Wednesday, March 30, 2016

लेंस की नजर में होंगी स्कूली कक्षाएं



कौशलेंद्र प्रपन्न

दिल्ली के शिक्षा मंत्री ने अपने बजट भाषण में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अपनी और अपने मंत्रालय की चिंता एवं पहलकदमियों से अवगत कराया। उनका कहना था कि दिल्ली मंे शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली के सरकारी स्कूली कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। साथ ही शिक्षकों की व्यवसायिक दक्षता को बढ़ाने के लिए उन्हें बेहतरीन प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा। मंत्री जी ने यह भी कहा कि शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए हाॅर्वर्ड, कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों मंे  भेजा जाएगा। साधुवाद मंत्री जी, कम से कम किसी ने तो शिक्षकों की व्यावसायिक दक्षता विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया बल्कि उसके लिए बजट भी मुहैया कराया। प्रशिक्षण कौशल और उसकी गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सरकार ने 9.4 फीसदी से बढ़ाकर राशि को 102 करोड़ कर दिया है। स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए 9,623 शिक्षकों की नियुक्ति की घोषणा भी की गई है। यह भी मौजू है कि दिल्ली में स्कूली स्तर पर वोकेशनल यानी व्यावसायिक प्रशिक्षण शिक्षण को ध्यान में रखते हुए रोहिणी और धीरपुर मंे संस्थान खोले जाएंगे। यह कार्य अंबेडकर विश्वविद्यालय के परिसरों का विस्तार देकर भी किया जाएगा। पिछले साल भी दिल्ली सरकार ने शिक्षा को ख़ासा महत्व देते हुए बजट में काफी उत्साहजनक बढ़ोत्तरी की थी। संकेत अच्छे हैं।
 इस बजट मंे शिक्षा की हालत सुधारने के लिए 10,690 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। अब हमंे विस्तार इस बजट के धागों,बुनावटों को ,खोलने-समझने की जरूरत हैं। सरकार शिक्षा मंत्रालय दिल्ली सरकार की घोषणा है कि दिल्ली के तमाम सरकारी स्कूली कक्षाओं मंे सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। इस काम के लिए बजट मंे अलग से सौ करोड़ रुपए का प्रावधान है। स्कूली कक्षाओं मंे सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने को लेकर प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिता रामपाल ने अपनी प्रतिक्रिया मंे कहा कि क्या आपकों शिक्षकों की प्रतिबद्धता पर विश्वास नहीं है? क्या आप मान कर चलते हैं कि शिक्षक नहीं पढ़ाते,नकारे हैं आदि। इस परिघटना को प्रकारांतर से देखने और शैक्षिक विमर्श को समझने की आवश्यकता है। क्या शिक्षा विमर्श और शिक्षण एक तकनीकी प्रक्रिया है? क्या शिक्षा किसी बनी बनाई इनपुट आउट सिद्धांत पर चला करती है? क्या शिक्षकों के श्रम को आंकड़ों और चंद छवियों में कैद कर समझा जाए सकता है। वैसे भी पहले क्या कम शिक्षकों की छवि को ख़राब करने और गैर जिम्मदार, नकारा आदि साबित करने की कोशिश होती रही है जो अब कक्षाओं मंे सीसीटीवी लगाने की कवायद की जा रही है। शिक्षण एक सृजनात्मक और कौशलों भरा कार्य है। इसमें पल पल की ख़बर लेते तर्ज पर जब शिक्षकों की हर गतिविधि को बतौर फुटेज तैयार किया जाएगा तब संभव है वह शिक्षक बाहर नहीं आ पाएगा जिसका सपना गिजू भाई, गांधी जी, टैगोर आदि ने देखी थी। कक्षा मंे कई बार पूर्व निर्धारित, पूर्व नियोजित तय पाठ्यचर्याओं से बाहर भी निकलना पड़ता है। कई बार अपनी पूरी तैयारी भी एक सिरे से ख़रिज कर नई चुनौतियांे और उत्सुकता को लेकर आगे बढ़ना होता है। वो शिक्षक जो अपनी पूर्व निर्धारित पाठ्ययोजनाओं पर शिक्षण करते हैं और वे जो पूर्व निर्धारित मंे भी समयानुसार एवं संदर्भानुसार रद्दो बदल के लिए तैयार होते हैं वह कक्षा-कक्षा ज्यादा जीवंत और प्रभावकारी मानी गई है। तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि यदि शिक्षक अपने कर्म के प्रति ईमानदार है तो उसे डरने की क्या आवश्यकता है। जैसे वो अभी पढ़ाता है वैसे ही तब भी पढ़ाए। लेकिन इस तर्क मंे वह शैक्षिक विमर्श और दर्शन शामिल है जहां स्वीकारा गया है कि कक्षा में बच्चा और शिक्षक सहज और स्वीकार्य स्वभाव से हों। क्या जब हर वक्त एक लेंस आपको घूरती रहेगी तब एक बच्चा या शिक्षक सहज तरीके से शिक्षण व बातचीत कर पाएंगे। अपने शिक्षण के तजर्बे के आधार पर कह सकता हूं कि दसवीं व 11 वीं में पढ़ने वाले बच्चे/बच्चियों के पास काफी उत्सुकताएं और सवाल होते हैं जिसका जवाब उन्हें घर में नहीं मिलता। समाज उसके उत्तर देने में दिलचस्पी नहीं दिखाता। यदि दिखाता भी है तो वहां एक बाजार है। बाजार की अपनी प्रकृति होती है। वो पीले जिल्दों वाली किताबों से ज्ञान बढ़ाता है। ऐसे में बच्चों की जिज्ञासाओं को शंात करने वाला यदि कोई साधन है तो वह शिक्षक है। मेरे पास कई बार बच्चे अपनी निजी बेचैनीयत को लेकर बात करने और राय लेने आया करते थे। जब उनकी उत्सुकता शांत हो जाती वे मन लगा कर पढ़ते थे। लेकिन क्या वह अनौपचारिक बताचीत की संभावना लेंस की मौजूदगी मंे बचती है? शिक्षा मंत्रायल की मनसा भी साफ है कि इंटरनेट के जरिए अधिकरियों,शिक्षामंत्री और अभिभावकों को उपलब्ध कराया जाएगा। इन फुटेज का भविष्य मंे किस किस कोणों से विश्लेषण और रिपोर्ट तैयार की जाएंगी इसका अनुमान मात्र लगाया जा सकता है।
