Thursday, November 29, 2018

तुमसे न हो पाएगा



कौशलेंद्र प्रपन्न
आंखों में अंगूली डाल कर जगाने का भी प्रयास कर लें लेकिन कुछ लोग हैं जिनकी नींद है कि टूटती नहीं। न जाने किस किस्म की नींद में सो रहे होते हैं और सपने देखा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें इस बात और हक़ीकत का ज़रा भी एहसास नहीं होता कि क्या उनके सपनों में झोल है या कि उनकी नींद ही नहीं टूटी।
हमारे आस-पास ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी नींद इतनी गहरी होती है कि उन्हें इस बात का इल्म नहीं होता कि उनके आस-पास कुछ नई चीज भी घट रही है। कैसे समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं। वो साहब हैं कि देखना ही नहीं चाहते। शायद देखने से डरते हैं। डर शायद इस बात की भी है कि कहीं चूक न जाएं। कहीं रिजेक्ट न कर दिए जाएं। पता किस तरह जीया करते हैं।
जब तक ऐसे लोगों को कहीं ठोकर न लगे। या जब तक कान पकड़ कर यह न कहा जाए की आपकी ज़रूरत नहीं है। आपकी भाषा से बू आती है। भाषा में ग्रामीण ठेठ गंध भरा है। तुम्हारी भाषा ही ऐसी है कि वो गांव देहात, सम्मेलन में तो ठीक है लेकिन यहां के लिए मकूल नहीं है। वो अपने आप में अपने आप को तुर्रमख़ां समझा करते थे। अपनी भाषायी चमक के सामने कुछ और देख ही नहीं पाते थे। उनके पास और उन्हीं की कुर्सी के बगल से जमीन छिनी जा रही थी और वो थे के सपने के पीछे भाग रहे थे।
उन जनाब का सपना था कि फर्र फर्र उनकी भाषा बोलें, उन्हीं की तरह सर्रसर्र बोलकर औरों पर रौब बरसाएं। लेकिन यह हो न सका। जब वो बोलने का प्रयास करते। कोशिश करते कि उन्हीं की भाषा बोलें। गंवई भाषा जिनसे उन्हें बू आया करती थी। वो पीछे धकेल दें। उसने पूरी कोशिश की कि उस भाषा से नाता तोड़ ले। लेकिन क्या यह संभव था? जिस भाषा के कंधे पर चढ़कर यहां तक का सफ़र तय किया था कैसे उसे बिसुरा दे। मगर उसके सामने अब दो ही रास्ते थे। या तो नई भाषायी बहुरिया को अपनाकर आगे बढ़े। दूसरा रास्ता पुरानी राह पर ही चलता रहे अपने शान से। अपनी ठसके के साथ।
उसके सामने भाषा और ओहदा दो ऐसे द्वंद्व थे इनमें से उसे क्या चाहिए था। क्या वह भाषायी ताकत हासिल कर उन लोगों में शामिल हो जाए जो तोहमत लगाया करते थे तुमसे न हो पाएगा। तुम तो रहने दो। मुंह खोलते हो तो भाषायी बू आती है। बोलना आता नहीं और कौआ चला हंस के चाल और अपनी चाल भी भूल गया।

Tuesday, November 27, 2018

पोस्टमैंन बनना पसंद है या कि सुरक्षाकर्मी






कौशलेंद्र प्रपन्न
किसी भी संदेश का वाहक बनना आसान है। संदेश को प्रेषक से लेकर पाने वाले के दरमियां उस पोस्टमैंन की कोई भूमिका होती है तो इतनी ही कि वह संदेश लेकर जा रहा है। कहा भी गया है कि संदेशवाहक अबंध्य होता है। यानी संदेशवाहक को न तो बंदी बनाया जाता है और न ही बद्ध किया जाता है यह कूटनीति भी कहती है। इसजिलए हनुमान को भी छोड़ने की वकालत की गई थी। वैसे ही इतिहास में कई कहानियां मिलेंगी। जब संदेशवाहक को बंधक नहीं बनाया गया है क्योंकि वह सिर्फ और सिर्फ अपने मालिक या राजा का संदेश वाहक है। उस ख़त व संदेश में क्या कंटेंट है उससे उसका कोई दरकार नहीं होता। उधर से संदेश लेकर अपने राजा व मालिक को सौंप देता है। मैंनेजमेंट के गुरु इसे कुछ और अंदाज़ में देखते हैं। प्रो. हीतेश भट्ट इसे मैंनेजमेंट की नज़र से देखते हैं और मानते हैं कि जब तक लीडर या मैनेजर महज संदेशवाहक यानी पोस्टमैंन की भूमिका में होता है वैसी स्थिति में जवाबदेही तय करना मुश्किल होता है। पोस्टमैंन अपना विवेक इस्तमाल नहीं करता। वह न तो तर्क करता है और न ही अपना पक्ष रखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पोस्टमैंन किस्म के मैंनेजर व लीडर न तो अपने कर्मचारियों के हित में कोई वकालत कर पाते हैं और न ही अपने और टीक के हक़ में अपनी बात रख पाते हैं। वहीं सुरक्षाकर्मी यानी जिसके कंधे पर जवाबदेही तय की जा सकती है। यदि हमारे कैम्पस में कोई अवैधतौर पर प्रवेश करता है तो उसकी जवाबदेही सुरक्षकर्मी की बनती है। यानी वह व्यक्ति तमाम गतिविधियों को जिम्मेदार होता है। यदि मैंनेजर व लीडर सुरक्षाकर्मी की भूमिका निभाता है जो कि निभाना चाहिए तो उस व्यक्ति के कंधे पर अपनी टीम और हर कर्मचारी की जवाबदेही अपने सिर पर लेता है।
किसी भी संस्था व देश की सीमा पर तैनात पोस्टमैंन व सुरक्षाकर्मी की भूमिका को समझें तो यही होगा कि एक मैंनेजर व लीडर भी अपनी कंपनी व संस्था का सुरक्षाकर्मी होता है जो अपनी जिम्मेदारी को तय करता है। यदि कर्मी समुचित काम नहीं कर रहा है, यदि टीम का सदस्य तय लक्ष्यों को हासिल करने में पिछड़ रहा है तो ऐसी स्थिति में वह पोस्टमैंन के मानिंद मैंनेजमेंट को अपनी कर्मी की कमियों और असफलताओं को सिर्फ संप्रेषित भर नहीं करता है। बल्कि वह लीडर अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हुए मानता है कि शायद उस व्यक्ति के चुनाव और दक्षता की पहचान में कहीं चूक हो गई। या फिर उसे विशेष प्रशिक्षण प्रदान कर हम अपनी टीम के लक्ष्य को हासिल करने योग्य बना सकते हैं। बस कुछ वक़्त की मांग करता है। दुबारा प्रो. हीतेश भट्ट जी के बिंब व अवधारणा को अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए सभार इस्तमाल कर रहा हूं कि किसी भी कंपनी व संस्था में हमें पोस्टमैंन नियुक्त करने से बचने की आवश्यकता है। वरना वह कंपनी व संस्था प्रगति करने की बजाए महज गतिशील होने का एहसास भर दे सकता है। वहीं जब सुरक्षाकर्मी को नियुक्त करते हैं तब वह सिर्फ और सिर्फ नौ से पांच की नौकरी भर नहीं करता है। और न ही वह अन्य कर्मियों के तर्ज पर सिर्फ सैलरी के लिए काम किया करता है। बल्कि वह कंपनी, संस्था व घराने की ऊंचाई के लिए जी जान लगा देता है।
हमें किसी भी संस्था व कंपनी को विकास और वृद्धि के राह पर लेकर जाना है तो कर्मचारियों के चुनाव के वक़्त काफी सावधानी बरतनी चाहिए। साथ ही समय समय पर उनके कार्य करने की गति और रवैये को भी जांचना और परखना होगा। यदि कोई कर्मी किसी ख़ास समस्या में फंस गया है, उसे किसी भी किस्म की मदद नजर नहीं आ रही है तो ऐसे में हमारा सुरक्षाकर्मी यानी वैसे मैंनेजर व लीडर उस कर्मी के साथ खड़ा होता है। वह अपनी जिम्मेदारी से भी पीछे नहीं हटता कि फलां कर्मी क्यों बेहतर कार्य व प्रतिफल नहीं दे सका। वह स्थितियों और प्रक्रिया का विश्लेषण करता है और इस निर्णय तक पहुंचता है कि उस व्यक्ति को किस तरह की सहायता की आवश्यकता थी। जो किन्हीं वजहों से समय पर नहीं मिल पाई। वह हमेशा अपने ऊपर के मैंनेजमेंट के समक्ष अपना पक्ष और कर्मी की स्थिति से रू ब रू कराता हैं। वह वकालत करता है कि फलां कर्मी को कुछ और वक़्त दिया जाए और देखा जाए कि क्या तमाम मदद के बाद भी वह प्रदर्शन कर पा रहा है या नहीं।

