Saturday, November 28, 2015

षिक्षा नीति निर्माण और सरकारी मनसा



कौषलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा नीति और शैक्षिक बदलाव के पीछे यदि सरकार की मनसा दुरूस्त हो तो चिंता की बात नहीं। क्योंकि जब जब सरकारें बदली हैं वे अपने वैचारिक हित और प्रतिबद्धता के  अनुसार शिक्षा को बदलने की काशिशें करते रहे हैं। उसी कड़ी में दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग करने के संकेत दे चुकी है। हाल ही में विभिन्न नेशनल अखबारों में जारी शिक्षा विभाग, दिल्ली सरकार के विज्ञापनों पर सरकार की शैक्षिक दशा-दिशा और नीति की झांकी मिलती है। इस विज्ञापन की भाषा और कथ्य पर नजर डालें तो बहुत सी भ्रांतियां दूर हो जाएंगी। इस विज्ञापन की मुख्य स्थापनों और दृष्टि पर नजर डालना लाजमी होगा शेष विमर्श आगे। ‘प्राइवेट स्कूलों के एकाउंट की वैरिफिकेशन’, ‘आठवीें क्लास पर बच्चोंको पास करने की प्रणाली पर पुनर्विचार, नर्सरी एडमिशन में धांधलियां, टीचर्स की सैलरी आदि। शिक्षा विभाग और शिक्षा मंत्री इस विज्ञापन की भाषा और कथ्य से खुद को अगल नहीं कर सकते। अंत में शिक्षामंत्री लिखकर घोषित करते हैं कि ‘हमारी नीयत साफ है’ ऐसी घोषणा करने के पीछे विभाग की मनोदशा क्या है?, आपकी एक एक चिट्ठी को मैं पढूंगा। और इस विज्ञापन के नीचे ईमेल आई डी दी गई है। यदि कोई भी पाठक व नागर समाज चिट्ठी लिखना चाहे तो उसके लिए कोई अता पता नहीं दी गई है। क्या चिट्ठियां शिक्षा विभाग को दी जाएंगी यदि हां तो उसका पता क्या है? इस विज्ञापन की भाषा पर अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी के शब्दों को बेहिचक इस्तमाल किया है। हालांकि मिली जुली भाषा से परहेज नहीं है किन्तु एक भाषायी गरिमा को बरकरार रखना भी अपेक्षित है।
शिक्षा विभाग के इस विज्ञापन और सरकार की शैक्षिक चिंता को देखते हुए एक निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि शिक्षा विभाग की नजर में शिक्षा में गुणवता को सुनिश्चित करने की बजाए प्रशासनिक और व्यवस्थागत पहलकदमियों को लेकर ज्यादा चिंतित है। इसी झलक हमंे इस विज्ञापन में देख सकते हैं। शिक्षा विभाग का मानना है कि अब कानून बदलकर इन सब गतिविधियों को रोका जाएगा। सरकार मानती है कि नर्सरी एडमिशन में धांधलियां होती है उससे निपटने के लिए कानून में बदलाव किया जाएगा। गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम अधिनियम 2009 मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार 6 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को प्रदान करता है। यानी पहली से कक्षा 8 वीं तक शिक्षा सभी बच्चों को हासिल करने का कानूनन अधिकार है। वह प्राथमिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य दी जाएगी। ऐसा आरटीई एक्ट 2009 की स्थापना है। लेकिन इन सब के विपरीत देश भर में कम से कम सात करोड़ अस्सी लाख बच्चे अभी भी स्कूल और बुनियादी शिक्षा से महरूम हैं। जबकि हमारा देश और विश्व के तमाम देशों ने 1990 में स्नेगल में सभी के लिए शिक्षा सम्मेलन में स्वीकारा था कि 2000 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा दी जाएगी। मगर हकीकत यह है कि सरकारी दस्तावेज़ के अनुसार अस्सी लाख बच्चे शिक्षा पाने से वंचित हैं। बच्चों को बुनियादी शिक्षा मिल सके इस ओर दिल्ली, शिक्षा विभाग का कोई इरादा नहीं है। क्योंकि शिक्षा विभाग से जारी इस विज्ञापन से एक और संदेश मिलता है कि सरकार की नजर में शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूली शिक्षा की बेहतरी को लेकर गंभीर नहीं है। इस विज्ञापन के अनुसार प्राइवेट स्कूलों के एकाउंट की वैरिफिकेशन करने का प्रावधान किया जाएगा एवं टीचर्स की सैलरी को लेकर तो गंभीर है किन्तु कुल मिला कर यह प्रकारांतर से महज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से दिखाने की कोशिश करती है किन्तु विज्ञापन ऐसी कोई उम्मीद की रोशनी नहीं देती। टीचर्स की सैलरी के अंतर्गत शिक्षा विभाग स्वीकारता है कि अभी तक कानून में यह प्रावधान था कि सभी प्राइवेट स्कूलों को सरकारी स्कूलों के टीचर्स के बराबर वेतन दिया जाएगा। इस प्रावधान से कुछ विसंगतियां पैदा हो गई थीं। टीचर्स की सैलरी इस उपशीर्षक में सरकार की दृष्टि का अनुमान लगता है कि सरकार सरकारी और निजी स्कूलों में शिक्षकों को मिलने वाले असमान वेतन की विसंगति को दूर करना चाहती है। एक ओर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को छठा वेतन आयोग के अनुसार वेतन मिल रहा है वहीं निजी स्कूलों में आलम यह है कि 5 हजार से 8 हजार देकर हस्ताक्षर पूरे वेतन पर कराया जाता है। इस असमान वेतनीय प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए शिक्षामंत्री व विभाग गंभीर है। विज्ञापन में लिखा गया व घोषित किया गया है कि अभी तक कानून में लिखा गया था कि हर प्राइवेट स्कूल अपने टीचर्स को सरकारी स्कूलों के बराबर वेतन देगा। इस प्रावधान को हटाकर अब इस कानून में यह प्रावधान लाया जा रहा है कि हर प्राइवेट स्कूल अपने टीचर्स को उतना वेतन देगा जितना सरकार द्वारा अधिसूचना के तहत निर्देशित किया जाएगा। ज़रा भाषायी विडंबना देखिए विज्ञापन के अंतिम चरण में क्रमांकों में कुछ बातें कही गई हैं जिसमें तीसरे नंबर में लिखा है जो स्कूल अभी तक वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करते रहे हैं उन स्कूलों के वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए कहा जाएगा। इस पंक्ति में समान संदेश को दुहराया गया है। क्या सावधानी नहीं बरतनी चाहिए थी?
स्कूलों में शिक्षकों, प्रधानाचार्यों, विषयवार शिक्षकों की घोर कमी है। इतना ही नहीं बल्कि दिल्ली सरकार आरटीई में निर्दृष्ट कक्षा आठवीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाएगा इस प्रावधान को खत्म करने पर भी विचार कर रही है। सरकार का मानना है कि इससे बच्चों में पढ़ाई के प्रति गंभीरता और भय खत्म हो रहा है। नवीं कक्षा में बच्चे ज्यादा फेल हो रहे हैं आदि इन तर्कों को ढाल बना कर नो रिटेंशन पाॅलिशी को बदलने का मन बना चुकी सरकार व शिक्षा विभाग को इसके दूरगामी और शैक्षिक विमर्शकारों से भी राय लेनी चाहिए। जब आरटीई के फेल न करने के प्रावधान में परिवर्तन किया जा सकता है तो उसी कानून में वर्णित अन्य प्रावधानों की ओर सरकार क्यों नहीं योजना बनाती। क्या इन नीतिगत परिवर्तनों और मनसा के पीछे की रणनीति को भी समझने की आवश्यकता है।
दिल्ली की शिक्षा नीति में ऐतिहासिक परिवर्तन के तीस मकसदों पर नजर डालें तब और भी परतें खुलेंगी-
दिल्ली के बच्चों को सस्ती और अच्छी शिक्षा मिल सके, सभी अध्यापकों को अच्छा वेतन मिल सके और उनका शोषण बन्द हो, कानूनी व्यवस्था की विसंगतियों को हटाया जाए ताकि स्कूलों के मैनेजमेंट ईमानदारी से काम कर सकें। इन उद्देश्यांे पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि सरकार की मनसा क्या है। साथ ही प्राथमिक शिक्षा को बेहतर तरीके से कक्षाओं में संप्रेषित करने वाले शिक्षकों के वेतनमान की ओर तो सरकार की चिंता दिखाई देती है किन्तु शिक्षकों की खाली पदों को भरने और प्रशिक्षणीय गुणवता को सुधारने के प्रति सरकार गंभीर नहीं है।  एक ओर विज्ञापन उस तरफ हमारा ध्यान खींचता है कि निजी स्कूलों में खटने वाले शिक्षकों को कम से कम एक निर्धारित वेतन मिले। उनका शोषण न हो लेकिन निजी स्कूलों के मैनेजमेंट पर नकेल कसने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे इस ओर कोई संकेत नहीं किया गया है। राज्य की शिक्षा नीति न केवल सरकार की मनसा व चरित्र का खुलासा किया करती हैं बल्कि सरकार की शैक्षिक प्राथमिकता की ओर इशारा करता है। वर्तमान सरकार अभी बुनियादी जरूरतों, भवन, शौचालय आदि को दुरूस्त करने पर ध्यान दे रही है उसका अगला कदम इस विज्ञापन में झलकता है। लेकिन शिक्षा में गुणवता को समावेश कैसे सुनिश्चित किया जाए इस ओर कोई उम्मीद की रेाशनी नजर नहीं आती।


