Wednesday, September 30, 2015

माफी कर देना


जाने से  पहले
सब से माफी मांग लेना चाहता हूं
उन गलतियों के लिए जो हो गए हों अनजाने
बिना सोचे
बिना मन में रखे
किसी को दर्द पहुंचा हो
तो माफ कर देना।
जाने के बाद कुछ भी उठा नहीं रखना चाहता
वरना कहने वाले कहेंगे
उसने मेरे साथ अच्छा नहीं किया
फाइल यूं ही बिना दस्ख़त किए चला गया
बिना पूरा किए अपना काम जा चुका।
कोई यह न कह दे
बिन बताए चला गया
इसलिए बता देना चाहता हूं
किसी दिन बिन ताकीद किए चला गया
तो उदास मत होना
सब अपना काम पूरा करके जाना चाहता हूं
बशर्ते पूरा करने का मौका मिले।
अधूरी रह गई कोई पंक्ति
परेशान करे तो पूरा कर लेना
कोई बात छूट गई हो बीच बहस में
तो उसे भी निपटा देना
बस उलाहने मत देना
वरना जहां भी रहूंगा
मन आप में भी अटका रहेगा।
जाने के बाद पता नहीं मेरा क्या पता हो
कौन सी आई डी से मैं खुल पाउं
यह भी तो मालूम नहीं
किस ग्रह
गहवर में रहूं
संभव है वहां नेटवर्क न मिल
आप ख़ामख़ा परेशान हों।
दोस्तों से भी अभी ही माफी मांग लूं तो बेहतर,
जिनसे दिल न मिला तो क्या,
उनकी बद्दुवाओं मंे तो रहूंगा ही
उन्हें भी चाहता हूं
जिंदा रहते मांफ कर दें
ताकि चैन की नींद सो सकूं।

Monday, September 28, 2015

नौकरी से हाथ धोनी


सरकारी नौकरी में नियुक्ति के दिन ही अवकाश की तिथि भी सर्विस बुक में दर्ज कर दी जाती है। यह अलग बात है कि उस सर्विस बुक को एक कर्मचारी पूरी जिंदगी ढोता रहता है और पता भी नहीं चलता कब अवकाश प्राप्ति के दिन आ गए। अवकाश प्राप्ति के कुछ वर्ष जब बचते हैं यानी दस या छः साल तब कर्मचारी को एहसास होने लगता है कि अब अवकाश के दिन करीब हैं। तब उसे अपनी शेष जिम्मेदारियों के अधूरेपन का भी एहसास होने लगता है। अभी तो बच्चा पढ़ ही रहा है। बच्ची की भी शादी अभी रहती है। अपना मकान भी नहीं बन पाया आदि। देखते ही देखते कब सर्विस के साल पंख लगा कर उड़ जाते हैं इसका इल्म ही नहीं होता। छरहरा बदन, काले बाल, सपनों से भरी आंखों के साथ कोई अपनी जिंदगी में नौकरी की शुरुआत करता है। पंद्रह बीस साल गुजर जाने के बाद वह ठहरने सा लगता है। जम सा जाता है। जब अवकाश के दिन करीब आने लगते हैं तब वह लेखाजोखा करता है कितने काम शेष रहते हैं। सरकारी नौकरी में तो एक बार नियुक्त होने के बाद गोया कर्मचारी लंबे तान कर सो सा जाता है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा निश्चिंतता में ही कट जाती है। क्योंकि कोई भी उन्हें नौकरी से नहीं निकाल सकता, जबतक कि कोई ऐसा अपराध न करें जिसके लिए नौकरी से हाथ धोनी पड़े। लेकिन सरकारी नौकरी के समानांतर ही निजी कंपनियों में खटने वाले कर्मचारियों के विधि विधान ज़रा अलग होते हैं। कब कौन नियुक्त होता है और कब आनन फानन में निकाल दिया जाता है यह भी दिलचस्प होता है। निजी कंपनियों में जिस तरह से नौकरी पैकेज पर सहमति बनती है, नौकरी की शर्तंे तय होती हैं। उसका टूटन भी उसी शिद्दत से होता है। रातों रात कर्मचारियों को बाहर का रास्ता भी दिखाया जाता है।
जब भी किसी की नौकरी जाती है गोया उसके साथ कई सपने भी खत्म से हो जाते हैं। किसी की सगाई टूट जाती है। किसी भी शादी टल जाती है। किसी की सामाजिक हैसियत खतरे पर पड़ जाती है। घर-समाज में उसे अलग किस्म की नजरों का सामना करना पड़ता है। निजी कंपनियों में तो कब किस पर कैसे गाज गिर जाए कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता। यहां तक कि कई बड़ी बड़ी कंपनियों में फायर करने वाली एजेंसियों की मदद ली जाती है। यह काम या तो एचआर के हाथों होता है या फिर फायर यानी किसी भी कर्मचारी को कल से जाॅब से हटाने का काम अलग इसी काम में महारत हासिल एजेंसियों को सौंपा जाता है। क्योंकि किसी कर्मचार को निकालना कितना कष्टदायी और कठिन होता है यह वही व्यक्ति जान और महसूस कर सकता है जो इस काम को करता है। एक व्यक्ति जाॅब से नहीं निकलता बल्कि उसके पास कई निर्भर सदस्य भी असहाय हो जाते हैं। अचानक तमाम खर्चे आंखों के सामने घिरनी की तरह नाचने लगते हैं। कल से आॅफिस न आना। नई जाॅब की तलाश कितना मुश्किल भरा डगर होता है इसका अनुमान एक जाॅबधारी शायद न लगा पाए।
विभिन्न कंपनियों मंे बुरे दौर में मजबूरन लोगों को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ता है। हाल ही में देश की एक बड़ी दवाई निर्माता कंपनी जो कि देशी कंपनी में शामिल हो गई, उस कंपनी के पहले से ही हजारों की तदाद में कर्मचार थे उसे मजबूरन लोगों को निकालने की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी। माना जाता है कि कुछ कंपनियों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। लेकिन कंपनी को दुरूस्त करने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ी। आलम यह था कि जिन्हें निकाला जाता वे इस मनोदशा में पहंुच जाते कि उन्हें कंपनी गाड़ी से सुरक्षित घर छोड़ कर आती। कुछ ऐसी भी घटनाएं हुई कि जिसे निकाला गया उसे दोपहर में तब पता चला जब एचआर वाले लाॅपटाॅप लेकर चले गए और केबिन में बुलाया। आईडी एसेस बंद कर दिया गया। अमुमन छंटनी की शायद ऐसी ही प्रक्रियाएं हुआ करती हैं। कर्मचारी घर से दफ्तर आता है और उसे गेट पर ही रोक लिया जाता है और लाॅपटाॅप आदि वहीं लेकर नमस्ते कर दिया जाता है।
कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जो बड़ी ही प्रोफेशनल तरीके से छंटनी को अंजाम देती हैं। उन कंपनियों में ऐसे भी विभाग खोले जाते हैं जो छंटनी और छंटनी से बाहर होने वालों कर्मचरियों की काॅसलिंग किया करते हैं। क्योंकि ऐसी कई घटनाएं भी रोशनी में आई हैं कि व्यक्ति मानसिक संतुलन खोने लगता है। आत्महत्या तक की सोचने लगता है ऐसे में उसकी मनोदशा को समझ कर बर्ताव करना बेहद जरूरी हो जाता है। गौरतलब है कि 2008 की मंदी में वैश्विक स्तर पर लाखों लोागों की नौकरियां न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर गई थीं। घर तो घर लोगों की जिंदगी तबाह हो गईं। रातों रात लोग सड़क पर आ गए। इस दौर में लोगों में मानसिक असंतुलन तो पैदा किया ही साथ ही शारीरिक बीमारी भी पैदा हो गई। सिर दर्द, दांतों में दर्द, मनोविदलन, डिप्रेशन, हाइपर टेंशन आदि से ग्रसित हो गए।
इस दौर में जिसकी नौकरी गई उस वक्त बाजार बहुत खस्ता हाल था। छह छह और साल भर तक बेरोजगार घर बैठना पड़ा। आस पड़ोस के लोगों की नजरों से बचना भी एक बड़ी चुनौती थी। एक घर में दूसरा बाहर दोनों ही स्तरों पर लोगों के सवालिया नजरों का सामना करना पड़ रहा था।

