Sunday, December 31, 2017

साल का अंतिम दिन




कौशलेंद्र प्रपन्न
कोई नई बात नहीं। हर साल ही यह आया करता है। लोग धड़ल्ले से जगह जगह जा कर सूचना फेंके जा रहे हैं। कोई फलां रिसॉर्ट में, कोई गोवा, तो कोई न्यूयार्क में नए साल में टहल रहे हैं। जो बच गए वो अपने घर, गांव, शहर में अपने काम में लगे हैं।
किसान खेतों में आलू, गाजर, गन्ने काट, उखड़ रहा है। महिलाएं बुग्गी हांकती हुई बाज़ार जा रही हैं गन्ने बेचने। नज़र नज़र और जरूरत की बात है। स्थान और जीवन की प्राथमिकताओं की बात है।
फर्ज़ कीजिए आप गांव में हैं तो वहां नए साल के लिए क्या करेंगे। क्या आप मॉल्स में जाएंगे? क्या आप मोमोज खाएंगे या घर में बैठे घर के बने खाना खा कर कल फिर खेत पर जाने की तैयारी करेंगे। अपनी अपनी जीवन की चुनौतियां हैं और जीवन के रंग हैं।
महज कैलेंडर की तारीखें नहीं बदलतीं बल्कि हमारी एक आदत और अगले साल फिसल जाती है। हमारी रूचियां और प्रौढ़ हो जाती हैं। हम ज़रा और वयस्क हो जाते हैं। हमारी दृष्टि और साफ हो जाती है।
कई बार हम अतीत के पन्नों को पलटने में ही नए साल यानी वर्तमान को बोझिल करते रहते हैं। जबकि पिछले पन्ने को फाड़ कर आगे नई इबादत लिखनी चाहिए। जो शब्द पिछले साल खोखले रहे गए थे उन्हें अर्थ से लबालब करने की ललक हो तो नए साल की किताब को और रोचक बनाया जा सकता है।
 

Friday, December 29, 2017

बाल साहित्य कोई न ख़बर लेवनहार



कौशलेंद्र प्रपन्न
वर्ष अपने अंतिम चरण में है। वयस्कों के साहित्य की समीक्षा की जा रही है। इस वर्ष कविता,कहानी, उपन्यास आदि विधाओं में कौन कौन सी किताबें प्रमुख रहीं।
हाल ही में पत्रकार व लेखक पंकज चतुर्वेदी जी ने पूछा कि बाल किताबों के नाम, कवर पेज और प्रकाशक लेखक सहित सूचित करें। यह एक बड़ा सवाल और उलझन पैदा करने वाला था। मैंने इस वर्ष की प्रमुख बाल किताबों की सूची बनाने में सफल नहीं रहा। थक हार कर कुछ बाल पत्रिकाओं के नाम तो गिना सका लेकिन किताबों के नाम नहीं बता सका।
क्या यह मेरी व्यक्तिगत हार है? क्या यह मेरी निजी असफलता है कि मैं बाल किताबों की पहचान व सूची नहीं बना सका? मुझे लगता है कि पूरे वर्ष हम वयस्कों की किताबों पर तो भरपूर बल्कि कुछ ज़्यादा ही वक़्त दिया करते हैं। लेकिन जब बाल साहित्य की बात आती है वैसे ही वयस्क नदारत हो जाते हैं।
पिछले दिनों जब अख़बार और पत्रिका तलाश रहा था तब बाल साहित्य के नाम पर पारंपरिक कहानियां मिलीं। पिछले पांच - छह सालों से अख़बारों के साल के अंतिम हप्तों में साहित्य विश्लेषण देखता रहा हूं जिनमें कहानी,उपन्यास, कविता आदि की चर्चा खूब होती रही है। बस उपेक्षित तो बाल साहित्य रहा करता है।

Thursday, December 28, 2017

जाल समेटा करने का समय...


कौशलेंद्र प्रपन्न
पता नहीं कहां कहां, कब, कैसे किसी को ठेस पहुंचा किया हमने। कहां न जाने हम गिरे। कहीं अपनी नज़रों में। तो भी दूसरों की नज़र में। अब गिरता तो गिरना है। वह जहां भी हुआ हो। उन उन लोगों से उन स्थानों पर पूरी संजीदगी के साथ और शिद्दत से मॉफी मांग लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।
हम अपने तमाम कर्मां, गुण-अवगुणों के स्वयं मूल्यांकनकर्ता होते हैं। हमें कभी न कभी। किसी ने किसी के सामने अपनी ग़लतियों को कबूल कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वक़्त निकल जाए और आप ग्लानि में सांसें लेते रहें।
हर साल, हर पल अपने साथ कई किस्म के तज़र्बे ले कर आया करता है। कुछ सुखद होते हैं तो कुछ टीस देने वाली। चेहरे तो हंसते रहते हैं लेकिन अंदर की नदी कहीं सूख रही होती है। आत्मबल कमजोर हो रहा होता है।
कितना बेहतर हो कि हम अपनी कमियों, ग़लतियों को स्वीकार कर लें और आत्मग्लानि से बच जाएं। सो यह काम हमें कर ही लेना चाहिए।
सुखद बातों को हम अक्सर याद रख लिया करते हैं। लेकिन जो छूट जाती है वह किसी कोने में पड़ी सुबकती रहती है। वह दुखद या कष्ट देने वाली घटनाएं हुआ करती हैं। मगर गौर से देखें तो वह पल भी तो हमारा ही हिस्सा हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है जब भी हम अपनी बात, एहसास को स्वीकार कर और सही व्यक्ति तक पहुंचा देते हैं तब हमारी ख़्वाहिश पूरी हो जाती है। 