Monday, November 23, 2015

किताबें रिटायर नहीं होतीं-


किताबें रिटायर नहीं होतीं-
हमारे बीच से किसी दिन यूं ही गुम हो जाती हैं,
इनके हर शब्द हमारे सामने पुकारती हैं,
पढ़ो तो जी,
ज़रा सुन तो लो,
लेकिन हम बहरे की तरह सुन नहीं पाते।
किताबें बेटी की तरह-
एक दिन लेखक का घर छोड़,
पाठक के घर चली जाती हैं,
सज संवर कर,
आलोचक दुलराता, पुचकारता,
तो कभी दुत्कारता रहता,
किताबें पाठक की होती हैं।
एक बार जन्मने के बाद-
किताबें अपनी जिंदगी खुद जीती हैं
समीक्षा, आलोचना ख्ुाद सहती,
किसी लाइब्रेरी में सांस लेती,
करती हैं इंतजार कोई तो उसके घूंघट के पट खोले।
बड़ी दुर्भागी होती हैं वैसी किताबें-
जिन्हें नहीं मिल पाता दुल्हा,
कोई कोई तो ब्याह के बाद भी
प्यार के लिए तड़पती रहती हैं,
पन्ने तक नहीं पलटे जाते।

चचा मुशर्रफ

ये! चचा -
कभी वर्दी उतार कर सोते हैं,
तो सपने में कभी चांदनी चैक,
दिखता है कि नहीं और,
गली के मोड़ पर
चैरसिया पान भण्डार,
जहां से अम्मा के लिए जाता था,
पान, कसैली और कत्था।
ये! चचा -
आगरा में जब आपकी बात हो रही थी,
उस वक्त देश-विदेश के तमाम कान,
लगे थे इन्तजार में,
कुछ सुखद समाचार के लिए,
कि जैसे,
पड़ोस की गईया
या बकरिया के बच्चों को देखने की होती है।
ये! चचा -
जब घर ‘पाकिस्तान’ से,
निकल रहे थे अपने ननिहाल ‘भारत’ से,
तो अम्मा ने,
दही और गुड़ खिलाए थे कि नहीं,
माथे पर तिलक तो नहीं था।
ये! चचा -
जन्मस्थान भी देखने गए,
उस बुढि़या से मिले,
जिसने गोद में खेलाया था,
अम्मा कि  याद ताजी हुई कि नहीं।
ये! चचा -
पिछले दिनों
आप पर जान लेवा हमला हुआ,
दिल धक्क से रह गया,
ठहरे तो अपन के चचा जान।
ये! चचा -
चेहरे की मुस्कान,
अपनी माटी की लगती है,
देखे हैं आपकी आँखों में
थथमे आंसू के बूंद।
ये! चचा -
आपकी आंखों में,
चचा जुम्मन नजर आते हैं,
नहीं देख पाएगा देश वही दहशत,
अपने पड़ोसी के माथे पर।
ये! चचा -
अगर हादशे में कुछ हो जाता तो -
बातचीत की बंधी
आस भी टल जाती,
मायूस हो जाता,
नये साल का सवेरा।


बाईपास

जीवन की -
बाई पास पर सड़क पर,
भाग रहीं हैं,
अनुभवों,
घटनाओं और,
सुखद बातों की गाडि़याँ।
कब, कौन -
इस पार से
उस पार चला जाए,
हो सकता है,
कुचला जाए,
मगर उफ्फ तक न करें।
क्योंकि -
संवेदना का ट्रैफिक पुलिस,
अब नहीं रहता हमारे आगे,
चेतना की लालबत्ती भी,
कब की बुझ चुकी है।
छुट्टी की घंटी सुन -
बस्ता टांगे
भाग रहे हैं सभी,
जीवन की बाईपास सड़क पर,
ताबड तोड़,
घर की ओर।
मगर कौन बैठा है -
इन्तजार में,
किसको खलती है कमी,
क्योंकि,
सभी भाग रहे हैं,
जीवन की बाईपास सड़क पर
सरपट यूं ही।


बंटवारा

चलो ऐसा ही करें -
खड़ी कर दें,
एक दीवार,
आंगन की छाती पर।
बांट दें,
सुबह की ध्ूाप को,
दो फांक,
बड़ा हिस्सा इस तरफ,
छोटा उस तरफ।
ग़र ऐसा न हो सके -
तो छिनगा दें,
नल के पानी को,
या फिर,
जांता में दरते गेहूँ,
ढेंकी पर उछलते मां के पांव।
सांस के दरवाजे पर -
टंगे पिता के नाम की तख़्ती,
आरी से चीर दें,
क्योंकि स्मृतियों पर,
हक बढ़कू का भी है।
अलगनी पर टंगी
पिता की धोती
को भी फांड़ दें।
चलो -
गिरा दें देवस्थान की दीवार,
और खड़ी कर दें,
दुकानों की चमचमाती
कोठरियाँ।

मत जा

अच्छी हैं -
तुम्हारी पहाड़ी बोली,
और पगडंडि़याँ,
जिस पर चल कर तुम्हारी उम्र जवान हुई।
अच्छी आवाज में गाते थे -
तुम्हारे पिता,
ढोल पर थाप देती अंगुलियाँ शोभती थीं
इन घाटियों के उस पार तक गूँजती थी।
पर क्या पता था -
एक गवैया जो चल पड़ा था,
पहाड़ी को छोड़, शहर की ओर।
कि एक दिन -
चिट्ठी देख बरस पड़ी थी,
बूढ़ी माँ की आँखें,
रूद्ध गले में फंसे शब्द को खखार कर,
कहा था पिता ने कि -
पहाड़ी के उस पार मत जा,
पर माना नहीं।
गाता तो था -
नए रूप, नई शैली उतर चुकी थी
उसके गंवई कंठ में,
भूल चुका,
कलकल पहाड़ी,
सेमल की सर सराहट,
गालों की दमक सूख चुकी थी।

 तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ

तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ -
सुबह की पूजा में,
गाता हूँ गान अर्चन में लीन,
ध्यानस्त भी होता हूँ तुम्हीं में।
माँ की लोरी में -
जीवित है तुम्हारी हंसी
रहता हूँ सुनने को व्याकुल
पकड़ माँ को करता हूँ जिद्द
घोल दें वो मध्ुारता मिठास
कोनों में जो बतियाने में कभी....।
तुम्हीं में घूल कर पाता हूँ -
खोया हुआ अर्थ जीवन का,
बिलबिलाता छूट गया जो प्यार
ढूढ़ता हूँ छाया
जिसमें पलती थी कितनी ही....।
तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ -
वेद की ऋचाओं में,
ढूँढ़ता हूँ अर्थ,
जो गूढ रहा जीवन में,
झम-झम, झीम-झीम
बरसते बरसात की बूंदों में
वो हंसी तलाशता हूँ
जो हिमवत जम गया था।


