Wednesday, December 31, 2014

कैसे कह दूं कि इस साल रहा अच्छा


बच्चों का दफना कर
बहिन को रूला कर
प्लेन को गायब कर
कैसे याद करूं इस साल।
क्या क्या हुआ
कहां कहां रोया भारत
कहां हो गई चूक
हमीं ने मारे हैं पांव पर कुल्हाडी।
जिन बच्चों के पांव में बजने थे रूनझुन पायल
वे नन्हें पांव दफन हैं मिट्टी में
निर्भया की और बहनें रो रही हैं
कैसे कह दूं
साल रहा अच्छा।
अबकी बरस न रोये बहन
घर में हो दीया जोरने वाला कोई
चूल्हा न रहे उदास
कलाई पर बंधी हो आस।
नववर्श मंगलमय हो आप सभी का।

Tuesday, December 30, 2014

साहित्य की दुनिया और विभेदीकर


साहित्य शब्द सुनते ही हमारे जेहन में जिस तरह की छवि बनती है वह कविता, कहानी और उपन्यास की ही होती है। क्या साहित्य महज यही है या साहित्य की सीमा में और भी विधाएं शामिल होती हैं। साहित्य का अपना क्या चरित्र है और साहित्य व्यापक स्तर पर क्या करती है? इन सवालों पर विचार करें तो पाएंगे कि साहित्य का मतलब महज पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता और कहानी पढ़ाना भर नहीं हैं, बल्कि पाठकों को जीवन दृष्टि प्रदान करना भी है। जीवन मूल्यों और संवेदनशीलता पैदा करना भी है। साथ समाज में खास वर्गों के प्रति समानता का भाव जागृत हो इसकी भी गुंजाईश साहित्य में हो।
साहित्य का शिक्षा शास्त्रीय विमर्श करें तो पाएंगे कि साहित्य हमारी पूर्वग्रहों को भी अग्रसारित करने का काम करती है। यादि कहानी व कविता विधा को लें तो वहां भी कहानियां कुछ यूं शुरू होती हैं- एक समय की बात है। किसी गांव में एक ब्राम्हण होता था। उनके दो बेटे थे। बड़ा बहुत ज्ञानवान और छोटा नकारा। इन शुरूआती पंक्तियों में देख सकते हैं कि गांव में क्या ब्राम्हण ही होते थे। क्या उनकी बेटियां नहीं थीं। क्या उस गांव में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग नहीं रहते थे। इस तरह से कहानियों में लिंग, जाति, वर्ण आदि को लेकर एक खास विभेद स्पष्ट देखे जा सकते हैं। शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन इस तरह की विभेदी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं लेकिन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने इस तरह की कहानी और कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया है जिसे पढ़ कर बच्चों में एक खास किस्म के वर्गांे के साथ स्वस्थ धारणा का निर्माण नहीं होता। अपने से कमतर मानने की प्रवृत्ति का जन्म पहले पहल कक्षा में पैदा होता है। एक बुदेलखंड़ी, मालवा, भोजपुरी, डोगरी बोलने वाले बच्चों से सवाल हिन्दी में पूछे जाते हैं तब वे बच्चे जवाब जानते हुए भी भाषायी मुश्किलों की वजह से चुप रहते हैं। यदि उन बच्चों को कक्षा में उनकी भाषा और भाषायी दक्षता को लेकर मजाक बनाया जाता है तब साहित्य कहीं पीछे छूट जाता है। स्थानीय भाषा पर मानक भाषा सवार हो जाती है। यहां बच्चों की मातृभाषायी समझ को धत्ता बताते हुए मानक भाषा को अपनाने की वकालत की जाती है।
यदि राष्टीय पाठ्यचर्या 1977, 1990 व उसके बाद 2000 पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां चित्रों, लिंग, भाषा को लेकर संतुलित छवि नहीं मिलती। यही वजह था कि 1990 में मध्य प्रदेश में एक सर्वे किया गया कि जनजाति और महिलाओं को किस प्रकार पाठ्यपुस्तकों में दिखाया गया है। उस रिपोर्ट में पाया गया कि महज 0.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भागिदारी दिखाई गई थी। वहीं महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ 0.2 प्रतिशत थी। एक और सर्वे और शोध पर नजर डालना जरूरी होगा जो 1994-95 में हुई। यह शोध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग में हुई थी। इस शोध में पांच हिन्दी भाषी राज्यों की कक्षा 5 से 8 वीं के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया गया था। इस शोध का उद्देश्य था कि इन पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं और जनजातियों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट की मानें तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। महज 0.00 और 0.1 फीसदी उपस्थिति दर्ज देखी गई थी।
सन् 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की रोशनी में बने पाठ्यपुस्तकों पर भेदभाव-जाति, वर्ग, लिंग का आरोप लगा था। इन आरोपों से उबरने के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया। उन्हें सुझाव देना था कि कहां कहां इस तरह की गलतियां हुईं हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। उस सुझाव के बाद बने पाठ्यपुस्तकों पर नजर डालें तो स्थिति और भी हास्यास्पद नजर आती है। महिलाओं की उपस्थिति तो बढ़ी लेकिन उनमें काम और पूर्वाग्रह पूर्ववत् बनी रहीं। महिलाएं बाल बनाती हुईं महिलाएं खाना बनाती हुई पारंपरिक कामों लीन दिखाई गईं।
सच पूछा जाए तो साहित्य की दुनिया इस प्रकार के विभेदीकरण का स्थान नहीं देती। लेकिन न तोसाहित्य और न साहित्यकार अपने पूर्वग्रहों से बच पाता है। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में निजी मान्यताओं, धारणाओं और मूल्यों को साहित्य तो जीवित रखता है। यदि हमें कहें तो किताबें निर्दोष नहीं होतीं तो गलत नहीं होगा। साहित्य का मकसद पाठकों को एक बेहतर मनुष्य बनाने और अपने अनुभवों को व्यापक करने में मदद करना है।
साहित्य की दुनिया पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि साहित्य भी कक्षा कक्षा होने वाले विभेद के फांक को बढ़ाने वाला ही होता है। इसमें शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है। यदि शिक्षक इस तरह की स्थिति में स्वविवेक का इस्तमाल नहीं करता तब बच्चों में स्वस्थ विचार नहीं पहुंच पाते।

