Monday, July 31, 2017

बच्चों की निर्माणाधीन दुनिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारे बच्चे एक ऐसे देश-दुनिया में रह रहे हैं जहां संवेदना से कोई वास्ता नहीं है। किसी के पास संवेदना न तो बची है और न ही किसी को इससे कोई दरकार है। हमसब एक यूटोपिया में जीने वाले वासी हैं। आभासीय दुनिया में दोस्तों की संख्या, कमेंट और पसंद को वास्तविक मान चुके हैं।
दूसरे शब्दों में हमने अपने आसपास एक ऐसी आकाशीय दुनिया रच ली है जिस हमेशा हमें लुभाती है। जबकि हम सब को पता है कि उनके लाइक और कमेंट से कुछ होना जाना नहीं हैं। बस कुछ देर के लिए हमें यह संतोष होता है कि अच्छा उन्होंने लाइक किया और फलां साहब ने तो देख कर भी मुंह बिचका लिया।
दरअसल, आभासीय दुनिया में हमारे बच्चे भी सांसें ले रहे हैं। जितना एकाउंट सोशल मीडिया पर बड़ों के हैं उससे थोड़े ही कम बच्चें के होंगे। बच्चे भी घर से छुप छुपा कर अपने फेसबुक एकाउंट चेक करते हैं। वहां गर्ल फैं्रड बनाते हैं। उनसे रात रात भर चैट्स करते हैं। कहने को स्कूल के होमवर्क्स में बिजी शो करते हैं। क्योंकि बहाना उनके पास है कि स्कूल वाले एसाइन्मेंट ऑन लाइन भेजते हैं। उन्हें पूरा कर भेजना होता है। आप मना भी नहीं कर सकते।
प्रेमचंद और अन्य कथाकारों ने बच्चां की दुनिया को बड़ी ही शिद्दत से रचने,समझने की कोशिश की है। वह मंत्र कहानी हो या फिर सुदर्शन की कहानी हार की जीत, नमक का दरोगा हो या ईदगाह, उसकी मां कहानी हो या फिर पुष्प की अभिलाषा कविता इन रचनाओं में हमें बच्चों की दुनिया को समझने और गढ़ने की समझ मिलती है। विभिन्न कथाकारों और कवियों ने बच्चों को केंद्र में रखकर कहानियां और कविताओं की रचना की। लेकिन जैसे जैसे बाजार प्रभावी होता गया वैसे वैसे बाल लेखन में कथाकारों की रूचि कम होती चली गई। प्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश को इस वर्ष का साहित्य अकादमी का बाल कथाकार पुरस्कार के लिए चुना गया है उन्होंने कहा कि बाल कथा लेखन में बड़े लेग रूचि नहीं ले रहे हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारे लेखक, कवि कथाकार भावी पीढ़ी के लिए लिखना छोड़ चुक हैं।
वहीं प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग, दिविकि रमेश, पंकज चतुर्वेदी जैसे लेखक आज सक्रियता के साथ बाल साहित्य की रचना कर रहे हैं। गौरतबल है कि प्रो. कृष्ण कुमार ने इन पंक्तियां के लेखक को इस सदी के शुरू में सुझाव दिया था कि बाल लेखन में गंभीरता से लेखने वालों की कमी है। यदि कोई इस क्षेत्र में आना चाहता है तो उसे धैर्य से दस बीस पंद्रह साल लेखन करने पर स्थान हासिल हो सकता है। और वो दिन और आज का दिन इन पंक्तियों के लेखक ने बाल साहित्य रचना को अपनी पहली प्राथमिकता बनाई।
हमें यदि बच्चों की दुनिया को बेहतर बनाना है तो उन्हें बेहतर साहित्य देना होगा। बेहतर साहित्य का तात्पर्य महज नीति परक, शिक्षाप्रद कहानियों से नहीं है बल्कि उन तमाम साहित्य से है जो बच्चों में सम्यक् दृष्टि पैदा कर सके। वैज्ञानिक सोच के बड़े पैरोकार प्रो. यशपाल ने पूरी जिंदगी बच्चों की शिक्षा में लगा दी। उनका भी जोर बच्चों में वैज्ञानिक सोच के विकास पर रहा। साथ ही बस्ते के बोझ को कम करने पर रहा।

प्रेमचंद का हामिद,गोबर


कौशलेंद्र प्रपन्न
हामिद और गोबर सब के सब अब नई काया में तब्दली हो चुके हैं। हामिद बाजार जाता है और चिमटा की जगह डोरेमौन खरीदता है। वो पिज्जा खाता है। जलेबी उसे पसंद नहीं। नए जमाने के नए नए व्यंजन खाता है। गोबर ने तो पूरी काया ही बदल ली है। उसके बदन पर गार्ड की वर्दी है। यूं तो बी ए पास है। लेकिन नौकरी एक मीडिया चैनल के गेट पर बजाता है। कभी सपना था उसका कि वो भी गन माइक लेकर रिपोटिंग करे। लेकिन प्रेमचंद के शब्दों में ‘फटी हुई भाग्य की चादर का कोई रफ्फुगर नहीं होता।’
प्रेमचंद और आज के समय में काफी फासले हो चुके हैं तब की प्राथमिकता और जरूरतों में आसमान जमीन का अंतर आ चुका है। नमक का दारोगा अब रातों रात आंखों में धूल झांक कर अपनी जेब भरता है। ज़रा सी भी आत्म नहीं पुकारती। वो इस्तीफा नहीं देता।
पूस की रात अब पूनम की रात हो चुकी है। जहां तक नजर जाती है रोशनी ही रोशनी। शहर भर में रोशनी का इंत्जाम किया जा चुका है। कोई कहीं छुप नहीं सकता। लेकिन जो रात में काम करने वाले हैं वे कर के निकल चुके हैं।
आज की तारीख में साहित्य और समाज बदल चुका है। साहित्य की धारा भी बदल चुकी है। साहित्य अब गांव देहात की जगह बाजार की बात करता है। बाजार में साहित्य ने हामिद को हैरी बना चुका है। पात्र बदल गए। पात्रों से संवाद बदल गए और उकनी चुनौतियां भी बदली गई।

Friday, July 28, 2017

पठन संस्कृति प्रोन्नयन के 60 वर्ष पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी





‘हर हाथ ,एक किताब’ : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ,भारत
के अध्यक्ष बल्देव भाई शर्मा

कौशलेंद्र प्रपन्न
 वैसे तो न्यास की स्थापना के 60 वर्श पर देशभर में सालभर कई आयेजन किए जाएंगे, लेकिन स्थापना की तिथि यानि 01 अगस्त को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दो दिवसीय राश्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन विशेष उल्लेखनीय है। साथ ही हर वर्ष की भांति स्थापना दिवस व्याख्यान का आयोजन भी किया जा रहा है। दो दिवसीय गोष्ठी का विषय है - भारतीय साहित्य में राष्ट्रीयता का बोध। इसका शुभारंभ 01 अगस्त 2017 को माननीय केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर करेंगे और अध्यक्षत प्रख्यात लेखिका और गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा करेंगी। इस अवसर पर मुख्य वक्ता प्रख्यात लेखक व चिंतक डॉ. कृष्ण गोपाल जी और विशिष्ठ अतिथि डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री, कुलपति , केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला होंगे। न्यास के अध्यक्ष श्री बल्देव भाई शर्मा बीज वक्तव्य प्रस्तुत करेंगे।
दो दिवसीय गोष्ठी छह सत्रों में विस्तारित है। 02 अगस्त 2017 को षाम 4.30 बजे समापन सत्र में मुख्य अतिथि डॉ महेन्द्रनाथ पांडे, राज्य मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्रालय होंगे। इस अवसर पर मुख्य वक्ता श्री रंगाहरि जी, प्रख्यात लेखक व विचारक तथा अध्यक्ष डॉ नरेन्द्र कोहली होंगे।  01 अगस्त 20117 की शाम 6.30 बजे ‘स्थापना दिवस व्याख्यानमाला’ में मुख्य वक्ता प्रो. मकरंद आर.परांजपे होंगे। इस अवसर पर  डॉ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अध्यक्ष साहित्य अकादमी, अध्यक्षता करेंगे और जाने माने विचारक व चिंतक जे. नंदकुमार का सान्निध्य होगा।
01 अगस्त को उद्घाटन के तत्काल बाद पहले सत्र का विशय है-साहित्य में स्वदेश-भाव। इस सत्र का अध्यक्षता प्रख्यात नृत्यांगना सुश्री सोनल  मानसिंह करेंगी। इस सत्र में वक्ता हैं :प्रेम शंकर त्रिपाठी (कोलकाता),अग्नि शेखर (जम्मू-कश्मीर) और डॉ. अवनिजेश अवस्थी, दिल्ली । दूसरा सत्र दिन 2.30 बजे प्रारंभ होगा जिसका विषय होगा -  बाल मनः लेखन की चुनौतियां । इस सत्र का अध्यक्षता इंदौर से आने वाले ‘देवपुत्र’ पत्रिका के संपादक श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना होंगे। इसके वक्ता हैं : श्री प्रकाश मनु, डॉ. क्षमा शर्मा और डॉ दर्शन सिंह आश्ट। ‘‘ अस्मिता के प्रश्न और राष्ट्रीयता’’ विषय पर तीसरा सत्र शाम 4.30 बजे से होगा, जिसकी अध्यक्षता डॉ कमल किशोर गोयनका करेंगे। अन्य वक्ता हैं- चंद्र प्रकाश द्विवेदी,सुश्री चित्रा मुद्गल और डा निरंजना महंत बेजबरूआ।
दिनांक 02 अगस्त को चौथा सत्र प्रातः 10.00 प्रारंभ होगा जिसका विषय है - जनजातीय साहित्य : परिधि से केंद्र की ओर । इस सत्र का अध्यक्षता  प्रो. नंदकिशोर पांडं करेंगे जबकि वक्ता होंगे - प्रो. टी.वी. कट्टीमणि, अशोक भगत और रूद्रनारायण पाणिग्रही। ‘‘लोक साहित्य में भारत’’ विषय के पांचवे सत्र की अध्यक्षता डॉ. देवेन्द्र दीपक करेंगे और वक्ता होंगे- श्रीराम परिहार, सुश्री मालिनी अवस्थी और यतीन्द्र मिश्र। छठा सत्र ‘‘राष्ट्रीय जागरण और महिला लेखन’’ पर होगा, जिसमें सुश्री मालती जोशी की अध्यक्षता में सुश्री ऋता श्ुक्ल, सुश्री नीरजा माधव और सुश्री अद्वेता काला वक्ता होंगी।
विचार गोष्ठी के दौरान न्यास द्वारा सद्यप्रकाशित कई पुस्तकों का विमोचन भी होगा।

ज्ञान के स्रोत मत बताना घुरनी!!!