भाषा की उष्मा और स्कूली किताबें



कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा की उष्मा हमें ताउम्र मिलती रहती है। चाहे हमारे बीच कितनी भी तकनीकि चादर फैल जाए किन्तु भाषा की उष्मा हमसे दूर नहीं जा सकती। बच्चों में भाषा की उष्मा जितनी मात्रा में मिलनी चाहिए व मिलती है व पर्याप्त नहीं है। क्योंकि एक ओर भाषा की उष्मा पहुंचाने वाले माध्यम पाठ्यपुस्तक, पाठ्यक्रम इसे पूरी शिद्दत से नहीं पहुंचाते दूसरी ओर यदि पहंुचती भी है तो बीच के दूसरे घटक अध्यापक/अध्यापिकाएं बिचैलिए की सही भूमिका नहीं निभाते। यही वजह है कि भाषा की तमाम छटाएं बच्चों की पहंुच से खासे दूर चली जाती हैं। यह तो कई शैक्षिक अध्ययन रिपोर्टों से तथ्य सामने आ चुकी है कि भाषा के अध्ययन अध्यापन के जो तरीके अपनाए जाते हैं वहीं कहीं न कहीं चूक रह जाती है। वैसे भाषा अध्यापन के पीछे के उद्देश्यों को कमतर नहीं कह सकते। साथ ही पाठ्यक्रम के लिए मिलने वाले दिशानिर्देश भी इस ओर मुकम्मल रोशनी दिखाते हैं, लेकिन जब पाठ्यपुस्तकों का निर्माण होता है तब कहीं गड़बड़ी हो जाती है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि मातृभाषा और स्कूल की भाषा में संबंध नहीं बना पाने की वजह से अनेक बच्चे स्कूल से पलायन कर जाते हैं। ‘‘12 फीसदी से अधिक बच्चे सीखने में इसलिए भारी कठिनाई झेलते हैं क्यांेकि उन्हें प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती।’’ ‘झिंगन 2005’ गौरतलब है कि बच्चे स्कूल आने से पहले मातृभाषा का अच्छे से उपयोग करते हैं। इसलिए स्कूल में बच्चे की भाषायी क्षमताओं का विकास विभिन्न माध्यमांे से होना चाहिए। ऐसी गतिविधियां होनी चाहिए जो मातृभाषा एवं स्कूली भाषा में तालमेल बैठा सकें। यहां इसकी चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी कि नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क 2005 ‘एनसीएफ2005’ भाषा शिक्षण को लेकर मानती है कि साहित्य भी बच्चों की रचनाशीलता को बढ़ा सकता है। कोई कहानी, कविता या गीत सुनकर बच्चे भी कुछ लिखने की दिशा में प्रवृत्त हो सकते हैं। उनको इसके लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि अलग अलग रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यमांे को आपस में मिलाएं। ‘एनसीएफ2005, पेज 43’ रचनात्मक लेखन स्कूली शिक्षा में एक महत्वपूर्ण भाषायी उद्देश्य है। यदि बच्चों को उसकी अपनी भाषा में व्यक्त करने के अवसर दिए जाएं तो इससे न केवल उसकी रचनाशीलता बढ़ेगी बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी स्कूल से अधिक जुड़ाव होगा।
प्रो यशपाल समिति ने 1992 में अपनी संस्तुति में कहा था कि ‘‘ भाषा की पाठ्यपुस्तकों में स्थानीय एवं बोलचाल के मुहावरों को उचति स्थान दिया जाए। भावी पाठ्यपुस्तकों में बच्चों की जीवन अनुभूतियों, काल्पनिक कहानियों, कविताओं तथा देश के विभिन्न भागों के सामान्य जन-जीवन को प्रतिबिंबित करने वाली कहानियों को यथेष्ट रूप में निरूपित किया जाए। पांडित्यपूर्ण तथा कठिन और बोझिल भाषा का प्रयोग न किया जाए।’’ इन संस्तुतियों की रोशनी में यदि स्कूली पाठ्य पुस्तकों को खंघाले तो स्थिति कुछ ज्यादा संतोष नहीं देतीं। क्योंकि कक्षा में बहुभाषिकता का सवाल हो या फिर मातृभाषा और स्कूली भाषा के  बीच रिश्ता बनाने की बता हो। क्योंकि इन सब के लिए न तो ऐसी कोई गतिविधि है जो बच्चों की रचनाशीलता को उभार सके और न बच्चों को अपनी भाषा में अपने आपको व्यक्त करने का अवसर ही प्रदान करती है। एक नजर दिल्ली के कक्षा 9 वीं की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक क्षितिज के आमुख पर डालें, क्षितिज भाग एक के ‘यह पुस्तक’ शीर्षक के तहत उक्त उद्देश्यों पर नजर डालना लाजमी है,‘‘ इस संकलन की रचनाएं जहां एक ओर विद्यार्थियों में साहित्यिक संवेदना पैदा करने वाली है तो दूसरी ओर उन्हें जीवन के विविध संदर्भों से जोड़ती हैं। इस बात पर भी ध्यान रखा गया है कि विद्यार्थी साहित्य की विविध विधाओं  से परिचित हो सकें।’ वहीं दूसरी ओर इसी पाठ में आगे कहा गया है कि क्योंकर गद्य बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए और कैसे पढ़ाया जाए। बतौर ‘यह पुस्तक’ की स्थापनाएं, विद्यार्थी अधिक से अधिक विधाओं और विविध गद्य शैलियों का आस्वाद कर सकें। क्षितिज में शामिल गद्य के विभिन्न विधाओं पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उद्देश्य कितना व्यापक है। कहानी, व्यंग्य, निबंध, डायरी, आत्महत्या आदि उपांगों की छटाएं देखी जा सकती हैं। इन रचनाओं के पीछे शिक्षा के कौन से मकसद शामिल हैं उसकी झलक भी हमें मिलती है। रचनाएं जीवन की बृहत्तर परिधि से जुड़ी हुई हों। वे एक ओर तो साहित्यिक विधाओं का प्रतिनिधित्व कर रही हों दूसरी ओर समाज के विभिन्न वर्गों का भी। तो इन्हीं पंक्तियों में गद्य पढ़ाने के पीछे के उद्देश्य छुपे हुए हैं। इस पाठ्यपुस्तक के निर्माण में जेंड़र, धर्म, भाषा, संस्कृति और गद्य की विविध धाराओं को बच्चों को परिचय कराने की कोशिश की गई है।
भाषा ज्ञान के सृजन और सृजनात्मकता का एक महत्वपूर्ण साधन है। भाषा सम्प्रेषण, विश्लेषण,
कल्पना आदि समस्त मानसिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सीखने सिखाने का एक तरीका है। भाषा समाज
और सत्ता में समानताओं और असमानताओं को प्रदर्शित करते हुए समाज, सत्ता, भूगोल, और संस्कृति
के माध्यम से उसकी अस्मिता को प्रकट करती है।
बहुभाषिकता हर समाज की विशेषता होती है जो भाषा शिक्षण में बहुत मददगार होती है।
बहुभाषा का कक्षा शिक्षण में प्रयोग करने से विद्यार्थी व शिक्षकों के बीच दूरी कम होती है तथा
आत्मीयता जाग्रत होती है। विद्यार्थी अपनी भाषा का पाठ्यक्रम में स्थान देखकर अस्मिता (पहचान) की
स्वीकृति अनुभव करता है साथ ही दूसरी भाषाओं के प्रति संवेदनशील होकर भाषाई संरचना के प्रति
जागरूक होता है।
भाषा किसी समाज की अनेक उपलब्धियों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रकट करती है। इस अर्थ में
वह सामाजिक यात्रा का आइना है। समाज में अनेक तरह के भेद तथा असमानताएँ भी पाई जाती हैं।
इनमें से अनेक असमानताओं को विभिन्न सामाजिक समूह सायास तौर पर बनाए रखते हैं। इसी कारण
भाषा में वर्चस्व तथा प्रतिरोध के स्वर बराबर सुनाई पड़ते हैं। समाज कोई सजातीय समूह नहीं है।
इसलिए भाषा में भी सजातीयता का तत्त्व सर्वत्र नहीं मिलता। प्रत्येक भाषा की अपनी अस्मिता भी होती है। भाषा के संदर्भ में अस्मिता का अर्थ है - भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान। इस पहचान से जुडे़ कुछ मसलों को समझना ज़रूरी है। मनुष्य की रचनात्मकता की अद्भुत उपलब्धि भाषा विभिन्न स्मृतियों, कौशलों और कल्पनाओं को सहेजती हुई अपने रूप का निखार और विस्तार करती है। यही कारण है कि विभिन्न सामाजिक विशेषताओं - भिन्नताओं और अकुलाहटों की आहटें भी हमें भाषा की चाल में सुनाई-दिखाई देती हैं। इस अर्थ में वह अपने समाज की पहचानों का बखूबी निर्वहन करती है। भाषायी अस्मिता किसी परिवार, समाज या राष्ट्र की आशा- आकांक्षा, हताशा - निराशा, जय-पराजय और सपनों को प्रकट करते हुए अपनी पहचान कायम करती है। यानी भाषा और अस्मिता में अटूट संबंध है।
इस बात से किसे गुरेज होगा कि भाषा से हमारा साबका ताउम्र रहता है। यही वजह है कि भाषा हमारे साथ ताउम्र बनी रहती है। लेकिन इधर के कुछ सालों मंे एक नए स्वर उभरे हैं कि भाष मर रही है, भाषा अप्रासंगिक हो रही है और आधुनिक तकनीक आ जाने से भाषाएं खत्म हो जाएंगी। ख़ासकर इंटरनेट के आगमन से मुद्रित साहित्य का अंत होना तय है। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि मुद्रित साहित्य न तो खत्म होंगी और न हमारे बीच कभी भी अचानक लुप्त होंगी। क्योंकि इंटरनेट की दुनिया भी भाषा पर ही टिकी है। यह अलग बात है कि भाषा तकनीक की है या फिर इंग्लिश की। किन्तु भाषाएं तो रहेंगी ही। जब तक हमारी संवेदनाएं रहेंगी तब तक भाषा का साथ नहीं छूट सकता। प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लेखक गोविंद सिंह से लालित्य ललित की बातचीत में उन्होंने कहा था कि भाषाएं चाहे इंटरनेट का कितना भी प्रभाव बढ़े लेकिन भाषाएं और साहित्य दोनांे ही हमारे बीच रहेंगी। क्योंकि भाषा के साथ हमारी संवेदना और संबंध बेहद लंबा रहा है।
भाषा की कक्षा और भाषा की उष्मा हमारे बीच तब तक बरकरार रहेंगी जब तक भाषा और उसकी उष्मा हमें उर्जा देती रहेंगी। आज भी पूरे विश्व में लाखों की तदाद में साहित्य की रचनाएं और उनका प्रकाशन हो रहा है। यह साबित करता है कि भाषाएं और उसका साहित्य अभी भी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाषाएं न केवल हमें अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में मिली हैं बल्कि भाषा के जरिए हम खुद को जोड़ते भी रहे हैं।


