Thursday, January 4, 2018

बुध्या मान कोनी



कौशलेंद्र प्रपन्न
कार्यशाला में तरह तरह के लोग होते हैं। कुछ इसी सोच से आते हैंं कि पढ़ाकर दिखाओ तो जानें। आप ही ज्ञानी हो हम क्या निरी ख़ाली हैं?
ऐसे लोगों से रू ब रू होना बड़ा ही दिलचस्प होता है। इन दिनों चल रही हिन्दी की कार्यशाला में ऐसे ही एक बुधना से मुलाकात हो रही है। हर बात पर अड़ जाते हैं। हर शब्द पर सवाल और तर्क करते हैं कि यही क्यों है? ऐसे ही क्यों लिखें। त्यौहार ही लिखते और पढ़ते आए हैं। इसमें क्या ग़लती है आदि। अपने तर्कों से सत्र को चलने नहीं देते। गोया संसद हो। अड़ गए तो अड़ गए। हम सत्र को चलने नहीं देंगे।
शब्दों के साथ तो एक पूरी कहानी और विकास यात्रा भी हुआ करती है। कभी विद्या लिखा करते थे। कभी दौर था जब शुद्व लिखा करते थे। लेकिन समय बदला और लेखन के स्तर पर विद््वानों से राय दी कि हम अब हिन्दी के लेखन स्तर पर अब कुछ इस तरह से लिखा करेंगे। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ने समिति बनाई और कुछ मानक शब्दों की लेखन रूपों को स्थाई किया। इसमें काफी पैसे और मैनपावर खर्च हुए होंगे। लेकिन बुधना मानने को तैयार नहीं कि हम क्यों मानें कि यही प्रमाणिक है।
मैंने उन्हें बताया कि आप जब भी दुविधा में हों तो कायदे से स्थापित और सर्वमान्य ग्रंथों में जवाब तलाशें। मसलन अरविंद कुमार समानांतर कोश, हरदेव बाहरी, फादर कामिल बुल्के जैसे कोशों में देखना चाहिए। इस पर जनाब ने फिर तर्क पेश किया इन्हें हम कैसे मानक मान लें। इन्हें ही क्यों मानें।
बुध््ना मान कोनी। नहीं मानें तो नहीं मानें। अपने अपने तर्क पेश करते रहे। अंत में मुझे कहना पड़ा कुतर्कों का अंत नहीं। सो यदि आपको नहीं मानना तो नहीं मानें। कम से कम बच्चों का ख़्याल करें। वे बच्चे आपको मानक मानकर चलते हैं।
ख़ुद साहब के खे गे उच्चारण कर रहे थे। जब कहा गया कि क ख ग बोलें तो फिर उन्हें अड़ना था सो अड़े। यह तो मेरी मात्री भाषा है। इससे कैसे अलग हो सकते हैं। अब ऐसे प्रतिभागियों से कई बार पूरी कक्षा परेशान तो होती ही है साथ पढ़ाने वाला बार बार उन्हें संतुष्ट करे या फिर उन्हें नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ जाए।
सेचना तो बनता है !!!

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