कौशलेंद्र प्रपन्न
घुमरनी आपने ज्ञान के स्रोत मत बताना। मारी जाओगी तुम। कोई अपनी उम्र बताता है? कोई अपनी कमाई भी तो नहीं बताता। तुम ठहरी गंवार सब कुछ बता देती हो। जो भी मुंह, मन में होता है सभी के सामने बताने लगती हो। कहां से सूचना मिली। कहां से जानकारी मिली। कहां तुमने सुना पढा। सब कुछ बिना दुराव छुपाव के बता देती हो। हर कोई यही समझता है मूरख जो ठहरी। कोई अपनी कमाई के स्रोत बताता है ? कोई ज्ञान के स्रोत डिस्क्लोज करता है?
ऋषि मुनि, तपस्वी सब के सब मूर्ख ही तो थे जिन्हांने अपनी जीवन भर की ज्ञान,बोध कमाई आम लोगों में यूं ही बांट दी। आज के जमाने में कोई बिना मांगे कुछ लेता देता है? सोचो घुरनी गाली भी केई नहीं देता। न ही लेता है।
एक तुम हो कि जो पढ़ती हो, सुनती हो, समझ बताती हो उसे सब के साथ शेयर करती हो। मैंने फलां फलां किताब पढ़ी। तुम भी पढ़ो। अरे घुरनी कितनी नासमझ हो। नादान भी उतनी ही हो। कोई क्यों सुने तुम्हारी बात। क्यों कोई तुम्हारा ज्ञान ले। तुमने पढ़ा तो पढ़ा। सबकी अपनी प्राथमिकताएं हैं। सब की अपनी सीमाएं हैं।
लोग जब यह कह देते हैं कि अपना ज्ञान अपने पास रख। तब मुंह फुला लेती हो। बुरा लगता है। और कुछ दिन चुप भी हो जाती हो। फिर वही हाल। कब सुधरोगी धुरनी। एक दिन ऐसा भी आएगा जब लोग तुम्हें देख कर रास्ते बदल लेंगे। कहेंगे ज्ञान देवी देवता आ रहे हैं। भाग मिल्खा भाग !!!
आज लोग अपनी उम्र, जाति, कास्ट, स्टेट, सब कुछ तो छुपाते हैं। एक तुम ही हो कि ज्ञान के स्रोत भी सब के साथ बांटती रहती हो। ऐसा भी कोई करता है? कितनी भोली और नासमझ हो घुरनी। कब सुधरोगी। अपने ज्ञान और ज्ञान के स्रोत किसी से भी शेयर नहीं करते। जैसे लोग अपनी पूंजी साझा नहीं करते।
लेकिन तुम ठहरी भोली की भोली ही। तुमने क्या पढ़ा? उससे तुम्हारी क्या समझ बनी। उससे तुम्हारे जानने वालों, हम पेशा लोगों का क्या लेना देना। उसपर तुम ज्ञान के स्रोत और ज्ञान देने लगती हो। आज किसे पड़ी है ज्ञान से। ज्ञान भी धन और अज्ञान के आगे पानी भरती है। नासमझ घुरनी संभल जा वरना किसी दिन...

Thursday, July 27, 2017

बाजार बड़ ठगनी हम जानि


कौशलेंद्र प्रपन्न
वे कहते हैं मैं खूबसूरत हूं। वो कहते हैं आप जो जूते पहने रहे हैं वो सांस नहीं लेता। वो कहते हैं आपने टूथ पेस्ट में नमक है। आप यह इस्तमाल करें। ये वो कौन हैं? इस वो को हमें पहचानना होगा। यह हमारे पड़ोसी हैं। हमारे दोस्त, रिश्तेदार हैं। और सबसे ताकतवर बाजार है। जो हमें हमेशा यह एहसास कराने में अपनी पूरी रणनीति झोंक देता है कि आप नए नए प्रोडक्ट इस्तमाल करें। आप तो जनाब बड़े पिछड़े हैं। अभी भी आप कपड़े सिलवाकर पहनते हैं। अगर आपके पास स्मार्ट टीवी नहीं है तो सुनना पड़ सकता है कि डब्बा है डब्बा अंकल का टीवी डब्बा...। और अचानक आपको एहसास करा दिया जाएगा कि जो टीवी आप चाव से देखा करते थे वो रातों रात कबाड़ हो चुका है। आपके पास पैसे नहीं तो क्या हुआ बाजार लोन और किश्त में आपको पचास साठ हजार की टीवी मामूली से डाउन पेमेंट पर घर तक पहुंचा देने के लिए बैठी है।
बाजार बैठी ही है अपने सामान को बेचने के लिए। और वो पूरी तैयारी और रणनीति पर खर्च करती है। आपके पास गाड़ी है। उसमें आपका परिवार आराम से सफर करता है। लेकिन अचानक आपके पड़ोसी और बाजार आप पर दबाव बनाने लगेंगे कि आपको बड़ी और महंगी गाड़ी चाहिए। आप साल में एक या दो बार लंबी यात्रा पर अपनी गाड़ी का इस्तमाल करते हैं। लेकिन बाजार आपको एहसास करा देगी कि लंबी दूरी के लिए आपकी गाड़ी छोटी और माकूल नहीं है। आपको ये वाली गाड़ी लेनी चाहिए। और जहां आपने पैसे का बहाना बनाया तो बाजार अपने पंजे में कब ले लेगी मालूम तक नहीं चलेगा। आप लोन लेने न जाएं। आपके घर में बैंक लोन दे जाएगा। देखते ही देखते आप बड़ी गाड़ी के मालिक हो जाएंगे। बेशक आपके पास हर रात एक तनाव आयातीत हावी हो जाएगी कि इसे खड़ी कहां करें। पड़ोसी के पास भी दो दो गाड़ियां हैं। अपने मकान में खड़ी करने की बजाए बाहर ही खड़ी करते हैं। क्योंकि बेसमेंट को उन्होंने बैठकखाना बना रखा है। हर रोज हर रात गाड़ी खड़ी करने की चिंता पाल लेते हैं।
मकान की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। कभी वक्त था जब तीन कमरों के घर में पांच से छह परिवार रहा करते थे। आज चार से पांच कमरों में तीन सदस्य रहा करते हैं। बड़े घर की लालसा भी बाजार सृजित जरूरतां में गिनी जाती हैं। यही कारण है कि कभी चार कमरों के घर बनाने में लोगों को रिटायरमेंट तक का इंतजार करना पड़ता था। जैसे तैसे प्लास्टर, पक्का मकान रिटायरमेंट के बाद ही पूरा हो पाता था। इस मकान में पूरी जिंदगी की कमाई पेंशन झांकने पड़ते थे। लेकिन यह सौदा कितना सस्ता मालूम होता है जब आपको पता चलता है कि जिनके लिए आपने सारे जमा पूंजी लगा दी वो रहने तक नहीं आते। जब अपनी बुढ़ापे ही काटने हैं तो पांच छह कमरों के घर के सपने में हम अपना आज लोन की चिंता में झांक देते हैं। लेकिन बाजार और हमारे रिश्तेदार, परिजन, स्वजन आपको इतने दबाव में ला देते हैं कि एक पल के लिए महसूस होने लगता है कि हां आप तो अपना मकान ही नहीं खरीद रहे हैं। आपको तो भविष्य की चिंता ही नहीं। और आप आनन फानन में लोन लेकर अब अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा किश्तों में चुकाने लगते हैं।
महिलाओं के बीच इस बात को लेकर अधिक चिंता होती है कि वह कैसी दिख रही हैं। कॉस्मेटिक्स के इस्तमाल से अपनी जीवन शैली और उनसे जुड़े उत्पादों का अधिक महत्व होता है। वे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देती हैं और आर्थिक संवृद्धि को प्रोत्साहित करती हैं। फिल्मों की कहानियां इसी से जुड़ी होती हैं। बहुत कुछ यही बात टेलीविजन कार्यक्रमों से जुड़ी होती है। कई बार लगता है कि वे मकानों, गाड़ियों, भोजन, यात्रा आदि का विज्ञापन कर रही हैं। खरीदारी को बढ़ावा देती हैं। लोग बड़े मकानों, गाड़ियों, बढ़िया घरेलू उपकरणों, महंगी पिरधानों, घड़ियों आदि के पीछे पागल हो जाते हैं। इस सनक को 1990 के दशक में विलासिता का बुखार कहा गया। तकरीबन सौ वर्ष पहले थोर्स्टीन वेबलेन ने इसे ध्यानकर्षी उपभोग शब्द दिया था। इसे प्रवृत्ति को उन्होंने कहा था कि यह आम जन धनवानों के आचरण को भय, ईर्ष्या और तिरस्कार मिश्रित दृष्टि से देखते हैं।
बाजार ने ख़ासकर महिलाओं के सौदर्य आकर्षण को अपना शिकार बनाया है। महिलाओं में सुंदर दिखने की सहज प्रवृत्ति को विभिन्न प्रोडक्ट से लुभाते हैं। इसकी का परिणाम है कि रेज दिन नई नई प्रोडक्ट बाजार में उतारी जाती हैं। आपने यह क्रीम इस्तमाल किया इसमें तो यह कमी है। इससे रंग तो साफ होगा लेकिन चमक तो इस नई क्रीम से ही आएगी। आप इस क्रीम का प्रयोग करें। यदि रंग में चमक नहीं आई तो पैसे वापस। आपके टूथ पेस्ट में नमक है? तो आप कहीं मुश्किल में न पड़ जाएं अब आप हमारा प्रोडक्ट इस्तमाल करें। पहले वाले प्रोडक्ट को नीचा और कमतर दिखा कर नई प्रोडक्ट बाजार में उतारी जाती हैं। इसका असर महिलाओं पर तो होता ही है साथ ही बच्चे और पुरूषों पर भी असरकारी होता है।
निश्चित ही हमारी जिंदगी का बडा हिस्सा बाजार की गोद में है। वो जैसे कहते हैं हम वही हू ब हू करने लगते हैं। हमें पैंट, शूज की जरूरत नहीं थी। लेकिन जब हम मॉल में घूमने चले ही गए तो सामानों पर नजर तो पडनी ही है।जैसे ही हम सामान देखते हैंहमें दिखाई देती हैसेल सेल और महा सेल। और मजाक मजाक में हम कुछ खरीद भी लेते हैं।बाजार का मकसद पूरा हुआ।
9/11 के बाद अमरिकी जनता डिप्रेशन में जानी लगी थी। तब जार्ज बुश ने कहा था कि आप लोग मॉल्स जाएं। खरीदारी करें। पैसे की चिंता न करें। बैकर्स हैं। औरे देखते ही देखते खरीदारी का संक्रमण फैलने लगा। लोग खरीदारी में इतने व्यस्त हो गए कि उनका घर तो सामानों से भर गया। लेकिन सिर पर कर्ज बढ़ता गया। 1960- 70 के दौर में भी फोड्स कंपनी ने उत्पाद और क्रय को बढ़ाने के लिए अपने उत्पाद की कीमत घटाई और कर्मचारियों के वेतन बढ़ाए। इसका परिणाम यह हुए कि बाजार में क्रेताओं की संख्या में इजाफा हुआ। दरअसल उच्च वर्ग की जीवन शैली को अपनाने की ललक में उच्च और मध्य वर्ग के बीच की विभाजक रेखा खत्म हो गई। मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों ने येन केन प्रकारेण वो सामान खरीदने लगे जो उच्च वर्ग इस्तमाल करती थी। मॉल्स खरीदारी के लिए इतने चलन में आ गए कि हमारे जीवन से मेल जोल को भी खासा प्रभावित किया। हम घूमने के लिए मॉल्स जाने लगे। बाजार खरीदने के लिए इस कदर हमें कोंचने लगा कि इतनी खरीदारी करो कि थक कर चूर हो जाओ। थक जाओ तो वहीं खाना भी खाकर फिर खरीदारी में लग जाओ। लेकिन सोचना हमें हैकि हम घर को मॉल्स बनाना चाहते हैं या रहने और सकून की जगह? चुनाव हमारा हो न कि बाजार का।