यह तो ठीक है कि शिक्षकों को एक बार सेवापूर्व प्रशिक्षण प्रदान कर लगभग उन्हें छोड़ ही दिया जाता है। जबकि शिक्षा मंे कुछ न कुछ नए नए शोध,विधियों, प्रविधियों पर होते रहते हैं जिनसे शिक्षक अपने शिक्षण कौशल को मांज सकते हैं। लेकिन इसकी उम्मीद बहुत क्षीण नजर आती है। यूं तो अंतःसेवाकालीन शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान भी हैं जहां विभिन्न बैनरांे के तहत प्रशिक्षण कार्यशालाएं होती रहती हैं। मसलन सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान आदि। यदि गौर से देखें और कार्यशाला की योजना बनाने वालों और इनमें हिस्सा लेने वालों से पूछें तो बेहद निराशा होती है। क्योंकि मार्च से पहले कई सारे सेमिनार करा लेने हैं। आंकड़े दुरुस्त रखने हैं तो कार्यशालाएं मई जून और दिसंबर, जनवरी की छुट्टियों मंे आयोजित होती हैं। वहां प्रशिक्षण देने वाले को एक दिन पूर्व तक नहंी मालूम होता कि किस विषय पर उसे बोलना है। कहने को तो इसकी पूरी योजना तैयार होती है लेकिन समुचित तरीके से उसका संप्रेषण नहीं हो पाता। उस कार्यशाला से विभाग और शिक्षकों की क्या अपेक्षा है इसपर गौर नहीं होता बल्कि कार्यशालाएं हुईं यह दिखाने की जल्दबाजी ज्यादा होती है। स्वयं का अनुभव भी यही बताता है कि जब ऐसे कार्यशालाओं मंे जाने का अवसर मिला तो एक मोटेतौर पर विषय बता दिया जाता है। प्रतिभागी भी तैयार होकर आते हैं कि सिर्फ समय काटना है। आदेश का पालन होना चाहिए। कई प्रतिभागियों ने तो स्वीकारा भी कि आप ही हो जो खून पसीना बहा कर पढ़ा रहे हैं वरना तो लोग अपनी कथा कहानी सुना कर चले जाते हैं। हमें भी कोई उम्मीद नहीं रहती। लेकिन अनुभव बताते हंै कि यदि आपका कंटेंट रोचक और उनकी अपेक्षाओं के अनुकूल हैं तो वे रूचि लेकर सहभागी भी बनते हैं। उनकी आंखों में आंसू भी होते हैं कि हमंे ऐसे शिक्षक नहीं मिले जो इतनी बारीक और रूचिपूर्ण तरीके से पढ़ाए। ऐसे शिक्षकों की संख्या बेशक कम हो लेकिन अभी है ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो पूरे मनोयोग से पढ़ते और पढ़ाने में विश्वास रखते हैं। जिला मंडलीय प्रशिक्षण संस्थानों मंे शिक्षण प्रशिक्षण कार्य हो रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि उन्हें और कैसे सार्थक बनाया जाए और बच्चे सीखे हुए कौशलों मंे कक्षा तक ले जा सकें।
शिक्षा मंत्री जी ने बजट में शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए अलग से बजट का प्रावधान किया है। देखना यह है कि जिन शिक्षकों को हाॅर्वर्ड, कैंब्रिज आदि विश्वविद्यालयों मंे भेजा जाएगा उसके मापदंड़ क्या होंगे? यानी चयन प्रक्रिया क्या होगी? क्या वहां सीखी गई तालीम को शिक्षक अपने कक्षाओं में संप्रेषित कर पा रहा है या नहीं इसे जांचने के लिए क्या सरकार ने कोई ऐसी संरचना बनाने की योजना बनाई है। यदि नहीं तो शिक्षा मंत्री जी को इस पर भी काम करने की आवश्यकता है। चयन समिति की बिंदुओं पर शिक्षकों का चयन करेगी आदि सवालों पर शिक्षा विभाग को रणनीति बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। क्योंकि शिक्षा मंत्री जी ने बजटीय भाषण में अपनी ंिचंता शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर प्रकट की है। आज की तारीख मंे बच्चे शिक्षा तो हासिल कर रहे हैं लेकिन वह दरअसल शिक्षा नहीं बल्कि कुछ कौशलों को प्राप्त कर रहे हैं। जीवन और शिक्षा के बीच की खाई को कैसे पाटें इसकी समझ कम से कम हमारी आज की शिक्षा प्रदान नहीं करती। इसी खाई को पाटने के लिए संभव है व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया गया है। बजट में ख़ासकर 152 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। व्यावसायिक शिक्षा की कक्षाएं स्कूली स्तर पर ही दी जाएंगी। दूसरे शब्दों मंे यह मान लिया गया कि सभी बच्चे उच्च शिक्षा तक न तो जाएंगे और न ही उनकी परिस्थितियां इसकी इजाजत ही देती हैं। इसलिए उन्हें बीच राह में ही रोजगार के औजार दे दिए जाएं ताकि अपने जीवन का भरण पोषण कर सकें। प्रसिद्ध शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल का मानना है कि सरकार दरअसल अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है। वह सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा हासिल ही नहीं कराना चाहती। वह चाहती है कि जो पांचवीं के बाद काम पर लग जाएं। और इस दिशा में सरकार तेजी से आगे बढ़ रही है। प्रो सद्गोपाल ने हाल ही मंे एक गोष्ठी में कहा था कि अस्सी और नब्बे के दशक में जब सरकारें लगातार शिक्षा और सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों को नकारा और बेकार साबित करने में लगी थीं तब यही संस्थान, शिक्षक खामोश बैठे थे जिसका खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। दूसरे शब्दों मंे कहंे तो शिक्षा का आधिकार अधिनियम लागू हुए आज तकरीबन पांच वर्ष पूरे हो गए। क्या वजह है कि अभी भी सरकारी आंकड़ों मंे महज अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं और अन्य रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या तकरीबन पांच करोड़ तक जाता है। व्यावसायिक शिक्षा दी जाए इससे किसे गुरेज हो सकता है। गांधी जी ने भी 1932 में वर्धा शिक्षा सम्मेलन में इसकी वकालत की थी कि हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा मिले। वहां हर हाथ का काम से प्रकारांतर से व्यावसायिक शिक्षा ही थी।