Tuesday, November 17, 2015

हिन्दी मिलन



यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के शिक्षांतर के तहत चलने वाली अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान ने इस वर्ष अप्रैल से नवंबर 2015 के बीच 39 हिन्दी कार्यशालाओं का आयोजन किया। इन कार्यशालाओं में अब 499 शिक्षक/शिक्षिकाओं ने हिस्सा लिया। दूसरे शब्दों मंे कहें तो अब हमने 499 हिन्दी भाषा शिक्षण दक्षता कौशल से शिक्षकों को लैस किया। यह संख्या देखने में एकबारगी कम लग सकती है लेकिन जब हम इसकी गुणवत्ता पर नजर डालते हैं तो एक आत्मसुख यह मिलता है कि इन कार्यशालाओं में आने वाले प्रतिभागियों ने हिन्दी को कैसे रोचक तरीके से पढ़ाएं इसकी समझ पुख्ता कर के आज अपनी कक्षाओं में बेहतर शिक्षण कर रहे हैं। बतौर प्रशिक्षित शिक्षकांे की जबानी सुनें तो लगता है कि हमारी हिन्दी की शिक्षकीय प्रशिक्षण कार्यशालाओं का लाभ बच्चों को मिल रहा है। कई प्रतिभागियों ने स्वीकार किया कि प्रशिक्षण पूर्व और उत्तर प्रशिक्षण हिन्दी पढ़ाने के तौर तरीकों और रवैए में खासा परिवर्तन हुआ है।
हिन्दी शिक्षण कार्यशाला आयोजन के पीछे हमारा उद्देश्य स्पष्ट था कि किस तरह से शिक्षकों को इस बात और विमर्श के लिए तैयार करें कि वे अपनी कक्षाओं मंे हिन्दी पढ़ाने के दौरान रोचकता का संचार कर सकें। वे स्वयं हिन्दी को लेकर पैठी भ्रांतियों को दूर कर सकें। हमने शिक्षण-प्रशिक्षण के दौरान पाया कि शिक्षकों को स्वयं भी कई जगहों यानी वर्तनी,कविता,कहानी शिक्षण मंे परेशानी होती थी। उस पर भी रिमझिम किताब को समझने और उसके पाठों को पढ़ाने के दरमियान भी विभिन्न स्तरों पर समस्याएं आती थीं। इन्हें ध्यान मंे रखते हुए हमने रिसोर्स पर्सन का चुनाव किया। तीन की कार्यशाला में एक दिन भाषा शिक्षण, भाषा की प्रकृति, भाषायी परिवेश एवं भाषा शिक्षण के औजारों पर केंद्रीत किया। दूसरे दिन कविता शिक्षण के कौशलों और इसमें गतिविधियों की सृजना पर जोर दिया। तीसरे दिन कहानी शिक्षण के तत्वों और कौशलों पर विस्तार से विमर्श किया। कार्यशाला के तीसरे दिन जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं निकल कर आईं उन्हें देख-सुन कर प्रतीत हुआ कि वास्तव में इन कार्यशालाओं का लाभ शिक्षकों को मिला है।
हिन्दी मिलन क्यों?
क्या हम इन 499 शिक्षकों को एक बाद प्रशिक्षण देने के बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें? क्या उन्हें पढ़ाने के दौरान आने वाली परेशानियों का निराकरण न करें? उन्हें गतिविधियों के निर्माण में आने वाली अड़चनों को दूर न करें? इन्हें सब सवालों, उलझनों को ध्यान में रखते हुए हमने योजना बनाई कि क्यों न एक दिन हम उन तमाम शिक्षकों के साथ गुजारें जिन्होंने हिन्दी में प्रशिक्षण हासिल की है। क्यों न उन्हें एक खुला मंच प्रदान किया जाए जहां वे अपनी सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता,गतिविधियों आदि का प्रदर्शन कर पाएं। क्योंकि प्रतिभागियों की ओर से भी यह मांग आ रही थी कि हमें दुबारा एक बार बुलाया जाए। एक बाद पुनः ऐसा माहौल प्रदान किया जाए ताकि सीखी हुए कौशलों को मांज-खंघाल पाएं।


कोई किताब दें, ताकि परिवर्तन किया जाए सके




पिछले दिनों इडिपेंडेंट न्यूज एनालसिस की ओर से आयोजित ‘रन नो वेयरः बच्चो के तन-मन पर बढ़ता बोझ’ पर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री श्री मनीष सिसौदिया ने कबूल किया कि उन्हें शिक्षा की समझ बहुत कम है। उनके पास भी अन्य लोगों की तरह ही डिग्रियां हैं लेकिन शिक्षा की गहरी समझ नहीं है। इसलिए यहां शिक्षाविद्ों के बीच आएं हैं ताकि शिक्षा की चुनौतियों और समझ बना सकें। उन्होंने कहा कि मुझे ऐसी कोई किताब दीजिए जिससे परिवर्तन हो सके। कोई ऐसी किताब बताएं जिससे नैतिकता का पाठ पढ़ाया जा सके। मंत्री महोदय के वक्तत्व को सुनकर एकबारगी लगा को बहुत जल्दी में हैं। इन्हें कोई जादू की किताब पकड़ा दी जाए और महोदय रातों रात बदलाव कर डालेंगे।
इस सेमिनार में प्रो कृष्ण कुमार, श्री प्रेमपाल शर्मा, प्रो अपूर्वानंद श्री और कौशलेंद्र प्रपन्न उपस्थित थे। प्रो अपूर्वानंद ने एनसीएफ की स्थापनाओं और विभिन्न आयोगों के हवाले स कहा कि बच्चों पर दरअसल समझने और पढ़ने का बोझ बहुत गहरा है। वहीं श्री प्रेमपाल शर्मा ने अपनी चिंता इस रूप में रखी कि बच्चों पर सबसे ज्यादा बोझ अंग्रेजी की है। भाषा के तौर पर बच्चो की समझ के रास्ते में रोड़ा अटकानें वाला तत्व अंग्रेजी को हम आज भी भारतीय भाषाओं के बरक्स अधिक तवज्जो देते हैं। श्री कौशलेंद्र प्रपन्न ने शिक्षक की भूमिका और शिक्षकीय कौशलों के विकास की ओर सदन का ध्यान खींचा। प्रपन्न ने कहा कि नागर समाज शिक्षा मंे गुणवत्ता में आई गिरावट व पढ़ने में पिछड़ते बच्चों के लिए जिम्मेदार शिक्षा के सबसे नरम और कमजोर कड़ी शिक्षक को पकड़ा जाता है। जबकि शिक्षकों की इन सर्विस और पूर्व  सर्विस प्रशिक्षण सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।
दो घंटे चले इस विमर्श में शिक्षा और बच्चों की शैक्षिक परेशानियों और बस्ते के बोझ को कैसे कम किया जाए आदि गंभीर मसलों पर बातचीत की गई। कार्यक्रम का संचालन एनडीटीवी के वरीष्ठ न्यूज संपादक श्री सुशील बहुगुणा ने किया।

