Monday, January 22, 2018

बसंत कहां हो भाई...



कौशलेंद्र प्रपन्न
बसंत कहां हो भाई नज़र नहीं आते। तब तो तुम पीले पीले सरसों के संग खेत खलिहान में दिखाई दे दिया करते थे। अब तुम्हारे आस-पास से हाइवे निकला करती हैं। तुम तो सिमटते जा रहे हो। हां सड़कों की चौड़ाई बताती हैं कि खेत जहां तुम लहराया करते हो वह सिकुड़ती जा रही है। बल्कि एक मुट्ठी में समा गए हो।
कभी तुम्हीं पर निराला ने कविताएं लिखीं। तुम्हीं पर गीत लिखे गए। अब न खेतों में तुम हो, न मन में मयूर की तरह थिरकते हो। न लहराते हो फिर काहे का बसंत और किस बात के मौसमों के आने पर खुश हों।
जब तुम आया करते थे। जब सर्दियां हुआ करती थीं। गरमी भी। हेमंत भी। अब तो गोया सारी ऋतुएं जाने कहां किस अंतरिक्ष में बिला गई हैं। और एक ही मौसम हमेशा सवारी करता है वह है गरमी।
देखा ही है तुमने कि किस प्रकार ग्लेशियर पिघल रही हैं। कैसे जंगल कट कट कर कंक्रीटों के शहर में तब्दील हो रहे हैं। जमीन और मिट्टी तो बस शायद खेत-गांव के हिस्से ही महदूद हो गए।
हां कभी तुम आया करते थे। केदारनाथ सिंह की कविता में ठिगना चना मुरेठा बांधे आया करता था। हम अब उसे छोलिया के तौर पर ही जानते हैं।
आज बसंत पंचमी है। यानी ज्ञान-विद्या की मातृशक्ति सरस्वती का दिन। इस दिन मुझे राजेंद्र मिश्र जी ने खरी छुआई थी। यानी पहली दफ़ा स्लेट पर चॉक से लिखवाया था। तब से जो शब्द हाथों से चिपके आज तक नहीं छूटे। हां राजेंद्र बाबू जो हमारे संस्कृत के गुरु थे वो भी संसार से छूट गए। मगर उनकी वाणी और शब्द आज भी मुझे में जीया करते हैं।
शब्द शायद ऐसे ही गमन किया करते हैं। भाषा भी इसी तरह कई मोड़ मुहानों से होती हुई हमारी जिं़़दगी में घर बना लेती है।
सभी शब्द, ज्ञान श्रमिकों को बसंत पंचमी की बधाई।

1 comment:

Unknown said...

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