Wednesday, July 28, 2010

संसद को जाता रास्ता

क्या सारे संसद की और जाने वाली सड़क पर जाने के लिए लम्बी पारी खेलते हैं। पत्रकार, युद्याग्पति, मास्टर या ऑफिसर सब के सब संसद तक जाने वाली रोड की तलाश ज़रूर करते हैं। तरुण विजय, मणि शंकर, राम जेठमलानी या और भी कई नाम गिनाये जा सकते हैं। जो अंत में संसद में जा बैठने को बेताब हो रहे थे। लेकिन मजा तो तब आता है जब ये संसद में गैरहाजिर होने लगते हैं। पूरी जीवन भर की थकान, तमन्ना आदि आदि पूरी करने में संसद से ही गायब रहने लगते हैं।
सवाल तो तब पुचा गायेगा जब हाज़िर होंगे। इनको मालुम हो कि १ मिनिट की संसद की कारवाही का खर्च २५ हज़ार रूपये आते हैं। अगर उनकी तू तू मैं मैं के चाकर में संसद थप होता है तो उसकी भरपाई कोण करेगा। जनता के पैसे उडाना रास नहीं आएगा। संसद जा बैठे तो कुछ काम भी कर ले तो बेहतर।

Wednesday, July 21, 2010

जी का पत्र पुत्री के नाम

नेहरु जिस ने जेल में रहते हुवे बेटी इन्द्र को पत्र लिखा था। यह पत्र पिता का पत्र पुत्री के नाम से खासा प्रशिध हुवा। नेहरु जिस ने बेटी को दुनिया की समझ साझा किया था। इस लिहाज से नेहरु जिस ने पिता का धर्म पालन किया था। येसा कहने में ज़रा भी संकोच नहीं।
आज के तमाम जितने जी हैं यानि पिता जी , चाचा जी , तावु जी , आदि अपनी बेटी के नाम क्या पत्र लिखते हैं ज़रा ध्यान दें-
प्यारी बेटी ,
तुम को किसी और से जान का खतरा हो न हो कम से कम हम से तो है ही। हम तुम को कभी भी मौत के घाट उतार सकते हैं। उस पर तुर्रा यह कि हमने ज़रा भी अफ़सोस न होगा। हम जो भी करेगे वो घर , समाज और परिवार के नाम , नाक और परंपरा की खातिर करेंगे। तुम को तो मरना ही होगा बेटी।
तुम अपनी जान को ज़यादा सहेज कर मत रखा करो। जितना खाना पीना हो इसी पल में कर लो। क्या पता कल कोण तुम को प्यार करने लगे जो हमें गवारा न होगा। और तुम को खा मखा जान से हाथ धोनी होगी।
तुम अफ़सोस की बात करती हो ? पागल तो नहीं हो रही हो ? तुम कब बड़ी हो गई ? पहले समाज , घर की इज्जत है या कि तुम? तुम को गवा कर दूसरा बेटा या बेटी को जन सकते हैं। आखिर तेरी माँ और क्या दे सकती है ?
पहली बात यह कि शादी के बाद त्तुम पैदा हुई।
घर में गोया कोई मर गया हो। दादी तो जैसे सोंठ बनाना ही भूल गई।
और तुम हमारे आगे प्यार कैसे कर सकती हो ? प्यार के नाम पर धोखा खा कर रोटी घर आवो यह हमें पसंद नहीं। आज सेक्स ही प्यार हो गया है। प्यार के नाम पर सेक्स पाने का आसन रास्ता। हम तुम्हे इस रह पर नहीं जाने दे सकते। तेरी बुवा भी कभी चलने की जुरर्त की थी। आज तलक किसी को नहीं मालूम कि कहाँ चली गई। दादी आज तक पूछती है बेटी न जाने कहाँ चली गई। गई कहाँ उसे तो नीद सुला दिया गया। वह भी साथ में। वो भी पास लेता बा ॥ बा कहता होगा। तेरी बुवा को वो प्यार से बा कहता था। अब दोनों बेफिक्र हो दो अलग अलग लेकिन इक ही ज़मीं पर लेते हैं।
क्या तू भी छाती है कि तू भी बुवा के पास जा लेते। देख हमारे हाथ ज़रा भी नहीं कपेंगे। वैसे भी आदत हो गई है। मामा की बेटी भी तो नदी में नहाने गई कहाँ लौट कर आ सकी। बेटी समझ रही हो न।
मेरी प्यार की निशानी, बेटी मैं तेरा सब कुछ हूँ। समझा करो। जन्म दे सकता हु तो मौत की नींद भी तो सुला सकता हूँ। माँ की आखों में तू उस समय ममता की झिल्ली न पाएगी। गडासा या माचिस वही तो लगाएगी जिन घने बालों को वो घटा समझ चेहरे पर बिखेरते होगा। तेरी बालों को आग तो माँ ही लगाएगी।
बस अब और क्या कहूँ तुझे बेटी की तरह पाला है , बल्कि बेटी ही तो है। तावु या मामा, चाचा या पापा क्या फर्क पड़ता है आग लगाने वाला हाथ कोई भी हो मरना तो तुझे ही होगा। इस लिए मेरी मान तू प्यार मत कर तेरी शादी करा देते हैं जो करना हो वहीँ करना। न समझ हो तो तुझे कोई बचा सकता है।
तेरा अपना,
सब कुछ। पैदा करने वाला ,
पालने वाली,
गोद में घुमाने वाली गोद और सकल परिवार।

