Tuesday, November 26, 2013

शिक्षक के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ


-कौशलेंद्र प्रपन्न
 सो शिक्षक/शिक्षिका के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ रहता है। शिक्षक पर यह जिम्मेदारी समाज ने बहुत सोच- समझ और तैयारी के साथ डाली है। सिविल सोसायटी अपने बच्चों के भविष्य का दारोमदार एक जिम्मेदार और अध्ययन-अध्यापन की रोटी खाने और जीवन दान दे चुके, शिक्षक वर्ग को अपने बच्चों को सौंप कर खुद को मुक्त महसूस करता है। अपने लाडले व लाडली को सात आठ घंटे ही महज नहीं प्रदान करता, बल्कि पूरी जिंदगी की तैयारी के लिए विश्वासपात्र के हाथों देकर आश्वस्त हो जाता है। और यह प्रक्रिया प्राचीन भी है। जब गुरूकुल में राजघराने के बच्चे हों या आम जनता के बच्चे सभी एक ही गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। एक गुरू अपनी पूरी निष्ठा, ईमानदारी और ज्ञान-संपदा छात्रों को सौंपा करता था। यह अगल बात है कि उसी इतिहास में गुरू द्रोण भी मिलते हैं। लेकिन सैंद्धांतिकतौर पर शिक्षक व गुरू से निरपेक्षभाव की उम्मींद ही की जाती है। वह निरपेक्ष भाव दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म,जाति, भाषा, बोली, वर्ग,रंग-रूप तमाम कोटियां शामिल हो जाती हैं जिसकी चर्चा और सांवैधानिक शब्दों में कहें तो मौलिक अधिकार में शामिल, किसी भी नागरिक बच्चे भी शामिल हैं, के साथ उक्त आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, की उम्मींद और अपेक्षा शिक्षक वर्ग से भी की जाती है। काफी हद तक शिक्षक इस निकष पर खरे भी उतरते हैं। लेकिन अब के टीचर गुरू व शिक्षक जो पुराने वाले थे, उन्हें छोड़ दें तो थोड़ी निराशा होती है। समय समय पर अध्यापन वर्ग से जुड़े शिक्षक समुदाय से जिस तरह की खबरें आयी हैं वह एक नए विमर्श की मांग करती है। मसलन शिक्षकों द्वारा बच्चों/बच्चियों का शारीरिक, मानसिक शोषण व बलात्कार आदि। इससे पूरे शिक्षक समुदाय पर सवालिया निशान लग जाता है। यदि स्कूल के प्रांगण से ऐसी खबरें आती हैं तो यह कहीं न कहीं शिक्षा-शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रक्रिया पर भी सवाल उठता है। क्या शिक्षक-प्रशिक्षण के दौरान गुणवत्तापूर्ण तालीम नवप्रशिक्षु को शिक्षा दी जाती है? क्या शिक्षा-दर्शन और शिक्षा-मनोविज्ञान एवं शिक्षा का समाज-शास्त्र उन्हें इसी तरह की शिक्षा-दीक्षा देती है जिसे स्कूल में आते ही अमूमन शिक्षककर्मी भूल जाते हैं या ताख पर रख कर अपनी शिक्षण विधि इजाद कर लेते हैं?
बहरहाल सवाल और जिज्ञाया से लगातार और रोजदिन जुझने वाले शिक्षकों को विचार तो करना ही होगा कि क्या वास्तव में वे अपनी पूरी निष्ठा और ज्ञान-संपदा बच्चों को प्रदान कर पा रहे हैं। इस तथ्य और सच्चाई से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि अध्यापक की छवि बच्चों के साथ ताउम्र रहती है। कहना चाहिए न केवल रहती है, बल्कि कई अध्यापक बच्चों के लिए जीवन के मूल्य बन जाते हैं। जहां जाते हैं उनके साथ उनका अध्यापक साथ होता है। इसलिए भी अध्यापक की हर गतिविधि चलना, बोलना, लिखना, पढ़ना आदि बच्चों पर गहरे प्रभाव छोड़ते हैं। ऐसे में अध्यापक को सावधानी तो बरतनी ही पड़ेगी। वरना उसकी एक गलती आने वाली पौध को बरबाद होने से नहीं बचा सकती।