Sunday, November 25, 2018

तालीमगार और उर्दू

अस्लाम वालेकुम
जैसी ही उर्दू स्कूल में प्रवेश किया कुछ स्लोगन हिंदी और इंग्लिश में दिखे। लेकिन जैसे जैसे स्कूल में अंदर जाता रहा वैसे वैसे उर्दू भी दिखने लगी। 
अब संतोष हुवा कि यहां बच्चों को उर्दू देखने को मिलती होगी। इस स्कूल की प्राचार्या ने बताया पहले उर्दू नही थी लेकिन एक ऑब्ज़र्वर ने राय दी कि इस स्कूल में कम से कम इन बच्चों को उर्दू देखने, पढ़ने को मिले। हर दीवार, जगह पर उर्दू में लिखीं गईं थीं। 
आज की तारीख़ में उर्दू बहुत कम ही जगह पर पढ़ने, देखने को मिलती हैं। आज की तारीख़ ने उर्दू, क्लासिक भाषा की प्रकृति को बदल चुकी है। यैसे में भाषा को बचाना हमारा फर्ज़ है। बधाई यैसे स्कूल के तालीम देने वाले शिक्षक शिक्षिका को जो शिद्दत से बच्चों कोतालीम देने में जुड़े हैं। 

Saturday, November 24, 2018

स्कूलों का विलयीकरण और सीखने के प्रतिफल



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों दिल्ली के प्राथमिक स्कूलों में कक्षा अवलोकन का अवसर मिला। उस ऑब्जवेशन में पाया कि लगभग सभी कक्षाओं में शिक्षकों ने दीवार पर सीखने के प्रतिफल लिखकर चिपका रखा था। अंग्रेजी हम जिसे लर्निंग आउटकम इडिकेट््रर्स कहते हैं, हम कक्षा में टंगा और चिपका हुआ मिला। उस चार्ट पेपर पर हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, समाज विज्ञान आदि विषयों में बच्चा कितना सीख लेगा उसका एक रोडमैप मिला। यह देखकर खुशी हुई कि आदेश के बाद ही सही लेकिन शिक्षकों ने इस प्रकार के चार्ट अपने क्लास में लगा रखे हैं। हालांकि अपेक्षा यह भी कि यह जान सकें कि क्या वो इन प्रतिफलों को हासिल करने के लिए कोई रणनीति भी बनाई हुई है या सिर्फ दिखावे के लिए दीवार का कोना प्रयोग में लाया गया है। शिक्षकों की जबानी जो कहानी सुनी, वह चौकाने वाली थी। उन्हें पढ़ाने का ही समय नहीं मिलता। कब कक्षा से बाहर कागजातों के पेट भरने के लिए बुलावा आ जाता है और पढ़ाते पढ़ाते बीच में दफ्तरी काम में लग जाना होता है।
इन शिक्षकों को विभिन्न संस्थानिक प्रशिक्षण भी दिए गए लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि वे प्रशिक्षण कार्यशालाओं के दौरान सीखे गए कौशलों का इस्तमाल करने का उन्हें मौका ही बहुत कम मिलता है। उस तुर्रा यह तर्क और लांछन लगाया जाता है कि शिक्षक कक्षा में पढ़ाता ही नहीं। यह कितना बेबुनियाद बात है कि हम शिक्षक को कक्षा पढ़ाने का अवसर कम देते हैं और फिर पूछते हैं बता, तेरे क्लास के बच्चे पढ़ना और लिखना क्यों नहीं सीख सके।
इसी दिल्ली में एक ओर नगर निगम के स्कूल अपनी बदहाली से गुजर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों में रोजदिन नई नई तकनीक प्रदान की जा रही है। ये कैसे बुनियाद हम बना रहे हैं इसका अनुमान तो तब लगता है जब मालूम चलता है कि इसी दिल्ली में एक ओर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में मर्ज कर दिया जाता है या फिर बंद कर दिया जाता है। वही उन्हीं स्कूलों की जमीन पर सरकार पार्किंग बनाने की अनुमति प्रदान करती है। यह भी कमाल की प्राथमिकता है शिक्षा के प्रति।
शायद हमारी प्राथमिकता शिक्षा नहीं बल्कि उत्पादक और आर्थिक स्रोत पैदा करना ज्यादा है। यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। कई राज्यों में सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर सरकार अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। लेकिन हो तो यही रहा है। हमारे सरकारी स्कूल और सरकारी कॉलेज आदि इसी संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। 