Saturday, July 17, 2010

रुपया है या देवनागरी का आधा स

देवनागरी का आधा स को रुपया का प्रतिक मान लिया गया। हर किसी ने इसे कुबूल कर लिया। कहीं किसी और से भी सवाल नहीं उठे। यानि जो भी लाड दिया जायेगा उसी को मान लेना क्या हमारी मज़बूरी है। मानलिया कि रुपया के प्रतिक बनाने वाला आई आई टी का स्टुडेंट है है। हजारो में में से उस के इस काम को अंत में इस लायक माना गया कि उसपर स्वीकृति की मुहर लगी।
इक भाषा के विद्वान या भाषा वैजानिक इस प्रतिक को र तो मान सकता है लेकिन यह रु कैसे है यह समझ से बाहर कि बात है। यह पहली नज़र में देवनागरी के स का हराश्वा रूप लगता है। स का तय रूप ही आध रूप स को हलंत लगा कर बनाया जा सकता है
लेकिन हमारे देश में कई चीजें ऊपर युपर ही तै हो जाया करती हैं।

Thursday, July 15, 2010

शुक्रिया कहने का मन

मैं इक बार उन मित्रों का प्यार पलकों पर रखता हूँ जिन लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दिया....
जो लोग इस बात को ले कर रोते रहते हैं कि पठनीयता खत्म हो रही है तो बिलकुल गलत नहीं तो अर्ध्य सत्य है। इस बात कुबूल करना होगा। इक आलेख पर प्रतिक्रिया मिलना इस बात का प्रमाण है कि लोग पढने से नाता बरक़रार रखे हुवे हैं। बल्कि कहना चाहिए कि न केवल पढ़ते हैं बलिक वो लगो लेखक से अपनी बात मनसा ज़ाहिर करने में भी गुरेज नहीं करते।
पठनीयता खत्म नहीं हो सकती। बस माध्यम में तबदीली आ सकती है जो ताजुब नहीं। वैसे भी पूरा पाषाण काल से लेकर अब तक मध्याम तो बदलते ही रहे हैं। कहाँ हम शुरू में खड़िया, स्टोन , भोज पत्र, पेपिरस, ताम्र पत्र, स्तंभ, मिटटी की प्लेट पर लिखा करते थे। जैसे जैसे हमारे पास तकनीक आता गया वैसे वैसे हमरे लेखन और पठान में तेज़ी आती चली गई।
ताड़ पत्र, भोज पत्र, स्टोन आदि पर लिखते लिखते हमने कागज़ कलम से लिखा शुरू किया। चाइना में कागज़ मुद्रण तकनीक के आविष्कार से मुद्रण और लेखन में रफ़्तार आ गया। आज हाल यह है कि इक अखबार इक घंटे में लाख से भी ज़यादा कापी मुद्रित करने में आगे है। अखबार से आगे नज़र डाले तो पायेंगे कि इक ताफ्फी नुमा उपकरण में हजारों पेज आजाते हैं। उससे भी इक कदम आगे चले तो देख सकते हैं कि इक पल में शब्द किसे रफ़्तार से मीलों के फासले पलक झपकते नाप जाते हैं।
लोग कह रहे है आज पढने वाले कम हो रहे हैं। जबकि सच यह नहीं है। यदि लिखने वाला इमानदार हो कर लिखता है तो उसको पाठक के तोते नहीं पड़ते। चेतन भगत, किरण बाजपाई, जोशी जैसे लेखक का पाठक के कम होने कि शिकायत नहीं।
मैं इक बार उन मित्रों का प्यार पलकों पर रखता हूँ जिन लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दिया....