बच्चों के जीवन को जितना अध्यापक प्रभावित करता है उतना शायद समाज का दूसरा घटक नहीं। यूं तो आज की तारीख में समाज में नई नई तकनीकें आ गई हैं। ई-माध्यमों के आ जाने से एकबारगी आशंका जताई जा रही है कि अध्यापकों की भूमिका खत्म हो जाएगी। किन्तु वास्तविकता ऐसा नहीं है। तमाम तकनीक आएं आ जाएं बेशक, किन्तु अध्यापक की जगह कोई मशीनी तत्व नहीं ले सकता। अध्यापक न केवल टेक्स्ट का वाचक है, बल्कि उसके साथ उसकी मुद्राएं, भावभंगिमाएं भी तो हैं जो तकनीक के बूते की बात नहीं। वाचन से लेकर लेखन, पठन तक की ऐसी प्रक्रिया हैं जिसमें तकनीक की घुसपैठ ज़रा मुश्किल है। यही वजह है कि कक्षा में और कक्षा के बाहर भी अध्यापक अपनी पूरी उपस्थिति दर्ज कराता है। यही वजह है कि शिक्षक की भूमिका और उपस्थिति कभी खत्म नहीं होने वाली। तब तो शिक्षक का काम और भी चुनौतिपूर्ण हो जाता है। यदि कोई बच्चा गलत रास्ते पर जाता है या समाज में असामाजिक गतिविधियों में शामिल पाया जाता है तब भी प्रकारांतर से सवाल यही उठता है कि अध्यापक ने यही तालीम दी? यानी अध्यापक केवल कक्षा में पढ़ा कर अपनी भूमिका से हाथ नहीं झाड़ सकता। बल्कि उसका साथ परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही स्तरों पर बच्चों के साथ रहता है। यहां एक दोषारोपण का खेल भी खूब चलता है। वह यह कि अध्यापक ही सब कुछ करे तो अभिभावक क्या करेंगे? अध्यापक पढ़ाए कि उसकी पोटी भी साफ करे, नहलाए धुलाए और संस्कारित भी करे? क्या क्या करे अध्यापक? एक अध्यापक कक्षा भी पढ़ाए, स्कूल के अन्य काम भी करे, दफ्तरी काम भी निपटाए और बीच बीच में सरकारी कामों में भी ड्यूटी दे। सही है कि सरकारी ड्यूटी जिसे इंकार नहीं कर सकते। मसलन जनगणना, चुनाव, आपातकालीन स्थितियां आदि, लेकिन सरकारी रिपोर्ट ‘डाईस’ बताती हैं कि कुल पूरे साल में 16,18 व 20 दिन ही अध्यापकों को गैरशैक्षणिक कामों में लगाया जाता है।
जब हम अध्यापकीय भूमिका पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तब तस्वीर और भी साफ होती है। एक अध्यापक की बहुआयामी भूमिका होती है। वह एक सामाजिक होने के नाते बच्चों को एक सामान्य और जिम्मेदार नागरिक बनाने में अपना सहयोग दे। शिक्षित होने के नाते बच्चे को न केवल साक्षर बनाए बल्कि शिक्षित भी करे। शिक्षा किस प्रकार जीवन को बेहतर बनाती है और कैसे जीवन की मुश्किलों में चुनौतियों का सामना करे इसकी के भी औजार प्रदान करे। इससे भी बढ़कर जो भूमिका है वह यह कि एक मुकम्मल इंसान बनने में अध्यापक अपनी भूमिका से किसी भी किस्म की कोताही न करे। क्योंकि एक बेहतर इंसान बनाना शिक्षा की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही उद्देश्य भी। इस उद्देश्य को अमली जामा पहनाने में शिक्षक ही उपयुक्त माध्यम हो सकता है। शिक्षा,बच्चे और शिक्षक की त्रिआयामी मिश्रण में समुचित तालमेल और सामंजस्य ही समाज को एक बेहतर नागरिक प्रदान कर सकता है। इस दृष्टि से अध्यापक के इर्द- गिर्द सारा का सारा समीकरण बनता और बिगड़ता है।
यूं तो हर मनुष्य को संवदेनशील होना ही चाहिए। यह अलग बात है कि जिस तेजी से हम आधुनिक होते जा रहे हैं। हम तकनीक से लैस हो रहे हैं नागर हुए है उसी रफ्तार से हमारे अंदर का मनुष्य सूखता जा रहा है। इसकी बानगी समय समय पर देखने को मिलती हैं। कोई सड़क पर तड़प कर जान दे देता है, लेकिन हम उसे बचाने के लिए नहीं रूकते। और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जिसे देख सुन कर यही लगता है कि समाज में मनुष्य वो भी संवेदनशील मनुष्य की कमी होती जा रही है। बच्चा एक वयस्क का छोटा रूप होता है। स्कूल में जो भी बच्चा आता है वह स्कूल में न केवल शिक्षा-वर्णमाला रटने नहीं आता और न ही केवल नौकरी पाने की तैयारी के लिए आता है, बल्कि वह अपने सर्वांगीण विकास का सपना भी ले कर आता है। इस सर्वांगींण विकास में एक संवेदनशील मनुष्य बनने की जिज्ञासा भी शामिल है। इस लिहाज से शिक्षक को प्रथमतः एक संवेदनशील मनुष्य तो होना ही चाहिए ताकि वह इस गुण व प्रकृति को बेहतर तरीके से बच्चों में संक्रमित करें।