Thursday, November 22, 2018

स्कूलों में हैं कंपनियां मगर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों दिल्ली सरकार के प्राथमिक स्कूलों का अवलोकन का अवसर मिला। वो भी त्रिलोकपुरी, कल्याणपुरी आदि क्षेत्रों में जो स्कूल मौजूद हैं इन स्कूलों में शौचालय, पीने का पानी, खेल के मैदान, लाइब्रेरी सब कुछ हैं। अगर नहीं हैं तो बच्चे और पर्याप्त शिक्षक। जिन स्कूलों में कम से कम दस से पंद्रह स्टॉफ होने चाहिए यानी शिक्षक वहां चार या पांच शिक्षक हैं। जिन स्कूलों में नर्सरी क्लास हैं वहां आया मौजूद हैं। कायदे से शिक्षिका होनी चाहिए लेकिन शिक्षिकाओं की कमी को आयाएं पूरी कर रही हैं। अनुमान लगा सकते हैं कि जिन स्कूलों में आयाएं नर्सरी की क्लासेज मैनेज कर रही हैं वहां क्या होता होगा?
इन दिनों विभिन्न स्कूलों पीने का पानी की टंकी की ज़रूरत नहीं है लेकिन सरकारी फरमान जारी के तज र्पर हर स्कूलों में पीने का पानी की टंकी बनाई जा रही हैं। साथ ही गार्ड रूम बनाए जा रहे हैं। स्कूल में शिक्षक नहीं, आया नहीं, अन्य सहायक स्टॉफ नहीं लेकिन बार्ड रूम बनाना ज़रूरी है।
पिछले दिनों दिल्ली के दक्षिणी नगर निगम के स्कूलों को बंद कर दिए गए या फिर उन्हें अन्य स्कूलों में मर्ज कर दिए गए। तर्क जो दिए गए उन तर्कां पर हंसा जाए या रोया जाए कि इन स्कूलों में बच्चे कम हो रहे हैं इसलिए इन्हें बंद कर यहां पार्किंग बनाया जाएगा। सरकार की प्राथमिकताएं बताती हैं कि उन्हें बच्चों की शिक्षा से ज्यादा पार्किंग की चिंता है।
तमाम एनजीओ, सीएसआर कंपनियां इन स्कूलों में बेहतरी के लिए अपना योगदान दे रही हैं। जिनमें टेक महिन्द्रा फाउंडेशन, प्लान इंडिया, रूम टू रीड, सेव द चिल्ड्रेन आदि। ये कंपनियां कुछ स्कूलों मे ंतो अपने शिक्षक भी भेज रहे हैं जो कक्षाओं में शिक्षण काम भी कर रहे हैं। जो काम शिक्षा विभाग और सरकार के जिम्मे था उसे गैर सरकारी संस्थाएं कर रही हैं। इन तमाम हस्तक्षेपों के बावजूद एक बड़ी टीस यह उठती है कि फिर क्या वजह है कि बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते?

Wednesday, November 21, 2018

डिग्री मिली पर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
डिग्री बांटने और बेचने वाले बहुत हैं। दुकानें भी बहुत हैं। जहां हर किस्म की डिग्रियां मिला करती हैं। सही दुकान की तलाश आपने कर ली तो सारी मेहनत सफल हो जाएगी। वरना पास होने और डिग्री लेने के बाद भी कुछ सालों बाद आपके उस बैंच के उस कोर्स की डिग्री अमान्य भी हो जाती है।
कुछ साल पहले तक बीएड की डिग्रियां ख्ूब अच्छी खेप में बिकीं। डिग्री के दुकानदार मालामाल हो गए। छात्र में सरकारी नौकरियों में मजे कर रहे हैं। लेकिन बच्चों का क्या हुआ। उन्हें कक्षा में कैसे खड़ा होना है, कैसे पाठ योजना बनानी है? कैसे गतिविधियों को अंजाम देना है आदि तक नहीं आते। पता नहीं कैसे उन लोगों को शिक्षा में जगह मिल गई। दो एक साल पहले जम्मू कश्मीर की उच्च न्यायालय ने शिक्षा विभाग की अच्छी क्लास ली थी कि कैसे कैसे संस्थान आप चला रहे हैं जहां बच्चों को कुछ सीखाया नहीं जाता। महज उन्हें डिग्रियां बांटने की बजाए कुछ सीखा भी दें।
न केवल शिक्षा में बल्कि यही हाल लॉ, मैनेजमेंट आदि क्षेत्र के भी हैं। जहां मैनेजमेंट, तकनीक आदि के कोर्स कर डिग्री तो उनके पास होती है लेकिन न तो उन्हें उनकी विषयी समझ पुख्ता होती है और न ही ऑफिस में काम करने का सलीका ही होता है।
केपी सक्सेना का एक व्यंग्य याद आता है जिसमें एक स्कूल की कल्पना की है। वह स्कूल है सैंडलहुड पब्लिक स्कूल। जहां प्रिंसिपल ही चपरासी है। प्रिंसिपल ही टीचर है। वही एक व्यक्ति पूरे स्कूल का स्टॉफ है। उस व्यंग्य को पढ़कर कहानी काफी स्पष्ट हो जाएगी। यह मसला शिक्षा के साथ ही अन्य क्षेत्रों का भी है। कहानी एक सी है।

