Friday, April 22, 2016

बंदियों की जिंदगी


कौशलेंद्र प्रपन्न
कैदियों की जिंदगी कैसी होती है? क्या करते हैं हमारे कैदी दिन भर? जिन्हें ताउम्र कैद की सज़ा मिली हुई है वे जिंदगी को कैसे और किस नजरिए से देखते हैं आदि कुछ ऐसे सवाल जेहन मंे लगातार परेशान कर रहे थे। जब से दिल्ली से चला और हल्द्वानी पहुंचा रास्ते इसी उधेड़ बुन मंे कटे। कैसे और किस मुद्दे पर उनसे बातचीत की जाए। अवसर संपूर्णनंद केंद्रीय शिविर जेल, सितारगंज, उधम सिंह नगर में कैदियों के बीच कविता पाठ और उनसे बातचीत का था। इस अवसर पर एसडीएम श्री बाजपेयी जी, जेल प्रभारी श्री टीपी जोशी और स्थानीय पत्रकार दोस्त भी मौजूद थे। दिल्ली से तकरीबन पंद्रह कवि,व्यंग्यकार,कथाकार आदि थे। जिन्हें उन कौदियों के बीच कविताएं,लघुकथा आदि सुनाने थे। सब के सब उत्सुक और जिज्ञासु थे कि कैदी कैसे होंगे? उन्हें कविताएं पंसद आएंगी या नहीं। लेकिन जैसे जैसे कैदियों से हाॅल भरता गया उत्साह की कोई सीमा नहीं थी। तय समय चार बजे से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। कैदियों के चेहरे पर उतरते चढ़ते भाव देखते बनते थे। उन्हीं में से एक बुजूर्ग कैदी के हाथों डाॅ प्रेम जनमेजय की सद्यः प्रकाशित किताब का लोकार्पण भी किया गया। उन्होंने बड़ी शिद्दत से किताब को पढ़ने के लिए मांगा और कहा कि आप लोग आते रहा कीजिए हमें बहुत उत्साह और प्यार मिला। केंद्रीय जेल में इस तरह का पहला कार्यक्रम था। एसडीएम साहब ने विशेष आदेश जारी कर टीपी जोशी को इस कार्यक्रम को अमलीजामा पहनाने का कार्यभार सौंपा था। काफी हद तक सफल भी रहा।
व्यंग्य के छिंटे इन कैदियों को गहरे झकझोर रही थीं वहीं कविताओं के झरोखों से ये लोग भी अपनी पुरानी जिंदगी और घर परिवार को महसूस रहे थे। कुछ की आंखें पनीली भी दिखाई दे रही थीं। पता नहीं कविता, व्यंग्य की कौन सी पंक्ति, कौन सा वाक्य, कौन से शब्द उनकी जिंदगी के कौन से तार छेड़ रहे थे पता नहीं, लेकिन हमें एक सुखद अनुभूति यह हुई कि हमने अपनी रचनाओं से इनकी बेरंग जिंदगी में थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु एक उमंग और आनंद के भाव जरूर प्रवाहित किया। इनकी जिंदगी को छूने वालों मंे प्रेमजनमेजय, लालित्य ललित, हरीश नवल, दिलीप तेतरवे, दीपक सरीन जैसे गीतकार तो थे ही साथ ही व्यंग्य के हस्ताक्षरों ने भी अपनी रचनाओं से इन्हें जोड़़ने मंे काफी सफल रहे।
अमूमन हम फिल्मों में कैदियों की जिंदगी जैसी देखते और ख़बरों में पढ़ते हैं ठीक वैसी नहीं होती। फिल्मी पर्दे के कैदियों की जिंदगी और हकीकतन जिंदगी मंे काफी अंतर होता है। इस जेल में बीस साल के  आयु वाले से लेकर तकरीबन अस्सी साल के आयु वाले कैदी मिले। हर कैदी की अपनी कहानी थी। हर कैदी यहां अपनी कहानी के साथ बची हुई जिंदगी बसर कर रहे थे। ऐसे ही एक एकहत्तर साल के मो. हक़ साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि राजनीतिक बदले की वजह से आज बीस साल से जेल में हैं। कब तक बाहर निकल पाएंगे यह कोई नहीं जानता। वहीं बलबीर सिंह की अपनी कहानी है। कैदियों से अब वे बंदी हो गए हैं। यानी शिविरवासी। संपूर्णनंद केंद्रीय जेल की ख़ासियत यह भी है कि यह शिविर जेल है। कैदियों के चाल चलन और व्यवहारादि को देखते हुए शिविर में भेज दिया जाता है। जहां वे बंदी होते हैं। इन्हें खुल में शिविर यानी झोपड़ी मंे रहने की आजादी होती है। इनकी दिनचर्या भी कैदियों से अलग होती हैं। ये अपने घर,परिवार की शादियों में भी जाते हैं और वापस जेल आ जाते हैं। बाजार से सामान आदि खरीदने भी जाने की छूट होती है। इस मामले में कैदियों पर एक अंकुश जरूर है। वे चाहरदीवारी के बाहर नहीं जा सकते। शाम पंाच बजे के बाद अपने अपने कमरों में चले जाते हैं। गिनती होती है आदि।