Monday, July 12, 2010

देह से मुक्ति की...

देह तो यहीं रह जाता है उन्ही मिटटी, पानी , आग , आकाश और हवा में घुल कर। जो भी लोग साथ चार कंधो पर लड़ कर लाते हैं कुछ ही दर में पर रख कर बैठ जाते हैं और जॉब , टेंशन , शादी , बेटे बेटी और दुनिया की बातो में मशगुल।
हम तो फिर भी चेत नहीं पाते। अहम् में चूर किसी को जीवन भर कहाँ लगते हैं। कोई कुछ बोल दे तो खाने को भागते हैं। जब कि सच मालूम है कोई भी पल भर घर में रखने वाला नहीं। हर कोई ज़ल्द से ज़ल्द बहार करने की बात करता है। फिर भी मकान बनाने , पैसा जोड़ने , लड़ने में अपनी बेशकीमती जीवन के पल जाया कर देते हैं।
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पैसा न जोड़ा जाये। अछ्ही लाइफ की कामना न की जाये। कर्म , परिश्रम से नाम, प्रशिधि, और पैसा भी कमाना ही चहिये। यदि चाहते हैं कि इक सुकून भरी ज़िन्दगी जी जाये तो पैसे की कीमत को नकार कर नहीं चला जा सकता। 'पॉकेट में हो पैसा तो खुदा भी जमीं पर आता है' है तो यह फिल्म का गाना मगर है सौ फीसदी सच। पैसे से आपकी बात, कद, नाम , प्यार सब कुछ जुदा हुवा है। गर पैसा नहीं तो माँ बाप तो माँ बाप यहाँ तक कि बीवी, बच्चे, दोस्त , प्रेमिका सब के सब ठीकरे भर भी भाव नहीं देते। कन्नी काटना जानते होगे जी हैं लोग आप से दूर जाने लगते हैं। लोगों को लगता है कहीं पैसा न मांग बैठे।
माना कि पैसा सब कुछ नहीं होता लेकिन पैसे न हो तो आप या कि हम कुत्ते से ज्यदा कुछ नहीं होते। हर कोई दूत कार कर आगे बाद जाता है। इस लिए यदि इज्जत , प्यार , दुलार नाम की ख्वाइश है तो पैसे की शाट को नकार कर नहीं चल सकते।
धन से मुक्ति या देह से मुक्ति दोनों तो दोनों इक तो नहीं नहीं लेकिन देह से मुक्ति के बाद पैसे की ज़रूरत नहीं होती लिकिन पैसे से मुक्ति तो जीवन भर नहीं होता। जिसके टेट में पैसे होते हैं बेटा भी उन्ही की सेवा करता है। लोभ में ही सही मगर यदि माँ बाप की सेवा बेटा पैसे की उमीद में करता है तो कम से कम सेवा तो हो रही है। इस लिए बुढ़ापा या जवानी सुन्दर बनाना है तो पैसा तो जोड़ना ही होगा।
तुलसी दास ने कहा है , 'आशा तृष्णा न मुई मरी मरी गया शारीर' देह से मुक्त हो सकते हैं। बेहद आसन है लेकिन उमीद , आशा और चैन की ज़िन्दगी की लालसा से मुक्त हो कर रह पाना ज़रा मुश्किल...