Wednesday, July 26, 2017

बस्ते के बोझ छोड़ चले गए अंतरिक्ष में विज्ञान पंड़ित-प्रो, यशपाल और अजीत कुमार




कौशलेंद्र प्रपन्न
बस्ते के बोझ से ताउम्र लड़ने वाला एक विज्ञान पंड़ित अंतरिक्ष यात्रा पर निकल पड़ा। कहां जाएगा? कहां उसका ठौर होगा कहना मुश्किल है। लेकिन कहीं न कही,ं किसी न किसी जगह पर तो होगा। संभव है बस वो हमारी भौतिक आंखों से ओझल हो जाए। हमारे बीच जब तक रहा पूरी शिद्दत से विज्ञान और बच्चों की शिक्षा के लिए आवाज बलंद करता रहा। विभिन्न अकादमिक संस्थानों, समितियों में रहते हुए इन्होंने एक बेहतर शिक्षाविद् और वैज्ञानिक सोच के पैरोकार की तरह अपनी भूमिका निभाई।
स्कूली शिक्षा और बच्चे ख़ासकर इन्हें कभी भी भूल नहीं सकते। इन्होंने बच्चों के कंधे पर बस्ते के बोझ से कहीं ज्यादा पुस्तकीय बोझा को कम करने की वकालत की। शिक्षा के क्षेत्र में प्रो. यशपाल को कई मायने में याद किया जाएगा। इन्होंने यूजीसी, शैक्षिक समिति के चैयरमैंन रहते हुए शिक्षा को नए फलक तक ले जाने के प्रयास किए।
कक्षा में सवाल करने और सवाल करने की संस्कृति को हमेशा ही स्थान दिया। वो कहा करते थे यदि कक्षा में बच्चे सवाल नहीं करते तो इसका अर्थ है बच्चे पढ़ नहीं रहे बल्कि शिक्षकीय सत्ता के आगे नतमस्तक हैं। पॉले फ्रेरे के बरक्स चुप्पी की संस्कृति को तोड़ने के लिए यशपाल ने शिक्षा को बाल केंद्रीत करने की वकालत की। बच्चों को कक्षा में संवाद करने की स्थितियां कैसे मुहैया कराई जाएं इस ओर भी इसका ध्यान रहा।
चले तो गए विज्ञान पंड़ित लेकिन हमेशा हमारी किताबों और शैक्षिक विमर्शों में जज़्ब रहेंगे। ऐसे लोग कहीं नहीं जाते बल्कि सिर्फ रूप, रस,गंध, चेहरे बदल लेते हैं। दरअसल हमारी सोच और चिंतन के हिस्सा बन कर रहते हैं वैज्ञानिक, कलाकार, कलमकार। पिछले हप्ते अजीत कुमार चले गए। माना जाता है कि आधुनिक कविता के प्रख्यात अध्येता थे। कविता और आलोचना पर उनका ख़ासा पकड़ थी।
हमारे बीच से जब कोई कलमकार,वैज्ञानिक आदि जाते हैं तब उन्हें मीडिया में वो स्थान मयस्सर नहीं होती जो अभिनेताओं, राजनेताआें को हासिल होती है। बात तुलना की नहीं है बल्कि यह समझने की है कि सामान्य जीवन जीने वाले और हमारे बीच रहने वाले ऐसे लोग अभिनेता ही छवि बना कर भी नहीं रह सकते। यदि रहेंगे तो सार्वजनिक जीवन के चाक चिक्य में सृजन कब करेंगे। श्रीकांत वर्मा की पंक्ति है- ‘जो बचेगा वो कैसे रचेगा, जो रचेगा वो कैसे बचेगा’ रचनाकार सार्वजनिक जीवन में रिश्ते नाते निभाते हुए भी इन सब से विलग रहता है। कुछ लोग इसे अहंवादी, ऐकांतिक का नाम देते हैं। लेकिन यह कुछ हद तक ही सही प्रतीत होता है। ऐसे कलमकारों, चिंतकों, वैज्ञानिकों को उनके जाने के बाद कम से कम उनके कार्योंं को सार्वजनिक करने का जिम्मा मीडिया के कंधे पर तो आता ही है।

Tuesday, July 25, 2017

शिक्षा में बजट की मांग और नागर समाज



शिक्षा को ताकत देने में आर्थिक बजटीय सहयोग खासा महत्वपूर्ण है। ख़ासकर प्राथमिक शिक्षा को बचाना है तो हमें अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा में खर्च करने की आवश्यकता पर कोठारी कमिशन से सिफारिश की थी। यह बात 1966 की है। साथ 1986 की शिक्षा नीति भी इस बात को शिद्दत उठाती है।
1986 और आज 2017 तकरीबन तीस सालों में हमने अपनी शिक्षा पर महज 0.3 प्रतिशत ही खर्च कर रहे हैं। कल्पना करना कठिन नहीं है कि शिक्षा को 6 प्रतिशत देने की बात तब की जा रही थी अब उस अनुपात से कितना दिया जाना चाहिए। आर. गोविंदा, प्रो. कृष्ण कुमार जैसे शिक्षाविद्ों की मानें तो शिक्षा को आग बढ़ाने में आिर्थ्ाकी सहभागिता बेहद दरपेश है।
सर्व शिक्षा अभियान, माध्यमिक शिक्षा अभियान आदि मदों में शिक्षा को पैसे मिलने के प्रावधान हैं। लेकिन आज हकीकत यह है कि जो पैसे शिक्षा में खर्च करने को मिलते हैं उसका बड़ा हिस्सा बिना खर्च केंद्र को लौट जाते हैं। इस पैसे वापसी के पीछे वजहें और हैं। कब पैसे केंद्र से राज्य सरकारों को मिलती हैं।
क्या बजट और शिक्षा की गुणवत्ता के बीच कोई रिश्ता है जिसे ठीक करने की जरूरत है? क्या बजट से हम शिक्षा के निहितार्थों को तय कर सकते हैं? आदि कुछ सवाल हैं जिनको भूलना नहीं चाहिए। निजी शिक्षा कंपनियों की ओर से गुणवत्ता जांचने के पैरामीटर और उनकी शिक्षण शास्त्रीय औजारों पर कृष्ण कुमार , प्रो. आर गोविंदा, प्रो प्रवीण झा जैसे शिक्षा शास्त्रियां से सवाल खड़े किए।
गौरतलब है कि शिक्षा में रोज दिन होने वाले नावचारों और हस्तक्षेपों से भी इसकी गुणवत्ता में गिरावट आई है। इसका सारा कसूरवार निजी संस्थानों और उनके प्रयासों को ठहराया जाता है। जबकि सरकार बड़ी ही तेजी से स्कूलों को बंद कर रही है। ऐसे में निजी क्षेत्र में काम करने वाले इन स्कूलों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन नागर समाज को यह स्वीकार नहीं है कि निजी कंपनियां सरकारी स्कूलां को अपने हाथ में लें। सोचना होगा कि इसमें सरकार की क्या चाल है और निजी कंपनियों के क्या हित सध रहे हैं।

Thursday, July 20, 2017

दिव्यांग बच्चे और समावेशी शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान, टेक महिन्द्रा फाउंडेशन, पूर्वी दिल्ली नगर निगम में समावेशी शिक्षा और प्राथमिक कक्षायी बच्चे एक व्याख्यान रखा गया। इस व्याख्यान में सुश्री प्रीति,स्वयं नेत्रहीन थीं। इन्होंने अपने जीवन अनुभवों और शैक्षिक चुनौतियों पर अपने विचार रखे। शिक्षा में अब समय बदला है। नज़र भी बदली है। शिक्षा में थोड़ी उदारता आई है। अब हम दिव्यांग बच्चों को देशज भाषा में बुलाने से परहेज़ करते हैं। ऐसे विशेष बच्चों के साथ शिक्षकीय बरताव में भी परिवर्तन आए हैं। शिक्षा में समावेशीकरण की घटनाएं हो रही हैं। ऐसे कोर्ठ भी बच्चे शिक्षा की मुख्य धारा से कट न जाएं इसका ख़्याल रखा जा रहा है। यह व्यवहार से लेकर शिक्षा नीतियों में भी दिखी जा सकती हैं।
जन्मांध, या अन्य शारीरिक विकार व विक्लांगता को शिक्षा हासिल करने में बाधा न बने इसके लिए नागर समाज और सरकारी स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। संभव है यही कारण है कि अब बच्चे अपने बीच पढ़ने,खेलने वाले बच्चों की भावनाओं का सम्मान करते हैं। उनकी मदद के लिए वे तत्पर होते हैं।
बच्चा तो बच्चा होता है। उसकी नैसर्गिक शारीरिक व मानसिक अक्षमता को शिक्षा प्राप्त करने में व्यवधान न बने इसके लिए हमें आग आने की आवश्यकता है। वास्तव में जब सभी बच्चे शिक्षा की परिधि में होंगे तभी बच्चों सहित समाज का विकास संभव हो पाएंगा।