एक अध्यापक केवल आदेश और निर्देश देने का घटक नहीं है। और न वह महज पाठ्य पुस्तकों का वाचक ही है। बल्कि अध्यापक को कक्षा और कक्षा के बाहर भी संवाद की संभावनाएं खुली रखनी चाहिए। जे कृष्ण मूर्ति अकसर संवाद पर ध्यान दिया करते थे। उनका तो यहां तक कहना था कि प्रकृति हमसे हर वक्त संवाद करती है। वही दर्शन उन्होंने शिक्षा में आजमाया और वकालत की कि कक्षा में संवाद होना चाहिए। संवाद का अर्थ शोर नहीं है। बल्कि एक सार्थक संवाद में शिक्षक और बच्चे दोनों सहभागी हों। जहां संवाद होता है वहां सच्चे मायने में सकारात्मक सोच और सृजनशीलता के द्वार खुलते हैं। एक अध्यापक को संवाद के लिए बच्चों को उकसाना भी चाहिए। क्योंकि बच्चों में यदि संवाद की क्षमता व कौशल का विकास नहीं होगा तो वह सिर्फ निर्देश लेने और देने की भूमिका तक ही सिमटकर रह जाएंगे।
अभिभावक से अर्थ बच्चे के नाते रिश्तेदार ही नहीं होते। बल्कि समाज का वह हर वर्ग बच्चे का अभिभावक है जिसकी मदद से एक मुकम्मल नागरिक का निर्माण संभव है। इस दृष्टि से अध्यापक तो बच्चों के खासे करीब होता है। स्कूल के प्रांगण से लेकर घर के आंगन तक अध्यापक परोक्ष-अपरोक्ष रूप से उपस्थित रहता है। जिस तरह से अध्यापक अपने बच्चे को देखता-रखता है उससे ज़रा भी कम दूसरे के बच्चों को नहीं रखना चाहिए। क्योंकि अध्यापक पर ऐसे में दोहरी जिम्मेदारी हो जाती है। समाज उनको इस भरोसे अपनी पौध को देता है कि आप ही समर्थ और सक्षम व्यक्ति हैं जो हमारे बच्चे को बेहतर जिंदगी और भविष्य दे सकते हैं। लेकिन यह अलग विमर्श का विषय है कि वही अध्यापक बच्चों के साथ कई बार गैर जिम्मेदाराना बर्ताव भी करता है। इससे पूरी अध्यापकीय परिवार शक के घेरे में आ जाती है।
पठन- पाठन से जुड़े होने के नाते शिक्षकों को तो शोध-अध्ययन के काफी करीब रहना चाहिए। ज्ञान और सूचना नित नए आयाम और शोधों से निखरते हैं। यदि एक शिक्षक शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों एवं रिसर्च से वाकिफ नहीं  होगा तो वह एक तरह से पिछड़ जाएगा। उसका पिछड़ना बच्चों के लिए हानिकारक है। सो अध्यापकों को कम से कम अपने विषय में होने वाले रिसर्च-खोजों, लेखन से तो अवगत होना ही चाहिए। क्यांेकि अध्यापन के नए नए तरीके और प्रविधियां तैयार हो रही हैं यदि उनका इस्तेमाल अध्यापन में करता है तो वह उसके लिए तो सहज और उत्पादक है ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने-लिखने की ललक पैदा कर सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि कई कार्यशालाओं में ऐसे अध्यापको से भी रू ब रू होने का मौका मिला है जो गैर शैक्षणिक कार्यों का हवाला दे कर अध्ययन के लिए समय की कमी का रोना रोते हैं। जबकि यदि आप पढ़ना चाहें तो समय निकाल सकते हैं। अध्ययन, शोधादि के सम्पर्क में जिन कर्मीयों के लिए आवश्यक है उनमें वकील, डाॅक्टर, टीचर, पत्रकार खासतौर से शामिल हैं। इन्हें अपने क्षेत्र में होने वाले अध्ययनों से हर वक्त ताजा और तत्पर होना चाहिए। यदि अध्यापक ही पढ़ने में रूचि नहीं लेगा तो वह बच्चों में पाठ्यपुस्तकेत्तर समाग्री पढ़ने की रूचि कैसे जगा पाएगा। इसलिए खुद तो अध्यापक पढ़े ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने की ललक पैदा करे।