Monday, November 19, 2018

अपनी ही नज़रों में गिरता रहा



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘अरे तुम्हारा मुंह तोड़ दूंगी। समझ नहीं आती तुम्हें कि मैं तुम्हें प्यार व्यार नहीं करती। क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’
यह वाक्य आज भी उसके कानों में बजते हैं। हालांकि उसे पुरानी जॉब छोड़े तकरीबन पांच साल हो गए। लेकिन उस लड़की की आवाज आज भी उस ढीठ के कानों में बजा करती है। चाहकर भी आवाज से दूर नहीं जा पाता। कितना दफ़ा उसने चाहा कि भूल जाए या भुला दी जाए वो। लेकिन उसका जादू ही ऐसा रही कि दूर न जा सका। उसके साथ के किस्से अक्सर उसकी आंखों में पनीलापन छोड़ देते हैं। छोड़ जाती हैं उसके साथ के नोक झांक के पल भी।
उसने कभी लड़की का ग़लत नहीं चाहा। न वो उसे हल्के में लेता था। बात ही ऐसी थी कि वो उससे दूर नहीं जा सका। चिट्टी लिखी, मैसेज लिखे, ख़त कह लें क्या नहीं लिखा ।इन तमाम जरिए से अपने स्नेह और लगाव का इजहार किया।
बस ग़लती इतनी सी हो गई कि एक बार गले लगाने की मुहलत मांगी और गले लग कर कानों में कह दिया ‘‘आई लव यू’’
तमतमाई लड़की रूम से बाहर तो चली गई लेकिन उसके पीछे छोड़ गई एक दहकता हुआ सवाल और सवाल से भी बड़ा बवाल। देखते ही देखते उस तीन अल्फ़ाज़ों के ख़मियाजे भुगतने के लिए फरमान आए गए। शायद यह पहली बार हुआ था।
उसे इसकी ज़रा भी भनक नहीं थी कि मसला इतना गहरा और लहक रहा है। अगले ही हप्ते बोलचाल बंद। न देखा देखी और न बातचीत।
बातचीत तो तब भी नहीं हुई जब उसे उस तीन लेटर के लिए कमिटी में बुलाया गया। कहानी खुली तो लंबी कहानी निकली।
हाथ पांव जोड़े। माफी मांगी। आइंदा ऐसा वैसा नहीं करेगा कसमें खाईं और कानूनन कार्यवाई की वायदेनामा पर दस्तख़त किए। उस तीन शब्द ने उसे देखते ही देखते ज़लालत की स्थिति में ला खड़ा किया।
एक बार नजर उठा कर देखा भी उसने। लेकिन उन आंखों में परिचय की रेखाएं गायब थीं। था कुछ तो बस अपरिचय और हिकारत।
जो हो। वो लड़की आज भी याद आती है उसे। याद आए भी क्यों न उसका मनसा ख़राब नहीं था। उसने तो बस इतना ही चाहा कि जो रागात्मक रेसे उसके मन में हैं उसे भी एहसास कराए। न तो परेशान करना उसका मकसद था। और न किसी भी किस्म की दिक्कत पैदा करने की। बस यहीं मात खा गया। और अपनी ही नज़रों में गिरता रहा रोज़दिन।

Friday, November 16, 2018

चुनाव में मीडिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
जब जब देश में कोई भी चुनाव होता है तब तब मीडिया के रूख़ बदलते नज़र आते हैं। मीडिया यानी पिं्रट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों के ही चरित्र को समझना दिलचस्प होगा। कवर स्टोरी से लेकर, इन्टरव्यू, फीचर, ख़बरें, आम सभाओं को कवर करती स्टोरी पूरे अख़बार में छाई रहती हैं। इन राजनीतिक ख़बरों, हलचलों, आम सभाओं, राजनेताओं के साक्षात्कारों से अख़बार और न्यूज चैनल लबालब भरे होते हैं। इन दिनों ख़बरों के चुनाव और प्रस्तुति की शैली, पेज का निर्धारणा आदि मीडिया के व्यापक सामाजिक दरकार की परतें खोलने लगती हैं। पहले पन्ने पर जिन ख़बरों को प्रमुखता से होना था कहीं अंदर के पन्नों पर सिंगल कॉलम या डब्ल कॉलम में नजर आती हैं। उन ख़बरों पर कितनों की नज़र पड़ती है इससे हमारा कोई ख़ास वास्ता नहीं होता। अख़बार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन दिनों अपने रिपोर्टर को विभिन्न राजनीति दलों के दफ्तारों और बीटों पर बांट देता है। हर राजनीति दलों के कुछ चहेते रिपोर्टर होते हैं जो प्रमुखता से उनकी ख़बरें किया करते हैं। ठीक वैसे ही गन माईक लेकर इन राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रेस कॉफ्रेंस को कवर करते हैं। यहां प्रेस कॉफ्रेंस में जैसे सवाल जवाब हुआ करते हैं उन पर भी नजर डालना दरपेश होगा। हंसी ठिठोली से शुरू होकर सवालों तक की यात्राएं दिखाई देंगे। यहां शिकवे शिकायत भीं खूब होती हैं। तुमने हमारे उस सवाल के जवाब को ठीक नहीं छापा। बॉक्स में लेते तो ज्यादा प्रभावी होता आदि आदि।
चुनावी मौसम में अख़बारों के पन्नों पर बिखरी राजनीतिक ख़बरों के भार से समाज की अन्य प्रमुख घटनाएं, गतिविधियां कहीं दब जाती हैं। वह चाहे शिक्षा, कृषि, विज्ञान, संस्कृति या फिर व्यापार की ही क्यों न हो अपनी मौत मर जाती हैं। अख़बारी भाषा में कहें तो किल कर दी जाती हैं। कई बार ख़बरें मार दी जाती हैं तो कई मर जाती हैं। ख़बर की भी अपनी एक गति और जीवन होता है। तत्काल प्रभाव और असर वाली ख़बरें यदि समय पर नहीं लगीं तो वो फिर अगले या उससे अगले दिन उसकी प्रासंगिकता ही खत्म हो जाती है। लेकिन हमें इसकी चिंता ज़्यादा नहीं होती। हमारी चिंता इस बात की होती है कि यदि फलां दल की ख़बर, आम सभा कवर नहीं किया गया तो मीडिया को संभव है कोपभाजन का शिकार न होना पड़ जाए। यदि अख़बार ने किसी ख़ास दल की गतिविधियों, आम सभाओं को कवर नहीं करने पीछे रह जाए तो संभव है तत्काल विज्ञापन पर रोक लग जाए। अख़बारों में छपने वाली राजनीतिक ख़बरों की प्रस्तुति पर नज़र डालें तो पाएंगे कि कई बार एक सिंगल कॉलम की ख़बर भी आधे पेजे की ख़बर पर भारी पड़ती है। 

