Thursday, August 29, 2013

वहां का मैप

वहां का मैप
वहां का मैप न गुगल देता है,
और न जाने वाले रिपोटिंग ही करते हैं,
जो जाता है उस देस वहीं का हो जाता है,
कैसा है न वह देस।
कोई भी सर्च इंजन-
या कि किताब,
नहीं बताता पता,
न ईमेल आडी,
कुछ भी तो मालूम नहीं उस देस के बारे में।
जो जाते हैं-
वे कब लौट कर आएंगे,
यह भी तयशुदा नहीं,
आएंगे तो किस रूप में यह भी अज्ञात।
जो जाते हैं उस देस-
अपने साथ लैपटाप,
फोन महंगे वाले ले जाएं,
भेजें कोई तस्वीर तो हम भी लाइक करें या शेयर करें,
मगर वहां शायद आईएसडी भी नहीं लगता,
कोई नहीं ले जाता कोई भी उपकरण सब यहीं छूअ जाते हैं,
बस जाते हैं तो अकेले निरा निपट।

Thursday, August 8, 2013

ममनून हुसैन से लगी उम्मीद


पाकिस्तान और भारत का रिश्ता तत्कालीन घटनाओं के उठा-पटक पर उतरता चढता रहता है। हाल ही में फिर पांच भारतीय सैनिकों को मार डाला गया इससे एक बार फिर पाकिस्तानी रवैए का मनसा का पता चला। इस तरह से एक ओर सरकार की घोषणों, पहलकदमियों सद्इच्छाओं पर से भरोसा उठता है तो वहीं भवष्यि के रिश्ते की नई डोर कमजोर होती दिखाई देने लगती है। सन् 1947 में यदि देश महज आज़ाद हुआ होता और विभाजन टल जाता तो आज एक संपूर्ण भारत होता। यदि जिन्ना का हठ न होता तो आज पकिस्तान न होता। भारत एक अविभाजित राष्ट के तौर पर दुनिया के सामने होता। लेकिन यह सब अब निरा निरर्थक बातें हैं। क्योंकि इतिहास को पलटा नहीं जा सकता। जो हुआ उसे उसी रूप में कबूल करना ही होगा। देश किन शर्तों, बलिदानों और क्षत् विक्षत हालत में विभाजित हुआ यह आज इतिहास का हिस्सा है। लेकिन इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जो हुआ उस राजनैतिक खेल में आम जनता को बहुत कुछ खोना पड़ा। किस तरफ लोगों ने क्या और कितना खोया इसका अनुमान और प्रमाण दोनों ही आज इतिहास के पन्नों में कैद हैं। जिन्हें पलटना एक दुखद अनुभव से गुजरने सा है। जब भी विभाजन की बात उठती है तो एक असहनीय पीड़ा दिलो दिमाग को झकझोर देती है। 1930 से लेकर 1940 तक का ऐसा काल खंड़ है जिसमें पाकिस्तान की लालसा जिन्ना में प्रबल आकार ले रहा था। जिन्ना को लाख समझाने की कोशिश की गई, लेकिन उनका व्यक्तित्व उन सभी सुझावों को दरकिनार कर रहा था। अंततः भारत का विभाजन हुआ। इस विभाजन के दंश पर हर दशक में फिल्में, उपन्यास, कहानियां, कविताएं एवं नाटक की रचनाएं हुई। जिनमें जिन्ने लाहौर नई वेख्या ते जन्मया नई, अमृतमर आने वाला है, टेन टू पाकिस्तान, सिक्का बदल गया, और मंटो की कहानियां प्रसिद्ध हैं। इन कहानियों, उपन्यासों और फिल्मों से गुजरते हुआ एहसास होता है कि विभाजन के एक दो साल पहले और बाद में दोनों ही देशों की क्या स्थिति थी। लोग किस कदर मार काट मचा रहे थे। इसको रूपहले पर्दे पर देख कर रूह कांप जाते हैं। वहीं कहानियों- उपन्यासों के पन्नों पर एक बार फिर से 1947 की घटनाएं नाचने लगती हैं।