Wednesday, July 19, 2017

आर्थिक बाजार से बाहर साहित्य



कौशलेंद्र प्रपन्न
बाजार में क्या हो रहा है। कौन बाजार से गहरे प्रभावित हो रहा है। किन की नौकरियां खतरें में हैं आदि सवालों से अमूमन साहित्य दो चार नहीं होता। खासकर साहित्य कविता,कहानी,उपन्यास आदि तक महदूद रहता है।
साहित्य की यह सीमित दायरा है। हालांकि कुछ कहानियां, उपन्यास, कविताएं बाजार की प्रकृति और प्रभावों को लेकर भी लिखी गई हैं लेकिन संख्या और प्रभाव में ज्यादा नहीं हैं। महज दो चार कविताएं, कहानियां लिख देने से साहित्य अपने वृहद उद्देश्यों से मुंह नहीं मोड़ सकता। साहित्य से जिस प्रकार के हस्तक्षेप की उम्मींद की जाती है वहां पर हम साहित्य को पीछे पाते हैं।
साहित्य में एक और सवाल बड़ी ही शिद्दत से उठाई जाती है कि पाठकों तक किताबों की पहुंच नहीं हो पाती। इसके पीछे केवल लेखक,प्रकाशक, वितरक ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि प्रबंधन की भी अहम भूमिका रहती है। यदि अंग्रेजी और हिन्दी के वितरक, प्रकाशक की रणनीतियों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि अंग्रेजी के प्रकाशक अपनी किताबों उत्पाद को खपाने के लिए बाजार के विभिन्न औजारों का इस्तमाल करते हैं। इसे हथकंडे का नाम दे सकते हैं। यदि एक भाषा में ऐसा किया जा रहा है तो दूसरी भाषाओं को इसे अपनाने में क्यों गुरेज करना चाहिए।
इस समय बाजार में कई नए किस्म की चुनौतियों की शुरुआत देखी जा सकती है। ऐसे में साहित्य को भी आगे आना होगा। बाजार के व्यापक चरित्र को समझने और उसके अनुसार अपनी रणनीति बनाने पर विचार करने होगे। दुनिया भर में साहित्यकार विभिन्न मसलों को लेकर न केवल आवाज बुलंद कर रहे हैं बल्कि उससे निपटने के लिए विकल्पों पर भी मंथन कर रहे हैं।

Tuesday, July 18, 2017

उदारता किस चिड़िया नाम है जी


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम जैसे जैसे बड़े और समृद्ध होते जा रहे हैं वैसे वैसे हम अपनी उदारता खोते जा रहे हैं। उदार मन से किसी की न तो प्रशंसा करते हैं और न किसी को प्रोत्साहित। हम एक ख़ास विचार और भावों के घेरे में जीने लगे हैं।
यह जीवन ख़ासकर हमने बाजार से सीखी है। जहां हर चीज बिकाउं है। भाव हो या संवेदना। सब की कीमत बाजार तय करती है। ऐसे में आप किसी के बारे में क्या ख्याल रखते हैं वह ज्यादा मायने नहीं है। बल्कि बाजार के तय नियमों और उपहार क्या देते हैं। इसी पर निर्भर करता है रिटर्न गिफ्ट।
सोशल मीडिया में जहां हम सभी को अभिव्यक्ति की पूरी छूट है। वहीं हमारे संवेदनाएं और भावनाएं कहीं सीमित भी हुई हैं। हम इतने उदार नहीं रह गए कि यदि केई आपकी पोस्ट, कंटेंट को लाइक व कमेंट नहीं करता तो हम मान लेते हैं कि फलां हमारे साथ नहीं है। ढिमका को हमारी बात नागवार गुजरी। यही हाल वाट्सऐप का है। यदि किसी ने देख कर भी आपको नोटिस नहीं करता तो हम नाराज़ हो जाते हैं। हम तुरंत तुलना करने लगते हैं कि उसकी पोस्ट या कंटेट को तो आप तुरंत लाइक करते हैं। लेकिन वो ऐसा नहीं करता। कई बार यह एक बड़े मनमुटाव का कारण भी बन बैठता है।
विचार करने वाली बात यह हो सकती है कि संभव है फलां उस वक्त व्यस्त रहा होगा। संभव है उसने देख तो लिया लेकिन लिखना जरूरी न समझता हो। वजहें बहुत होती हैं रिश्ते बनाने के पीछे तो कारण कई होते हैं रिश्तों में ठंढ़ापन आने में। हमें यह समझना होगा कि किसकी क्या प्राथमिकता है और किस रिश्ते को कितना तवज्जो देता है।
कम से कम उदार होना एक स्तर तक बेहतर होता है। लेकिन जब बार बार दूसरे पक्ष से उदारता से उलट व्यवहार मिलते हों तो व्यक्ति ज्यादा समय तक अपनी उदारता की रक्षा नहीं कर पाता।

Friday, July 14, 2017

बॉसस्य डांटाय नमः



कौशलेंद्र प्रपन्न
काम है रास्ता दिखाना। काम है डांटना। डांटना है तो खीझ है। खीझ है तो कुढ़न है। हरेक की जिंदगी में एक बॉस हुआ करता है। वह घर हो या फिर दफतर। हर जगह हमें अपने बॉस का सामना तो करना ही होता है। कुछ बॉस हमें अपने पैरों पर खडे होने, चलने फिरने और अपनी सोच को बढ़ाने में मदद करते है। कुछ ऐसे भी होते हैं कि हमें वे पंगु बनाकर छोड़ देते हैं। हम गोया उन्हीं के पीए बन कर रह जाते हैं। हां कह सकते हैं कि जो बॉस के करीब होते हैं उन्हें कुछ समय के लिए कुछ छूटें मिल जाया करती हैं। लेकिन औरों की नजर में वे खटकने लगते हैं। लेकिन उनकी जिंदगी कुर्सी के कायम और बदलने तक बरकरार रहती है। उनके जाने के बाद या तो वे नई कुर्सी से करीबीयत बढ़ाते हैं या फिर उन्हीं के संग चले जाते हैं। चलें जाते हैं या उन्हें बॉस अपने साथ ही ले जाता है। क्या फर्क है?
कई बॉस रात बिरात, सोते जगते भी पीछा नहीं छोड़ते। उनका भय ऐसा होता है कि वे हमें कहीं भी चैन से जीने नहीं देते। इसे ऐसे भी समझें कि बॉस भी दो तीन किस्म के होते हैं। पहला वे जो जीवन और काम में आगे बढ़ने में मदद करते हैं। उसके बिना पर कुछ मांगते नहीं हैं। दूसरे जो आपके अंदर की प्रतिभा और दक्षता को और कुंठित कर देते हैं। आपके अंदर की शक्ति को कुंद करते चले जाते हैं। तीसरे वे जो निष्क्रिय भूमिका में होते हैं। जो यह नहीं चाहते कि कोई उनके सामने चुनौती पेश करे। कोई उनसे आगे निकले या पीछे रह जाए। उनका मकसद जॉब बजाना और समय काटना होता है।
हम सब के जीवन में उक्त तीन किस्म के बॉस के अलावा ऐसे बॉस से भी पाला पड़ा ही होगा जो जीवन में अहम भूमिका निभातें हैं। वे हमारे प्रोफेशनल सीमा से बाहर आकर जीवन जगत में शामिल हो जाते हैं वहीं ऐसे भी बॉस से साबका रहा ही होगा जो होते ही हमारी तमाम ताकतों, शक्तियों को सोख लेते हैं। वे परजीवी हुआ करते हैं। ऐसे बॉस से बचने की भी जरूरत होती है। जिन बॉस के सामने जाने से पहले हजार पर मरना पड़े वह बॉस न तो निजी जीवन के लिए बल्कि कंपनी के लिए भी हानिकारक होता है।
मैनेजमेंट और बाजार में कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति बॉस की वजह से नौकरी छोड़ता है तो वह बॉस से ज्यादा कंपनी के लिए अहितकर होता है। एक अच्छे रिसोर्स बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। जिन्हें पाने में हजारों लोगों में से चुनाव करना पड़ता है। और खोना बेहद आसान है। एक दिन में नोटिस दे दी जाती है।
तो मैं कह रहा था कि बॉस कई बार डांटने की मुद्रा में ही होता है। वह सोच कर आता है कि आज किसे किसे और किस स्तर पर डांटना ही है। इसकी पूरी कार्ययोजना तैयार की जाती है। ख़ास कर जब एप्रेजल का वक्त होता है तब बॉस साहिब खासकर तैयार किए जाते हैं कि कर्मचारी की मौरल स्तर इतना गिरा दो कि वह कुछ मांग ही न पाए। उसके कामों को इतना स्तरहीन साबित कर दो की वह नौकरी बचाने से आगे की सोच न पाए। हालांकि कई बार डांट भी दवाई की तरह काम करती है। लेकिन हर बार नहीं। हर काम में डांट फायदेमंद नहीं होता। जब बॉस सुनने के उच्च स्तर पर हो तो सुन लेना ही बेहतर होता है। इसे आप चुप्पा कहें, अवसरवादी कहें जो भी नाम दे लें लेकिन जब बॉस गुस्से में तैर रहा हो तब आपको बड़ी सावधानी से अपनी बात रखनी होती है। वरना आपका एक वाक्य आग में घी का काम कर सकता है।
तो प्रेम से बोलिए बॉस डांटाय नमः!!!

Thursday, July 13, 2017

पेड़ तुम ठिगने हो गए हो

पेड़ तुम ठिगने हो गए,
इमारतें लंबी हो गईं
तेरी टहनियों की पत्तियां देखो
मुरझा कर झरती जा रही हैं।
पेड़ कब से तुम खड़े हो,
घाम बरसात,सरदी की रात हो चाहे
तुम तने ही रहे
देखते ही देखते
नभ तक तनी इमारतें हो गईं हैं।
कब कहा तुमने कि देखो मैं ठिगना हो गया हूं
डाल मेरे पात मेरे
सूखते अब जा रहे हैं,
सड़क किनारे मैं खड़ा,
खड़ा जहां वही कटा अब जा रहा हूं,
काट कर मुझी को राह बनते जा रहा हैं।
मॉल्स हों या कि सड़कें
मुझी को काटती बढ़ रही हैं
छावं मेरे मुझी को डांटें
क्यांकर मौन मैं यूं खड़ा हूं।
जंगलों को काट डाले,
अब मेरी ओर निगाहें बढ़ रही हैं,
मैं बौना हो रहा हूं,
मेरे ही सामने ये मकान जन्मते जा रहे हैं।
मैं ही हूं पीछे छूटता जा रहा हूं,
पेड़ हूं शायद पेड़ ही रहा अब तलक,
कहां जा सकता हूं,
कहीं की यात्रा नहीं किया करता,
लोग चले जाते हैं,
मैं खड़ा ही रहा,
जो अब कटता जा रहा हूं।