Tuesday, December 26, 2017

भीड़ में मैं या कि तुम


कौशलेंद्र प्रपन्न
जब से छुट्टियों को मौसम आया है तब से लोग दिल्ली छोड़ उड़ने में लगे हैं। जो उड़ नहीं सकते वो रेंग रहे हैं। जो रेंग नहीं सकते वे घिसट कर चलने लगे हैं।
दिल्ली को कोना कोना भीड़ में तब्दील हो चुका है। हर सड़क हर मॉल्स सजे हुए हैं। सड़कें कराह रही हैं। जिधर देखो उधर भीड़ ही भीड़ गाड़ियां ही गाड़ियां।
शायद हम कितने थक जाते हैं। पूरे साल काम करते करते। काम न भी करें तो छुट्टियों का इंतज़ार कुछ इस तरह होता है गोया इसके बगैर हम कितने अधूरे हैं।
आज कल ऑफिस में साथी कम हैं। शोर कम है। सभी कहीं न कहीं भीड़ का हिस्स बने हुए हैं। जहां होटल 500, 2000 में मिला करते हैं। वहीं उनके रेट आसमान छू रहे हैं।
होटल वाले, गाड़ी वाले। टै्रवल एजेंट सब के सब बिजी हैं। सर अभी बहुत महंगे हैं। आफ मौसम तो अब होता कहां है।
देश विदेश हर जगह लोग उड़ने को बेताब हैं। जिन्हें विदेश नहीं लिखा व मिला वो देश में ही अंतरदेशीय उड़ान भर रहे हैं।
हम इतना खाली पहले कभी नहीं थे। जितने अब होते जा रहे हैं। नाते रिश्तेदार कहीं खो गए। किसी से मिलने की न तो ललक बची और न वक्त। चाव तो कब की जाती रही।
बाहरी शोर से हमने अपने आप को भरना शुरू कर दिया है।

Monday, December 25, 2017

13,०० सरकारी स्कूल महाराष्ट्र में बंद 
खबर है कि महाराष्ट्र के पुणे के आस पास तक़रीबन 13,00 सरकारी स्कूल बंद हो गए .
शिक्षामंत्री का कहना है कि शिक्षा की गुणवत्ता काम होना मुख्या वजह है स्कूल में बच्चे नहीं हैं.
तर्क पर हँसा जाए या दुखी .

