Tuesday, January 30, 2018

यमुना से एक शाम मुलाकात



कौशलेंद्र प्रपन्न
कल आफिस से लौटत वक़्त शाम हो गई। मेट्रे से गुज़रते हुए पहली बार शाम में यमुना को देखा। ऐसी यमुना शायद पहले नहीं देखी थी। शांत, धीर गंभीर अपने कालेपन के साथ लेटी थी। उसपार का नज़ारा भी दिलचस्प था। रोशनी से झिलमिलाती यमुना और यमुना पार कुदसिया किनारा। निगम बोध से उठते धुएं भी दिखाई दिए। जो लोग अब कभी शाम और सुबह से गवाह नहीं होंगे। जिन्हें अब नौकरी पर जाना नहीं होगा। पता नहीं क्यों जब जब निगम बोध घाट को यमुना के इस पार यानी शास्त्री पार्क की ओर आते वक़्त देखता हूं तो ऐ अज़ीब सी बेचैनी और सूनापन महसूस होता है। गोया कोई मुन्तज़िर है। कोई धीमी आवाज़ में पुकारने की कोशिश कर रहा है। इसी निगम बोध पर मैंने भी अपने तीन बुज़ूर्ग को सुलाया है। हमेशा हमेशा के लिए।
यमुना तो शांत थी ही मन किया हिला कर, टोटलकर पूछूं कि कैसी रही शाम और दिन कैसे कटा। कितने लोग अंतिम यात्रा में तुमसे मिलने आए। आदि लेकिन यमुना भी क्या जवाब देती सो पूछना रह गया।
व्यास और झेलम से भी मुलाकात हो चुकी है। साथ ही हिन्द नदी से भी लेह में मिल चुका हूं। जब हिन्द नदी और मिलते देखा तो वहां वो कितने तेज़ रफ्तार में थी। जहां मिल रही थी वहां हरे और मटमैले रंगों की चादर ओढ़े मिल रही थी। कि जैसे दोनों बहने न जाने कितने मुद्दत बाद मिल रही हों। आपस में बतिया रही हों कि किन किन मोड़ और मुहानों से गुज़र कर आ रही हैं।
नदीयां भी कितनी निर्वासन की जिं़दगी बसर करती हैं। अकेले जंगल,पहाड़, पत्थरों से टकराती बिन कुछ कहे बहती रहती हैं। कई बार मन में एक हूक सी उठी और पूछने को आगे झुका व्यास बोलो तो कितनी निर्लिप्त रहती हो। कैसे रह पाती हो। चुपचाप कैसे बह लेती हो। लेकिन म नही मन सुन भी लेता हूं उसके जवाब को कि यही तो नियति है।
सोन जहां मैं जन्मा। देश की ऐसी नदी नहीं बल्कि नद है। जिसकी पूजा नहीं होती। नद माने पुरुष। और ताज्जुब कि उस नद को तथाकथित अभिशाप मिला हुआ है। उसका पूजा कोई नहीं करता। अमरकंटक मध्य प्रदेश से निकल कर हमारे यहां आता है। और आगे चल कर आरा के पास मिल जाता है। यह मिलना और फिर मिलना किसी और नदी में। अपने आपको समृद्ध करना ही तो है। अपने अस्तित्व और पहचान को दूसरे में मिला लेना कोई आसान काम नहीं है।
सो कल शाम जिस यमुना से मिला वो शांत और अकेली थी। बस थीं तो किनारे। गाड़ियों की रोशनी और स्टी्रट लाइट से मुनव्वर होती यमुना थी। कल ही तो मिला। जहां अलग अलग प्रांतों से आए और यमुनावासी हो गए। शायद यहां गहरी नींद लेंगे।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...