Friday, November 22, 2013

भविष्य का द्वंद्व यूं ही खड़ा था


अभी तलक बच्चों का भविष्य और करिअर की दिशा अनिश्चिय का शिकार था। सवाल जवाब में बच्चों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन सार्वजनिकतौर पर अपने मन की उलझन को साझा करने में हिचकिचाते बच्चों ने अपनी मन की गांठ बाहर घेर कर साझा किया। 
सवाल था शिक्षा हमें क्या देती है? नौकरी, घर, पैसे, आत्महत्या या बेहतर जीवन और क्या हमें बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है?
हलांकि बच्चों ने स्वीकारा कि शिक्षा हमें अच्छा मनुष्य बनाती है। लेकिन उनका अच्छा मनुष्य के पीछे का तर्क ज़रा चैकाने वाला था। उनका मानना था जो पैसे, नौकरी और एमएनसी की जाॅब दिलाती है। एकबारगी यह ताज्जुब की बात भी नहीं है क्योंकि जिस तरह का सामाजिकरण उनका हो रहा है ऐसे में इससे अधिक सार्थक जवाब की उम्मींद भी क्या की जा सकती है। 
अमुमन बच्चों के लिए जाॅब और अच्छी लाइफ से आशय खूब पैसा था। लेकिन वहीं दो-चार बच्चे ने कहा नहीं सर, हम एक अच्छा इंसान बनना चाहते हैं। हम दंगा-फसद नहीं करना चाहते। हमारे मां-बाप गरीब हैं उन्हें सुविधा और आराम देना चाहता हूं। इसके लिए नौकरी और पैसे दोनों ही जरूरी हैं।
इस संवाद से जो चिंताजनक बात निकल कर खड़ी है वह यह कि अभी भी बच्चों के दिमाग में यह साफ नहीं है कि वो क्या करना चाहते हैं? कैसे अपने लक्ष्य को हासिल करेंगे? और उनकी मदद कौन कर सकता है।
यदि बच्चे द्वंद्व से गुजर रहे हैं तो इसमंे अभिभावकों के साथ ही अध्यापक वर्ग भी शामिल है। क्योंकि जितनी जिम्मेदारी अभिभावकों की है उससे ज़रा भाी कम अध्यापकों की नहीं मानी जा सकती। आखिर उम्मींद की एक रोशनी अध्यापक की ओर से भी तो आती है। दिगभ्रमित बच्चों को देख और बात करके लगा कि उन्हें एक दो सत्र और काॅसिलिंग की आवश्यकता है ताकि वो स्पष्ट हो सकें कि वो क्या बनना चाहते हैं और उस योजना निर्माण में कौन उनकी मदद कर सकता है।