चुनो कि अ से आड़वाणी बनना है या अमिताभ



प्रिय पाखी,
शुभाशीष।
मैं यूं तो कोई सिलेब्रेटी नहीं हूं। न मैं नेहरू हूं और न इब्राहम लिंकन ही हूं। जिन्होंने अपनी बेटे और बेटे के लिए ख़त लिखे और इतिहास में दर्ज हैं। मैं एक साधारण व्यक्ति हूं। शिक्षा का विद्यार्थी ठहरा। मैं यह ख़त इसलिए लिख रहा हूं कि आज तुमपर और तमाम पाखियोंं और विभू पर बहुत कुछ बनने का दबाव है। लेकिन तेरे मन की उलझन कोई समझ नहीं पाता।
अ से अनार तो पढ़ा ही होगा। अ से आड़वाणी और अ से अमिताभ भी अपने ज्ञान में जोड़ लो। तुम अपनी जिंदगी में आड़वाणी बनना चाहती/चाहते हो या अमिताभ। यह चुनाव तुम पर छोड़ता हूं। क्योंकि अंत में होना तुम्हें तुम जैसा ही है। अगर दबाव में या अन्यों की इच्छाओं को जीती रही तो सवाल है तुम स्वयं क्या बनना चाहती हो यह कहीं दबा रह जाएगा। यह आगे चल कर बदबू करने लगेगा। क्योंकि तुमने अपनी इच्छाओं और कल्पनाओं को कहीं दबा कर जीओगी।
आड़वाणी और अमिताभ अपने क्षेत्र के स्थापित नाम और काम हैं। इनके काम और कर्मठता बोलते हैं। इन्होंने अपने क्षेत्र में जी जान लगा दी ताकि अपने सपने को जी सकें। काफी हद तक जीया भी। लेकिन तुम्हें तो पता ही है बहती हुई नदी और नई नई कल्पनाएं जीवन में उमंग भरती हैं। जहां तुम कल्पना करना और बहना छोड़ दोगी वहीं गंदली होने लगोगी। अमिताभ ने भी अपने सपने को पूरा करने के लिए दिनरात एक की। कठिन मेहनत और अपने काम से प्यार व्यक्ति को उसके सपनों के करीब ले जाता है। आड़वाणी आज अपने कर्म और मेहनत से जीवन में मकाम पाया। लेकिन पाखी कहीं लगता है वो ठहर गए। वहीं अमिताभ आगे आगे बढ़ते जा रहे हैं। इस उम्र में भी वो अपनी मेहनत की बदौलत खड़े हैं बल्कि दौड़ रहे हैं। पाखी तुम्हें चुनना होगा कि तुम जीवन में ठहरना चाहती हो या आगे बढ़कर अपने सपने जीना चाहती हो।
रास्ते कठिन होंगे। होंगे ही। इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन ख़तरों से डर कर घर बैठ गई तो सपनों का क्या होगा जो तुमने रोज संजोए हैं। तुम्हें पढ़ना है। पढ़ने से ज्यादा आस-पास को समझने है। समझना है कि कौन रास्ता दिखा सकता है। कौन मार्गदर्शक मंडल में है। क्या उसकी सुननी चाहिए। किसकी सुनो यह भी तुम्हें तय करना होगा। क्योंकि सुनाने वालों की भी कमी नहीं है। सुनाने के लिए पूरा बाजार तैयार है। स्कूल तैयार है और तो और समाज भी। लेकिन तुम्हें सावधानी से सुनना चाहिए।
डॉ हरनेक सिंह गिल के लेक्चर से प्रभावित होकर आभार गिल साहिब !!!

Monday, July 10, 2017

नौकरी खो चुके लोग और साहित्यकार की चुप्पी


कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1930, 2008, 2016-17 आदि वर्षां के दौर को बाजार और आर्थिक दृष्टि से काला वर्षमाना गया हैबल्कि कहें तो गलत नहीं होगा। इन वर्षों में वैश्विक स्तर पर आर्थिकी उथलपुथल काफी दर्ज की गईं। हजारों, लाखों लोगां की नौकरियां चली गईं। दूसरे शब्दों में कहें तो खत्म कर दी गईं। वे लोग जो एक शाम पहले नौकरी वाले थे अगली सुबह उनके हाथ में बेरोजगारी की कतरनें थीं। इसे आर्थिक दुनिया में पिंक स्लीप कहा जाता है।सन्1930-32 में पहली बार विश्व ने आर्थिक मंदी जैसे शब्द से परिचित हुआ था। उस समय वैश्विक स्तर पर लोग बेरोजगार हुए। मानसिक बीमारियों मसलन-अवसाद, अकेलेपन से उपजी उदासीनता, निराशा,दुःचिंता आदि जोरों से फैलीं। लोगों ने आत्महत्याएं भी कीं। लेकिन अफसोस की आज हमारे पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं हैजिससे हम जान पाएं कि कितनी आत्महत्याएं हुइंर्। कितनां की नौकरी चली गई आदि। अब आते हैं 2008-9 का वैश्विक आर्थिक मंदी। इसका मंदी का छिटपुट असर फरवरी मार्च से दिखने तो लगा था लेकिन विकराल रूप अगस्त से धारण करता ळेंएक ओर सरकार लगातार बाजार और कंपनियों को आश्वासन दे रही थी कि ऐसी कोई स्थिति नहीं हैसब कुछ नियंत्रण में है।कुछ भी बेकाबू नहीं हैआदि। लेकिन बाजार दिन प्रतिदिन गिर रही थी। कंपनियों से लगातार चुपके चुपके लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा था। लोग सडक पर आने लगे थे। शुरू में तो कुछ अखबारों ने इस बाबत खबरें छापने का साहस दिखाया।लेकिन यह ताकत आगे चल कर जाती रही।जब मीडिया की दुनिया भी छंटनी के दौर से गुजरने लगी। मीडिया घरानों से भी रातों रात पत्रकारों से कहा गया कि कंपनी को अब आपकी सेवा की आवश्यकता नहीं। और देखते ही देखते हजारो पत्रकार अगली सुबह से खुद मंदी की ख़बर बन गए। लेकिन किसी अखबार व न्यूज चैनलों में ऐसे लोगों के लिए सिंगल कॉलम की जगह भी मयस्सर नहीं हुई। जो बच गए वो अपनी नौकरी बचाने में लगे रहे। अखबार में खबरें तो आती जाती रहती हैं।जाने व मरने वाले के साथ स्वजन व परिजन कहां मरते हैं।गौरतलब बात हैकि इतनी बडी वैश्विक करवटों,घटना पर साहित्य समाज एकदम मौन साधे कविता, कहानी, उपन्यास आदि में प्रेम,विद्रोह, संघर्षकी तमाम मुद्दों पर शब्दों को रचता रहा लेकिन ऐसे लाखों लोगों के लिए साहित्य में कोई जगह नहीं मिली। बेहद कम व न के बराबर कोई कहानी, उपन्यास आदि लिखी गई जो बता सके कि आखिर 1930, 2008, 2016 में क्या हुआ व समाज में क्या ऐसी घटना घटना घटरही थीजिसे नजरअंदाज नहीं किया सकता।
वैश्विक मंदी एक मसला है दूसरा मसला कंपनियों में ऑटोमेशन का है। ऑटोमेशन की वजह से 2016 और 2017 में काफी नौकरियां जा चुकी हैं। बड़े बड़े पदों पर बैठे कर्मियों की नौकरियां शायद बच पाईं लेकिन मंझोले किस्म के कर्मियों की नौकरी जा रही है। पिछले चार पांच माह पर नजर डालें तो एचसीएल, इंफोसिस, टेक महिन्द्रा, रैनबक्सी जो अब सन फॉर्मा के नाम से जानी जाती है। वहां भी ऑटोमेशन की वजह से हजारों लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। हाल ही में उक्त कंपनियों से चार हजार से लेकर चौदह हजार तक लोगों को निकाला जा चुका है। ये आंकड़े तो वे हैं जो मीडिया को दिए गए। जबकि संभव है यह संख्या और भी ज्यादा हो। दिल्ली में पिछले दिनों मैक्डोन्लस के तकरीबन पचास दुकानें बंद कर दी गईं और रातों रात 1700 कर्मचारी सड़क पर आ गए। इन घटनाओं को ख़बर के रूप में लिया गया। गोया ये लोग मानव न होकर एक ख़बर भर की हैसियत रखते थे।
साहित्य के बारे में कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण हुआ करता है। इस दर्पण में समाज की हलचलों की पड़ताल और झांकी देखी पढ़ी जा सकती है। लेकिन बेहद अफ्सोसनाक बात है कि साहित्य ऐसे मसलों को अपनी किसी भी विधा में जगह नहीं दे पाई। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि साहित्यकार किसके लिए और क्यों लिखता है इसका जवाब भी प्रकारांतर से मिलता है। यदि साहित्यकार समाज की जबान है तो उसे इन मसलों पर भी बोलना और लिखना उसका फर्ज बनता था। लेकिन साहित्यकारों की चुप्पी पॉलो फ्रेरे की शब्दावली में चुप्पी की संस्कृति को पोषित करने वाले साहित्यकार सिर्फ कविता,कहानी लिख कर आनंद लेने में लगे हैं। बल्कि कहना चाहिए साहित्य लेखन का एक छुपा एजेंडा पुरस्कार हसोतना भर रह गया है। साहित्य से समाज को क्या दृष्टि मिलती है? इस सवाल को बड़ी ही साफगोई से हाशिए पर धकेल दिया गया। याद हो कि 1930 के आस पास तमाम साहित्यकार विभिन्न मुद्दां पर उपन्यास और काव्य की रचना कर रहे थे। इनमें प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा आदि स्वनामधन्य साहित्यकार शामिल हैं। लेकिन इनमें से किसी ने भी मंदी जैसी बड़ी वैश्विक घटना को अपनी रचना के लिए नहीं चुना। ऐसा कहना अनुचित होगा कि इन्हें इस घटना की जानकारी नहीं रही होगी। बल्कि जानते समझते हुए इससे बचने की कोशिश ही कह सकते हैं।

