Saturday, August 6, 2011

इक बूंद जो अब की तब -कब .....

  इक बूंद जो अब की तब -कब ..... 
जीवन में हमारे कई काम और कई प्रोजेक्ट यूँ ही लटके होते हैं अनिर्णय के शिकार. पकने की प्रतीक्षा में. आसमान से तो टपक गए लेकिन बिजली के तार पर लटक गए. कब टपकेंगे. इंतज़ार में होते हैं.
हम वेट करते हैं कब गिरोगे मेरे दोस्त ,  और कब तक इंतज़ार करना होगा. पके फल पेड़ से गिरते हैं तब न पेड़ रोता है और न फल.
दोनों को पता होता है गिरना तो है मगर समय पर. समय से पहले कोई बिछुड़ जाए या चाहए रुक्षत तो पीड़ा तो होगी ही.
इस अलगावो को कोई मुकम्मल नाम देना कोई ख़ास मायेने नहीं पर इस टपकने की हुक  टा उम्र सहनी पड़ती है.       

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