Thursday, July 10, 2014

प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण की चुनौतियां


 प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को बच्चे में कैसे सुरूचिपूर्ण ढंग से पढ़ाएं बड़ी और कठिन होती हैं। काॅलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रों के पास भाषा की एक लंबी थाती होती है जिसके साथ वे एक लंबा सफर तय कर के आते हैं। इसलिए उनके साथ भाषा की कठिन और सृजनात्मक स्तर पर न केवल संवाद स्थापित करना सहज होता है बल्कि उनसे उम्मींद की जाती है कि वे स्वयं स्वतंत्र रूप से लेखन-सृजन कर सकें। सवाल यह उठाता है कि बच्चों में भाषा के प्रति कैसे रूझान पैदा करें। प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों के लिए भाषा शिक्षण की कौन सी विधि अपनाई जाए, इसपर विस्तार से विमर्श करने की आवश्यता है। साथ ही भाषा शिक्षण को रूचिकर बनाने के लिए कक्षा व कक्षा के बाहर किस प्रकार की गतिविधियों को शामिल किया जाए ताकि बच्चे आनंद लेते हुए भाषा सीख पाएं। इस दृष्टि के शिक्षा शास्त्र एवं शिक्षा शिक्षण कार्यक्रमों पर ध्यान देना होगा। इतना ही नहीं बल्कि पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम निर्माण के दौरान ही ऐसी गुंजाइश पैदा करनी होगी कि अध्यापक कक्षा में भाषा शिक्षण करते वक्त उनका इस्तेमाल कर सके। इस लिहाज से नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क 2005 पर नजर डालना गलत न होगा। एनसीएफ 2005 भाषा शिक्षण को लेकर ख़ासे संजीदा है। भाषा शिक्षण उसकी नजर में महज वर्णमालाएं याद करा देना व व्याकरण की विभिन्न कोटियों से परिचय करा देना नहीं है। बल्कि एनसीएफ 2005 की कोशिश है कि भाषा शिक्षण व भाषा की कक्षा में बच्चों को सृजनशीलता और कल्पना की पूरी छूट मिले। छूट इस बात की भी मिले कि वो यदि गलत उच्चारण करते हैं तो भी उन्हें न तो पीटा जाए और न ही कक्षा में उनका मजाक बनाया जाए। लेकिन अमूमन होता बिल्कुल उलट है। क्योंकि भाषा के शिक्षक जिस तरह की भाषायी शिक्षण की तालीम लेकर आते हैं वह उन्हें इसकी इज़ाजत नहीं देती कि जब बच्चा गलती करे या गलत उच्चारण करे तो उसे टोकने की बजाए अभिव्यक्ति के सहज प्रकटीकरण के तौर पर ले। गौरतलब है कि भाषा को बरतने से लेकर शिक्षण की प्रक्रिया तक उदार और नए प्रविधियों को अपनाने की मानसिक स्तर पर छूट मिलनी चाहिए। इसके साथ ही प्रशासनिक स्तर पर ज्यादा टोका टाकी से यदि निजात मिल सके तो निश्चित ही भाषा की कक्षा जीवंत हो उठेगी।
पिछले सालों में सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की भाषा और गणित की गुणवत्ता को लेकर काफी रिपोर्ट और सर्वे सामने आ चुकी हैं। उन तमाम रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि उन रिपोर्टांे में यह तो दिखाया गया है कि 6 ठी व 8 वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को एक पंक्ति भी लिखने पढ़ने की क्षमता नहीं है। वे बच्चे सिर्फ कक्षा तो पार कर गए लेकिन भाषा, गणित आदि विषयों में वह गुणवत्ता नहीं हासिल कर सके। इसके पीछे की वजहों में हमने सीधे-सीधे अध्यापकों की क्षमता और व्यवस्था की कमी का ठिकरा फोड़ दिया। इस प्रक्रिया में हमने सिविल सोसायटी की जिम्मेदारी को एक सिरे से नकार दिया। हमने वयैक्तिक प्रयास को भी तवज्जो न देना प्रकारांतर से शिक्षण एवं भाषा को लेकर सरलीकरण ही कह सकते हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि वर्तमान स्थितियों और संसाधनों के बीच कैसे वह कोना और अवसर मुहैया कर सकें जहां सरकारी स्कूलों में भाषा और अन्य विषय पढ़ाने की परिस्थिति पैदा हो सकें। इस दृष्टि से हमें सरकार के साथ ही समाज के सभ्य और शिक्षित समाज की सहभागिता भी सुनिश्चत की जाए। सरकार व व्यवस्था की अपनी सीमाएं हैं लेकिन क्या इन तर्कांे और कारणों को मान कर सरकारी स्कूलों में शिक्षण की स्थिति को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए।
सरकार की हंैड होल्डिंग के लिए सिविल सोसायटी संस्थाएं आगे आ रही हैं। इसे जनसहभागिता कह सकते हैं। इस पीपीपी को एक बारगी कोसने की बजाए उसकी पहलकदमियों और व्यापक प्रभावों पर भी ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए आज विभिन्न गैर सरकारी संस्थाएं हाथ बढ़ा रही हैं। कंपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर के तहत कई कंपनियां प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए सरकारी स्कूलों को सहभागिता के तहत अपना रही हैं। टेक महिंद्रा फाउंडेशन की ओर से पूर्व दिल्ली नगर निगम के सभी 400 स्कूलों में सरकार के साथ साझा कार्यक्रम चल रहा है। इन स्कूलों में शिक्षक की भाषा क्षमता, गणित शिक्षण, अंगरेजी शिक्षण को लेकर