Tuesday, November 10, 2015

आॅन लाइन भीड़ और दुकानों पर पसरा सन्नाटा

कौशलेंद्र प्रपन्न
श्रीराम तिलकुट भंडार, मामा जी की दुकान,ग्लासिना,गद्दे ही गद्दे,राहुल शूज आदि नाम दुकानों के हुआ करते थे। हमारा बाजार और दुकानों के नामों में बदलाव तो आए ही साथ ही दुकानों के सामानों में भी परिवर्तन आया। समय के साथ पुरानी दुकानों ने अपने कलेवर बदल डाले। यह बाजार और समय का ही तकाजा था कि यदि वे नहीं बदलते तो समय उन्हें पीछे छोड़ देता। डिजिटल इंडिया में दुकानांे के मायने भी बदल गए हैं। कभी समय था जब हमारी खरीद्दारी दुकानों पर जा कर हुआ करती थी। जहां मोल भाव करने का अलग सुख मिला करता था। लेकिन समय और तकनीक के सफ़र में हमारी शाॅपिंग शैली बदल रही है। हम घर बैठे जरूरत की चीजें खरीदा करते हैं। यदि पिछले पांच साल की बाजारीय रूझान पर नजर डालें तो एक दिलचस्प कहानी सामने आएगी। हाट बाजार बहुत तेजी से बदले हैं। यह बाजार की ही ताकत है कि जिसकी जरूरत नहीं है वह सामान भी बेच देने का जादू रखती है। दुकान,दुकान जा कर सामान खरीदने की प्रवृति भी बदली है। नब्बे के दशक में जिस तेजी से माॅल्स खुलने शुरू हुए उसी रफ्तार से छोटे और मंझोले किस्म की दुकानों मंे ग्राहकों के टोटे पड़ने शुरू हो चुके। ग्राहक धीरे धीरे आलसी भी होते चले गए। अब ग्राहकों के पास शायद समय की कमी होने लगी और वह एक ही छत के नीचे अपनी जरूरत की तमाम चीजें एक ही जगह पर लेने लगे।
आॅन लाइन शाॅपिंग का चलन बहुत पुराना नहीं है। यह मुश्किलन पांच सालों में खासा प्रसिद्ध हुआ है। घर बैठे जो लेना चाहें आपके द्वार पर सामान बेच जाता है। डोर टू डोर शाॅपिंग यही तो है कि ग्राहक को कहीं नहीं जाना घर पर अपने पसंदीदा सामान पा लेने की चाहत ने आॅन लाइन शाॅपिंग को दिनो दिन हवा पानी दे रहा है। आॅन लाइन शाॅपिंग का एक फायदा यह जरूर हुआ कि लोगों की समय की बचत हुई। साथ ही बाजार पर मुनाफाखोरों की पकड़ कमजोर हुई। बाजार में ताकत का विकें्रदीकरण हुआ जिसका फायदा ग्राहकों को मिलने लगा। दूसरे शब्दों में बाजार पर एक छत्रराज मंे विघटन देखा गया। इसका दूसरा पहलू भी है जो अक्सर आंखों से ओझल रहा वे है सामान के लागत मूल्य पर सामान ग्राहकों को मिलने लगे। जो खर्च रिटेलर को अपनी दुकान के तमाम खर्चें की वजह से सामान के मूल्य पर लगाना पड़ता था वो कम हुआ। जगह,बिजली,मैनपावर आदि के खर्चे में भी गिरावट हुई जिसका असर सामान के मूल्यों पर देखा जाने लगा।
बड़े बड़े वायर हाउस, मैनूफैक्चरिंग कंपनियां एक जगह पर सामान बनाती हैं और आॅन लाइन डिमांड आने पर वहीं से शिपिंग कर दिया करती हैं। इससे उन्हें भी अतिरिक्त खर्च से निजात मिला। एसोचैप की हालिया रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली और एनसीआर के विभिन्न माॅलों के साथ ही मुंबई, अहमदाबार, कोलकाता,हैदराबाद, चंड़ीगढ, देहरादून आदि शहरों में ग्राहकों की कमी दर्ज की गई है। तकरबीन 55.58 फीसदी की गिरावट एसोचैम की रिपोर्ट मानती है। एसोचैम ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि पिछले दो सालों मंे दिल्ली और एनसीआर में 120 से 150 माॅल्स खुले जिनमें से 66-67 फीसदी दुकानें बंद हो गईं। ग्राहकों की खासा कमी की मार इन माॅल्स मंे खुली दुकानों के मालिकों को सहना पड़ रहा है। एसोचैप की रिपोर्ट मानती है कि वर्तमान में माॅल्स कम ग्राहकों की कमी से जूझ रहे हैं। विभिन्न माॅल्स में 40 फीसदी ही दुकानें चल रही हैं, बाकि माॅल्स खाली पड़े हैं। इसके पीछे वजह यह पाया गया कि या तो माॅल्स के आस पास पार्किंग की समस्या है या फिर लोकेशन अच्छी नहीं है। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार इस साल त्योहारों के सीजन में आॅन लाइन शाॅपिंग सुविधा मुहैया कराने वाले विभिन्न साइटों मसलन स्नैपडिल, मंत्रा,फ्लीपकार्ट,अमेजोन आदि ने तकरीबन 55,000 करोड़ रुपए का व्यापार किया है। इसका असर छोटे दुकानदारों पर पड़ा है।
यह देखना भी दिलचस्प होगा कि इस आॅन लाइन शाॅपिंग करने का कौन का ग्राहक है और वह किस उम्र के हैं। एसोचैम ने इसीसाल अक्टूबर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार आॅन लाइन शाॅपिंग करने वाले कस्टमर अमूमन 15 से 35 साल के आयु वर्ग के हैं। यह वह वर्ग है जो टेक्नोसैवी है। यह डेस्क टाॅप या लैपटाॅप पर शाॅपिंग करता है। उसमंे भी जूते, कपड़े, आभूषण, मोबाइल आदि की खरीदारी करते हैं। स्टूडेंट्स तो हैं ही साथी घरेलू महिलाएं भी जम कम घर चैका बर्तन, पर्दें,सोफा आदि आॅन लाइन खरीद रही हैं। एसोचैम के सेक्रेटी जनरल श्री डी एस रावत का मानना है कि ये ग्राहक ;15 से 35 आयु वर्गद्ध ज्यादा तर स्मार्ट फोन, टेबलेट्स, लैपटाप आदि पर शाॅपिंग किया करते हैं। यह वर्ग घर और आॅफिस में सक्रिय शाॅपिंग किया करते हैं।
आॅन लाइन शाॅपिंग का कोई समय, तिथि निर्धारित नहीं होती लेकिन ग्राहकों को लुभाने के लिए सबसे सटीक समय त्योहारों का होता है। दशहरा से लेकर बड़े दिन की छुट्टियों तक तमाम आॅन लाइन वेब शाॅपिंग साइट्स अपने सामानों पर भी छूट दे रहे हैं। चैबीसों घंटे खुली इन दुकानों पर ग्राहकों की भीड़ कम नहीं होती। एक सामान के साथ फलां सामान बिल्कुल फ्री। इसी तर्ज पर बिग बाजार, मोर, एप्पल आदि ने भी गणतंत्र दिवस, स्पतंत्रता दिवस, दीवाली जैसे अवसरों पर तीन और चार दिन के महा सेल पखवाड़ा मनाया करते हैं। इन दिनों में भीड़ को देखकर लगता है सारी की सारी जनता इन्हीं दिनों का इतजार कर रही थी। सेहद और पाकेट पर डेरा जमा चुकी बाजार हमेशा ही ग्राहकांे को कुछ न कुछ बेचने पर आमादा है। दिलचस्प बात यह भी है कि हम बिन मौसम कपड़े,खाने पीेने के सामान भी खरीद लेते हैं जिनका इस्तमाल तकरीबन साल भर बाद होना लेकिन हम अपने जेब से पैसे निकाल कर बाजार में फेक देते हैं।
आज बाजार का बदलता चरित्र और प्रकृति कहीं बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है। यह बदलाव हमारी स्वभाविक सामानों के प्रति बढ़ती भूख की ओर भी ध्यान खींचता है। पहले हम सिर्फ जरूरतों के सामान खरीदा करते थे लेकिन जब से बाजार आॅन पाम आ चुकी हैं तब से यह हिचक भी खत्म होती गई कि पैसे हैं या नहीं, बाजार तो दूर है। जाने में समय लगेगा। इन तमाम हिचकियों को खत्म किया है आॅन लाइन शाॅपिंग। आने वाला समय खुदरा व्यापारियों के लिए अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जोखिम भरा है।