Friday, September 25, 2015

शिक्षक की भूमिका और चुनौतियां



5 अक्टूबर अंतरराष्टीय शिक्षक दिवस पर विशेष आलेख
कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षकों के साथ काम करना कई तरह के अनुभवों से भर जाना होता है। यह तल्ख़ जमीनी हकीकत है कि शिक्षण क्षेत्र में दो किस्म के शिक्षक आते हैं। पहले वे जिन्हें कहीं और जाने का रास्ता नहीं मिला वे विवशतावश इस व्यवसाय को चुनते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो शिक्षण को प्रसन्नता और प्राथमिकता के स्तर पर चुनते हैं। दूसरे स्तर वालों शिक्षकों की ख़ासा कमी है। पहले वाले वर्ग में आने वाले शिक्षकों की संख्या लाखों में है। पहले वर्ग में आने वाले वे तमाम स्नातक और परास्नातक हैं जो कहीं और किसी दूसरे प्रोफेशन में नहीं जा सके वे अंततः शिक्षण कर्म में आ जाते हैं। संभवतः पहले किस्म के शिक्षकों के कंधे पर शिक्षा की गुणवत्ता निर्भर भी करती है। क्योंकि यह वर्ग काफी समय तक तो अपनी पूर्व इच्छाओं और आकांक्षाओं में जी रहे होेते हैं। उनके सपने और उनकी लालसा को छंटने में वक्त लगता है। पहले वर्ग में ऐसे शिक्षकों की संख्या भी कम नहीं है जो शिक्षण में तो आ गए किन्तु अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते हैं। हालांकि महत्वाकांक्षी होना गलत है, लेकिन यदि शिक्षक की आकांक्षा से बच्चों और स्कूली शैक्षिक गुणवत्ता प्रभावित होती हो तो यह उचित नहीं है। एक ओर ऐसे भी शिक्षक मिलते हैं जिनकी दिलचस्पी शिक्षा और शिक्षण में बहुत ज्यादा नहीं होती। वहीं ऐसे भी शिक्षकों की संख्या कम नहीं है जो क्लास से बाहर तक नहीं जाना चाहते। उन्हें यदि गैर शैक्षिक कामों में लगाया या भेजा जाता है तो वे बेहद दुखी हो जाते हैं। उनकी पीड़ा इस बात की होती है कि उनके बच्चे कैसे होंगे। उन्हें कौन पढ़ा रहा होगा आदि। उनकी बड़ी चिंता बच्चे होते हैं। उनके लिए स्कूल का समय तो महत्वपूर्ण होता ही है वे इसके अतिरिक्त अपने निजी समय में से भी अधिकांश वक्त बच्चों और शिक्षा की बेहतरी के लिए विमर्श करने में दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें जब भी कार्यशाला में जाने और अपनी समझ को ताजा करने का अवसर मिलता है वे किसी भी सूरत में जाना चाहते हैं। उनकी चिंता शिक्षा और बच्चे होते हैं। शायद यही वजह है कि आज शिक्षा में यदि ज़रा सी भी गुणवत्ता व स्तर बचा है तो वह इन्हीं के बदौलत है। लेकिन इस किस्म की प्रजातियों की संख्या सीमित है। इन्हें अपने स्कूल की व्यवस्था में कई बार आलोचना भी सहना पड़ता है। इतना ही नहीं घर में भी इनके कामों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। यदि इनकी मनोदशा और वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन्हें बहुत ही कम पहचान मिला करता है। इनकी पहचान इनके शब्दों में बच्चों की ख्ुाशी और प्रसन्न चेहरे होते हैं। यहां तक कि यह वर्ग सरकारी पुरस्कारों व सम्मानों से भी परहेज किया करते हैं। लाख प्रेरित किया जाए किन्तु इनमें फाॅम तक भरने की लालसा नहीं होती। इसके पीछे ऐसे लोगों का मानना होता है कि हम पढ़ाने में रूचि रखते हैं। हमारा काम पढ़ाना है। हमारा सबसे बड़ा पुरस्कार बच्चों की खुशी और बच्चों की उन्नति होती है। हमें पुरस्कारों से क्या काम? अब सोचना नागर समाज को है क्या उन्हें पुरस्कार देना चाहिए? कौन सी वजहें हैं कि उनका विश्वास पुरस्कारों से उठ चुका है।
आज की कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरा है तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही दोषी नहीं हैं। बल्कि हमें उन कारकों की पहचान भी करनी होगी जिनकी वजह है स्कूल शिक्षा के स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। पहली बात तो यही कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में गिरावट से हमारा क्या मतलब है इसे स्पष्ट कर लें। यहां गिरावट से अर्थ प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों में भाषा, गणित,विज्ञान आदि विषयों में अपनी उम्र और कक्षा के अनुसार ज्ञान व विषय की पकड़ न होना। साथ ही भाषा के चार कौशलों-सुनना, बोलना,पढ़ना और लिखना के स्तर पर बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं। एनसीईआरटी, प्रथम, डाईस आदि की रिपोर्ट हर साल इस ओर नागर समाज का ध्यान खींचती हैं कि कक्षा 5 वीं व कक्षा 6 ठी में पढ़ने वाले बच्चे कक्षा 1 व 3 तीन के स्तर की भाषायी समझ और कौशलों में सक्षम नहीं हैं। यह हाल न केवल भाषा के स्तर पर है बल्कि गणित और विज्ञान में भी तकरीबन यह ही स्थिति है। बच्चों को सामान्य गणित और हिन्दी के वाक्य तक पढ़ने में पिछड़ रहे हैं। यह एक सच्चाई है वहीं इसी कहानी के पीछे एक और सच छुपा हुआ है जिस तरफ शिक्षा जगत के जुड़े लोगों का नहीं जाता। इन पंक्तियों के लेखक को तकरीबन 5000 स्कूली शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का अवसर देश के विभिन्न राज्यों में मिला है, इसके आधार पर कहा जा सकता है सरकारी स्कूलों की जिस किस्म की छवि मीडिया व रिपोर्ट में पेश की जाती है वही सच नहीं है बल्कि सच यह भी है कि इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे मेधावी प्रतियोगिताओं और अन्य विषयों में भी निजी स्कूलों के बच्चों से ज़रा भी कम नहीं हैं। वहीं शिक्षकों में भी निजी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना मंे ज्यादा प्रतिबद्ध होते हैं। ये शिक्षक कहीं अधिक शिक्षित और उच्च डिग्रीवाले होते हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि क्या वे अपनी योग्यता और जानकारी का भरपूर इस्तमाल कक्षा में करते हैं? क्या वे शिक्षक अपनी कक्षा में अपने अनुभवों और शैक्षिक यात्रा का आस्वाद बच्चों में संप्रेषित कर पाते हैं? यह एक विमर्श का मसला है कि कई बार शिक्षक पढ़ाना तो चाहता है लेकिन उसे प्रशासनिक कार्यों, अभियानों, कागजी दौड़ों में हांक दिया जाता है। ऐसे में शिक्षक बहुत दुखी होते हैं। उन्हें लगता है उनसे बच्चे दूर किए जा रहे हैं। ऐसी ही एक वाकया राजस्थान और लुधियाना की कार्यशाला है कि शिक्षक बात करते करते रोने लगे कि मैं पिछले तीन माह से कक्षा में पढ़ा नहीं पा रही हूं। मैं स्कूली और विभागीय कामों में लगी हूं। बच्चे मुझे पूछते हैं लेकिन मैं चाह कर भी पढ़ा नहीं पाती हूं। इस तरह की स्वीकारोक्तियों से मेरा सामना अकसर कार्यशालाओं मंे होता रहा है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को प्रोत्साहन और उनके कामों को पहचानने की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की भी है कि जिस तरह के गैर अकादमिक कामों में शिक्षकों को लगाया जाता है उससे इन्हें निजात मिले और कक्षा-कक्ष में शिक्षण पर ध्यान दे पाएं।
ऐसे शिक्षक/शिक्षिकाओं की भी कमी नहीं है जो पूरे मनोयोग से शिक्षण करना चाहते हैं और करते भी हैं। लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब उनके कामों को नजरअंदाज किया जाता है या फिर उन्हें अन्य कामों में झांेक दिया जाता है। धीरे धीरे शिक्षक इन कामों में रमने लगता है और शिक्षण कर्म से दूर होता चला जाता है। शायद एक मेहनती और इच्छुक शिक्षक ऐसे ही मरा करते हैं। प्रशिक्षण कार्यशालाओं के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि दिल्ली में कई तरह के स्कूल हैं सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त आदि। इन स्कूलों में शिक्षण योग्य और तजुर्बेकार भी होते हैं लेकिन सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी की वजह से शिक्षक नहीं पढ़ा पाते। ओल्ड सीमापुरी, जाफ़राबाद, गोकुलपुरी,भजनपुरा,भोलानाथ नगर,भागीरथ विहार आदि स्कूलों में हालात ऐसे हैं कि दरवाजें है तो किवाड़ नहीं। खिड़की है तो पल्ले नहीं। जमीन पर पट्टियों पर बैठे बच्चे नजर जिस उत्साह के साथ स्कूल आते हैं उन्हें पढ़ाया तो जाता है लेकिन स्कूल से जाने के बाद घर पर पढ़ने का माहौल नहीं मिल पाता। इन स्कूलों में बच्चे जिस परिवेश से आते हैं उन्हें नजरअंदाज कर शिक्षा और शिक्षक की भूमिका को तय नहीं किया जा सकता। जब हम शिक्षक और शिक्षा की जिम्मेदारी की बात करते हैं तब शैक्षिक नीतियों और आयोगों की सिफारिशों की ओर भी देखना प्रासंगिक होगा। जहां कोठारी आयोग से लेकर राष्टीय शिक्षा नीति 1986 भी खासे प्रासंगिक है। इसी कड़ी में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भी मौजू है। इन आयोगों और समितियों की वकालत को शिक्षा की बेहतरी के लिहाज से देखते हैं जो नीति के तौर पर पर उम्मीद की रोशनी पैदा करती हैं लेकिन जब जमीनी हकीकत पर नजर डालते हैं तब चुनौतियां सामने आती हैं जिससे शिक्षक और शिक्षा जगत रू ब रू होता है।
एक शिक्षक कितना संवेदनशील होता है इसकी झलक इस बात से भी मिलती है कि शिक्षक अपनी पगार से जब कक्षा में टीएलएम का खर्च उठाता है, जब गरीब बच्चे की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति अपने वेतन से करता है, लेकिन उसके बावजूद भी शिक्षक की निष्ठा पर सवाल उठाए जाते हैं। जब शिक्षण के स्तर का तो मूल्यांकन होता है लेकिन एक शिक्षक किन कारणों व परिस्थितियों में पढ़ाता है व नहीं पढ़ा पाता इसको तवज्जो नहीं दिया जाता तब शिक्षक का मनोबल कमजोर होता है। शिक्षक का आत्मबल तब भी नीचे जाता है जब उसे सिर्फ और सिर्फ लानत मलानत ही दिए जाते हैं। हमारे सामने कई ऐसे शिक्षक हैं जो लगातार बिना किसी प्रोत्साहन की उम्मीद किए अपने कर्म में लगे हुए हैं। वहीं ऐसे भी शिक्षकों की कमी नहीं है जो स्कूल व कक्षा में तो होते हैं लेकिन पढ़ाना उन्हें गवारा नहीं होता। तू पढ़ की शैली में बच्चे पढ़ा करते हैं। उन्हें शिक्षा में हो रहे नवाचारों, प्रयोगों, शोधों और रिपोर्ट आदि से कुछ भी लेने देना नहीं होता। उन्हें हर माह समय पर वेतन मिलता रहे। हिन्दी की किताब रिमझिम के अध्यापकों के लिए लिखे गए दो पेज पढ़ाना भी जरूरी नहीं लगता। उस पर तुर्रा यह कि वही लोग आरोप लगाते हैं कि हिन्दी की किताब कोई किताब है? इसमें पहले पाठ से ही वाक्य और कविताएं दी गई हैं आदि। यहां सवाल शिक्षकों पर भी उठता है कि इस प्रजाति में लिखने-पढ़ने वालों की कमी है। शिक्षक वर्ग पढ़ने के नाम पर पत्रिका-अखबार व प्रतियोगी पत्रिकाएं तो पढ़ते हैं लेकिन ऐसी किताब जो शिक्षा,साहित्य की समझ विकसित करे, इन्हें नहीं लुभातीं। शिक्षकों में पढ़ने की आदत बहुत मजबूत नहीं है।