लोकतंत्र के चारों स्तम्भ हमाम में नग्न


जी लोकतंत्र के चारों स्तम्भ हमाम में नंगे हैं। चाहे न्याायिक तंत्र हो या विधायिका या फिर कार्यपालिका या फिर पत्रकारिता सब के सब स्त्री के साथ शोषण में लिप्त हैं। समाज जागरूक है उसे सारी ख़बरें मिलती रहती हैं। लेकिन जब पत्रकारिता खुद इसमें लिप्त हो तो यह भी कोई अचरज नहीं है। तरूण तेजपाल हों या कोई और मीडियाकर्मी यदि महिला कर्मीं के साथ दुव्र्यव्यहार करता है या शोषण शारीरिक तौर पर तो ज़रा चैकाता है।
तरूण तेजपाल वही हैं जिन्होंन कई स्टींग आॅपरेशन के जरिए कई राजनैतिक खुलासे किए बधाई लेकिन खुद जब महिला सहकर्मी के साथ शारीरिक शोषण के आरोप लगे तो महज संपादकत्व के धर्म से खुद को कुछ समय के लिए अलग कर लिया। क्या यही इसकी भरापाई है? सोचने कह बात है।
न केवल समाज के पत्रकार, राजनैतिक, शिक्षक तकरीबन हर वर्ग के वे लोग इस तरह के कुकृत्य में शामिल होते हैं तब समाज को सोचने की आवश्यकता है। जब लोकतंत्र के चारों स्तम्भ इस तरह से शक के घेरे में हों तो यह सिविल सोसायटी के लिए खासे चिंता का विषय है और विमर्श का भी।
समाज को आगे की राह तय करने, ले जाने और खबरों से अवगत कराने वालों के कंधों पर समाज बड़ी गंभीर जिम्मेदारी सौंपती हैं लेकिन जब खुद चेत्ता इस किस्म के हरक्कतों में
शामिल हों तो समाज की चिंता और भी बढ़ जाती है।
आज केवल पत्रकारिता बल्कि हर वर्ग इस तरह के कर्म में मुंह काला कर रहे हैं। ऐसे में समय में हमें खुद ही सचेत और चैकन्ना रहने की आवश्यकता है।

Tuesday, November 19, 2013

भविष्य और द्वंद्व


आज डी ए वी स्कूल दरियागंज में 11 वीं और 12 वीं के बच्चों से बात करने का मौका मिला। 
विषय था भविष्य और द्वंद्व। इस विषय पर 30 मिनट की बातचीत का आयोजन डी ए वी ने रखा था। इसमें मैं खासकर बच्चों से उनके करियर के चुनाव और चुनाव में मददगार साबित होने वाले घटकों पर बात करने गया था। क्योंकि यह उम्र और कक्षा भविष्य का निर्धारण करने वाला होता है। तकरीबन 150 बच्चों से संवाद करना यूं भी चुनौतिपूर्ण होता है लेकिन स्कूल के प्रधानाचार्य की व्यवस्था में यह बातचीत बेहद सार्थक और बच्चों के लिए लाभकरी हुआ। 
जब बात आई कि करियर, नौकरी, और बेहतर जिंदगी क्या जरूरी है? तब बच्चों ने खुद जवाब दिया बेहतर जिंदगी। इसमें आपकी मदद कौन कौन से लोग कर सकते हैं इस विषय पर भी बच्चों ने खुल कर हिस्सा लिया। 
बच्चों को समय रहते सही और समुचित मार्गदर्शन मिलना निहायत ही जरूरी है। और यह काम डी ए वी ने किया। उसने अपने बच्चों को इस क्षेत्र में मदद प्रदान करने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया इसके लिए तिवारी जी बधाई योग्य हैं। 
कई बच्चों ने संवाद सत्र समाप्त होने के बाद संपर्क किया। उन्हें क्या करना चाहिए? आवश्यकता है बच्चो को समुचित मार्गदर्शन का। सामथ्र्य उनमें भी बस जरूरत है उन्हें निखारने का।