बाईस साल के मंजीत ने बताया कि उसे यहां पढ़ने को पेपर, टीवी आदि सब उपलब्ध है। बस हम बाहर नहीं जा सकते। दिनभर जिन्हें जो काम दिया जाता है उसे पूरा करना होता है। कोई लकड़ी का काम करता है तो कोई फूलों के रस निकाल कर बोतल में बंद करने का काम करता हैं। इनके द्वारा बनाए सामान बाजार मंे बिक्री के लिए जाते हैं। कुछ कैदी खेती करते हैं। बलजीत ने बताया कि मौसमी फसल हम लोग करते हैं अपने काम भर अनाज रखकर बाकी अनाज, सब्जियां आदि दूसरे जेलों में भेज दिया करते हैं।
बस यहां बंदियों की जिंदगी कट सी रही है। न बाहर आने का इंतज़ार है और न उम्मीद ही। एक बंदी ने बताया कि मेरा दोष इतना भर था कि जहां मर्डर हुआ वहां मैं खड़ा था। एक दूसरे बंदी ने बताया कि मैं मारना तो नहीं चाहता था लेकिन गुस्से में ज्यादा चोट लग गई और वो मर गया। अफ़्सोस तो है लेकिन अब क्या कर सकते हैं? उसे जिंदा तो नहीं कर सकते। किसी की शादी के एक साल हुए थे। उसकी पत्नी ने साल भर के भीतर ही आत्महत्या कर ली। पत्नी के भाई, चाचा पुलिस और वकील थे। कई सारी धाराएं लगाकर कर दिया अंदर। कभी कभी मां और भाई मिलने आते हैं। अच्छास लगता है। लेकिन बाहर आने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। सुना है कि रात दिन मिलाकर उम्र कैद पंद्रह सालों मंे पूरा मान लिया जाता है लेकिन हमें तो यहां बीस बीस साल हो गए।
एक वृद्ध बंदी जिनकी उम्र यही कोई 65 की रही होगी। उन्होंने बताया कि अब हम बेहद दुखी हैं क्योंकि हमारे बंदी भाइयों को उनके गृह राज्य के जेलों मंे भेजा जा रहा है। हम लोग यहां धर्म,जाति, प्रांत को भूलकर बस कैदी भाई की तरह रहते हैं। अब हम बिछुड़ जाएंगे। पता नहीं फिर जीवन में कब मिलेंगे।


@पटेल चेस्ट



वो जब दिल्ली आया तो सीधे रेलवे स्टेशन से 901 नंबर की बस में ठूंस कर कैंप उतर गया। दोस्तों ने बताया था कि क्रिश्चिय काॅलोनी मंे सस्ते में कमरे मिल जाते हैं। खाने पीने की भी दिक्कत नहीं होती। बस एक एयर बैग, कुछ किताबें और एक पानी बोतल लेकर मामू चाय दुकान पर बैठा नरेंद्र का इंतजार कर रहा था। आंखें मिचते हुए सुबह के आठ बजे मामू की चाय दुकान पर दोनों मिले। हाथ मंे सिगरेट और चाय के साथ आगे कहां रहना है, कहां दाखिला लेना है की योजनाएं बनीं और प्रकाश नरंेद्र के साथ उसके कमरे पर चला गया। यार! इस कमरे मंे रहतो हो? कैसे रह लेते हो? इतना अंधेरा, दम घोटू हवा। नरेंद्र चुपचाप सुन रहा था। उसने कहा, पास में हडसन लेन है वहां रह लो। कमरे खुले खुले हैं। किराया यही कोई दस से पंद्रह हजार। अब प्रकाश की आंखें चैंधिया गईं। इतना तो नहीं दे हो पाएगा।
क्रिश्चियन काॅलोनी के गेट के अंदर एक नई दुनिया मंे प्रकाश का प्रवेश हुआ। जहां हर घर में हर मकान में एक छोटा ढाबा और एक छोटी चाय की दुकान चला करती हैं। गेट के अंदर ढुकते ही एक आंख भी रहा करती है जिसकी दुकान पर अकसर भीड़ रहती है। दूध,चाय,सिगरेट आदि मिल जाया करती हैं। नए नए आने वाले लड़के अकसर उसी की दुकान पर भिन्न भिनाया करते हैं। उसे भी मालूम है लड़के क्यों उसकी दुकान मंे आते हैं। इसे बहाने बिक्री भी हो ही जाया करती है। प्रकाश उसी दुकान मंे आने जाने लगा। काॅलेज मंे दाखिला हो चुका। रात से लेकर सुबह आंख ख्ुालते ही उसकी दुकान पर मिला करता। धीरे धीरे उसकी दोस्ती सी हो गई। उस आंख से। हालांकि उस आंख मंे दोस्ती का कोई खास मायने तो था नहीं। इसलिए उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। नरेंद्र को लगा प्रकाश कुछ ठीक नहीं चल रहा। इसलिए समझाने की कोशिश। मगर प्रकाश को उसका प्रवचन बहुत खला। तुम तो कुछ कर नहीं पाए। इस उम्र मंे भी तैयार में लगे हो। न परीक्षा पास की और न किसी की आंख मंे बस पाए। सीधे क्यों नहीं कहते जल रहे हो।
...और प्रकाश ने काॅलोनी ही छोड़ दी। आ गए साहब ए 5 में। किराया दो सौ ज्यादा था लेकिन एक खुलापन था। मेन रोड़, चारों ओर चहलपहल। नरेंद्र की चैकीदारी से भी निजात मिल गई। साल ही गुजरे हांेगे कि उन आंखों में प्यार तो क्या होना था हां रजामंदी जरूर हो गई थी। अब वो उसके कमरे मंे आने लगी थी। कमरे में आने लगी थी मतलब काॅलेज जाने लगी थी। समझ रहे होंगे। सुबह से शाम तक। सड़ी गरमी में भी दोनांे कमरे मंे बंद रहते। दूसरे कमरे वाले आंखों ही आंखों में मजे लेते। कमरा क्या था बस यूं समझ लें कि अपने कमरे मंे करवट लें तो उसकी अंगड़ाई दूसरे कमरें में सुनी जा सकती थी। तो उसके कमरे से भी आवाजें आने लगीं। जैसा कि दूसरे कमरों से आया करता था। दिन मंे तो लड़के कमरों की दीवार मंे कान लगा कर कमरे की कहानी देखा करते। अमूमन हर कमरे ही अपनी कहानी थी। हर कमरा गुलजार था।