Monday, July 5, 2010

सुन्दर देह जान पर बन आये

सुन्दर देह जान पर बन आती है। हिरन के सिंग बड़े ही कुब्सुरत होते हैं बेचारी उसी सिंग की वजह से मारी जाती है। कभी कभी तो अपने बदसूरत पैर के बल पर भागने में कामयाब हो जाती है लेकिन सिंग किसी पेड़ या झड में फस जाता है और ....
इनदिनों ही नहीं बल्कि लम्बे समय से चला आ रहा है खुबसूरत देह मुस्कान और अदा की वजह से कई लड़कियां या एक्ट्रेस , माडल को अपनी जा गवानी पड़ती है। यह इतिहास सिद्ध है कि सीता को भी अपनी खूबसूरती की कीमत चुकानी पड़ी थी। राम के साथ कई हज़ार सैनिक, दोस्तों ने जान की बाजी लगा कर रावान के साथ युद्ध करना पड़ा। इन सब के पीछे सुन्दरता ही तो था। राजा रजवाड़ों के बीच कई बार सुन्दर रानी को लेकर युद्ध हुवे हैं। सुन्दर जान , देह परिवार , समाज और कई बार देश के लिए भी खतरा साबित हवये हैं।
इन दिनों माडल की मौत रहस्य बना हुवा है। इससे पहले भी इस तरह की घटनाये होती रही हैं। लेकिन हमने उससे कोई पाठ नहीं सीखा। सुन्दर होना कोई गुनाह नहीं, न ही कोई जुर्म जिसकी कीमत लड़की चुकाए, । सुन्दर देह तो कुदरत की दें है और खुद उसे संभल कर चलते हैं लेकिन पुरुष की दूरबीन भेदी निगाह से देह की तार तार होना तो आज बड़ी इ आम बात है। इस में पिता, भाई , रिश्तेदार सब तो शामिल हैं आखिर किसे किसे चलनी से चाल कर इक लड़की देखे।
तेज़ाब से मुह जला देने या चाकू से गोद कर मार डालने की घटना भी नै नहीं है। जो कभी प्यार के दंभ भरते नहीं थकता था वही प्यार के इंकार करने पर या शादी न करने की बात सुन कर आग बबुलाहो मार डालने जैसी घिनौनी हरकत करते हैं। क्या यही प्यार है ? शायद यह सवाल ही बेकार है आज रिश्ते में वो गर्माहट रही ही कहाँ। जब प्यार वासना को शांत करने व शादी से पहले सब आनंद भोग लेने के पैमाने पर टिके हों तो दोष किसे से मठे मढ़ा जाये। यहं तो 'को बद कहत चोट अपराधू' किसको कम और किसे ज़यादा कसूरवार कहेंगे। इस हमाम में क्या देवता और क्या इंसान सब धन इक पसेरी.

Sunday, July 4, 2010

भाषा जब लड़ने लगे

भाषा जब लड़ने पर उतर आये तो कोइन से भाषा इस्तमाल करेगी ? क्या वो आम फहम भाषा में लडाई करेगी या कोई और बोली में तू तू मैं मैं करेगी ? क्या हो सकती है उसकी भाषा?
पहली बात तो भाषा लडाई नहीं कर सकती दूसरी बात यदि भाषा के बीच लडाई की स्थति आ भी गई तो उनके बीच इस बात को लेकर लडाई तो हो सकती है कि आज तुम्हारी बड़ी चलती है जिसे देधो यही तुम्हे पढता है। हाँ भाई हो भी क्यों न तुम को पढने वाले विदेश , कॉल सेण्टर या फिर कसी नामी कम्पनी में काम करने लगते हैं। समाज में उनकी बात सुनी जाती है। तुम्हे तो चाहने वाले देश विदेश में हजारों की संख्या में हैं। वहीँ मुझे तो तब कोई पढना चाहता है जब उसे कहीं कोई राह नहीं सूझता। यैसे देखा जाये तो मैं तो तुम से बड़ी हुई या नहीं मैं तो हारे हुवे , निराश मन और आम जन की बोली वाणी हूँ। हर कोई ऑफिस बड़े लोगों के बीच पोलिश भाषा को बोल कर जब उब जाते हैं तब मन की भावों को अपनी बोली में ही कहना चाहते हैं। प्यार हो या लड़ाई तब तो तू कहीं कोने में चली जाती है। और वैसे भी अपनी जुबान में गाली देने प्यार का इज़हार करने के लिए तो अपनी उसी भाषा को जुबान पर लेट हैं जो उनके साथ दूध पीने से साथ रही है।
कुछ भाषाएँ सच में बाज़ार में, समाज , लोगों के बीच ख़ास तवज्जो तो दिला देती है। मगर हम जब सपने देखते हैं किसी को डाटते हैं रौब गत्ते हैं तब अपनी बनावती भाषा सामने आजाती है। वैसे तो भाषा से बड़ी बोली हुई फिर। वो तो हमारे जन्म से लेकर मरने तक साथ रहती है। यह अलग बात है कि उस बोली को हम दबा कर रखते हैं। लेकिन जब भी मौका मिलता है वो बोली तमाम बंदिशों तो तोड़ कर ऊपर आ ही जाती है। हमारी ओढ़ी हुई भाषा बोली के सामने नंगी हो जाती है। वैसे इस में कोई अश्लील बात नहीं। जो येसा देखते हैं यह उनकी नज़र की दोष हो सकती है।
भाषा बोली वाणी ये सब के सब शब्दों के अलग अलग रूपों में गुथ्ये होते हैं। अगर इनके तन्तुयों को खोल कर देखें तो पायेंगे कि इनकी रचना भी इक ही रसे से हुई है।