Tuesday, September 22, 2015

प्राथमिक कक्षा में भाषा


कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चे क्लास में भोजपुरी और बंगाली बोलते हैं। कुछ बच्चे तो अवधी और स्थानीय बोलियों का इस्तमाल करते हैं। ऐसे बच्चों को किस भाषा में पढ़ाया जाए। इन बच्चों की बोलियों को किस तरह से मानक हिन्दी की ओर मोड़ें आदि सवाल एक नहीं बल्कि सौ से भी ज्यादा अध्यापकों की हैं जो दिल्ली के सीमापुरी,गोकुलपुरी, जाफ़राबाद, ओल्ड सीमापुरी आदि के एमसीडी स्कूलों में पढ़ाते हैं। इन स्कूलों में बच्चे उत्तर प्रदेश और बिहार से आने परिवारों के होते हैं। इनकी मातृभाषा भोजपुरी, अवधी या फिर स्थानीय बोलियां हुआ करती हैं। इन बच्चों को पढ़ाने के दौरान भाषायी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वहीं एक और गंभीर सवाल एक अध्यापक ने उठाया कि उनके स्कूल में अधिकांश बच्चे काॅपी में पीछे से लिखना शुरू करते हैं। यानी उर्दू में जिस तरह से हिन्दी के उलट पीछे से लिखे जाते हैं उसी तर्ज पर इन स्कूलों में बच्चे लिखा करते हैं। यहां तक कि बच्चे लेेखन के स्तर पर बच्चे उर्दू के तरीके का पालन करते हैं। ऐसी शैक्षिक पठन-पाठन कक्ष में अध्यापक किस तरह से उन बच्चों को भाषा यानी हिन्दी पढ़ाए। काफी विमर्श के बाद हमने यह रास्ता निकाला कि जिन बच्चों मंे यह आदत पैठ चुकी है उन्हें धीरे धीरे हिन्दी की देवनागरी में लिखने का अभ्यास कराएं। लेकिन अध्यापकों का एक समूह संतुष्ट नहीं था क्योंकि जिस विधि से वे पढ़ा रहे हैं उससे रिमझिम की किताब को पाठ्यक्रम के अनुसार समय पर पूरा नहीं कर पाते। इतनी ही नहीं बल्कि बच्चों को जब गतिविधियों के जरिए हिन्दी शिक्षण कराते हैं तब भी इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में गतिविधियों के जरिए शिक्षण के दौरान सबसे बड़ी अड़चन आती है वह पाठ्यक्रमों को समय पर पूरा कराना होता है। क्योंकि जब भी मूल्यांकन होता है तब कोई भी बच्चों की रोचक शिक्षण को नहीं देखता बल्कि अंतिम रिजल्र्ट देखा करते हैं।
कक्षा में भाषा कैसे पढ़ाई जाए इस पर शिक्षा दर्शन और शैक्षिक विमर्श हमें रास्ते भी दिखाते हैं कि बच्चों को भाषा व अन्य विषयों का शिक्षण मातृभाषा में ही करना चाहिए। इसका एक और बड़ा लाभ यह है कि बच्चों की चिंतन और विमर्श के साथ ही समझ की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है। मनोविज्ञान और प्रयोग इसे साबित कर चुके हैं कि यदि बच्चों को कम से कम प्रारम्भिक स्तर पर शिक्षण उनकी मातृभाषा में की जाए तो वह बच्चों के भविष्य के लिए ज्यादा प्रभावी होता है। बच्चे स्वतंत्र- चिंतन और सृजनात्मक चिंतन में ज्यादा सफल होते हैं। ऐसे बच्चों में यह पाया गया है कि मातृभाषा में बच्चे लेखन, वाचन और पठन के स्तर पर ज्यादा प्रभावशाली तरीके से सीखते हैं। ऐसे बच्चे लिखने और बोलने के स्तर पर काफी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 बड़ी ही शिद्दत से इस तथ्य को रखता है कि प्रारम्भिक स्तर पर बच्चों को मातृभाषा के जरिए शिक्षण करना चाहिए। बच्चे मातृभाषा में सक्षम और कुशलता पूर्वक प्रदर्शन कर पाते हैं। इसी आवश्यकता को गांधी जी ने 1937 में वर्धा शिक्षा सम्मेलन में कहा था। उनका तर्क था कि बच्चों को प्राथमिक कक्षा तक मातृभाषा में शिक्ष दी जानी चाहिए। लेकिन उनकी बात को राजनीतिक घटकों में गंभीरता से नहीं लिया गया। भाषाविद्ों और शिक्षाविद्ों की राय में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
शिक्षा और भाषा शिक्षण के तौर तरीका समय के अनुसार बदले हैं। निजी और सरकारी स्कूलों में शिक्षण और भाषायी शिक्षण में स्थानीय बोलियों और मातृभाषा को हाशिए पर धकेला गया है। इसके पीछे बाजार और मांग की भूमिका अहम है। बाजार और अभिभावकों की मांग हिन्दी व बच्चों की मातृभाषा शिक्षण की बजाए उस भाषा की होती है जिसकी मांग बाजार और रोजगार की दृष्टि से ज्यादा है। यही वजह है कि कई निजी स्कूलों में कक्षा आठवीं से हिन्दी को वैकल्पिक विषय में डाल दिया जाता है। बच्चों के पास हिन्दी के समानांतर जर्मन, मंदारियन, फ्रेंच, इटेलियन, अंग्रेजी आदि भाषा का विकल्प होता है। बच्चे अपने पूर्व मित्रों और अभिभावकों की इच्छा और उम्मीदों को ही आगे बढ़ाते हैं बच्चे उसी भाषा को आठवीं चुनते हैं जिसमें नंबर ज्यादा मिलते हों, रोजगार की संभावनाएं अधिक खुलती हों, समाज में प्रतिष्ठा सर्वाधिक हो आदि। इस स्तर पर हिन्दी पीछे धकेली जाती है। स्कूल स्तर पर मातृभाषा व हिन्दी के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव होता है। ऐसा नहीं है कि काॅलेज व विश्वविद्यालय स्तर पर कुछ बेहतर स्थिति मिलती है। उच्च शिक्षा के स्तर पर देखें तो यहां भी मातृभाषा, गैर हिन्दी भारतीय भाषाओं को स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। उच्च शिक्षा में उसी भाषा का वर्चस्व है जिसका बाजार और समाज में सिक्का चलता है। यही वजह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राज्यस्तीय विश्वविद्यालयों में तो भाषा व मानविकी विभाग वजूद में हैं लेकिन निजी व पीपीपी तर्ज पर खुले नए शिक्षण संस्थानों में भाषा व मानविकी विभाग या तो खोले ही नहीं गए हैं या फिर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। नए खुल रहे विश्वविद्यालयों में मानविकी की बजाए मैनेजमेंट, प्रौद्योगिकी आदि विषयों को खिलने का भरपूर मौका दिया जा रहा है।
भाषा और मातृभाषा और शिक्षण की चुनौतियों के मद्देनजर विमर्श की परिधि में हमें यह गुंजाइश भी रखनी पड़ेगी कि शिक्षा और भाषा शिक्षण की शैली क्या हो। किस तरीके से भाषा शिक्षण में मातृभाषा को रेखांकित किया जाए। मातृभाषा के शिक्षण में बच्चे की मूल भाषा को बिना तवज्जो दिए हमउ से मातृभाषा व अन्य भाषा का शिक्षण नहीं कर सकते। प्रथमतः हमें बच्चे की मातृभाषा को माध्यम बना कर ही दूसरी भाषा का शिक्षण करना चाहिए। मातृभाषा कहीं न कहीं दूसरी भाषा सीखाते वक्त सहायक होती हैं। क्योंकि बच्चे अपनी जबान से दूसरी जबान में सहजता से संक्रमित होते हैं। हालांकि यह सिद्धांत बड़ों पर भी लागू होता है। लेकिन प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा शिक्षण को जब तक गंभीरता से नहीं लेंगे तब तक बच्चे भाषा चाहे वह मातृभाषा हो या अन्य भाषा उसकी भाषा के कौशलों में दक्ष नहीं हो पाएगा।
यदि समग्रता में विमर्श करें तो पाएंगे कि प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण पर समुचित जोर नहीं दिया जाता जिसका परिणाम हमें काॅलेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर दिखाई देते हैं। बच्चे बीए एम ए कर लेते हैं लेकिन उन्हें तो अपनी मातृभाषा पर मजबूत पकड़ बन पाता है और न दूसरी भाषा के कौशल में दक्ष हो पाते हैं। हिन्दी तो कहीं पीछे छूट ही जाती है साथ ही दूसरी भाषा भी कोई ख़ास मददगार साबित नहीं होती। इस तरह से बच्चे की भाषायी गति हमेशा ही दोयमदर्जे की रह जाती है।

