होते हैं। किताबें की जहां तक बात है कि तो जितनी रंगीन और टाइपिंग फांट्स आदि भी मनमोहक की जा चुकी हैं। यह अलग बात है कि एनसीइआरटी द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में छपे चित्र कई बार बच्चों में तो अरूचि पैदा करता ही है साथ ही बड़ों को भी कम ही लुभाता है। यदि हम 3 री कक्षा से 5 वीें कक्षा तक चलने समाज विज्ञान वाली किताब-आस-पास, मेरी दिल्ली व हमारा भारत पर नजर डालें तो लाल किला, कुतुब मीनार आदि की छपी तस्वीर बदरंग और बेरोनक सी ही लगती हैं। जब बड़ों को ये किताबें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पातीं तो बच्चों को इन किताबों में कितना मन लगता होगा। वहीं निजी प्रकाशकों की ओर प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों को देखें तो जी करता है एक बार नहीं कई बार पन्ने पलट कर कम से कम चित्र ही देख लें। वैसे भी बाल मनोविज्ञान और प्रकाशकीय दर्शन मानता है कि बच्चों की किताबों मंे टेक्स्ट सामग्री से ज्यादा चित्रित सामग्री होनी चाहिए। बच्चों की किताबें जितनी चटक रंगों, फाॅन्ट्य बड़े होंगे बच्चे उतना ही किताबें की ओर आकर्षित होते हैं।
बच्चों की किताबी दुनिया को डिजिटल दुनिया और विज्ञापनांे ने भी खूब प्रभावित किया है। बच्चों की पसंदीदा धारावाहिकों के मात्र उनकी काॅपियों,किताबों,पेंसिलों, बैग,कपड़ों तक पर धावा बोल चुके हैं। हमारे बच्चे इस डिजिटल दुनिया मंे एक उत्पाद की तरह भी पेश किए जा रहे हैं। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि बाजार प्रायेाजित विभिन्न तरह की प्रतियोगिताओं में बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करने, गाने,नाचने, स्टंट करने के लिए प्रेरित किया जाता है। हमारे बच्चे सेलेक्ट न होने, हार जाने, पिछड़ जाने पर स्वभाविक बालसुलभ व्यवहार छोड़ कर बड़ों की तरह अवसाद, निराशा आदि जैसी भावदशाओं से गुजरने लगते हैं। कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि हमने अपने बच्चों से उनका बचपन समय से पहले झपट चुके हैं या फिर बाजार छीन ले इसके लिए उतावले नजर आते हैं। जो किसी भी स्तर पर उचित नहीं है।