एक कमरे की कहानी कुछ और ही थी। रात रात भर तो कभी कभी दिन मंे भी रोने की आवाजें आया करती थीं। कभी लड़के की तो कभी लड़की की। सब के सब हैरान। यह क्या इस आवाज की कहानी तो कुछ और ही इशारा कर रही है। लड़के बताते हैं कि लड़का कोई और नहीं प्रकाश था। यह दूसरा साल था। उस आंख के साथ अब कमरे में बंद होना और मौसमों से बेख़बर शाम बाहर आना सभी के लिए अब आम बात थी। बस यदि आम घटना नहीं थी तो वह उस शाम कमरे से रोने और लगतारा रोने की आवाज।
शर्मा जी बताते हैं कि वह अपने घर का इकलौता लड़का था। लड़की को शादी वादी से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन प्रकाश को शादी पर अड़ा रहा। अंतिम दिनों मंे रोना कानी ही मचा करता। कमरे के बाहर कान लगाने वाले बताते हैं कि आनंद वाली आवाज खत्म हो गई थी। काफी समय से रोने की सुबकने की ही आवाज आया करती थी। अब यह भी कोई सुनना है? सुनते तो तब थे जब मस्ती वाली आवाजें आया करती थीं। जैसे और कमरों से आया करते थे। गर्मी की छूट्टी के बाद प्रकाश आया ही था कि एक पत्रिका में ख़बर फोटो के साथ पढ़ा वो आंख देहरादून में हाई प्रोफाइल रोकेट में रंगे हाथ पकड़ी गई। अब उसे काटो तो खून नहीं।
ममू की चाय दुकान वैसे ही लगी। उस सुबह भी मामू ने आपलेट बनाया चाय बनाई। वो रात दो बजे आमलेट और चाय के पैसे उधार कर कमरे में वापस चला गया। मामू बताता है कि सुबह उसके कमरे के बाहर मजमा लगा था। हालांकि एक गलियारा ही था। जहां लोग ठूसे हुए थे। किसी को भी भनक नहीं लगी कि उनके बगल के कमरे मंे आधी रात में कैसे आवाज आई। तकरीबन नौ दस का समय रहा होगा। कमरे का दरवाजा सटा था। कई आवाज देने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं आया तब रूम नंबर 11 वाले ने अंदर जाने की हिम्मत की।
आंखंे बंद। घड़ी बस चल रही थी। नब्ज का पता नहीं चल पाया। आनन फानन मंे बड़ा हिन्दूराव ले जाया गया जहां उसे डाॅक्टरों ने ठप्पा लगा दिया। मौनेचरी में रख दें। घर वाले आए। मां आई। बाप आया। बस नहीं मिला उन्हें उनका प्रकाश। पीछे एक अंधेरा छोड़ कर जा चुका था उस आंख के पीछे।
सपने तो थे ही प्रकाश के। कहता था लाल बत्ती लिए बिना वापस नहीं जाना। एक कोना था उसके पास भी जहां एक पनीलापन था। जहां वो आंख गड़ गई। जहां उसके सपने में एक पंख सा लगा। उड़ाने तो उसने भरी। लेकिन शायद उस सफर मंे अकेला था। उस आंख के लिए यह सब कोई नई चीज नहीं थी। सब कुछ जैसे पूर्व घटित घटना सी उसकी जिंदगी मंे घट सी रही थी। लेकिन प्रकाश! वो तो उसकी मुसकान मंे ही अपने सपने को बेंच आया। मामू बताता है कि कैसे वह चाय दुकान मंे लड़कों के बीच बहसें किया करता। सब के सब उसकी बात ध्यान से सुनते रहते। लगता कितना पढ़ा लिखा और समझदार है। लेकिन उसने यह कदम उठाकर सब को सन्न कर दिया।
जब प्रकाश आया तब नरेंद्र बताता है कि दोनों एक ही गांव के हैं। वह जरा अच्छे खानदान और पैसे वाला है। तब कंधे से कंध नहीं टकराया करता था। क्रिश्चियन काॅलोनी मंे घर भी कम थे और रहने वाले सपने भी। खाना देना वाला पूरन और जोगेंदर के अलावा तीसरा कोई नहीं था। दो ही टेलिफोन बूथ  हुआ करते थे। जहां शाम में भीड़ लग जाया करती थी। नरेंद्र और प्रकाश तभी से दूर होते चले गए जब से वो प्रकाश के करीब आई। नरेंद्र ने कई बार उससे बात करनी चाही। मगर प्रकाश झिड़क देता।
‘नरेंद्र माना कि तुम मेरे से पहले दिल्ली आए। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि तुम्हारी आंखों से दुनिया देखूं।’
‘मेरी अपनी आंखें हैं। तर्जबा है।’  
‘तुम इतने ही काबिल थे तो अब तक स्टेट भी क्यों नहीं निकला?’