Monday, November 9, 2015

साहित्य, समाज और बच्चे

साहित्य, समाज और बच्चे के त्रिआयामी समीकरण को भी समझने की आवश्यकता है। क्योंकि भाषा हमारे सामने जिन रूपों में आती है उसके उस स्वरूप को भी दृष्टिपथ में रखना होगा। बोलचाल से लेकर लिखने-पढ़ने एवं सृजन के माध्यम के तौर पर भाषा हमारा साथ निभाती है। भाषा है तो साहित्य है। साहित्य है तो पाठक होंगे और होंगे भाषा को बरतने वाले भी। ऐसा नहीं हो सकता कि भाषा है पर साहित्य नहीं व साहित्य है पर पाठक नहीं। भाषा, साहित्य, समाज और बच्चे जो आगे चल कर साहित्य सृजन करते हैं व भाषा को जीवन में अंगीकृत करते हैं उन्हें दरकिनार कर के नहीं चल सकते। दुनिया की तमाम भाषाएं अपने समाज और संस्कृति की वाहक रही हैं। नदीवत् प्रवहमान रही भाषा अपने साथ समाज की परंपराएं, संस्कृतियां, रीति रिवाज आदि को अपने साथ लेकर चलती और अग्रसारित भी करती रही हैं। यह अगल विमर्श का विषय है कि वही भाषा आज हमारे पास से सरकती हुई हाशिए पर खड़ी है। भाषा की इस अवस्था के पीछे भाषा के इस्तेमाल करने वालों की मनसा, भावात्मक लगाव एवं वर्तमान की चुनौतियों के मद्दे नजर भाषा के अधुनातन स्वरूप को स्वीकारने के कारणों को भी समझना होगा। हमें यह भी उदारता के साथ स्वीकारना होगा कि वर्तमान समय की मांग के लिए क्या हमारी भाषा हमें तैयार करने में कोई भूमिका निभा रही है? यदि नहीं तो फिर भाषा के वृहत्तर लक्ष्य को हमें दुबारा से परिभाषित और रद्दो बदल करना होगा। बच्चों को भाषा क्यों पढ़ाई जाएं? कौन सी भाषा पढ़ाई जाए? किस रूप में भाषा से बच्चों को रू ब रू कराया जाए आदि ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर हम वयस्कों को देना ही होगा। घर से शुरू हुई भाषा की यात्रा बच्चों को स्कूल, काॅलेज और फिर असल जि़ंदगी को कैसे प्रभावित करती है इसपर एक नजर डालना भी प्रासंगिक होगा।
शिक्षा,बच्चे और शिक्षक के इस अंतर्संबंध को और स्पष्टतौर पर समझे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। शिक्षक कौन होता है? शिक्षक की भूमिका क्या होती है? और शिक्षक के अपने वे कौन से गुण व कौशल होते हैं जिनकी वजह से वह शिक्षक बनता है आदि बिंदुओं को समझते चलें। दरअसल शिक्षक बच्चों और समाज व दुनिया के मध्य वह व्याख्याकार की भूमिका निभाता है जो बच्चों को समाज में समायोजन बनाने और अपने सर्वांगीण विकास में शिक्षक की मदद लेकर एक सफल इंसान बनने तक का सफर तय करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षकों को इस तरह की भूमिकाओं से वंचित किया गया है। वह इस रूप मंे कि आज की तारीख में ही नहीं बल्कि औपनिवेशिक काल से ही उसे महज पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं को पूरा कराने वाला मजदूर भर बना दिया गया। शिक्षा के वृहद् उद्देश्यों पर गौर करें तो वह था बच्चे का सर्वांगीण विकास। इसमें आत्मिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक आदि था। श्री अरविंद ने अपनी पुस्तक लाइफ डिवाइन में लिखते हैं नथिंग कैन बि टौट। शिक्षक सिर्फ बच्चों का मददगार हो सकता है।

शिक्षक की सहिष्णुता


तीन तीन और छह माह तक वेतन नहीं मिलते। मिलता है तो केवल आश्वासन और प्रशासन के डंडे। जब भी शिक्षक वर्ग अपनी हक की बात व मांग करता है तब तब उसपर लाठियां और पानी बरसाए गए हैं। समाज में हिकारत से देखी जाती है सेा अलग। कहने वाले कहते हैं मास्टर हैं साल भर बैठ कर पगार लेते हैं। पढ़ते लिखते नहीं हैं। ज़रा इन पंक्तियों के वक्ताओं से कोई पूछे कि जिसे छह महा से वेतन नहीं मिला है वह अपना घर परिवार कैसे पाल रहा होगा। कैसे बच्चों की पढ़ाई के फीस, दूध वाला, राशन पानी वाले के यहां से उधार जिंदगी बसर कर रहा होगा। किसी ने यह नहीं पूछा कि शिक्षक की रोजमर्रे की जरूरतों को कौन पूरा करता है। ऐसे बहुत कम शिक्षक हैं जिनकी पुश्तैनी जमीन हैं। उनके पास पैसों का बहुत अगाध स्रोत भी नहीं है। उनका घर वेतन पर ही चला करता है। जैसे वेतन में देरी होती है वैसे ही बहुत सारे काम अगले माह पर टाल दिए जाते हैं।
ऐसे में शिक्षकों की कौन सुनता है? कौन है जो उनके लिए आवाज बनता है? कहते हैं अपनी लड़ाई खुद को लड़नी पड़ी है। ऐसे में यह कितना दिलचस्प है कि तमाम संगठनों के बावजूद शिक्षकों की सुनने वाले कम हैं।

