Tuesday, October 31, 2017

इंदिरा गईं मगर लोगों के घर भर गए



कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1984। स्थान हरिद्वार। अक्टूबर का महीना। एकतीस तारीख। सच में इतिहास में दर्ज हो गया। इंदिरा गांधी की हत्या इसी तारीख को हुई थी। उसके बाद का मंजर सभी को मालूम है।
पूरे देश भर में लूटपाट, आगजनी, हत्या का खेल बड़े पैमाने में खेला गया। तब मैं शायद कक्षा पांचवीं में पढ़ा करता था।
हरिद्वार के गुरुद्वारे से सिखों को खींच खींच कर बाहर निकाल कर जलाएं जा रहे थे। जो भी हाथ लगता उसकी गर्दन में टायर डाल कर जलाया जा रहा था।
गंगा में सिखों की दुकानें लूट और जला कर सामान फेंके जा रहे थे। यह सारी लूट पाट मेरी भी आंखों के सामने घट रही थी।
रेलगाड़ियां सिखों की लाशों से पटी हुई थीं। दुकानें तो ऐसे लूटी जा रही थीं गोया उन्हीं ने इंदिरा जी की हत्या की हो।
मगर एकबात तो साबित हुआ कि इंदिरा जी की हत्या से ज्यादा लोगों ने अपनी घरें सामनों से भर लीं। क्या टीवी क्या फ्रीज घरों में सामान रखनी की जगह कम पड़ गई। बच्चा तो बच्चा बुढ़े भी घर भरने में लगे थे।

Monday, October 30, 2017

पापा टीचर ही तो हैं!!!


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा मूल्यांकन समाज बाद में करता है पहले हमारे बच्चे ही मूल्यांकन करते हैं। शिक्षा उन्हें तर्क करना,मूल्यांकन करने, चिंतन करने के योग्य बनाती है तो हमें उनके मूल्यांकन के लिए मानसिकतौर पर तैयार भी होना होगा। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि उनके मूल्यांकन के स्तर और सूचक क्या थे। उन्होंने अपने मूल्यांकन में किन बिंदुओं और मान्यताओं को तवज्जो दिया। कहीं बाजार द्वारा स्थापित मूल्यबोध उनके चिंतन शक्ति को तो तय नहीं कर रहा है? यह भी समझने की आवश्यकता है।
क्या टीचर प्रोफेशन इतनी निष्क्रियता भरी और हेय है कि जिनकी कमाई पर बच्चे पले बड़े हुए, अब तक शिक्षा हासिल की उन्हें अपने पिता की कमियों, नाकामियों, जीवन में असफल कहने की हिम्मत देती है। यदि ऐसी ही शिक्षा हमारे बच्चे पा रहे हैं तो हमें अपनी शैक्षिक उद्देश्यों, प्रारूपों पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि शिक्षक के बच्चे स्वयं अपने पिता या मां को शिक्षक के रूप स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो यह बड़ी िंचंता की बात है। जब अपने ही बच्चों की नजर में टीचर असफल व्यक्ति के तौर पर देखा और कहा जा रहा है तो वह इस प्रोफेशन में आने की तो सोच भी नहीं सकता।
एक शिक्षक क्यां और किन परिस्थितियों में शिक्षण प्रोफेशन में आया इसकी तहकीकात बच्चे नहीं करते। बच्चे बन चुके शिक्षक पिता को देखते हैं। वे यह नहीं देखते कि शिक्षण प्रोफेशन में आने से पूर्व उनके पिता सिविल सेवा परीक्षा में मेन्य तक पहुंच चुके थे। घर के दबाव, जल्दी नौकरी करने के पारिवारिक दबाव की वजह से अपने सपने को पीछे छोड़ अध्यापन को चुनता है। बच्चे उन दबावों को न तो समझना चाहते हैं और न ही उन्हें उससे कोई वास्ता होता है।
सच बात तो यह है कि आज हमारे बच्चे अपने भविष्य की शिक्षा और जीवन के लिए या तो बहुत ज्यादा सचेत हैं या फिर औरों के कंधे पर सवार। उन्हें मालूम ही नहीं है कि उन्हें किस क्षेत्र में जाना है। किस क्षेत्र में वे जा सकते हैं। एक अंधकार की स्थिति उनके सामने हमेशा बनी रहती है। यदि अभिभावक उन्हें रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें वे बातें नसीहतें और उपदेश लगा करती हैं। कई बार तो साफ कह देते हैं अपनी कहानी रहने ही दो। तब की बात है। आपके समय में सुविधाएं नहीं थीं तो उसमें हमारा क्या कसूर। आपने अपना जीवन जी लिया। हमें तो हमारी जिंदगी अपने तरीके से जीने दो। दरअसल आज के बच्चों ने अपने स्वास्थ्य को जिस कदर ख़राब किया है उसके देखते हुए कई बार महसूस होता है कि उन्हें स्वयं को आकर्षण रखने में दिलचस्पी ही नहीं रही। उनकी इस हालात में लाने में बाजार ने बड़ी गंभीर भूमिका निभाई है। फास्ट फूड, पैकेट फूड ने तो ताजा सब्जियों, फलों और खानों को हाशिए पर धकेला दिया है।