आतंक की कोई जमीर नहीं होती

इक बार फिर से लाहौर दहल गया। इससे इक बात तो साबित होती है कि आतंक की आखों में न तो धर्म न कौम न ही लिंग की कोई सीमा होती है। बस यदि कुछ होती हो तो वह है खून , चीख , बम और रुदन। वह आख किसकी, माँ की , बहन के भाई की या पिता की इससे भी उनको कुछ भी लेना देना नहीं होता। जिस ज़मीन पर पाले बढे और बचपन गुजारी उसको भी तबाह करने से पहले उनके दिमाग दिल के दरमियाँ किसी किस्म की हलचल नहीं होती।
ज़मीन पाकिस्तान की हो या भारत की। हर वो ज़मीन उनके लिए माकूल है जहाँ बम फोड़े जा सकते हैं जहाँ लोग बसते हों. वो जगह अल्ला टला का हो या भवन इश्वर का हो। उनकी निगाहों मेहर धर्म , कौम , लोग सामान हैं , सामान को नष्ट करने में ज़रा भी हिचक नहीं महसूसते। आत्मा या जीव की अमरता और भारतीय दशन गीता की कृष्ण उपदेश को जीवन में उतारा है कि
आत्मा न हन्यते न हंय मने शरीरे, न शोषयति मरुतः। वो मानते है हम कोई हैं किसी को मरने वाले या मारने वाले। सब खेल तो उस ऊपर वाले की है। हम तो बस माध्यम भर हैं। सीढ़ी तो केवल मंजिल तक पहुचने के लिए होती है अब कोई वहां से खुद कर जान दे दे तो उसमे सीढ़ी का क्या दोष।
वाश्तव में आतंकी के दिमाग से पहले पहल संवेदना , दर्द को महसूसने वाले कोने को खली किया जाता है। और फिर उसमे भरा जाता है नफरत , आतंक और पिद्दा में आनंद पाने की ललक। बचचन ने लिखा है ' पीड़ा में आननद जिसे हो आये मेरी मधुशाला' तो इस आतंक की मधुशाला में मुस्लिम युवा को लाया जाता है और चक कर नफ़रत , कौम , धर्म और ज़ेहंद की बतियाँ पिलाई जाती हैं। जिसे वो बड़े ही मन से पीते हैं। जो नहीं पीता उसे मधुशाला से बाहर का रास्ता दिहाका दिया जाता है। गरीब मुस्लिम परिवार के पिता अपने बेटे को इस मदिरालय में शौक से भेजते है। पैसे से घर की हालत ठीक करने की लालसा में इक बाप हजारो बेटे, बेटी और परिवार के नेवाला कमाने rवाले को मौत के नींद सुला ने को अपने बेटे को रुक्षत करते हैं । काश वो इक रात इक दिन भूखे सो जाते लेकिन बेटे को तबाही फ़ैलाने के रस्ते पर न जाने देते। अलाहः उन मुस्लिमो की सद्बुधी दे और उन्हें पाक रस्ते पर चले का हौसला दे। खुदा हाफिज। सब्बा खैर।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...