Friday, November 6, 2015

राजस्थान पुस्तकों मंे सेंधमारी



कौशलेंद्र प्रपन्न
अच्छा हुआ प्रेमचंद आपने हिन्दी में लिखना शुरू कर दिया था। अच्छा ही हुआ तुलसी ने उर्दू में नहीं लिखा। यह भी अच्छा ही हुआ कि सूर,मीरा, नानक आदि ने कम से कम उर्दू में हाथ नहीं आजमाया वरना आज उन्हें भी पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों से बाहर कर दिया जाता। यह कोई गल्प नहीं है। यह कहानी भी नहीं है। राजस्थान के पाठ्यक्रमों से उर्दू में लिखी कहानियों, कविताओं,शब्दों को बाहर निकालने का फरमान जारी हो चुका है। इस्मत चुगताई, सफ़दर हाशमी, जायसी आदि कवियों, लेखकों की रचनाओं से बच्चों को निज़ात दिलाने के लिए निर्देश दिए जा चुके हैं। राजस्थान शिक्षा समिति यह काम बड़ी ही साफगोई और दिलेरी से कर रही है। उस तर्क यह दिया जा रहा है कि बच्चों को उर्दू के शब्द पढ़ने,समझने में दिक्कत होती है। इसलिए कविताओं और कहानियों आदि से उर्दू के शब्दों को तो बाहर किया ही जाएगा साथ ही ऐसी रचनाओं और रचनाकारों को पाठ्यक्रमों से निकाल बाहर किया जाएगा। कितना अच्छा और आकदमिक तर्क है। क्योंकि शब्द उर्दू के हैं। क्योंकि बच्चों को समझ नहीं आएंगे इसलिए रचनाओं एवं रचनाकारों को निकाल दिया जाए। राजस्थान शिक्षा विभाग और सरकार की यही समझ है कि उर्दू के शब्द कठिन होते हैं, बच्चों के लिए परेशानी के सबब बनते हैं इसलिए पाठों को बदल दिया जाए। इस शैक्षिक और अकादमिक समझ पर हंसी नहीं आती बल्कि अफसोस ही किया जा सकता है।
अव्वल तो यह पहली बार नहीं हुआ है। बस भौगोलिक अंतर जरूर रहे हैं लेकिन इस किस्म के गैर शैक्षिक और अकादमिक फ़रमान का शिकार अन्य राज्यों मंे पाठ्यक्रमें हुई हैं। प्रकारांतर से शिक्षा, साहित्य, पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम एक नरम कड़ी हुआ करती हैं जिसे बड़ी ही आसानी से तोड़-मरोड़ सकते हैं और यह प्रक्रिया खूब आजमाई गई है। कभी किसी राज्य में गीता को बच्चों के बस्ते में ठूंसा जाता है तो कहीं रामायण और महाभारत की वजह से उर्दू साहित्य और रचनाओं को पाठ्यपुस्तकों से बाहर होना पड़ता है। क्या यह स्वस्थ शैक्षिक पहलकदमी मानी जाएगी? क्या साहित्य शिक्षण और शिक्षा का दर्शन है?
पाठ्यपुस्तकों के साथ हमेशा ही इस तरह की छेड़छाड़ होती रही हैं। जब भी सत्ता और सरकारें बदली हैं तब तब पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों मंे रद्दो बदल किए गए हैं। वैसे बदलाव ग़लत नहीं है लेकिन जब बदलाव वैचारिक पूर्वग्रह को पोषित और संप्रेषित करने के लिए किया जाता है तब तब शैक्षिक दर्शन की हत्या की जाती है। यह हत्या सन् 2000 में जब राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा बनी तब प्रेमचंद की कहानी को पाठ्यपुस्तकों से निकाल दिया गया और उसके स्थान पर मृदुला जी की कहानी ज्यों मेहंदी के रंग को शामिल किया गया। उस वक्त और आज भी शैक्षिक विमर्शों में यह बात बड़ी शिद्दत से होती है कि प्रेमचंद की कहानी के समानांतर क्या यह कहानी खड़ी होती है? किन कारणों से इस कहानी को स्थानांतरित किया गया? तत्कालीन एनसीएफ 2000 पर भगवाकरण का आरोप लगा था। तत्कालीन पाठ्यपुस्तकों को देखें तो यह बेबुनियाद नहीं जान पड़ता। पाठ्यचर्या में भी खास विचारधारा को पिरोने का काम इतिहास में खूब हुआ है।
दरअसल पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों को समय समय पर वैचारिक संप्रेषण और संरक्षण के औजार के तौर पर इस्तमाल किया गया है इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। वह पाठ्यपुस्तकें हो या पाठ्यचर्याएं इन शैक्षिक साधनों कि जरिए बच्चों के बस्तों मंे सेंधमारी होती रही हैं। यह गैर शैक्षिक एवं अकादमिक प्रवेश  न केवल भाषा की किताबों में बल्कि समाज विज्ञान, विज्ञान एवं इतिहास की किताबों मंे भी हुई हैं। राजस्थान के पाठ्यपुस्तकों से नेल्सन मंडेला, विलियम वर्डस्वर्थ, पाइथोगोरस आदि को निकाल बाहर किया जाएगा। वहीं अकबर के स्थान पर महाराण प्रताप को इतिहास मंे जगह दी जा रही है। उस तुर्रा यह कि राजस्थान शिक्षा मंत्री का कहना है कि एक युग में दो महान नहीं हो सकते। हद तो तब हो जाती है जब बिना किसी निरपेक्ष शैक्षिक विमर्श के धार्मिक-ग्रंथों, पाठों, विधानों को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने की कवायद की जाती है। यह किसी की आंखों से ओझल नहीं है कि मध्य प्रदेश, हरियाणा,राजस्थान जहां भाजपा की सरकार है या रही है वहां की पाठ्यपुस्तकों मंे कभी गीता को शामिल किए जाने को लेकर विवाद उठा है तो कभी सूर्यनमस्कार को अनिवार्य करने के पीछे थू थू हुई है। वास्तव में इस तरह की गैर शैक्षिक और अकादमिक छेड़छाड़ को कभी भी शिक्षाविद् एवं बौद्धिक समाज स्वीकार नहीं करेगा और न ही करना चाहिए।
बच्चों को क्या पढ़ाया जाए,कैसे पढ़ाया जाए, कितना पढ़ाया जाए एवं किस तरीके से पढ़ाया जाए यानी शैक्षिक विमर्शाें को ताख पर रख कर एक सूत्रीय कार्यक्रम वैचारिक प्रचार कैसे किया जाए चलाया जा रहा है। याद करें पिछले साल दिसंबर में मानव संसाधन मंत्रालय को शब्दों की सूची सौंपी गई थी जिसमें उर्दू के दो हजार से भी ज्यादा शब्द शामिल थे जैसे अख़बार, ख़बर, ग़लत, बाजार, कलम, दफ्तर आदि को तत्काल प्रभाव से हटाने की मांग की गई थी। प्रकारांतर से इस प्रवृत्ति पर सोचें तो पाएंगे कि यह भाषायी विविधता को धत्ता बताना नहीं तो और क्या है? इसी एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए राजस्थान के शिक्षा विभाग की समिति उन तमाम रचनाओं और रचनाकारों को बेदख़ल कर रही है जिन्होंने उर्दू में लिखा या उर्दू भाषा से वास्ता रखते हैं। यदि ऐसा होता है तो वह दिन दूर नहीं है जब हम जायसी, रसख़ान, मीर तकी मीर, गालिब को तो नहीं ही पढ़ेंगे बच्चे रानी केतकी की कहानी भी नहीं पढ़ सकेंगे। इतना ही नहीं उर्दू के लेखकों की कहानियां, कविताएं बच्चों से दूर कर दी जाएंगी। जिन्ने लाहौर नी वेख़्या... वज़ाहत साहब भी पाठ्यपुस्तकों से बाहर कर दिए जाएंगे।
बहुभाषिकता और बहुभाषी समाज की परिकल्पना शायद अब पुरानी पड़ चुकी है। बहुभाषी आस्वाद देने से कतराते वर्ग को यह विचार करना चाहिए कि भारत में हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं को अपना समृद्ध इतिहास और विकास यात्रा रही है। क्या हम ग़ालिब,मीर तकी मीर, फैज़, ख़ैयाम, मजरूह सुलतान पुरी,कैफ़ी आजमी,जावदे अख़्तर आदि के बगैर हिन्दी फिल्मी गीतों की मधुरता की कल्पना कर सकते हैं? क्या हम सहादत हसन मंटो, सफ़दर हाशमी, इस्मत चुगताई को निकाल बाहर कर साहित्य मंे एक फांक पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? साहित्य में किसी भी भाषा को बाहर कर बहुभाषिकता के भाषायी दर्शन को नकारना ही तो है। कहीं न कहीं भाषा, इतिहास, विज्ञान अपने परिवेश से ही जीवन-तत्व पाया करती हैं यदि उन्हें स्थानीयता और एक रेखीय भाषा के औजार से बरता जाएगा तो यह एक बड़ी घातक शैक्षिक परिघटना है।