अच्छा ही हुआ तुम मर गए


अच्छा हुआ
अच्छा ही हुआ तुम मर गए
समय रहते,
तुम वैसे भी जिंदा रह कर जी न पाते।
जब देखना पड़ता हजारों बच्चों की मौत,
इन्हीं आंखों से
जिन आंखों में सपने पीरोए थे,
जिन पांवों में जूते पहनाए थे
जिन पांवों से आंगन,
छत गुलजार थे
अब वे पांव,
कहीं मिट्टी में दफ़न हैं।
अच्छा ही हुआ
तुम मर गए समय रहते
वरना तुम सह नहीं पाते
और मरना पड़ता हर रोज
हर दिन देखना पड़ता महिलाओं की चीख,
आंसू के धार
तार तार
आबरू।
कितना अच्छा होता तुम आज होते
देखते अपने इन्हीं आंखों से
उन्हें जो पल पल
मर रही हैं मौत की डर से
जीने के भय से
मौन रह जाती हैं घरों की दहलीज़ पर
शहर के मुहाने पर।
तुम तो चले गए अच्छा ही हुआ
वरना तुम्हीं पर मढ़ा जाता सारा आरोप,
सारी गलतियां,
कितना अच्छा होता,
कर पाते हम विरोध,
उठा पाते आवाज,
उन के खिलाफ
जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता,
लाश किसकी थी,
कौन था दबा,
स्नेह के भार से
किसकी थी मंगनी,
किसके आंगन में उतरनी थी डोली।

Wednesday, December 24, 2014

दरख़्त


वो जो सामने दरख़्त है
बचपन लपेटे खड़े है
कहते हैं
दो तीन सौ साल से यूं ही आशीष दे रहा है
अब जटाएं भी जमीन दोस्त हो चुकी हैं।
धागों की मोटी चादर में लिपटा यह दरख़्त
उम्मीदों, आशाओं की डोर से बंधा
सदियों से खड़ा
देख रहा है
पीढि़यां कहां की कहां गुजर चुकीं
कहीं जो होंगे
किसी वीतान में।
जब भी गुजता हूं पास से दरख़्त के
मुझे पास बुलाता है
कानों को पास लाने को कहता है
कहता है,
तू अभी बच्चा है
नहीं समझेगा कहां चले गए तेरे बुढ़ पुरनिए,
बस यूं समझ ले,
कहीं तो हैं जो देख रहे हैं।
सुनने की कोशिश में ज़रा और पास आता हूं
उनकी जटाएं छूती हैं गालों को
सहलाती उनकी जटाएं
पुचकारती हैं
कहती हैं
मेरा बच्चा मैं हूं यहीं के यहीं
तुम्हारा दादू हूं
रहूंगा यहीं,
रक्षा करूंगा तुम्हारी
क्योंकि रहूंगा सदियों सदियों तलक।
आज भी आंखें मूंदता हूं
दादू की बलंद आवाज़ कानों में मिसरी के मानिंद घूलती हैं
बच्चों को बताता हूं
कभी चलना
मेरे गांव मिलाउंगा
अपने पुरखे दादू दरख़्त से
बच्चे कुछ मजाकिए अंदाज़ में सुनते
फिर गुम हो जाते हैं आभासीय दुनिया में।