उनकी दक्षता और क्षमता विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन कर रहा है। पिछले एक सालों में ऐसे 150 स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। वहीं आने वाले दिनों में कम से कम 5000 शिक्षकों की व्यावसायिक विकास और शिक्षण कौशल विकास का जिम्मा उठाया है। इसी तरह कई अन्य गैर सरकारी संस्थाएं प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर हैड होल्डिंग कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की अवधारणात्मक और विषय के साथ शिक्षण कौशल में दक्षता मुहैया कराने के प्रयास कई स्तरों पर एक साथ चल रहे हैं। उन्हें एकबारगी आलोचना करने की बजाए उसकी सकारात्मक पक्ष को स्वीकारना चाहिए। टेक महिंद्रा के इन सर्विस टीचर एजूकेशन संस्था के प्रोजेक्ट मैनेजर साजि़द अली कहते हैं कि हम अगले दो सालों में पहले तो इन शिक्षकों में शैक्षिक जिम्मेदारी का एहसास पैदा करेंगे। उसके बाद उनकी बुनियादी जरूरतों शैक्षणिक संदर्भ में को पूरा कर सकें। उसके बाद हमारा ध्यान शिक्षकों के बीच गहरे पैठ चुकी इस धारणा को तोड़ना कि तमाम प्रशिक्षण कार्यशालाएं महज समय काटने के जरिए हैं। यहां ऐसे कोई भी कौशल विकसित नहीं कराया जाता। जब इनमें इस पूर्वग्रह को तोड़ पाएंगे तब हम उन्हें विषय और शिक्षण को बेहतर कैसे बनाया जाए को लेकर विषय विशेषज्ञों के द्वारा प्रशिक्षण कार्यशालाएं प्रदान करेंगे। उसके बाद यह आकलन करना हमारे लिए चुनौती है कि क्या वे शिक्षक कार्यशाला में सीखे हुए कौशलों का इस्तेाल अपनी कक्षा में कर रहे हैं? यदि नहीं तो उसके लिए हम और कैसे उनकी प्रवृत्ति में बदलाव ला सकते हैं।
हम वापस अपने विषय पर लौटते हैं कि प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण कैसे करें ताकि बच्चे न केवल भाषा की तमीज सीखें बल्कि भाषा के बहुआयामों से भी परिचित हो सकें। भाषा शिक्षण में बच्चों की सहभागिता कैसे सुनिश्चित की जाए इस पर भी शैक्षणिक विमर्श की आवश्यकता है। प्राथमिक कक्षा में भाषा शिक्षण में गतिविधियों को शामिल कर भाषा की कक्षा रोचक बना सकते हैं। पहले तो हमें भाषा शिक्षण की बुनियादी संरचना पर भी चर्चा करना अपेक्षित है। हमें इस पर भी ध्यान देना होगा कि विभिन्न गतिविधियों और शिक्षा प्रशिक्षण संस्थाओं में किस तरह की विधियां प्रयोग में लाई जा रही हैं। प्राथमिक स्तर पर ध्वनियों को सुनने, बोलने, लिखने आदि के अभ्यासों के जरिए बच्चों में भाषा शिक्षण किया जाए। यह तरीका खासे प्रयोग में लाया जाता है। पहले बच्चों को ध्वनियों को सुनने का अभ्यास कराना होगा फिर बच्चे उन सुने हुए स्वरों का नकल करें उनसे बोलने का अभ्यास कराया जाए। कक्षा में बोलने और सुनने की गतिविधियों का बारंबार अभ्यास कराने से बच्चों में ध्वनियां जब स्थान बना लेती हैं तब बच्चों से चित्र देख कर ध्वनियों और चित्रों के बीच संबंध स्थापित कराने में बच्चों की मदद करना भाषा शिक्षण में मददगार साबित होेते हैं।
बोलने और सुनने की दक्षता जब बच्चों में आए जाए तब उनसे चित्र देख कर व्याख्या करने यानी भाषा के इस्तेमाल करने में शब्दों की संपदा को प्रयोग करना सीखाना चाहिए। शिक्षा शास्त्र भाषा शिक्षण में हमारी मदद इस रूप में करती है कि भाषा को लिखने का कौशल बहुत बाद में कराना चाहिए। यानी 3-6 आयु वर्ग के बच्चों में घिसना, रगड़ना, कलाई पर नियंत्रण पैदा करना शिक्षक का लक्ष्य होता है। जब बच्चे की कलाई में मजबूती आ जाती है तब कलाई और आंखों के बीच समायोजन बनाना सिखाया जाता है। भाषा शिक्षण में अव्वल तो लिखने के कौशल पर ज्यादा जोर होता है। जबकि यह शिक्षा शास्त्र की दृष्टि से उचित नहीं है। हालांकि इस कौशल के विकास को लेकर अभिभावकों की ओर से भी शिक्षकों पर दबाव होता है। अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों में भी यही धारणा गहरे बैठी होती है कि बच्चे को लिखना आना चाहिए। जबकि लिखने के लिए छोटे बच्चे में इससे पूर्व अपने स्थूल अंगों पर नियंत्रण आना जरूरी है।
समग्रता में देखें तो प्राथमिक कक्षाओं में भाषा शिक्षण को लेकर कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसमें स्वयं शिक्षक की पूर्वधारणाएं, अभिभावकों की ओर से लेखन पर जोर एवं भाषा शिक्षण की पारंपरिक तरीकों के साथ कैसे समायोजन स्थापित किया जाए। इन्हीं परिस्थितियों में हम शिक्षकों और बच्चों की भाषायी कौशलों, दक्षता का अवलोकन और मूल्यांकन भी जिस आनन फानन में करते हैं उसमें कमियों का छूट जाना मानवीय भूल है। लेकिन यहां ध्यान देने की बात यह है कि बजाए शिक्षकों पर आरोप लगाने के हम क्यों न शिक्षकों की दक्षता और कौशल विकास पर उनकी मदद करें।

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