Thursday, September 17, 2015

पीएचडी और एमए वाले बनेंगे चपरासी




कौशलेंद प्रपन्न
यह कौन सा देश है महाराज जहां कहावत प्रसिद्ध है ‘पढ़े फारसी बेचे तेल’ कुछ चरितार्थ होता सा लग रहा है। यह अनुमान नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के सचिवालय में 368 चपरासी पद के लिए आवेदन मांगे गए थे जिसमें पाया गया 255 निवेदकों ने पीएमडी कर रखी है। इतना ही नहीं बल्कि एम ए, एम एस सी वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं है 25 लाख ऐसे आवेदकों की संख्या है जो पोस्टग्रेजुएट हैं। वहीं डेढ़ लाख ऐसे आवेदक हैं जिन्होंने स्नातक किया हुआ है। गौरतलब है कि इस पद के लिए निम्न अहर्ता पांचवीं कक्षा तक की शिक्षा रखी गई है। यह एक बड़े विघटन और शिक्षा की असफलता की कहानी भी कहती है। कहानी सिर्फ शिक्षा की दयनीय स्थिति को ही बयान नहीं करती बल्कि हमारी नीति और दिशा को भी रेखांकित करती है। यह तो उत्तर प्रदेश की हालत है अमूमन राज्यों में बेरोजगारी की स्थिति यह है कि एमए, बीएड आदि किए हुए भी नौकरी से बाहर हैं। दूसरे शब्दों में वे नौकरी से बाहर हैं व इस योग्य ही नहीं हैं कि वे नौकरी पा सकें। दूसरा सवाल यह भी उठता है कि सरकार की नीतियों में ऐसे लाखों युवाओं के लिए घोषणाएं तो हैं किन्तु उन्हें अमली जामा पहनाने की प्रतिबद्धता नहीं है। यह एक गंभीर परिघटना है कि हमारे पढ़े-लिखे तथाकथित युवा नौकरी से बाहर हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में अपनी शैक्षिक स्तर से नीचे उतर कर नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। यहां सवाल यह भी उठना लाजमी है कि क्या हमारी शिक्षा युवाओं को दक्षता व कौशल प्रदान करने में विफल रही है कि स्नातक और परास्नातक अपनी शैक्षिक योग्यता के अनुरूप नौकरी नहीं कर पा रहे हैं। क्या हमारी शिक्षा में ही कहीं कमी है जो इस तरह की घटनाओं केा जन्म दे रही है। यदि हमारे स्नातक और परास्नातक चपरासी की नौकरी करने पर विवश हैं तो हमारे नीति नियंताओं को नींद से जल्द जाग जाना चाहिए।
यहां यह न मान लिया जाए कि चपरासी के काम व किसी भी काम को कमतर आंकने व हेय दृष्टि से देखने की कोशिश की गई है। काम कोई भी खराब व निम्न नहीं होता। इससे किसी को गुरेज नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि यदि पीएचडी, एम ए, एमएस सी डिग्रीधारी चपरासी के पद पर काम करेगा तो क्या उसकी क्षमता और योग्यता का भरपूर इस्तमाल बेहतर के लिए किया जा सकता है। अंततः चपरासी का काम वैज्ञानिक शोध, अकादमिक विमर्श के साथ तालमेल नहीं बैठा सकता। दोनों ही कामों की दक्षता, पात्रता और शैक्षिक समझ अपने काम की प्रकृति के अनुरूप होती हैं। पहले स्तर पर अत्यधिक पढ़े लिखे होने की आवश्यकता ही नहीं है। वहीं दूसरे स्तर पर बिना शैक्षिक गुणवत्ता और पात्रता के अकादमिक काम नहीं हो सकता। एक सवाल यह भी पैदा होता है कि आज की तारीख में हम अपने युवाओं को क्या शिक्षा दे रहे हैं और किस स्तर की शैक्षिक दक्षता प्रदान कर रहे हैं? क्या हम उन्हें महज डिग्री बेच रहे हैं व डिग्री के साथ उन्हें जीवन कौशल और दक्षता भी मुहैया करा रहे हैं ताकि अपना जीवन भी चला सकें। सामान्यतः देखा यह भी गया है कि फलां के पास बी ए, एम ए व प्रोफेशनल डिग्रियंा तो होती हैं लेकिन डिग्री के अनुरूप उनके पास समझ और कौशल नहीं होता। हाल ही में इन पंक्तियों के लेखक को पूर्वी दिल्ली नगर निगम की ओर नए टीचर की नियुक्ति प्रपत्र के दौरान प्रमाण पत्र सत्यापन में बैठने का मौका मिला। जब यह जानने की कोशिश की कि आप बतौर उर्दू के अध्यापक बनने वाले हैं, आप आने वाले दिनों में उर्दू पढ़ाएंगे, एक वाक्य लिखें कि आप उर्दू पढ़ाते पढ़ते हैं। सच यह है कि नब्बे फीसद अध्यापकों की उर्दू में यह वाक्य लिखना नहीं आया। जब डिग्री पर नजर गई तो उनकी डिग्री दिल्ली के प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों की थीं। मगर यह स्थिति केवल उर्दू की ही नहीं है बल्कि तमाम डिग्रीधारी इस तरह के मिल जाएंगे।
शैक्षिक स्थिति ऐसी है तो यह एक बड़ा गंभीर मामला है। क्या हम प्रशिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा प्रदान कर रहे हैं? यदि वे अपने विषय में इतने कमजोर हैं तो इसमें जितना दोष पढ़ने वालों का है उससे ज़रा भी कम संस्थानों में पढ़ाने वालों का नहीं मान सकते। विश्वविद्यालयों से भी निकलने वाले डिग्रीधारी अपनी डिग्री के अनुरूप ज्ञान और समझ नहीं रखते। यह किसी से भी छुपा नहीं है कि कई संस्थाएं महज डिग्री दिया करती हैं जहां न कक्षा में उपस्थिति होती है और न पढ़ने पढ़ाने के प्रति गंभीरता। इसमें बीएड से लेकर एमएड और अन्य डिग्रियां भी शामिल हैं। वर्तमान सरकार कई जोर शोर से कौशल विकास योजना पर काम कर रही है। इसे इस संदर्भ में देखने-समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि यदि यह येाजना सही तरीके से काम करती है तो बच्चे दसवीं, बारहवीं के बाद अपना काम शुरू कर सकते हैं। उन्हें बोर्ड पास करने के बाद किसी के पास जाॅब मांगने जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। वे बच्चे अपना काम स्वयं शुरू कर सकते हैं। इस बाबत उन्हें कुछ आर्थिक सहायता की जरूरत पड़ेगी तो सरकार अपनी योजनानुसार उन्हें आर्थिक मदद भी कर सकती है।
दरअसल कौशल विकास योजना अपने आप में नया कन्सेप्ट नहीं है क्योंकि गांधी जी ने 1937 के वर्धा शिक्षा सम्मेलन में ही इस बात पर जोर दिया था। उन्होंने वकालत की थी कि हर बच्चे को शिक्षा और हर बच्चे को हाथ का काम देना चाहिए। यहां पर हाथ का काम से अर्थ जीवन कौशल ही था। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे को कोई ऐसा काम ऐसी दक्षता प्रदान की जाए जिससे वो अपना जीवन यापन कर सके। इस काम में बिजली,लकड़ी, मैकेनिक आदि के काम शामिल थे। वर्तमान सरकार भी इसपर गंभीरता से विचार काम कर रही है। लेकिन गौरतलब है कि यह विकल्प कहीं न कहीं शिक्षा की परत को छिछला ही करना है। क्योंकि हम एक ओर उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और संख्या कम होने का रोना रोते हैं वहीं हम उच्चा शिक्षा में संख्या और गुणवत्ता बढ़े इसके लिए हम गंभीर नजर नहीं आते। जैसे ही हम बच्चों को शिक्षा का विकल्प यानी कौशल विकास योजना का डारे हाथों में पकड़ाते हैं वैसे ही वे बच्चे व उनके अभिभावक उन्हें उच्चा शिक्षा में भेजने की बजाए अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करने में इस्तमाल करने लगते हैं। यदि वजह है कि आज उच्च शिक्षा व शोध पाठ्यक्रमों में जाने वालों की संख्या तेजी से घटी है। सवाल यह भी उठता है कि शोध की गुणवत्ता में गिरावट के लिए भी हमारी शिक्षा-नीति और अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं। इसमें सरकारी नीति, योजनाएं और शैक्षिक आयोगों की सिफारिशों को नजरअंदाज करना एक तरह से हमारे युवाओं के भविष्य से खेलना ही है।

Wednesday, September 16, 2015

मंदी में जीवन



कौशलेंद्र प्रपन्न

इतिहास में विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी की शुरुआत और सुगबुगाहट हमें 2008 के जनवरी फरवरी में दिखाई और सुनाई देने लगती है। इससे पहले 1930 के आस पास विश्व इस तरह के उथल पुथल से गुजरा था। शुरू के माह में लगा यह तूफान टल जाएगा। या फिर सरकार इस पर काबू पा लेगी। लेकिन यह आशंका जुलाई अगस्त में भयंकर रूप में हमारे सामने आने लगी। बाजार की हालत खराब होने लगी। इस बाबत विभिन्न अखबारों, टीवी न्यूज चैनलों में छीट पुट खबरें देखने-पढ़ने को मिलने लगीं।
इन दिनों एक बार फिर से मंदी की आहट सुनी जा सकती है। अगस्त का अंतिम सोमवार को कुछ इसी तरह याद किया जाएगा। शंघाई शेयर बाजार के कंपोजिट इडैक्स में आए आठ प्रशित की गिरावट का असर बाजार में चारों ओर देखा गया। शेयर बाजार के गुरुओं की नजर में भारत में ऐसी घटना ऐतिहासिक मानी गई। लुढ़कन की फिसलन इतनी तीखी थी कि निवेशकों के तकरीबन सात लाख करोड़ से भी ज्यादा डूब गए। यह हलचल इतनी गहरी थी कि भारत के नीति नियंताओं को आनन फानन में समीक्षा बैठक बुलानी पड़ी। इतनी ही नहीं बल्कि निवेशकों को दिलासा देने की जरूरत महसूस की गई कि सरकार मुनाफे बढ़ाने वाले आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए तथा देश में आर्थिक गतिविधियों को दुरुस्त करने के लिए सार्वजनिक खर्च में तेजी लाने के लिए कदम उठाएगी। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर सरकार ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के साथ घोषणा की कि भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है और निवेशकों को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
मैं जिन घटनाओं, वातावरण, चिंता, भय और निराशा आदि से आप सभी को जोड़ने जा रहा हूं उसके लिए काफी सोच विचार करने के बाद एक बिंब उचित लगता है। वह है टाइटेनिक। याद कीजिए जब टाइटेनिक की यात्रा शुरू हुई तो कैप्टन का दावा था कि यह कभी डूब नहीं सकती। गौरतलब हो कि कैप्टन समंदर में जितना प्रतिशत बर्फ का हिस्सा देख पाया उसका एक बड़ा भाग समंदर के नीचे था। इसका अनुमान कैप्टन नहीं लगा पाया। अंततः टाइटेनिक समंदर में समा गया। नियति यही थी। बचने की उम्मींद लगभग खत्म हो चुकी थी। सब के सब अपने अपने इष्ट देव को याद कर रहे थे। अंत क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं।
मंदी की मार न केवल बाजार पर देखी गई, बल्कि इसका असर व्यक्ति के आम जीवन पर भी पड़ा। इन पंक्तियों के लेखक ने 2009 में एक सर्वे किया था कि आम लोगों के स्वास्थ्य पर इस मंदी का क्या असर पड़ा रहा है। इस बाबत मैंने विमहंस के मनोरोग, मनोचिकित्सकों से बातचीत की थी जिसमें पाया कि जिनकी नौकरी चली गई व डर में जाॅब पर जा रहे हैं उनके दांत और सिर दर्द की शिकायतें बढ़ रही थीं। युवाओं की मंगनी टूट रही थी। शादियां टल रही थीं। ब्लड प्रेशर की शिकायतों में बढ़ोतरी हुई थी। समाज और मीडिया अलग नहीं है। इस लिहाज से मीडिया घरानों में यह खबर एक तरह से सूनामी के रूप में भी आने लगी थी। सितंबर-अक्टूबर तक देश के जाने माने आर्थिक अखबार घरानों में पेज कम किए जाने लगे। आर्थिक अखबारों के साथ ही सामान्य अखबारों के पन्ने 30, 32 से घटकर 12, 14 पेज पर सिमट गए। जैसे ही पेज कम होने शुरू हुए लोगों को दूसरे पेज पर शिफ्ट किया गया। जो बच गए उन पर एचआर की नजर पड़ने लगी। नीति बनने लगी कि काॅस्ट कटिंग करनी पड़ेगी। कम लोगों से काम चलाया जाए और जिनके बगैर काम चल सकता है उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए। देखते ही देखते दिल्ली के विभिन्न मीडिया घरानों से पत्रकारों को रातों रात बाहर का रास्ता दिखाने का काम शुरू हो चुका। उस समय कुछ अखबारों ने तो खबरें छापीं लेकिन अधिकांश मीडिया घरानों ने इस मसले पर चुप्पी साध ली।
अक्टूबर 2008 तक कुछ अखबारों में मंदी संबंधी खबरें तो छपीं लेकिन नवंबर तक आते आते अखबारों और न्यूज चैनलों से मंदी और छटनी संबंधी खबरें गायब हो गईं। सरकार की ओर से भी अघोषित तौर पर मीडिया घरानों को निर्देश दिए गए कि मंदी और छटनी की खबरें छापने से बचें। क्योंकि इसका असर सीधे सीधे इन घरानों में काम करने वालों पर नकारात्मक प्रभाव देखे जाने लगे। लेकिन जो लोग न्यूज एजेंसियों से जुड़े थे उन्हें मालूम है कि भाषा, वार्ता, एपी आदि न्यूज वायरों पर वैश्विक मंदी और छटनी संबंधी खबरों तो आ रही थीं लेकिन कहीं छप नहीं रही थीं। इसके पीछे मकसद यही था कि भारत के मीडिया और गैर मीडिया कर्मी पर इसका नकारात्मक असर न पड़े।
एचआर की तरफ से स्पष्टतौर पर निर्देश दिए जाते कि आपके पास दो विकल्प हैं पहला, आप आज ही तीन माह की सैलरी ले लें और रिजाइन करें। कल से आॅफिस आने की आवश्यकता नहीं। दूसरा, आपके एकाॅंट में तीन माह तक सैलरी डाल दी जाएगी और कल से चाहें तो आॅफिस नहीं आ सकते हैं। दूसरा विकल्प लोगों को माकूल लगा करता था क्योंकि बाजार में आप आराम से नौकरी देख सकते हैं। आपको यह नहीं कहना पड़ेगा कि आपके पास जाॅब नहीं है।
जिस चुपके चुपके पत्रकार एचआर के पास से आते। धीरे से अपना डेक्स टाॅप आॅफ करते और अपनी डायरी, कुछ सामान जो उनके डाॅवर में होते बटोर कर नम आंखों से बाहर निकल जाते। वह वक्त ऐसा होता कि साथ बैठा साथी भी सबकुछ समझते हुए भी कुछ बोल नहीं पाता था। यहां तक कि आंखें झुकाए अपने काम में यूं लगा रहता गोया कुछ हुआ ही नहीं।