‘अपनी बबंगई आपने पास ही रखो।’
‘चूके हुए इंसान से मिल कर हताशा और निराशा ही होती है।’
नरेंद्र ने आपनी ओर से बातचीत का रास्ता हमेशा ही खुला रखा। लेकिन उसकी आंखो मंे बस एक ही आंख थी। और उसी आंख में डूब भी गया।
लोग बताते हैं वो आज कल नए के साथ घूमा करती है। अचम्भा हुआ नरेंद्र को कि वो अंतिम समय मंे भी देखने नहीं आई। कहने वाले तो खूब बातें बना रहे थे। अब आ कर क्या करेगी? अब क्या मिलने वाला है। जो था सो चला गया।
सपनों का आना नहीं रूका। क्रिश्चियन गेट वहीं हैं। बजबजाती गलियां वहीं हैं। चाय की दुकानें वहीं हैं। फर्क सिर्फ यह आया है कि सपने खरीदने और बेचने का व्यापार बदल गया। कभी वे भी दिन हुआ करते थे कि काॅलोनी में एक लड़की दिखी नहीं कि लड़कों की आंखें पूरी ख़्वाब देख लिया करती थी। अब तो हर घर मंे पराठे, हर कमरे में लड़कियां आया जाया करती हैं। कंधे से कंधा टकराना मुहावरा इस काॅलोनी में सच साबित होता है।

Tuesday, April 12, 2016

तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा


कौशलेद्र प्रपन्न
तृतीयपंथी,उभयलिंगी,हिजड़ा,यूनक,किन्नर,खोजवा,मौगा, छक्का,पावैया,खुस्रा,जनखा,शिरूरनान गाई, अनरावनी आदि नामों से समाज में प्रचलित इस वर्ग को हमने भय,डर, उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा है। हिजड़ा शब्द उर्दू के हिजर से बना है। वह भी अरबी ये आया हुआ इसका अर्थ ही होता है समाज से बेदख़ल किया गया। समाज से बहार निकाला हुआ। यह अलग बात है कि वे हमारे इसी समाज के मुख्यधारा के सहयात्री हैं। बस फर्क उनके लिंगानुसार व्यवहार और भावनाओं में अंतर का है। प्रकृति से ही उन्हें समाज ने एक अलग हिस्से के तौर पर जाना पहचाना है। यह अगल बात है कि उनकी चर्चा महाभारत,रामायण, कामसूत्र आदि में होती है। लेकिन कितनी अफसोसनाक बात है कि हमारी शिक्षा और शैक्षिक नीतियों में इनके लिए कोई प्रावधान नहीं है। यूं तो न्यायपालिका ने समय समय पर हस्तक्षेप किए हैं। तमिलनाडू राज्य में केार्ट ने इन्हें राशन कार्ड,वोटर कार्ड में नामाकन के आदेश 1998 मंे दिए थे जिसका परिणाम यह हुआ कि इस राज्य में हिजड़ों की स्थिति काूननन तौर पर अन्य राज्यों से बेहतर है। वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2014 में आदेश दिया था कि सरकारी फार्म में स्त्री पुरुष के साथ ही तृतीय लिंग व अन्य नाम से काॅलम बनाएं। इन्हें शिक्षा,रोजगार आदि में स्थान दिए जाएं। याद हो कि यह वही वर्ष है जब मध्य प्रदेश मंे शबनम मौसी ने चुनाव जीता था। आगे चल कर कमला जान और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में भी हिजडे ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी, लेकिन क्योंकि जिस सीट पर जीत हुई थी वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने कही वजह से हिजड़ों को वह सीट छोड़नी पड़ी। आज की तारीख में लोकतंत्र के चारों स्तम्भों मंे से पत्रकारिता, न्यायपालिका आदि में तो काफी सक्रियता से इनकी आवाज को स्थान दी जा रही हैं। लेकिन कार्यपालिका मंे अभी संतोषजनक प्रयास नहीं हुए हैं। हालांकि महाराष्ट, बिहार, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू आदि राज्यों में इन्हें वोट देने से लेकर इनकी पहचान सुनिश्चित करने के कई कदम उठाए गए हैं।