Saturday, March 26, 2016

सेमिनारांे और गोष्ठियों का महीना मार्च



कौशलेंद्र प्रपन्न
फरवरी और मार्च ख़ासकर सेमिनारांे और गोष्ठियों का महीना होता है। यूं तो आप बजट का भी कह सकते हैं। कहने को तो बसंत और होली की भी कहा जा सकता है। लेकिन अकादमिक क्षेत्र मंे बात की जाए तो यह एक अकादमिक सत्र का अंतिम माह होता है। जो भी आपको बजट मिले थे उसे 31 मार्च से पहले खत्म करने होते हैं। यदि आपने खर्च नहीं किए तो वो पैसे वापस लौटाने होते हैं यह तो आप सभी जानते हैं। केंद्र को राज्य सरकारें भी मोटी राशि लौटाती रही हैं और उसे सुनने को मिलता है कि आप लोग काम नहीं करते। काम करते तो पैसे कैसे बचते। यह एक अजीब सा खेल है। जो लोग संस्थानों व दफ्तरांे में काम करते हैं वो इसे बेहतर समझ सकते हैं। वर्तमान में आपने कितना खर्च किया इसपर आगामी सत्र का बजट निर्भर करता है।
यह जानना भी बड़ा मौजू है कि आपको पैसे कब और कितने मिलते हैं। कल्पना कर सकते हैं कि जब आपको पैसे जनवरी के अंत व फरवरी के आखि़र में मिलेंगे तो उसे खर्च करना एक अगल सिर दर्द है। यदि आपके पास योजना नहीं है। कार्यक्रम की रूपरेखा नहीं है तो आप क्या करेंगे। आपको न चाहते हुए भी पैसे वापस करने होते हैं। उसपर आप पर आरोप लगता है कि आप तो मिले हुए पैसे ही खर्च नहीं कर पाते। आप काम ही करना नहीं चाहते आदि आदि। क्या यही सच है इन बजटों का? क्या वास्तव में हम इतने नकारे हो गए हैं कि कार्यक्रम की रूपरेखा और येाजनाएं नहंी बनाते। बनाते हैं पूरा बनाते हैं इस तोहमत से बचने के लिए विभागाध्यक्ष, संस्था प्रमुख आनन फानन में कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर उसे अमलीजामा भी पहनाते हैं। कई तो ऐसे घाघ होते हैं कि देखते ही देखते पैसे किन किन प्रोग्रामों में खर्चा दिखा देते हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
बहरहाल काॅलेज, विश्वविद्यालयों मंे फरवरी से मार्च के बीच लगातार, एक के बाद एक सेमिनार आयोजित होते हैं। विभिन्न माध्यमों का इस्तमाल कर आमंत्रण भी भेज देते हैं। और वैसे ही शोध पत्रों की बारिश भी होने लगती है। नाम रखा जाता है नेशनल सेमिनार। इन सेमिनारों में शोध पत्रों के पाठ भी धड़ा धड़ होते हैं। साथ ही साथ पर्चा पाठकों को एक प्रमाण पत्र भी थमा दिया जाता है जिसे वो यूजीसी के नियमानुसार अंक भी हासिल कर लेता है। सच पूछा जाए तो पर्चे अंकीय बढ़ोत्तरी के मकसद से ज्यादा पढ़े हैं।
पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान, शिक्षा विभाग में आयोजित टीचर एजुकेशन एंड चैलेंजेज पर नेशनल सेमिनार था। उसमें पर्चा पढ़ने वालों की पठनीय कौशल का प्रदर्शन भी देखने को मिला। कुछ ने तो सिर्फ पीपीटी जो उन्होंने बनाया था उसका वाचन कर दिया। यदि पीपीटी का मकसद महज वाचन है तो यहां हमें सोचने की आवश्यकता है। दरअसल पीपीटी आदि सहायक सामग्री तो हो सकती हैं मुख्य नहीं हो सकतीं। मुख्य तो वक्ता ही होता है। एक प्रस्तोता की भूमिका और वाचक की भूमिका में बुनियादी अंतर है। लेकिन शोधकर्ताओं ने जिस शिद्दत से पीपीटी बनाने मंे अपनी शक्ति लगाई यदि उसका एक हिस्सा भी प्रस्तुतिकरण पर दिए होते तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाता। वहीं हिन्दी वर्तनी की मानकता और देवनागरी लिपि विषय पर श्रीराम काॅलेज आफ काॅमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय में तीन दिवसीय सेमिनार में हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की प्राथमिक कक्षायी चुनौतियां विषय पर बोलने का अवसर मिला। इस तरह की बेहद शुष्क और व्याकरणिक विषय पर कम ही सेमिनार होते हैं। वहां मालूम चला कि इस विषय पर 1986 में सेमिनार हुआ था और 2016 में हो रहा है।
विषय के चुनाव और विषय के वक्ताओं से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि विषय पर विभाग व संस्था प्रमुख का खुद का क्या रूख़ है। निश्चित ही विभागाध्यक्ष अपने सहयोगियों से विमर्श करने के बाद ही विषय तय किया करते हैं। कइ बार विषय सुन और पढ़कर सोचने पर विवश हुआ जा सकता है कि विषय के चयन पर पर्याप्त मंथन नहीं किया गया। इन दिनों सेमिनार के कुछ प्रचलित विषय हैं मसलन मीडिया और समाज, मीडिया का समाज पर प्रभाव, छायावादी कविता और वर्तमान कविता, आज की कहानियों मंे स्त्री विमर्श आदि। क्या हम इन विषयों के साथ ही वर्तमान चुनौतियांे से रू ब रू होते समाज को नहीं जोड़ सकते। यदि हिन्दी व अन्य विषयों के विमर्श विषय पर नजर डालें तो लगता है इनपर पूर्व में भी कइ्र्र गोष्ठियां और पर्चे लिखे और पढ़े जा चुके हैं। हालांकि यह कोई कसौटी नहीं है विषय के चयन के दौरान। लेकिन इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जिस विषय को सेमिनार के लिए चुना जा रहा है उसमंे देश में कितने आधिकारिक विद्वान हैं जो उसपर रोशनी डाल सकते हैं। क्योंकि शोध पत्र के साथ ही उस सत्र की अध्यक्षता भी तो करने वाला चाहिए। यह अलग बात है कि आज हर तथाकथित अध्यक्ष साहब हर विषय के सत्र की अध्यक्षता करने की पात्रता रखते हैं।
वर्तमान स्थिति में शिक्षा व साहित्य किस प्रकार हमारे समाज और युवाओं को रास्ता दिखा सकती है किस स्तर तक साहित्य एवं शिक्षा समाज का मार्गदर्शन कर सकती है इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है। विषय के चुनाव के दौरान विषय से समाज यानी कम से कम पाठक वर्ग को किस स्तर तक सृजनशील बनाने मंे मदद कर सकता है आदि पर भी चिंतन की आवश्यकता है। सवाल उठाया जा सकता है कि क्या साहित्य मंे महज प्रयोगवाद,छायावाद, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, उत्तर आधुनिकतावाद आदि पर भी विमर्श करने से साहित्य के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाएगी। क्या साहित्य महज कविता,कहानी,उपन्यास आदि के इर्द गिर्द ही सिमट जाता है? या साहित्य इससे आगे की यात्रा भी तय करता है।
वापस अपने विषय पर लौटें तो यही कहा जा सकता है कि जनवरी और फरवरी और मार्च माह में विभिन्न विषयों पर सेमिनार आयोजित होते हैं। हमें यह भी देखना और समझना होगा कि इन सेमिनारों का कितना इस्तमाल अकादमिक गुणवत्ता के लिए होता है। क्या महज आयोजन तक ही सीमित रहे या उससे आयोजक विभाग और संस्था भी लाभान्वित हुई। क्योंकि, अकादमिक विभागों की स्वयं की सृजनात्मकता और दक्षता वृद्धि के अवसर मिलने चाहिए। इस लिहाज से विचार करें तो हर सेमिनार के बाद विभाग की क्या समझ विकसति हुइ्र्र और उन प्रस्तुत पर्चों का इस्तमाल भविष्य में कैसे होने वाला है, इसकी भी योजना बनानी चाहिए। ऐसा न हो कि अन्य आयोजनों की तरह ही यह भी सिर्फ उत्सव और मिलन बन कर रह जाए।