Friday, October 27, 2017

सबके पास एक कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
साहब वे बड़़े ही ग़जब के इंसान थे। हंसते तो ऐसे थे गोया पूरा आसमान उन्हीं का है। और तो और ऐसे भी रहे हांगे वे पल जब हम रोत पूरी रात आंखों में ही काट दिया करते थे। और अब यह आलम है कि घर आने के बाद दस बजते बजते कुर्सी पर ही लुढ़क जाते हैं। कहानियां होती ही दिलचस्प हैं। वह चाहे किसी की भी क्यों न हो। किसी भी देश,समाज, व्यक्ति की हो कहानी में रस, संवाद, पात्रों की बतकही पढ़ने-सुनने वाले को बंधे रखती है।
लेकिन एक कहानी हम सबके पास होती है। बल्कि एक से ज्यादा कहानियां जीवन में होती हैं जिसे हम किसी से भी साझा नहीं करते। उस कहानी रचैता हमीं होती हैं। हमारी आदतें, बातें, घटनाएं उस कहानी को बुनती हैं। लेकिन उसे कहानी को किसी से कहने से डरते हैं। शर्माते हैं। शर्माते क्यों हैं? क्यांकि लगता है कहीं हमारी हककीत न पकड़ी जाए।
यही वे डर है कि हम अपनी कहानी को कई बार खुद से भी साझा नहीं करते। दूसरे की बात तो दूर की रही। शायद वे कहानियां हमारे स्वयं की गिरावट की होती है। शर्मिंदगी वाली होती है। या फिर न चाहते हुए कोई घटना घट गई जिसका हिस्सा होना एक संयोग रहा हो।
कहते हैं दोस्त, भाई, पत्नी अच्छे साथी होते हैं। लेकिन फिर क्या वजह है कि हम उनसे भी अपनी कहानी सुनने से बचते हैं। कोई तो वजह होती होगी जो हमें कहानी कहने से रेकती है।। हमें अपने अंदर की दुनिया में झांकना होगा कि वे कहानियों क्योंकर साझा करने से बचते हैं
वैसे कहा जाता है कि कहानी, अपनी बात बांट लेनी चाहिए इससे मन हल्का होता हैं। फिर क्या कारण है कि हम अपना मन हल्का नहीं करना चाहते।