आज यह तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा को लेकर देश की तमाम समितियां, सिफारिशें, नीतियां मौन हैं। यदि आजादी के बाद के आयोगों, समितियों और राष्टीय शिक्षा नीति पर नजर डालें तो इन दस्तावेजों और सिफारिशों मंे किन्नरों व ऐसे बच्चों की शिक्षा के विशेष प्रावधान,परामर्श एवं मार्गदर्शन की कोई बात नहीं की गई है। संभव है आयोगों और नीति के स्तर पर मान लिया गया हो कि उनकी नजर में तृतीयपंथी बच्चे कोई अलग व विशेष नहीं हैं। इन्हें भी सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा हासिल करने का पूर्ण अधिकार है। यह एक मूल्यपरक जवाब तो हो सकते हैं। लेंकिन हकीकत है कि यदि ख़ास रूचि और लिंगीय बरताव वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ स्कूलों मंे पढ़ना कितना मुश्किल होता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। उनके साथ सामान्य व्यवहार नहीं करते। समाज उन्हें छेड़ता है। समाज में वे खुल कर नहीं खेल पाते। मां-बाप ऐसे विशेष बच्चों के साथ खेलने से रोकते हैं। और यह अलगाव के बरताव उनकी सामाजिक पहचान और अस्मिता को आकार देने लगती हैं। अंतरराष्टीय स्तर पर संपन्न संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन 1989 मंे दर्ज बाल अधिकारों मंे इन्हें कोई स्थान नहीं दिया गया है। यूं तो शिक्षा, जीवन आदि का अधिकार सभी बच्चों को है, लेकिन समाज में उपेक्षापूर्ण जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिए कोई विशेष प्रावधान इस यूएनसीआरसी 89 में भी नहीं है। इसका एक सरल जवाब यही दिया जा सकता है कि इन्हें हम अलग व विशेष नहीं मानते। इसलिए अलग से व्यवस्था की जरूरत नहीं है। लेकिन हकीकतन ऐसा नहीं है। समाज और घर में उन्हें असमान ही बरताव सहना पड़ता है। किन्नरों में कुछ की कहानी अगल है जिसमें लक्षमी नारायण त्रिपाठी आती हैं जिन्हें आज भी परिवार का प्यार,मान सम्मान मिलता है। ऐसे किन्नरांे की संख्या बेहद कम है जिन्हें हिजड़ा बनने के बाद भी परिवार में वही इज्जत और प्यार मिलता रहा हो। अव्वल तो उन्हें उपेक्षित अपने हाल पर ही छोड़ दिया जाता है। और देखते ही देखते वे भीख मांगने पर मजबूर हो जाती हैं। हमारे ही आस पास कितने ऐसे किन्नर नजर आते हैं जिनकी स्थिति बेहतर है। गुरुओं की बात छोड़ दी जाए तो सड़क पर भीख मांगते या फिर बच्चों के जन्म और शादी ब्याह के अवसर पर तालियां बजा कर अपना जीवन काटती हैं।
कई बार शिक्षा की ओर बहुत उम्मीद से ताकता हूं कि क्या कहीं किसी नीति व समिति या फिर पाठ्यक्रम,पाठ्यपुस्तक में इनके भूगोल,इतिहास,संस्कृति,समाज के बारे में कोई मुकम्मल परिचय दिया जाता है। लेकिन बेहद निराशा ही मिलती है। कोई भी पाठ्यपुस्तक कोई भी पाठ्यक्रम इनके भूगोल और मानचित्र से हमारी पहचान नहीं कराते। यही वजह है कि बच्चे समाज के तमाम वर्गों के लेागों, हमारे मददगार नाई, मोची, डाक्टर, मास्टर आदि के बारे में प्राथमिक कक्षाओं में परिचित हो जाते हैं, लेकिन हमारे ही समाज में जीने वाले किन्नरों के बारे में न तो कोई बात बताई जाती है और न ही जानकारी के तौर पर एक दो वाक्य खर्च किए जाते हैं। यह किस मानसिकता की ओर इशारा करता है इसे भी समझने की आवश्यकता है। दरअसल हमारा पूरा सामाजिकरण लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष के तौर पर ही होता है। यहां किन्नरों यानी तृतीयपंथी के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया। समाज में विभिन्न नामों से इन्हें पुकारते जरूर हैं छक्का, मौगा, हिजड़ा, खोजवा आदि। लेकिन इनकी प्रकृति और समाज हमारे मुख्य समाज से कैसे अलग पहचान रखने लगा इसके बारे में हमारा इतिहास, भूगोल, शिक्षा शास्त्र सब के सब ख़ामोश ही रहते हैं।
साहित्य की बात करें तो इस विषय पर बहुत ही कम शोध मिलते हैं। कहानी उपन्यास, आत्मसंस्मरण, रेखाचित्रादि भी न के बराबर है। यदि कुछ मिलता है तो वह दंतकथाएं, कही सुनी बातें जिसपर हम धारणाएं बना लेते हैं। हम दरअसल एक पूर्वग्रह के शिकार हो जाते हैं। हम वैसी ही स्थितियां मान भी लेते हैं कि हिजड़ों मंे मरने बाद रात में लाश को नंगा कर ले जाया जाता है। इनके लिंगछेद हुए होते हैं। वे बच्चों को उठाकर उन्हें जबरन लिंग काट कर हिजड़ा समुदाय में शामिल कर लेते हैं आदि। किन्तु यह पूरा सच नहीं है। जहां तक साहित्य के मौन की बात है तो वास्तव में हिन्दी