Monday, December 22, 2014

शब्द अगर बोलते


अगर कभी शब्द बोल पाते तो जरूर अपने मन की बात बताते। अपने साथ होने वाले अत्याचार से भी हमें रू ब रू कराते। किस कदर हम सभ्य समाज के लोग इन शब्दों की दुनिया को ख़राब करने में जुटे हैं उसकी भी एक टीस हमारे कानों तक बजती। लकिन बेचारे बेजुबान शब्द कुछ नहीं कह पाते।
दरअसल शब्दों की दुनिया बड़ी निर्दोष और निरपेक्ष होती है। लेकिन जब वो बरतने वालों के हाथों में आती है तब उसकी प्रकृति प्रभावित होती है। शब्दों के जरिए ही हम हजारों हजार श्रोताओं और पाठकों तक पहंुच पाते हैं। पाठकों और श्रोताओं को अपने मुरीद बना पाते हैं। वहीं इन्हीं शब्दों के माध्यम से लाखों लाख श्रोताओं और पाठकों को अपने स्वार्थ के लिए भड़काते भी हैं।
शब्द अगर बोल पाते तो हमें बताते कि उनकी दुनिया कितनी नरम और नसीम की तरह फाहें वाली है।

Thursday, December 18, 2014

कविता कहानी से क्या होगा हासिल


रोज दिन हर पल नई नई कविताएं लिखी जा रही हैं। विश्व की तमाम भाषाओं में कविता लिखी जा रही है। जिस रफ्तार से कविताएं लिखी जा रही हैं क्या पाठक उसी तेजी से बढ़ रहे हैं। सवाल यह भी है कि क्या पाठकों को रोज लिखी जा रही कविताओं से कोई जीवन दृष्टि मिलती है? क्या कविता पढ़ने से कोई मूल्यपरक बदलाव घटित होता है? आदि ऐसे सवाल हैं जिन पर सोचने की आवश्यकता है।
कुछ भी लिखना कविता नहीं मानी जा सकती। कुछ माने गद्यपरक कविता या तुकमुक्त पंक्तियां कविता की श्रेणी में रखी जाएं। क्या कविता से जीवन-दर्शन प्रभावित होता है? क्या कविता हमें एक संवेदनशील मनुष्य बनने में मदद करती है? यदि ऐसा नहीं करती तो उस कविता का क्या लाभ।
कविता हो या लेख या फिर उपन्याय यदि कोई कलम चलाता है तो उससे पहले लिखने की आवश्यकता या उद्देश्य पर विचार करना चाहिए। वरना लिखे हुए शब्द की सत्ता एवं ताकत कमजोर होती है। अनावश्यक शब्द खरचना दरअसल शब्दों के साथ अन्याय है। अन्याय से कहीं बढ़कर शब्दों को जाया करना है।
लिखने से पहले लेखक को कई बार सोचना चाहिए कि क्रूा उनके लेखन से समाज पर कोई असर पढ़ने वाला है? क्या उस लेखन से किसी की जिंदगी बच सकती है? या उनके लेखन को किसी की अंधकारमय जीवन में थोड़ी सी रोशनी आ सकती है? यदि इन सवालों का उत्तर मिलता है तो जरूर लिखना चाहिए।
आज की तारीख में हजारों लाखों की तदाद में कविता, कहानी उपन्यास आदि साहित्य की तमाम विधाओं में लिखी जा रही हैं। इतनी लिखी जा रही हैं कि जिन्हें देख कर लगता है कि यह कहना कितना गलत है कि आज पाठक नहीं रहे। यदि पाठक नहीं हैं तो इतनी किताबें क्यों और कौन छाप रहा है। उससे बड़ा सवाल यह कि कोई लिख क्यों रहा है।
साइबर स्पेस और आभासीय दुनिया में इतनी सारी चीजें हैं कि उनमें से पढ़ने के लिए वक्त निकालना एक बहुत बड़ी समस्या है। यदि हमने समय निकाल भी लिया तो कैसे तय करें कि कौन सी किताब पढ़ने योग्य है। कविता पढ़ें या कहानी या फिर लंबी काया वाले किसी उपन्यास को हाथ लगाएं।