महानगरीय उक्ताहट


कई बार लगता है हम जैसे जैस आधुनिक, नागर समाज के हिस्सा होते जा रहे हैं वैसे वैसे हमसे कुछ अहम चीजें पीछे सरकती जा रही हैं। उस सरकन में सबसे ख़ास चीज यह है कि हमारे अंदर की संवेदना और संवाद की तरलता सूखती जा रही है। 
आज लंदन में रहने वाले मेरे एक मित्र का फोन आया। वह इतना परेशान था कि उसने कहा मैं यहां की जिंदगी जी जी कर अंदर से खाली और बेककार की चीजों से भर गया हूं। चाहता हूं कुछ दिन नगर से दूर एकदम बिना दिखावटी जीवन जी पाउं। 
ज़रा सोचें क्या संभव है कि आम अपने अंदर की सूखन को बचा पाने के लिए परेशान हैं? क्या हम चाहें तो अपनी तरलता को बचा सकते हैं? यदि हां तो फिर देर किस बात की हमें अपने अंदर के गंवईपन को बचाना होगा। अपने अंदर के इंसान को जगा कर रखना होगा। क्या आप सहमत हैं?
मां इस बेटे से उस बेटे के घर उस बेटे से उस बेटी के घर डोलती फिरती है। लेकिन उससे नहीं पूछा जाता कि वह कहां रहना चाहती हैं? जनाब स्थिति तो यह है कि बेटा मां को एयर पोर्ट पर बैठा कर बीवी के संग मकान बेच विदेश रवाना हो जाता है। मां बेघर। न घर पति का घर रहा और न बेटा साथ ले गया।
पेड़ होते थे ऊँचे -
घर से बोहोत ऊँचे,
झांको तो पेड़ लगते थे आशीष देते,
देखते ही देखते पेड़ होगे ठिगने,
पेड़ को ठेंगा दीखते खड़े हो गए मकान।।।
पेड़ से ऊँचे होने लगे बिल्डर फ्लोर-
२० या २५ माले से देखो तो कैसे लगते हैं पेड़ ,
बौने ठिगने,
पेड़ दादू हो गए बूढ़े ,
उनकी नीम शीतलता हो गई खत्म,
पीपल भी सूख गए.
कंक्रीटों के शहर में पेड़ कहाँ हों खड़े।

Thursday, November 14, 2013

आर-पार और ख़बरम् को छोड़ गए दीनानाथ मिश्र


‘14 सितंबर 1936-13 नवंबर 2013’
14 सितंबर 1936 में जन्में दीनानाथ मिश्र जी पत्रकार और संपादक के साथ ही बेहतरीन व्यंग्यों से पाठकों को दशकों तक झकझोरते रहे। उनका आर-पार काॅलम कटाक्षों से भरा होता था तो वहीं ख़बरम् राजनैतिक-सामिजक विश्लेष्णों से लबरेज हुआ करता था। पांच्जन्य में सहायक संपादक और अंतिम तीन वर्षों में प्रधान संपादक रहे। 
आपातकाल में जेल में भी रहे। उन्हीं दिनों अटल बिहारी वाजपेयी की कैदी कविराय की कुंडलियां, का संपादन किया। वहीं नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता और ब्यूरो प्रमुख भी रहे। आपातकाल में इन्होंने गुप्त क्रांति किताब लिखी वहीं आर एस एसः मिथ एंड रियलिटी किताब भी लिखी। 
शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, शंकर पुणतांबेकर जैसे व्यंग्य बाण भी खूब चलाए जिसको प्रभात प्रकाशन ने हर हर व्यंग्ये और घर की मुरगी नाम से किताब के रूप में लाया। 
पपा जी थे मेरे। बचपन से उन्हें इन्हें इसी नाम से पुकारा। सुबह कम से कम 15- 20 अखबार पढ़ते ही देखा। फिर काॅलम लिखवाने की बारी आती। कई कई बार देर रात तक पढ़ते-लिखते देखता आया हूं। एक बार उन्होंने कहा जब पूरी दिल्ली सो रही होती है तब मैं जगा काम कर रहा होता हूं।
उनकी आत्मा को प्रभू शांति दे।
जिन्होंने दैनिक जागरण के लिए इतने लिखे उस अखबार में एक सिंगल काॅलम की जगह भी नहीं मिली। क्या है पत्रकारिता ज़रा सोचें।