Thursday, October 26, 2017

स्थानीय पर्व का राष्टीय हो जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
जल्दी जल्दी उग न सूरज देव भइले अरग के बेर...
छठ पर्व वास्तव में बिहार और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता रहा है। आज से बीस साल पीछे मुड़कर देखें तो दिल्ली वेथ्ट उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट आदि में छठ पर्व कम ही लोग करते थे।
ख़ुद दिल्ली में 1994 से 2000 तक छठ पर्व करने वालों को फटी नजरों से देखा करते थे। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल उलट है। पूरा बाजार और सरकार इस पर्व को मना रही है। इसमें मीडिया की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। क्या हिन्दी और क्या अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार सभी इस पर्व को प्रमुखता से कवर कर रहे हैं। द हिन्दू, टाइम्स आफ इंडिया, आदि ने भी इस पर्व को हप्ते दिन पहले से कवर और फालो अप स्टोरी कर रहे हैं।
स्रकारी नीतियों में भी बदलाव देखे गए। इस पर्व पर छुट्टी की घोषणा बताती है कि इसके पीछे वोट बैंक काम कर रहा है।
लोकजन के पर्व छठ को देश के अन्य राज्यों में पहुंचाने में विस्थापित लोगों का भी बड़ा हाथ है। जैसे जैसे लोग राज्यों से विस्थापित होते गए वैसे वैसे यह पर्व भी उन उन राज्यों में मनाया जाने लगा।

Wednesday, October 25, 2017

पिताजी का अकेलापन




कौशलेंद्र प्रपन्न
जब कभी उन्हें देखता हूं  कि वो अकेले में क्या सोचते होंगे? क्या उन्हें अपने बच्चो की चिंता सताती होगी या उन्हें अपने छोटे भाई, छोटी बहनें याद आती होंगी?
पिताजी दो भाई और दो बहनें के परिवार से आते हैं। मेरी ही आंखों के सामने चाचा, बुआ सब एक एक कर चले गए। फूफा भी चले गए। उनके बच्चे हैं लेकिन उनसे बीस साल से भी ज्यादा समय बह चुका मुलाकात नहीं है। सब अपनी अपनी दुनिया में हैं।
पिताजी रह गए निपट अकेले। हालांकि इनके बच्चे हैं। नाती पोते, बहु,दामाद सभी हैं। लेकिन फिर क्या कारण है कि उनकी कविताओं में एक अकेलापन, एक कमी के भाव मिलते हैं। जैसे महादेवी वर्मा की कविताओं मे एक अप्रत्यक्ष की प्रतीक्षा और पुकार साफ सुनाई देती है वैसी ही कोई आवाज मुझे पिताजी की कविताओं में सुनाई देती है। ‘‘जीवन के इस मेले में मैंने अपने सारे सौदे बेचे/ मान-प्रतिष्ठा के सारे सौदे बेचे। बच रहा एक सौद जिसे बेचने आया हूं। आंसू का मोल नहींं होता।’’
‘‘मांगते हो तुम विदा पर दें विदा कैसे तुझे हम? नेह कैसे भूल जाएं बस यही केवल सीखाना’’ ये कुछ पंक्तियां हैं जो पिताजी की दुनिया की परतें खोलती हैं। कविताएं शायद कई अनकही बातें, टीस को बयां कर देने में मददगार साबित होती हैं। कई बार देखता हूं कि पिताजी की कविताओं में कई जगह अकेलापन मिलता है। लेकिन उसकी वजहें समझ नहीं पाता।
एक दफ्ा उन्हांने कहा अच्छा तो काशी बाबू भी चले गए? उस वाक्य में कहीं एक गहरी टीस या अकेलेपन का एहसास सुनाई दिया। वैसे ही सोचता हूं कि जब पिछले साल चाचा गुजरे तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? या फिर छोटी बहन के जाने के बाद उन्हें कैसे लगा होगा। अकसर पिताजी मौन में बैठा करते हैं। यह उनकी आदत में छुटपन से देख रहा हूं। आज भी दो से तीन घंटे मौन में बैठते हैं। उस मौन में किसे याद करते होंगे? कौन उनके ध्यान में आता होगा?
कुछ जिज्ञासाएं हैं जो इन दिनों काफी मुखर हैं।