Tuesday, March 15, 2016

हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की प्राथमिक कक्षायी चुनौतियां


हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की वर्तमान स्थिति को बिना समझे हम हिन्दी शिक्षा कैसी दे रहे है इसका इल्म नहीं होगा। हमें इस बात की भी तहकीकात करनी होगी कि हिन्दी के विकास और संवर्धन में हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की क्या स्थिति है। अमूमन हम यह मान लेते हैं कि कविता,कहानी,उपन्यास आदि लेखन से हिन्दी शिक्षा-शिक्षण के उद्देश्यों को हासिल किया जा सकता है यदि ऐसा है तो संभव है कि हम एक बड़ी भूल कर रहे हैं। क्योंकि उक्त विधाओं में गति और प्रसिद्धी लेखकीय क्षमता और अभ्यास से अख़्तीयार की जा सकती है किन्तु बच्चे को हिन्दी पढ़ने-लिखने में यदि परेशानी का सामना करना पड़ता है तो वहां कविता,कहानी आदि उसकी मदद नहीं करतीं। व्याकरण और मानकीकृत वर्तनियों की कसौटी पर बच्चे की हिन्दी की समझ जांची परखी जाती है। यहां समझने की आवश्यकता यह है कि कक्षा में हिन्दी की शिक्षा कैसी दी जा रही है। उदाहरण के तौर पर 2006 से पूर्व 10 वीं और 12 वीं की हिन्दी के प्रश्न पत्रों के सवालों की प्रकृकि को समझने की कोशिश करें तो एक चीज मिलेगी कि तब हमारा ध्यान भाषायी कौशलों का विकास करना था। बच्चे अपठित गद्यांश को पढ़कर जवाब दिया करते थे प्रकारांतर से हम पढ़ने और समझने की दक्षता को परखते थे। दूसरे शब्दों मंे अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास हुआ या नहीं इसकी भी तस्दीक किया करते थे। लेकिन 2006 के बाद सीबीएससी ने प्रश्नों के स्वरूप में आमूल चूल परिवर्तन किया। उसके पीछे तर्क यह दिया गया कि बच्चे काफी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। बच्चों के बोझ को कम करेन के लिए सवालों की प्रकृति में बदलाव जरूरी है। .....दसवीं और 12 वीं स्तर पर न केवल हिन्दी की बल्कि तमाम भाषाओं और विषयों को बहुवैकल्पिक सवालों के नए क्लेवर में प्रस्तुत किया गया। शिक्षाविद्यों और भाषाविद्ों की राय में यह प्रकारांतर से हिन्दी और अन्य भाषाओं के साथ अन्याय था। वह इस रूप में कि पहले जिस स्तर की भाषायी पाठ्यपुस्तकें बनाईं गई और कथानक चुने गए उससे हमारे अपेक्षा थी कि इसे पढ़ने के बाद बच्चों मंे कम से कम भाषायी चार दक्षता आ जाएगी। इसी को ध्यान में रखते हुए पाठ्यपुस्तकों में पाठों की सृजना होती थीं। पाठों के निर्माण में ख़ासतौर से ध्यान रखा जाता था कि बच्चों को पाठ पढ़ने में आनंद आए न कि वह बोझ के मानिंद लगे। इसी के मद्देनजर कविता,कहानी,यात्रा संस्मरण आदि विधाओं की रचनाओं को शामिल किया जाता था। उन्हीं पाठों के आधार पर सवालों की रचना की जाती थी। बच्चों से अपने शब्दों में व्याख्यायित करने की मांग भी की जाती थी। बच्चे हर संभव अपने भाव संसार को प्रकट भी कर पाते थे। निबंध,लेख आदि याद करने और उन्हें सुनाने और लिखने का अभ्यास भी किया करते थे उससे उन्हें अपनी तत् भाषा की लेखन,वाचन,पठन आदि कौशलों से रू ब रू होने का मौका मिलता था। यह आस्वाद बच्चों से बहुवैकल्पिक प्रश्न पत्रों से जरिए छीन लिया गया। अफसोस तो इस बात की है कि तमाम शिक्षण संस्थान,विश्वविद्यालय इस बड़े बदलाव पर मौन थे। इसका ख़ामियाज़ा तो हमारे युवा वर्ग को ही भुगतना होगा।
हिन्दी की वर्तनियों और शिक्षण में शिक्षकों को काफी दिक्कतें आती हैं। मैं यहां प्राथमिक कक्षाओं में हिन्दी शि़क्षा और शिक्षण की बात करूंगा और शिक्षकों को आने वाली परेशानियों से निकालने के लिए क्या तरीके या विधि हो इस ओर आप सभी से रोशनी की अपेक्षा करता हूं। पहले तो सरकारी स्कूलों मंे आने वाले बच्चों के पास भाषा के नाम पर मातृभाषा और स्थानीय भाषाएं होती हैं जिसे थोड़ी देर के लिए अनगढ़ मान लें तो बात स्पष्ट करने में आसानी होगी। एक ही शब्द को विभिन्न बोलियों,वाणियों मंे कई तरह से बोले जाते हैं। बच्चे वही भाषा लेकर कक्षा की दुनिया में प्रवेश करते हैं। मसलन-

मानक भाषायी शब्द स्थानीय बोली व भाषायी शब्द
कुछ कछु कुछो, कछुओ
सिर माथा, कपार,मुड़ी,
पीड़ा व दर्द पेराना, बथना, ऐठाना
नजदीक व पास नियरे, फटले बा
यहां वहां इहां, उहां इहैं उहैं
पांव व पैर गोड़, टांग, टंगरी
अच्छा निमन,नीके,बढ़ीमा आदि