पिरितिया काहे के लगवलः भिखारी ठाकुर की याद आ गई


महेंद्र प्रजापति की यू ंतो यह पहली कहानी नहीं है। हां नया ज्ञानोदय अंक नवंबर 2013, के लिए बेशक पहली हो सकती है। लेकिन पढ़ कर अनुमान लगाना कठिन है कि यह कथाकार, संपादक की पहली कहानी है। प्रजापति वास्तव में कथाकार की भूमिका में अच्छे रचे-बसे लगते हैं। एक बार इस कहानी में पढ़ने बैठें तो वास्तव में बिहार अंचल की भाषायी छटा को आनंद तो मिलेगा ही साथ ही तीन चार दशक पहले बल्कि आज भी जो मजूर अपनी ब्याहता को घर-गांव में छोड़ रोटी रोजी के लिए कलकता, पंजाब, मुंबई जाते हैं, उन महिलाओं की अंतरवेदना, छटपटाहट की सिसकिया सुनाई देंगी।
कई बार भिखारी ठाकुर भी बगले ही बैठे मिलेंगे। परदेसिया नाटक जिन्होंने नहीं देखा उनके लिए यह कहानी वह रोशनदान है जिससे परदेसिया को देख सकते हैं। भोजपुरी बोली-बर्ताव को प्रजापति ने कुछ यूं घोला है कि कहानी में सरसता खुद ब ख्ुाद दुगुनी हो जाती है।
सच में एक पढ़नीय कहानी बन पड़ी है। भाषा-शैली तो आंचलिक है ही साथ ही कहानी की जमीन भी जानी पहचानी है लेकिन उसके साथ प्रजापति का तानाबाना बुनना एकदम सामयिक है।
साध्ुावाद और अगली कहानी का इंतजार पाठकों को रहेगा।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Monday, November 11, 2013

प्लेटफाम नंबंर 1 से 16 पर पसरी दुनिया


प्लेटफाम पर पसरी दुनिया को देखकर लगता है कितने लोग विस्थापन से गुजरते हैं। उसमें भी दिल्ली के प्लेटफाम 1 और 16 दोनों की दूरियां सामाजिक हैसियत को भी बखूबी बयां करती हैं। चेहरे, सामाजिक दूरियां साफ देख सकते हैं। एक तरफ लगदक बैग, चमकते चेहरे जो राजधानी, दूरंतो आदि तेज गति वाली गाडि़यों में सफर करते हैं और एक वो वर्ग जो अभी भी लंबी दूरी तय करने वाली एक्सप्रेस गाड़ी में यात्रा करते हैं। वही टीस टप्पर, टीवी, कनस्तर लेकर सत्तू खाते, कोक की बोटल में पानी भर कर यात्रा करते हैं। 
सर्दी में भी शीतल जल पीते लोगों को देख कर लगता है कि अभी भी विस्थापन रूका नहीं है। जितनी भीड़ प्लेटफाम नंबंर 16,15 आदि पर होती हैं उतनी दूसरे प्लेटफॅाम पर नहीं। हर साल दिवाली, छठ के मौक पर लाखों लोग यूपी, बिहार की ओर भागते हैं। जो छूट जाते हैं वो दिल्ली में रह जाते हैं। विस्थापन क्लास में भी हुआ है। स्लिपर से थर्ड एसी, सेकेंड एसी मंे फलांग चुके हैं। और हवाई जहाज के यात्री में भी संख्या बढ़ी है। जेनरल बागी में सफर करने वालों में भी विस्थापन देखा जा सकता है। क्या ही अच्छा होता कि राज्य सरकारें उन्हें विस्थापन से बचा पातीं।