Wednesday, December 20, 2017

परीक्षा से डरी बच्चियां




कौशलेंद्र प्रपन्न
मेट्रो में सुबह का समय। सीट पर खचाखच भीड़। लेकिन सीट मिल गई। मैं अपनी किताब 100 संपादकीय 1978 से 2016 तक द हिदू पढ़ने लगा। मेरे पास बैठी लड़की और उसके दोस्त आपस में बात कर रहे थे। मैं सुनना भी नहीं चाह रहा था। लेकिन कुछ पंक्तियां कोनों से टकरा रही थीं।
‘‘यार! सुबह तीन बजे से जगी हूं। नींद नहीं आ रही थी। मम्मी बार बार कह रही थी पढ़े ले।’’
‘‘नींद गहरी आ रही थी।’’ ‘‘कल रात से सिर में बहुत दर्द हो रहा है।’’
आपसी बातें और तेज होने लगीं। बीच बीच में मैं नज़रे उठा कर उन्हें देखता तो ‘‘शॉरी अंकल’’
‘‘अंकल डिस्टब हो रहे हैं।’’
‘‘मैंने कहा कोई बात नहीं। कहां पढ़ती हैं? क्या कर रही हैं?’’
वे बच्चे इंटिरियर डिजाइनिंग का कोर्स महारानी बाग से कर रहे हैं। आज उनका पेपर डिजाइनिंग का था। सिद्धांत और प्रैक्टिल दोनों।
मैंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। क्यों डर लग रहा है।कितनी पढ़ाई हुई आदि।
मैंने बस उनके डर को हल्का करने के मकसद से कहा कि जब परीक्षा में प्रश्न पत्र आए तो पहले सवालों को पढ़ने और उसकी भाषा को समझने की कोशिश करना कि क्या पूछा जा रहा है।उसके अनुसार अपनी पढ़ाई को इस्तमाल करना। मॉल्स गए हो, शोरूम में जाते हो, वहां देखा होगा इंटिरियर डिजाइनिंग कैसी होती है।उन्हें एक बार ध्यान से याद करना। काफी हद तक तुम्हारे सवालां के जवाब निकलने शुरू हो जाएंगे। आदि
बातचीत में उन्हें परीक्षा के डर से बाहर निकालना था। उन्हें परीक्षा की प्रकृति और चरित्र पर बात कर उनके मन को हल्का करना था। मैंने उन्हें कहा कि परीक्षा क्या जांचना चाहती है।परीक्षा में हम क्या मूल्यांकन करना चाहते हैं?आदि उद्देश्य स्पष्ट हों तो परीक्षा डराती नहीं।
बातचीत में मालूम ही नहीं चला कि कब कशमीरी गेट आ गया।लेकिन जाते जाते बच्चों ने जो स्माइल दी और कहा, ‘‘ अंकल जी आपने आज हमारा दिन बना दिया’’हम से कोई इस तरह परीक्षा पर बात ही नहीं करता। हर कोई डराते हैं।
मुझे लगता हैअपने बच्चों से परीक्षा और शिक्षा के मायने पर रूक कर बात करनी चाहिए। संभव हैहम बच्चों को डिप्रेशन और तनाव से बाहर निकाल सकें।

Tuesday, December 19, 2017

किताब लोकार्पण के दिन दूर नहीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
विश्व पुस्तक मेला आने वाला है। बल्कि तारीख भी तय है। 6 से 14 जनवरी। मेल, व्टास्एप, मेसेज आदि से नई नई किताबों की सूचनाएं आने लगी हैं।
कोई अपनी कविता संग्रह, कोई कहानी संग्रह,उपन्यास, निबंध आदि लेकर आ रहे हैं। एक सुखद घटना है। कम से कम लोग साल भर लग कर किताब लिख रहे हैं।
किताबें लिखी जा रही हैं। किताबें छप भी रही हैं। पाठक भी तो आस-पास ही हैं। कुछ खरीद कर पढ़ने वाले हैं तो कुछ उपहार में मिली किताब को अपनी आलमारी में रखने के लिए उतावले हैं। सबके अपने अपने पसंद और रूचियां हैं। वे उस किताब को जरूर खरीद कर पढ़ने वाले हैं।
आलोचक, समीक्षक, वाचक भी तैयार हैं। जैसे ही उन्हें किताब मिलेगी वो शुरू हो जाएंगे। पढ़ना, लिखना और बोलना तीनों कौशल की शुरुआत हो जाएगी।
कुछ की किताबें पत्रिका,अख़बार आदि में दो कॉलम, तीन कॉलम या फिर तीन पेज की जगह पा जाएंगी। जो समीक्षा से बाहर रह जाएंगी वो अपनों के बीच पढ़ी और चर्चा में शामिल होंगी।
से तैयार हो जाइए। पुस्तक मेला और किताबों के लोकार्पण समारोह में। आइएगा जरूर। क्या पता आपको अपने पसंद की किताब हाथ लग जाए।