Thursday, November 15, 2018

बहन का ननद बन जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं बहनों के बिना क्या बपचन और क्या जीवन। बिना बहनों से लड़े झगड़े यदि बचपन काट दी तो वह भी जीना है? बहनों के साथ खेलना, लड़ना-मारना पीटना, लात मुक्का सब खेल के हिस्से हुआ करते हैं। कभी उसकी कापी के पन्ने फाड़ना, कभी चोटी खिंचना और कभी उससे लिपट कर रोना और मां-पिताजी से बचाने का गुहार लगाना इतना सब कुछ तो होता बहनों के साथ। और देखते ही देखते एक दिन कोई बाहर का लड़का कर बहन का हाथ पकड़ ले जाता है। हम अचानक एक नए रिश्ते में बंध जाते हैं।
बहनों की भी दोहरी भूमिका हो जाती है। एक ओर मां-बाप, भाई बहन तो दूसरी ओर ठीक इसके उलट इन लॉ, माता-पिता की नई पहचान लिए नए चेहरे बहन को अपनी ओर खींचने लगते हैं। बहन दो घरों की डोर के बीच एक पुल बन जाया करती है। न इसे छोड़ सकती है। न उसे नाराज़ कर सकती है। दोनों ही कोनों पर बंधी बहन डोलने लगती है। भाई को मनाए कि पति को? फादर इन लॉ की मान रखे या पिताजी की इज्जत को बचाए। कितना मुश्किल होता है बहनों के लिए दो अलग अलग धाराओं के बीच खुद को डूबने और बहने से बचा पाना।
जब भाई बहन की शादी के बाद मिलता है तब बहन के सवाल और खेल बदल चुके होते हैं। वो अब पति को बुरा न लग जाए इसलिए भाई से गुजारिश करती है उनके भी बात कर लिया करो। बाहर बाबूजी बैठे हैं कुछ देर उनसे भी बातचीत कर लो। बेशक तुम्हारी इच्छा नहीं है लेकिन क्या करूं इन्हीं के साथ रहना है।
पति के जन्म दिन पर फोन कर के कहती है भाई आज उनका बार्थडे समय निकाल कर फोन कर देना। वरना सुनाते रहेंगे मुझे कोई पूछता नहीं। तुम्हारे घर वाले सिर्फ तुमने वास्ता रखते हैं आदि आदि। बहन के इस मनुहार पर गुस्सा नहीं आता बल्कि उसकी स्थिति पर सोचने और विचारने का मन करता है। क्या ये वही नीरू है जो इतनी अल्हड़ हुआ करती थी। जिसे अपना जन्म दिन याद नहीं रहता था मगर आज उनके जन्म दिन पर कितना चिंतित है।
बहन शादी के बाद ननद बन जाती है। ननद यानी उसकी अपेक्षाएं, उसकी उम्मीदों, उसकी इच्छाएं कहीं और से संचालित और निर्धारित होने लगती हैं। न चाहते हुए भी मान खोजती है। न चाहते हुए भी उम्मीद करती है कि भाई का फोन आए तो मैं जाउं। भौजाई फोन कर बुलाएं तो भाई के बच्चे को देखा आउं। बस यहीं एक फांस अटकी हुई है। भाई तो सोचता है बहन तो मेरी बहन है उस जब पहले बुलावे की चिंता नहीं थी तो अब क्यों मुंह फुलाकर बैठी है कि भाई ने फोन नहीं किया। शुरू में बहन को फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन जब से ननद बनी है तब से इन लॉ आदि ने यह उसके दिमाग में ठूंसा है कि ऐसे कैसे जाओगी? क्या तुम्हारी कोई इज्जत नहीं? क्या तुम ऐसे ही उठ उठाकर चली जाओगी भाई भौजाई के घर? बुलावा और न्योता तो आने दो।
न्योता और बुलहटे के इंतजार में कई बार बहन पिछड़ती चली जाती है। इतनी पीछे छूट जाया करती हैं बहने की फिर वो भाइयो के दायरे से ही कई बार दूर निकल जाती हैं। यह प्रक्रिया इतनी तेजी से चलती है कि न वे समझ पाती हैं और न भाई ही।
बहने जब ननद बन जाती हैं तब इनकी भूमिका बदल जाया करती हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। बहन से ननद में तब्दील हुई बहन को भी कई जगहों पर एडजस्ट करना होता है। साथ ही नई भूमिका की अपनी चुनौतियां होती हैं जिसके बीच सामंजस्य बैठना पड़ता है। बहन का ननद हो जाना कई दफ़ा उसके व्यवहार में भी झलकने लगती है और बोलचाल में भी। धीरे धीरे फोन का कम होना और हप्ते से माह और माह से और लंबी चुप्पी पसरने लगती है। काश की बहने ननद की भूमिका में रहते हुए बहन की भूमिका को भी निभा पाएं तो कितना बेहतर हो।
इसके साथ ही ऐसा नहीं है कि भाई भाई ही रहता है इसके व्यवहार में भी परिवर्तनी देखे जा सकते हैं। भाई जैसे पहले बहनों से बेबाकी से बात किया करता था उस बेबाकीपन में कहीं न कहीं तब्दीली दर्ज होने लगती है। फिर तो दोनों ही पक्षों से तर्क कुतर्क और आरोप प्रत्यारोप के खेल शुरू हो जाते हैं। इसे दूसरे शब्दों में ऐसे समझें कि भाई-बहनों के बीच अभिधा, व्यंजना और लक्षण में बातें होने लगती हैं। सीधी बात कम घूमाकर बातें की जाती हैं। यदि आपकी भाषायी समझ कम है तो व्यंजना को पकड़ नहीं पाएंगे।