Monday, October 23, 2017

हम विस्थापितों की कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी बहुत पुरानी और दिलचस्प है। दिलचस्प इस तरह से कि हमारे पुरखे वर्षों पहले अपने गांव, जेवार छोड़कर कहीं और रोजी रोटी के लिए बसते चले गए। और हम इस तरह से वैश्विक नागरिक बनते चले गए। हमारी वैश्विकता तब अखरने लगती है जब आपके साथ अपनी भाषा और संस्कृति के साथ मजाक करता है। यह मजाक खूब होता है। बल्कि कई बार आपके अपने भी करते हैं।
देश के बाहर बसे हमारे दोस्त, संगी जन जब भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं तो वे इस आशा से देखते हैं कि उनके पुरखे जिस भारत से गए थे वहां क्या बचा है। उन्हें क्या ऐसा मिल जाए जो वे अपने बच्चों को दे पाएं।
सूरीनाम, हॉलैंड, मॉरीशस, फीजी, अफ्गानिस्तान, कतर आदि में बसे भारतीय व विस्थापित मजदूरों की कहानी भी बड़ी अजीब है। जब कभी कोई पर्व त्योहार का मौसम आता है तब वे वहां भारत की याद में रात गुजार देते हैं। साल में छह माह या दो साल पर भारत लौटते वक्त वे अपने परिवार के लिए सामान की खरीदारी नहीं करते बल्कि अपने वहां होने और आधुनिक होने के प्रमाण गोया बटोर रहे होते हैं। ताकि वे और उनके बच्चे यह बता सकें कि फलां के अब्बू, फलां के भाई बाहर रहते हैं। चंद पैसों में बसर करने वाले भारतीय जब भारत लौट रहे होते हैं तब उनके बैग भरे होते हैं वहां के दोयमदर्ज के सामानों से।
विस्थापन में भाषा भी तो साल दस साल में बदल जाती है। धीरे धीरे अपनी भाषा की तमीज़ से दूर होने लगते हैं। जहां जिस भाषा में रोटी मिलती है वे उसी भाषा में जीने लगते हैं। विस्थापन में देश दुनिया, भाषा, जीवन दर्शन सब कुछ ही विस्थापित हो जाता है। रह जाती है तो बस भदेसपन, अपने यहां की बची खुची कुछ एहसास जो सिर्फ आपकी अपनी होती है।

Friday, October 13, 2017

घर ही था वो


घर ही था वो जो संवारा करते थे,
अब वो कबाड़ हो गए,
कुर्सियां लकड़ी की चुन कर बनी थीं,
लायी गयी थी घर में,
बैठकर पिताजी ने पढ़ाया था,
मिल्टन,कालिदास और कबीर,
अब वो कुर्सी कहां गई।
कभी घरों में रहा करते थे,
चार छह लोग,
बायन भी बंटा करता
खटिए पर,
जैसे जैसे भईया बड़ी क्लास में जाते गए,
घर खाली होता रहा।
नौकरी में छूट गई
घर की बात,
आंगन के कोने में बने घरौंदे,
कालका रेल,
आती तो है हर रोज,
सुबह तीन पैंतालीस पर,
अब नहीं उतरते,
घर आने वाले।
दीवाली की रात-
पूरी रात रेते हैं कुल देवता,
धूल में सनी घरों की बातें,
ढुलकती पांवों से टकराती हैं
जब कभी वर्षों बाद जाना होता है।
अब तो पडा़ेस भी बदल गए-
कहते हैं आते नहीं हर साल
बच्चों के लिए हो गए बाहरी,
ओलेक्स पर बेचने को देते हैं राय,
कुर्सी बाबुजी की,
सोफे पर नजर है कमल की।