अब सवाल यह उठता है कि भाषाविज्ञान की दृष्टि से देखें तो इन शब्दों को नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन हिन्दी की मानकीकृत पैमाने पर तो हमें बच्चों की इस शब्दावली को सुधारने पड़ेंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि शिक्षाविद् कहेंगे कि बच्चे की मातृभाषा को दबाने की बजाए उसे जिंदा रखने और उसका सम्मान करना चाहिए। संघर्ष यहां पैदा होता है कि यदि कक्षा में शिक्षक मानक हिन्दी और वर्तनी पर जोर दे तो मातृभाषा और बोलियों के साथ शैक्षिक दर्शन की दृष्टि से न्याय नहीं होगा। ऐसी स्थिति में प्राथमिक शिक्षक क्या करे ? किस निर्देश का पालन करे आदि शैक्षिक सवाल हैं जिनपर हमें विमर्श करना होगा। हमें इस ओर भी विचार करना होगा कि हिन्दी शिक्षण के दौरान हमारी शैक्षिक नजरिया क्या हो।
प्राथमिक कक्षाओं में हिन्दी शिक्षा और शिक्षण की चुनौतियां उच्च स्तरीय कक्षायी स्थिति से काफी भिन्न है। वह इस रूप में कि प्राथमिक कक्षाओं मंे स्वयं शिक्षकों को वर्तनी, वर्णमालाओं और मानकीकरण की समस्या से गुजरना पड़ता है। गौरतलब है कि हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति में हिन्दी का शिक्षण जिस गैर जिम्मेदाराना तरीके से हो रहा है उसका परिणाम हमें उच्च शिक्षा में भी दिखाई देता है। जिस किस्म की वर्तनी संबंधी अशुद्धियां शिक्षक लिखने में बोलने में करते हैं वह यह साबित करने के लिए काफी है कि उन्हें प्राथमिक कक्षाओं मंे शिक्षकों ने दुरुस्त नहीं किया। इस तरह के उदाहरण मुझे पिछले पंद्रह सालों में शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओ में देखने को मिला। लेखन के स्तर पर वर्तनी की गड़बडि़यां तो थी ही साथ ही बोलने के स्तर पर भी शिक्षकों में हिन्दी की समझ से वास्ता पड़ा।
जहां बच्चे लिखने मंे नहीं को नही, मैं को मै, हैं को है आदि लिखते हैं वहीं किया को करा आदि भी लिखते बोलते पाया है। इस तरह की अशुद्धियों से मेरा साबका न केवल प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों की लेखनी से हुआ बल्कि बी एड, एम ए आदि की काॅपियां जांचते वक्त भी रू ब रू हुआ। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि इन तरह की गलतियों की ओर शिक्षकों ने कभी ध्या नही नहीं दिया। यही वजह है कि आज छात्र एम ए करने के बाद भी बारीक सी दिखाई देने वाली वर्तनी की गलतियां करते हैं। कायदे से इस ओर प्राथमिक कक्षाओं मंे ध्यान दिया गया होता तो संभव है भावी जीवन में इस प्रकार की गलती नहीं होती। किन्तु यहां दिक्कत यह भी है कि शिक्षा में एक बड़ा धड़ा सक्रियता से स्वीकारता है कि इस प्रकार की गलतियों को नजरअंदाज कर दिया जाए। क्यांेकि यह बहुत बड़ी गलती नहीं है। उत्तर पुस्तिकाओं में भाव और अभिव्यक्ति को देखा जांचा जाए। यह किस ओर संकेत करता है।
जब हम मानक वर्तनी और देवनागरी लिपि की वकालत करते हैं तब हमें इस बात का इल्म भी होना चाहिए कि क्या हम केवल मानकता की बात कर रहे हैं या मातृभाषा को दबाने की परोक्षतः प्रयास कर रहे हैं। क्यांेकि कई बार शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं में इस प्रकार के सवाल व शिक्षकीय दिक्कतों का सामना करना पड़ा है कि यदि बच्चा भोजपुरी,मागधी,बझिका, अंगिका,बंगाली, हरियाणवी आदि से प्रभावित भाषा का इस्तमाल करता है तो हम उसे टोकें और उसे मानक हिन्दी की ओर प्रेरित करें। तो क्या हम उन बच्चों की मातृभाषा से उन्हें विलगा नहीं रहे हैं? और यदि उसे सही मान कर उनके लिखे व बोले शब्दों को स्व्ीकार कर लें तो एक दूसरा सवाल उठता है बच्चे को मानक भाषा आनी चाहिए। ऐसी स्थिति में शिक्षक कौन सा रास्ता अपनाए।  यहां शिक्षा शास्त्र हमंे जो रोशनी दिखाता है उसे हो सकता है हिन्दी के गैर शैक्षिक धारा के लोग स्वीकार न करें। एनसीईआरटी आदि संस्थाएं 2005 के बाद राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के बाद बनी पाठ्यपुस्तकों में बड़ी शिद्दत से अभिव्यक्ति पर जोर देती नजर आती है। साथ ही साथ बच्चों के भाषायी मूल्यांकन में वर्तनी आदि की गलतियों को नजरअंदाज कर कंटेंट और उसकी प्रस्तुति को आंकने की सिफारिश करता है।