Friday, August 19, 2016

ई ना पढ़ि


कौशलेंद्र प्रपन्न
सामान्य अवधारणा कह लीजिए या बोलचाल में अक्सर यह वाक्या सुनने में मिल जाता है कि ई ना पढ़ि यानी यह नहीं पढ़ेगा। इस वाक्य मंे ही छुपा एक पूर्वग्रह साफ दिखाई देता है। हम पूर्व मंे ही मान कर चल रहे हैं कि फलां बच्चा नहीं पढ़ेगा। बिना इसकी कोई गुंजाइश तलाशे कि यदि प्रयत्य किया जाए तो यह बच्चा भी पढ़ सकता है। अमूमन इस वाक्य में न केवल लिंग बल्कि जाति, वर्ग, धर्म आदि के प्रति हमारे दृष्टिकोण को भी सामने लाता है। शिक्षक,अभिभावक, प्रशासक भी इसी पूर्वग्रह को आधार बनाकर हजारों नहीं बल्कि लाखों प्रतिभावान बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से छिनगा देते हैं। पहली नजर मंे दिखाई देने वाला हकीकत दरअसल हमारी नागर समाज की सोच को भी प्रकट करता है। यदि डाॅ तुलसी के उपन्यास मुर्दहिया को पढ़ें या फिर ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथात्मक उपन्यास जूठन तो एक खास वर्ग, दलित बच्चे को कैसे स्कूल में पहले ही दिन हाथ कलम छुआने की बजाए झाडू पकड़ा दिया जाता है। उस पर तर्रा यह कहा जाता है कि यह तो तेरा पुश्तैनी काम है। इसके साथ ही जातिसूचक गाली नत्थी करते हुए लगातार एक उन्हें शिक्षा की पगडंडी से खदेड़ा जाता रहा है।
हमारा नागर समाज द्वारा ही तैयार पाठ्यपुस्तकें भी कई बार प्रत्यक्ष और कई अप्रत्यक्षतौर पर ई ना पढ़ि की अवधारणा को ही आगे बढ़ाते हैं। इस रोशनी मंे हम सरकार की नीतियों को दिखने-समझने की कोशिश करें तो यह फांक साफ दिखाई देता है। कमतर बच्चों, कमजोर बच्चों, प्रतिभाशाली बच्चों आदि की रेणी में बांट कर हमने शिक्षा देने की वकालत भी शुरू कर दी है। साथ ही बाल मजदूरी कानून को शिक्षा के अधिकार कानून के बरक्स खड़ा कर हमने बच्चों से महज शिक्षा के रूझान को छिछला किया है। एक ओर आरटीई 2009 देश के सभी बच्चों को पढ़ने का हक देता है वहीं बाल मजदूरी कानून उसे कुचलने के लिए आमादा है।
सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। वहीं जीएमआर और यूनिसेफ की रिपोर्ट और ही हकीकत बयंा करती है। भारत में अभी पांच करोड़ से भी ज्यादा बच्चों स्कूलों से बाहर हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब स्कूल जाने वाले बच्चे महज रजिस्ट में दर्ज होते हैं कैसी शिक्षा उन्हें मिल रही है इस पर हमारा कोई खास ध्यान नहीं होता। यही कारण है कि हमारे बच्चे पढ़ने को तो छह कक्षा मंे होते हैं लेकिन उन्हें कक्षा दूसरी, चैथी की हिन्दी , गणित, विज्ञान की समझ नहीं होती। हिन्दी की जहां तक बात है तो बच्चे सामान्य लिखे हुए वाक्यों को पढ़ नहीं पाते। जो बच्चे पढ़ लेते हैं उसका मायने नहीं समझ पाते। यह स्थिति खासा चिंताजनक है। इसमें कहीं न कहीं हिन्दी शिक्षण की विधियां भी कठघरे में खड़ी होती हैं। साथ ही शिक्षक भी संदेह के घेरे में आता है कि वह किस प्रकार हिन्दी पढ़ा रहा है।
यदि सरकारी स्कूलों मंे पढ़ाई जा रही हिन्दी पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षक सामान्यतः पाठों का वाचन भर कर आगे बढ़ जाते हैं। या फिर पाठ के अंत मंे दिए गए सवालों के उत्तर लिखवा कर हिन्दी शिक्षण कर देते हैं। कायदे से हिन्दी की कविता, कहानी आदि कैसे रोचक तरीके से पढ़ाई जाए इसओर उनका ध्यान कम जाता है। हिन्दी की जमीन यहीं से कमजोर होनी शुरू हो जाती है। जो आगे चलकर काॅलेज और विश्वविद्यालय मंे एकबारगी छिछली पड़ जाती है। बच्चों को अंकों के पहाड़ तो मिल जाते हैं लेकिन अभिव्यक्ति के स्तर पर पिछड़ने लगते हैं। एक गद्यांश लिखने में कई त्रुटियां करते हैं। न तो वे लिख,बोल और पढ़ने के कौशलों में दक्ष हो पाते हैं और न ही वे अपने विचारों को प्रकट करने में सक्षम हो पाते हैं। जो किसी भी भाषा कौशलों के चार स्तम्भ माने गए हैं। यदि शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के साथ अपनी सृजनात्मक चिंतन और कल्पनाशीलता का इस्तमाल करें तो संभव है हिन्दी शिक्षण ज्यादा रूचिपूर्ण और लाभकरी हो सकेगी।
अमूमन शिक्षकों से सुनने में आता है कि उनकी कक्षा के बच्चे सामान्य वाक्य लिख और पढ़ नहीं पाते। उन्हें कैसे पढ़ना लिखना सीखाया जाए। भाषाविदों और प्रशिक्षकों का मानना है कि हिन्दी व किसी भी भाषा शिक्षण मंे व्याख्यान के साथ गतिविधियों के मार्फत शिक्षण किया जाए तो वह ज्यादा कारगर होता है। बच्चे जितना दृश्य-श्रव्य सामग्री देखते और सुनते हैं वह उनकी स्मृति में स्थायी हो जाती है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकारी स्कूलों मंे ब्लैकबोर्ड को छोड़कर अन्य सामग्री मुश्किल से मिलती हैं। अनुभव तो यह भी बताते हैं कि जो ब्लैकबोर्ड होते हैं वे भी प्रयोग की स्थिति में कम ही होते हैं। ब्लैकबोर्ड में इतने गड़्ढे होते हैं कि शिक्षकों को लिखने के लिए जगह तलाश करनी पड़ती है।
इन तमाम स्थितियों मंे यदि बच्चा स्कूल आ रहा है तो उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले इसके लिए विभिन्न आयोगों और समितियों ने संस्तुतियां दी हैं लेकिन वे फाइलों मंे ही मिला करती हैं। एक ओर अभिभावक वहीं दूसरी ओर शिक्षक वर्ग भी है जो मानकर चलता है कि ये बच्चे नहीं पढ़ सकते। इन्हें तो अंत में रेड़ी ही लगाने हैं। ये पढ़कर क्या करेगा। गोया ई ना पढ़ि पढ़िहैं संसार। सारा संसार पढ़ेगा बस कुछ खास बच्चे ही शिक्षा के स्वाद से अछूते रह जाएंगे। एक ओर समाज में पढ़ने लिखने पर सरकारी स्तर पर काफी जोर दिया जा रहा है। वहीं समाज में बच्चों का एक बड़ा वर्ग वह भी है जो स्कूल और शिक्षा की देहारी पर अपनी पारी का इंतजार कर रहा है। यदि डिजिटल इंडिया में बच्चे अनपढ़ रहते हैं तो यह एक करारा तमाचा उन बच्चों के गालों पर नहीं बल्कि नागर समाज के गाल पर होगा।  


Monday, August 1, 2016

सरकारी नौकरी से मोह भंग


आज ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है जिनका सरकारी नौकरी से मोह भंग हो रहा है। हमारे आप पास ही ऐसे युवा/युवतियां हैं जिन्हें निजी कंपनियों में अच्छी सैलरी मिल रही है लेकिन कई बार घर परिवार के दबाव में आकर अपनी नौकरी छोड़ सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा में बैठते हैं और मेहनत से उसे पा भी लेते हैं। लेकिन काम करने की आजादी और काम की प्रकृति जिस तरह की उन्हें निजी कंपनियों में मिलती हैं वह उन्हें सरकारी महकमों में नहीं मिल पाती। यहीं से उनके मन में सरकारी नौकरी के प्रति मोहभंग होना शुरू हो जाता है।
दुबारा ऐसे युवा/युवतियां निजी कंपनियों की ओर रूख करते हैं। यह एक विचारणीय सवाल है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...