Friday, October 6, 2017

बाज़ार में गुम हम



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों महासेल में खरीदारी करने चला गया। वैसे खरीदना कुछ था लेकिन वहां से 500, 500 के दो कूपन भी जे़ब में मिला। जो खरीदना था उसकी कुल कीमत पंद्रह सौ की थी। लेकिन टहलते टलहते हमने तकरीबन तीन हजार की शॉपिंग कर ली। जब काउंटर पर गए तो साहब ने कहा, ‘‘सर! ये देखिए ऑफर है पांच हजार से ज्यादा की खरीदारी पर पांच सौ और उससे ज्यादा पर एक हजार के कूपन हैं। क्यों इस मौके को हाथ से जाने देते हैं।’’
चेहरे पर ना नुकुर के भाव देख कुछ देर हमारा चेहरा ताकता रहा। फिर कोशिश की कि ‘‘सर यही देखिए! सिर्फ पांच सौ में कहीं नहीं मिलने वाला। ये तो महासेल है तब...’’
अंत में हमने पांच हजार एक सौ की शॉपिंग कर 500 के कूपन साथ लेते आए। जब पूछा कब तक खरीदारी कर सकते हैं? जवाब दिलचस्प था ‘‘ सर जब मर्जी आ जाएं। लेकिन यह अगले हप्ते जब शॉपिंग करेंगे तब उसमें से पांच से सौ कम कर दिए जाएंगे।’’
है न दिलचस्प!!! यानी बिलावजह एक तो पांच हजार की शॉपिंग की उसपर पांच सौ का लाभ उठाने के लिए फिर शॉपिंग के जाल फेक दिए गए।
दरअसल बाजार में हम ऐसे गुम हो जाते हैं कि हमारी तर्कशक्ति कहीं घास चरने चली जाती है। और तो और क्या बच्चे और क्या बुढ़े और क्या जवान सब इस मॉल संस्कृति में डूबे हैं। कई बार आंखें फटी रह जाती हैं जब किसी के हाथ में पांच छह पैंट्स, शर्ट आदि की बिलिंग कराते देखता हूं सवाल खुदी से करता हूं कि क्या साहब के पास एक भी पैंट व शर्ट नहीं हैं? हालांकि जो उन्होंने पहन रखी है वह भी नई से कम नहीं है। फिर यह प्रवृत्ति क्या है?
सेल में गुम हुए हमारे विवेक और तर्क का परिणाम है कि हम घर को गोदाम बना डालते हैं। कई कपड़ों की तो साल में भी एक के बाद दूसरी बारी नहीं आती। फिर वो ऐसे भूला दिए जाते हैं गोया हमारी है ही नहीं। जब नजर पड़ती है तब तक भूगोल उसके काबिल नहीं रहता। मन मसोस कर हाथ से सहला कर दुबारा किसी कोने में ठूंस देते हैं इस आश में कि कभी इसमें समा पाया तो जरूर पहनूंगा।