विस्थापन की जिंदगी


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों बिहार के कुछ गांवों में जाने का मौका मिला। मैं तकरीबन बीस साल के बाद उस गांव में गया था। मेरे मन मस्तिष्क में उसी गांव की छवि बैठी थी जब मैं नब्बे के दशक में गया था। तब गांव में प्रवेश के पहले दो बड़े बड़े तालाब होते थे। वहीं गांव के दक्षिण भर तीन तालाब थे। उनमें पानी भी खूब रहता था। जब जाया करता था तब नहाना और खेल भी हुआ करता था। हां इस बरस तो गांव गया तो पहले दो तालाब नजर नहीं आए। तालाब की जगह पर एक पंक्ति में दुकानें नजर आईं। जब पूरा गांव चक्कर काट आया तो उन तीन तालाबों में से दो सूखकर समतल हो चुके थे। उस जमीन पर मजार की दीवार खड़ी थी और पास मंे ही मंदिर के चबूतरे नजर आए। एक जो तालाब सा दिखाई दे रहा था उसमें कूड़े, गांव के गंदे पानी और तमाम गंदगियों के अंबार में बजबजा रहा था।
हमारे गांव न केवल बदल गए, बल्कि डिजिटल भी हो गए। यह वहां पर खुली दुकानों को देख कर अनुमान लगाना कठिन नहीं था। लैपटाॅप लेकर बैठे गांव के बच्चे गाने- फिल्में मोबाइल में डाउन लोड करने के काम में जुटे मिले। यहां भी तो एक किस्म का बदलाव ही था। जहां कभी गांव में ढिबरी में पिताजी और चाचा ने पढ़ाई की। उसी गांव में इंवटर पर फ्रीज,पंखे,एलसीडी बड़ी स्क्रीन वाली टीवी लोगों के घरों मंे मिलीं। बदलाव तो था ही। बदलाव यह भी था कि खेतों की जगहें सिमट गई थीं। खेत काट कर प्लाट में तब्दील हो चुके थे। खेती की जगह पर दुकानें शोभा बढ़ा रही थीं।
कौन कहता है गांव पीछे हैं। गांव के लोगों के पास सुविधा और सुख के साधन नहीं हैं। अब के गांव कई शहरों और कस्बों को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं। वहां के बच्चों के पास आज क्या नहीं है। महंगी गाड़ी,स्मार्ट फोन,सुंदर सुसज्जित कमरों वालं घर सब कुछ तो है। लेकिन यहां यह देखना जरूरी है कि उनके पास महंगी गाडि़यां, मोबाइल आदि कहां से आईं। गाडि़यों की अपनी कहानी है। गांव से यदि हाईवे निकल रही है, आधुनिकीकरण हो रहा है आदि तो सरकार ने उनकी जमीनें लेकर उन्हें मुआवजा दिया। बच्चों ने उन पैसों से गाडि़यां खरीदीं। शहर में मकान खरीदे। और तो और अमीरी के राह के अनवेशी हमारी युवा पीढ़ी ने अपने ही गांवों व शहरों में आ कर प्रोपर्टी डिलर के काम में लग गए। बजाए कि उन पैसों को बेहतर जगह लगाते उन्होंने अपने मां-बाप की भी अनसुनी की और आज महंगी गाडि़यों मंे फर्र फर्र दौड़ रहे हैं।
मेरे गांव में भी बोलेरो, इनोवा, फोरचूनर, डस्टर जैसी महंगी गाडि़यां सड़कों पर भागती नजर आईं। पूछने पर पता चला कि इतनी महंगी गाड़ी कहां से आई। तो जवाब था खेत सरकार ने ले लिए और मोटी रकम दी जिससे गाडि़यां आई हैं। मुझे समझने और इसे स्वीकारने मंे थोड़़ा समय लगा कि लोगों ने पैसों का इस्तमाल किस रूप में किया। हालांकि सुख भोगने और गाडि़यों पर घूमने का शौक सिर्फ शहरातियों का ही नहीं है बल्कि उस पर गांवों का भी पूरा हक है। लेकिन यह कैसा आनंद व सुख जो खेतों को बेच व पैत्रिक जायदाद को बेच कर मिली रकम को इस तरह से प्रयोग किया जाए।
गांवों से पलायन भी खूब हुए हैं। उस गांव के बेटे लुधियाना, पंजाब, दिल्ली,कोलकाता, बंग्लुरू आदि महानगरों में खपने की कोशिश में हाड़ गला रहे हैं। कोई कारखाने में काम कर रहा है तो कोई फल-सब्जियों की रेड़ी लगा रहा है। लेकिन शहर में रहने की जिद्द कह लें या गांव की सुविधाहीन जिंदगी से अजीज आकर गांव छोड़ने का निर्णय जो भी हो लेकिन यह निर्णय की घड़ी आसान नहीं रही होगी। विस्थापन के दौर से गुजरना एक बड़ी पीड़ा होती है। घर में किसी की मृत्यु भी हो जाए तो आप टिकट लेकर तुरंत शामिल नहीं हो सकते। यदि पैसे हैं तो कई सुविधाएं हैं किन्तु फल की रेड़ी लगा रहे  हैं तो रेलगाड़ी ही माध्यम है। कुछ राज्यों में जाने वाली रेलगाडि़यों की प्रतिक्षा सूची को देख लें तो अंदाजा लगा सकते हैं कि उस राज्य से कितनी भारी संख्या में पलायन हुआ है। इसका अंदाज तब भी लगाया जा सकता है जब होली दिवाली का मौसम आता है। महानगरों से लगातार भीड़ गांवों की ओर भागने लगती है। गोया यह शहर उनका नहीं है। गोया गांव से बिछुड़कर खुश नहीं हैं। मगर हकीकत यही है कि गांव,देहात कोई यूं ही नहीं छोड़ता। कोई यूं ही विस्थापन की जिंदगी नहीं चुनता।


Friday, March 4, 2016