भारत में जिस तरह से पाकिस्तान को लेकर भावनाएं प्रबल हुईं उससे ज़रा भी कम पाकिस्तान में भारत को लेकर भावनाएं नहीं गढ़ी गईं। एक ओर आज भी पाकिस्तान भारत के जनमानस में एक शुत्र, आतंकी मुल्क के तौर पर ही छवि बनाए हुए है। वहीं पाकिस्तान में भी भारत को लेकर कोई साकारात्मक छवि नहीं गढ़ी गई। पाकिस्तान के स्कूली समाजशास्त्र की किताबों में आज भी भारत का जिक्र एक ऐसे मुल्क के तौर पर मिलता है जैसा हम अपने भारत में पाकिस्तान को लेकर पढ़ाते हैं। प्रो कृष्ण कुमार ने बड़ी ही शिद्दत से पाकिस्तान के स्कूली पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण मेरा देश तुम्हारा देश किताब में किया है। इस किताब को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वहां आज भी समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकें 1947 में ही अटकी हुई हैं। बेगम अनिशा किदवई की किताब हो या कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान आज भी प्रासंगिक हैं। जिन्हें खुले मनोदशा के साथ पढ़े जाने की आवश्यकता है।
भारत का विभाजन अनिता इंदर सिंह की किताब जो नेशनल बुक टस्ट से छपी है इसे आज की तारीख में पढ़ते हुए मालूम होता है कि इतिहास में हमने यानी दोनों ही मुल्कों के राजनैतिक हस्तियों, रणनीतिकारों ने कहां कहां भूलें कीं। वह चाहे जिन्ना हों या नेहरू। कांग्रेस पार्टी हो या मुस्लिम लींग दोनों ही ओर से कई भयानक चूकें हुईं जिसका खामियाज़ा हमें विभाजन के तौर से भुगतना पड़ा है। अनिता इंदर सिंह बड़ी ही तफ्सील से विभाजन के परत को खोलती और विश्लेषित करती हैं। वहीं बलराम नंदा लिखित गांधी और उनके आलोचक जो कि सारांश प्रकाशन से प्रकाशित है इसमें भी गांधी और भारत विभाजन, अमृतसर 1919 और विभाजन पर नरसंहार आदि लेख बेहद सारगर्भित हैं। गांधी जी का अहिंसावादी रूख वास्तव में बंगाल, बिहार में आग की तरह फैल रही हिंसा, नरसंहार को रोकने में सफल रही, लेकिन भारत को विभाजित होने से बचा नहीं पाई।
आज की तारीख में विभाजन और पाकिस्तान को एक स्वतंत्र लोकतंत्रिक देश स्वीकार करना चाहिए न कि इस रूप में स्वीकार करना कि वह हमारा अविभाजित हिस्सा है। क्योंकि हम अभी भी अतीत मंे अटके हुए हैं। हमें अतीत से निकल कर आज की चुनौतियों और हालात को कबूल करना होगा। शिक्षा शास्त्र और समाजशास्त्र की आम समझ यह बताती है कि ईष्या- द्वेष की भावनाओं को कम से कम बच्चों के दिमाग में भरने की बजाय उन्हें स्वस्थ चिंतन और मानवीय बर्ताव सीखें। जिस देश में अभी भी स्कूली पाठ्य पुस्तकों में विभाजन एवं इससे जुड़े व्यक्तियों के बारे में गलत तालीम दी जा रही हो तो ऐसे में किस तरह के नागरिक पैदा होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
पाकिस्तान में पांच साल तक जनता की चुनी सरकार अपना कार्यकाल पूरी कर चुकी है। साथ ही उसे निर्वाचित नए राष्टपति भी मिल चुके हैं जो सितम्बर में जरदारी के बाद कार्य भार संभालेंगे ममनून हुसैन। आशा की जा रही है कि नवाज़ शरीफ सरकार भारत के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते को आगे बढ़ाने में सकारात्मक कदम उठाएंगे। साथ ही ममनून हुसैर जो कि आगरा में 1940 में जन्मे हैं उनसे भारत खासकर आगरे के लोगों को काफी उम्मीद बंधी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ममनून हुसैन और शरीफ साहब क्या सचमुच भारत के साथ सहज रिश्ता बनाने में रूचि लेते हैं या कि यह भी आम घोषणाओं की तरह महज राजनैतिक बयान तक सीमित रह जाएगा।