Thursday, October 5, 2017

रिक्शावाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
शाम हो ही चुकी थी। सर्दी दहलीज पर खड़ी थी। सोच रही थी गरमी जाए तो वो आ धमके। अंधेरा बस सड़क के लैंप पर उतर रहे थे। रिक्शा वाला अपनी लाइन में खड़ा था। अपनी बारी आए तो सवारी लेकर आज की रोटी बना सके। मेटो स्टेशन के आगे रिक्शे वालों की लंबी लाइन लगा करती थी। वो ज्यादा भाग दौड़ नहीं किया करते थे। वैसे जब उनकी बारी आती तो सवारी उनकी उम्र देखकर दूसरे जवान रिक्शेवाले के साथ चले जाते। वो वहीं के वहीं पैंडल पर पैर रखे दुबारा पीछे सरक जाते।
आवाज भी तो नहीं लगाते थे। चुपचाप खडे रहते और सवारी के इंतजार में कई बार सुबह से शाम हो जाती और मुश्किल से चार या पांच सवारी खींच पाते। यानी जो कमाते उसका बड़ा हिस्सा मालिक की जेब में चला जाता।
‘‘राम खेलावन तुम रिक्शा क्यों खींचते हो? तुम से तो देह चलता नहीं सवारी कैसे खींचोगे?’’
‘‘ले पचास रुपए रख लो आटा खरीद लेना और प्याज के साथ रोटी खा लेना।’’
आवाज में थोड़ी हमदर्दी सी आ गई थी। मालिक तो था लेकिन शायद उसके पास इंसानियत अभी पूरी तरह से मरी नहीं थी।
मालिक के पास सौ रिक्शे थे। सब के सब किराए पर चलते थे। हर राज्य के रिक्शेवाले थे उसके पास। क्या एमपी, क्या यूपी और क्या राजस्थान और बिहार इन्हीं लोगों के बीच रहते रहते मालिक को भी इनकी जबान काफी हद तक आ चुकी थी। जिस राज्य का रिक्शावाला होता उससे उसी की जबान में बात करता।
रामखेलावन अकेला हो गया। न आगे नाथ न पीछे पगहा। बस एक लड़की रह गई जो दूसरे गांव ब्याही थी। उसके बच्चे थे। उन्हीं के लिए जी रहा था।
दिल्ली आए रामखेलावन को तकरीबन बीस साल हो चुके थे। पहले पहल जब दिल्ली आया तो रिक्शा नहीं खींचता था। तब वह स्कूल में चपरासी लगा था। वहां से खाने-पीने भर की कमाई हो जाती थी। दो बेटे और एक बेटी थी। पड़ोस में ही स्कूल में पढ़े और बड़े हुए। एक दिन पता चला बड़ा बेटा रेलगाडी के नीचे आ गया। तब तो जैसे इसकी कमर ही टूट गई। पूरा परिवार अनाथ सा हो गया। लेकिन उस दौर में भी रामखेलावन अपने और अपने परिवार को बांधे रखा। कहानी यही नहीं रूकी बल्कि छोटका जब बड़ा हुआ उसे प्रेम हो गया। वह भी दो घर छोड़ कर। एक रात तो लोगों ने जमकर उसकी कुटाई भी की। मगर आदत इश्क की थी सो आगे बढ़ी और दो भाग गए। कहां गए कुछ पता नहीं चला। आज भी कई बार रामखेलावन अकेला होता है तो छोटका को बहुत याद करता है। क्या तेज दिमाग पाया था। तभी उसके ऑटो खरीद ली थी।
जब से नोटबंदी हुई रामखेलावन के तो जैसे दुनिया ही अंधेरे में चली गई। पहले कुछ सवारी कम से कम उम्र की लिहाज कर बैठ जाया करते थे। आस पास रिक्शे से जाने वाली सवारी पैसे बचाने के लिए पैदल ही चलने लगे। मेटो के पास ही खड़ा हुआ करता था। सो कुछ लोगों को मालूम हो चला था कि रामखेलावन पेशेवर रिक्शावाला नहीं है। जब उसे कोई ऐ बाबा या रिक्शा कह कर बुलाता तो बहुत बुरा लगता। इसलिए उसने आपने रिक्शें के आगे हैंडिल पर एक तख्ती टांग रखी थी। उसपर उसका नाम, गांव का नाम और डिग्री लिखा होता। कुछ लोग नाम पढ़कर आवाज लगाते तो उसे बहुत अच्छा लगता। वैसी सवारी से मोल भाव भी नहीं करता। उस सवारी से देश दुनिया, आस पड़ोस सब तरह की बाते करते हुए रिक्शा चलाता।
‘‘बाबू जी आप लोग बड़े बड़े ऑफिस में काम करते हैं। हमरे लिए कोई नौकरी हो तो बताइए।’’ ...लेकिन उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। और रिक्शा चलाने लगा।
आज पूरी रात उसका माथा और देह बुखार में तवे की तरह गरम था। बुखार भी ऐसा कि चलने में घुटने दर्द कर रहे थे। शाम होते होते उसका शरीर खड़े होने लायक भी नहीं रहे। वहीं सड़क के किनारे लेट गया। सवारी उसके आगे से जवान रिक्शेवालों के साथ जाती रहीं।