Wednesday, December 17, 2014

जब हमी नहीं होंगे तो किससे लड़ोगे


जब हमी नहीं होंगे
जब हमी नहीं होंगे तो किससे लड़ोगे,
हर सुबह,
चाय से लेकर नहाने तक,
आॅफिस पहंुच कर
किससे करोगे शिकायत,
कि दुध क्यों नहीं पीया
रोटी क्यों नहीं ले गए।
कल हमी नहीं हांेगे
बोलो किससे मुहब्बत करोगे
कौन तुम्हें सुबह उठाएगा,
करेगा तैयार आज की चुनौतियों से सामना करने के लिए।
जब हूं पास तो करते हो बेइंतहां नफरत
जब कल नहीं रहूंगा
तो बहाओगे न आंसू
ढर ढर,
जब कभी याद आउंगा किसी काम पर या बातों ही बातों में
क्रोगे याद
कित्ता परेशां करता था जब था।
आॅफिस के दोस्त
होंगे खुश चलो कुर्सी खाली हुई
फलां को बैठाएंगे,
अपन की जमेगी,
दो मिनट का मौन रख
फिर लग जाएंगे काम में,
कभी किसी फाईल में मिलूंगा दस्तख़त के मानिंद,
शायद कागजों में जिंदा मिलूंगा।
जब हूं तो
इत्ती नफरत
नजरें नहीं मिलाते
काटने को दौड़ते हो
मुहब्बत के नाम पर फरमान जारी करते हो
कल नहीं हुंगा तो
हिचकी के संग याद करोगे।

Tuesday, December 16, 2014

बहुभाषी कक्षा का चरित्र


कक्षा में विविध भाषा-भाषी समुदाय से बच्चे आते हैं। एक कक्षा में पूरा का पूरा समाज उपस्थिति होता है। भाषा की विविध छटाओं का निदर्शन हमें एक कक्षा मिलता है। यदि एक शिक्षक इस अवसर का लाभ भाषा शिक्षण में बतौर औजार का इस्तमाल करे तो वह कक्षा जीवंत हो सकती है।
अलग अलग भाषायी समुदाय से आने वाले बच्चों को स्थानीय मुहावरों, लोकोक्तियों से कक्षा की शुरुआत की जाए तो भाषा की छटाएं बड़ी सहजता से बच्चों तक पहुंच सकती हैं। भाषा शिक्षण की बुिनयादी चुनौतियों को कक्षा में उन्हीं के जरिए सुलझा सकते हैं।
अगर एक कक्षा में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, बंगाल आदि राज्यों के बच्चे हैं तो उस कक्षा में भाषा की बहुछटाओं के साथ होते हैं। यदि ऐसी कक्षा में शिक्षक बच्चों की भाषा के जरिए शिक्षण करे तो वह कक्षा बच्चों को लुभाने वाली होंगी।

Friday, December 5, 2014

निर्दोष नहीं होती किताबें


किताबें भावनाओं और विचारों को संप्रेषित करने के लिए औजार के तौर पर इस्तमाल की जाती रही हैं। किताबें खुद में विचारों और वादों को समोकर जीती हैं। क्योंकि किताबों की अपनी कोई पहचान नहीं होती। इसलिए उसकी पहचान लेखक के विचार-संसार से ही हो पाती है। विचार और वादों को संप्रेषित करने में किताबें महज माध्यम का काम करती हैं। लेखक किताब का इस्तमाल अपनी साध्य को हासिल करने के लिए करता है। वह किताब गद्य-पद्य की किसी भी विधा की हो सकती है। वैचारिक संवाद और विवाद भी पैदा करती है किताबें। लेकिन इन तमाम विवादों से किताबें निरपेक्ष होती हैं। क्योंकि किताबें स्वयं कुछ नहीं करातीं बल्कि लेखक के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली होती है। पिछले दिनों दीनानाथ बत्रा के बयान पर विवाद उठा। दीनानाथ बत्रा ने अपनी किताब में जिस तरह से विवेकानंद, गांधी, रामकृष्ण को कोट किया है वे कोट एकबारगी स्वयं के लिखे लगती हैं। क्योंकि कहीं भी स्पष्ट और प्रमाणिक संदर्भ नहीं दिए गए हैं ताकि उसकी जांच की जा सके। किताबें, पाठ्यपुस्तक और पाठ्यक्रम दरअसल लंबे समय से राजनीतिक धड़ों की गलियारों में चहलकदमी मचाती रही हैं। जिस भी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली सरकार सत्ता में आई है उसने किताब और पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या के साथ अपनी मनमानी की है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में धर्म, सूर्यनमस्कार, आदि खास वैचारिक कथ्यों को बच्चों के बस्तों तक पहंुचाया गया है। पाठ्यपुस्तकों में लालू प्रसाद, मायावती, वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी आदि की जीवनियों को शामिल की गई हैं। प्रेमचंद की कहानी को हाशिए पर डाल कर ज्यों मंेहंदी के रंग को स्थान दिया गया था। शिक्षा और शिक्षण से जुड़े व्यक्तियों के लिए इस तरह के बदलाव याद होंगे। यह भी याद होगा कि किस तरह से 1977, 1986, 2000 और 2005 में पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। जब जब जिस जिस विचारधारा और राजनीतिक दल सत्ता में आए हैं उन्होंने मानव संसाधन मंत्रालय का इस्तमाल अपने वैचारिक हित साधने में किया है। ऐसे में को बड़ कहत छोट अपराधु कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...