Monday, December 18, 2017

800 से ज्यादा बंद कर दिए गए सरकारी स्कूल



कौशलेंद्र प्रपन्न
राज्य उड़िया। गांव,जिला मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जी का चुनावी क्षेत्र। गांव भी आदिवासियों का। उसमें भी सरकारी स्कूल। कौन आवाज उठाए। बच्चे किसके आदिवासियों के। उन्हें पढ़ने-लिखने से क्या हासिल होगा। क्या वे पढ़-लिखकर कलक्टर बनेंगे?क्या वे राजनेता बनेंगे? मालूम नहीं। लेकिन उनके चुनानी क्षेत्र में पिछले शुक्रवार की ख़बर के अनुसार 800 से ज्यादा सरकारी स्कूलों में ताला लगा दिया गया।
सरकारी स्कूलों में ताला लगने की यह कोई नहीं ख़बर नहीं है। वैसे में जब एक प्रचारमंत्री वोट डाल कर रोड शो करते हों। ऐसे में जहां आम लोगों से उनकी सरकारी शिक्षा के रास्ते बंद किए जाते हों। क्या फर्क पड़ता है? किसे फर्क पड़ेगा?
सरकारी आती जाती हैं। लेकिन शिक्षा, बच्चे, समाज वहीं का वहीं रह जाता है। उसपर आदिवासी समाज से हमने वन संपदा तो हसोत ही ली। उनसे शिक्षा के अधिकार को भी अपने कब्जे में कर रहे हैं। कौन उठाएगा उनकी आवाज़।
आरटीई फोरम देश भर में शिक्षा के अधिकार आधिनियम की रक्षा और सरकारी स्कूलों को बचाने की वकालत करता है। हाल ही में दिल्ली में नेशनल सम्मेलन भी हुआ। उसमें देश भर से शिक्षाकर्मी, नीति निर्माता और शिक्षा-अधिकार की आवाज को बलंद करने वाले जुटे। यह संस्था राजस्थान, म.प्र, यूके आदि राज्यों में सरकारी स्कूलों के बंद होने पर पूरजोर आवाज उठाई थी।
एक ओर सस्टनेबल डेवलप्मेंट यानी सतत् विकास लक्ष्य को पाने के लिए 2030 तक की रणनीति बनाने में देश लगा है वहीं दूसरी ओर हमारे बच्चों से सरकारी स्कूल भी दूर किए जा रहे हैं।
मलूम चला कि जिन स्कूलों को बंद किया गया। उनमें पढ़ने वाले बच्चों को विकल्प के तौर पर दूसरे स्कूलां में दाखिला दे दिया जाएगा।
यही तर्क दूसरे राज्यों में भी सरकार की ओर से दिए गए थे। लेकिन वहां कोई पूछने वाला नहीं कि जिन बच्चां के स्कूल बंद हुए क्या वे बच्चे दूसरे स्कूलों में जा रहे हैं।
स्रकारी स्कूलांं को बंद होने हमें बचाने की आवश्यकता है।

Thursday, December 14, 2017

पढाना चाहें, पर वक्त नहीं


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों तकरीबन बीस शिक्षकों के साथ उनकी कक्षा में बातचीत और मुलाकात का अवसर मिला। इस मुलाकात में कई सारी बातें, शिक्षण समस्याएं और चुनौतियों से रू ब रू होने का मौका मिला।
बच्चों को किस प्रकार हिन्दी पढ़ने में दिक्कतें आती हैं। शिक्षक किस प्रकार उन्हें पढ़ने के प्रति प्रेरित किया जाए आदि पर विस्तार बातचीत हुई।
अधिकांश शिक्षकों से जो बात सुनने को मिली उसका लब्बोलुआब यही था कि उन्हें पढ़ाने का मौका बहुत कम मिलता है।
डाइस की रिपोर्ट, बैंक के साथ बच्चों के आधार कार्ड जोड़ना, वर्दी के पैसे बांटना,आदि कामों में ऐसे उलझे होते हैं कि पढ़ाना पीछे छूट जाता है।
बच्चों को पढ़ाने के लिए बेचैन शिक्षक अंत में भारी मन से अपने घर जाते हैं। कहते हैं सर हमें कई बार बहुत खराब लगता है जिस दिन हम बच्चों को नहीं पढ़ाते।
यह दर्द यह एहसास न जानें कितनों को होता होगा मालूम नहीं लेकिन जितने भी ऐसे शिक्षक हैं उन्हीं की वजह से शिक्षा में जो भी गुणवत्ता बची है उन्हें इसका श्रेय जाता है।

Tuesday, December 12, 2017

मास्टर जी की आदतें



कौशलेंद्र प्रपन्न
बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था। शायद क्लास छठी या सातवीं या फिर आठवीं में। मुझे लिखना बिल्कुल पसंद नहीं था। मास्टर नगीना बाबू जो कुछ भी लिखा करते। मैं उसे अपनी कापी में नहीं लिखा करता। एक बार चक्कर काटते हुए मेरी कॉपी पर नजर गई।
‘‘पंडित!!! तुम्हारी कॉपी ख़ाली क्यों है? तुम लिख नहीं रहे हो।’’
‘‘मैंने कहा, मिट जा रहा है।’’
उन्होंने पूरी क्लास के सामने दुबारा ब्लैक बोर्ड पर लिखा लेकिन मिटा नहीं। तब वापस आए। और पूछा पंडित कहां मिटा। और कॉपी उठाई। कहा, ‘‘अपनी पिताजी का नाक कटवाओगे?’’
‘‘शाम में पिताजी मिलेंगे। समझे।’’
दूसरा वाकया गोरख बाबू के साथ का रहा। वो मुझे नौवीं कक्षा में हिन्दी में मिले। उनकी लेखनी और लिखने की शैली लाजवाब थी। वो जो भी लिखा करते सिरोरेखा नहीं डालते थे। गोरख बाबू का प्रभाव यूं चढ़ा कि आज तलक मैंने हिन्दी लिखते वक्त सिरोरेखा नहीं डाला। कई बार लोगों ने टोका। पिताजी ने टोका डांटा आदि। लेकिन आदत जो पड़ चुकी थी।
हिन्दी लिखने की शैली और तौर तरीका पर गोरख बाबू का असर रहा। उनसे पूछा कि वो क्यों ऐसे लिखते हैं?
तब उन्होंने कहा, ऐसे जल्दी जल्दी लिख लेता हूं। रफ्तार में लिख पाता हूं। पता नहीं कब हमारे बच्चे अपने शिक्षकों के हर चीज को करीब से नकल करते हैं। कब मास्टर जी की आदतें हमारी हो जाती हैं। इसका पता ही नहीं चलता।