Tuesday, September 15, 2015

शिक्षक प्रशिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला भाषा हिन्दी




7 से 10 सितंबर 2015

टेक महिन्द्रा फाउंडेशन और पूर्वी दिल्ली नगर निगम के साझा प्रयास से स्थापित अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान में शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला का सिलसिला जारी है। ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों को प्रशिक्षण कार्यशाला से जोड़ा जाए इसके लिए हमने एक साझा समझ विकसित कर शिक्षक प्रशिक्षक तैयार करने की योजना बनाई। इस योजना के तहत हमने ईडीएमसी के प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों/शिक्षिकाओं को विशेष प्रशिक्षण प्रदान कर इन्हें शिक्षक प्रशिक्षक के तौर पर तैयार करना है। इसके पीछे हमारा उद्देश्य यह है कि आगामी वर्षों में यही प्रशिक्षक अन्य शिक्षकों की दक्षता विकास कार्यशाला का आयोजन कर सकें।
हमने इन शिक्षक प्रशिक्षक शिक्षकों का चुनाव बड़ी ही सावधानी और जांच-मूल्यांकन के बाद किया है। अभी हमारे पास शहादरा पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र के विभिन्न स्कूलों में कार्यरत चैदह प्रतिभागी हैं। पिछले साल नंबर में इन प्रशिक्षक शिक्षकों के साथ इंडक्शन कार्यशाला की शुरुआत की गई थी। जो इस वर्ष भी विभिन्न विषयों में समय समय पर कार्यशालाएं जारी रही हैं।
हमने इन मास्टर टेनर की मांगों और आवश्यकताओं का ध्यान में रखते हुए बार चार दिवसीय भाषा हिन्दी की कार्यशाला की येाजना बनाई। यह इसलिए भी जरूरी था कि हमारे शि.प्र. आगामी समय में जब रिसोर्स पर्सन के तौर पर कार्यशाला में जाएं तो हिन्दी भाषा में उन्हें किसी भी किस्म की समस्या न आए।
उद्देश्यः
शिक्षक प्रशिक्षक इस कार्यशाला में हिन्दी और भाषा संबंधी बारीक बुनावट और प्रकृति से परिचित हो सकेंगे
शि.प्र. इस कार्यशाला के उपारांत वे स्वयं स्वतंत्रतौर पर हिन्दी विषय पर सत्र की योजना और कार्यवाही की रणनीति निर्माण करने में दक्ष हो सकेंगे
हिन्दी भाषा को लेकर विभिन्न तरह की भ्रांतियों और अशुद्धियों को ठीक कर सकेंगे और उन्हें आगामी कक्षाओं में हस्तांतरित भी कर सकेंगे
आवश्यकताः
शि.प्र. की ओर मांग आई थी कि उन्हें हिन्दी की बारीक व्याकरण और हिन्दी साहित्य पर समझ विकसित करना
इनकी ख़ुद की हिन्दी अभी इस स्तर की नहीं है कि हम कार्यशाला और कक्षा में हिन्दी पर बोल पाएं
आईटीईआई की एसएमई की टीम ने स्वयं मूल्यांकन के बाद महसूस किया कि इन्हें हिन्दी भाषा दक्षता पर कार्यशाला की आवश्यकता है
पहला दिनः

श्री कौशलेंद्र प्रपन्न ने भाषा की सामाजिक, आर्थिक,भौगोलिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बहुत विस्तार से भाषा को गढ़ने में उपरोक्त तत्वों की क्या भूमिका है इसपर परिचर्चा के द्वारा प्रतिभागियों के साथ विमर्श किया। प्रपन्न ने इस सत्र मंे भाषा और हिन्दी के विविध आयामों के तहत परिचर्चा के जरिए विभिन्न बिंदुओं पर गंभीरता से प्रतिभागियों से बातचीत की।
भाषा और हिन्दी की हमारी जिंदगी में क्या महत्व है और क्यों हमें भाषा-हिन्दी पढ़नी ही चाहिए। क्या भाषा के बगैर हमारी जिंदगी चल सकती है। हिन्दी पढ़ाने के दौरान शिक्षक किस प्रकार की दक्षता और कौशलों का ध्यान रखे। एक शिक्षक/प्रशिक्षक में भाषा के किन आयामों पर खासतौर पर ध्यान रखा जाना चाहिए।
दूसरा दिनः
डाॅ रवि शर्मा जो हिन्दी में वर्तनी जैसे मसले के लिए विशेषज्ञ हैं। हमने आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए डाॅ रवि शर्मा को वर्तनी शोधन पर दो दिन की कार्यशाला की योजना बनाने का अनुरोध किया।

पहले दिन उन्होंने भाषा और वर्तनी पर अभ्यास करवाए। उन्होंने प्रतिभागियों को हिन्दी लेखन में होने वाली सामान्य गलतियों पर ध्यान खींचा। उन गलतियों के पीछे क्या कारण है और उसे कैसे ठीक करें इसपर विस्तार पर चर्चा के साथ अभ्यास करवाएं।
दूसरे दिन डाॅ शर्मा ने श्रुत लेख और उसके शोधन का अभ्यास कराया। मानक हिन्दी लेखन, उच्चारण आदि के लिए केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की मानक पुस्तिका के जरिए हिन्दी की वर्तमान लेखन परिवर्तित स्वरूपों पर ध्यान आकृष्ट किया।

चैथा दिनः
कार्यशाला का अंतिम दिन यूं तो जेंडर मसले पर तय था किन्तु किन्हीं कारणों से यह संपन्न नहीं हो सका। चैथे दिन माइक्रो टीचिंग की योजना बनाई। इस योजना का मकसद था- प्रतिभागियों को कक्षा शिक्षण के अवसर प्रदान किए जाएं। प्रतिभागी कक्षा शिक्षण करें। हमारी टीम उनके शिक्षण-कौशलों, दक्षता और विभिन्न पहलुओं पर प्रतिभागियों की हैंड होल्टिंग की जा सके इसके लिए टीचिंग अभ्यास आवश्यक था। एक दिन पूर्व सभी प्रतिभागियों को अलग अलग समूह- झेलम, चेनाब, व्यास और गोदावरी में बांटा गया था। इन सभी समूहों को विषय प्रदान कर दिए गए थे ताकि दस तारीख की माइक्रो टीचिंग के लिए खुद का तैयार कर पाएं।
एक एक समूह ने कड़ी मेहनत और लगन से अपने विषय की तैयार की। किन्तु समय की कमी एक बड़ा कारण था कि एक एक व्यक्ति को ज्यादा समय नहीं मिल सका। किन्तु लगभग सभी समूह ने अपनी टीचिंग प्रस्तुति में विषय, कथ्य और प्रस्तुतिकरण को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किए।

और अंत में समूह के प्रत्येक सदस्यों ने अपनी अपनी टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं दीं। ताकि हर किसी को अपनी कमियां मालूम हो सके। अंत में कौशलेंद्र प्रपन्न ले समग्रता में सभी समूह और व्यक्ति के प्रदर्शन पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। किसे किस क्षेत्र में और काम करने की आवश्यकता है इसपर खासतौर पर ध्यान खींचा गया।

आईटीईआई की नजर में-
प्रतिभागियों को यह कार्ययोजना और कार्यशाला का प्रारूप पसंद आया। प्रतिभागियों की राय की मानें तो जिस तरह से हिन्दी पर चार दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसमें चार दिन भाषा और हिन्दी पर बातचीत का अवसर उपलब्ध कराया गया इसी तर्ज पर अन्य विषयों की वर्कशाप होनी चाहिए। आगामी माह में हम शि.प्र. समूह के लिए विषयवार चार दिवसीय कार्यशाला की योजना बना सकते हैं।