Tuesday, November 13, 2018

बच्चों से संवाद के सरोकार


कौशलेंद्र प्रपन्न

बच्चों से हम कब बात करते हैं? कहां बात करते हैं? कैसे बात करते हैं आदि सवाल आज की तारीख़ में खत्म होती कड़ी नज़र आती है। संवाद के नाम पर हम शायद उन्हें आदेश दे रहे होते हैं, सूचनाएं परोस रहे होते हैं या फिर उनसे रोजनामचा ले रहे होते हैं। बताओं कि आज स्कूल में क्या हुआ? यह भी बताओं कि ट्यूशन में क्या पढ़ा आदि। क्या इसे संवाद की श्रेणी में रखें? क्या हम इसे मुकम्म्ल संवाद मानें? जहां तक जे.कृष्णमूर्ति का मानना है कि हम संवाद प्रकृति के तमाम चीजों से किया करते हैं। हम पेड़ पौधों, पहाड़, जीव-जंतुओं से भी चाहें तो कर सकते हैं। और ये तमाम तत्व हमारे संवाद में हिस्सा भी लेते हैं। लेकिन हम बच्चों से संवाद स्थापित नहीं करते। जैसा कि ऊपर कहा गया हम बच्चों से संवाद करने की बजाए सूचनाओं का आदान प्रदान ज़्यादा किया करते हैं। ऊपर से बच्चों पर आरोप लगाते थकते नहीं हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। बच्चे हमारी बातों में दिलचस्पी नहीं लेते। सोचना हमें है कि यदि हम सुनना चाहते हैं तो हमें कहना भी आना चाहिए। कैसे कहें और कितना कहें, कब कहें इसकी समझ हमें विकासित करनी होगी। पहली बात तो यही कि हम स्वयं सुनना नहीं चाहते। यानी भाषा के एक कौशल सुनने मे ंहम कितने कमजोर हैं और दोषी बच्चों को ठहराते हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। हम कब उन्हें कहते हैं उसका समय, स्थान, और परिवेश का भी ख़्याल नहीं रखते। जब मेहमान आए हुए होते हैं तब हम कहते हैं अजी ये तो सुनता नहीं है। स्कूल से आने के बाद सामान कपड़े इधर उधर फेंक देता है। पढ़ने में तो ज़रा भी इसका मन नहीं लगता। एक हमारा समय था इस उम्र में हम कितने गंभीर थे। मजाल है हम अपने मां-बाप को जवाब दे दें। ऐसे सोचने वाली बात यह है कि क्या आपका बच्चा उस वक़्त सुन रहा है या सुनने का स्वांग कर रहा है। दरअसल वक़्त हम बच्चे से संवाद स्थापित करने की बजाए अपनी आपबीती और बच्चे की दुनिया की उपेक्षा और अस्वीकार्यता औरों के समक्ष रख रहे होते हैं। हमें अनुमान नहीं होता कि इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा कहीं न कहीं स्वयं को उपेक्षित और हेय मानने और समझने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे अंदर ही अंदर कुंठित होने लगता है। जब पापा या मम्मी को मेरी बुराई ही करनी है तो करें। मैं तो ऐसी ही हूं। हम अंजाने में बच्चे की अस्मिता और सम्मान को ठेस पहुंचा रहे होते हैं। हमें इसका ख़मियाज़ा आगे चल कर भुगतना पड़ता है। जब बच्चा उच्च या माध्यमिक स्कूल में आ जाता है। अब वह खुल कर अपना तर्क रखने लगता है। आपसे भी तर्क और प्रतितर्क करने लगता है। तब हमें महसूस होता है कि यह हमसे जबाव लड़ा रहा है। जबकि वह जबान नहीं लड़ा रहा है बल्कि वह समझने की कोशिश करता है कि जो चीज पापा-मम्मी को पसंद नहीं है वह हमारे लिए कैसे हितकर हो सकते हैं।
आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि बच्चों के आत्मस्वाभिमान को हम तवज्जो नहीं देते। बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और आत्मपहचान को ज़्यादा अहम मान बैठते हैं। यदि बच्चा फेल हो जाए या आपके कहने पर कोई कविता, कहानी दूसरों को न सुना पाए तो यह आपके लिए प्रतिष्ठा की बात हो सकती है। क्या हमने उस वक़्त बच्चे की पसंदगी पूछी? क्या बच्चे का बाह्य संसार अभी कविता व कहानी सुनाने के लिए मकूल है? हमें इन बातों को भी ध्यान में रखने होंगे। लेकिन हम जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा की दुनिया में सांसें ले रहे हैं ऐसे में ही माहौल में हमारा बच्चा भी जी रहा है। अक्सर हमारी तुलना के खेल बचपन से ही शुरू हो जाते हैं जिसका दबाव मां-बाप पर और आगे चल कर बच्चों में संक्रमित होते नज़र आते हैंं। मसलन हर बच्चे की अपनी प्रकृति होती है वह उसी तरह विकसित होता है। कुछ बच्चे जल्दी बोलने और चलने लगते हैं। हम अपने भाग्य और बच्चों के बरताव पर चिल्लाने लगते हैं कि हमारा बच्चा तो बोलता ही है। फलां का देखो इससे छोटा है मगर साफ बोलता है। चलने भी लगा है। हमें धैर्य से काम लेने की आवश्यकता है।
जैसा कि ऊपर प्रमुखता से इस बात की तस्दीक की गई कि बच्चों से संवाद स्थापित की जाए न कि सूचनाओं का आदान प्रदान। यदि ठहर पर मंथन करें तो पाएंगे कि बच्चों से संवाद करने की संभावनाएं दिन प्रति दिन कमतर होती जा रहा हैं। बच्चों से संवाद की कड़ी जब अभिभावकों के हाथ से निकल कर बाजार के हाथ में आ जाती है तब स्थिति बिगड़ने लगती है। बाजार अपनी शर्तां पर, अपने तरीके से बच्चों से संवाद कम अपना कन्ज्यूमर बनाने लगता है। वह अपने प्रोडक्ट्स के उपभोक्ता तैयार करने लगता है। यही कारण है कि हमारे घरों में बच्चे हमारी कम बाजार और विज्ञापन की भाषा ज़्यादा जल्दी समझने और बोलने लगते हैं। बाजार की यही तो ताकत है कि बाल मनोविज्ञान का इस्तमाल इन्हीं उपभोक्ताओं को फांसने में करता है। हम धीरे धीरे बच्चों की भाषायी और संवादी परिधि से बाहर होने लगते हैं। जब हमारे हाथ से बाल-संवाद की डोर छूटने लगती है तब हमारी िंचंता बढ़ने लगती है। हम आनन-फानन में टीवी के रिमोट छुपाने लगते हैं।