में अबतक शायद पांच छह से ज्यादा कहानी,उपन्यास व अन्य पुस्तक लिखी गई हैं जिन्हें पढ़कर किन्नर समुदाय को समझा जा सके। साहित्य और समाज के हाशिए पर जीवन बसर करने वाली लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब इसी वर्ष छप कर आई है। यह किताब बड़ी ही शिद्दत से हिजड़ा समुदाय के भूगोल को तथ्यपरक और साक्ष्य सहित जानकारियां भर ही नहीं देती, बल्कि एक किन्नर को किस किस तरह के सामाजिक, मानसिक और शारीरिक भेद-शोषण के दौर से गुजरना पड़ता है इसकी भी झलक इस किताब में मिलती है। इस किताब से पूर्व अंग्रेजी मंे लिखी किताब निदर मैंन नौर विमेन इन इंडिया। यह किताब जिस गंभीरता से किन्नरांे के समाज, भूगोल और मनोविज्ञान की ओर पाठकों का ध्यान खींचती है वैसी किताब हिन्दी में अब तक कोई नहीं है। यह जिस ओर संकेत करती है वह निराशाजनक है। साहित्य आदि भी इन्हें अपना विषय नहीं बनाना चाहते। या कह लें इनके पास भी पर्याप्त जानकारी नहीं है कि इनकी दुनिया आखिर है कैसी और कैसे चलती है। दिलचस्पी का न होना और रूचि भी न लेना दोनों में ख़ासा अंतर है। वास्तव में न तो हमारी रूचि होती है और न हम जानना ही चाहते हैं। यही कारण है कि ये हमारे आस पास होते हुए भी हमसे कोसों दूर होते हैं।
हिजड़ों को लेकर फिल्मों में कई भूमिकाएं निभाई गईं। फिल्मों में दो तरह की किन्नरों की कथा गाथा मिलती है। पहला वे जो महज साड़ी पहन कर नाच गाने करती हैं। जिनकी आवाज स्त्रैण होती है। दूसरी वैसी फिल्में हैं जिसमें किन्नरों को मुख्य भूमिका में रखते हुए उनकी दुनिया की कुछ जानकारियां और संवेदनाओं को समाज के सामने लाया गया है। सदाशिव आम्रपुरकर ने सड़क में, आशुतोष राणा ने संघर्ष  में सशक्त भूमिका निभाई है। वहीं परेश रावल ने भी किन्नरों की भावनात्मक पक्ष को उभारने की तमन्ना फिल्म में कोशिश की है। सबसे दिलचस्प और सामाजिक राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाली शबनम मौसी की कहानी से मिलती जुलती हु ब हु समान तो नहीं किनतु वेलकम टू सज्जनपुर फिल्म है। इसमें एक हिजड़ा चुनाव मंे खड़ा होता है। काफी जद्दो जहद के बाद चुनाव जीत भी जाती है किन्तु उस गांव के वर्चस्वशाली परिवार को यह जीत नागवार गुजरी। एक दिन सुबह उस हिजड़े की लाश नहर किनारे मिलती है। यह फिल्म वास्तव में समाज और समाज के नीति निर्माताओं के लिए एक आईना है।
मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब में लक्ष्मी नारायण बड़ी ही साफगोई से अपनी आपबीती कहानी, व्यथा-कथा कहती हैं। कहती हैं कि हम हिजड़ों को समाज के मुख्य अंग बन कर ही जीना चाहिए। हम क्यों समाज से विमुख रहें। हम तभी समाज का हिस्सा बन सकते हैं जब हम ज्यादा से ज्यादा दिखाई देंगे यानी विजबल हांेगे। लक्ष्मी जी ने न केवल भारत में बल्कि यूएन के जनरल एसेम्बली में हिजड़ों की आवाज उठा चुकी हैं। इतना ही नहीं विश्व भर में टांस्जेंडर के मसले की वकालत कर रही हैं। आज की तारीख मंे एक लक्ष्मी नहीं हैं जो किन्नरों की स्थिति सुधरे। बल्कि कई सारी संस्थाएं जिसे किन्नर समाज ने स्थापित किया इन्हें जागरूक करने का काम कर रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, वोट आदि अधिकार मिले इसके लिए लगातार देश भर में विभिन्न संस्थाएं काम कर रही हैं। दरअसल इसी समाज में उन्हें दोयमदर्जे की जिंदगी इसलिए बसर करनी पड़ रही है क्योंकि हमारी नीतियां स्पष्ट नहीं है। शिक्षा की मुख्यधारा में उन्हें समावेशित करने की ताकत कमजोर हो चुकी है। हालांकि लक्ष्मी ने अपनी पढ़ाई बी काम तक कैसे और किन मानसिक,सामाजिक और सांस्कृतिक दबाओं के तहत पूरी की इसकी बानगी हमें मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी में मिलती है। ऐसे ही बारहवीं और बी ए तक पढ़े किन्नर मिलते हैं लेकिन स्कूल से काॅलेज तक के सफर में कितना और किस