Wednesday, July 5, 2017

तृतीय लिंगी : स्कूली पाठ्यपुस्तकीय दुनिया में हाशियाजीवी


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा और पाठ्यपुस्तकीय दुनिया कायदे से अपने समाज को समझने, प्रगति में सहभागी होने, अपने परिवेश के साथ तादात्म्य स्थापित करने और बेहतर जीवन की कला हासिल करने में मनुष्य की मदद करती है। शिक्षा तो सा विद्या या विमुक्तये होती है ऐसा आप्त ग्रंथ और शिक्षा शास्त्र के दर्शन मानते हैं। यही शिक्षा के आधार स्तम्भ भी माने गए हैं। समाज के विकास और मानवीय प्रगति के इतिहास को समझने में शिक्षा की अहम भूमिका रही है। विश्व के तमाम शिक्षाविद्, चिंतक, विमर्शकारों ने शिक्षा के चरित्र को वैश्विक हित, बंधुत्व की भावना को बढ़ाने वाली ही माना है। लेकिन सवाल तब मुखर हो उठता है जब हमारे ही समाज के एक बड़े वर्ग को जानने-समझने के दरकार की परिधि से बाहर खदेड़ दिया जाता है। दरपेश है कि हम अपने समाज के अभिन्न हिस्से तृतीय लिंगी समाज के प्रति अपनी रूचि, जिज्ञासा, भय जैसे भावदशाओं से बाहर निकल कर उनकी दुनिया से परिचित हों और प्रयास करें कि उन्हें किस प्रकार से समाज की मुख्यधारा से जोड़ पाएं। अफ्सोसनाक बात यह है कि इस काम में हमारी शिक्षा, शिक्षा नीतियां, आयोग आदि मौन साध लेते हैं। शैक्षिक समितियों की सिफारिशें, शैक्षिक नीतियां,पाठ्यचार्य की रूपरेखाएं एकबारगी गैर बराबरी, असमानता और भेदीकरण की नीति अपनाती नजर आती हैं। यही कारण है कि आजादी से पूर्व व आजादी के बाद की भी शैक्षिक आयोगों, समितियों, नीतियां आदि में तृतीय लिंगी जिसे सामान्य भाषा व बोलचाल में हिजड़ा, किन्नर, खोजवा आदि कह देते हैं, उन्हें हमारी पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और पाठ्यचर्याओं का हिस्सा नहीं बनाया जाता। संभव है बच्चों और समाज में इस वर्ग को लेकर जिस प्रकार भय बच्चों में बैठ जाता है उसमें एक बड़ा कारण शिक्षा का भी है। क्योंकि शिक्षा उनके प्रति समाज में व्याप्त भय को समझने, दूर करने का कोई प्रयास नहीं करती। हालांकि लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में अब तृतीय लिंगी समाज प्रति संवेदनशीलताख् जागरूकता पैदा करने की कोशिश की जा रही है।
स्कूली पाठ्यपुस्तकों की बात की जाए तो हिन्दी, समाज विज्ञान, विज्ञान आदि में तृतीय लिंगी समाज की चर्चा से बचा गया है। न तो हिन्दी की पाठ्यपुस्तकें रिमझिम, बहार, बासंती आदि तृतीय लिंगी समाज को समझने, जानकारी हासिल करने के लिए कोई पाठ, राह दिखाती हैं और न ही इस समाज के प्रति जागरूकता पैदा करने में ही बच्चों, शिक्षकों की मदद करती है। इन किताबों में शामिल कहानियां, कविताएं, यात्रा संस्मरण आदि विधाएं तृतीय लिंगी समाज की कोई मुकम्मल झलक प्रस्तुत करती नजर नहीं आतीं। एक प्रकार की चुप्पी को कायम रखते हुए मौसम, फलों, बाल-खेल, समाज के प्रौढ़ वर्गां की झांकियों तो मिलती हैं। इन कहानियों, कविताओं में समाज के विभिन्न पेशेवर वर्गों डॉक्टर, बड़ही, लोहार, मोची, मास्टर किसान आदि के कार्य व्यापारों की  जानकारी तो मिलती है, लेकिन तृतीय लिंगी किस कार्य व्यापार में शामिल होते हैं। वे अपनी जीविका के लिए क्या काम करते हैं इसकी न तो जानकारी मिलती है और न ही कोई समझ विकसित हो पाती है। वहीं समाज विज्ञान की पुस्तकें भी चुप्पी की संस्कृति को ही अपनाती नजर आती हैं। प्राथमिक स्तर पर चलने वाली आस-पास, हमारी दिल्ली, हमारा भारत व हमारा विश्व पुस्तक भी बच्चों को तृतीय लिंगी समाज से किसी स्तर पर जोड़ने में विफल माना जाएगा। क्योंकि कोई भी पाठ, वाक्य ऐसे नहीं लिखे गए हैं जिससे इनके बारे में कोई धारणा निर्माण में बच्चों की मदद कर पाए। स्कूली दुनिया प्रकारांतर से तृतीय लिंगी समाज को तवज्जो ही नहीं देती है। ऐसा क्यों होता है इसकी जड़ में जाएं तो हम पाते हैं कि हमारा स्कूली संसार बाह्य संसार का ही छोटा रूप है। जहां प्रार्थनाएं, गतिविधियां, आप्त वाक्यों आदि को यथावत् शामिल कर लिया जाता है जैसा बाह्य संसार में घट रहा है। यिउद ठहर कर विवेचना करें तो हमारे आंखें खुलती हैं कि हमने बड़ी ही साफगोई से इस समाज को स्कूली तंत्र से काट रखा है। फिर हमारे बच्चे इस तृतीय िंलंगी समाज के बारे में जानकारियां किस ज्ञान-स्रोत से हासिल करते हैं।
कोठारी आयोग 1964-66, राष्टीय शिक्षा नीति 1986, राष्टीय शिक्षा आयोग, पुनरीक्षा समिति 1990, राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1978, 2000, 2005 आदि भी तृतीय लिंगी समाज की चिंता से बेख़बर नजर आते हैं। गोया यह वर्ग न तो शिक्षा हासिल करने पर अपना दावा पेश कर सकते हैं और न ही स्कूली तंत्र में अपने बच्चों व स्वयं को जोड़ सकते हैं। वह तो देशीय समितियों की स्थिति है। यदि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य 2000 और 2016 में संशोधित सतत् विकास लक्ष्य 2030 में भी यह वर्ग कहीं स्थान नहीं पाते। इन लक्ष्यों में इस वर्ग के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य,सरुक्षा आदि के बारे में एक पंक्ति के वायदे की भी घोषणा नहीं मिलती। यह इस ओर इशारा करता है कि न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर नीति निर्माता, विकास की गति को तय करने वाले भी इस वर्ग को मनुष्य की श्रेणी में गिनते हैं। यदि इन्हें मनुष्य माना जाता तो शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास,सुरक्षा आदि कीं चिंता और इत्जा़मा की ओर सरकार और नागर समाज पहलकदमी करते दिखाई देते।
माना जाता है कि साहित्य अपने परिवेशीय घटनाओं, हलचलों, बजबजाहटों स्वरों को दस्तावेज़ित करता है। वह चाहे कोई भी सामाजिक परिघटना ही क्यां न हो। साहित्य की विभिन्न विधाओं में शुमार और ख़ास चर्चित विधा कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, रेखाचित्र आदि ने तृतीय लिंगी समाज को संज्ञान में लेते हुए अपनी प्रतिबद्धता दर्ज करने में पीछे नहीं रहीं। 2016 में आई लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का आत्मकथ्य किताब ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ कई दृष्टि से पठनीय है।इसमें लक्ष्मी ने अपनी जिंदगी के उन पहलुओं से पाठक वर्ग को रू ब रू कराती हैं जिसे गढ़ने में समाज ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने यूएन में तृतीय लिंगी समाज के जिए उठाई गई आवाज का हवाला भी देती हैं। बचपन में किन किन लोगों, दोस्तों ने उन्हें एहसास कराया कि वे ख़ास हैं। किन किन न उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।कहां कब वो द्रवित और दुखी हुई। कौन सी घटना ने उन्हें तोड़ इन सब की गुत्थियां लक्ष्मी इस किताब में खोलती हैं। वहीं अंग्रेजी में प्रकाशित एक किताब किन्नरों की समाजिक, आर्थिकख् राजनीति चरित्र को रेखांकित करती है। ‘निदर मैंन नॉर विमन इन इंडिया’ इस किताब में आधिकारिक तौर पर किन्नरों की प्रकृति, भूगोल और राजनीतिक स्थिति की चर्चा करती है।इसके साथ ही इनकी दुनिया में देवी देवताओं की पूजा-अर्चना, बुचरा देवी की आराधना एवं पुजन की पद्धति भी बताई गई है।इस किताब को पढ़ने का अर्थ हैइनके संसार के करीब आना। वहीं महेंद्र भीष्म की लिखी किन्नर कथा भी पठनीय है।बड़ों की कहानियों, उपन्यासों में तो तृतीय लिंगी स्थान पाने लगे हैंलेकिन अभी बच्चों की दुनिया से ये लोग नदारत हैं।हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने बच्चों को इनकी दुनिया से स्वस्थ परिचय कराए।ंयह तभी संभव होगा तब हमारी पूर्वग्रह हमारी नीतियों, पाठ्यपुस्तकों के चरित्र को न निर्धारित करें। किन्नरों के संसार को जितना बाहर से देखने और समझने की कोशिश की गई हैवह पर्याप्त नहीं मानी जा सकती। इनकी दुनिया को समझने के लिए हमें मानसिक तैयारी करनी होगी।