फिल्मांे की महिलाएं




फिल्में हर समाज और काल में आम जन को प्रभावित करती रही हैं। फिल्मों के सामाजिक दरकार भी समय और संदर्भ सापेक्ष बदलती रही हैं। राजा हरिश्चंद्र मूक फिल्मों से लेकर सवाक फिल्मों तक, ब्लैक एंड वाइट के लेकर डिजिटल फिल्मों तक के सफ़र में ठहर कर देखें तो पाएंगे कि समाज का प्रतिबिंब तत्कालीन फिल्मों में दिखाई देती हैं। आजादी पूर्व की फिल्मों के कथानक, परिवेश,संवाद आदि तत् संबंधी होती थीं। आजादी के बाद की फिल्मों के विषय, बोल, परिधान आदि भी बदले यह परिवर्तन भी लाजमी थी। महिलाओं की दृष्टि से फिल्मी जगत को समझने की कोशिश करें तो फिल्मों का एक बड़ा कालख्ंाड़ और भूमिका महिलाओं की स्थिति बदलाती हैं। एक दौर था जब फिल्मों में तथाकथित बड़े परिवार की लड़कियां नहीं आती थीं। बड़ी क्या आम घरों की महिलाओं को फिल्मों में अभिनय करने की आजादी नहीं थी। तब पुरुष ही महिलाओं की भूमिका किया करते थे। समय ने करवट ली और धीरे धीरे लड़कियों का आना फिल्मों शुरू हुआ। महिलाएं किस रूप में दाखि़ल हुईं यह भी एक दिलचस्प कहानी है। महज गाना गाने,ठुमका लगाने,मां या पत्नी की भूमिकाओं ने इन्हें चुना। सत्तर के दशक तक कथानकों में एक बड़ा परिवत्र्तन घटता है। महिलाएं आभूषण,वस्त्र आदि के आकर्षण से बाहर निकल अभिनय के समानांतर चुनौतियां देने लगीं।
अस्सी के दशक में अस्मिता पाटिल,शबाना आज़मी ने निश्चित ही यादगार अभिनय से अपनी पहचान बनाई। इन्होंने फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाओं को तो रेखांकित किया ही साथ ही समाज में बढ़ रहे वर्चस्व को भी पर्दे पर उतारा। यदि फिल्मों के सामाजिक सरोकारों की ओर नजर डालें तो नाच गाने,मार-धाड़ से आगे निकल कर सामाजिक स्थितियों को भी पर्दे पर जी रही थीं। फिल्मों ने चाहते हुए भी हमारे समाज की चेतना को झकझोरना का काम किया है। समाज का एक बड़ी तबका जो जवान हो रहा था व कहें किशोर से युवा हो उन्हें ख़ासे प्रभावित किया। एक्शन हीरो से लेकर एग्री यंग मैन की छवि भी समाज में खूब चली। साथी दुखांत भूमिकाओं के लिए दिलीप कुमार,साधना,गुरुदत्त को आज भी हम भूल नहीं पाएं हैं। कहानियां और कहानियों को पर्दे पर जीवंत करने वाले कलाकारों की निजी जिंदगी जैसी भी रही हो किन्तु पर्दे पर उन्हें देखना दिलचस्प था। ठीक उसी तरह से महिलाओं की भूमिकाएं भी दिन प्रति दिन बदल रही थी जैसे आम जिंदगी में बदलाव घट रहे थे। परिवर्तन की सुगबुगाहटें महिला कलाकारों में भी दिखाई देने लगी थी।  
स्त्री विमर्श की एक दुनिया समानांतर रची जा रही थी। सावित्री बा फुले महिला शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। वहीं समाज में शिक्षा और महिलाओं की जागरूकता में तेजी आ रही थी। बच्चियां घरों से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर चुकी थीं। धीरे धीरे ही सही लेकिन शिक्षा और स्व अधिकार की ललक भी महिलाओं में जगने लगी थी। यह एक संक्रमण काल था जिसमें महिलाएं अपने चैका बर्तन से बाहर दुआर पर निकलने की कोशिश कर रही थीं। यह दृश्य फिल्मों से ओझल नहीं था। क्योंकि फिल्मों की नजर से सामाजिक बदलाव छुपे नहीं रहे। एक ओर प्रेमचंद के उपन्यासों,कहानियों पर फिल्में बन रही थीं वहीं टैगोर की रचनाओं को भी फिल्मों में चुना जा रहा था। गैर भारतीय भाषाओं मे लिखी जा रही रचनाओं और कथानकों पर फिल्में बनीं। लेकिन गौरतलब है कि आजादी पूर्व की कथानकों और फिल्मों में महिलाओं को रूढ छवियों में बंधी नजर आती हैं।
नब्बे के दशक के अंत अंत तक फिल्मों के कथानक और महिलाओं की प्रस्तुतिकरण में काफी बदलाव हुए। नाच गाने और ठुमके लगाने से आग बढ़ कर बैंडेड क्वीन,एलओसी,डोर,पिंजर,लज्जा आदि फिल्में आईं जिसमें समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रकारांतर चित्रित करती हैं। वहीं 2000 और 2010 के बाद स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाती फिल्में भी आईं जो बाजार और महिलाओं के अंतर्संबंध को उदघाटित करती हैं। कार्पोरेट, पेज थ्री, चांदनी बार, एनएच 8,मेरीकाॅम,नीरजा आदि ऐसी फिल्में हैं जिसमें हमारे समाज की महिलाओं की उलझनों को भी पकड़ने की कोशिश करती हैं। बाजार किस तरह से महिलाओं को महज वस्तु व विज्ञापन की तरह देखती है इसका भी उदघाटन हमें कई फिल्मों में मिलता है। समाज में जैसे जैसे महिलाओं की भूमिकाएं बदली