Thursday, November 7, 2013

जांता, ढेकी और जीमालय


याद है जब अपनी नानिहाल जाया करता था तब वहां जांता, ढेकी और कुआं से पानी खींचती महिलाएं दिखाई देती थीं। उनकी बदन पर चरबी का नामोनिशान नहीं होता था। वो किसी जीम में नहीं जाती थीं अपनी चर्बी गलाने। चावल, गेहंू घर में ही जांता, ढेकी में कूट-झान लिया करती थीं। पानी के लिए या तो हाथ वाला कल होता था या फिर सामूहिक कुआं हुआ करता था। पानी खींचो और स्वस्थ रहो। घरेलू कामों में मशीन से ज्यादा छोटी मोटी चीजें हाथ से ही निपाटाते थे। सब्जी में पड़ने वाले मशाले के लिए शील और लोढ़ा हुआ करता था।
एक दिन जीम में जाना हुआ यह देखने कि लोग भागते हैं। मेहनत करते हैं। ताकि शरीर पर चढ़ी चरबी को झारा जा सके। क्या देखा कि लोग टेडमिल पर भाग रहे हैं। पसीने से लथपथ। 5 किलो मीटर, 8 किलो मीटर बस भागे जा रहे हैं। मगर कहीं पहंुचते नहीं। बस भाग रहे हैं। कई बार लगता है आज की जिंदगी में हम कई बार बस भाग रहे होते हैं। मगर जाते कहीं नहीं। बस एक ही जगह पर दौड़ते रहते हैं। उसी तरह साइकिल चलाते लोग दिखे। कुएं से पानी खींचते दिखे। तकरीबन गांव की वो तमाम महिलाएं याद आईं जो हाथ से घर का काम निपटाया करती थीं। लगभग उसी कन्सेप्ट पर जीमालय में मशीनें मिलीं।
काश हम आज भी भागमभाग भरी जिंदगी में भी कुछ समय घर के कामों में हाथ बटाएं और मशीन पर कम आश्रित हों तो चर्बी तो यूं ही रफ्फू चक्कर हो जाएगी। साइकिल तो चलाना जैसे महानगर में पिछले जमाने की बात हो गई। बच्चे भी पास में भी जाना हो तो साइकिल की बजाए स्कूटी से जाना पसंद करते हैं। ऐसे में एक 13 14 साल का लड़का भी मिला जो दौड़ लगाते मिला। काश कि उसके मां-बाप उसे आउट डोर गेम खेलने को प्रेरित करते। साइकिल चलाने को कहते तो जीमालय की शरण में न जाना पड़ता।

Friday, November 1, 2013

स्थानांतरित लोग


सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि वो उसकी मर्जी से इह लोग से उस लोक के लिए स्थानांतरित होते हैं। इसमें आपकी मर्जी का ख़्याल नहीं रखा जाता। न ही आपसे पूछा जाता है कि कब माईग्रेट होना चाहते हैं। आपकी सर्विस बुक भी उसी के पास है। वो आपके कर्र्मां का मूल्यांकन, परीक्षा और ग्रेडिंग करता है। जिस दिन जन्म लेते हैं उसी दिन आपकी सर्विस बुक में अवकाश प्राप्ति के दिन भी दर्ज कर दिए जाते हैं।
राजेंद्र जी गए, के पी सक्सेना जी गए जिन्होंने उसकी नजर में अवकाश हासिल किया। हम सभी को जाना ही है। यह अलग बात है कि हम किस तरह की सर्विस बुक लेकर उस लो जाते हैं।
साहित्य ही क्यों हर वो जगह हमारे जाने के बाद रिक्त तो होता ही है। लेकिन ठीक सर्विस की तरह आपके स्थान पर कोई और नियुक्त होता है। इस तरह से यह सिलसिला बतौर चलता रहता है।
जिस तरह आप सर्विस से विदा होते हैं उसी तरह आपके जाने के बाद आपकी आलमारी, दराज  आदि सब खाली कर साफ किया जाता है। आपकी चिंदींया, कतरनें, दवाइयां सब कुछ झाड़ पोंछ कर नए सिरे से सब कुछ सजाया जाता है।
तो बंधु जाने से पहले अपने दराज, आलमारी आदि को इस तरह साफ कर के जाएं कि जाने के बाद लोग यह न कहें क्या कबाड़ा किया उसने। ध्यान रहे कि आपकी याद तो आएगी लेकिन गलत कामों के लिए। कुछ दिन बाद ही सही आपका मूल्यांकन बचे हुए लोग करेंगे।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...