Thursday, January 27, 2011

रंगों में अकेलापन


कौशलेंद्र
रंगों में अकेलापन

प्रपन्नरंगों में एक अलग ही दुनिया सांस लेती है। हरेक रंग की अपनी भाषा और कहानी होती है। यहां मूक होकर भी रंग वाचाल होते हैं। हम किस रंग को ज्यादा पसंद करते हैं यह भी कहीं न कहीं हमारी अपनी मनोरचनात्मक भूगोल भी बताता है। रंगों से खेलने वाले हाथ चाहे किसी के भी हों वह प्रकारांतर से अपनी ही मनोजगत् को रंगों में उतारते रहते हंै। बच्चों को रंगों से कुछ ज्यादा ही लगाव होता है। इन विविध रंगों में कहीं अचेतन मन में दबी कुचली हमारी ख्वाहिशें सोती रहती हैं। जो सही अवसर और वातावरण पाकर बाहर निकल आते हैं। कुछ ऐसे ही सामाजिकतौर पर उपेक्षित बच्चों जिनकी सुबह और शाम रात और दिन सड़कों पर बीता करती हैं। इन बच्चों की दुनियी किन स्तरों पर आम बच्चों की दुनिया से अलग होती है इसकी झलक इनकी बनाई पेंटिंग में मिलती हैं। छोटी-छोटी अंगुलियों से बनी इन पेंटिंग्स में एक खास रंग और रेखाओं के मायने खुलते जनजर आएंगे। इन्हीं स्तरों को समझने के लिहाज से इनकी बनाई तकरीबन 50 पेंटिंग को चुना। इन पेंटिंग में बच्चों के संसार में आकार लेती स्मृतियां, वस्तुएं अपने खास अर्थ में स्थान लेती हैं। इनके घर, बच्चे, पेड़, जानवर, सूरज आदि के मायने तक अलग होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनकी पेंटिंग्स में कहीं न कहीं खालीपन साफ नजर आता है। यह खालीपन दरअसल इनके परिवेश, समाजीकरण एवं लालन- पालन की ओर इशारा करती हैं। विविध प्रकार के रंगों से रची सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तौर पर तथाकथित पिछड़े बच्चों की तमाम पृष्ठभूमि की झलक मिलती है। इतना ही नहीं बल्कि इनके द्वारा चुने गए रंगों को पीछे भी इनके अपने तर्क और रंगों के विकल्प साफतौर पर दिखाई देंगे। इस विमर्श को अंजाम देने के लिए इन बच्चों से बातचीत जरूरी था। पहले इनसे रंगों की पसंदगी और चीजें को देखने की दृष्टि को समझना आवश्यक था। इनसे पहली मुलाकता में कुछ भी हा्राि नहीं लगा। बार बार इनसे संवाद स्थापित करने की कोशिश करता रहा। अंत में इनसे बातचीत मुकम्मल हो सकता। इनमें ‘सेव द चिल्डन’ के प्रदीप की मदद को नजरअंदाज नहीं कर सकता। इन्होंने बच्चों से बातचीत में एक सेतू का काम किया। वह सेतू जिस पर चल कर रंगों की इनकी दुनिया में उतरने में मदद मिल सकी। इनकी पेंटिंग्स को देखते वक्त सबसे पहला सवाल यही उठा कि इनकी रंगों की दुनिया इतना सूना क्यों है? क्या वजह है कि इनके बनाए सूरज, पेड़, पहाड़ व अन्य रोज मर्रे की चीजों अपनी रूढ़ स्वरूप में क्यों नहीं आ पाई हैं। इस सवाल का परत दर परत तब खुलता चला गया जब इनसे खुल कर इनकी पेंटिंग्स में इस्तेमाल रंगों के चुनाव में सोच पर बातचीत हुई। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े इन बच्चों की पेंटिंग्स से गुजरते वक्त सोचने पर मजबूर हुआ कि इनकी पेंटिंग में घर खाली क्यों है? इन घरों में न तो कोई झरोखा है और न कोई माकूल दरवाजे। और तो और घर में छत और छत से लटकते पंखे आदि कुछ भी नहीं हैं। वास्तव में खुल आसमान या पार्क या फिर फ्लाइओवर के नीचे जीवन बसर करने वाले बच्चों की दिमाग छत की कल्पना ही नहीं कर पाती। यदि किसी के पास घर कहलाने वाली कोई चीज है तो वह है झुग्गी। जिसे अक्सर स्थानीय पुलिस उखाड़ने पर आमादा रहती है। ऐसे में एक बंद कोठरी ही इनकी कल्पना को उजागर करती है। बगैर खिड़की, पंखे, रोशनदान एवं रसोई कोने के इस घर में बच्चों की कैसी दुनिया बनती बिगड़ती होगी, इसकी कल्पना शायद हम न कर सकें। खिलौनों के नाम पर सड़क पर पड़े पत्थर, रात में पीकर फेकी गई बाॅटलें आदि बेहद आम एवं बेकार चीजें होती हैं। ऐसे में बारह वर्षीय आरिफ़ जिसे ककहरा एवं अंग्रेजी के अल्फाबेट्स लिखने एवं पहचानने की कमाई है, की बनाई पेंटिंग ने खासकर आकर्षित किया। क्योंकि इसकी पेंटिंग में जो कहलाने के लिए घर था वह नितांत खाली था। सदस्य विहीन इस घर ने उससे जानने की ओर धकेला कि क्या वजह है कि उसके घर में कोई भी सदस्य नहीं है। पूछने पर बताया कि पापा फैक्टी गए हैं। मां कोठी में काम करने गई है। भाई-बहन पार्क में खेलने गए हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर सात वर्षीय विजय ने अपने खाली घर को लेकर जो जवाब दिया वह चैंकाने वाला था। उसने कहा- ‘मम्मी- पापा भगवान के पास चले गए। इसलिए घर खाली है। और पूछने पर पता चला कि दरअसल उसकी मम्मी तीन महीने पहले किसी और के साथ भाग गई। पापा दिन भर पीते रहते हैं। उसने शर्म की वजह से कहानी गढ़कर सुना दिया। गहराई से परखने के बाद यह मालूम चल सका कि इन बच्चों को रंगों, चीजों की बुनियादी समझ तक नहीं है। हो भी कैसे, जिनका घर, परिवार, आस-पड़ोस, यार-दोस्त सब सड़क पर ही रहते हैं। ऐसे में किनसे रंग और रेखाओं, चीजों की समझ की उम्मीद की जाए। लेकिन वहीं कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो अपनी कबाड़ की कमाई से कभी कभार फिल्म के जरीए या हकीकत में चीजों से रू-ब-रू होते हैं। लेकिन यह भाग्य की बात नहीं बल्कि उनकी मेहनत रंग लाती है। जिसे जितना मोटा कबाड़ मिला उसकी कमाई उसी के अनुसार हुई। इन बच्चों में पढ़ने को लेकर ललक तो है लेकिन घर परिवार की आर्थिक स्थिति इन्हें इज़ाजत नहीं देती। नेहरू प्लेस, दिल्ली का रहने वाला दस वर्षीय आलीम की मानें तो मुझे बड़ा अफ्सर बनना है वह बड़ा अफ्सर जो दफ्तर में बैठा करता है। जिसके पास गाड़ी होती है। मैंने भी गाड़ी पर चलना चाहता हूं। लेकिन कबाड़ नहीं चुनूंगा तो अब्बू मारते हैं। आलीम, प्रशांत, पूजा, अनिशा, राजकली कुछ ऐसे बच्चे हैं जो तमाम खींचतान के बावजूद पढ़ने की भूख मिटाने की जुगत में होते हैं। यही वजह है कि इन्हें अ, आ और ए बी सी, वन टू थ्री जैसी बुनियादी तालीम की रोशनी है। यदि इन्हें वक्त पर समुचित खाद पानी मिल सका तो निश्चित ही एक आम सामान्य बच्चों की पांत में बैठ सकते हैं। इनकी रंगों की दुनिया कुछ फैलाव लिए हुए हैं। इनकी समझ और कल्पना की सीमा इन्हीं के समुह के अन्य बच्चों से ज्यादा व्यापक है। इनकी पेंटिंग्स में गाड़ी, बाईक आदमी भी होता है लेकिन वह एक रूढ़ अर्थों में ही आते हैं। इनकी आंखों में फौजी बनने से लेकर डाक्टर और मास्टर बनने के सपने खलबला रहे हैं। यदि इन वंचितों की आंखों में बसे सपने को साकार नहीं कर पाते तो यह निश्चित ही तमाम विकास थोथा कहा जाएगा।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...