Tuesday, January 16, 2018

कहने को बहुत है मगर...




कौशलेंद्र प्रपन्न
सबके पास कहने को बहुत है मगर किससे कहें और कैसे कहें यह मसला है। मसला तो यह भी है कि कब अपनी बात को कही जाए। हर व्यक्ति के पास हज़ारों दास्तां है मगर वक़्त और व्यक्ति के अनुरूप नहीं कह पाते। कहना था कि हज़ारां बातें कई बार अनकही ही रह जाती हैं। और न कहने वाली बात ज़बां पर आ जाती है।
सीधी सी बात है कि जब हम कहते हैं तो कहना क्या चाहते हैं पहले उसी को तय कर लें। और जब कहना क्या है तय हो चुका उसके बाद कैसे कहना है वह फॉम हमें चुनना पड़ता है। कहन के अनुसार फॉरमेट का चुनाव बेहद ज़रूरी हो जाता है।
कहन में शैली यानी स्टाइल काफी मानीख़ेज़ है। यदि सही तरीके से सही शब्दों के माध्यम से नहीं कहा गया तो पूरा का पूरा कंटेंट ख़राब हो जाता है। कई बार बेहतर कंटेंट की भी हम हत्या कर बैठते हैं। यदि हमने सही शब्दों और फॉम का चुनाव नहीं किया तो। इसलिए कम से कम भाषा और शब्दां से खेलने वालों को अपनी शैली और कहन पर तो काम करने ही पड़ते हैं।
हमारे सामने कई लेखक,कवि, कथाकार आदि हैं जो बेहतर कहानी, कविता लिखते हैं। वो लोग अपनी शैली और भाषा पर बड़ी ही शिद््दत से काम करते हैं। वरना दूसरी तीसरी रचना के बाद वे पाठकों की दुनिया से उतर से जाते हैं। क्योंकि कब तक कोई पुरानी फसलों पर ज़िंदा रह सकता है।
यदि भाषाकर्मियों को जिं़दा रहना है तो उन्हें अपनी भाषा, कहन और शैली पर तो ठहर कर काम करना ही होगा। जैसे हमारे समय में कई लेखक हैं जो अपनी भाषा को लेकर ख़ासा गंभीर होते हैं। उन्हें पढ़ना एक तरह से अपनी भाषा को गढ़ने जैसा होता है।

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