Tuesday, January 23, 2018

रवीश अकेला क्या करेगा जब कूप में ही भंग पढ़्यो हैं...



कौशलेंद्र प्रपन्न
रवीश जी की रिपोर्टिंग और स्टोरी का चुनाव सच मायने में पत्रकारिता को मानीख़ेज़ है। इन्होंने गए साल के आख़िर के दो महा तक लगातार टीचर, विश्वविद्यालय आदि की ज़मीनी हक़ीकत को उजागर किया। उस पर सरकार की नींद नहीं खुलनी थी सो नहीं खुली। पिछले दिनों रवीश जी ने सरकारी नौकरियों के मकड़जाल को साफ करते हुए स्टोरी कर रहे हैं। इन्हें ज़रूर देखा जाना चाहिए। बल्कि नागार समाज को अपनी आवाज़ भी बलंद करने की आवश्यकता है।
रवीश जी ने बिहार, झारखंड़, राजस्थान आदि राज्य कर्मचारी आयोगों की कलई खोली। कहां तो नौकरियों के विज्ञापन 2015त्र 2016 आदि में प्रकाशित हुए। परीक्षाएं हुईं। मगर पास करने वालों को अब तक नौकरी नहीं मिली।
युवाओं की आंखों में सरकारी नौकरी के सपने तो खूब भरे बल्कि ठूंसे गए लेकिन वे सपने आज तक पूरे नहीं हुए। किसी की आयु निकल गई। कोई घर के खर्च चलाने में सपनों को झोंक दिया। शादी हो गई तो वे सपने भी अधूरे ही रहे। कुछ के आंसू अब तक नहीं सूखे। बल्कि सपने संजोने वाली आंखों में एक जलन है। टीस है और ज़िंदगी में पिछड़ जाने की डभकन है।
रवीश जी अक्सर बताते हैं कि संसाधन की कमी है इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से स्टोरी नहीं ले पाते। लेकिन जितनी भी स्टोरी की हैं वो हमारी आंखें खेलने वाली हैं। इनका एक वाक्य है- जनवरी में आम खिलाउंगा। दो पूरी और खा लीजिए। आदि कितनी सहजता से व्यंग्य में बड़ी टीस की बात को कही जाए यह कौशल रवीश के पास है।
माफी चाहता हूं। यहां मैं रवीशीय गाथा गान नहीं कर रहा हूं। बल्कि वर्तमान की टीस को कोई पत्रकार कैसे और कब उठाए इसकी ओर इशारा करना मेरा मकसद है। जब तमाम मीडिया घराने उनकी बाइट्स दिखाने, और अन्य मसलों में अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। ऐसे समय में कोई तो है जो सरोकारी मुद्दे को ज़िंदा रखता है। पूरी शिद्दत से उठाने का माद्दा रखता है। 

1 comment:

घुघुती said...

रवीशजी जैसे ईमानदार और सजग पत्रकार के हर क़दम पर जितने रोड़े अटकाए गए और जा रहे हैं,फिर भी जिस बुलंदी से वे अपनी बात रखते आ रहे हैं, कम से कम कुछ मिडियाकर्मी तो आत्मबोध करें!

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