Wednesday, October 4, 2017

कवियों की मांग और कीमत



कौशलेंद्र प्रपन्न
अजित कुमार जी ने एक संस्मरण में लिखा है कि हरिवंश राय बच्चन जी ने कवि के तौर पर पहली बार कीमत की मांग की। बच्चन जी ने तब कहा था कि जो मुझे टैक्सी और सौ रुपए देगा मैं उसी कवि सम्मेलन में जाउंगा। इसकी आलोचना तब के कवियों ने जम कर की। लेकिन बच्चन जी ने बाजार को समझा और कवियों की कीमत, मांग, मूल्य तय किया।
आज कवियों की मांग और कीमत काफी है। एक कार्यक्रम के लिए कवियों की कीमत 500 से लेकर पांच हजार और पांच लाख तक की है। किसी कार्यक्रम के लिए कवियों की तलाश थी। सोचा क्यों न आज की तारीख में मंच के सिरमौर और ख्यातिप्राप्त कवि को संपर्क किया जाए। सो पीए से बात हुई जब उन्होंने कहा कि क्या बजट है आपका? हमने भी तपाक से पूछ लिया, कितने में बात बनेगी?
जवाब मिला पांच लाख एक कार्यक्रम का है। आपके बजट हैं तो आगे बात करें। हमने फोन मांफी के साथ काट दी। कोई दीवाना कहता है या फिर चार लाइन सब की कीमत आसमान छूने को है। आम आदमी तो कवियों को बुलाने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए मंचीय कवि अब सरकारी और निजी संस्थानों और बाजार की ओर से ही बुलाए जाते हैं। छोटी मोटी गोष्ठियों में इनके दर्शन दुर्लभ हैं।
ऐसे दौर में कुछ कवि तो ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ शाम की दावत पर भी बुला सकते हैं। कुछ को खाने-पीने पर। जैसे कवि वैसे दाम। और तो और ऐसे भी कवि समाज में हैं जो बिन पैसे एक बुलावे पर आ जाते हैं।
एक और कैटेगरी है जो बिन पैसे, बिन समय कविता सुनाने पर उतारू होते हैं। उन्हें बस मौका मिलने की जरूरत है बस शुरू हो जाते हैं। कोई सुन रहा है या मजाक उड़ा रहा है इसकी भी समझ नहीं होती। बस अपने धुन में कविता पाठ करते जाते हैं। ऐसे कवियों से पीछा छुड़ाना कई बार भारी पड़ता है।

Tuesday, October 3, 2017

पढ़ने का कैंपेन



कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबें किस के लिए होती हैं? प्रकाशक के लिए? लेखक के लिए? पाठक के लिए? किस के लिए लेखक लिखता है। यह तय होना जरूर है। निश्चित ही किताबें पाठकों के लिए ही होती हैं। लेकिन किताबों से मुहब्बत पैदा करना भी लेखक का ही का ही काम होता है। यह काम लेखक का कंटेंट कराता है। देवकी नंदन खत्री ने चंद्रकांता लिख कर पाठकों को हिन्दी सीखने पर विवश किया। यह एक लेखक का जादू था। जो अपनी लेखनी के बल पर पाठकों को जन्म दिया।
आज हजारों लाखों किताबें हर साल लिखी और छप रही हैं। लेकिन पाठक कुछ ख़ास किताबों तक ही पहुंच पाते हैं। बाकी किताबें प्रकाशकों की जानकारी में कहीं सांस ले रही होती हैं। लेकिन वे पाठकां से दूर होती हैं।
पिछले दिनो बेस्ट सेलर किताबों और लेखकों की सूची जारी हुई। उसमें कई लोगों को एतराज़ हुआ कि यह कैसे तैयार किया गया। इनमें किन लोगों को शामिल किया गया आदि। इस पर आरोप तो यह भी लगा कि यह सूची बाजार आधारित और बाजार द्वारा तैयार की गई है।
जो हो लेकिन किताबें तो हर साल लिखी और छप रही हैं। लेकिन पाठकों के पसंद की किताबें उनकी पहुंच से काफी दूर हैं। कभी गांधी जी ने कहा था कि हर हाथ को काम हर हाथ को शिक्षा। वैसे ही क्यों न हर हाथ को किताब का कैंपेन चलाया जा सकता है। कम से कम जो किताबें अब आपके काम की नहीं रहीं वो किसी और के हाथ सौंप दी जाए।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...