Monday, December 11, 2017

ढाई साला बच्ची की आंखों में मोबाइल



कौशलेंद्र प्रपन्न
ढाई साला बच्ची ताबड़तोड़ मोबाइल में आंखें फोड़ रही थी। मां बगल में बैठी टीवी देख रही थी। स्थान डॉक्टर की क्लिनिक। टीवी पर कुछ ख़बर तैर रही थी। ख़बर अस्पताल की थी। मां अपना ज्ञान और जीके दुरूस्त कर रही थी। बच्ची अपनी इंटरनेटी गेम को।
बच्ची बिना सिर उठाए लगातार छोटे से स्क्रीन में आंखें धसाए आनंद ले रही थी। बीच बीच में आंखें उठाकर मां को देख लेती। मां टीवी में।
बच्ची काफी देर तक मोबाइल में व्यस्त रही। इसी बीच फोन आ गया तो मां को पकड़ा दी। लेकिन जैसे ही कॉल खत्म हुआ फिर मोबाइल में।
मैं इस पूरी घटना को देख और समझने की कोशिश कर रहा था। कि बच्ची क्या देख रही हैं? किस चीज में उसे आनंद आ रहा है। आदि
रहा नहीं गया। सो पूछ ही लिया उसकी मां से। वैसे अपरिचितों से बात न करें। ऐसी घोषणाएं ताकीद करती हैं। लेकिन मैंने वह जोखिम उठाई।
मां ने कहा, ‘‘यू ट्यूब पर गाने देख रही है।’’
‘‘देख लेती है। अपने पसंद की गीत और खेल खुद यू ट्यूब पर सर्च कर लेती है।’’
जिज्ञासा यहीं शांत नहीं हुई। पूछा, ‘‘यू ट्यूब तक कैसे पहुंचती है?’’
‘‘क्या आपके फोन में ही सर्च कर लेती है या किसी भी फोन में?’’
‘‘सर्च तो ये वाइस माइक से करती है। अभी लिख नहीं पाती न।’’
‘‘मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। मैंने उनसे अनुमति मांगी क्या मैं अपना फोन उसे देकर सर्च करने को कह सकता हूं?’’
वो तैयार हो गईं। मैंने उस बच्ची को फोन दिया। उसने स्क्रीन को गौर देखा। फिर अंगुली से सरकाना शुरू किया। कुछ देर में यू ट्यूब के आइकन को डबल टच कर ओपन किया और माइक को टच कर बोला लकड़ी की काथी... तुतली आवाज में बोली और उसके सामने वह गीत हाज़िर।
ठीक इसी तरह की एक और घटना याद करूं तो दो साल का रहा होगा बच्चा। उसे मैंने पिछले एक घंटे से मोबाइल में आंखें फोड़ते देख दंग रह गया।उस पर तुर्रा यह कि मां-बाप यह बताते हुए अघाते नहीं कि उनका बच्चा मोबाइल ऑपरेट कर लेता है।हंसिए जनाब या रोइए। समझ नहीं आता।
एक मां ने जब अपनी बेटी को पापा के मोबाइल में अचानक अश्लील विडियो देखते हुए पाया तो उसका गुस्सा बाहर निकल ही पडा। चांटा और डांट दोनां एक साथ। लेकिन क्या गलती उस बच्ची की थी? वह तो तर्क करने लगी।
‘‘क्यों मारा ममॉ? उसमें छांप जैसा कुछ चल रहा था।’’ ‘‘एक दूसरे की बॉडी पर चढ़कर खेल रहे थे।’’
मां जवाब क्या दे?