Friday, September 11, 2015

हिन्दी के सब रखवाले भईया


कौन कहेगा कि हम हिन्दी के रखवाले नहीं हैं। कौन कह सकता है कि हिन्दी की रक्षा करने के लिए वे प्रयास नहीं करेंगे। कोई तो मिले जो कहने का माद्दा रखे कि हां वे हिन्दी का समर्थन नहीं करते। अगर लालटेन के लेकर निकलें तो शायद ही कोई चेहरा ऐसा मिलेगा जो हिन्दी की रक्षा,सुरक्षा के जज़्बे के लबरेज़ न हो। मसला तो यही है कि हिन्दी को बचाना तो हर कोई चाहता है बस अपनाना नहीं चाहता। घोषणाएं करना कितना आसान है वेा मंच पर तालियों की ध्वनियों को सुनते हुए आज तक हिन्दी को करतल ध्वनियां ही तो मिली हैं।
इन दिनों हिन्दी का महाकुंभ लगा हुआ है। जिसे देखिए वहीं महा स्नान करना चाहता है। लोटी डोरा, तान तमूरा लेकर भागे जा रहा है मध्य देश, ह्रदय देश में। महाकुंभ का एक छींटा भी पड़ जाए तो जिंदगी सफल हो जाए। जिसे देखिए वही सेल्फी में लगा है। किसी नामी गिरामी के कंधे पर सिर टिकाए मुसकराते सेल्फी हर तरफ चमक रहा है। अगर नही ंचमक रही है तो वह हिन्दी।
हिन्दी को कौन बचाएगा? हम बचाएंगे हम बचाएंगे। हिन्दी की रक्षा कौन करेगा? हम करेंगे हम करेंगे। घर कौन फूंकेगा? हम क्यों फूंकेंगे हम क्यों फूंकेंगे। अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में कौन पढ़ने भेजेगा? हम नहीं भेजेंगे हम नहीं भेजेंगे। यह तो हाल है। हिन्दी के स्वनामधन्यों के बच्चे क्या सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं? क्या उनके बच्चे अपने बापू की तरह हिन्दी की सेवा करना चाहते हैं? नहीं नहीं!! यह मजाक हमसे न करो।

अवकाश की तिथि


सरकारी नौकरी में नियुक्ति के दिन ही अवकाश की तिथि भी सर्विस बुक में दर्ज कर दी जाती है। यह अलग बात है कि उस सर्विस बुक को एक कर्मचारी पूरी जिंदगी ढोता रहता है और पता भी नहीं चलता कब अवकाश प्राप्ति के दिन आ गए। अवकाश प्राप्ति के कुछ वर्ष जब बचते हैं यानी दस या छः साल तब कर्मचारी को एहसास होने लगता है कि अब अवकाश के दिन करीब हैं। तब उसे अपनी शेष जिम्मेदारियों के अधूरेपन का भी एहसास होने लगता है। अभी तो बच्चा पढ़ ही रहा है। बच्ची की भी शादी अभी रहती है। अपना मकान भी नहीं बन पाया आदि। देखते ही देखते कब सर्विस के साल पंख लगा कर उड़ जाते हैं इसका इल्म ही नहीं होता। छरहरा बदन, काले बाल, सपनों से भरी आंखों के साथ कोई अपनी जिंदगी में नौकरी की शुरुआत करता है। पंद्रह बीस साल गुजर जाने के बाद वह ठहरने सा लगता है। जम सा जाता है। जब अवकाश के दिन करीब आने लगते हैं तब वह लेखाजोखा करता है कितने काम शेष रहते हैं। सरकारी नौकरी में तो एक बार नियुक्त होने के बाद गोया कर्मचारी लंबे तान कर सो सा जाता है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा निश्चितता में ही कट जाती है। क्योंकि कोई भी उन्हें नौकरी से नहीं निकाल सकता जबतक कि कोई ऐसा अपराध न करें जिसके लिए नौकरी से हाथ धोनी पड़े। लेकिन सरकारी नौकरी के समानांतर ही निजी कंपनियों में खटने वाले कर्मचारियों के विधि विधान ज़रा अलग होते हैं। कब कौन नियुक्त होता है और कब आनन फानन में निकाल दिया जाता है यह भी दिलचस्प होता है। निजी कंपनियों में जिस तरह से नौकरी पैकेज पर सहमति बनती है नौकरी की शर्तंे तय होती हैं उसका टूटन भी उसी शिद्दत से होता है। रातों रात कर्मचारियों को बाहर का रास्ता भी दिखाया जाता है।

अपने अतीत से टकराती हिन्दी


कौशलेंद्र प्रपन्न
आधुनिक समय में हमारी भाषा, संस्कृति और शिक्षा एक गहरे संकट के तौर से गुजर रही है। संभव है पाठाकों को लग सकता है कि आलेया की शुरुआत ही नकारात्मक वाक्य और स्थापनाओं से हो रही है। कम से कम सकारात्मक सोच के साथ बात कही जाती। भारतीय भाषाओं उसमें भी हिन्दी की यदि जमीनी तल्ख हकीकत यही है तो क्या हम इस सच्चाई को देखते हुए भी आंखें मूंदे रह सकते हैं? क्या हम उस कठोर सच को नकार सकते हैं जिससे ख़ासकर हमारी तमाम भारतीय भाषाएं भोग रही हैं। हमारी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सबसे बड़ी चुनौती बाहर से नहीं मिली, बल्कि हमारे भारतीय शासकों और नीति नियंताओं की ओर से ही मिली। यदि भारतीय भाषाओं के लिए मील का पत्थर कोई निर्णय व नीति बनी तो वह राजभाषा अधिनियम 1963 है। इस राजभाषा अधिनियम ने भारतीय भाषाओं की चैहद्दी तय कर दी। इतनी ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के साथ अंग्रेजी को अटैच्मेंट फाईल की तरह नत्थी की दी गई। जो आज तक अलग नहीं हो पाई। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि शुरू में तो पंद्रह साल का समय सीमा तय किया गया था लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज भी हमारी हिन्दी उसी राह पर चल रही है जो 1963 में रास्ते बनाए गए थे। भारतीय भाषा और हिन्दी के जानकार एवं भाषाविद्ों की दृष्टि में यह 1963 का राजभाषा अधिनियम काफी हद तक हमारे नीति नियांताओं की नियति की ओर स्पष्ट संकेत करता है। दरअसल इस टर्निंग प्वाइंट से हिन्दी की भूमिका और स्थिति एक नई दिशा में मुड़ती है। इस पर व्यापक और विस्तृत विमर्श यहां अपेक्षित है जो आगे किया जाएगा। लेकिन क्या नागर समाज भाषा की हमारी जिंदगी से हाशिए पर सिमटते जाने की सच्चाई से विचलित नहीं होना चाहिए? क्या भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए हमें आगे आने की आवश्यकता नहीं है आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमारे कंधे पर सवार हैं उन्हें उतार कर फेंका नहीं जा सकता।
भाषा की मरने की ख़बरें दुनिया के तमाम कोनों से आती ही रही हैं। जो भी भाषा से जुड़े हैं उन्हें भाषा के मरने की आहट सुनाई देती होगी। लेकिन उन्हें बिल्कुल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता होगा जो महज भाषा की रोटी खाते होंगे। भाषा जिंदा रहे या मरे उन्हें हर साल विदेश भ्रमण का मौका मिलता रहे। हिन्दी भी भारतीय भाषायी परिवार एक सदस्या है। इसकी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। यदि हम भाषा के वृहत्तर परिवार की बात करें तो आज की तारीख में विश्व की कई भाषाएं या तो मर चुकी हैं या मरने की कगार पर खड़ी हैं। अफसोस की बात तो यही है कि उसे बचाने की चिंता सरकारी प्रयासों पर छोड़ दिया गया है। ताज्जुब तो तब और ज्याद होता है जब हम सरकारी दस्तावेजों और आयोगों में भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को एक ख़ास किस्म की नीति के तहत होते बर्ताव को देखते हैं। इस दृष्टि से विमर्श करें तो 1963 की राजभाषा अधिनियम भाषा के साथ होने वाले दोयम दर्जंे के व्यवहार की परते खोलती हैं। आजादी से पहले और उसके बाद भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव ही किया गया है। आश्चर्य हो सकता है कि आजादी के बाद कई सारे आयोग और समितियों का गठन किया गया। शिक्षा की बेहतरी के लिए भी आजादी पूर्व से लेकर आजादी के पश्चात भी आयोग और नीतियां बनाई गईं। उन आयोगों और नीतियों में भाषा के नाम पर त्रिभाषा सूत्र तो पकड़ा दिया गया। यह एक कैसी विचित्र बात है कि देश के समग्र विकास की डफली बजाने वालों को कभी भी भाषा -नीति बनाने की चिंता ही नहीं सताई। यदि सरकारी पहलकदमी पर नजर डालें तो हमारे पास 1963 की राजभाषा अधिनियम ही है जिसमें सच पूछा जाए तो न केवल हिन्दी के साथ बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी गंदा मजाक सा ही किया गया है। लेकिन इस सच और अतीतीय यथार्थ को हम नहीं बदल सकते। हां हम जो कर सकते हैं वह यही हो सकता है कि अभी भी हमारे पास समय है यदि हम चाहते हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को बचा लें तो उसके लिए सरकारी के साथ ही हमारी सांस्थानिक और व्यक्तिगत प्रयास भी अपेक्षित है।
किसी भी देश की सरकारी कामकाज की भाषा कौन सी हो यह उस देश की भाषायी अस्मिता की ओर इशारा करता है। जिस भाषा में देश की सरकारी महकमा कर करती है उस भाषा की सत्तायी ताकत और मान का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितंबर 1949 को स्वीकार किया गया। यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि इसके बाद संविधान में राजभाषा के संबंध में धारा 343 से 352 तक की व्यवस्था की गई। धारा 343 ‘1’ के अनुसार भारतीय संघ कह राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी होगी। साथ ही यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्टीय स्वरूप यानी 1,2,3 आदि होगा। यहां यह भी जानते ही चलें कि संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। इस सकता है को विशेष संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। किन प्रयोजनों के लिए हिन्दी का प्रयोग किया जाना है, किन के हिन्दी हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग आवश्यक है और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है? यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अंतर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृहमंत्रालय की ओर जारी किए गए निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 343 में जिसका प्रावधान किया गया है उसके पीछे की मनःस्थिति को समझने की अवश्यकता है। खंड़ 1 में कहा गया है कि इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।
राजभाषा अधिनियम 1963 पर राजनीतिक धड़ों में काफी हंगामा हुआ। विद्वानों और सांसदों के विरोध को देखे हुए इस अधिनियम में संशोधन किया गया जो 1967 में हमारे सामने आया। वास्तव में यह अधिनियम हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पक्ष को झिझला करने वाला था। इसमें कई धाराएं और उपधाराओं में एक खास मानसिकता को बहाया गया। एक धारा 3 की उपधारा 5 के क्या मायने है वो आपके सामने नजीर पेश करना चाहता हूं- ‘‘अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिण् जते और जब तक पूर्वाेक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के प्श्चात् ऐसी समाप्ति के लिए संसद हर सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं किया जाता।’’ यदि हमें इन पंक्तियों और शब्दों के बीच के पर्दं करे उठाया जाए तो वह छवि कुछ इस तरह की उभर सकती है कि अधिनियम अंग्रेजी को सदा के लिए राजकाज की भाषा बनाए रखने का निर्णय प्रस्तुत करता है। यहां जिस तरह से कहा गया है उससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि अंग्रेजी केवल तभी छोड़ी जाएगी जब हरेक राज्य की विधान सभ्ज्ञा उसे छोड़ने का संकल्प ले लेगी। इस बात का कोई महत्व नहीं है कि हिन्दी के पक्ष में कितने राज्य हैं। यहां अहम यह हो जाता है कि अंग्रेजी के पक्ष में एक भी राज्य हो तो अंग्रेजी चलती ही रहेगी। ख़ास बात यह भी है कि बेशक हिन्दी चले या अन्य भारतीय भाषाएं हाशिए पर बिलबिलाती रहें। ध्यान देने की बात यह भी है कि लोकतंत्र में यह उम्मीद रखना ही व्यर्थ है कि समाज और देश में किसी मुद्दे को लेकर पूर्ण मतैक्य हो। यह कल्पना ही अजीब लगती है कि हम यह आशा लगाए बैठे हैं कि हरेक राज्य अंग्रेजी के उपर हिन्छी को वरीयता मुहैया करा देंगे। जबकि सूक्ष्मता से देखा जाए तो त्रिभाषा सूत्र जो कि केंद्रीय सरकार की समिति की स्थापना और सिफारिफ थी, को ही कुछ राज्यों ने अपनाने से इंकार कर दिया। दुखद बात है कि आज भी उन राज्यों का बर्ताव हिन्दी के प्रति वही है। ऐसी स्थिति मेें कैसे सोचा जा सकता है कि सभी राज्य अंग्रेजी छोड़ने को तैयार होंगे। 

