Thursday, January 25, 2018

तक़सीम, फिल्म विवाद और बच्चे



कौशलेंद्र प्रपन्न
देश के साथ तक़सीम की कहानी सत्तर साल से भी ज़्यादा पुरानी हो चुकी। लेकिन आज भी लगता है कि हम रोज़दिन एक तक़सीम, एक टीस और एक पीड़ा से गुज़र रहे हैं। हाल ही में एक फिल्म को लेकर देश भर में कई सारी महत्वपूर्ण घटनाओं को पीछे धकीया कर एक फिल्म पर सारा देश उबल रहा है या उबाला जा रहा है।
बच्चों से भरी बस को निर्ममता से तोड़ फोड़कर आग लगाई गई। बच्चों की पुकार, रूलाई साफ़ सुनाई दे रही थी। बस जिसे सुनाई नहीं दे रही थी। वही उस घटना को अंज़ाम देने में लगे थे। देश के विभिन्न कोनों, शहरां, राजधानियों से ख़बरें लगातार आ रही हैं। कमाल की बात यह है कि न्यायपालिका सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभा चुकी। किन्तु कार्यपालिका और लोकतंत्र के पहरूओं की नींद नहीं खुल रही है।
एक ओर हमारा समाज अत्याधुनिक संसाधनों से लैस हो रहा है वहीं हम उसी रफ़्तार से पीछे की ओर भी जा रहे हैं। जिस तेज़ी से अहिष्णुता हमारे बीच पसर रही है उसे देखते हुए लगता है कि हम किस समय में जी रहे हैं। विरोध और समवैचारिक बात को हमस ह नहीं पा रहे हैं। क्यों हम चाहते हैं कि सभी मेरी ही ज़बान बोलें। क्यों सभी आपकी हां में हां मिलाएं। लेकिन यही ज़िद्द है कि तमाम फ़सादों को जन्म दे रही है।
तक़सीम पर बात शुरू हुई थी। इसके पीछे मकसद यही था कि वह बेशक 1947 में घटित हुई। किन्तु रोज़दिन व्यक्ति अलग अलग नामों से तक़सीम की पीड़ा को सह रहा है। कई सारी ट्रेनें वाघा बॉडर पार कर चुकीं। कई सारी बसें हमारे बीच चलीं और रूकीं किन्तु दोनां मुल्कों के बीच की हवाएं आज भी आपसी रवादारी को भूली नहीं है। न ही उम्मीद छोड़ी है कि कभी तो ऐसा मंज़र आएगा जब दोनों के बीच सहज और सुगम आवा जाही हो सकेगी। 
विवाद किस पर और क्यों किसके द्वारा अमलीजामा पहनाया जा रहा है इसकी पहचान ज़रूरी है। तब विवाद और संवाद की संभावनाओं की तलाश की जा सकती है।

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