Thursday, November 5, 2015

भाषायी विस्थापन


कौशलेंद्र प्रपन्न
व्यक्ति के साथ भाषा भी विस्थापित होती है। व्यक्ति जीवन यापन के लिए या फिर बेहतर जिंदगी के लिए गांव,देहात,जेवार छोड़ कर शहरों, महानगरों की ओर पलायन करता है। पलायन कहें या विस्थापन लेकिन यह प्रक्रिया बड़े और व्यापक स्तर पर इतिहास में होता रहा है जो बतौर आज भी जारी है। अपनी अपनी हैसियत अवसर के अनुसार इस विस्थापन में हजारों हजार गांव,घर खाली हो चुके हैं। जो एक बार गांव से निकल गया वह दुबारा अपने गांव लौटने की लालसा रखते हुए भी नहीं लौट पाता। गांव वापसी की पीड़ा व्यक्ति को ताउम्र सालती रहती है। बुढ़ापे में गांव जरूर लौटेगा इस आशा में गांव में घर भी बनाता है। लेकिन वे घर उसके लौटने के इंतजार में ढहने लगते हैं, लेकिन वही नहीं लौटता।
एक बार पांव गांव से बाहर निकले नहीं कि दुबारा अपने गांव वापस आएंगे या नहीं यह तय नहीं है। जो लोग गांव से बाहर हो चुके हैं उनमें गंाव के प्रति एक कड़वाहट भी देखी जा सकती है। गांव का माहौल अब रहने लायक नहीं रहा। यहां बिजली,पानी, रोजगार के अवसर की कमी है। यहां कोई कैसे रह सकता है,आदि उलाहने भरी पंक्तियां सुनी जा सकती हैं। ज़रा उनसे कोई पूछे आप भी तो उसी माहौल में पढ़ लिख कर आज महानगर की चकाचैंध मंे बैठे हैं। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि गांव जा कर क्या करेंगे, वहां आखिर अब रखा ही क्या है? न मां-बापू रहे और न यार दोस्त, फिर वहां किसके लिए जाया जाए। यह सच है कि समय के अनुसार गांव, देहात, शहर महानगर सब जगह बदलाव साफ देखे जा सकते हैं। हाट बाजार,गली मुहल्ले सब के सब विकास के पथ पर सरपट दौड़ रहे हैं। जहां छोटी दुकानें हुआ करती थीं वहां चमचमाता शोरूम बन चुका है। नाई के उस्तरे, साबुन सब बदल कर हेयर स्पा,फेशियल के बोतलों में बंद हो चुके हैं।
व्यक्ति के विस्थापन व पलायन से ही भाषायी पलायन व विस्थापन भी गहरे जुड़ा हुआ है। इतिहास बताता है कि जब बिहार, उत्तर प्रदेश से गिरमिटिए विभिन्न देशों में गए तो उनके साथ उनकी भाषा भी गई। वे अकेले यात्रा पर नहीं निकले थे बल्कि उनके साथ उनकी भाषायी संस्कृति,समाज, परिवेश भी वहां वहां गया था। उनकी जबान ने वहां अपनी पहचान बनाई। यह भाषायी फैलाव था। यह भाषायी अस्मिता की वैश्विक पटल पर एक दस्तक थी। आज के संदर्भ में देखें तो अमरिका के जनगणना ब्यूरो की रिपोर्ट में बताया गया है कि  अमरिका में तकरीबन 6.5 लाख लोग हिन्दी बोलते हैं। दिलचस्प है कि न केवल हिन्दी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ही अन्य देशों की भाषाएं भी बोली जाती हैं। इसमें स्पेनिश,चीनी, फे्रंच,कोरियाई,अरबी रूसी आदि भाषाएं भी शामिल हैं। इन भाषाओं के बरतने वालों से अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि इन भाषाओं के लोग अपनी जमीन से विस्थापित हुए हैं। इनमें भाषाओं के विस्थापन से मायने यह है कि किन किन भाषायी परिवेश के लोग कहां कहां जा बसे हैं। यदि इस रिपोर्ट की रोशनी मंे जानना चाहें तो एक तस्वीर यह उभरती है जिसमें 3.7 लाख से कहीं अधिक अमरिकी गुजराती बोलते हैं। वहीं  2.5 लाख से ज्यादा लोग बंगाली, 2.5 लाख पंजाबी,73,000 मराठी, 1300 लोग असमी, 1700 लोग कश्मीरी बोलते हैं। यहां यह देखना रेाचक होगा कि किस प्रांत व भाषा-भाषी का पलायन अन्य देशों में हुआ। इस दृष्टि से जब देखते हैं तब हमंे 600 लोग बिहारी भाषा, 700 लोग राजस्थानी भाषा प्रयेाग करने वाले इस रिपोर्ट में दर्ज किए गए। तमिल, तेलगू,मलयाली बोलने वालांे की संख्या भी हजारों और लाखों में है।
भाषायी विस्थापन का अंदाज तो लगता ही है साथ ही भाषायी वर्चस्व एवं ताकत की झांकी भी मिलती है। किस भाषा को बरतने वाले कितने तदाद में हैं और किस पद पर बैठे हैं यह भी भाषायी विस्तार को खासा प्रभावित करता है। किसी भी भाषा के फैलाव को उस भाषा के इस्तमाल करने वालों के कंधों पर होता है। जैसे जैसे हम भाषा को अपनी पहचान का मामला बना लेते हैं तभी वह भाषा विस्तार पाती है। जब हम भाषायी पहचान को अपनी हीनता मानने लगते हैं तभी कोई भी भाषा हमारे आम फहम कही जिंदगी से कटती चली जाती है। यही वजह है कि भाषाएं हमारे परिवेश से सिमटती जा रही हैं। उदाहरण के लिए अमरिका में बिहारी और राजस्थानी बोलने वालों की संख्या अन्य भाषाओं की तुलना मंे बेहद कम है। नेपाली, उर्दू, अरबी आदि बोलने वालों की संख्या भी लाख के ज्यादा है। यह परिघटन दो तरह के संकेत करते हैं पहला-इन भाषााओं को बोलने वाले उस देश में ज्यादा संख्या में विस्थापित हो चुके हैं। दूसरा, जिनकी संख्या कम है वे एक कुंठाग्रस्त मनोदशा के शिकार हैं। उन्हें अपनी भाषा के इस्तमाल मंे संभव है संकोच व किसी तरह का दबाव महसूस करते हों। अपनी भाषा के इस्तमाल न करने के पीछे कई तरह के दबाव एवं मनोदशाएं हो सकती हैं। वह सामाजिक प्रतिष्ठा से लेकर, भाषायी पहचान एवं सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ मामला है।
व्यक्ति के विस्थापन के साथ भाषायी एवं उसकी सांस्कृतिक विस्थापन भी जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि एक भाषा में कई भाषाओं की आवजाही साफ नजर आती हैं। हिन्दी में विभिन्न बोलियों, भाषाओं के शब्द सहज ही मिल जाएंगे। मसलन भोजपुरी, अवधी, उर्दू, अरबी,उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि। एक विमर्श भाषा में यह भी है कि शुद्धतावादी इस प्रवृत्ति को भाषा की दृष्टि से उचित नहीं मानते। उनकी नजर में यह भाषा को गंदला करना है। इस तर्क के आधार पर हिन्दी से उर्दू, फारसी,अरबी शब्दों को निकाल बाहर करने की आवाज समय समय पर सुनाई देती रही हैं। किन्तु भाषा को समृद्ध करने के लिए जरूरी है अन्यान्य भाषाओं के बीच संवाद स्थापित किया जाए और भाषायी आवाजाही को बढ़ावा दिया जाए।


Tuesday, November 3, 2015

कहीं तो रहूंगा


रहूंगा
किसी न किसी रूप में
गंध में
स्वाद में
या फिर यादों में।
कहीं नहीं जाने वाला
किसी ने किसी रूप में
रहूंगा आस पास खुले आकाश में
पिलपिलाती जमीन में
बजबजाती यादों में
या फिर इसी यूनिवर्स में किसी ग्रह पर
विचरता रहूंगा।
रूप बदल जाएंगे
आवाज बदल जाएगी
कद काठी बदली जाएगी
पर नहीं बदलेगी
मेरी स्मृतियों में आना जाना।
तुमने क्या सोचा मैं चला जाउंगा
दूर कहीं दूर नीले आसमान में
तुम पुकारोगे और मैं नहीं सुनूंगा
ऐसा नहीं होगा,
मैं बस बेजबान
सब कुछ सुनकर भी उत्तर नहीं दे पाउंगा
क्योंकि मेरे पास तुम्हारी जबान नहीं होगा।
अभी अभी पीठ पर टंगा
कल खुजली की तरह परेशां करता है
लाख चाह कर भी नहीं उतार पाता,
कल की घटनाओं की चीख,
उस बच्ची की हिचकी,
बहुत शोर है तुम्हारे शहर में
कभी शोर से बाहर आना तो फिर बात करेंगे।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...