Tuesday, July 4, 2017

तक्सीम की पीड़ा और अतीतीय संवेदना


कौशलेंद्र प्रपन्न
जमीनी तक़्सीमियत और संवेदना का दो फांक हो जाना दो अगल भाव भूमि पर अपनी छाप छोड़ती हैं। मानवीय विकास यात्रा के इतिहास में ऐसी ही एक घटना को अंज़ाम दिया गया। इसे अब सत्तर बरस हो गए। लेकिन आज भी विभाजित, विखंड़ित मानवीय पीड़ा की टीस हमें बेचैन करती है। सन् 1947 का मंज़र ही ऐसा है जिसे जितनी बार, जितने कोणों से देखने समझने की कोशिश करें हजारों, लाखों अश्रुपूरित आंखें नज़र आती हैं। वह सजल नयन इस पार के हों या उस पार के। भौगोलिक भूखंड़ बेशक अलग कर दिए गए, लेकिन संवेदनाएं वहीं की वही हैं। इन्हें न तो किसी ने पाटने की कोशिश की और न ही वे भर ही पाईं। भरेंगी भी कैसे, क्योंकि हर किसी की भावनाएं, अपनत्व उस तक़्सीम में खंड़ित हुईं। खंड़ित तो मानवीय संबंध भी हुए जो उस पार या इस पार रह गए। इन संवेदनाओं को आज तक सीने में दबाए काफी लोग हैं जो जी रहे हैं। उन्हें अभी भी उम्मीद है कि एक दिन ऐसा आएगा जब दोनों की देशों के बीच के खटरास कम होंगे। दोनों की देशां के मध्य रिश्तों की स्नेहिल बयार बहेंगे। लेकिन यह कब और किन मूल्यों पर होगा यह अभी कहना व अनुमान लगाना ज़रा कठिन है। क्योंकि जब भी मानवीय रिश्तों की रेलगाड़ी पटरी पर आती नज़र आती है वैसे ही इसे डि रेल करने वाली ताकतें अपनी तमाम शक्ति इसमें झोंकने लगती हैं। दोनां ही देशों के रणनीतिकार,समाजवैज्ञानिक, शिक्षाविद् आदि मानते हैं कि यह तक़्सीम विश्व के सबसे विनाशकारी और विभाजन की घटना रही है। इसमें जान-माल की क्षति तो हुई ही साथ ही दोनों देशों के गंगाजमुनी संस्कृति को ख़ासा हानि पहुंची। यदि बंटवारे के इस दंश की टीस का अंदाज़ा लगाना हो तो दोनों ही देशों के कलमकारों, लेंसकारों, कलाकारां की कृतियों में बहुत मुखरता से दिखाई और सुनाई पड़ती हैं। वे साहित्यकार हों, संगीतकार हों या फिर सृजनात्मकता के जिस भी विधा से जुड़े लोग हों उन्होंने अपनी आहत संवेदना को स्वर देने में पीछे नहीं रहे। यदि हम साहित्य, कला, सिनेमा के आंगन में छायी छवियों की विवेचना करें तो एकबारगी 1947 से दो तीन साल पूर्व और दो तीन साल बाद की घटनाएं ताजी हो जाती हैं। यही कारण है कि जब हम सिक्का बदल गया, पेशावर टेन, खोल दो, टोबा टेक सिंह, झूठा सच, काली सलवार, दो हाथ, जिन्ने लाहौर नी वेख्या ते जन्मीया नइ आदि साहित्यिक रचनाओं में कलमकारां ने तब की घटनाओं को न केवल कलमबद्ध किया, बल्कि उसकी छटपटाहटों को शिद्दत से महसूसा भी है। वह एक प्रकारांतर से भोगा हुआ यथार्थ है।
साहित्य को इसीलिए समाज और कालखंड़ का जीता जागता सच कहा गया है, क्योंकि इस दर्पण में वर्तमान समय की बेचैनीयत, बजबजाहटों के साथ ही तत्कालीन समाजो-सांस्कृतिक हलचलों को भी दर्ज किया जाता रहा है। यह अलग विमर्श का मसला हो सकता है कि कई बार साहित्य भी पूर्वग्रह के राह पर चली है। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि कलमकारों ने अपनी निजी मान्यताओं, आस्थाओं, पूर्वग्रहों आदि को नियंत्रित नहीं किया तो उसकी छाप उनके साहित्य में स्पष्टतः दिखाई देती है। और ऐसे लेखन ने साहित्य की मूल आत्मा, संवेदना को थोड़ा गंदला ही किया है। लेकिन जो रचनाकार अपनी वैश्विक जवाबदेही को महसूसा है और जिसने तटस्थता बरती है उनकी रचनाओं को आज भी बड़े सम्मान के साथ साहित्य में स्थान मिला है। ‘‘आज़ादी की छांव में’’ एनबीटी से प्रकाशित उपन्यास में मोहनीश बेग़म ने बड़ी शिद्दत से आजादी से दो साल पूर्व से लेकर 1948 तक की पूरी घटनाओं को जिस तरह से बयां किया है उसे पढ़कर अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि वह दौर कैसा रहा होगा। दंगे में लेखिका अपने प्रशासनिक अधिकारी पति जो नेहरू के करीबी थे, उन्हें हमेशा के लिए खो देती हैं। यह तो लेखिका की निजी क्षति थी। लेकिन उससे बढ़कर जो देश की स्थिति थी उसे समझना हो तो इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए। यह तो एक बानगी हुई। इसके साथ ही जिसने भी खोल दो, दो हाथ, सिक्का बदल गया या फिर जिन्ने लाहैर नहीं वख्या... देखी व पढ़ी हो तो वे महसूस कर सकते हैं कि साहित्य ने किस प्रकार उस कालखंड़ को कलमबद्ध किया। एक लेखक की हैसियत तो इस पूरी प्रक्रिया में शामिल थी ही साथ ही एक जिम्मेदार संवेदनशील नागरिक भी जिंदा था तभी इस प्रकार की कहानियां, उपन्यास, रिपोतार्ज, यात्रा संस्मरण आदि की सृजना हो पाई। हम जहां कृष्णा सोबती, इस्मत चुग्ताई, असगर वजाहत, मंटो, कृशन चंदर, कुलदीप नैयर, कमलेश्वर, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अनुशीलन करते हैं तो स्पष्टतौर पर तक़्सीम की रूखी हवा हमें छू कर निकल जाती है। कमलेश्वर जी की कितने पाकिसतान एक शोधपरक उपन्यास के हिस्से आता है जहां इतिहास के साक्ष्यों के बरक्स पूरी घटना की परतों की पड़ताल की जाती है। वहीं हाल ही में कृष्णा सोबती जी की लिखी अधुनातन उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ को पढ़ना दिलचस्प होगा। यह महज उपन्यास भर नहीं है, बल्कि लेखिका अपनी मातृभूमि पाकिस्मान के गुजरात को जीती है। साथ ही विभाजन के बाद हिन्दुस्तानी गुजरात के अनुभवों को पन्नों पर उकेरती हैं। ये वही लेखिका हैं जिन्होंने सिक्का बदल गया, मित्रो मरजानी आदि भी लिखा।
साहित्यकार, इतिहासकार, फिल्म निर्माता भी कई बार अपनी रचनात्मक और लेखकीय प्रतिबद्धता से न्याय करने में कहीं चूक जाते हैं। ऐसी चूकों को इतिहास मांफ नहीं करता। साहित्य व इतिहास लेखन में तटस्थता की मांग अहम होती है। मसलन यदि हम दोनों देशों में आज़ादी के एक दो साल पूर्व व पश्चात् पैदा हुए बच्चों की बात करें तो उन्हें किस प्रकार की छवियों से रू ब रू कराया गया व कराया जाता है यह जानना भी बेहद मानीखेज है। प्रसिद्ध शिक्षाविद्,कथाकार प्रो कृष्ण कुमार ने कुछ साल पहले पाकिस्तान में स्कूली स्तर पर सामाजिक और इतिहास के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया था जिसमें उन्होंने इतिहासकारों और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं की वैचारिक रूझानां को रेखांकित किया था। वहां गांधीजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि को किस दृष्टि से इतिहास के स्कूलां पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है इसकी विहंगम झांकी हमें ‘प्रिजुडिस एंड प्राइड’ किताब में मिलती है। शैक्षिक पहलकदमियों के चरित्र को समझना हो तो समय समय पर पाठ्यपुस्तकों में होने वाले फेर बदल को देख कर समझा जा सकता है। जब एक ओर शिक्षा को एक ख़ास मान्यताओं एवं पूर्वग्रहों को पोषित करने के लिए इस्तमाल किया जाता है। वहीं फिल्मों के माध्यम से भी कई राजनीतिक, सामाजिक हित साधने की कोशिशें होती रही हैं। वह चाहे बॉडर, एलओसी, गदर, टेन टू पाकिस्तान, गांधी, क्या दिल्ली क्या लाहौर, पिंज़र, जनरल बख़्त ख़ान, अर्थ, वीर-ज़ारा, फिल्मीस्तान, बंजरंगी भाईजान, सरबजीत आदि फिल्मों में भी साफतौर पर दिखाई वह पूर्वग्रहपूर्ण बरताव समझ में आती है। इन फिल्मां के साथ निर्देशक, पटकथा लेखक आदि की क्या वैचारिक झुकाव रही है वह हमें समझने में कोई परहेज नहीं करना होगा। लेकिन एक सामान्य दर्शक केवल मौज मस्ती, हंसी ठिठोली कर के बाहर आ जाता है। वहीं थोड़ा सा भी सजग दर्शक होता है वह उसकी बारीक तहों की बुनावट को पहचान लेता है। यहां मसला यह भी अहम हो जाता है कि क्या फिल्म के कंटेंट के साथ जो बरताव हुआ वह समुचित हो पाया या नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या कंटेट के साथ न्याय हो पाया।
साहित्य की दुनिया ने विभाजन को किस प्रकार दस्तावेज़ित किया इसे जानना भी बेहद रोचक और दरपेश है। साहित्य के बारे में एक और स्थापित मान्यता यह है कि साहित्य तटस्थ होकर अपने समकालीन हकीकतों को दर्ज़ किया करता है। इस दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया में किस प्रकार की चुनौतियां और सावधानियों का ख़्याल रखना उचित होता है इसे भी जानना और समझना जरूरी है। साहित्य की विभिन्न प्रचलित विधाओं में विभाजन की छटाएं देखी-पढ़ी जा सकती हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी कहानी,उपन्यास ज्यादा लिखे गए। रिपोतार्ज़, यात्रा वृतांत, डायरी, व्यंग्य आदि विधाओं में थोड़े कम काम हुए। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो संभव है कहानी एवं उपन्यास ऐसी गली थी जिससे गुजरना दूसरी विधाओं की तुलना में ज़रा सहज प्रतीत होता है। या यूं कहें कि कहानियां हमारी जिंदगी की बेहद करीब रही हैं। इस दृष्टि से देखें तो मुज़्जफर अल जौकी की ‘विभाजन की कहानियां’ बेहद मौजू हैं। इस कहानी संग्रह में उन कहानियों को जगह दी है जो कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर विभाजन की जमीन को छूती है।
यहां मलबे का मालिक मोहन राकेश लिखित कहानी की चर्चा प्रासंगिक सी लगी रही है क्योंकि यह कहानी विभाजन के आस-पास की मानवीय संवेदना को उकेरने में सफल रही है। एक संवाद देखिए गिना मिंया विभाजन के बाद पाकिस्तान को अपनी भूमि कबूल किया। लेकिन सात साल बाद भारत के अमृतसर आने का मौका मिला तो अपने घर, बच्चे, बहु को तलाशते हैं। वही घर जहां उनका बेटा,पोता पोती रहा करते थे। गलियों में गुजरते हुए अपने घर की निशां ढूंढ़ते हैं। इस दरमियां एक बच्चियों को देखकर दादा के एहसास से भर जाते हैं। उसे प्यार करना चाहते हैं। जेब से पैसे निकाल कर देना चाहते हैं। तभी उस बच्ची की मां कहती है ‘ पुच कर मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़कर ले जाएगा, मैं बारी जाउं।’ इस अविश्वास से जैसे ही गनी साहब का साबका पड़ता है उनकी जमीन खिसकती नजर आती है। एक और संवाद में उनके अंदर की हलचलों का पता मालूम होता है। जब गली के एक लड़के ने कहा ‘कहिए मियां जी, यहां कैसे खड़े हैं?’ बातचीत में रिश्तां की डोर खुलती है और मनोरी पहचान लेता है। कहता है, ‘ आप तो काफी पहले पाकिस्तान चले गए थे।’ इसका जवाब गनी मियां देते हैं ‘ हां, बेटे, यह मेरी बदबख्ती थी कि पहले अकेला निकलकर चला गया। यहां रहता तो उनके साथ मैं भी...’ दरअसल यह कहानी अपने पुराने घर के मलबे से जुड़ी है। क्योंकि यहीं इसी घर में उनके बेटे, बहु, पोते, पोती को सुपुर्द ए ख़ाक किया गया था और न जाने किसने इस घर में आग लगा दी थी। वहीं दूसरी एक और कहानी भीष्म साहनी की लिखनी अमृतसर आ गया भी पढ़ने येग्य है। यूं तो कहानियां और भी हैं। उपन्यास भी और हैं जो विभाजन के दर्द को पकड़ती हैं।
कथा-कहानियां से होता क्या है? बस इन झरोखों से हम अपने अतीत को झांक आते हैं। अतीत में क्या कुछ हुआ। क्यां हुआ? उससे हमारे जीवन पर क्या असर पड़े आदि को समझने का एक अपवसर मिल जाता है। लेकिन यहां एक दिक्कत यह आती है कि हम अतीत में तो चले जाते हैं, लेकिन डर यह होता है कि कहीं हम अतीत में ठहर न जाएं। कहीं हम उसके दबाव में न आए जाएं। क्योंकि यदि ऐसा होता है तो उससे हमारा, हमारे समाज का वर्तमान प्रभावित होता है। कथा-कहानियां इतिहास से एत्तर हमें मानवीय और संवेदनात्मक समझ देती हैं। यह काम साहित्य ही कर सकता है। और इस दृष्टि से भारतीय साहित्य अटा पड़ा है। वह चाहे उर्दू साहित्य हो, हिन्दी साहित्य हो या फिर अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य हर जगह विभाजन के छिटे मिलेंगे।
देश और भूगोल का विभाजन मानवीय संवेदना के विभाजन से थोड़ा अलग है। जिन पंक्तियां से यह पूरा विमर्श आरम्भ हुआ था उन्हीं बिंदुओं पर लौटते हुए हम समझने की कोशिश करें कि क्या साहित्य और मनुष्य मात्र दस्तावेज़ का हिस्सा भर होता है या उससे आगे भी यह मसला निकलता है। निश्चित ही मनुष्य की प्रकृति उसके समाज और परिवेश में काफी हद तक गढ़ी और रची जाती है जिसे स्वीकारने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए। लेकिन हम अपने स्वभाव और वर्तमान को अपने तई निर्माण कर सकते हैं। माना कि विभाजन हुआ। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन अब जब हमारे पास खिलने,विकसने का अवसर है तो कोई वजह नहीं कि हम अतीत में अटके रहें। हमें आगे निकलना होगा। इसकी झांकी, साक्ष्य हमारे साहित्य हों। साहित्य हमें आगे की राह दिखाए। दोनां ही देशों में साहित्य के माध्यम से भी मानवीय मूल्यां को संरक्षित  और प्रवहमान रखा जा सकता है। इसका प्रयास नागर समाज के कंधों पर है।
साहित्य और समाज के साथ मानवीय विकास की यात्रा को समझना बेहद दिलचस्प होता है। यह तथ्य पूर्व के साहित्यों में पढ़ने को मिली हैं। साहित्य यदि निरपेक्ष भाव से लिखी जाए तो उसमें घटने वाली घटनाएं पाठक समाज को नई रोशनी प्रदान करती हैं। विभाजन को हमनें जीया। एक बड़े वर्ग ने इसे महसूसा और क्षति से भी गुजरे। अब सवाल यह उठता है कि क्या खोए हुए अतीत पर रूदन ही करें या फिर साहित्य में जज़्ब उत्साह और बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक धाती को अपने जीवन में स्थान दें। यह हमारी आने वाली पीढ़ी पर काफी हद तक निर्भर करती है।