स्तर तक इन्हें छीला गया, खखोरा गया यह वे ही बेहतर जानते और बताते हैं। हालांकि लक्ष्मी को अच्छे गुरु मिले जिन्होंने स्कूली स्तर पर इनकी डांस कौशल को काफी सराहा और प्रोत्साहित किया। उसी तरह से इन्हें अपने घर में भी मां-पिता और भाई,बहनों से भी भरपूर प्यार मिला। लेकिन समाज ने इन्हें बचपन में ही तृतीयपंथी के कुछ लक्षण देखते हुए बड़े लड़कों ने इनका शारीरिक शोषण भी किया। आमतौर पर किन्नरांे में एच आई बी होने की आशंका बनी रहती है ख़ासकर जो उस काम में लगे हैं। लक्ष्मी स्वयं स्वीकारती हैं कि उनके समुदाय मंे इस किस्म की मौत बहुत होती हैं। इसे रोकने के लिए इनकी संस्था अस्तित्व ने ठाणे मंे काफी काम किया। देश भर में जागरूकता अभियान भी चलाया। एच आई बी न हो इसके लिए सेक्स बिना कंडोम के न करें आदि जानकारियां देने का काम अस्तित्व करती है। यदि पुलिस व प्रशासन की ओर से हिजड़ों को बेवजह परेशान किया जाता है तब भी विभिन्न संस्थाएं उनके बचाव में खड़ी हो जाती हैं।
शिक्षा और संवेदनशीलता इन दो औजारों से तृतीयपंथी समाज को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मदद मिलेगी। हमें लोकतंत्र के दो कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी काफी उम्मीद है। साथ ही साथ पत्रकारिता तो समय समय पर इस समाज को उठाने और इनकी दुनिया पर स्टोरी कर आम लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने की कोशिश करती है। हाल ही में एक मीडिया घराने से निकलने वाली डेली अंग्रेजी अख्.ाबार के संडे मैग्जीन में टांस्जेंडर किन्नरों की बदलती भूमिका और उनकी म्यूजिक बैंड पर स्टोरी छापी। इसे देख पढ़कर लगता है कि मीडिया भी इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और करीब लाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। इसी किस्म का काम लक्ष्मी ने कुछ साल पहले हिजड़ों मंे ब्यूटी क्वीन कांटेस्ट करा कर समाज और मीडिया का ध्यान इस समाज की ओर खींचने की कोशिश की थी।

Tuesday, April 5, 2016

शिक्षकों की प्रशिक्षण पर विशेष बल


दिल्ली सरकार बड़ी तेजी और गंभीरता से स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारने में लगी है। कई बार मान लेने का मन करता है कि यह शायद महज राजनीतिक घोषण भर नहीं है। बल्कि शिक्षा मंत्री वास्तव में शिक्षा में बदलाव को शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। संभव है यही वजह है कि इस बार के बजट में उन्होंने 10,690 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। उसमें भी शिक्षकों के प्रशिक्षण और कौशल विकास को ख़ास तवज्जो दिया है। बजट अभिभाषण में उन्होंने कहा था कि सरकारी शिक्षकों और प्रधानाचार्य को कैंब्रिज, हाॅवर्ड आदि विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाएगा। इस घोषणा को अमलीजामा पहनाया जा रहा है।
नब्बे प्रधानाचार्याें को कैंब्रिज भेजा जाएगा जहां वो दस दिन प्रशिक्षण कार्यशाला और वहां के स्थानीय सरकारी स्कूलों में विजिट करेंगे। वहां कैसे शिक्षण होता इसका अवलोकन करेंगे। तीस तीस की संख्या मंे इन्हें भेजा जाएगा। वे वापस आकर अपने स्कूलों में कार्य करेंगे। इसमें मैनेजमेंट और लीडरशीप कौशलों पर भी जोर दिया जाएगा।
दूसरे महत्वपूर्ण बात यह कि पिछले शुक्रवार से विषयवार छह से 9 वीं कक्षा के प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण शुरू हुआ है। पहले खेम में हिन्दी के 43,00 टीजीटी टीचर का प्रशिक्षण त्यागराज स्टेडियम में शुरू हुआ। अब सवाल यहां उठना लाजमी है कि क्या इतनी बड़ी संख्या में प्रशिक्षण संभव है? क्या यह सम्मेलन का रूप नहीं ले लेगा।
माना जाता है कि प्रशिक्षण कार्यशाला में तीस से ज्यादा प्रतिभागी नहीं होने चाहिए। जो भी हो प्रयास की सराहना की जानी चाहिए।
अनुरोध इसे सरकार की जय जयकार करना करना नहीं है बल्कि सच को कबूल करना है