Friday, August 2, 2013

बोलने की करो प्रैक्टिस



कौशलेंद्र प्रपन्न
बोलना भी एक कला है। दोस्तों के बीच बोलना और किसी प्रतियोगिता या सभा में बोलना बिल्कुल अलग बात है। जब हम दोस्तों से बातचीत कर रहे होते हैं तब हमें डर नहीं लगता। क्योंकि वहां कोई आपको जज नहीं करता। लेकिन जब बच्चे पोडियम पर खड़े होते हैं तब उन्हें हाॅल में बैठे मैडम, जज, बच्चे और बाहर के स्कूलों से आए दूसरे बच्चे भी सुन रहे होते हैं। ऐसे में कई बच्चे ठीक से नहीं बोल पाते। कुछ तो हकलाने लगते हैं तो कुछ बोलते बोलते चुप हो जाते हैं। उन्हें याद किया हुआ भाषण, कविता याद ही नहीं आती। ऐसे में बच्चे रूआंसा सा चेहरा लेकर वापस आ जाते हैं। और दूसरा बच्चा जो बेधड़क बोल कर जाता है उसे एवाड मिल जाता है।
बोलने से डरना नहीं है। बल्कि कैसे बोलना है? क्या बोलना है? किस तरह से बोलना है इसकी तैयारी तुम्हें करनी चाहिए। जो भी विषय यानी टाॅपिक मिला है उसपर मैडम, पापा, भईया या दीदी से विचार-विमर्श यानी जानकारी हासिल कर अच्छे से तैयारी करनी चाहिए।
पोडियम पर सीधे खड़ा होना ही अच्छा रहता है। दूसरी जरूरी बात यह कि तुम्हारे सामने जो बैठे या खड़े हैं उनकी आंखों में आंखें डाल कर बोलना चाहिए। इससे पता चलता रहता है कि सुनने वाले तुम्हारी बात ध्यान से सुन भी रहे हैं या नहीं। हां पता है कि जब तुम बच्चों को देखते हो तो वो तुम्हें मुंह चिढ़ाते हैं। हंसाने की कोशिश करते हैं। लेकिन तुम्हें उन लोगों को ऐसे देखना है जैसे वो कुछ नहीं कर रहे हैं। अगर एक बच्चे पर देखोगे तब मुश्किल है। इसलिए किसी भी एक पर नजरें मत टिकाना। सभी की नजरों में देखने की कोशिश करना।
जिस भी विषय पर बोलना है उसकी प्रैक्टिस घर पर, ग्राउंड में, मिरर के सामने कई बार बोल कर करना चाहिए। इससे पता चलता है कि कहां गलती हो रही है। कई बार बच्चे पाॅकेट में हाथ डालकर खड़े होते हैं तो कई अपने कपड़े, बाल ही संवारते रहते हैं। ऐसे में आपके माक्र्स कटते हैं और दूसरा जीत जाता है।
बोलते समय आपका उच्चारण बिल्कुल साफ, शुद्ध और धाराप्रवाह होनी चाहिए। आपकी प्रस्तुती कैसी है इसपर भी ध्यान दिया जाता है। इसलिए हाथों, चेहरे, बाॅडी के हाव-भाव भी जीत दिलाने में मदद करते हैं।

फोड़कर ठीकरा तुम्हारे सिर


भगवन हम फोड़कर ठीकरा तुम्हारे सिर-
कोसते रहते हैं हर पल,
तुमने अच्छा नहीं किया,
मैं क्या बिगाड़ा था किसी का,
भगवन हम हैं ऐसे ही,
कोसना और रोना अपने भाग्य पर।
जब जब हुई अनहोनी-
हमने आरोपित किया तुम्हें,
मंदिर या मस्ज़द में लड़ आते हैं हम,
गंगा में डुबकी लगा धोने को समस्त पाप,
लगाते हैं दौड़ कांवड़ लेकर,
मगर तुम तुम ठहरे।
किसी भी किस्म का रिश्वत नहीं तुम्हें कबूल-
तुम वही देते हो जो किया हमने कर्म,
ख़ामख़ा तुम करते हैं बदनाम,
हे ! प्रभू सुन रहे हो तुमत्र
मैं कोई रिश्वत नहीं दूंगा,
कोसूंगा भी नहीं,
नहीं करूंगा दर्शन तेरात्र
किसी कैलाश या अमरनाथ की यात्रा से तौबा,
करूंगा अपना कर्म तन-मन लगाकर,
तुम क्रुद्ध मत होना।
ग़र मेरे हाथ में न हो आचमन-
या कि नमाज़ भी न करूं अदा तो,
नाराज़ न होना,
अगर न किया हवन तो भी,
मेरी समिधा पहुंचा देना,
उन्हें जिन्हें दरकार है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...