बजट बहस से बाहर शिक्षा


किसने कहा था इतनी उम्मीद लगा कर बैठो। बजट है इससे क्या आशा और क्या अपेक्षा। काहे पगलाए घूम रहे हो इत्ते-उत्ते मुंह फुलाए। कब तक सर्व शिक्षा अभियान,माध्यमिक शिक्षा और भोजन की चिंता में गलते रहोगे। वक्त बदल चुका। समय की मांग बदल चुकी है। काहे नहीं बुझाता है तुमको। एनजाओ,सीएसओ वाले तो ख़ामख़ा चिल्लाते ही रहते हैं। तुमी बोले ई लोगन को कभी बजट से खुश होते देखे हो जो ईब होएंगे। अभी भी शिक्षा,बुनियादी शिक्षा, आरटीई को ओढ़ बिछा कर बैठे हो। दुनिया कहां की कहां पहुंच चुकी। चांद को भी चुन फटक कर रहने लायक बनाने में लगे हैं और एक तुम हो कि शिक्षा पर ही रूसे बैठे हो। पिछले साल कौन सा हमने बुनियादी शिक्षा का ख़्याल रखा जो इस बरस बड़ी उम्मीद लगाए रहे। हमने भारत के इतिहास पहली दफा ही सही लेकिन शिक्षा को औकात तो दिखाई ही। सो इस बार भी हमने अपनी परंपरा को बनाए रखा। हम तुमें स्कील वाले मानें हुनरमंद बनाने पर तुले हैं और तुम हो कि वही पुराने तरीके से दौड़ना चाहते हो। तुम भी इन लोगन के कुकुर कांव में आ गए। हम तो तुमें और तुम्हारी बेरोजगार कुल दीपकों को रोजगार के लिए तेल मल रहे हैं लेकिन तुमरी माथा में जे बात काए ठहरे। लो न हमने दक्ष भारत अभियान को तेल पिला कर तगड़ा करने के लिए 17,000 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव किया है। सब कुछ ठीक ठाक चला तो पूरे देश में राष्टीय दक्षता प्रशिक्षण संस्थान पसर ही जाएंगे। पूरे देश भर में 1500 राष्टीय दक्षता प्रशिक्षण संस्थानों स्थापना की जाएगी। फिर तुम्हारे चेहरे पर खुशी नहीं आएगी यह पता है। क्योंकि तुम अभी भी स्कूल,काॅलेज के पीछे पड़े हैं। हमने तो जिस राज्यों और जिलों में नवोदय विद्यालय नहीं हैं वहां स्कूल भी तो खोल रहे हैं। तुम्हारे बच्चे वहां पढ़ेंगे। जो स्कूल से बाहर रहेंगे या पढ़ नहीं पाए तो उन्हें स्कील इंडिया की दौड़ में हांक देंगे।
गौरतलब है कि सरकार की मनसा वर्तमान शिक्षा की दशा दिशा तय करने में कोई गहरी दिलचस्पी नजर नहीं आती। पिछले साल भी सरकार की बजट में प्राथमिक शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा विमर्श से बाहर ही रही। यदि पिछले सालों के बजट 2013-14,2014-15 पर नजर डालें तो पाएंगे कि तब सर्व शिक्षा अभियान को तकरीबन 31 हजार करोड़ रुपए मुहैया कराए गए थे जिसे लगातार वर्तमान सरकार घटाती चली गई। चालू वित वर्ष के बजट में 22,500 करोड़ रुपए प्रदान किए गए हैं। विद्यालयों के लिए मध्याह्न भोजन के लिए 9700 करोड़ रुपए का प्रस्ताव किया गया है। शिक्षा को जनसुलभ कराने के लिए सरकार ने इस बजट में अतिरिक्त 62 नए नवोदय विद्यालय खुलने की योजना बनाई है। गौरतलब है पिछले वित वर्ष में माडल स्कूल खोलने की घोषणा भी की गई थी। उनमें से कितने स्कूल खुले यह कौन पूछने वाला है। ठीक उसी तर्ज पर अब नवोदय विद्यालय खोलने की घोषणा की परतों को खोल कर समझने की आवश्यकता है।
पीछे की बजट में कम से कम बुनियादी शिक्षा को लेकर एक चिंता नजर आती थी लेकिन वत्र्तमान सरकार लगातार शिक्षा को महज रोजगार के साथ सरपट हांकने पर आमादा है। इसका प्रमाण यह है कि बच्चे बेशक कक्षा 1 से 5 वीं तक न पढ़ें उन्हें स्कील प्रदान कर रोजगार की राह पर चला दिया जाए। रोजगार मिले इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। लेकिन शिक्षा की महत्ता का विकल्प के तौर पर रोजगार को नहीं माना जा सकता। हालांकि शिक्षा हासिल कर हर किसी को नौकरी चाहिए लेकिन क्या शिक्षा का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी के लायक बनाना भर है। संभव है इस सवाल पर आज की पीढ़ी सहमत हो क्योंकि उन्हें बाजार में रहना और बाजार पर ही निर्भर रहना है। लेकिन बाजार में खुद को बनाए रखने के लिए जिस प्रकार की दक्षता और क्षमता की आवश्यकता होती है उसके लिए सरकार और बजट तैयार नजर नहीं आती है। बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद उच्च और उच्चतर शिक्षा हासिल करें इसकी योजना कम बच्चे 5 वीं के बाद ही नौकरी करने लगें के प्रति ज्यादा चिंतातुर है। यही वजह है कि स्कील इंडिया को अमली जामा पहनाने के लिए देशभर में 1500 संस्थानों की स्थापना की जानी है। इससे एक राह तो साफ नजर आती है कि हमारे बच्चों को रोजगारपरक यानी हस्तकौशल प्रदान करने की योजना है। गांधी जी ने 1932 वर्धा शिक्षा सम्मेलन में हर हाथ को काम और हाथ को शिक्षा की वकालत की थी। लेकिन उस सिफारिफ में बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से काटना नहीं बल्कि हुनरमंद बनाना था। स्कूल से छूट से बच्चों की चिंता इतनी भर है कि उन्हें काम सीखा कर जीवन के मैदान में उतार दिया जाए।
सरकार का दावा है कि देशभर में दक्षता विकास योजना के तहत अभी तक 76 लाख बच्चों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। आने वाले दिनों में बजट की नजर से देखें तो एक करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाया जाएगा। गौरतलब है कि हुनरमंदी की झोली में बिजली, बड़ही,मोटर दुरुस्त करने, कम्प्यूटर ठीक करने, डेटा आॅपरेटर जैसे कौशल शामिल हैं। राजेश जोशी की कविता बच्चे काम पर जा रहे हैं अब ज्यादा प्रासंगिक हो जाएगा। बच्चे अपनी उम्र से पहले ही काम पर जाने लगंेगे। उन्हें घर परिवार चलाने की जिम्मेदारी के लिए तैयारी चल रही है। एक तो पहले से ही उच्च शिक्षा में प्रतिभागियों की कमी है आने वाले पांच दस सालों में स्थिति और भी बद से बत्तर हो सकती है। देश के तमाम प्रौद्योगिकी,तकनीकी,मानविकी संस्थाएं प्रोफेसर,शोधछात्रों की कमी का सामना कर रहे हैं। यदि प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की कमी की बात करें तो स्वयं सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर राज्य में कम से कम अस्सी हजार से लेकर 5 लाख तक के पद खाली हैं। जिन्हें भरा जाना आरटीई के अनुसार बेहद जरूरी है। लेकिन इन सब के बावजूद विभिन्न राज्यों में अनुबंधित शिक्षकों से स्कूलों को खींचा जा रहा है। स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर सरकार का ढुलमुल रवैया भी किसी से छूपा नहीं है। शिक्षा मित्र,पैरा टीचर आदि नामों से प्रसिद्ध हमारे अद्र्ध प्रशिक्षित शिक्षकों के मार्फत शिक्षा दी जा रही है।
प्रो अनिल सद्गोपाल इस प्रक्रिया को गंभीरता से देखते और व्याख्यायित करते हैं उनकी नजर में बुनियादी शिक्षा को नजरअंदाज कर सिर्फ बच्चों को कामगर बनाने की योजना है। शिक्षा को अस्से के दशक से ही बेचने और बदनाम करने की सरकारी पहलकदमियां चल रही हैं। दुखद बात यह है कि जब देशज स्तर पर सरकारी स्कूलों को बदनाम कर बेचने की प्रक्रिया चल रही थी तब तमाम शैक्षिक संस्थान के शिक्षाविद् और शिक्षाकर्मी मौन साधे बैठे थे। उनकी चुप्पी का ही परिणाम है देश के अधिकांश सरकारी संस्थान इस हाल में आ चुके हैं। शिक्षा जो कि हक़ की आवाज उठाने और शोषण के खिलाफ बोलने का जज़्बा पैदा करती है वही शैक्षिक संस्थानों में नकारखाने में तूती की तरह हो गई।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम बने भी आज तकरीबन छह साल हो चुके लेकिन स्थिति कोई ख़ास बदली हो ऐसा नहीं है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की रिपोर्ट बताती हैं कि आज भी हमारे अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। तो क्या उम्मीद की जाए कि वे अस्सी लाख बच्चे स्कील हासिल कर काम पर लग जाएंगे। क्या वे आत्महत्या या फिर गैर उत्पादक कामों में नहीं लगंेगे। सरकार की नजर में शिक्षा के मायने और दरकार बदल चुके हैं। उसकी नजर में कामगरी शिक्षा ही प्राथमिकता है। हर बच्चे पढ़ें और आगे बढ़ें यह नारा तो है लेकिन वहीं दूसरी ओर काम का विकल्प प्रदान करना कहीं न कहीं शिक्षा की धार को कुंद करना भी है।
सब पढ़ेंगे सब बढ़ेंगे यह सुनने में कर्णप्रिय है। लेकिन इसके निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। सब कैसे पढ़ेंगे जब स्कूल ही नहीं होंगे। जब स्कूल तो होंगे लेकिन वहां शिक्षक ही पांच होंगे उसमें भी दो जनगणना, बाल गणना,कार्यालयी कामों में झांेक दिए जाएंगे। तीन स्थायी शिक्षक और तीन अनुबंधित शिक्षकों के कंधे पर किस प्रकार की पढ़ने और आगे बढ़ने के सपने देखे जा रहे हैं। यह भी कितना मौजू है कि विभिन्न राज्यों में शिक्षकों को एक तो पूरा वेतन नहीं मिलता दूसरा तीन और छह माह पर वेतन मिलता हो तो ऐसे में किस प्रकार की शिक्षण प्रतिबद्धता की उम्मीद की जानी चाहिए। शिक्षक दरअसल वो नरम कड़ी होता है जिसे जब चाहा तबा दिया तब चाहा गैर शैक्षिक कामों में हांक दिया। शिक्षक ही है जो अपनी ही हक और आवाज को ताउम्र दबाए जिंदगी काट देता है और उससे पढ़े बच्चे आग चल कर उन्हीं पर शासन और हुक्म जारी किया करते हैं। कितना ही अफसोसनाक स्थिति है कि जिसे शिक्षक जीवन में कुछ बनने की तालीम देता है जब वह कुर्सी पर बैठता तब उन्हीं पर तोहमत मढ़ने से गुरेज नहीं करता।  

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...