Monday, April 4, 2016

हर बंदी की अपनी कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
उधमसिंह नगर के सितारगंज में संपूर्णानंद केंद्रीय शिविर कारावास जो कि हल्द्वानी से तकरीबन पचपन किलोमीटर दूर खेतों और जंगलनुमा प्रकृति की गोद में बसा है। आसपास सिर्फ खेत खलिहान और कुछ नहीं। कुछ गोरू डांगर दिखे चारा खाते हुए। इस जेल के द्वार पर सन्नाटा और उदासी जैसी स्थायी घर बना चुकी सी लगी। जेल के अधीक्षक श्री टीपी जोशी ने बड़ी ही गर्मजोशी से स्वागत किया और जेल का बड़ा सा गेट खोला गया। गेट पर रखी रजिस्टर पर नाम पता,समय आदि दर्ज कर अंदर प्रवेश किया। कई सारी जिज्ञासाएं, सवाल,उलझनें साथ ही हो लीं। इन कैदियों/बंदियों से कैसे बात करनी है? क्या बात करनी है? आदि।
यहां रहने वाले कैदियों/बंदियों को दो वर्गों में बंाटा गया है। पहले वे बंदी हैं जिन्हें शिविरवासी कहा जाता है। ये शिविर मंे खुले रहते हैं। बाहर आना-जाना,जेल की खेती बारी करना इनके जिम्मे होता है। यह छूट, ऐसी आजादी यूं ही नहीं मिली इन्हें। बलबीर सिंह से जब बातचीत हुई तो उन्होंने बताया वो पिछले बीस साल से उम्र कैद की सज़ा काट रहे हैं। उनके व्यवहार आदि को देखते हुए उन्हें शिविर में रहने की इजाजत दी गई। उन्होंने बताया कि वे बाजार,शादी ब्याह आदि में भी जाते हैं। वहीं दूसरे किस्म के वे बंदी हैं जिन्हें चाहरदीवारी के अंदर रहना होता है। इन्हंे शिविरवासियों की तरह स्वतंत्रता नहीं है।
मो. हक़ साहब की उम्र यही कोई सत्तर साल है। इनकी भी अपनी कहानी है। यहां सब के साथ अपनी -अपनी कहानी चला करती है। इन्हें इस जेल में तकरीबन पंद्रह साल हो गए। क्या कोई उम्मींद है बाहर जाने की? तब बड़ी डबडबाई आंखों से कहते हैं संभव है अब आत्मा ही आजाद हो पाए। इन्हें किस जुर्म में यहां लाया गया? हक साहब बताते हैं इन्हें राजनीतिक आंदोलन में कैद किया गया अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई। वहीं बलजीत सिंह की अपनी कहानी है। शादी के एक साल बाद ही उनकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। उनके भाई वकील और पुलिस मंे थे ऐसी धाराएं लगाई कि अब तक जेल में उन्हें बीस साल से ज्यादा हो गए। पूछने पर की घर में कौन कौन हैं बताया कि मां है और भाई है। कभी कभी मिलने आ जाते हैं।
एक बिल्कुल किशोर आयु का लड़का मिला जिसकी उम्र यही कोई बीस की रही होगी। उसकी गर्ल फ्रैंड अचानक इसके कमरे आ गई और शादी के लिए दबाव बनाने लगी। इसके मना करने पर उसने पुलिस बुला ली। भगाने के आरोप लगा कर उसे जेल भेज दिया गया। ऐसे ही और भी बंदी हैं यहां। कुछ को देख कर एहसास तक नहीं होगा कि इन्होंने कोई जर्म भी की होगी। एक ओर बीच बाईस साल के तो दूसरी ओर पचास,पचपन साठ और सस्सी साल के बंदी भी मिले। उनके चेहरे पर अब कोई ख़ास भाव नहीं आते। बस ख्ुाली आंखों से देखते रहते हैं। मुसकान तो गोया उनकी जिंदगी से दूर बहुत दूर जा चुकी हो।
दरअसल यह आम जेलों जैसा नहीं है। चारों ओर खेती होती है। बंदी ही किसानी करते हैं। बलजीत बताते हैं कि पैदा हुए अनाज अपने भर रखने के बाद हम लोग बाकी अनाज दूसरे जेलों मंे भेज देते हैं। संपूर्णनंद केद्रीय शिविर कारावास इस रूप मंे अलग है कि यहां बंदी को काफी छूट है। अब यहां बंदियों को उनके गृह राज्यों मंे हस्तांतरित किया जा रहा है। इसे लेकर बंदियों मंे आपस मंे काफी उदासी है। जीवन सिंह ने बताया कि हमलोग यहां भाई की तरह रहते हैं। हर पर्व त्योहार मिल जुल कर मनाते हैं। लेकिन ख़ुदा जाने कब यहां से बाहर आएंगे और आसमान में ताकने लगते हैं। जोशी जी ने बताया कि इस जेल की जमीन पर सरकार की नजर है। एक एक कर इसपर कब्जा  किया जा रहा है। सिडकुल बसा कर इसकी आधी जमीन सरकार ले चुकी है।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...