संसदीय समिति की रिपोर्ट पर संसद में बहस हुइ।फ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा आश्वासन किया गया कि अंग्रेजी को सह-भाषा के रूप में प्रयोग में लाए जाने हेतु व्यावधान उत्पन्न नहीं किया जाएगा और न ही इसके लिए कोई समय-सीमा ही निर्धारित की जाएगी। भारत की सभी भाषाएं एमान रूप से आदरणीय हैं और ये हमारी राष्टभाषाएं हैं। गौरतलब है कि अनुच्छेद 343 ‘3’ के प्रावधान व श्री जवाहर लाल नेहरू के आश्वासन को ध्यान में रखते हुए राजभाषा अधिनियम बनाया गया। इसके अनुसार हिन्दी संघ की राजभाषा व अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग में लाई गई। यदि हम इनकी भाषा और शब्दों में गौर करें तो एक बात स्पष्ट नजर आती है कि हिन्दी की स्वतंत्र सत्ता को बड़ी ही होशियारी कमतर की गई। अंग्रेजी को साथ साथ साझा सत्ता प्रदान करने की कोशिश की गई। माना जाता है कि राजभाषा अधिनियम एक तरह से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ एक छल था। क्योंकि इस अधिनियम को शब्द दर शब्द पढ़ें तो सरकार की मनसा साफ क्या थी वह नजर आती है। लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों की राजकाज की भाषा हिन्दी के साथ ही साथ अंग्रेजी को भी रखी गई। हिन्दी को अनुवाद का दर्जा दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायपालिका, कार्यपालिका की भाषा मूलतः हिन्दी नहीं रखी गई। बल्कि मूल आदेश, निर्देश अंग्रेजी में लिखे गए और उनका आवश्यकतानुसार हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का प्रावधान किया गया।
यदि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं जितनी हानि राजभाषा अधिनियम से हुई उतनी शायद हिन्दी साहित्य के इतिहास में कहीं नहीं मिलता। दरअसल हिन्दी को अनुवाद और अंग्रेजी के कंधे पर बैठाकर सब्जबाग दिखाने की कोशिश राजनीतिज्ञों की ओर हुई। इसी का परिणाम है कि इस अधिनियम में वर्णित हिन्दी के विकास और संवर्धन के लिए सरकारी प्रयास जारी रहेंगे। साथ ही हिन्दी में सरकारी स्तर पर काम हो इसके लिए हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशाला और प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना भी की गई। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि उन संस्थानों में किस प्रतिबद्धता और उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रशिक्षण दिए जाते हैं। दूसरी बात यह कि उन सरकारी हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशालाओं में किस किस्म के और कितनी शिद्दत से सीखने की लालसा प्रतिभागी आ पाते हैं। यह विचारणीय सवाल है कि उन प्रशिक्षण कार्यशालाओं की कार्य योजना और उद्देश्यों की डिजाइनिंग पर काम होता है। क्या प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम बनाते वक्त प्रतिभागियों की आवश्यकताओं का विश्लेषणादि भी होता है या एकतरफा पाठ्यक्रम निर्माण कर सीधे सीधे प्रशिक्षण कक्ष में उतार दिया जाता है। अमूमन यह देखा गया है कि इस तरह के कार्यशालाओं में विषय विशेषज्ञों के चयन भी बहुत गंभीरता से नहीं किया जाता। दोनों ही पक्ष इस मनोदशा से आते हैं कि इन्हें आने के पैसे मिल रहे हैं और हमें यहां आकर सुन लेने भर के। उनका ध्यान और उद्देश्य इस बात की ओर अव्वल तो जाता ही नहीं है कि कार्यशाला का उद्देश्य क्या है और किस तरह से पाठ्यक्रम को बनाया गया है। क्योंकि सरकारी आदेश पालक होते हैं इस तरह के कार्यशालाओं में तो वे उसी मानसिकता से आते हैं। एक और मुख्य मुद्दा यह भी है कि जिन्हें कार्यशाला में प्रशिक्षण दिया गया क्या कोई ऐसी प्रक्रिया होती है जिससे यह जांचा जा सके कि जो इन्हें दिया गया उसका कितना भाग उन तक पहुंच पाया? दूसरा जिन्हें हमने प्रशिक्षण कार्यशाला में बुलाया क्या उन्हें दुबारा बुला कर यह देखने की कोशिश व योजना बनाते हैं कि उन्हें व्यवहारिक स्तर पर अमल में लाने में परेशानी हो रही है तो किस स्तर की। किसी भी प्रशिक्षण कार्यशाला की सफलता की बुनियाद दो बातों पर खासे निर्भर होती है। पहला, क्या हमने प्रतिभागियों की आवश्यकता विश्लेषण किया कि उन्हें किस चीज की और किस स्तर की ज्ञान व समझ देना है। दूसरा जो हिन्दी की समझ व ज्ञान देने का प्रयास कार्यशाला में किया गया उसका फाॅलोअप करने की रणनीति व योजना है या नहीं? इन दोनों ही स्तरों पर सरकारी हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशालाएं अमूमन असफल साबित होती हैं।
हिन्दी की राह में तकनीक रोड़े
आज की तारीख में हिन्दी को सबसे बड़ी और धारदार चुनौती किसी से मिल रही है तो वह है तकनीक। हिन्दी और हिन्दी को बरतने वालों के आगे तकनीक कई बार ऐसी स्थिति पैदा कर देती है कि हम समय के साथ चल पाने में खुद को पीछे पाते हैं। दूसरे शब्दों में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में 2000 और 2005 के आस पास हिन्दी विभाग से लेकर तमाम विभागों में सूचना तकनीक से लैस करने के लिए डेस्क टाॅप मुहैया कराए गए थे। लेकिन अफसोस की बात है कि कई विश्वविद्यालयों के विभागों मंे वे ज्यों के त्यों रखे रहे, क्योंकि उसका इस्तमाल कैसे किया जाए इसकी कमी थी। दूसरी स्थिति यह रही कि जो पुरानी पीढ़ी के हिन्दी के विद्वान हैं उन्हें आज की आधुनिक तकनीक इस्तमाल करने में खासे परेशानी होती है। हिन्दी की इसी दुनिया में एक बड़ा वर्ग अभी है जो कागज-कलम से आगे नहीं निकल पाया है। वेब मैग्जीन, जर्नल्स, पत्रिकाओं ई-पत्रिकाओं की दुनिया में भी हम आज मुद्रित दुनिया में ही सांस लेना चाहते हैं। ऐसे में हिन्दी और हमारी पहंुच सीमित पाठकों तक होगी। जबकि हिन्दी को वैश्विक पटल पर लाना है तो एक माध्यम तकनीक भी है जिसके मार्फत हिन्दी को पलक झपकते ही एक कोने से दूसरे कोने तक प्रसारित कर सकते हैं। यदि ठहर कर विमर्श करेें तो तकनीक ने एक ओर प्रकाशकों की एकछत्र राज्य को तोड़ा है। प्रकाशन की दुनिया में सत्ता का विकें्रदीकरण हुआ है। यह अलग बात है कि इससे कहीं न कहीं प्रकाशित सामग्री की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। क्योंकि समुचित संपादन हीनता की स्थिति में प्रकाशित रचनाओं में संपादन से लेकर कई स्तरों पर खामियां रह जाती हैं। हिन्दी को वैश्विक बनाने में कई युवा पीढ़ी तो तकनीक में विधा में दक्ष हैं वे हिन्दी को सूचना प्रौद्योगिकी के साथ तालमेल बैठाने कीे कोशिश कर रहे हैं। यू ट्यूब से लेकर अन्स वेब साइट्स हैं जो हिन्दी में पर्याप्त गुणवत्तापूर्ण सामग्रियों को न केवल पाठकों के सामने परोस रहे हैं बल्कि पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाओं को एक स्थान पर संरक्षित कर रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहध् ीजजचरूध्ध्ेूंतहअपइींण्पदध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्ीपदकपेंउंलण्बवउध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्ीपदकपेंीपजलंण्वतहध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्रंदातपजपचंजतपांण्बवउध्ीजजचरूध्ध्ूूूण्हंतइींदंसण्बवउध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्रंदापचनसण्बवउध्
यहां न तो सूची उपलब्ध कराना मक्सद और न ही किसी साइट का प्रचार करनाहै। बल्कि एक झलक प्रस्तुत करना है कि इन साइटों पर काफी अच्छी और रोचक सामग्री जो मिलती हैं वो कहीं न कहीं हिन्दी को बढ़ाने और संरक्षित करने में जुटी हुई हैं। इन साइटों के अलावे कई प्रसिद्ध ब्लाॅग हैं जो प्रकारांतर से हिन्दी और भाषा के संवर्धन में अपना सकारात्मक सहयोग दे रही हैं। इन ब्लाॅग्र्स में न केवल पत्रकार, कवि, लेखक, कलाकार शामिल हैं बल्कि एक आम सचेत पाठक भी काफी अच्छी सामग्री हिन्दी में हिन्दी के विकास में प्रदान कर रही हैं। आज कई रोज़ाना अख़बार किसी ने किसी के ब्लाॅग से सामग्री चुन कर अपने अख़बार में छापते हैं जिसके लिए वे लेखक को भुगतान भी करते हैं। यानी कहीं न कहीं तकनीक ने लिखी हुई सामग्री को वैश्विक बनाने में अपना योगदान दे रही है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हमें तकनीक के साथ मिल कर हिन्दी को आगे लेकर जाना है।