Friday, December 8, 2017

शिक्षक का कबूलनामा




कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षकों पर कई तरह के तोहमत लगाए जाते रहे हैं। शिक्षक पढ़ाते नहीं। शिक्षकों में पढ़ाने की चाह नहीं रही। इस प्रोफेशन में आराम करने और जीवन से निराश हो चुके लोग होते हैं आदि। यदि यह तर्क हैतो पूर्वग्रह के करीब है।दरअसल शिक्षक पढ़ाते हैं। पढ़ाने की छटपटाहट भी होती है। लेकिन बीच कक्षा में उन्हें आंकड़ों के पेट भरने का काम दे दिया जाता है।शिक्षक पढ़ाना छोड़कर वर्दी,वजिफे आदि के पैसे बांटने, आधार नंबर को बैंक में लिंक कराने में जुट जाता है।उससे कोई नहीं पूछता पढ़ाई के दौरान आई अडचनों को कैसे दूर करोगे।
एक शिक्षक ने खुले दिल से कबूल किया कि एक बार यही कोई दस साल पहले जब वो नई नई नौकरी में आई थीं उन्होंने एक बच्चे को इस लिया पीटा था,बल्कि रोका भी करतीं करती थींक्योंकि वह दीवारां और फर्शपर चित्रकारी किया करता।
घटना घटे लंबा समय हुआ एक दिन एक वयस्क उनके सामने खडा हो गया और कहा, पहचाना!!! मैं कृष्णा। शिक्षिका को न नाम याद थे और न उसका चेहरा। लेकिन जब उसने घटना बयां किया कि वही बच्चा हूं जिसे आप रोज पीटा और डांटा करती थीं। कृष्णा। अब मेरी पेंटिंग की दुकान है। चित्र बनाता हूं। पोस्टर डिजाइन करता हैं। और स्कूलों के बैनर आदि बनाता हूं।
शिक्षिका ने बताया उस दिन मेरे पास कहने को कोई शब्द नहीं था। मैं अपनी ही नजरों में डूबती जा रही थी। उन्होंने कहा उस दिन एहसास हुआ कि मैं कितनी गलत थी।
इस तरह के शिक्षक एक नहीं बल्कि कई हैं जिन्हें अपने शिक्षण के दौरान हुए अनुभवों से ऐसी सीख भी मिली जिन्हें वो कभी भूल नहीं पाते।

Thursday, December 7, 2017

इतिहास की किताब और हमारी नज़र



कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में यूनेस्को की ओर से हर साल जारी होने वाली रिपोर्ट 2017-18 ग्लोबल एजूकेशन मोनिंटरिंग रिपोर्ट जीइएमआर 2017-18 जारी की गई। इस रिपोर्ट में ख़ासकर भारत और पाकिस्तान में स्कूली पाठ्यपुस्तकों की राजनीति की ओर चिंता जारी रेखांकित की गई है।इस रिपोर्ट में बताया गया हैकि पाकिस्तान में इतिहास की किताबों में आतंकवाद, विभाजन और भारत के प्रति ख़ास दृष्टिकोण को तवज्जो दी गई है।बताया गया हैकि भारत में गोधरा कांड की प्रस्तुति और अयोध्या विवाद को रोमांचक तरीके से पेश करने की कोशिश की गई है।भारत औ पाकिस्तान में 1947 के बाद तारीखें बेशक बदलीं हैंलेकिन दोनों ही देशों में इतिहास को पढ़ने पढ़ाने की नज़र स्पष्ट नहीं है।गौरतलब हैकि प्रो. कृष्ण कुमार ने इसी मसले को प्रिजुडिश ए।प्राइड पुस्तक में बडी ही शिद्दत से पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण किया है।
शिक्षा में पाठ्यपुस्तकों को एक ऐसे औजार के तौर पर प्रयोग करने का चलन है जहां शिक्षकीय सत्ता को कमतर किया जाता है। शिक्षक चाह कर भी पाठ्यपुस्तकों को पढ़ाने के दौरान अपनी दक्षता का इस्तमाल नहीं कर पाता। शिक्षकों के सामने एक सवाल यह खडा होता है कि समय सीमा में पाठ्यपुस्तकों को पूरा कराए। और आज शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सा बना चुका परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर सके। स्पष्टतः शिक्षक महज पाठ्यपुस्तकों को हस्तांतरित करने वाला मशीन नहीं है बल्कि वह बच्चों में अपने परिवेश को समझने में सक्षम हो सके, इस प्रक्रिया में मददगार साबित होना है।

Wednesday, December 6, 2017

बनाते अख़बार और पत्रिका...






कौशलेंद्र प्रपन्न
श्री पंकज चतुर्वेदी जी के सानिध्य में तकरीबन चालीस शिक्षकों ने आधे घंटे में अख़बार और पत्रिकाओं का बनाकर अपनी कल्पनपाशीलता का परिचय दिया।
हमारा मकसद था कि शिक्षकों को बाल साहित्य के बारे में जानकारी देने के बाद उनसे बच्चों के लिए चित्रात्मक पुस्तक/पत्रिका और अख़बार बनवाया जाए। इसमें एक बात जो ख़ास थी वो यह था कि शिक्षकों ने इससे पहले कभी भी इस प्रकार का काम नहीं किया था।
आयु, स्तर और बाल मन को टटोलते हुए पत्रिका को जन्म देना था। साथ ही पत्रिका और अख़बार निर्माण की प्रक्रिया में किन किन मोड़ों,अड़चनों और चुनौतियों से गुजरना होता है उसे भी साझा किया जाए।
चालीस शिक्षकों की टीम को बीस बीस में बांट दिए गए। उन्हें यह जिम्मेदारी दी गई कि आपस में ही संपादकीय मंडल, चित्र निर्माता और कंटेंट लेखक की टीम बनाएं।
लगभग आधे घंटे में एक मुकम्मल पत्रिका सब के सामने आई। वहीं अख़बार भी बन कर तैयार था। श्री पंकज जी ने अनुरोध किया कि शिक्षक इस काम को अपनी कक्षाओं में लेकर जाएं। बच्चों को दिखाएं और कोशिश करें कि बच्चे खुद यह कर सकें।