Monday, November 12, 2018

उम्र के उस पड़ाव पर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
उम्र हम पर कब भारी पड़ने लगे यह हम कुछ भी तय रूप में नहीं कह सकते। प्रसिद्ध कथाकार,पत्रकार प्रियदर्शन जी की एक कविता से उधार लेकर शब्दों में बांधना चाहूं तो यह होगा कि उम्र हमारी कनपट्टियों से उतरा करती है। यानी सफेदी के साथ एहसास पुख़्ता होने लगता है कि हम अब उम्रदराज़ होने लगे। पता नहीं चलता कि कब हमारी कनट्टियों के काले कलम सफेद होने लगे। जिसे हम रंग रोगन से छुपाने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन सफेदी है कि छुपाए नहीं छुपती।
उम्र के साथ कुछ ज़रूरी पहचान हमारे व्यक्तित्व में आने लगते हैं। मसलन जल्दी चीजें भूलने लगना। ब्लड प्रेशर का बढ़ना, मधुमेह के गिरफ्त में आने लगना आदि। बच्चे बड़े होने लगते हैं। उनकी कॉलेज की पढाई खत्म होकर नौकरी पेशे की चिंता हमारी िंचंता होने लगती है।
यदि सही कॉलेज मिल गए तो तीसरे साल की चिंता कैम्पस प्लेसमेंट में अच्छी कंपनी उठा ले जाए। जॉब का पैकेज अच्छा हो। अगर सरकारी नौकरी मिल जाए और भी अच्छा। सरकारी नौकरी से खुद रिटायर होकर एक मकान तक नहीं बना पाते लेकिन बच्चों के लिए सरकारी नौकरी की उम्मीद पाले बैठे होते हैं।
देश के किसी भी कोने में घूम आएं हर सरकारी क्वाटर का नैन नक्श तकरीबन एक से ही होते हैं। अपनी अपनी पहचान दूर से ही हो जाया करती हैं। रिटायरमेंट के करीब पहुंचने पर एहसास मजबूत होने लगता है कि यार हमने तो जीवन में कुछ किया नहीं कम से कम मेरा बच्चा तो कर ले। मैंने ये नहीं किया, वो नहीं किया आदि आदि के मलालों से भरे हुए हम फिर बच्चों को अपनी कहानियां सुनाया करते हैं।
लाचारगी और दूसरों पर निर्भरता बढ़ने लगती है। यदि बच्चा दूसरे शहर में नौकरी कर रहा है तब हमारी मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं। हम चाहते हैं कि साल में कई दफा चक्कर काटा करे। पर्व त्येहार पर बाल बच्चों के साथ आया करे। लेकिन यह भूल जाते हैं कि हमारा बच्चा जिस कंपनी में काम कर रहा है वहां छुट्टियों की कितनी दिक्कत होती है। लेकिन हम यह समझ नहीं पाते। तकरार यहां भी होती है दो पीढ़ियों के दरमयान।
कई बार हमारी उम्र हमारी आदतों, रोज दिन के कामों और स्वभावों को भी ख़ासा प्रभावित करता है। हम अक्सर छोटी छोटी बात पर नाराज़ हो जाया करते हैं। हमें लगता है कि हमारी तो कोई सुनता ही नहीं। हमने क्या अपने जीवन में यूं ही बाल सफेद किए हैं। मगर होता इससे उलट है। कभी कभी हमें दोनों की ही स्थितियों को समझने की आवश्यकता होती है।

Thursday, November 8, 2018

वो जो एक शहर था



कौशलेंद्र प्रपन्न
शहर क्या पूरा का पूरा इतिहास समेटे सदियों से खड़ा था शहर। शहर के बीचों बीच एक लंबी,चौड़ी झील कहें, तालाब कहें जो भी नाम दें पुराना झील हुआ करता था। जब भी शहर में कोई कार्यक्रम होता। कोई मेला लगता या फिर जलसा होता तो इसी झील के किनारे लोग इकत्र हुआ करते थे। मेला,ठेला, अपरंपार भीड़ का स्वागत यह शहर किया करता था। इतिहास को अपनी प्रगति और अस्तित्व के साथ ओढ़े हुए जिं़दा था। इसी शहर में एक बड़ी फैक्ट्री भी हुआ करती थी जिससे इस शहर की पहचान थी।
शहर के बीचों बीच एक नदी भी हुआ करती थी, बल्कि नदी नहीं यह नद हुआ करता था। देशभर में तीन ही नद हैं जिसमें से एक नद था। बल्कि है। लेकिन समय के साथ वह नद भी महज बरसाती नदी सी हो गई है। सिर्फ साल में कुछ ही माह इसमें भर भर कर पानी हुआ करते हैं।
इस शहर को भी ऐतिहासिक नाम मिला हुआ था क्योंकि इसी शहर के तट पर बाणभट्ट के कुछ पाठ लिखे गए थे। यह देहरी घाट हुआ करता था यह इस शहर का पुराना नाम है। जो बाद में देहरी हुआ, फिर कालांतर में डेहरी हुआ। और जब अंग्रेज आए तो इसका नाम डेहरी ऑन सोन पुकारना शुरू किया। क्योंकि यह शहर पर सोन के किनारे बसा था इसलिए इसे डेहरी ऑन सोन नाम दे दिया। संभव है जिस प्रकार से शहरों के नाम बदले जा रहे हैं इस शहर को भी नामबदलुओं की नज़र न लग जाए। और इस शहर का नाम देहरी ऑन सूत्रपुत्र कर दिया जाए।
शहरों के नाम बदलने की संस्कृति में उन तमाम शहरों को डर है बल्कि शहर भी डरे हुए हैं कि कभी भी उन्हें नया नाम दिया जा सकता है। एक सवाल पूछने का मन कर रहा है कि वॉट इज देयर इन द नेम? वॉट इज देयर इन पर फॉम? आदि। नाम से ज़्यादा मायने काम रखा करता है। लेकिन कहते हैं फैशन के दौर में नाम ही बिका करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो नाम पर ख़राब से ख़राब चीजें भी अच्छे दामों पर बिक जाया करती हैं।
दूसरा मेरे शहर में पुराने कुछ एक ही मूर्तिया हुआ करती थीं। जैसे डेहरी पड़ाव। इस मैदान से लगा था गांधी मैदान। संभव है आने वाले दिनों में गांधी के बगल में ही कुछ और लोगों की मूर्तियां रातों रात लगा दी जाएं और नए नाम से पुकारने के फरमान जारी कर दी जाएं।
शहर को बसने और विकसने में वक़्त लगा करता है। धीरे धीरे शहर की पहचान वहां की सांस्कृतिक और सामाजिक बुनावट से हुआ करती है। जिस शहर में कभी बारह पत्थल, बीएमपी, झांबरमल गली हुआ करती थी। वहीं राजपुतान मुहल्ला भी होता था। याद नहीं है लेकिन उसी शहर में एक हिस्सा मुसलमानों का भी हुआ करता था। जिसे कोई ख़ास नाम मयस्सर नहीं था। बस उसे मुसलमानों के मुहल्ले से जाना जाता था। धीरे धीरे उस मुहल्ले को भी नज़र लगने लगी। माना जाता है कि शहर के बसने की प्रक्रिया में कई सारी चीजें, मान्यताएं साथ साथ रचने बसने लगती हैं। मंदिर, गुरूद्वारा, मस्जिद आदि। वहीं छोटी-छोटी दुकानों का भी जन्म होता है। देखते ही देखते वहीं पुरानी दुकानें शहर की पहचान बन जाया करती हैं।
जब एक शहर अपना रंग रूप बदला करता है तो उसके साथ बहुत सी चीजें अपने आप बदलाव की प्रक्रिया से गुजरने लगती हैं। कहते हैं जब टिहरी को डूबोने की प्लानिंग हो रही थी तब वहां के निवासियों ने काफी विरोध किया था। वहां के पत्रकार, लेखक, कवि, कथाकारों ने अपनी अपनी रचनाओं और कलमों से इस विकास को रोकने का प्रयास किया मगर सत्ता और सरकार सबपर भारी पड़ी। दिवाली का ही दिन था जिस दिन टिहरी जलमग्न हो गई थी। वह एक शहर का डूबना भर नहीं था बल्कि उस शहर के साथ एक इतिहास भी जल में समा गया था। वहां ही संस्कृति और मान्यताएं, कथा कहानियों भी एक साथ जलमय हो गईं। जब कभी भी शहर का नाम बदला जाए या शहरों को मूर्तियों का शहर बनाया जाए तब वहां के निवासियों की भी राय ली जाए।