Monday, July 3, 2017

फिटिंग रूम के बाहर


कौशलेंद्र प्रपन्न
मॉल हो या कोई बड़ी दुकान हर जगह भीड़ न केवल कपड़ों की होती है बल्कि लोगों की भी होती है। ख़ासकर मॉल में जब सेल का मौसम होता है। यह सेल का मौसम कभी साल में दो या तीन बार ही आया करते थे। लेकिन अब गाहे ब गाहे साल में जब भी दो या तीन दिन की लंबी छुट्टियों के दिन आते हैं तमाम मॉल्स, दुकान, ऑन लाइन या आफ लाइन सेल की मंड़ी सज जाती है। ग्राहकों को लुभाने के लिए तरह तरह की घोषणाओं, छलनाओं का इस्तमाल किया जाता है। कोई वेबसाइट साठ से अस्सी फीसदी छूट देते हैं तो कुछ अन्य साइट दो खरीदने पर तीसरा मुफ्त आदि। हम भोले भाले, स्याने ग्राहक इन्हीं मेलों के क्षणों का गोया इंतजार में बैठे होते हैं। बस घोषणा को छांनकर सुनते और भागने लगते हैं। यह भागम-भाग किसी मॉल या ऑन लाइन सेल के प्लेटफॉम पर रूकता है।
मॉल में जितनी भीड़ होती है वहीं बड़े ब्रांड जहां सेल कम होते हैं वे दुकाने तकरीबन खाली सी होती हैं। वहां कपड़े भी सलीके से रखी होती हैं। वहां भीड़ कम होने की वजह से सब के सब व्यवथित होती हैं। वहीं दूसरी जगहों पर इतनी भीड़ होती है कि ठीक से कपड़े देख भी नहीं पाते। एक ढंग के कपड़े मिल भी जाए तो उसपर औरों की भी नजर होती है। आप खारिज कर दें तो वे उठा लें। एक किस्म से वहां छीना छपटी सा खेल खेला जाता है। दिलचस्प तो तब होता है जब हम अपने बदन के अनुरूप कपड़े नहीं हैं या तो छोटे व बड़े हैं तो उसे ऑल्टर करा के पहने के लोभ में उठा लेते हैं। यानी कपड़े बदन के अनुकूल नहीं हैं तो बदन को बढ़ाने या घटाने की कोशिश करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में हम इतने कपड़ों का चुनाव बल्कि अंबार लगा लेते हैं कि फिटिंग रूम के बाहर खड़ी व खड़ा कर्मचारी आप को एक एक कर कपड़े पहनने के लिए देता है। एक अविश्वास का सामना ग्राहकों को करना पड़ता है। लेकिन उसपर भी हमें शर्म नहीं आती। शर्म तो हमें तब भी नहीं आती जब हम बेढ़ब का कपड़ा पहन कर बाहर दिखाने के लिए खड़े/खड़ी होती हैं।
अब एक अलग मंजर देखने को मिलता है। जब आपकी पत्नी/पति नए कपड़े पहन कर रूम से बहार झांकते हैं। उनकी नजरें उम्मीद में अटकी होती हैं कि क्या प्रतिक्रिया आने वाली है। खुद पर भरोसा कम देखने वाले पर ज्यादा होता है। यदि देखने वाले ने हांमी भर दी बस समझिए सारी मेहनत सफल हुई। वरना रूम के बाहर इंतजार कर रहा व्यक्ति अपने फोन में व्यस्त हो जाता है। उसका ध्यान तब आपकी ओर जाता है जब अंदर से बाहर की ओर आ रही आवाज कहती है यहां भी फोन पर लगे हो। ज़रा देख लो कैसी लग रही हूं। कई बार इतनी कोफ्त होती है इस देखने में आधे घंटे से एक घंटे का वक्त भी लग सकता है लेकिन देखने दिखाने के लिए मजबूर हैं। यदि कपड़ा बदन से चिपक रहा है तो बड़ा लाने पति दौड़ता है या कर्मचारी। अव्वल तो जो कपड़ा आपको पसंद आ जाए उसकी साइज आपके मकूल नहीं मिलती। आपसे पहले कोई और हाथ साफ कर चुका होता है। ऐसे में मायूस होकर किसी और कपड़े से काम चलाते हैं।
फिटिंग रूम के बाहर पहनने और देखने वालों की अच्छी भीड़ होती है। कई मर्तबा तो पता ही नहीं चलता कि किसकी वाली निकली। मेरी या साथ बैठे वाले की। सावधानी घटी तो मामला खराब हो सकता है। दूसरी के कपड़े ध्यान से देखने लगे तो अपनी वाली कह सकती है, मैं तब से खड़ी हूं लेकिन तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। तुम्हारा तो अब ध्यान ही नहीं रहता। लेकिन आखिर देखने वाला भी कब तक बकोध्यानं रख सकता है। कभी तो ध्यान भटकेगा ही। ख़ासकर तब जब लंबे समय से फिटिंग रूम के बाहर खडा होना पडे।
कभी वह दौर भी था जब दर्जी वाला कपड़े का माप लेने के बाद एक दिन मांपने के लिए बुलाता था कि आइए और नाप लीजिए। कोई कमी रह गई हो तो समय पर ठीक किया जा सके। वहां भीड़ का प्रश्न ही नहीं उठता था। लेकिन जब से रेडीमेड कपड़ों की आदत पड़ी है। तब से धैर्य जाती रही। हमें तुरत फुरत में कपड़े चाहिए। अभी के अभी चाहिए। और आलम यह हो चुका है कि हमें बेशक फलां कपड़े, जूते की जरूरत न हो लेकिन क्योंकि सेल के मौसम की घोषणा हो चुकी है इसलिए लेकर रख लेने की आदत से लाचार हो जाते हैं। इन दिनों जीएसटी की घोषणा के बाद हर दुकान, ब्रांड, कंपनी अपने माल को खपाने में लगे हैं। जूता बेशक पुराने हों, कपड़े पुराने फैशन के हो गए हों, लेकिन ग्राहकों को लेना है। क्योंकि क्या पता जीएसटी के बाद कैसे आलम हो। कुछेक ब्रांड और दुकानों में घूम आएं आपको मालूम चलेगा कि जो जूते, कपड़े आप दिनों में दो या तीन हजारी टैग में इठलाते नजर आते हैं उनपर चार से पांच हजार का टैग लगाकर साठ और सत्तर प्रतिशत की छूट की बोली लगाई जा रही है। अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि बिना छूट में वही सामान दो से तीन हजार में खरीद सकते हैं। लेकिन छूट के लोभ में हम पुराने फैशन के सामान से घर भरने में पीछे नहीं रहते।
यदि हम अपने आस-पास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मैक्स वेबर के जामने के मितव्ययी, अनुशासिक और सादा जीवन बिताने वाले काफी कुछ विदा हो गए हैं। उनकी जगह जो उपभोक्ता आए हैं उनका जोर वस्तुओं और सेवाओं के इस्तमाल से अपनी अवाश्यकताओं को संतुष्ट करने के साथ ही अपनी शान-शौकत, सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्थिति के प्रदर्शन पर कहीं अधिक है। वे अपने को समाज के अन्य लोगों से अगल दिखलाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। इस तरह उपभोग के चरित्र में एक बड़ा सांस्कृतिक बदलाव आया है। अब उत्पादक के बदले उपभोक्ता समाज का केंद्र बिंदु बन गया है।
भारत में जिस कदर कपड़े, जूते महंगे हुए हैं उस अनुपात में विदेशों में महंगे नहीं हैं। कई मर्तबा ऐसा भी महसूस होगा कि कपड़ों के दाम इतने बढ़ गए हैं कि आम आदमी क्या पहने क्या खरीदे। जबकि रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत हर व्यक्ति की है। कम से कम तन को ढकने के लिए साधारण व्यक्ति को असकी जेब क अनुसार कपड़े तो मयस्सर हों। लेकिन बाजार उन कुछ लोगों के लिए नहीं सजती। बाजार सजती है ख़ास वर्ग के लिए जो पहले से ही पांच दस कपड़ों से आलमारियां भरे हुए हैं और और खरीदने के लिए उतावले हैं। ऐसे में एक साधारण व्यक्ति की जरूरतों को बाजार नजरअंदाज कर देता है।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...