Tuesday, December 5, 2017

कहानी पढ़ते-पढ़ाते..



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानियां हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती हैं। कहानी सुनते,सुनाते, पढ़ते-पढ़ाते लंबा अर्सा हुआ। फिर भी कहानी कैसे पढ़ाएं जैसे सवाल बार बार सामने खडे होते हैं।कहानियों को पढ़ाने के तौर तरीकों और विधियों को लेकर कई सारे लेख, सामग्री बाजार में उपलब्ध हैं। लेकिन इन सब के बावजूद कहानियां कैसे पढ़ाई जाएं एक मसला आज भी है।कहानियों को पढ़ते-पढ़ाते वक्त किस प्रकार की सावधानियां रखी जाएं इसको लेकर किताबें भी हमारी मदद करती हैं।
श्री पंकज चतुर्वेदी के संपादन में नेशनल बुक ट्रस्ट से एक किताब छपी हैकहानी कहने की कला। इस किताब में प्रो. कृष्ण कुमार, पंकज चतुर्वेदी, बालकृष्ण देवसरे आदि के लेख पठनीय हैं। इस किताब में बडी शिद्दत से कहानी के विभिन्न तत्वों और पहलुओं पर चर्चा की गई है।लेकिन फिर क्या वजह हैकि कहानियां क्यों लचर तरीके से पढ़ी पढ़ाई जाती हैं।
मैंने कुछ प्रयोग स्कूली शिक्षकों के साथ किए। वे कैसे कहानी को पढ़ें, कैसे कहानी का पाठ करें और अंत में कहानी नाट्यरूपांतरण कैसे हो।
पहले तो कहानी कैसे बनती है। कहानी किन किन चीजों से मिलकर आकार लेती है। इस पर विस्तार चर्चा की। चर्चा के दौरान वे तमाम तत्व निकल कर आए जिन्हें चाहता तो सीधे सीधे लिख देता और वे अपनी कॉपी में उतार लेते। किन्तु ऐसा नहीं किया। जो तत्व उन्हें याद आते गए उन्हें हमने लिख दिया। जिसमें कथानक, जिज्ञासा, घटना, परिवेश, बाल सुलभ चंचलता, बच्चे की दुनिया, भाषा आदि। हमने इन तत्वों के गांठ को खोलने शुरू किए। कि यही वो तत्वों क्यों आपको याद आए।
अब बारी थी कहानी क्यों जरूरी है? कहानियों से क्या होता है? बच्चे या बड़ों के लिए कहानियों का क्या मायने है आदि।
कहानियां मनोरंजन के लिए, उत्सुकता के लिए, भाषा क संस्कार सीखने के लिए, कुछ भी सीखने के लिए, शिक्षा, सीख, मूल्य, नैतिकता आदि से परिचय कराने के लिए कहानियां पढ़ी और पढ़ाई जानी चाहिए।
अब हमने पाठ्यपुस्तक की कहानियों के चुनाव करने के लिए कहा। सभी ने एक एक कहानियां चुन लीं। काम यह था कि उस चुनी हुई कहानी में उक्त कौन कौन से तत्व आपको दिखाई देते हैं। क्या आप उस कहानी में कुछ भी किसी भी स्तर पर कोई फेर बदल करना चाहेंगे।
दूसरा खंड़ दिलचस्प था। बड़ी ही शिद्दत से शिक्षकों ने इस काम को अंजाम दिया। सब ने कहानी के तत्वों की पहचान अब सैद्धांतिक स्तर से नीचे उतर कर जमीनी हकीकत को जी रहे थे। इस गतिविधि का एक और स्तर था कहानी का पाठ। कहानी को कैसे पढ़ें। कहानी पाठ के अभ्यास के दौरान पाया कि कई शिक्षकों की भाषा और उच्चारण में काफी भिन्नताएं थीं। उस भिन्नता को प्रयोग हमने कहानी के पात्रों के संवादों में इस्तमाल किया। कि माना आपका पात्र फलां परिवेश से आता है तो उसकी भाषा-बोली ऐसी ही होगी।
कुल मिला कर कहानी पढ़ने-पढ़ाने के साथ यह अभ्यास और स्वयं के साथ प्रयोग आनंदपूर्ण रहा।
आप कैसे सुनते हैं कहानी? 