Thursday, November 1, 2018

हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा


हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा
कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरी जिं़दगी याने जितनी पढ़ाई लिखाई की वो सब हिन्दी में ही की। हिन्दी में पढ़ना-लिखना, सोचना, बोलना भाषा के चारों कौशलों का काम हिन्दी में रही। सो हिन्दी भाषा के तौर पर दक्षता हासिल की ली। अंग्रेजी को कभी उतना तवज्जो नहीं दी। जबकि देनी चाहिए थी। मेरे पिता अंग्रेजी के ही अध्यापक रहे। हमें स्कूल और घर पर अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाएं पढ़ाईं। लेकिन बचपना ही कहेंगे कि अंग्रेजी के प्रति अनुराग नहीं जग पाया। न लिखने को लेकर और न पढ़ने और बोलने के स्तर पर। ऐसा भी नहीं था कि अंग्रेजी से कोई गुरेज था बल्कि एक लापरवाही थी कि अंग्रेजी पर ध्यान नहीं दिया।
अब जब बतौर भाषाकर्मी के नाते सोचता और अमल करने की वकालत करता हूं तो महसूस होता है कि हमें किसी भी भाषा के बैर नहीं है। न ही होना चाहिए बल्कि भाषा के लिहाज से एक बेहतर इंसान बनने के लिए बहुभाषी होना ही चाहिए। यह एहसास तब हुआ जब प्रोफेशनली भूमिका बदली। जब तक भाषा विशेषज्ञ था तब अलग ही चश्में से देखा करता था। लेकिन जब से मैंनेजर व लीडर की भूमिका में आया तब महसूस हुआ कि यदि बहुजन तक पहुंचना है तो बहुभाषी होना नितांत ज़रूरी है।
मेरे जीवन में भाषायी और चिंतन तौर पर 360 डिग्री पर परिवर्तन घटित हुआ जब मार्च में मैं आईआरमा में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और लीडरशीप की को कोर्स के लिए गया। वो चार दिन अंग्रेजी में सुनना, बोलने की कोशिश करना आदि बेहतर रहा। वहीं से शायद अंग्रेजी के प्रति राग पैदा हुआ। मैंने अपने आप से वायदा किया कि अब मैं अंग्रेजी से भी मुहब्बत किया करूंगा। यह भाषा भी हमारी है और हमें सीखनी ही चाहिए।
तब का दिन और आज का दिन अंग्रेजी बोलने, सुनने और पढ़ने के अभ्यास को बढ़ा दिया। ज़्यादा से ज़्यादा अंग्रेजी में कंटेंट पढ़ना और बोलने की कोशिश शुरू हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि 23 मार्च को एक संस्थान में देश के विभिन्न राज्यों से टीचर और टीचर प्रशिक्षक उपस्थिति थे। पहले से मालूम नहीं था कि वहां हिन्दी भाषी कम होंगे। ज़्यादा तर दक्षिण भारतीय थे। मैंने जब देखा तो लगा मुझे मेरी हिन्दी यहां काम नहीं आएगी बल्कि अंग्रेजी की मदद चाहिए। और मैंने कंटेंट वही रखा और शुरू हो गया अंग्रेजी में। शाम साढ़े पांच बजे तक चले से सत्र के बाद मैंने लोगों से पूछा क्या उन तक पहुंच सका? क्या मेरी बात उनक तक संप्रेषित हो पाई? तो लोगों ने साफतौर पर कहा कि हां उन्हें मेरी बात ही समझ में नहीं बल्कि जो मैंने उन्हें दिया वो भी ख़ासा मायने वाला था।
अहमदाबाद के बाद यह पहला मौका था जब मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक तकरीबन पांच घंटे अंग्रेजी में व्याख्यान दिए। हिन्दी बीच बीच में छौंक के तौर पर आई। उन दिन मेरा हौसला और बढ़ गया।
अंत में यह कहना चाहता हूं कि जिस भाषा से भागता रहा आख़िर में उसी भाषा को अपनाकर आज खुश भी हूं और अभिभूत भी कि आज मेरे पास दो सशक्त भाषाएं हैं जिनके कंधे पर सवार होकर दुनिया को देख और समझ सकता हूं। मैंने यह जरूर किया कि अंग्रेजी के चैनल, व्याख्यान, इंटरव्यूज आदि देखने पढ़ने शुरू किए ताकि ज़्याद से ज़्यादा अंग्रेजी की तमीज़ और ध्वनियां, नजाकत और मुहावरे कानों में पड़े। जब भी कुछ नया वाक्य या मुहावरे सुनता उसे कहीं न कहीं किसी न किसी के सामने उगल देता। मेरे साथ काम करने वालों को लग गया कि कुछ तो है। कुछ है जो मुझमें घटा है। कुछ है जो मुझमें नया हुआ है। कुछ तो तब्दीली हुई है कि आज कल मेरी भाषा पर अंग्रेजी तारी हो रही है। तैर रही है। साथियों ने पूछा भी कि आख़िर क्या हुआ? क्या हुआ ऐसा कि आज कल मैं अंग्रेजी में बोलने बतियाने लगा हूं। ऐसे क्या हुआ और क्या किया एक माह या दो माह में मेरी भाषा पर नजर आने वाली बारीक ही सही किन्तु अंतर लोगों की नजरों से ओझल नहीं रह सकीं। कुछ ने पूछा भी ऐसा क्या किया व क्या कर रहा हूं कि अंग्रेजी में बोलने, लिखने लगे। सिर्फ और सिर्फ इतना कह सका कि जो बात बड़ी शिद्दत और चिंता से पिताजी कहा करते थे लेकिन कभी नहीं माना बस अब वो कर रहा में। कभी भी देर नहीं है। जब भी अपने प्रति हम सचेत हो जाते हैं तभी से बदलाव घटित होने लगता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...