Wednesday, January 10, 2018

1947-48 के बाद का मंज़र



1947-48 के बाद का मंज़र
कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1947-48 इतिहास का वह का वह कालखंड़ है जब न केवल ज़मीन का बंटवारा हुआ बल्कि कई ज़िंदगियां भी तक़्सीम हुईं। इधर और उधर के लाखों लोगों के सपने बिखरे और टूटे भी। यह ऐसी घटना थी जिसमें न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान भी तबाह हुआ। आज जब हम उन वर्षों को याद करते हैं तो आज भी आंखें नम हो जाती हैं। आंखें सूनी सूनी हो जाती हैं।
इस तक़्सीम को सामाजिकों ने अपने अपने तरीके से महसूस किया। उसे याद किया और कहानी कहने की कोशिश की कि वह कहानी नहीं थी। वह उपन्यास नहीं था। न ह ीवह नाटक था। बल्कि लोगों के ख़ून से लिखी जा रही स्मृतियां थीं जिन्हें भूलाए नहीं भूल सकते। जिन्ने लौहार नई वेख्या ते जनमिया नई, कितने पाकिस्तान, ट्रेन टू पाकिस्तान, टोबा टेक सिंह, खोल दो, आजादी की छांव में आदि कहानी, उपन्यास और नाटक लिखे गए। यह एक साहित्यकार भी अभिव्यक्ति थी। यह एक संवेदनशील नागर समाज की तड़प थी जो पन्नों पर उतरती चली गई।
हाल ही में शिवना प्रकाशन ने एक नहीं बल्कि दो किताबें ऐसी छापी हैं जिन्हें पढ़ना मतलब 1947 के मंज़र को जीना है। उन घटनाओं से रू ब रू होना है जिसे तब के परिवारों ने सहा और जीया। एक 1947 दिल्ली से कराची वाया पिंडी सबूहा ख़ान की लिखी है। यह कविता या कहानी नहीं बल्कि एक संस्मरण है। जब सबूहा को महज इतना भर याद रह जाता है कि दिल्ली में उनके घर में काले और सफेद रंग की टाइल्स लगी हुई थीं। अम्मी बड़ी ख़ानदान की बेटी थीं और पापा रोहतक के पास के गांव से आते थे। अम्मी की ज़िद्द के आगे दिल्ली बस गए थे। 1947 में तबाह और मजबूर हो कर सबूहा का परिवार कराची कूच कर जाता है। रास्ते में रेलगाड़ी में खचाखच भीड़ उसमें एक महिला प्रशव पीड़ा से परेशान होती है जिसकी हिफाज़त उसकी मां करती हैं।
पाकिस्तान में दूसरे के घर पर कबजा किया जाता है। वहीं रहती हैं। अम्मी इतनी मज़बूती से पेश आती हैं कि कलक्टर से भी लड़ पड़ती हैं और वह हवेली उनकी हो जाती है। फिर भी सबूहा को भारत और कभी कभार याद आता है। पाकिस्तान तो उनका बचपन और युवावस्था का देश रहा। इस किताब में सबूहा कहती हैं कि कहानी कई बार हमें जीवन की सच्चाई से दूर करती है। और यह कहानी नहीं बल्कि मेरा भोगा हुआ यथार्थ है।
यदि यह किताब मिले तो पढ़ें ज़रूर। 

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