Monday, December 4, 2017

तमाशा कुछ यूं हुआ...





कौशलेंद्र प्रपन्न
तमाशा करने वाले बनिए जनाब भीड़ तो इकट्ठी हो ही जाएगी। भीड़ के पास वक्त ही वक्त है। भीड़ को तमाशा चाहिए। आप तमाशा बनना चाहेंगे?
आज की तारीख में हर चीज तमाशा है। वह आपकी कला हो, बोलना हो, उठना-बैठना ही क्यों न हो। एक बार तय करने की जरूरत है कि आप क्या करना चाहते हैं।
हमारे आस-पास तमाशा ही तमाशा हो रहा है। क्या आप भीड़ का हिस्स बनना चाहते है? क्या आप मज़मा जुटाने वाले बनना चाहते हैं यह हमें तय करना है।
हमने भी यही किया। खुले में अपना तमाशा बनवाया। बल्कि कहिए मैं तो अपना स्केच बनवा रहा था। लेकिन बाकी क्या कर रहे थे। क्या उनके पास वक्त था दूसरे के लिए? वक्त था, रूचि थी। और था उनके आस पास क्या अलग हो रहा है। क्या नया हो रहा है। जो भी जहां भी नया होगा तमाशा वहीं लगा करेगा।
शर्त है आप तमाश लगाना चाहते हैं। उन स्केच के दौरान कई से बातचीत भी होती रही। वे खुश थे कि उनके बीच कोई ख्ुलकर, बिना संकोच के तमाशा बनवा रहा है।
देखते ही देखते वहां तकरीबन पचास तो दर्शक जुट ही चुके थे। इसमें बच्चे, बड़े और बुढ़े भी शामिल थे। धीरे धीरे स्केच अपना रूप लेता रहा और दर्शकों की ओर से कमेंट भी आ रहे थे। कमेंट सुनकर उनको जवाब भी देता रहा।
आनंद इसमें नहीं था कि स्केच बना रहा था। बल्कि मजा इसमें भी कि लोग भागदौड़ की जिंदगी में कुछ देर ठहर कर अपने आस पास घटने वाली घटना के प्रति जिज्ञासु थे।
कभी तमाशा कभी मजमा यूं भी लगाया जाए,
भीड़ में अकेले खड़े से बतियाया जाए।

Friday, December 1, 2017

कुत्ते का खर खर




कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह एक दरवाजे के बाहर कुत्ते को देखा। वो कॉल बेल नहीं बजा सकता था। उसकी पहुंच में डोर बेल नहीं था। सो बेचारा क्या करता।
संभव है रोज उसे उस दरवाजे पर खाने और पीने को दूध मिला करता होगा। सो आज सुबह के नौ बज रहे होंगे। शायद दरवाजा न खुला हो। उसे भूख लगी हो। कुत्ता लगातार दरवाजे पर खर खर कर रहा था। इंसान और जानवर में बहुत ज्यादा अंतर दिखाई नहीं देता। यदि कोई अंतर हो सकता है कि तो वह भूख में चिल्लाने, लड़ने झगड़ने और मूक निवेदन करना है।
हमारे आस-पास कई जानवर ऐसे हैं जो बिन कुछ बोले अपने मन की बात और दिल की धड़कने साझा किया करते हैं। हम में से कई ऐसे हांगे जिनके लिए वह कुत्ता भर नहीं होता। वह एक जीता जागता इंसान हुआ करता है।
हमारे आस-पास कई ऐसे जानवर हैं जो एकदम से गायब होते जा रहे हैं। वह चाहे प़क्षी हो, जानवर हो, गोर-डंगर हों लेकिन उसकी चिंता हमें नहीं सताती। हमें सताती है पद्मावती क्यों रूक रही है या क्यों दर्शकों तक आ रही है। हमें चिंता इस बात की होती है कि हमारी एसी क्यों काम नहीं कर रहा। हमें चिंता नहीं सताती कि पास में गरवैया हुआ करती थी वो अब नहीं बैठा करती। कौए बहुत तेजी से हमारे बीच नदारतहो रहे हैं। वो कहां चले गए। अब हमारे पुरखों के पिंड कौन खाएगा।
कहते हैं जानवर हमारी संवेदना को समझते हैं और हमारे करीब ही रहने की कोशिश करते हैं। धीरे धरे वे हमारे परिवार के सदस्य हो जाते हैं। महादेवी वर्मा, जानकी बल्लभ शास्त्री आदि के घर में जानवरों को परिवार का अंग माना जाता था। वह साहित्यिक यात्रा में सहयात्री भर नहीं थे बल्कि उनके जीवन का भी हिस्सा हो चुके थे।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...