मीडिया के आंगन में हिन्दी
मीडिया की हिन्दी व मीडिया में किस तरह की हिन्दी बरती जा रही है इस पर विचार अपेक्षित है क्योंकि इसके आंगन में जैसी हिन्दी उठती बैठती है उसका असर आस-पड़ोस में भी दिखाई देता है। यानी वह हिन्दी न केवल अकादमिक बहसों में जगह लेने लगती हैं बल्कि बोलचाल में तो अपनाई जा चुकी होती है। मीडिया यानी श्रव्य-दृश्य दोनों ही माध्यमों की हिन्दी को देखना रखना होगा। किन्तु यहां विस्तार में जाना विषयांतर होगा इसलिए हम यहां रेडियो, न्यूज चैनल, अखबार और पत्रिकाओं पर चलते चलते विमर्श करेंगे। एक ओर हमारे पास मिडियम वेब पर प्रसारित होने वाले समाचार हुआ करते थे जिसे सुनने के लिए गांव-घर में लोग पौने आठ का इंतजार किया करते थे। समाचार वाचक की भाषा और उसका उच्चारण मानक माना जाता था। युवा पीढ़ी को कहा जाता था कि हिन्दी सीखनी हो तो समाचार चुना करों काफी हद तक अभी भी आकाशवाणी के समाचार प्रभाग इस स्तर को बनाए हुए हैं। वहीं बीबीसी, में कभी आंेकारेश्वर पांडे से समाचार सुनिए आवाज को आंख बंद कर भी पहचान लिया करते थे। लेकिन रेडियो की भाषा और हिन्दी के स्तर में गिरावट तब दर्ज की जाने लगी जब निजी चैनलों की बाढ़ सी आ गई। उनके यहां हिन्दी को छौंक के तौर पर इस्तमाल किया जाता है। हर वाक्य में दो तीन शब्द हिन्दी के और बाकी अंग्रेजी के शब्द हुआ करते हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी यदि हिन्दी सुननी भी चाहे तो कहां सुने। क्योंकि रेडियो माने एफएम हो चुका है। आज की तारीख में अमूमन आकाशवाणी के कार्यक्रम शहरों में बहुत कम ही सुने जाते हैं। इस अवसर का लाभ उठाते हुए निजी रेडियो चैनल पर खुलआम हिन्दी की परते उतारी जा रही हैं। जिस तरह के हिन्दी के व स्थानीय बोलियों का इस्तमाल किया जाता है उसे सुन कर महसूस होता है यह किस रूप में ढली हिन्दी का संकेत है। यही स्थिति दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले समाचार के बारे में कही जा सकती है। दूरदर्शन के समाचार प्रस्तोता की भाषा और हिन्दी की समझ के साथ ही भाषायी मानकता को भी तवज्जो दिया जाता था। ठीक यही हाल निजी न्यूज चैनलों में कुछ समाचार प्रस्तोता की छोड़ दें तो बाकी न्यूज चैनज की हिन्दी बड़ी ही झिझली हो चुकी है। समाचार प्रस्तोता या संवाददाता जब ग्रहमंत्री बोलता है, प्रस्तोता बोलता और टीकर पर स्त्रोत स्रोत के स्थान पर लिखता और बोलता है तो माथा डनक जाता है। यह तो न्यूज चैनल की बात हुई। जब हम अखबारों की बात करते हैं तो यहां तो कूप में ही भंग पड़ौं हैं। हिन्दी का एक ऐसा अखबार है जिसे राजेंद्र माथुर, एम पी सिंह, दीनानाथ मिश्र, राजकिशोर विद्या निवास मिश्र जैसे संपादकों और लेखकों का संसर्ग मिला लेकिन आज उसकी हिन्दी देख कर रोना ही आता है। क्योंकि जिसका मासहेड तक अंग्रेजी हो चुकी है। इस अखबार की कोई भी खबर की हेडिंग में दो तीन शब्द हिन्दी की होती वह भी सहायक क्रिया व कर्म के रूप में बाकी अंग्रेजी के शीर्षक होते हैं। कहा जाता है कि जितनी हानि अखबारों में हिन्दी की हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा इस अखबार का है। यह एक अलग अखबार नहीं है बल्कि आज की तारीख में सहज और सरल हिन्दी आम फहम की हिन्दी का तर्क देकर और भी अखबार इसी राह पर चल रहे हैं। हालांकि शुद्धतावादी दृष्टिकोण एक जगह है और मिश्रित भाषा का विकास दूसरी बात है। लेकिन शुद्धता के नाम पर कहीं हम ऐसी हिन्दी का निजात तो नहीं करना चाहते जो सिर्फ किताबों और विद्वानों की भाषा हुआ करती है। यदि वैसी हिन्दी विकसित करना चाहते हैं तो वह एक सीमित वर्ग की पसंदीदा तो हो सकती है वह एक बड़े जनसमूह की भाषा नहीं हो सकती।
स्कूल में हिन्दी की टकराहट
स्कूलों में बच्चों की हिन्दी जिस तरह से सीखाई जा रही है उसे देख-पढ़कर घोर निराशा ही होती है क्योंकि यहां पर सिर्फ पाठ्यपुस्तकों को पूरा कराने पर ज्यादा जोर होता है। जैसे तैसे आठवीं तक बच्चे हिन्दी पढ़ते हैं लेकिन आंठवीं में उन्हें विकल्प दे दिया जाता है कि चाहे तो विदेशी भाषा ले सकते हैं। बस यहीं पर एक भूल करते हैं। बच्चे अभिभावकों की चाह को पूरा करने के पीछे विदेशी भाषा चुनते हैं और हिन्दी पीेछे रह जाती हैं। स्कूल की हिन्दी बस खानापूर्ति से ज्यादा नहीं लगती। इन पंक्तियों के लेख को कम से कम 200 स्कूलों में भाषा-शिक्षण निरीक्षण और मूल्यांकन के साथ ही जहां हिन्दी शिक्षण की स्थिति को करीब सो देखने समझने का अवसर मिला। स्वयं हिन्दी के शिक्षकों/शिक्षिकाओं की लेखन, वाचन के स्तर पर वर्तनी के लेकर उच्चारण तक की खामियां देखने को मिलीं। हिन्दी की बारीक बुनावट को लेकर खुद शिक्षकों की भ्रांतियां बरकरार थीं। यदि तटस्थ हो कर देखें तो उसमें उन शिक्षकों की कमी ज्यादा नहीं थी। बल्कि वे संस्थाएं, शिक्षक ज्यादा दोषी हैं जिनके कंधों पर हिन्दी शिक्षण का कार्य सौंपा गया था। एक बच्चा प्राथमिक कक्षा में जिस तरह की भाषायी कमजोरियों को लेकर आगे की कक्षाओं में जाता है वह उसकी जिंदगी भर की कामई होती है। लेकिन इन कमियों को दूर भी किया जा सकता है यदि हमारी इच्छा और आवश्यकता हो। जब हिन्दी को आठवीं कक्षा में ही विकल्प के तौर पर पेश किया जाता है तो काॅलेज के स्तर तक आते आते वे बच्चे हिन्दी की पूरी तरह से कट चुके होते हैं। यही वजह है कि काॅलेज और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में खासे गिरावट दर्ज की गई है। ख़बर तो पटना विश्वविद्यालय से यह भी आई कि हिन्दी विभाग में महज पांच बच्चों को दाखिला हुआ। यह स्थिति केवल पटना विश्वविद्यालय की ही नहीं है बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसी के आस पास ठहरता है। सवाल यह है कि हम बच्चों और अभिभावकों को संतुष्ट नहीं कर पाते कि बच्चा हिन्दी आॅनर्स पढ़ने व एम ए करने के बाद किस क्षेत्र व व्यवसाय को चुनेगा। प्राथमिक स्तर पर जिस शिद्दत से हिन्दी पढ़ाई जानी चाहिए वह अभी नहीं हो पा रही है। हिन्दी शिक्षण और प्रशिक्षण को नजदअंदाज नहीं किया जा सकता। क्यांेकि कक्षा-कक्षा तक वही हिन्दी उसी रूप में तभी पहुंच सकती है जब शिक्षक स्वयं इस कला में दक्ष हो।
लब्बोलुआब
हिन्दी को सबसे ज्यादा जिससे से टकराना है वह स्वयं हिन्दी जगत है। हिन्दी की टकराहट हिन्दी वालों और हिन्दी की अपनी प्रकृति है। अतीत से टकराती हिन्दी को एक और बड़े पहाड़ से भी टकराना पड़ रहा है वह है तकनीक। आज की तारीख में तकनीक का सहारा लेकर यदि हिन्दी आगे बढ़ती है तो आगामी यात्रा सहज और सरल हो सकती है। लेकिन यह भी बड़ा मौजू है कि क्या हिन्दी वाले इसे कितनी उदारता से इसे स्वीकार करते हैं। हिन्दी का जो अतीत है वह तो है ही उसे बदलना जरा मुश्किल है लेकिन राजभाषा अधिनियम 1963 के बरक्स जब हम हिन्दी के विकास को देखने की कोशिश करते हैं तब यह अधिनियम एक बड़ो रोड़े की तरह नजर आता है। यदि वास्तव में हिन्दी को सवंर्धित करना चाहते हैं तो हमें जमीनी हकीकत को समझते हुए मुकम्मल रणनीति बनानी पड़ेगी तभी हिन्दी का विकास संभव है। इसके साथ ही हिन्दी को बाजार की मांग के अनुसार अपनी प्रकृति और बुनावट में भी बदलाव करने पड़ेंगे तभी आज की युवा पीढ़ी इसे पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उत्साही होगी।



शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...